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पाणिनीय और शाकटायनव्याकरण : तुलनात्मक विवेचन
डॉ० वागीश शास्त्री, निदेशक, अनुसन्धान संस्थान, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी लोकमें पाणिनीय व्याकरणकी प्रतिष्ठा उसको संक्षिप्त शैली तथा सर्वाङ्गपूर्णताके कारण हुई । पूर्ववर्ती अतिविस्तृत ऐन्द्र इत्यादि व्याकरणोंको अल्प मेधावी छात्र कण्ठस्थ नहीं कर पाते थे । कुछ ऐसे व्याकरण थे, जो केवल विशिष्ट प्रकरणोंके ही नियम बताते थे। अतः सर्वाङ्गपूर्णताके न होनेके कारण केवल उनके अध्ययनसे छात्र व्याकरणके सम्पूर्ण नियमोंको नहीं जान पाते थे। ऐसी स्थितिमें ईसापूर्व पाँचवों शताब्दीके लगभग पाणिनिने पूर्ववर्ती सम्पूर्ण व्याकरणोंका अनुशीलन करके संक्षिप्त, साङ्गोपाङ्ग ( वेदलोकोभयात्मक) सन्देहरहित व्याकरण बनाया और उसे ३७७९ सूत्रोंमें बाँध दिया। धातूपाठ, गणपाठ, उणादि, नामालिङ्गानुशासन, शिक्षा इत्यादि उसके खिलपाठ हैं । किन्तु सम्प्रति उपलब्ध उणादि पाणिनिका नहीं है।
पाणिनिने भूत, भविष्य, वर्तमान इत्यादि कालोंकी कोई परिभाषा नहीं बनाई । उनसे लोक परिचित था। अतः उनकी परिभाषाएँ देकर व्याकरणका कलेवर बढ़ाना पाणिनिने उचित नहीं समझा । 'लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वात, कह कर पाणिनिने लिङ्गका अनशासन करना भी उचित नहीं समझा। अतः उनके नाम पर प्राप्त लिङ्गानुशासन विचारणीय है । इतनी सूक्ष्मेक्षिका रखने पर भी पाणिनिकी केवल अष्टाध्यायी संस्कृत व्याकरणके सम्पूर्ण नियमोंका बोध कराने में समर्थ नहीं हो सकी। तदर्थ कात्यायनको अष्टाध्यायीके सूत्रों पर वात्तिक लिखने पड़े ताकि उसमें छूटे नियमोंका ज्ञान हो सके। किन्तु जब पाणिनीय सूत्रों पर केवल कात्यायनीय वात्तिकोंके रचे जाने मात्रसे उसकी लोकोपयोगिता सिद्ध नहीं हई, तब पतञ्जलिको अपना महाभाष्य लिखना पड़ा।
पाणिनिने सूत्रोंकी संक्षिप्तताका आश्रय इसलिए लिया था कि जिज्ञासु जन अल्प समयमें संस्कृत व्याकरणका ज्ञान कर सकें। किन्तु यह 'त्रिमुनिव्याकरणम्' इतना पृथुल हो गया कि बारह वर्षों में
अध्ययन कर पाता था, जो विशाल संस्कृत वाङ्मयमें प्रवेश करनेके लिए साधनमात्र था।
चन्द्रगोमीके अनन्तर जैन सम्प्रदायका इस ओर ध्यान गया और सर्वतः प्रथम पूज्यपाद जैनेन्द्रने छठी शताब्दीमें 'त्रिमनिव्याकरण के आधारपर जैनेन्द्र व्याकरणकी रचना की। यद्यपि इसमें पाणिनीय व्याकरणसे भी प्राचीन व्याकरणोंके तत्त्व सुरक्षित हैं, तथापि सम्पूर्ण रचना पर पाणिनीय व्याकरणका प्रभाव स्पष्ट है ।
जिस उद्देश्यको लेकर जैनेन्द्र व्याकरण की रचना की गयी थी, वह सिद्ध नहीं हुआ। संस्कृत भाषाको सरल प्रक्रियासे सिखा देनेवाले व्याकरणकी प्रतीक्षा जिज्ञासू तब भी कर रहे थे। यद्यपि शर्ववर्भाने प्रथम शताब्दीमें प्रक्रियात्मक पद्धति पर आश्रित व्याकरणकी रचना कर मार्ग दिखा दिया था, तथापि 'त्रिमुनिव्याकरण' की कसौटी पर लोकने उसे खरा नहीं पाया था। फलतः वह सर्वत्र एकच्छत्र रूपमें प्रचार नहीं पा सका।
तीन सौ वर्षों के अनन्तर श्वेताम्बरीय जैन विद्वान महाश्रमण-संघाधिपति पाल्यकीर्ति शाकटायनने 'शाकटायनव्याकरण' की रचना कर पूर्ववर्ती लौकिक व्याकरणोंकी न्यूनताओंको दूर करनेका प्रयत्न किया
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तथा उसे सर्वाङ्गपूर्ण बनानेका स्तुत्य कार्य किया। लौकिक संस्कृतके नियमोंको संक्षेप, सरलता और सम्पूर्णताकी दृष्टिसे बतानेके लिए उन्होंने इसकी रचना की थी।
सरलताकी दृष्टिसे शाकटायनने अपने व्याकरणमें पाणिनीय अष्टाध्यायीके दो सूत्रोंसे लेकर नौ सूत्रों तकके स्थान पर केवल एक सूत्रकी रचना बड़ी ही कुशलतासे कर दी है । उनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है :
१. दो सूत्रोंके स्थानपर एक सूत्र । यथापाणिनि-'वृद्धस्य च पूजायाम्' (४।१।१६६), 'यूनश्च कुत्सायाम्' (४।१।१६७) शाकटायन-'युवं वृद्धं कुत्सार्थे' (१।१।१६) पाणिनि-'पुरोऽव्ययम्' (१।४।६७), 'अस्तं च' (१।४।६८) शाकटायन-'अस्तं पुरोऽव्ययम्' (१।१।२९) पाणिनि-'षष्ठी स्थानेयोगा' (१।१।४९), 'अलोऽन्त्यस्य' (१।१।५२) शाकटायन-'षष्ट्याः स्थानेऽन्ते लः' (१।१।४७) पाणिनि-'ढो ढे लोपः' (८।३।१३), 'रो रि' (८।३।१४) शाकटायन-'द्रो ढि' (१।१।१३१) २. दो सूत्रोंके स्थान पर दो मिश्रित सूत्र । यथापाणिनि-'पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्यसमानाधिकरणेन' (२।२।११),
___ 'तेन च पूजायाम्' (२।२।१२) शाकटायन-'तृप्तार्थाव्ययनिर्धार्यडच्छवानश्मतिपूजाधारक्तः' (२।१।५०) 'गुणैरस्वस्थैः' (२।१।५१) पाणिनि- 'घरूपकल्पचेल वगोत्रमतहतेषु ङ्योऽनेकाचो ह्रस्वः' (६।३।४३),
'उगितश्च' (६।३।४५) शाकटायन-रूपकल्पङ्गोत्रमतहतचेलड्ब्रु वे ह्रस्वश्च वोगितः' (२।२।५२),
'ङ्योऽनेकाचः' (२।२।५३) ३. तीन सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र । यथापाणिनि-'मनः' (४।१।११), अनो बहुव्रीहेः' (४।१।१२), 'डाबुभाभ्यामन्यरस्याम्' (४।१।१३) शाकटायन-'मन्नन्बहुव्रीहेन्न च' (१।३।१२) पाणिनि-'सम्बोधने च' (२।३।४७), 'सामन्त्रितम्' (२।३।४८), एकवचनं सम्बुद्धिः' (२।३।४९) शाकटायन-'आमन्त्र्ये' (१।३।९९) पाणिनि-'नदीपौर्णमास्याग्रहायणीभ्यः' (५।४।११०), 'झयः (५।४।१११), 'गिरेश्च सेनकस्य'
(५।४।११२) शाकटायन-'गिरिनदीपौर्णमास्याग्रहायणीजयः' (२।१।१५५)
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४. तीन सूत्रोंके स्थान पर दो सूत्र । यथा
पाणिनि - 'तस्मै प्रभवति संतापादिभ्यः' (५।१।१०१), 'योगाद्यच्च' (५।१।१०२), 'कर्मण उकळू' (५|१|१०३)
शाकटायन—'योगादये शक्ते' ( ३।२।९१), 'योग्यकार्मुक' ( ३।२।९२)
५. चार सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र । यथा—
पाणिनि - 'शूलोखाद्यत्' (४/२/१७), 'दध्नष्ठक्' (४।२।१८), 'उदश्वितोऽन्यतरस्याम्' (४/२/१९), 'क्षीराड्ढञ् (४।२।२० )
शाकटायन—'शल्योख्यक्षैरेयदाधिकौदश्वित्कौदश्वितम् ' (२।४।२३८)
६. पाँच सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र । यथा -
पाणिनि -' इदमोहिल्' (५।३।१६), 'अधुना' (५।३।१७), 'दानीं च ' ( ५।३।१८) 'सद्यः' (५।३।२२), समानस्य सभाव: (वा० )
शाकटायन --सदैतधुनेदानीन्तदानीं सद्यः ( ३।४।१९ )
पाणिनि - 'समयाच्च यापनायाम् ' ( ५।४।६०), 'दुःखात् प्रातिलोम्ये' (५|४|६४), 'निष्कुलान्निष्कोषणे' (६२), 'शूलात् पाके' (५।४।६५), सत्यादशपथे (५।४।६६ ) । शाकटायन - 'दुःख निष्कूलशूलसमय सत्यात् प्रातिकूल्यनिष्कोषपाकयापनाशपथे' ( ३।४।५३) ७. छ: सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र । यथा -
पाणिनि- 'मूर्ती घनः' ( ३।३।७७), 'उद्धनोऽत्याधानम्' ( ३।३।८०), 'जपघनोऽङ्गम् ' ( ३।३।८१), 'उपघ्न आश्रये' (३।३।८५), 'संघोद्धौ गणप्रशंसयो:' ( ३।३।८६), 'निघो निमित्तम्' (३।३।८७)
शाकटायन – 'घनोद्धनापघनोपध्ननिघोद्धसंघा मूर्त्यत्याधाना ङ्गासन्ननिमित्तप्रशस्तगणा: ' ( ४ |४| २० ) । ८. आठ सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र । यथा
पाणिनि——वेः शालच्छङ्कटचौ' (५।२।२८), 'सम्प्रोदश्च कटच्' (५।२।२९), 'अवात् कुटारच्च' (३०), 'नते नासिकायाः संज्ञायां टीट नाटज्भ्रटच: ' ( ५।२१३१), 'नेविडज्विरीसचौ' (३२), 'इनच् पिच्चिकचि च' (३३), क्लिन्नस्य चिल पिल् (वा० ), उपाधिभ्यां त्यकन्नासन्नारूढयोः (३४)
शाकटायन - 'विशालविशङ्कट विकटसंकटोत्कट प्रकटनिकटावकटाव कुटारावटीटावनाटावभ्रटनिबिडनिबिरीसचिक्कचिकिनचिपिटचिल्लपिल्लचुल्लोपत्यकाधित्यकाः ' ( ३|३|१०६ )
९. नौ सूत्रोंके स्थान पर एक सूत्र । यथा—
पाणिनि - ' वशं गतः ' ( ४ | ३ |८६), 'धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते' ( ४|४|१२), 'मूलमस्या बहि' (८८), 'संज्ञायां घेनुष्या' ( ४१४१८९), 'संज्ञायां जन्या:' ( ४/४/८२), 'गृहपतिना संयुक्त ञ्यः' (९०), 'नौवयोधर्मविषमूलमूलसी तातु लाभ्यस्तायंतु ल्यप्राप्यवध्यानाम्यसमसमित संमितेषु' (९१), 'हृदयस्य प्रिय:' ( ४|४|९५), ' बन्धने चर्षों' ( ४/४/९६ ) शाकटायन—' वश्यपथ्यवयस्यधेनुष्यगार्हपत्य जन्यधर्म्यहृद्य मूल्यम् ' ( ३।२।१९५) ।
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एक ओर जहाँ शाकटायनने पाणिनिके एक नियमवाले छोटे-छोटे कई सूत्रोंके स्थान पर अपने लम्बेलम्बे सूत्र बनाकर सरलता ला दी है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने पाणिनिके लम्बे सूत्रोंको तोड़कर उनके स्थान पर कई छोटे-छोटे सूत्र बना दिये हैं । उनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है
१. एक सूत्रके स्थान पर दो सूत्र । यथा
पाणिनि-~~‘राजाहः सखिभ्यष्टच्' (५/४१९१ )
शाकटायन-'राजन् सखे : ' (२।१।१६९), 'अह्नः ' (२।१।१७९ ) पाणिनि - 'नित्यमसिच् प्रजामेधयो:' ( ५|४|१२२)
शाकटायन-'अस्प्रजाया: ' (२।१।१९७), 'अल्पाच्च मेधायाः ' (२|१|१९८ ) पाणिनि--' पूतिकुक्षिकलशिवस्त्यस्त्यहेर्द्वज्' (४४३५६)
शाकटायन - 'दृतिकुक्षिकलशिवस्त्यहेण्' (३|१|११८), 'आस्तेयम्' ( ३।१।११९) पाणिनि-'यत्तदेतेभ्यः परिमाणे वतुप् ' ( ५।२।३९ )
शाकटायन - 'एतदो वो घः' ( ३।३।६९), 'यत्तदः ' ( ३ | ३|७० )
पाणिनि - 'बहुगणवतुडति संख्या' (१।१।२३)
शाकटायन - 'घड्डति संख्या (१1१1९), 'बहुगणं भेदे' (१।१।१० ) हाणिनि - 'आद्यन्तौ टकितौ' (१|१|४६)
शाकटायन -- 'टिदादिः ' (१।१।५३), 'किदन्तः ' (१।१।५४ )
पाणिनि --- 'नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः' (२०४८३ )
शाकटायन - 'नातः' (१।२।१५६), 'अमपञ्चम्याः ' (१।२।१५७ ) पाणिनि- 'तृतीयासप्तम्योर्बहुलम्' (२०४३८४)
शाकटायन-' - 'तृतीया वा' (१।२१५८), 'सप्तम्याः ' (१।२।१५९) पाणिनि--' पृथग्विनानानाभिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम्' (२।३।३२ ) शाकटायन -' पृथग्नाना तृतीया च' (१।३।१९२), विनेमास्तिस्रः ' (१।३।१९३ )
पाणिनि - 'निसमुपविभ्यो ह्न : ' (१।३।३० )
शाकटायन — 'सन्निवेः' (१।४।३०), 'उपात्' (१।४।३१ )
पाणिनि - 'ऋक्पूरब्धूः पथामानक्षे' (५।४।७४ )
शाकटायन-'ऋक्पूःपथ्यपोत्' (२।१।१३९), 'घुरो नक्षस्य ' (२।१।१४० )
२. एक सूत्रके स्थान पर तीन सूत्र । यथा -
पाणिनि -- ' विभाषा वृक्षमृगतृणधान्यव्यञ्जनपशुशकुन्यश्ववडव पूर्वापराधरोत्तराणाम् ' (२।४।१२ ) शाकटायन - ' अश्ववडवपूर्वापराधरोत्तराः' (२०१1९५ ), ( पशुव्यञ्जनानि ( २।१।९६), 'तरुतृणधान्यमृगपक्षिबह्वर्थांश:' ( २।१।९७ )
पाणिनि - ' दाण्डिनायनहास्तिनायनाथर्वणिकजैह्माशिनेयवाशिनायनिभ्रौणहत्यधैवत्यसारवक्ष्वाकमैत्रेयहिरण्मयानि' (६।४।१७४)
शाकटायन - 'दण्डिहस्तिन: फे' (२|३|५९), 'वाशिजिह्याश्यध्वाथर्वयूनः फिढखठाके ( २।३।६०), ‘भ्रौणहत्यधैवत्यसारवैक्ष्वाक मैत्रेय हिरण्मयम्' (२।३।११२)
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३. एक सूत्रके स्थान पर चार सूत्र । यथापाणिनि-'अचतुरविचतुरसुचतुरस्त्रीपुंसधेन्वनडुहमिवाङमनसाक्षिभुवदारगवो र्वष्ठीवपदष्ठीवनक्त
न्दिवरात्रिन्दिवाहदिवसरजसनिःश्रेयसपुरुषायुषव्यायुषत्र्यायुषय॑जुषजातोक्षवृद्धोक्षोपशुनगो
ष्ठश्वाः ' (५।४।७७) शाकटायन-'जातमहवृद्धादुक्ष्णः कर्मधारयात्' (२।१।१५९), 'स्त्रियाः पुंसो द्वन्द्वाच्च' (१५९),
'धेन्वनडुहर्ग्यजुषाहोरात्रनक्तन्दिवरात्रिन्दिवाहदिवोर्वष्ठीवपदष्ठीवाक्षि ध्रुवदारगवम्'(१६०) ४. दो सूत्रोंके स्थान पर पाँच सूत्र । यथापाणिनि- 'शमित्यष्टाभ्यो घिनुण्' (३।२।१४१), 'सम्पृचानुरुघाङ्यमाङ्यसपरिसृसंसृजपरिदेवि
संज्वरपरिक्षिपपरिसृपखिदपरिदहपरिमुहदुषद्विषहदुहयुजाक्रीडविविचत्यजरजभजातिचरा
पचरामुषाभ्याहनश्च' (३।२।१४२) शाकटायन-'शमष्टकदुषद्विषद्रुहदुहयुजत्यजरजभजाभ्याहनानुरुधो घिनन्' (४।३।२४२), 'आङः
क्रीड्यं यस्मुषः' (४।३।२४३), 'समः पृच्सृजज्वरोऽकर्मकात्' (४।३।२४४), 'चरोऽतौ
च, (४।३।२४७), 'परेः सृवद्दहमुहः' (४।३।२४९) अनुवृत्ति, विकल्पों, अर्थविशेषों तथा निपातनोंकी दृष्टिसे शाकटायनके इन प्रयासोंका विस्तृत अध्ययन अत्यावश्यक है।
शाक्टायन व्याकरणमें एक सौ साठ सूत्र ऐसे हैं जो पाणिनीय सूत्रोंके तुल्यवर्तनीक हैं। उनमें कुछ लम्बे सूत्र भी है । इस प्रकारके सूत्रोंके विषयमें भी यह अध्येतव्य है कि शाकटायनने जिस प्रक्रियासे पाणिनीय सूत्रोंको तोड़कर कई सूत्र बनाये हैं क्या उस प्रक्रियासे इन समानवर्तनीक सूत्रोंके लम्बे सूत्रोंका योगविभाग किया जा सकता है ?
___अपने व्याकरणको पृथुलतासे बचानेके लिये शाकटायनने पाणिनीय व्याकरणकी भाँति वार्तिकोंको अलग नहीं पढा । कात्यायन रचित वात्तिकोंमें बिखरे सभी नियमोंको शाकटायनने सत्रोंमें निबद्ध कर लिया ताकि अध्येताओंको पथक्शः वात्तिकोंके स्मरणकी आवश्यकता न पड़े। वात्ति कोंके इन नियमोंके लिये शाकटायनने स्वतन्त्र सूत्रोंकी रचना नहीं की। किन्तु सम्बद्ध सूत्रोंमें ही वात्ति कोंके नियम पचा लिये हैं। लगभग तीन सौ सूत्र ऐसे हैं जो केवल वार्तिकोंके स्थान पर बनाये गये हैं ।
शाकटायन व्याकरण में अधिक संख्या ऐसे सूत्रोंकी है, जिनमें पाणिनीय सूत्रोंको बड़ी सूझ-बूझके साथ संक्षिप्त कर दिया गया है। ऐसा करने पर विषयवस्तु में कोई अन्तर नहीं आ पाया है। ऐसे सूत्रोंकी संख्या लगभग पन्द्रह सौ है ।
पाणिनीय व्याकरणका सम्पूर्ण तत्त्व पातञ्जल महाभाष्यमें निहित है । शाकटायन व्याकरणका अनुशीलन करनेसे ज्ञात होता है कि पाल्यकीर्तिने महाभाष्यका कितना तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया था और वे उसमें कितने नदीष्ण हो गये थे। उन्होंने अपने सत्रोंमें महाभाष्यकी इष्टियां तथा उसके सभी वचन या पचा लिये हैं । इष्टियोंकी संख्या अधिक नहीं मिलती, पर भाष्यवचनोंकी संख्या लगभग पैंतीस है । शाकटायन ने उन्हें छाँटकर सूत्रबद्ध कर दिया है ।
पाणिनीय व्याकरणमें गणसूत्र भी विद्यमान हैं, जिनका अध्ययन अध्येताको सूत्रों तथा वार्तिकोंसे अलग करना पड़ता है । शाकटायनने उनके नियमोंको भी यथास्थान सूत्रबद्ध कर लिया है ।
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________________ जिसप्रकार पाणिनिने पूर्व प्रचलित सम्पूर्ण व्याकरणोंका परिशीलन कर अपना स्वोपज्ञ व्याकरण बनाया था, उसी प्रकार काशिकाकारने अपने कालमें प्रचलित सम्पूर्ण वृत्तियोंका अनुशीलन कर काशिकावृत्ति की रचना की थी। अतः महाभाष्यके अनन्तर काशिकावृत्तिका अधिक महत्त्व है / व्याकरण-नियमोंकी पूर्तिके लिए वह व्याकरण शृंखलाकी एक कड़ी है / इसके महत्त्वको समझ कर पाल्यकीर्तिने काशिकावृत्तिके लगभग चालीस महत्त्वपूर्ण वचनोंके भी सूत्र बना दिये हैं / पाणिनीय व्याकरणकी अपेक्षा शाकटायनने धातूपाठमें भी वैशिष्टय रखा है। ( कृदन्त प्रकरणमें ) पाणिनीय साधित शब्दोंके अतिरिक्त शब्दोंकी सिद्धियाँ शाकटायन व्याकरणमें दृष्टिगोचर होती है ( द्रष्ट०'गोचरसंचर०' सूत्रमें 'खल' 'भग' शब्द ) / इतनी अधिक सामग्रीको शाकटायन व्याकरणमें कल 3236 सत्रोंमें ही सन्निविष्ट कर देनेका चमत्कारी प्रयत्न हआ है / यक्षवर्माने अपनी व्याख्यामें ठीक ही लिखा है-'यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्' / एक दिनमें 9 सूत्रोंका स्मरण करने पर एक वर्ष में सम्पूर्ण व्याक रणका ज्ञान शक्य है / लक्ष्य-लक्षण मिलकर व्याकरण बनता है / पाणिनि, कात्यायन, पतञ्जलि तथा काशिकाकारके अनन्तर पाल्यकीर्तिके समयकी संस्कृत भाषामें महत्त्वपूर्ण परिवर्तन अवश्य हुए थे। बोद्धों और जैनों द्वारा रचे गये ग्रन्थोंकी संस्कृत भाषा अपना व्यक्तित्व लिये हुए थी। इसके अतिरिक्त शिष्ट समुदायमें बोली जाने वाली संस्कृतमें भी पर्याप्त परिवर्तन हुए होंगे / शाकटायनके आमूलचूल परिशीलनसे इनका पता चलता है / इस प्रकार हमने देखा कि शाकटायन व्याकरणने संस्कृत भाषाके अध्ययनमें बहत बड़ा सहयोग प्रदान किया है / अपने परवर्ती वैयाकरणोंको प्रेरणा प्रदान की है / हेमचन्द्रने अपने व्याकरणमें शाकटयनव्याकरण के कतिपय सूत्रोंको अविकल गृहीत कर लिया है / सूत्रानुसारी व्याकरणोंमें प्रक्रिया-पद्धतिकी नींव डालने का श्रेय शाकटायनको ही है। यद्यपि अध्यायोंमें विभक्त होनेके कारण यह व्याकरण अध्यायानुसारी ही है, तथापि अध्यायोंकी व्यवस्था विषयानुसारिणी है / समासान्त सूत्रोंको तत्पुरुषसमासके नियमोंके अनन्तर पढ़ा गया है। प्रकियाकौमुदी के रचयिता रामचन्द्र तथा वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीके रचयिता भट्टोजिदीक्षितने अपने ग्रन्थोमें इसी प्रक्रियाका अनुसरण किया है। 'अन्तिकबाढयार्नेदसाधौं इत्यादि सत्रोंके उदाहरणोंकी परीक्षासे इसका और भी निश्चय हो जाता है। इतने उपयोगी व्याकरणका लोकमें भूयिष्ठ प्रचार प्राप्त न कर सकनेका कारण है-दार्शनिक पृष्ठभूमिका अभाव / उसके लिए भर्तृहरि जैसे दार्शनिककी अपेक्षा थी / 4 SODA - 256 -