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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । जल भी सूख जाएगा-समस्त वनस्पति और प्राणी जल कर भस्म हो । जल को दूषित कर रहा है और अपने अस्तित्व को ही संकट में जाएंगे। सब कुछ स्वाहा हो जाएगा। आज प्रदूषण और पर्यावरण डाल रहा है। यह अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारना है। सभी संतुलन का जो हडकम्प मचा हुआ है, इसका मूल कारण ही यही है । नदियों, सरोवरों का, यहां तक कि समुद्र का जल भी प्रदूषित होने कि पर्यावरण को खतरा उत्पन्न हो गया है। दक्षिणी ध्रुव के उपर तो लगा है। उद्योगों से निसृत गंदा जल, कूड़ा, करकट नदियों में बहा
ओजोन पर्त कुछ क्षतिग्रस्त हो भी गयी है। इसी कारण सभी दिया जाता है। विषाक्त पदार्थों को नदियों में विसर्जित करने में भी चिन्तित हैं।
मनुष्य हिचकता नहीं है। अस्थि विसर्जन ही नहीं, शवों को भी अस्तित्व का यह संकट पर्यावरण के असंतुलन के कारण ही ।
नदियों में बहाया जाता है। महानगरों की सारी गंदगी और कूड़ा उत्पन्न हुआ है और असंतुलन का मूल कारण है प्रदूषण। ये प्रदूषण
करकट बेचारी नदियां ही झेलती रही हैं। फिर अदूषित, शुद्ध जल अनेक प्रकार के हैं। इनमें से प्रमुख हैं--
भला बचे! तो कैसे बचे। पेयजल की आपूर्ति के लिए इस मलिन,
प्रदूषित जल को क्लोरीन से स्वच्छ करने का प्रयत्न किया जाता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति प्रदूषण।
इसका भी दोहरा दोष सामने आया है। एक तो क्लोरीन मिश्रित इन उपर्युक्त प्रदूषणों से पर्यावरण की घोर हानि हो रही है
जल मनुष्य के लिए रोगोत्पादक हो जाता है और दूसरा यह कि और इनकी तीव्रता उत्तरोत्तर अभिवर्धित भी होती ही चली जा रही
प्रदूषित करने वाले कीटों के साथ-साथ क्लोरीन से जल के वे है। जैन दृष्टि से तो अहिंसा द्वारा पर्यावरण की सुरक्षा का सार्थक
स्वाभाविक कीट भी नष्ट हो जाते हैं, जो जल को स्वच्छ रखने का और सफल उपाय किया जा सकता है। स्पष्ट है कि हिंसा ही इस
काम करते हैं, यह प्रत्यक्ष हिंसा है। जल को प्रदूषित करने वाले महाविनाश के लिए उत्तरदायी कारण है। जिनेश्वर भगवान महावीर
अन्य हिंसक कार्यों में पेट्रोल, तेजाब आदि को समुद्र और नदियों में ने सूक्ष्मातिसूक्ष्म से लेकर विशालकाय सभी चौरासी लाख
बहा देने की घातक प्रवृत्तियां भी हैं, जिनका कर्ता यह नहीं जीवयोनियों के सुखपूर्वक एवं सुरक्षित जीवन का अधिकार मान्य
समझ पा रहा कि अन्ततः इस सबको करके वह किसकी हानि कर किया। मानव जाति को किसी का घात न करने का निर्देश देते हुए महावीर स्वामी ने यह तथ्य प्रतिपादित किया था कि सभी जीव
रहा है। जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता। सभी को सुख ही प्रिय वायु जीवन के लिए स्वयं ही प्राणों के समान है। वायु ही है, दुःख किसी को नहीं। अतः दूसरे सभी प्राणियों को जीवित रहने ऑक्सीजन की स्रोत है और ऑक्सीजन के बिना प्राणी का कुछ में सहायता करो। जीवों को परस्पर उपकार ही करना चाहिए। पलों तक जीना भी असम्भव है। मनुष्य के दुष्कृत्यों ने ऐसी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति-इन सभी में जैन दर्शन | जीवनदायिनी वायु को ही प्रदूषित कर दिया है। कार्बनडाई प्राणों का अस्तित्व स्वीकार करता है। अहिंसा इनकी रक्षा की प्रेरणा । ऑक्साइड की मात्रा वायुमण्डल में बढ़ती जा रही है और प्राण देती है। अस्तु, अहिंसा प्रदूषण पर अंकुश लगाकर पर्यावरण के । वायु न केवल दूषित, अपितु क्षीण भी होती जा रही है। उद्योगों की असन्तुलन को रोकने का सबल साधन बन जाती है।
बढ़ती परम्परा और वाहनों का बढ़ता प्रचलन कार्बनडाई ऑक्साइड भातावत करती चली आ रही है। के प्रबल स्रोत हो रहे हैं और वातावरण को दूषित घातक बना रहे मनुष्य ने जो उपभोग की प्रवृत्ति को असीम रूप से विकसित कर
हैं। जनाधिक्य भी ऑक्सीजन की खपत और कार्बनडाइ ऑक्साइड लिया, उसके कारण पृथ्वी का अनुचित दोहन हो रहा है और वह
के उत्पादन को बढ़ा रहा है। सांस लेना दुष्कर होता जा रहा है प्रदूषित हो गयी है। रासायनिक खादों का उपयोग धरती के तत्वों और सांस लेने वाले द्रुत गति से बढ़ते ही चले जा रहे हैं। अनेक को असंतुलित कर रहा है। कोयला, पेट्रोल और खनिजों के लिए रसायनों से विषाक्त गैसें और दुर्गन्ध निकलकर वायु को दूषित कर उसे खोखला बनाया जा रहा है। पृथ्वी रसहीन और दुर्बल हो रही रही है। यही प्रदूषित वायु प्रदूषित जल और पृथ्वी के सम्पर्क में है। धरती के ऊपर भी अनेक रसायनों की प्रतिक्रियाएं हो रही है। आकर और अधिक प्रदूषित होती जा रही है और अपने सम्पर्क से औद्योगिक कचरा और दूषित पदार्थों से भी वह प्रदूषित हो रही है। ओजोनस्फेयर को प्रदूषित कर रही है। मनुष्य की अहिंसा प्रवृत्ति भूगर्भ से पानी का शोषण तो होता रहा है, जनसंख्या वृद्धि और अब भी वायु को जीव मानकर उसकी रक्षा करने लगे तो वह स्वयं आवासन उपयोग के आधिक्य ने भी धरती की आर्द्रता को बहुत पर ही उपकार करेगा। घटा दिया है। अहिंसा वृत्ति को अपना कर धरा की रक्षा करना
अग्नि भी सप्राण है। इसकी रक्षा करना, इस पर प्रहार न हमारा परम कर्तव्य है।
करना हर मनुष्य के लिए करणीय कर्म है, यद्यपि यह चेतना भी जल तो जीवों का जीवन ही है। "जीवन दो घनश्याम हमें अब उसमें अभी अत्यल्प है। भोजन मनुष्य के लिए अनिवार्य है, तो जीवन दो"-श्लेष से जीवन का यहाँ दूसरा अर्थ जल से ही है। भोजन पकाने के लिए अग्नि भी अनिवार्य है। आधुनिक प्रचलन जल का जीवों पर भारी उपकार है। जल के बिना जीवन ही । ईंधन रूप में गैस के प्रयोग का हो गया है। भोजन पकाने के असम्भव है, किन्तु अपनी कृतघ्नता का परिचय देते हुए मनुष्य इसी साथ-साथ यह गैस कई हानिकारक गैसें भी बनाती है और
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