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जन-मंगल धर्म के चार चरण
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पर्यावरण रक्षा और अहिंसा
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-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि पर्यावरण संतुलन और पर्यावरण सुरक्षा का प्रश्न आज प्रबुद्ध जैन दर्शन के अनुसार इस पृथ्वी का आधार है घनवात। जनों और विज्ञानवेत्ताओ के लिए ही नहीं, जनसामान्य के लिए भी घनवात आधारित है धनोदधि पर और वह आधारित है तनुवात चिन्तनीय विषय हो गया है। सर्वत्र इस सुरक्षा के लिए प्रयत्नशीलता पर। यही पर्यावरण का रचना-विधान है, जो विज्ञान से भी मेल दृष्टिगत होती है। इस की सुरक्षा के लिए, प्रदूषण निरोध के लिए खाता है। पृथ्वीतल से ऊपर २० मील की दूरी तक से १000 व्यापक स्तर पर जन चेतना विकसित की जा रही है।
मील तक वायुमण्डल है। उच्चतम भाग लगभग ७00 मील मोटीई यह प्रश्न है ही इतना महत्वपूर्ण। इसकी अनदेखी करना आत्म
में है जो एक्सोस्फेयर के नाम से जाना जाता है जो वायुमण्डल का हनन करना ही सिद्ध होगा। यह भी सत्य है कि मानव सृष्टि को
अत्यन्त पतला-विरल भाग है। इससे नीचे लगभग २५० मील की महाविनाश से बचाने के लिए पर्यावरण की सुरक्षा अनिवार्य है
परत कुछ मोटी है, वायु वहाँ कुछ सघन हो गयी है, इसे और इस की गम्भीरता से अवगत आज की मानव जाति इस दिशा
एग्नोस्फेयर कहा जाता है। सबसे नीचे का भाग ओजोनस्फेयर में सचेष्ट भी हो गई है।
कहलाता है जो पृथ्वी में २० मील ऊपर से ५० मील की मोटाई
में है। ये ही जैन दर्शन में वर्णित तीन वात क्रमशः तनुवात, पर्यावरण की सुरक्षा के लिए अहिंसा अमोघ साधन सिद्ध
घनोदधिवात और घनवात हैं। होगी-इस विचार में रंचमात्र भी संदेह नहीं किया जा सकता है। यह पर्यावरण है क्या? इससे मानव जाति को अस्तित्व के संकट
प्राणिजगत का रक्षा आवरण यही ओजोनस्पेयर है। इस पर्त में का सामना क्यों करना पड़ रहा है? अहिंसक उपायों से इस संकट
ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में है जो प्राणियों को सांस लेने के लिए को कैसे लुप्त किया जा सकता है? ये ही इस लेख के विचारणीय
अनिवार्य होती है। यह ऑक्सीजन गैस जब अत्यन्त सघन रूप में प्रमुख विषय हैं।
होती है तो ओजोन कहलाती है। आज का जो पर्यावरण संकट है
वह इसी ओजोन पर्त की दुरवस्था के कारण है। पृथ्वी को यह पर्यावरण क्या है?
बाहर के प्रहारों से बचाने वाला कवच है-इसे सुदृढ़ और सम्पूर्ण परि एवं आवरण-इन दो शब्दों के योग से बने यौगिक शब्द पृथ्वी को सुरक्षित रखकर ही मनुष्य स्वयं अपनी जाति और प्राणी पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है-भली प्रकार ढकने का साधन, सभी वर्ग को सुरक्षित रख सकता है। ओर से घेरे रखने वाला। इसका अर्थ है, यह वह घेरा है जो पृथ्वी
ओजोन पर्त : अस्तित्व का संकट को सभी ओर से आवृत, आच्छादित किए हुए है और यह आच्छादन भी सप्रयोजन है। इस आवरण से पृथ्वीतल की बाह्य
इस ओजोन पर्त का हम पर बड़ा उपकार है। सूर्य तो प्रचण्ड संकटों से सुरक्षा होती है।
अग्नि का विशाल गोला है। पृथ्वी के समीप आते आते भी उसकी
दाहक क्षमता इतनी अधिक रहती है कि वह पृथ्वी पर संकट लाने वास्तव में पर्यावरण विभिन्न गैसों की एक संतुलित संरचना है।
के लिए पर्याप्त है। सूर्य-किरणों में कोस्मिक, अल्ट्रा-वायेलेट आदि इस संतुलन में ही पर्यावरण की रक्षक क्षमता निहित है और इसके
अनेक प्रचण्ड विघातक किरणें हैं जो पृथ्वी पर सीधी पहुँचें तो असंतुलन या प्रदूषित होने में ही संकट है। इस संकट की स्थिति को
प्राणियों का सर्वनाश हो जाए। ओजोन इन्हें परावर्तित कर पुनः समझने की दिशा में अग्रसर होने के लिए यह अपेक्षित हो जाता है
पृथ्वी से दूरतर कर देता है। अस्तित्व के इस संकट में पृथ्वी तल कि पर्यावरण की संरचना का ज्ञान कर लिया जाए, यह जान लिया जाए कि यह किस संकट से बचाने की क्षमता किस विशेषता के
के प्राणियों के लिए ओजोनस्फेयर एक सक्षम सुरक्षक बना हुआ है।
यदि यह न होता तो प्राणियों का अस्तित्व भी नहीं, होता। यही नहीं कारण रखता है।
यदि अब भी ओजोन दुर्बल होने लगे तो अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो यह विशेष रूप से ध्यातव्य है कि मात्र पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह
सकती हैं जिनमें से कुछ तो अत्यन्त विषम भी हो सकती हैं। है जिस पर प्राणियों का अस्तित्व है। बृहस्पति, मंगल, शुक्र, चन्द्रमा
यह कवच क्षतिग्रस्त हो जाए तो सूर्य की किरणें सीधी आदि कहीं भी जीवन के चिन्ह नहीं मिले हैं। इसका कारण यह है कि अन्य ग्रह उपग्रहों का अपना पर्यावरण नहीं है, केवल पृथ्वी के
पहुंचकर पृथ्वी पर प्रचण्डतम ताप की सृष्टि कर देंगी। विशाल
हिमाच्छादित क्षेत्रों का हिम द्रवित हो जाएगा यह अपार जल राशि साथ यह विशिष्ट सुविधा संलग्न है। आज जब प्राणों के आधार इस पर्यावरण के दुर्बल होने के कारण संकट उत्पन्न हो गया है तो
प्रलय की स्थिति उत्पन्न कर सकती है। वह प्राणियों के लिए ही है और प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य ही इसके कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि प्राणियों के उपयोगार्थ समुचित लिए सर्वाधिक चिन्तित भी है।
मात्रा में जल की उपस्थिति पृथ्वी पर है-उस भयंकर ताप से वह
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । जल भी सूख जाएगा-समस्त वनस्पति और प्राणी जल कर भस्म हो । जल को दूषित कर रहा है और अपने अस्तित्व को ही संकट में जाएंगे। सब कुछ स्वाहा हो जाएगा। आज प्रदूषण और पर्यावरण डाल रहा है। यह अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारना है। सभी संतुलन का जो हडकम्प मचा हुआ है, इसका मूल कारण ही यही है । नदियों, सरोवरों का, यहां तक कि समुद्र का जल भी प्रदूषित होने कि पर्यावरण को खतरा उत्पन्न हो गया है। दक्षिणी ध्रुव के उपर तो लगा है। उद्योगों से निसृत गंदा जल, कूड़ा, करकट नदियों में बहा
ओजोन पर्त कुछ क्षतिग्रस्त हो भी गयी है। इसी कारण सभी दिया जाता है। विषाक्त पदार्थों को नदियों में विसर्जित करने में भी चिन्तित हैं।
मनुष्य हिचकता नहीं है। अस्थि विसर्जन ही नहीं, शवों को भी अस्तित्व का यह संकट पर्यावरण के असंतुलन के कारण ही ।
नदियों में बहाया जाता है। महानगरों की सारी गंदगी और कूड़ा उत्पन्न हुआ है और असंतुलन का मूल कारण है प्रदूषण। ये प्रदूषण
करकट बेचारी नदियां ही झेलती रही हैं। फिर अदूषित, शुद्ध जल अनेक प्रकार के हैं। इनमें से प्रमुख हैं--
भला बचे! तो कैसे बचे। पेयजल की आपूर्ति के लिए इस मलिन,
प्रदूषित जल को क्लोरीन से स्वच्छ करने का प्रयत्न किया जाता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति प्रदूषण।
इसका भी दोहरा दोष सामने आया है। एक तो क्लोरीन मिश्रित इन उपर्युक्त प्रदूषणों से पर्यावरण की घोर हानि हो रही है
जल मनुष्य के लिए रोगोत्पादक हो जाता है और दूसरा यह कि और इनकी तीव्रता उत्तरोत्तर अभिवर्धित भी होती ही चली जा रही
प्रदूषित करने वाले कीटों के साथ-साथ क्लोरीन से जल के वे है। जैन दृष्टि से तो अहिंसा द्वारा पर्यावरण की सुरक्षा का सार्थक
स्वाभाविक कीट भी नष्ट हो जाते हैं, जो जल को स्वच्छ रखने का और सफल उपाय किया जा सकता है। स्पष्ट है कि हिंसा ही इस
काम करते हैं, यह प्रत्यक्ष हिंसा है। जल को प्रदूषित करने वाले महाविनाश के लिए उत्तरदायी कारण है। जिनेश्वर भगवान महावीर
अन्य हिंसक कार्यों में पेट्रोल, तेजाब आदि को समुद्र और नदियों में ने सूक्ष्मातिसूक्ष्म से लेकर विशालकाय सभी चौरासी लाख
बहा देने की घातक प्रवृत्तियां भी हैं, जिनका कर्ता यह नहीं जीवयोनियों के सुखपूर्वक एवं सुरक्षित जीवन का अधिकार मान्य
समझ पा रहा कि अन्ततः इस सबको करके वह किसकी हानि कर किया। मानव जाति को किसी का घात न करने का निर्देश देते हुए महावीर स्वामी ने यह तथ्य प्रतिपादित किया था कि सभी जीव
रहा है। जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता। सभी को सुख ही प्रिय वायु जीवन के लिए स्वयं ही प्राणों के समान है। वायु ही है, दुःख किसी को नहीं। अतः दूसरे सभी प्राणियों को जीवित रहने ऑक्सीजन की स्रोत है और ऑक्सीजन के बिना प्राणी का कुछ में सहायता करो। जीवों को परस्पर उपकार ही करना चाहिए। पलों तक जीना भी असम्भव है। मनुष्य के दुष्कृत्यों ने ऐसी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति-इन सभी में जैन दर्शन | जीवनदायिनी वायु को ही प्रदूषित कर दिया है। कार्बनडाई प्राणों का अस्तित्व स्वीकार करता है। अहिंसा इनकी रक्षा की प्रेरणा । ऑक्साइड की मात्रा वायुमण्डल में बढ़ती जा रही है और प्राण देती है। अस्तु, अहिंसा प्रदूषण पर अंकुश लगाकर पर्यावरण के । वायु न केवल दूषित, अपितु क्षीण भी होती जा रही है। उद्योगों की असन्तुलन को रोकने का सबल साधन बन जाती है।
बढ़ती परम्परा और वाहनों का बढ़ता प्रचलन कार्बनडाई ऑक्साइड भातावत करती चली आ रही है। के प्रबल स्रोत हो रहे हैं और वातावरण को दूषित घातक बना रहे मनुष्य ने जो उपभोग की प्रवृत्ति को असीम रूप से विकसित कर
हैं। जनाधिक्य भी ऑक्सीजन की खपत और कार्बनडाइ ऑक्साइड लिया, उसके कारण पृथ्वी का अनुचित दोहन हो रहा है और वह
के उत्पादन को बढ़ा रहा है। सांस लेना दुष्कर होता जा रहा है प्रदूषित हो गयी है। रासायनिक खादों का उपयोग धरती के तत्वों और सांस लेने वाले द्रुत गति से बढ़ते ही चले जा रहे हैं। अनेक को असंतुलित कर रहा है। कोयला, पेट्रोल और खनिजों के लिए रसायनों से विषाक्त गैसें और दुर्गन्ध निकलकर वायु को दूषित कर उसे खोखला बनाया जा रहा है। पृथ्वी रसहीन और दुर्बल हो रही रही है। यही प्रदूषित वायु प्रदूषित जल और पृथ्वी के सम्पर्क में है। धरती के ऊपर भी अनेक रसायनों की प्रतिक्रियाएं हो रही है। आकर और अधिक प्रदूषित होती जा रही है और अपने सम्पर्क से औद्योगिक कचरा और दूषित पदार्थों से भी वह प्रदूषित हो रही है। ओजोनस्फेयर को प्रदूषित कर रही है। मनुष्य की अहिंसा प्रवृत्ति भूगर्भ से पानी का शोषण तो होता रहा है, जनसंख्या वृद्धि और अब भी वायु को जीव मानकर उसकी रक्षा करने लगे तो वह स्वयं आवासन उपयोग के आधिक्य ने भी धरती की आर्द्रता को बहुत पर ही उपकार करेगा। घटा दिया है। अहिंसा वृत्ति को अपना कर धरा की रक्षा करना
अग्नि भी सप्राण है। इसकी रक्षा करना, इस पर प्रहार न हमारा परम कर्तव्य है।
करना हर मनुष्य के लिए करणीय कर्म है, यद्यपि यह चेतना भी जल तो जीवों का जीवन ही है। "जीवन दो घनश्याम हमें अब उसमें अभी अत्यल्प है। भोजन मनुष्य के लिए अनिवार्य है, तो जीवन दो"-श्लेष से जीवन का यहाँ दूसरा अर्थ जल से ही है। भोजन पकाने के लिए अग्नि भी अनिवार्य है। आधुनिक प्रचलन जल का जीवों पर भारी उपकार है। जल के बिना जीवन ही । ईंधन रूप में गैस के प्रयोग का हो गया है। भोजन पकाने के असम्भव है, किन्तु अपनी कृतघ्नता का परिचय देते हुए मनुष्य इसी साथ-साथ यह गैस कई हानिकारक गैसें भी बनाती है और
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________________ 0000000000000000000030002025 यम यम एलपकासापामा 000000000000000000000000000000000000000000dcade 2003030.000000000000000000JA / जन-मंगल धर्म के चार चरण वातावरण विषाक्त हो जाता है। उद्योगों में भारी-भारी भट्टियां और उसे देखकर उसकी आत्मघाती चेष्टाओं पर आश्चर्य होता है। प्रचण्ड ताप देने वाले अन्य अग्नि रूप प्रयुक्त होते हैं। इन सबसे / हमारी परम्परा में तो वृक्षों को पूज्य माना गया है। वनस्पति अन्य वायु ही नहीं धरती का तापमान भी असामान्य रूप से बढ़ जाता प्राकृतिक तत्वों को भी शुद्ध करती है। वायु को ऑक्सीजन देकर है, ज्वालामुखी फूटते हैं और भीतर की अनेक विषैली गैसें बाहर और कार्बन डाइ ऑक्साइड सोखकर परिशोध करने वाली वनस्पति आकर पर्यावरण को दूषित कर देती हैं। अनेक भारी-भारी आयुधों 1 है। प्रदूषित जल को सोखकर मेघ बनते हैं, मेघों को बुलाकर वर्षा के परीक्षण होते हैं, उपग्रह छोड़े जाते हैं-ये सभी तापवर्धक हैं। कराने में वनों की गहन और महती भूमिका रहती है। इस प्रकार बाहर का ताप धरती को भीतर से भी असामान्य बना देता है और मनुष्य को अदोष जलराशि दिलाने का काम वनस्पति करती है। भूकम्प जैसी महाविनाशक विभीषिकाएं घटित हो जाती हैं। वही क्षरण से मिट्टी की रक्षा कर वन एवं उपजाऊ धरती के समापन को रोकती है। ऐसी वरदा वनस्पति को अपनी अहिंसा वनस्पति प्रदूषण मानव के लिए सर्वाधिक घातक है। वनस्पति प्रवृत्ति का उपहार देकर रक्षित करना मनुष्य का परम धर्म है। का भी मनुष्य को कृतज्ञ रहना चाहिए। इसकी बड़ी पोषक और रक्षक भूमिका मनुष्य के लिए रहती है। यही उसे भोजन देती है, प्रकृति के पांचों तत्वों का ऋणी होना चाहिए मनुष्य को, इसमें फल देती है, औषधि देती है, अन्य जीवनोपयोगी साधन सुलभ | कोई संदेह नहीं। ये तत्व अहिंसक हैं और मनुष्य का घात करना कराती है। मनुष्य ने स्वकेन्द्रित होकर अपने तुच्छ और तात्कालिक तो दूर उसके वश में है ही नहीं, वे उसे सुखपूर्वक जीने में अपनी स्वार्थों के अधीन होकर इसी उपकारिणी वनस्पति का घात किया ओर से आधारभूत सहायता देते हैं। मनुष्य को भी यही भूमिका है। परिणाम घोर विनाशलीला में परिणत होना स्वाभाविक ही है। उनके प्रति निभानी चाहिए। यह परस्परोग्रह है। जीओ और जीने दो के सिद्धांत का जीवित रूप इन तत्वों में दृष्टिगत होता है-इनसे जो ऑक्सीजन प्राणवायु है उसका उत्पादक अभिकरण भी मनुष्य भी प्रेरणा ले, उनका अनुसरण करे तो वह स्वयं के वनस्पति ही है। मनुष्य द्वारा उत्पादित कार्बन डाई ऑक्साइड को साथ-साथ सारे मानव जगत् के लिए सुखी और सुरक्षित जीवन का पेड़ पौधे भोजन के रूप में ग्रहण कर लेते हैं-यह वनस्पति का स्रोत बन सकेगा। ये पांचों तत्व जीवन हैं। जीव पर दया का भाव दूसरा लाभकारी पक्ष है। कितनी रचनात्मक सहायता मनुष्य को भी हमारे मन में प्रबल हो जाए तो हमारा यह आदर्श मार्ग सुगम जीवित रखने के लिए वनस्पति कर रही है। भगवान महावीर | हो जाएगा। ऐसा न करना न केवल प्राकृतिक तत्वों के लिए अपितु स्वामी की वाणी को वनस्पति जगत् ने तो साकार कर दिखाया है, स्वयं मनुष्य के लिए भी मारक और घातक सिद्ध होगा और कुछ किन्तु प्रबुद्ध मनुष्य उसे विस्मृत करता जा रहा है-कैसी विडम्बना नहीं तो स्वार्थ बुद्धि के वशीभूत होकर ही अहिंसा की शरण में आ है। दुर्बुद्धि मनुष्य जिस निष्ठुरता के साथ वनों को नष्ट कर रहा है, 1 जाए-फिर तो शभ ही शभ मंगल ही मंगल है। 2006 Food * मनुष्य को पाप और बुरे काम से डरना चाहिये, अपने कर्त्तव्य से नहीं डरना चाहिये। * यदि उद्देश्य शुभ न हो तो ज्ञान, तप आदि भी पाप हो जाते हैं। हम लोग ज्ञान-पापी हैं। जानने-समझने के बाद भी पापकर्म करना नहीं छोड़ते। फिर अज्ञानी बनने का ढोंग रचते हैं और रोते हैं। जीना सब चाहते हैं पर जीना बहुत कम जानते हैं। -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जयएनन्य Elaseducationntistianabo.00000 2000.00000000003 जाएगायकएज्य 900 acoacterRaRepersta998PORRO000 302Rad:0653900000000002DC