Book Title: Nrutyaratna Kosh Part 02
Author(s): Rasiklal C Parikh
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान सम्पादक - फतहसिंह, एम. ए., डी. लिट. [निदेशक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ]. ग्रन्थाङ्क २५ चित्रकूटाधिपति-कुम्भकर्ण-नृपति-प्रणीत BAR . . E नृत्य रत्न कोश R ... द्वितीय भाग ( शोधपूर्ण भूमिका तथा परिशिष्टों सहित ) ... सम्पादक : प्रा० रसिकलाल छोटालाल परीख . अध्यक्ष, गुजरात विधासभान्तर्गत भो. जे. उच्चाध्ययन .. संशोधन विद्या मन्दिर, अहमदाबाद प्रकाशक राजस्थान राज्य-संस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर (राजस्थान) *RAJASTHAN ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE, JODHPUR १९६८ है. प्रथमावृत्ति १००० ... ... मूल्य ६.७५ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EP ( राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला . राजस्थान राज्य द्वारा प्रकाशित ...... सामान्यतः अखिलभारतीय तथा विशेषतः राजस्थानदेशीय पुरातनकालीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी आदि भाषानिबद्ध विविधवाङ्मयप्रकाशिनी विशिष्ट-ग्रन्थावली : प्रधान सम्पादक . . . . . फतहसिंह, एम. ए., डी. लिट. निदेशक, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर . ग्रन्थाङ्क २५ चित्रकूटाधिपति-कुम्भकर्ण-नृपति-प्रणीत. नत्य रत्न कोश ..... द्वितीय भाग ............ ( शोधपूर्ण भूमिका तथा परि शष्टों सहित ) प्रकाशक ... राजस्थान राज्याज्ञानुसार निदेशक, राजस्थान प्राविद्या प्रतिष्ठान - जोधपुर ( राजस्थान ). वि० सं० २०२४ . . . . १९६८. ई. . . भारतराष्ट्रिय: शकान्द १८६६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान-सम्पादकीय वक्तव्यः । .. . प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम भाग का प्रकाशन सन् १९५७. में इसी प्रतिष्ठान की ... पुरातन ग्रन्थमाला के अंतर्गत हुआ था। उस समय से निरंतर इसके द्वितीय भाग की मांग होती रही है। हमें खेद है कि हमारे पाठकों को द्वितीय भाग के लिए ११ वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। वस्तुतः ग्रन्थ के द्वितीय भाग का मुद्रण भी सन् १९५७ में हो चुका था, परंतु किन्हीं कारणों से इसका प्रकाशन अब तक रुका रहा । ग्रन्थ के प्रकाशन में इस अत्यधिक विलम्ब के लिए क्षमायाचना करते हुए, प्रतिष्ठान इस ग्रन्थ को सहृदय पाठकों के हाथों में देते हुए संतोष का अनुभव करता है । नृत्यरत्नकोश मेवाड़ाधिपति महाराणा कुम्भा की सुप्रसिद्ध कृति संगीतराज का एक भाग है । संगीतराज में नृत्यरत्नकोश (जो कि ग्रन्थ का चतुर्थ कोश है) के अतिरिक्त पाठ्यरत्नकोश, गीतरत्नकोश, वाद्यरत्नकोश और रसरत्नकोश भी हैं। सर्वप्रथम डा० श्री सी. कुन्हन राजा ने इस ग्रन्थ के पाठयरत्नकोश को प्रकाशित किया था। तत्पश्चात् डा० प्रेमलता शर्मा ने पाठ्यरत्नकोश के साथ गीतरत्नकोश को मिलाकर एक विद्वत्तापूर्ण भूमिका के साथ प्रकाशित करवाया। इनमें से पाठ्यरत्नकोश को पुन: इस प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित करने का निश्चय सन् १९६४ में किया गया था और श्रीगोपालनारायण बहुरा द्वारा संपादित होकर वह ग्रन्थ सन् १९६५ में मुद्रित भी हो गया था, परन्तु अभी तक उसकी भूमिका प्राप्त न होने से वह प्रकाशित नहीं हो सका। हर्ष है कि वह भी संपादक को विद्वत्तापूर्ण भूमिका के साथ अव प्रकाशित हो रहा है। . - महाराणा कुम्भा की इन अमरकृति के दो भाग वाद्यरत्नकोश तथा रसरत्नकोश प्रकाशित होने के लिए फिर भी रह जाते हैं। योग्य सम्पादक मिलने पर उन दोनों का प्रकाशन भी प्रतिष्ठान द्वारा हाथ में लिया जायगा, जिससे कि इस बहुमूल्य ग्रन्थ की समग्रता सुविज्ञ पाठकों के सामने प्राजाय और उसका अध्ययन तथा अनुशीलन योग्य व्यक्तियों द्वारा किया जा सके । कुछ विद्वानों ने संगीतराज को संगीतरत्नाकर पर आधारित माना है । संगीतरत्नाकर में सात अध्याय हैं जिनमें क्रमशः स्वर, राग, प्रकीर्ण, प्रबन्ध, ताल, वाद्य और नृत्य विषयों की चर्चा है, परन्तु संगीतराज और संगीतरत्नाकर के सूक्ष्म तुलनात्मक अध्ययन के विना यह कहना असंभव है कि संगीतराज के ५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।२] कोशों के अन्तर्गत उक्त सातों अध्यायों का विषय पूरी तरह समाविष्ट होता है .... या नहीं। इस महाग्रन्थ के विषय में इसी प्रकार की और भी सम्मतियां व्यक्त की जाती रही हैं। प्रो० एस. एन. दास गुप्ता और डा० एस. के. डे ने इस ग्रन्थ के रसरत्नकोश को अलंकार-शास्त्र का एक नगण्य कृति-मात्र माना है।' पं० वी. एन. भातखण्डे ने इस ग्रन्थ का नाम ही संगीतराजरत्नकोश माना है। इसी प्रकार महामहोपाध्याय कविराज श्यामलदान ने वीरविनोद में इसे संगीतराजवातिक' नाम दिया है और कुछ अन्य विद्वानों ने महाराणा कुंभा के संगीतराज तथा संगीतमीमांसा को दो अलग-अलग ग्नन्थ माना है, यद्यपि अब सिद्ध हो चुका है कि ये दोनों नाम वस्तुतः एक ही ग्रन्थ के हैं। स्पष्ट है कि इस प्रकार की सम्मतियां समग्र ग्रन्थ के अध्ययन पर आधारित न होने से नामक हो जाती है; अतः संगीतराज के लेखक की मौलिकता का मूल्यांकन करने के लिए, हमें ग्रन्थ के सभी कोशों के प्रकाशन के लिए प्रतीक्षा करना प्रावश्यक है। __ अब तक संगीतराज के विषय में जो भी मत विद्वानों द्वारा व्यक्त किये गये ... हैं, उनमें डा० प्रेमलता शर्मा का सर्वाधिक अधिकारपूर्ण तथा महत्त्वपूर्ण कहा. जा सकता है । उनका कहना है कि ___ "संगीतराज पाठक को कई दृष्टियों से आश्चर्यजनक तथा उत्कृष्ट कृति प्रतीत होता है। वह संगीत की जटिल समस्याओं को व्याख्या की दृष्टि से परिपूर्ण है, विस्तार तथा उदाहरणों को समृद्धि की दृष्टि से ... उल्लेखनीय है तथा बृहत्संगीत की परिभाषाओं का वैदिक-दर्शन की पूर्व ... एवं उत्तरमीमांसा के परिभाषाओं के साथ समन्वय करने में सक्षम है । अतः. दोनों प्रकार की परिभाषाओं के बीच पूर्ण आदान-प्रदान को स्थापित करके संगीतराज सचमुच एक उपवेद कहलाने का अधिकारी हो सकता है। उपवेद के रूप में संगीतराज केवल संगीत और नृत्य पर एक पाठ्य-पुस्तक मात्र न होकर, वस्तुतः वेद की उद्देश्यत्ति के लिए लिखा गया है। इस उपवेद के यह दोहरे उद्देश्य को पूर्ति संगीतराज में पूर्णतया होने की आशा १. हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिट्रेचर, जिल्द १, पृ० ५६६ । २. ए कम्पेरेटिव स्टेडी ऑव सम प्रॉव दी लीडिंग म्यूजिकल सिस्टम ऑफ दी १५, १६, १७, १८ वीं शताब्दी, पृ० ३ । .. ३. जिल्द १, पृ० ३३५ । .................... ४. डॉ० गौरीशंकर हीराचंद प्रोझा कृत उदयपुर का इतिहास, पृ० ३१, ६२५ - हरिविलास शारदा कृत महाराणा कुंभा, पृष्ठ १६६ । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की गई थी, क्योंकि उसके लेखक का यह दावा है कि इस ग्रन्थ के प्रणयन में उसका लक्ष्य नाट्यवेद की प्राचीन-परंपरा का पुनरुद्धार करना है।"" डा० प्रेमलता शर्मा का यह अभिमत भारतीय संगीत के प्राद्याचार्य भरत- मुनि' के उस कथन की याद दिलाता है जिसके अनुसार नाटयवेद का एकमात्र . उद्देश्य वेद-व्यवहार को सार्ववणिक बनाना होता है । अत एव संगोतराज का अध्ययन जहां भारतीय संस्कृति की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है वहां वह एक ___ अत्यन्त कठिन कार्य भी है। जैसा कि डा० प्रेमलता शर्मा ने कहा है, संगीत शास्त्र तथ वैदिक-दर्शन की द्विविध दृष्टि से इस ग्रन्थ की सम्यक् व्याख्या करना - एक स्वतंत्र शोध का विषय हो सकता है। डा० शर्मा के शब्दों में "इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय संगीतशास्त्र के ग्रन्थों में संगीतराज का प्रमुख स्थान .. होगा और कई दृष्टियों से, इस विषय के अन्य सभी पूर्ववर्ती ग्रन्थ इसके सामने श्रीहीन हो जायेंगे ।.........इसके कई विषय संभवतः शोध विद्यार्थियों के लिए - जो कि संगीत और वेद दोनों से पूर्णतया परिचित हैं, निरन्तर सामग्री मिलती ... रहेगी ।". . ............. महाराणा कुम्भा इस दृष्टि से संगीतराज के कर्ता को भारतवर्ष के इतिहास में, न केवल एक प्रसिद्ध शासक होने के नाते, अपितु एक महान् लेखक एवं प्रतिभावान् विचारक के रूप में भी महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए। महाराणा कुम्भा के : व्यक्तित्व के विषय में डा० गौरीशंकर हीराचंद ओझा, श्रीहरविलास शारदा, डा० .. प्रेमलता शर्मा और इस ग्रन्थ के विद्वान् सम्पादक ने बहुत कुछ कहा है, जिसको फिर से दुहराना व्यर्थ होगा, परन्तु यहां पर इतना कहना अनुचित न होगा कि : महाराणा कुम्भा का व्यक्तित्व अत्यन्त असाधारण था और उसका मूल्यांकन असाधारण स्तर पर ही किए जाने की आवश्यकता है क्योंकि इस प्रकार के व्यक्तित्व को साधारण मापदंड से देखने में भूल हो जाना निश्चित है । महाराणा कुम्भा के व्यक्तित्व की सर्वोत्कृष्ट विशेषता उनकी बहुमुखी जिज्ञासा में निहित है जिसको मानने से कोई भी आलोचक इनकार नहीं कर सकता। यदि यह भी मान लिया जाय कि उसने कोई भी ग्रन्थ नहीं लिखा, तो भी यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कुम्भा ने नाट्यशास्त्र, स्थापत्य, काव्यशास्त्र, धर्म, ... १. संगीतराज, जिल्द १, भूमिका पृ० ६ । २. नाट्यशास्त्र, प्रयम अध्याय, पद्य १२ । .. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन, चित्रकला, मूर्तिकला आदि विषयों के अनेक विद्वानों को न केवल प्रश्रय . . ही दिया अपितु उनके सत्संग से भी लाभ उठाया। इसके अतिरिक्त राजस्थान भारती' के कुम्भा विशेषांक पृ० १२६ से १४३ तक में कुंभा के जिन अलौकिक गुणों का उल्लेख किया गया है, उनसे प्रतीत होता है कि उसमें योगी होने के नाते अनुपम शक्ति और सामर्थ्य निहित थी। अत: कीत्तिस्तम्भ के अभिलेख में उल्लिखित संस्कृत के अतिरिक्त महाराष्ट्र, तैलंग और कर्णाटको साषाओं में रचना करना कुम्भा जैसे अलौकिक व्यक्ति के लिए असंभव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसकी असाधारण जिज्ञासा को देखते हुए उसके लिए यह स्वाभाविक ही था कि वह अपने राज्याश्रित विविध भाषाभाषी पंडितों से उनकी भाषायें सीखते . के लिए प्रयत्नशील होता ! कुछ लोगों ने संदेह प्रकट किया है कि कुंभा जैसे राजकाज में व्यस्त एवं निरन्तर युद्धरत व्यक्ति के लिए अन्य रचना करने के लिए समय मिलना कैसे संभव हो सकता है, परन्तु इस विषय में यह विचारणीय है कि महाराणा कुंभा एक अत्यन्त धार्मिक व्यक्ति था और ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि वह दूसरों की कृतियों को अपनी कृति कहने के लिए कदापि लालायित नहीं था । उसके आश्रय में अनेक लेखकों ने विविध विषयों में रचनायें कीं। उदाहरण के लिए, अकेले स्थापत्य पर लिखने वाले प्रसिद्ध सूत्रधार मण्डन की ही निम्नलिखित रचनायें कही जाती हैं । १. प्रासाद मण्डन, २. रूपमण्डन, ३. वास्तुमण्डन, ४. वास्तुशास्त्र, ५. वास्तुसार, ६. रूपावतार, ७. देवतामूत्तिप्रकरण, ८. राजवल्लभ । मण्डन के पुत्र गोविन्द के भी उद्धारधोरणी, कलानिधि और द्वारदीपिका-नामक रचनाओं का और मण्डन के भाई नाथा की वास्तुमंजरी का उल्लेख भी मिलता है। कुम्भा द्वारा निर्मित मन्दिरों, भवनों, स्तम्भों, गड़ों श्रादि के उत्कृष्ट निर्माण- - कार्य इतने अधिक हैं कि उनके आधार पर कुम्भा के अनुपम स्थापत्य-प्रेम को. स्वीकार करना ही पड़ता है। ऐसी स्थिति में यदि कुम्भा सचमुच लेखक वनने की महत्वाकांक्षा को अर्थवल से ही पूत्ति करना चाहता तो यह असंभव नहीं था कि वह इन लेखकों के कृतित्व को खरीद कर स्वयं इन ग्रन्थों का कर्ता वन जाता । इसी प्रकार अत्रिभट्ट, महेश तथा कन्हव्यास आदि अनेक कवियों द्वारा रचित नन्य भी अभी तक उन्हीं लेखकों के नाम से चले रहे हैं। अतः डा० . प्रेमलता शर्मा के शब्दों में "ये तथ्य इस बात को प्रमाणित करते हैं कि कुम्भा . १. मोगा : उदयपुर का इतिहास, पृ० ६२७ । E Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५]. की कोई ऐसी नीति नहीं थी कि वह उत्कृष्ट ग्रन्थों के कृतित्व को पैसे से खरीद कर स्वयं उनका लेखक बन जाता।" संगीतराज का कर्तत्व फिर भी संगीतराज के कर्तृत्व के विषय में कुछ विचारणीय तथ्य रह जाते हैं। कुम्भा और कालसेन के बीच इस ग्रन्थ के कर्तृत्व को लेकर विद्वानों का जो - मतभेद चल रहा था, उसको तो अब समाप्त ही समझना चाहिए । ग्रन्थ की जिन पाण्डुलिपियों में कुम्भा के स्थान पर कालसेन का नाम लिखा गया है उनमें भी डा० प्रेमलता शर्मा ने एक ऐसे श्लोक को उद्धृत पाया है जिसमें कुम्भकर्ण का नाम प्रच्छन्न रूप से अभिप्रेत है, परन्तु उसको उक्त पाण्डुलिपि में ज्यों का त्यों रखा गया _ है। उसी प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादक ने भी पाठयरत्नकोश के एक इसी प्रकार . के पच का उल्लेख किया है । इसके अतिरिक्त अन्य शक्तिशाली तर्कों के आधार पर भी कालसेन के कर्तृत्व को पूर्णतया असत्य ठहराया जा सकता है। फिर भी एकलिंग-माहात्म्य के कर्ता कन्ह व्यास के पक्ष में निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हो जाते हैं- १. एकलिंग-माहात्म्य में ५ ऐसे श्लोक मिलते हैं जो कि संगीतराज में भी .. .. आये हैं । २. एकलिंग-माहात्म्य और संगीतराज की भाषा एवं शैली में साम्य देखा जा सकता है । ३. एकलिंग-माहात्म्य के कर्ता कन्ह व्यास ने अपने को 'अर्थदास' कहा है। इन तथ्यों के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि संगीतराज - कुंभा की कृति न होकर कन्ह व्यास की ही कृति होगी, परन्तु इस अनुमान के मार्ग में मुख्य बाधा यह आती है कि संगीतराज का लेखक नैतिक और दार्शनिक दष्टि से जिस ऊंचाई पर आसीन दिखाई पड़ता है उसको ध्यान में रखते हुए यह तो संभव हो सकता है कि वह अपने नाम और यश को चिन्ता न करे, परन्तु यह - सम्भव नहीं कि पैसे के लोभ में अपने कर्तृत्व को बेच दे। इसके अतिरिक्त १. संगीतराज, जिल्द १, पृ० ५६ । . २. वही, पृ०.३३ ।। ३. देखिये, नृत्यरत्नकोश को भूमिका, पृ० ४ । ४. देखिये, डॉ. प्रेमलताकृत संगीतराज को भूमिका, पृष्ठ २६-३५; प्रॉ० रसिकलाल परीख, प्रस्तुत ग्रन्थ की भूमिका ।। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ]. सम्पूर्ण महाग्रन्थ में जो सुविचारित योजना, व्यापक सांस्कृतिक सूझबूझ तथा नैपुण्य युक्त कार्यदक्षता के दर्शन होते हैं । उसके आधार पर डा० प्रेमलता शर्मा का यह कथन ठीक प्रतीत होता है कि, "ग्रन्थ रचना की प्रवृत्ति, रचना की स्वरूपयोजना तथा उसकी रूपरेखा का निर्माण, सामग्री का चयन, संकलन- सम्बन्धी जटिल समस्याओं का समाधान, प्राचीन ग्रन्थ के मूल्यांकन की दृष्टि का निर्धारण तथा लेखक की अपनी निजी दृष्टि का प्राकलन" आदि जो भी इस ग्रन्थ में दृष्टिगोचर होते हैं उस सव का श्रेय स्वयं कुंभा को जाना चाहिए। यह स्वाभाविक है कि इस ग्रन्थ रचना के महाप्रयत्न में उसने कन्ह व्यास जैसे अनेक विद्वानों से न केवल सामग्री संकलनादि में, अपितु ग्रन्थ को लिपिबद्ध करने तथा भाषा, छन्द प्रादि की दृष्टि से संशोधन करने में भी सहयोग प्राप्त किया होगा । ऐसी अवस्था में यह असंभव नहीं है कि किसी विद्वान् ने अपनी किसी रचना के कुछ श्लोकों को किसी भी अवस्था में सम्मिलित कर दिया हो। इसके अतिरिक्त यह भी संभव है कि एकलिंगमाहात्म्य स्वयं एक संकलन ग्रन्थ हो (जैसा कि वह सरसरी दृष्टि से देखने पर प्रतीत होता है) जिसमें कन्ह व्यास ने अपनी रचनाओं के साथ-साथ संगीतराज सहित अन्य ग्रन्थों से पद्य संकलित किये हों । इसी आधार पर कुंभाकृत रसिकप्रिया (गीतगोविन्द की टीका ) के श्लोक का एकलिंगमाहात्म्य में सम्मि लित होना संभव हो सकता है, क्योंकि रसिकप्रिया में लेखक की जिस क्रान्तिकारी दृष्टि का परिचय मिलता है वह व्यास जैसे शुद्ध परम्परावादी के लिए उपयुक्त नहीं प्रतीत होता । रसिकप्रिया में गीतों के लिए जिन रागों, तालों प्रादि का विधान किया गया है, वे जयदेव के गीतगोविन्द में प्रयुक्त रागों, तालों यादि से भिन्न है और परम्परा के इस प्रतिक्रमण के लिए कुम्भा की कट्टर परम्परावादी संगीत' अव भी आलोचना करते हैं । ऐसी स्थिति में कन्ह व्यास का अपने लिए अर्थदास शब्द का प्रयोग करना केवल यही प्रकट करता है कि उसके हृदय में वैराग्य की भावना होते हुए भी वह विरक्त न होकर, राज्यसेवा में लगा रहा। संगीतराज और एकलिंगमाहात्म्य की शैली और भाषा के सादृश्य पर बहुत महत्त्व नहीं दिया जा सकता क्योंकि इस सादृश्य का कारण यह भी हो सकता है कि कुम्भा ने भाषा तथा छन्द-रचना का ज्ञान कन्ह व्यास से प्राप्त किया हो अथवा निकट सम्पर्क के कारण उसका अनुकरण किया हो । यह भी संभावना है कि बहुत से छन्दों में अभिव्यक्त अर्थ को स्वयं कुम्भा ने अपने शब्दों में कह दिया हो और कन्ह व्यास ने उस अर्थ को स्वनिर्मित छन्दों में १. तुलना करो, स्वामी प्रज्ञानानन्द, हिस्टोरिकल डवलपमेंट प्रॉव इन्डियन म्यूजिक, पृ. २३१ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७] व्यक्त किया हो । यह संभावना कम से कम एकलिंग-माहात्म्य के उन ५० श्लोकों के लिए तो हो ही सकती है जिसका सारा अर्थ कुम्भा द्वारा प्रदत्त तथा कन्हव्यास द्वारा कीर्तित हुआ है और संभवतः इसी भाव से कन्ह व्यास ने स्वयं को अर्थदास कहा है। सम्बन्धित पंक्तियां निम्नलिखित हैं श्रीकुम्भदत्तसर्वार्था गीतगोविन्दसत्पथा । पञ्चाशिकार्थदासेन कन्हव्यासेन कीत्तिता ॥ ... नृत्यरत्नकोश अस्तु, महाराणा कुम्भा-कृत संगीतराज के एक अंश के रूप में नृत्यरत्नकोश के प्रस्तुत प्रकाशन की उपादेयता तो नृत्यकलामर्मज्ञ हो समझ सकेंगे, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि ग्रन्थकार ने विभिन्न प्राचीन ग्रन्थों से संकलन-सामग्री जुटाते. हुए भी ग्रन्थ की समग्नता में एक अद्भुत मौलिकता को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है । भरतमुनि के अनुसार नाट्यवेद के ४ अंग क्रमशः पाठच, गीत, अभिनय तथा रस होते थे, जिनमें से अभिनय के अन्तर्गत: नृत्य को रखा जा सकता है। भरत ने हस्त-पाद-समायोग को नृत्य का करण कहा है, और इसके अनेक करणों के आधार पर बने मातका, अंगहार, कलापक, षण्डक, संघातक का उल्लेख करते हुए १०८ करणों का वर्णन किया है परन्तु नृत्यरत्नकोश के उल्लास १, परीक्षण ४ में संभवतः इन सब का चार प्रकारों में ही वर्गीकरण कर दिया है जिनको क्रमशः आवेष्टित, उद्वेष्टित, आवर्तित तथा परिवर्तित नाम दिया गया है। इसी प्रकार कुम्भा की मौलिकता ग्रन्थ के विविध अंगों और उपांगों में देखी जा सकती है । ग्रन्थकार के अनुसार (१,१,४.६) 'पाठ्यादि के उपयोगार्थ ही नृत्य का प्रणयन किया गया. है, क्योंकि उसके प्रभाव में सभी कुछ निर्जीव-सा प्रतीत होता है। नृत्य के समान दृश्य अथवा श्रव्य अन्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि चतुर्वर्ग के फल की प्राप्ति नृत्य से ही कही गई है। नृत्य के द्वारा ब्रह्मादि कुछ लोगों ने धर्म, कुछ ने अर्थ, कुछ ने काम तथा कुछ ने मोक्ष की प्राप्ति की है।' परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि. पाठयरत्नकोश में ब्रह्मचारी के विषय में नृत्य-निषेध को स्वीकार किया गया है। संभवतः यह निषेध नृत्यविद्या को . १. नाट्यशास्त्र, प्रथम अध्याय, श्लोक १७. २. वही.४/३० ३. ४, २, २७ (राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा प्रकाशित संस्करण) . ... Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीखने के लिये नहीं अपितु नृत्य के उस अतिशय प्रयोग के लिये है जिसको नृत्यरत्नकोश में ही "यूनां शृंगारसर्वस्वम्"' कहा गया है। निःसंदेह महाराणा कुंभा ने नृत्य समेत संपूर्ण नाट्यवेद को काम नामक पुरुषार्थ से प्रत्यक्षतः सम्बद्ध मान करके भी "विषस्य विषमौषधं' के आधार पर नृत्य द्वारा काम-दहन की योग्यता प्रदान करने वाला माना है क्योंकि, जैसा कि गीतरत्नकोश में चक्रों का निरूपण करते हुए लेखक ने बतलाया है । वस्तुतः इन सभी कलाओं की अन्तिम परिणति सोम-चक्र अथवा सहस्रदल-कमल के अमृत-पान में ही होती है । इस प्रकार नत्य आदि कलाओं को भारतीय दर्शन से सम्बद्ध करने का सफलतम .. प्रयास कुंभा के संगीतराज में ही देखा जा सकता है। इस ग्रन्थ के सम्पादन में प्रा० रसिकलाल छोटालाल परीख ने जो परिश्रम किया है वह उनकी विद्वत्तापूर्ण भूमिका से स्पष्ट है। उन्होंने ग्रंथकार के कर्तृत्व आदि के विषय में जो ऊहापोह आदि की है वह बड़े महत्त्व की है। प्रा० परीख : का यह प्रतिष्ठान अन्य कई दृष्टियों से भी उपकृत है। प्रतिष्ठान की ओर से में उनको हार्दिक धन्यवाद अपित करता हूँ। आशा है, विद्वान् सम्पादक का यह प्रयत्न सम्बन्धित-शास्त्र में गवेषणा को प्रोत्साहन प्रदान करेगा और उससे लाभ उठाकर शोध-छात्र भारतीय साहित्य की श्रीवृद्धि करेंगे । -. ............ फतहसिंह माघ-शुक्ला अष्टमी, सं० २०२४ . : जायपुर . .. . . ... ... . . १. यूनां गारसर्वस्वं मानो मानवतामिदम् । (१,१६).. . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्यरत्नकोश - द्वितीय भाग - अनुक्रम ततीयोल्लास . .. १६४ प्रथम परीक्षणम द्वितीयं परीक्षणम् तृतीयं परीक्षणम् . चतुर्थ परीक्षणम् प्रथमं परीक्षणम् .. द्वितीयं परीक्षणम् तृतीयं परीक्षणम् चतुर्थ परीक्षणम् . १७२ १८१ चतुर्थोल्लासे १८४ • १६४ ". . . . . . २२० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Contents 1-44. Introduction Nộtyaratnakosa Critical Apparatus Authorship of the Nịtyaratnakosa Kalasena's Prasastis Name Genealogy of Kālasena Mother Chief Queen Nikumbha-vamsa The earlier time-limit of the author of Sangitamināmsz Identification of Some Contemporaries Identity of place-names Conclusion Kumbhakarapa Appendix रत्नकोश पाचरत्नकोश पाठयरलकोश Appendix 2 Index IA 15 .. 38-43 38 . 41 . . . 42 43-44. 45-52 . एलोक पृ. सं. । श्लोक पृ.सं. १-२३२ १-७० नत्यरत्नकोशः प्रथमोल्लासे प्रपमं परीक्षणम् मङ्गलम् नोटमश.स्त्रस्य निष्पत्ति: नाटयशास्त्रस्य पारम्पयं शास्त्रसंग्रहः লাঘালানিমাস सभापतिलक्षणम् सभासन्निवेशः पूर्वरङ्गः - nrw " 22 पूर्वरङ्गाङ्गसंप्रहः प्रत्याहार: नवतरणम् आधावणा प्रारम्भः पक्रपाणिः परिघटना ... . संघोटना . १५ मार्गासारितम् प्रासारितम् Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २ । श्लोक प. सं.. श्लोक ४७ अभिनयनत्यम् ४७ - ७ ४६ ४६ ५० पू० ५१ पाठवृद्धियुक्तियुक्तमासारितम् १६ .. ५ अराल: उत्थापना . १९ ६ मुष्टि : परिवर्तिनी - . २१ ७ शिखरः "नान्दी ८ फपित्यः शकापवृष्टा ६ खटकामुखः पूर्वरङ्गविधि: १० शुफतुण्डः ११ काजल लास्यम् १२ पाकोशः . ताण्डवस. १३ अलपल्लयः 'सामान्याभिनयः । १४ सूचीमुखः चित्राभिनयः १५ सर्प शिराः श्राहार्याभिनयः . .. १६ चतुरः भारश्यादिवृत्तयः १७ मृगशीर्षः साविकभावपरीक्षा १८ हंसास्यः चतुर्दशषिध शिर, १६ हंसपक्षः ..१ समम् .. २० भ्रमरः २ धुतम् . . २१ मुकुलः ३ विघुतम् .. ३६ २२ ऊणनामः . ४ श्रावृतम् . . ३६ . २३ संबंशः ५ श्रवधूतम् २४ ताम्रचूडः ६ कम्पितम् । २५ उपधानः ७ श्राम्पितम् २६ सिहास्यः ८ उत्क्षिप्तम् २७ कदम्ब है अयोगतम् २८ निकुञ्चः १० लोलितम् २० संयुतहस्ता: .. ११ निहन्चितम १ अञ्जलिः १२ परावृत्तम् २ कपोलः १३ परिवाहितम् ३ कोटः .१४ प्रश्चितम् ४ स्वस्तिकम् वेणीधम्मिल्ला .... ५ खटकावर्धमानः २४ घसंयुतहस्ताः ६ उत्सङ्गः १ पताकः .. .. . ७ निपधः २.निपताका ८ दोल: ३ अर्धचन्द्रः .. ४५ - ६ पुष्पपुटः ४ फतीमुखः. .:४५: । १० मकरः ५१ 0 0 0 - ४४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक श्लोक प.सं. ८८८८८ rwr or or or ur ur Pur m Mm ५७ urr ३७ ur ५७ ५७ ६६ . ११ गजयन्तः १२ प्रवाहित्यः १३ बर्षमानः १४ प्रयोगमा १५ प्रालिङ्गतः १६ द्विशिखर १७ कलापः १८ किरीट: १६ चषक: २०लेखनः ३२ नत्यहस्तकाः १ चतुरस्त्री २ उवृत्ती ३ तलमुखौ ४ स्वस्तिको ५ विप्रकीर्णको ६ अरालखटकामुखी ७ भाविद्धवको ८ सूच्यास्यो ९ रेचितो १० अरेचितो ११ अर्यचतुरस्त्री १२ उत्तानवञ्चितो १३ नितम्बो १४ पल्लवी १५ पोशायौ १६ लताकरी १७ कारिहत्तः १८ पक्षवञ्चिती १६ पक्षप्रद्योतको २० दण्डपक्षों २१ गरपक्षी २२ नायमण्डलिनी २३ पाण्डलिनी २४ रोनण्डलिनी २५ उर: पावधिमण्डलो २६ मुष्टिकस्वस्तिकी २७ नलिनीपनकोशी २८ अलपो २६ उल्षणी ३० वलितो ३१ ललितो ३२ वराभयो १ प्रजनः २ चन्द्रकान्तः ३ जयन्तः पञ्चधा वक्षः १ तमम् । २ घाभुग्नम् ३ निर्भुग्नम् ४ प्रकम्पित ५ उमाहितम् अथ स्तनो पञ्चविघं पाश्वम् १ उन्नतम् २ नत्तम् ३ प्रसारितम् ४ विवतितम् ५पसृतम् पञ्चविधा कटो १ विवृत्ता २ उवाहिता ३ छिन्ना ४ कम्पिता .5 0 0 xxxxr ० ६७ ६७. ६७ Yur 99 ० ० ६०. 95FUU.. ordPO YOM .६८ प्रयोदशवरणाः १ समः २ घन्चितः ३ कुञ्चितः ४ सूची Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ. सं. श्लोक ६६. - ७३. ५ अग्रतलसञ्चरः ६ उद्घट्टितः ७. पाटितः . घटितोत्सेधः ६ घट्टितः १० महितः ११ अप्रगः १२ पाठिणगः १३ पार्श्वगः ७० प्रथमोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम् ७०-८२ प्रत्यङ्गानि पञ्चधा स्कन्धी १. लोलितो २ उच्छितो ३ त्रस्तो ७० ७४ ७४ • ७४ ७५ ७५ ४ एकोच्ची ७१.. ८ स्वस्तिक: ६ उद्वेष्टितः १० पृष्ठनुसारी ११ प्राविद्धः १२ कुञ्चितः १३ उत्सारितः १४ सरलः १५ प्रान्दोलितः १६ नम्रः वर्तना १ पताकावर्तना २ अरालवर्तना ३ शुकतुण्डायवर्तना ४ अलपल्लववर्तना ५ खटकामुखवर्तना ६ मकरवर्तना ७ ऊर्ध्ववर्तनिका ८ प्राविद्धवर्तना ९ रेचितवर्तना १० नितम्बवर्तना ११ केशवन्धवर्तना १२ फालवर्तनिका १३ कक्षावर्तना १४ उरोवर्तनिका १५ खङ्गवर्तनिका १६ पद्मवर्तना १७ दण्डधर्तना १८ पल्लववर्तना १९ अर्धमण्डलवर्तना २० घातवर्तनिका २१ ललितवर्तना २२ वलितवर्तना २३ गानवतिता २४ प्रतिवर्तनिका .७१ ७५ ५ कर्णलग्नो "नवविधा ग्रीवा १ समा .. . २ निवृत्ता ३ वलिता ४ रेचिता ५ कुञ्चिता... ६ अञ्चिता . ७ व्यस्त्रा नता .. ६. उन्नता बाहवः .. १ अवस्यिः २ अधोवस्त्र ३ तिर्यक् .. ४ अपविद्धः ५. प्रसारितः । ६ अञ्चितः । ७ मण्डलगतिः १ ভও ७७ ७७. ७७ . ७२ ७७ ७२ ७३: - ७८ पृष्ठम् m ७८ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक पृ. सं. श्लोक ७६ ७८ ७६ ५ अर्धकुञ्चितम् ..६ संहतम् ७ कुञ्चितम् ८२ प्रथमोल्लासे तृतीयं परीक्षणम ८२-१०२ उपाङ्गानि ८२: दृष्टिकरणम् ८२ . १ स्निया २ हष्टा ३ दीना .. ७४ . ७६ ७६ ७४ जठरम् चतुर्बोदरम् १ पूर्णम् २ सल्लस् ३ रिस्तपूर्णम् ४ क्षामम् पञ्चधोतः १ वलितः २ कल्पितः ३ स्तन्धः ४ उतितः ५ निवतितः दशघा जङ्का १ क्षिप्ता २ उहाहिता ३. परिवत्तिता ४ श्रावतिता ५ नता ६ निःसृता ७ वहिर्गता ८ परावृत्ता ९ तिरश्चीना १० फस्पिता पञ्चचा मरिणवन्धः १ समः २ प्राकुञ्चितः ३ चल: ४ निकुञ्चः ५ भ्रमितः is is IS SUSISIS is is its is ० ० ० ० ० if ० ० it ० ० ५ हता ६ भयान्विता ७ जुगुप्सिता ८ विस्मिता १ कान्ता २ हास्या ३ करुणा ४ रोद्री ५वीरा ६ भयानका ७वीभत्सा ८ अद्भता १ शून्या २ मलिना ३ धान्ता ४ लज्जिता ५ शङ्किता ६ मुकुला ७ वर्षमुकुला ८ ग्लाना ६ जिला १० कुञ्चिता ११ वितकिता १२ प्रभितप्ता १३ विषण्णा ० is is M ८६ . OM MOM M करभी सप्राविध जानु १ समम् २ नतम् ३ विकृतम् ४ उन्नतम् . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक १४ ललिता १५ माकेकरा १६ विशोका १७ विश्रान्ता १८ विप्लुता १६ त्रस्ता २० त्रिविधा मदिरा सप्तधा भ्रूः १ सहजा २ पतिता: ३. उत्क्षिप्ता ४ रेचिता ५. कुञ्चिता ६ भ्रुकुटी ७ चतुरा नवधा पुटी १. सभी २ कुचितो ३ प्रसृतौ स्फुरितो विवर्तितौ - निमेषितो ७ उन्मेषितो ८ पिहितौ ६ विताडितों नवताराकर्माणि १. प्राकृतम् २ प्रवेशनम् ३ वलनम् ४ भ्रमणम् ५ पातः ६ चलनम् ७ विवर्तनम् ८ समुद्र तम् 8 निष्कामः पू. सं. ८७ ८७ ८७ ८५ ८५ ८८५ ८५. ६८ ५६ ८ st ८६ * ८६ 6. ε१ ६.१ .६१ ६१ १ ६१. ६१: ६२ [] श्लोक भ्रष्टो दर्शन. नि १ समम् २ साचि ३ अनुवृत्तम् ४ अवलोकितम् ५ विलोकितम् ६ उल्लोकितम् ७ प्रलोकितम् ८प्रविलोकितम् षट्कपोललक्षणम् १ समो २ फुल्लो ३ कुञ्चितौ ४ पूणो ५ क्षाम ६ कम्पिती षोढा नासा १ स्वाभाविकी २ मन्दा ३ विकूणिता ४ नता ५ विकृष्टा ६ सोच्छ्वासा नवधा अनिलः १ प्रबद्धः २ स्खलितः ३ निरस्त: ४ विस्मितः ५ उल्लासितः ६ विमुक्तः ७ प्रसृतः ८. चलो ६ स्वस्थौ वायुः १ समः पू. सं. : ६२ ६२ ६२ ६२ ६२ ६२ ३ ६३ ६३ ६३ ६३ ६३ ३ 2.३ ૨૪. ૨૪ ૪ ६४ ૨૪ AY £x ६५ ६५ ६५ ६५ ६५. ६५ EX ६५ ६-५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्लोक सं. श्लोक b. 8 .- . . 0 0 0 Urrrrr or 0 0 0 १०० :: 0 0 १०० : . ७ २ भ्रान्तः ३ लीनः ४ प्रान्दोलितः ५ कम्पितः ६ स्तम्भितः ចុរឌី ८ निश्वासः ६ सूत्कृतम् १० सीत्कृतम् दशघाघर: १ विवर्तितः २ कम्पितः ३ विसृष्टः ४ विनिगृहितः ५ संदष्टः ६ समुद्गः ७ उत्तः ८ प्रायतः ६ विकाशी १० रेचितः प्रप्टो दन्तकर्माणि १ कुट्टनम् २ खण्डनम् ३ छिन्नम् ४ चुमितम् १७ ४ विधुतम् ६ सृक्वानुगा अष्टया चिबुकम् १ व्यावीर्णम् २ श्वसितम् ३ वक्रम् ४ संहतम् ५ वलसंहतम् ६ स्फुरितम् १०० : ७ चलितम् ८ लोलम् घोडा वदनानि १ व्याभुग्नम् २ भुग्नम् ३ उहाहि १०१ ५ विवृतम् १०१. . . .: ६ विनिवृत्तम् पाष्णिगुल्फ फराङ्गलिभेदाः पञ्चधा चरणाङ्ग लिभेदाः १ प्रधःक्षिप्ता २ उत्क्षिप्ता १०२ . .. ३ कुञ्चिता १०२ ....... ४ प्रसारिता - १०२ . ५ संलग्ना प्रथमोल्लासे चतुर्थ परीक्षणम् १०२-१०८ प्राहार्याभिनयः नेपथ्यम् अलङ्कारः १०३ प्रजरचना पुस्त: सजीजम् १०४ चतुर्धा मुत्ररागः १ स्वाभाविकः २ प्रसन्नः ६८ १७ दष्टम निजयंजन पोह जिहा 2.२२२२२००० ४ अवलहिनी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक ...............प्र. सं. ... श्लोक. .. प.सं. r or or ११५ . or ४ श्यामः .:.:.:..१०५ .. हस्तप्रचारा: १०५.... चत्वारि करणानि १ आवेष्टितम् : १०६" . .: २ उद्वेष्टितम् ३ प्रावर्तितम ४ परिवर्तितम् करकर्माणि हस्तक्षेत्राणि द्वितीयोल्लासे प्रथम परीक्षणम् १०६-११८ मङ्गलम् : स्थानकानि ......१०६ : पट् पुरुषस्थानकानि . . १ वैष्णवम् ........११०ः .. ..२ समपादम् ।..१११. : ३ वैशाखम् : ...११.१. . : ४ मण्डलम् .. ... ... ... ११.१ . . : ५. मालोड़म् . : : १११.. .... ...६ प्रत्यालीढभ . ... ११२ . . : सप्त स्त्रीस्यानकानि . ..: १ अ यतम् . . ११२ २. अवहित्थम् .. ११३ । । ३ प्रश्वकान्तम् ....१.१३ : ४ गतागतम् . ११३.. . ५ पलितम् . ११३ : . ......६ मोटितम् .. .. . :११ ७ विनिवतितम् त्रयोदशतिर्देशीस्थानकानि ... .१. स्वस्तिकम् - ११४ . . : २ वर्धमानम् ३ नन्द्यावर्तम् .. ११४... :: ४ संहतम् .. . ११४. .. :.. ५. समपादम् ..११४ :.:: ६: एकपादम् ७ पृष्ठोत्तानतलम् .:११४ . : .. ८ चतुरस्त्रम् ११४. ... ६ पाणिविद्धम् . . .:: ११५ ... १० पानिपार्श्वगतम् ११५ ११ एकपार्श्वगतम् १२ एकजानुनतम् . ११५ १३ परावृत्तम् १४ समसूचि १५ विषमसूचि १६ खण्डसूचि १७ ब्राह्मम् -१८ वैष्णवम् १६ शैवम् . २० गारुडम् २१ कूर्मासनन् २२ नागबन्धम् २३ वृषभासनम् नवोपविष्टस्थानानि१ स्वस्थम २ मदालसम् ३ क्रान्तम् ११७. ४ विकम्भितम् ११७ ५ उत्कटम् ११७: ६ खस्तालसन् ११७ ७ जानुगतम् ८ मुक्तजानु ११७ ६ विमुक्तकम् ११७ । षट् सुप्तस्थानकानि १ समम् २ पाकुञ्चितम् ३ प्रसारितम् ४ विवर्तितम् ११८ . . ५ वाहितम् ६ नतम् . द्वितीयोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम् ११६-११५ चारी :: . ११८ . . Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक प. सं. 1 श्लोक १२० १२० १२० १२० १२१ १२१ १२१ १२७. द्वात्रिंशन मार्गच यः घोडश भौम्यश्चायः १ समपादा २ स्थितावा ३ शफटास्या ४ विषयवा ५ अध्यधिका ६ चापतिः ७ एलकाप्रीडिता ८ समोत्सरितमत्तल्ली ६ मत्तल्ली १० उत्खण्डिता ११ ड्डिता १२ स्पन्दिता १३ प्रपस्पन्दिता १४ बद्धा १५ जनिता १६ ऊल्दवत्ता माकाशिक्यश्चार्य: १ प्रतिक्रान्ता २ अपक्रान्ता ३ पाश्वंक्रान्ता ४ मृगालुता ५ अध्वजागः ६ पलाता १२१ १२१ १२२ १२२ १२२ १२७ १२२ १२२ १२८ १२२ १२२ द्वितीयोल्लासे तृतीयं परीक्षणम् . १२६-१३८ मङ्गलम् १२६ देशीचार्य: .. १२६ ... पञ्चत्रिंशद्भामचार्यः (देश्य:) १ रथचका २ परावृत्ततला १२७ .. ३ नपूरविद्धिका ४ तिर्यड मुखा १२७ ५ मराला १२७ ६ करिहस्ता ७ कुलोरिका ८ विश्लिष्टा ६ कातरा'... ... १० पाणिरेचिता १२७ ११ करताडिता १२८ १२ करवेणी १३ तलोहत्ता १२८ १४ हरिणत्रासिका १५ अर्धमण्डलिका १६ तिर्यक्कुञ्चिता १७ मदालसा १२८... १८ सञ्चारिता १२६ १६ उत्कुञ्चिता २० स्तम्भकोडनिका. . . १२६ २१ लङ्घितजङ्घा १२६ :: २२ स्फुरिता १२६ २३ अपकुञ्चिता . २४ संघट्टिता २५ सुत्ता २६ स्वस्तिक: २७ तलदर्शिनी १२६. २८ पुराटी २६ अर्घपुराटी ३० सारिका .३१ स्फुरिका १२६ १२३ १२३ १२३ १२४ १२४ १२४ १२४ १२६ M ८ नूपुरपादिका ६ दोलापादा १० दग्दपादा ११ दिय भ्रान्ता १२ भ्रमरी १३ भुजङ्गवासिता. १४ प्रातिप्ता १५ मादिता १६ दत्ता १२४ . १२४ . १३०. . . १२५ १२५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक ३२ निकुट्टकः . ३३ लताक्षेपः • ३४ प्रस्खलितिका ३५ समस्खलितिका एकोनविंशतिराकाशचार्य: (देश्यः) १ विद्युदुस्रान्ता २ पुरःक्षेपा ३ विक्षेपा ४ हरिणप्लुता ५. प्रक्षेपा ६. डमरी ७ दण्डपादा पङ्घ्रिताडिता & जङ्घालङ्घनिका १० अलाता ११ जङ्घाव १२ वेष्टनम् १३. उद्व ेष्टनम् १४ उत्क्षेपः .१५ पृष्ठोत्क्षेपः १६ सूची १७ विद्वा १६ प्रावृतम् १६ उल्लालः पृ. सं. १३० १३० १३० १३० १३० १३० १३१ १३१ १३१ १३१ १३१ १३१ १३१ १३१ १३१ १३२ १३२ १३२ १३२ १३२ १३२ १३२ १.३२ कलानिधेरुद्ध तं रेचकदेशचार्यादि- १३३ विषयक प्रकरणम् रेचफलक्षणम् (पञ्चविंशतिः) देशीचार्यः १. पुरः पश्चात्सरा २ पश्चात्पुरःसरा १३ त्रिकोणचारी ४. एकपादकुट्टिता ५ पदद्वय कुट्टिता ६ पादस्थितिनिकुट्टिता ७ क्रमपाद निकुट्टिता [१०] १३३ १३४. १३५ १३५ १३५ १३५ १३५ १३५ १३५ श्लोक पार्श्वद्वयचारी 8 डमरुकुट्टिता १० डमरुदयकुट्टिता ११ पुरःक्षेपनि कुट्टिता १२ पश्चात्क्षेप निकुट्टिता १३ पाश्र्वक्षेपकुट्टिता १४ चतुष्कोणकुट्टिता १५ मध्यस्थापनकुट्टिता १६ तिरश्चीनकुट्टा अर्धप्रसारिका वा १७ पृष्ठ लुठिता १८ पुरस्ताल्लुठिता १६ अनुलोमविलोमा K २० प्रतिलोमविलोमिका दश भौममण्डलानि १ भ्रमरम् २ प्रास्कन्दितम् ३ श्रावर्तम् ४ शकटास्यम् ५ अडितम् ६ समोत्सरितम् ७ श्रध्यर्धम् ८ एलकाकोडितम् पृष्ठकुट्टम् १० चाषगतम् दशाकाशिक मण्डलानि १ प्रतिक्रान्तम् २ दण्डपादम् १३५ १३६ १३६ २१ समपादनिकुट्टिता २२ चक्रकुट्ट निका २३ मध्यलुठिता २४ वक्त्रकुट्ट निका २५ मध्यचका द्वितीयोल्ला से चतुर्थ परीक्षणम् १३८-१४४ मण्डललक्षणम् १३६ १३६ १३६ १३६ १३६ पृ. सं. १३६ १३७ १३७ १३७ १३७ १३७ १३७ १३७ १३७ १३७ १३८ १३८ १३८ १३६ १३६ १३६ १३६ १४० १४० १४० १४० १४० १४० १४१ १४१ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक प. सं. लोक १४३ ३ वतितम् १५४ ३ प्रान्तम् १४१ ४ ललितसञ्चरम् १४१ ५ सूचीयिद्धम् १४२ ६ घामघिद्धम् १४२ ७ विचित्रम् ८ विहृतम् १४३ ६ अलातम् १० ललितम् १४३ तृतीयोल्लासे प्रथम परीक्षणम् १४५-१६४ मङ्गलम् १४५ शुद्धकरणानि प्रष्टोत्तरशतं करणानि १ तलपुष्पपुटम् १४७ २ लोनम् १४७ १४७ ४ वलितोरू ५ मण्डलस्वस्तिकम् ६ वक्षः स्वस्तिकम् १४८ ७ स्वस्तिकम् १४८ ८ आक्षिप्तरेचितम् १४० ६ पृष्ठस्वस्तिकम् १४८ १० अर्धस्वस्तिकम् ११ दिक्स्वस्तिकम् १४६ १२ उन्मत्तम् १४६ १३ समनखम् १४ अपविद्धम् १४६ १५ ञ्चितम् १४६ १६ स्वस्तिफरेचितम् १७ निकुट्टम् १८ अर्धनिफुट्टम् १५० १६ कटोछिन्नम् २० कटोसमन् १५० २१ विक्षिप्ताक्षिप्तिकम् २२ भुजङ्गात्रासितम् २३ अलातम २४ निश्चितम् २५ गितम् २६ अरेचितम् २७ अजानु २८ प्रधमतल्लि २६ रेचकनिकुट्टितम् ३० मतल्लि ३. सलितम् ३२ दलितम ३३ दण्डपक्षम ३४ नूपुरम् ३५ पादविद्धम् ३६ भुजजनम्तरेचितम् ३७ भुजङ्गानितम् ३८ छिन्नन् ३६ भ्रमरम ४० दण्डरेचितम ४१ चतुरम् ४२ कटिभ्रान्त ४३ व्यंसितम् ४४ प्रान्तम् ४५ वैशाखरेचितम् ४६ पावनिकुट्टितम् ४७ चज्ञमण्डलम् ४८ वृश्चिक ४६ लतावृश्चिकम् ५० वृश्चिककुट्टितम् ५१ प्रक्षिप्तम् ५२ अर्गलम् ५३ वृश्चिक रेचितम् ५४.उरोमण्डलम् ५५ आवर्तम् ५६ तलविलासितम् ५७ ललाटतिलकम ! ५८ दोलापादम् १४८ १४६ । १५६ १५६ १५६ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . । १२ ] प. सं. श्लोक : १६२ १.६२ س س १६३ س १६४ ५६. कुञ्चितम् । ६०. विवृत्तम् .. .. १५७ . ६१ विनिवृत्तम् .. १५७ ६२ पार्श्वकान्तम् .: १५७ ६३ निशुम्भितम् : १५७ ६४ विद्य भ्रान्तम् . : .. १५७ .६५ प्रतिक्रान्तम ६६ विक्षिप्तम् ६७: वितितम १५८ ६८ गजक्रोडनकम् १५८ ६६ गण्डसूची -:: ७० गरुडप्लुतम -... ७१ तलसंस्फोटितम् .. १५८ - ७२ पार्वजानुः . . १५८ ७३ गृध्रावलीनकम् .. १५६ ७४ सूची विद्धम् . . १५६ ७५ सूचि . . .. १५६ . - ७६ अर्घसूची ... १५६ ७७ हरिणप्लुतम् . १५६ .... . ७८ परिवृत्तम् - ७६ दण्डपाद . ...१५६ ८० मयूरललितम् . . . . . १६५. . ८१ प्रेझोलितम् - ८२. सन्नतम् ... ... .. १६० ८३. सर्पितम् : - ८४ करिहत्तम् . १६० ८५.प्रसर्पितम् ८६ अपक्रान्तम् ८७ नितम्बम् . ........१६१ . , . -८८ स्खलितम् . . . . ... .. ... १६१ ८६ सिंहविकोडितम्.. ६० सिंहाकषितम् .. १६१: . ६१ प्रवाहित्यम् ......१६१. ६२ निवेशम् . ..: १६१. .. : -: :६३ एलकाकोडितम् .. १६२ ६४ उत्तम् १६२ ६५ जनितम् ६६ तलसंघट्टितम् ९७ विष्णुकान्तम् ६८ अपसृतम १६२ ९६ लोलितम् १६२ १०० मदस्खलितम् १६२ १०१ वृषभकीडितम् १६३ १०२ संभ्रान्तम् १६३ १०३ उद्घट्टितम २६३ १०४ विष्कुम्भम् १६३ १०५ शकटास्यम् १०६ ऊरूद्धृतम् १६३ १०७ नागासपितम् १६४ १०८ गङ्गावतरणम् तृतीयोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम मङ्गलस् पत्रिंशत् देशीकरणानि १ अञ्चितम १६५ २ एकचरणाञ्चितम् ३ भैरवाञ्चितम् ४ दण्डप्रणामाञ्चितम् ५ कर्तञ्चितम् ६ तिर्यगञ्चितम् ७ समपादाञ्चितम ८ नान्तपादाञ्चितम् . ६ अलग १० कूलिगम ११ ऊलिगम् १२ अन्तरालगम् १३ लोहडी १४. एकपादलोहडी १५ कर्तरी लोहसी १६ दपंसरणम् १७ जलशयनम् .. १६७ १७५ १६० . १६ .. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक पृ.सं... .१७२ १७३.... १७४ . १७४ . . . . १७४ US or or or or ormomorrow or or or or १७४ ... १७४ - १७५ :. १७५ १७५ .... १६६ पृ. सं. 1 श्लोक १८ नागवन्यम् १६ कपालचूर्णितम् २० नतपृष्ठम् १६७ २१ मत्स्यकरणम् २२ करस्पर्शनम् १६७ २३ एणप्लुतम् १६७ २४ तिर्यकरणम् २५ तिर्यवस्वस्तिकम् २६ स्कन्यभ्रान्तम् २७ सूच्यन्तम् २८ बाह्यभ्रमरी १६८ २६ अन्त मरी १६८ ३० छत्रभ्रमरी १६८ ३१ तिरिषभ्रमरी '१६८ ३२ अलगभ्रमरी ३३ चक्रभ्रमरी १६६ ३४ उचितभ्रमरी १६६ ३५ शिरोभ्रमरी ३६ दिग्भ्रमरी १६६ प्रानन्दसञ्जीवनाद् उद्धृतं नमरीविषयकं प्रकरणम् १ हृदयंगमाः १७० २ शीर्षपल्लवाद्वयम् १७० ३ कुञ्चिता १७० ४ भूमिपल्लवा ५ चक्रवतिनी १७० ६ लास्यमण्डलिका ७ तिर्यग्मण्डलिका १७१ ८ सिंहासना १७१ ६ परिमण्डली १० न्युटनकृता १७१ ११ तलदर्शिका १२ मेलापनी १७१ १३ भ्रमः १७२ तृतीयोललात तृतीयं परीक्षण अङ्गहाराः चतुरलमानेनाङ्गहारः १ स्थिरहस्तः २ पर्यस्तकः ३ भ्रमरः ४ अपसपितः ५ प्राक्षिप्तिकः ६ परिच्छिन्नः ७ वैशाखरेचितः ८ पाश्र्वस्वस्तिकः ९ सूचीविद्धः १० अपराजितः ११ मदविलसितः १२ मत्ताकोड: १३ भालोढः १४ प्रान्छुरितः १५ पावच्छेदः १६ विद्यद्धान्तः ज्यत्रमानेनाङ्गहारा: १ विष्कुम्भापसृतः २ मत्तस्खलितः ३ गतिमण्डल: ४ अपविद्धः ५ विष्कुम्भः ६ उद्घटितः ७ प्राक्षिप्तरेचितः ८ रेचितः ६ अर्घनिफुट्टक: १० वृश्चिकापसृतः ११ अलालकः १२ परावृत्तः १३ परिवृत्तरेचितः १४ उद्वत्तः १५ संभ्रान्तः १६ स्वस्तिफरेचितः १७५ १७६ १७६ . . . . १७६ . १७६ १६९ ... १७६ १७६ . १७७. १७७ १७७ : १७७ १७८ . १७८ १७९ १७६ १७६ १७१ १७६ १७१ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ १६४ १८२ ३ धौथीप्रहसने [ १४ ] ...श्लोक पृ.सं. श्लोक १७ गोविन्द प्रियः १८० हंसकलासत्रयम् १६२ १८ माधधप्रियः .. १८१ उपाध्यायलक्षणम् प्रङ्गहारविधिः प्राचार्यः तृतीयोल्लासे चतुर्थ परीक्षणम् १८१-१८४ नटः रेचकलक्षणम् वैतालिकः १६३ १ कररेचक: १८२ चतुर्थोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम् १९४-१९८ - ३ चरणरेचकः १५२ मङ्गलम् ३ कटिरेचकः १८२ प्रथ न्यायाः ४ कण्ठरेचकः १ भारतः चतुर्थोल्लासे प्रथम परीक्षणम् १८४-१९४ २ सास्वतः १६४ : भारती ३ वार्षगण्यः १६५ . १ प्ररोचना १८५ ४ कैशिक: ..२ प्रामुखम् १८५ पेरणीलक्षणम् १६५ १८५ १ पडिव : १६६ सात्वती : २ चापडपः १६५ .१ उत्यापकः . १८५ ३ शिरिपिटी १६६ २ परिवर्तकः ४ अलग पाट: १६६ ३ संलापकः ५ शिरि हिरम् ..४ संघात्यक: १८६ ६ खुलहुलुः २६६ शिकी ७ धकः १ नर्मस्फोट: : चित्रका १९७ २ नर्मगर्भः पञ्चका १९८ ३ नमस्पुञ्जः रूढा ४ नमः विषमम् १६७ : प्रारभटी... १६७ १ वस्तूत्थापनम् कविचारक: १६७ ३ संफेटकः . १८७ भावाश्रयः १६७ ३ संक्षिप्तः. पेरणीपद्धतिः १६८ ४. प्रवपातः : कोलाटिकः द्वाविंशतिकलासकरणानि चतुर्थोल्लासे तृतीयं परीक्षणम् १९९-२१९ विद्युत्कलासस्य षड्भवाः : १८८ द्वादशमार्गलास्याङ्गानि खङ्गकलासचतुष्टयम् १८६ १ स्थितपाठ्यम् - २०० मगकलासः १८६ २ द्विमूढम् २०० बककलासचतुष्टयम् १६० ३ त्रिमूढम् २०१ मंडूककलासचतुष्टयम् .. १६१ ।। ४ पुष्पमण्डिका २०१ १८६ १८६ १६६ १८६ गीतम् ...१८७ १८७ १६८ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक पृ . २०७ २०७ २०८.. २०८ २०८ २०८ . २०८ . २०५ २०६ له : २०४ . २०४ २०४ २११ . १५ ] रलोक २०१ २७ विवर्तनम् २०१ २८ मसणता २०२ २६ विहसी २०२ . ३० गीतवाद्यता २०३ ३१ विलम्तिम् २०३ ३२ प्रभिनयः २०३ ३३ अनङ्गानम् २०३ ३४ कोमलिका ३१ तूकम् २०४ ३६ उयार: २०४ नानागतिप्रचारनृत्यम् देशीनत्यभेदाः १ शिवप्रियम् २ रासकनृत्यम् २०५ . ३ नाट्यरसिकम ४ दण्डरासकम् ५ चर्च रोनृत्यम् २०५ ६ दोहकनृत्यम् २०५ देशीनृत्यपरिभाषा २०५ नृत्याङ्गानि २०६ देशोगीतनृत्यविधिः २०६ १ पालप्तिनृत्यम् २०६ २ माठकनृत्यम् . २०६ ३ रूपकनृत्यम् ४ अड्डताल: २०६ ५ यतिनृत्यम् २०६ . . ६ प्रतितालनत्यन् :२०६ नवरसा: :२०७ १ शृङ्गाररसः । २ हास्यः २०७ ३:- करणः ४ रौद्रः २०७ ५ वीरः ६ भयानकः २०७ ७ वीभत्स: . له २०५ २१२ २१२ ५ पच्छेदकः ६ शेषपदम् ७ पासीनम् ८ सैन्धवम् ६ उक्तप्रत्युक्तम् १० उत्तमोत्तमकन् ११ वैभाविकम् १२. चित्रपदम् षत्रिंशन देशीलास्याङ्गानि १ सौष्ठनम् २ स्थापना ३ तल: ४ लडिः ५ चालि: ६ चलाचलिः ७ सुकलासः ८ थरहरम् ६ किन्तु १० उल्लासः ११ उरोङ्गणम् १२ ढिल्लायी १३ त्रिकलितः १४ भावः १५ देशीकारम् १६ निजापणम् १७ अङ्गहारः १८. मनः १६ ठेवा २० लयः २१ मुखरसः २२ यसकः २३ वितान् २४ शङ्का २५ नोकी - २६ नमनिका २०५ . २१२ २१३ २१३ : २०६ २१३ . २१४ . . . . २१४ २१६ २१७ : .. २०७ २१७ २१७ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक २२० पृ.सं. ८.अद्भुतः २१८ ९ शान्त: २१८ चतुर्थोल्लासे चतुर्थो परीक्षणम् २२०-२३२ पात्रलक्षणम रेखा २२२ . पात्रगुणाः पात्रदोषाः . . २२२ पात्रमण्डनानि . २२३ संप्रदायलक्षणम् - २२४ - - संप्रदायगुणदोषौ २२५: ... श्लोक पृ.सं. शुद्ध पद्धतिः २२५ गोण्डलीविधिः २२६ श्रमविधिः परिशिष्ट १,२,३ १-७४ (१) लोकानुक्रमणिका . ..१-३२ (२) पारिभाषिक शब्दानुक्रमः ३३-७२ (३) ग्रन्थकारनिर्दिष्टग्रंथानां.. ग्रन्थकृतां चाकाराधनुक्रमणी ७३-७४ Bibliography - ७५-७६ • Errata - शुद्धिपत्रक ७८ . - - . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 'भागन्यस्य विषयानुक्रमः T Morr .. “पृष्ठ प्रथमोल्लासे प्रथम परीक्षणम् १-७० मङ्गलम् नाट्यशास्त्रस्य निष्पत्तिः नाट्यशास्त्रस्य पारम्पयंम् शास्त्रसंग्रहा नाट्यशाला निर्माण सभापतिलक्षणम् सभासन्निवेशः पूर्वरङ्गः पूर्वरङ्गाङ्गसंग्रहः . प्रत्याहारः अवतरणम ~ ~ ~ ~ www " ० ० ० mm " भारत्यादिवृत्तयः सात्विकभाषपरीक्षा शिरसो भेदा: देणोधस्मिल्ला. प्रय हस्तप्रकरणम् .. ४२.. असंयुतहस्ताः संयुतहस्ताः नृत्यहस्ताः श्रय वक्ष: प्रय स्तनो प्रय पाश्चम अथ फटी य चरण: प्रथमोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम् ७०-८२ . . प्रत्यंगानि ८७ नाधावणा ७० - ... -७२ . .. C १ .७४ प्रारम्भः घश्नपाणिः परिघट्टना संघोटना मार्गासारितम् प्रासारितम् पाठवृद्धियुक्तियुक्तमासारितम् उत्थापना परिवत्तिन नान्दी शुक्कापकृष्टा पूर्वरंगविधिः अभिनयनृत्यम् ग्रीवा बाहवः घर्तना पृष्ठम् जठरम् ऊरः.. ७८.. मणिवत्यः लास्यम् करभो . जानु प्रथमोल्लासे तृतीयं परीक्षणम् ८२-१०२ उपांगानि प्रय दृष्टिप्रकरणम् ताण्डवम् . सामान्याभिनयः चित्राभिनयः । प्राहार्याभिनयः ८२ . F पुटो ... ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताराकर्माणि दर्शनानि कपोलो नासा प्रनिल: घायुः श्रधर: दन्तकर्माणि जिह्वा चिवुकम् घदनम् पाणिगुल्फकरांगुलिभेदाः चरणगुलिभेदाः प्रथमोल्ला से चतुर्थ परीक्षणम् - श्राहार्याभिनयः नेपथ्यम् अलंकार: अंगरचना पुस्तः वस्त्रकर्म सजीवस् मुखरागः हस्तप्रचाराः करणानि . फरकर्माणि हस्तक्षेत्राणि द्वितीयोल्ला से प्रथमं परीक्षणम् मङ्गलम् स्थानकानि पुरुषस्थानका नि स्त्रीस्थानकानि वेशीस्थानकानि उपविष्टस्थानानि सुप्तस्थानकान • Hind पृष्ठ ६२ ६३ ३ ૨૪ ६५ २७ ६८ && ££ १०० १०१ १०१ १०२-१०८ १०२ . १०३ १०३ १०३ १०३ १०३ १०४ १०४ १०५ १०५ १०६ १०.६ : १०६-११८ : १०६ १०६ ११० ११२ ११४ ११.६ ११८ ग.) Load, द्वितीयोल्ला द्वितीयं परीक्षणम् चारी मार्गचार्य : भौम्यश्चार्यः श्री काशिक्यश्चार्यः द्वितीयोल्लासे तृतीयं परीक्षण् मङ्गलम् देशीचार्यः देश्यो भौमचार्यः देश्य श्राकाशचार्य: ११-१२५ ११६ १२० १२० १२३. १२६-१३२ १२६ १२६ . १२६ १३० कलानिधेरुद्धृतं रेचकदेशी चार्यादि विषयकं प्रकरणम् १३३-१३८ रेचकलक्षणम् देशोचार्य: द्वितीयोल्ला से चतुर्थ परीक्षणम् पृष्ठ मण्डललक्षणम् भीममण्डलानि प्रकाशिक मण्डलानि तृतीयोल्ला से प्रथमं परीक्षणम् १३८-१४४ १३८ १३८ १४१ मङ्गलम् शुद्धकरणानि तृतीयोल्ला से द्वितीयं परीक्षणम् १३३ १३४ १४५-१६४ १४५ १४५ १६४-१७२ १६४ १६४ तृतीयोल्ला से तृतीयं परीक्षणम् मङ्गलम् देशीकरणानि श्रानन्दसन्जोधनाद् उद्धतं भ्रमरोविषयकं प्रकरणम् १६६-१७२ १७२-१८१ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घङ्गहारा:चतुरस्रमानेनाङ्गहाराः त्रयमानेनाङ्गहाराः घङ्गहारविधिः तृतीयोल्लासे चतुर्थं परीक्षणम् मङ्गलम् रेचलक्षणम् चतुर्थोल्लासे प्रथमं परीक्षणम् मङ्गलम् भारती सात्वती कैशिकी घारभटी फलांसा : विद्युत्कलासाः खङ्गकलासा: मृगकलासा: वक्रफलासाः मण्डूकफलासाः सकलासा: उपाध्यायलक्षणम् साचार्य: नटः नर्तक: वैतालिकः [s] १८१-१६४ १८९ १८२ पृष्ठ १७२: १७३ १७६ १८१ चतुर्थोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम् १८४-१६४ १८४ १६४ १८५ १८६ १८७ १८७ १६६ १८६ १८६ १६० L Æર્ १२ १६३ १६३ १६३ १६३ - १६४-१६८ मङ्गलस् श्रथ न्यायाः पेरणीलक्षणम् पेरणी पद्धतिः कोह्लाटिकः चतुर्थेत्लासे तृतीयं परीक्षणम् श्रय [मार्ग] लास्याङ्गानि देशी लास्याङ्गानि नानागतिप्रचारनृत्यम् देशीनृत्यभेदा: देशी नृत्यपरिभाषा नृत्याङ्गाति देशी गीतनृत्यविधिः नवरसा: (रसनृत्यं च ) चतुर्थोल्लासे चतुर्थं परीक्षणम् पात्रलक्षणम् रेखा पात्रगुणाः पात्रदोषाः गुणदोषपरीक्षा पात्रमण्डनानि संप्रदायलक्षणम् संप्रदायगुणदोषों शुद्ध पद्धति: गौण्डलो विधिः श्रमविधिः पृष्ठ १६४ १९४ १६५ १६७ १६८ १६६-२१६ १६६ २०३ २०६ २११ २१२ २१३ २१३ २१४ २२०-२३२ २२० २२१ २२१ २२२ २२२ २२३ २२४ २२५ - २२५ : २२६ २२५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nrtyaratnakoso: Nṛtyaratnakosa, published in two parts in the Rajasthāna Puratana Granthamālā, is a part of a bigger work called Samgitarāja, which is described in the colophons as a Samgita-mimamsa consisting of 16,000 verses (S'odaṣasahasri). The Samgitaraja contains the following Ratnakos'as (1) Pathyaratnakos'a, (2) Gitaratnakos'a, (3) Vādyaratnakos'a, (4) Nṛtyaratnakos'a and (5) Rasaratnakos'a. Of these, Pāṭhyaratnakoşa edited by Dr. C. Kunhan Raja was published in Bikaner in Ganga Oriental Series, as No. 4, in 1946. - INTRODUCTION * Critical Apparatus : The present edition of Nṛtyaratnakos'a is based on the following three manuscripts:" I Ms. A. Place of deposit - Anup Sanskrit Library, Bikaner. Material Paper. Folios - 144. Size 7-3/4" X 3-1/2" ; A page contains about 8 lines and a line about 44 letters. - - Extent Four Ullasas. Each Ullasa contains four Parikṣaṇas. Script Devanagari Date not mentioned. Appears to be about 300 years old, Ms. B. Place of deposit - Oriental Institute, Baroda, No. 9931 Material Paper Folios-144 No. 3518. Size 10-1/2" X 4-1/2"; A page contains about 8 lines and a line about 43 letters. Extent Four Ullasas, each with four Parikṣaṇas. Script Devanagari. Date Not mentioned. Appears to be about 300 years old. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION Ass. C. Place of deposit - Anáp Library, Bikaner, No. 3519 Material - Paper Folios - 110. Folios 52 and 53' newly substituted; hand-writing differs in folios 66, 67, 84, 105, 110, Size - 7-3/4' X3-1/4: A page contains about 9 lines and a line about 36 letters. Extent - Four Ullāsas, each with four Pariksaņas. Script - Devanagari Date - Not mentioned. Appears to be about 300 years old. A comparative study of these three Mss. shows that Mss. A&B mostly agree in their readings, whereas Ms. C has important variants. These variants of C, have provided correct readings in several places where the readings of A & B are unsatisfactory. We have tried to emend many other incorrect readings with the help of the readings from the chapters of the Nātyas'āstra of Bharata on the same subject, and Samgitaratnākara of Sārngadeva as well as fiom the quotations from several works on Nrtyasastra given in the Bharatakosa prepared by M. Ramakrishna kavi. However a number of readings still remains unsatisfactory. We have, in the footnotes, noted the various readings of the Mss. and given the quotations from other works with whose help we have emended the text. This will give to the critical scholar material to make his choice of the readings. The Sanskrit translation of Prakrit verses (Ullāsa 4, Parikşaņa 3) has also been given in the footnotes. At the end of the second part of the text, that is this voloume, we have appended alphabetical indexes of verses, of important technical words and of the works and authors referred to in the text. II Authorship of the Nrtyaratanakosa : Who is the author of the Samgitarāja-Samgitamimāṁsā of sixteen thousand verses? Two kings - Kumbhakarņā and Kālasena - claim the title. The anomaly arises from the fact that some Mss. of the work in their colophons as well as the body of the text mention Kumbhakarna as the author, while some others, Kālasena. The statistical evidence of the Mss. of the Pathyaratnakosa is more confusing than enlightening. Dr. Kunban Raja, on the strength of this type of evidence comes to the rather amusing conclusion that because the majority of the Mss. examined by him mention Kālasena as the author, the work Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRTYARATNAKOSA [ 3 should be given as by Kālasena and that - a very careful examination of the position leaves no doubt that the author is definitely Mahārānā Kumbha of Mewar. Let us now examine the evidence supplied by the three Mss. of Nityaratnakosa. 2. Ms. A, mentions S'ri Kumbhakarņa as the author of the work in - each of the Pariksaņas as well as the Ullāsas. In the body of the text also, Kumbhakarņa is referred to. Ms. B. also has identical references with one exception. At the end of the first Parikṣaṇa of the first Ullāsa, there is vacant space for about two lines. This is a bit surprising, because at the end of the other Pariksaņas and Ullāsas, the space is completely written. A minute observation of the vacant space appears to suggest that some writing has been erased, probably for writing something else. May this not suggest that the personi who wanted to change the name of the author from the colophons of the Ms. commenced his work by blotting out the old writing but for some reason or other could not finish his job? Ms: C. : The position regarding the names of the author in the Ms. C. is as follows: Ullása Parīkşaņa Name of the author Kālasena (1) S'ri Kumbhakarna Kālasena S'ri Kumbhakarņa Kālasena S'ri Kumbhakarņa - . IV. Kālasena Sri Kumbhakarņa (9) (10) 1.' 'Sangitarāja Vol. I - Pathyaratnakos'a, Preface pp. XXII-XXII. "Although the author is Kumbhakaina, still I must respect the manuscripts which formed the basis of this edition and I must accurately present the manuscript material. So I have given the work as by Kalasena and I have given the name of Kumbhn. karna only in the Title page and that within brackets."For a detailed discussion sce pp.IXL-L:: Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 INTRODUCTION III Ullasa Parīkşana Name of the author IV (11) 3 S'ri Kumbhkarna Kālasena ...:(5) Thus Kumbhakarņa is mentioned 11 times, and Kālasena 5 times. In the body of the text, however, the Ms. C refers to Kumbhakarna as follows: Ullasa Parīksana Sloka Njention of the Name 17 Kumbhanrpopadhiḥ 96 S'ri Kumbhakarna-Sangita Gitagovinda, etc. 102 Kumbhabhūbhujā IV 159 Kumbhasvāmi Thus as far as the three Mss. of Nrtyaratnakosa are concerned, the majority of the references gives to Kumbhakarņa the title of authorship. We have also consulted the other Ratriakos'as in the Samgitarāja ... Ms. belonging to the library of the Oriental Institute of the M. S. University, Baroda. They uniformly mention in their colophons Kumblıakarņa as the author, The crucial evidence, however, is the mention of Kumbha in Ms. C... : in the body of the text of Paríkşaņa I of Ullāsa I (p. 3. v. 17. p. 9 v. 96.) whose colophon gives Kālasena as the name of the author. Here, one ..' may say, the scribe has been caught napping. The colophon of the second Pariksaņa of the fourth Ullāsa of:.: Pāțhyaratnakosa mentions Kālasena as the author of the work. The verse preceding the colophon, however, is as follows: न्यस्य लक्षणसंघातं यस्मिन् मेने कृतार्थताम् । T: F949 ate hat GTEVE: 11 68 (q. 80) Here is a veiled reference to the author. There can be no doubt that the act of depositing (F2T47) can be properly done in a Kumbha (a jar) and not in Kāla (time or black colour). We, therefore, think that Kumbha is indicated in this verse and not Kāla. If the reference is to the myth of the drinking of the ocean by Agastya, it would also be suggestive of Kumbha, because Agastya is called Kumbhsambhava. N In the light of the evidence discussed above it is reasonable to conclude that as between Kālasena and Kumbhakarņa, the authorship of Nrtyaratnakosa should be assigned to Kumbhakarna. 1. See Appendix 1 to the Introduction, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRTYARATNAKOSA [5 This, however, raises another question : how to explain the attribution of authorship of the work to Kālasena? Dr. Kunhan Raja guesses that Mahārāṇā Kumbha had the name Kālasena also, and that in a particular Ms. the name Kumbha was suppressed deliberately and that this other name was put in the place. His reason for this rather queer procedure is that someone was using the copy for dancing girls and "he was purposely concealing the name. But this explanation leaves other related questions unsolved. Kālasena has a geneology of his own which is different from that of Kumbhakarņa, has a different mother and a different queen. As we shall see the several places mentioned in the colophons of Kālasena are different and situated in the Marhatta country round about the region of Nasik and Tryambak. So there is no doubt that Kālasena is a person different from Kumbhakarna, and so this double attribution of authorship remains unexplained. A comparative study of Nịtyaratnakosa and Samgitaratnākara of Sārñgadeva shows that the former is based upon the latter. Not only that, but a long quotation from Kalānidhi (of Kallinātha) a commentary on Samgitaratnākara is given in the Nộtyaratnakosa (p. 134). This shows that whoever wrote N. R. he was well-versed in Samgitaratnākara and its commentary Kalānidhi. In the colophon of Kumbhakarna, we are told that he wrote a drama in Telugu also. Kumbhakarņa's proficiency in Sanskrit and Prakrit, it is possible to accept; but it is straining our credulity to accept that he was proficient in Telugu also This, however, would be possible for Kālasena or Kāluji as he is often called. Familiarity with Samgitaratnākara and Kalānidhi, though possible in both, can be more easily accepted for Kālasena. Still, however, the atribution of Samgitamīmāṁsā to Kumbhakarņa being supported by stronger evidence cannot be shaken by these considerations. So the only way in which we can explain this plagiarism is to take it as rather a transference of authorship. Some southern Pandita or Panditás who wrote the Telugu play and Samgitamimāṁsā, first presented the authorship to Kumbhakarna and then transferred it to Kālasena. But we must state that there is no solid evidence to support this guess and so for the present we must leave the question here. Kālasena's Pras'astis : The main argument, as we have said, against the identity of Kālasena with Kumbhakarna is that the Pars'astis of Kālasena prove him to be an altogether different person from Kumbhakarņa. Let us examine these P 1. See pp. XLVII-XLIX, Introduction. Sangita Raja, Vol. I, 2. Some such view is held by Sri Ramakrisna Kavi. See p. X. Introduction. Bharatakos'a. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 ] INTRODUCTION Prasastis1 and the introductory verses of the Pathyaratnakos'a and see what facts can be ascertained from them. Name: The Ms. C. of Nṛtyaratnakos'a gives to this person only one name Kalasena. But in the printed text of Pathyaratnakos'a we find such variants of Kalasena as Kalajit, Kaluji", Kṛṣṇa and Tamarāji". Mention of Kama seems to be a misprint for Kala". Geneology of Kalasena: In the Pathyaratnakosa, Kalasena refers to his dynasty as Vyaghrac mikaravams'a3. We can gather the following geneology of Kalasena from his Prasastis: Tamarāja (1) Amodarāja Rāmarāja Penkarāja [Peḍa] P. R. K. P. 3, V. 12. Mhamaraja [Hmanga] P. R. K. V. 13, (Queen Padmavati) Tamarajendra [Tamaraja] P. R. K. P. 5, V. 16. Kālasena The second Tamaraja is described as Mahārājādhirāja-MahārāṇāS'rimrgānka Tamarajendra. It is not clear as to what is suggested by Srimṛganka. Mrganka means the moon. Tämarajendra can be taken to mean Tama, the great king. W 1. The Ms. C. of Nṛtyaratnakos'a gives short, long and very long Pras'astis of Kälasena as under : P. 70 a Prasasti of two lines; pp. 107, 144, 183, Pras'astis with 26 titles, and pp. 230-231 a very long Prasasti with 105 titles. Similarly the Pathyaratnakos'a gives short Pras'astis on pp. 13, 14, 23, 33, 41, 45, 53, 69; a long one on pp 8, 18, 38, 55 and a very long one on pp. 72-75. 2. Pathyaratnakos'a, pp, 2-5, verses 6-34. We have tried to collect cur information from these and also stray verses in the Pathyaratnakosa. 3. P. 37, verse 33. 4. P. 6, V. 37, 38, 42; P. 9, V. 7; P. 58, V.10. 5. P. 59, V. 16; P. 60. V. 20; P. 66, V. 48. 6. P. 15. V.3; P. 25, V. 13; P. 63, V. 40. 7. P. 38, V.37. 8. P. 2, V. 6. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JRTYARATNAKOSA Mother : The name of the mother of Kālasena was Jasamāmbikā. Chief Queen: His chief queen's name was Slri-Karmavati-Lașumā (or Lakhumā) Devi? She came from the family of Nikumbha-chieftains. We have some evidence regarding the existence of the Nikumbhaamsa. Two inscriptions of this family?,- one of the Saka year 1075= 1153 A. D. of Govana - III and the other of the S'aka year 1128=1206 A D, mentioning a grant of a village to a college for the study of the works of Bhāskarācārya, - have been published. From these two ins...criptions the following pedigree is given by Bühler, Nikumbhavamsa 1. Krsnarāja - I ( about 1000 A. D.) 2. Govana - 1 3. Govindrāja 4. Govana - II 5. Kļņarāja - II aja - married Sridevi of the Sagara race, regent after his death. 37.. Govana - III 8. Sonhadadeva 9. Hemādideva (Saka 1128=1206-7 A. D.4) *. From an inscription of Sonhaďadeva we learn that the Nikumbba. vas'a was a feudatory family of the Yādavas of Devagiri'. The Yadava : :1. The name in the three Pras'astis of the P, R. K. Pp. 18 38 and 55 is Laghu mādevi, but in the every long Pras'asti (p.75) the name is Lakhumādevi as above. 2. A grant of a prince named Prithivivallabha-Nikumbhallas'akti of Sendraka family was issued from Bagumra of Baroda territory on the 8th August, A.D.655 He was in charge of Lāta. See B. G. Vol. I, Part II. pp. 311 and 360. We cannot say whether this Nikumbhallas'akti has anything to do with the Nikumbha. vansa.. 3. Indian Antiquary Vol. III 1879 pp. 39-42 and Journal of the Royal Asiatic Society: N. S. Vol. I pp. 414-418 respectively. ::: 4. There is a misprint in the I, A. The years are given as 1216-17 A.D The mistake has been repeated in the Khandesh and Nasik Gazetteers. 5. After describing in the first seven verscs Bhāskarācārya (1-3), the Yadu-varus'a (4) Bhillama and Jaitrapāla (5) and Singhana (6-7) the inscription proceeds: spa atragatura 11 17 HiFFITTA etc. J. R. A.S: N. S. Vol. I pp. 414-15; Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] INTRODUCTION Prof. Nilakanta Sastri. Any way Kallinātha seems to be a contemporary of Mallikārjuna's predecessor Pratāpavān Immaại Devarāya. If this is so, it gives some appreciable priority in time to Kalānidhi over the Nộtyaratnakosa. The Nstyaratnakosa must have, therefore, been composed circa 1450 A.D. If, therefore, Kālasena was the author of the Nrtyaratnakosa he. must have lived about this time or after it. We should, therefore, look for his contemporaries in the 15th century A.D. Identification of some contemporaries : Now let us consider the names of some of the rulers whom Kālasena :is reported to have conquered in his Prasasti. In title No. 92 Mahmmad . Sultan of Gujarat is mentioned, in 39 Tujāraşāna or "khāna, in 45 Ajimkhān, in 36 Baggularāja and in 37 Bequrabhūpāla. The 'matchless .; Mallika' is mentioned in title No. 102. The Pras'asti in the Pāțbya- ::: ratnakos'a gives Boddhurabhūpāla in place of Bedurabhūpāla, and Bujārakhāna in place of Tujārakhāna (p. 73). The text also mentions 'Mahammada.' As to the name 'Mahammada' we must bear in mind that in Sanskrit - and vernaculars it would stand for both Muhammad and Mahmud.. Amongst the Sultans of Gujarat we find many such names e.g. Muham. mad I (1403 A.D. Tātārakhāna), Mubammad II (1442-51), Mahmúd I Begada (Fath Khan 1458-1511), Mahmud II (Nasirkhāna) 1526, Mahmud III (1538-1554), and Muhammad III. Thus all these Sultans flourished from the beginning of the 15th century to the latter half of the 16th. As to the two other Muslim names, Ajimklāno can be identified with Āzam Khan who was appointed at Warangal, by Muhmmad III Bahamani, to administer the western division of Telingana about 1479:. 80 A.D. If this identification proves to be correct, one can transliterate 'Ananya Mallika' (102 title) as Hasan Malik who was appointed same king to administer the eastern or Rajamundry division of Telingana at the same time.3 : The geneologs given by Kallinätha-'Vijaya- Praugha Sri Devarāja-Pratāpavān Immadi Devarāya'-enables one to put Immadi Devarāya in place of Vijayarāya II with a question mark just as it would have enabled us to fill in the lacuna after Devaraya II in Sewell's geneologs.. 1 See pp. 19-28, etc. Beginnings of Vijayanagar History by the Rev. H. Heras. S. J. M. A. Indian Historical Research Institute 1929. 2. Sce the Geneology-Table of the Sultans of Gujarat. P. 564. History of Gujarat Vol. 1 by M.S. Commissariat M.A.L.E.S., Longmans, Green & Co., Ltd., Bombay. 1929. . . 3. Cambridge History of India. Vol. II pp. 417-18. . Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NĂTYARATNAKOSA [I :: Tujarkhan may be identified with Malik-ut-Tujjar who was a gover nör of Daulatabad at the time of Ala-ud-Din Ahmed Bahmani who establishes his authority in Konkan in 1437 A. D. This Malik-ut Tujjar was a leader of the foreigners in the Court. '". If all these identifications prove to be correct, 'Gurjarādhisa-Mahamad Sultana' (Title 92) may be identified with either Muhammad II (1442-57) or Mahmud I, Begada (1458-1511). There is a reference to 'Manira' or 'Manira-Vira' (Title 16) who was harassed by Kālasena in the neighbourhood of many caverns surrounded by Sthāna.' If this Sthāna can be identified with the fort of Thalner in Khānadesh, and Manira can be transliterated as Miran, we can identify the Manira-Vira with either Miran Adilkhan (1437" 1441 A.D.) or Miran Muharik (1441-1457). The title number 36 refers to one Baggularāja. The name Baggula is equivalent to Bāgula. The Rāştrauậhavamsa Mabākāvya of Rudrakavi which narrates the exploits of the Bāgulas of Mayūragiri says that the tenth king Gopacandra who was the younger brother of some Kāla sena was called Bāgula by the goddess Bhavāni. According to Mr. 1. C. D. Dalal, the learned editor of the work, Baglan seems to mean the country of Bagulas. In the fifteenth century it was subordinate to the Sultans of Gujarat. Every chief of Bāglan is called Baharji. Mr. Dalal thinks that the word may be from Bhairava. In the geneology of the Bāgulas the name of the last king is Bhaira vasena. : The title number 37 refers to one Bedura-Bhūpāla. This Bedura can be identified with Belur in the Belur taluka of Hassan District, Mysore. Belur or Velāpura was connected with the Hogaşalas.5 The complete subjugation of the Hogaşalā kingdom and the annexation of it to the empire of Delhi were not effected in the reign of Muhammad Tughlak till A.D. 1327. Vira Ballāla III was liberated and he continued for a short time longer the semblance of a reign at the original capital of Belur and afterwards he retired to Toņdanur-the modern Toņņur near Seringapatan. Later on we hear of Ere Krishnappa Nayak who is called the foun: 1. Ibid pp. 404-407 and 675. 2. B. G. Vol. XII Khandesh p. 245 and pp. 473-477. 3. R. M. K. Canto 2, verse 27 G. O. S. Baroda. 4. Ibid : Introduction p.XIII f. No. 2 & P, XVII f. n. 1 and p. XXIII see also B. G. XVI - Nasik pp. 401-404. 5. B.G. Vol. I part 2 p. 491; see also C. H. I. Vol. III, pp. 471-474. 6. Ibid, p. 510 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ] INTRODUCTION princes that are referred to in it are Bhillama, Jaitrapala and his son Singhana. Hemadide va served Singhana (verse 15). This Singhana must be Simhana II, son of Jaitugi and grandson of Bhillama.1. Both the inscriptions inform us that the Nikumbhavams'a belonged to the Bhaskaravams'a that is the Solar dynasty. Now the title No. 68 of Kalasena is सततपराभूतसूर्यवंशीन्द्रसेनराज राज्यसंस्थापनदृढाङ्गीकार," meaning 'one who had undertaken firmly the task of setting up the kingdom of Indrasenaraja of the Solar dynasty. Considering the fact that Lakhumadevi belonged to the Nikumbha family we can reasonably indentify the Suryavams'iya Indrasenaraja with. Indraraja in the geneology of the Nikumbha family. If we take the words 'satata-parābhūta' as qualifying Indrasenaraja it would mean 'Indrasenarāja who was constantly overpowered,' in which case Kalasena becomes a contemporary of Indrasenarāja. This would put Kalasenat in the twelfth century A. D. But this is not possible in case of our Kalasena who is a claimant to the authorship of Samgitamīmāmsā, as we shall see. We should therefore, as we have done, take 'satataparabhūta' as qualifying 'rajya' and understand it to suggest that the kingdom was known in the time of Kalasena as one of Indrasenarāja who must have remained famous till then. This Kingdom of Indrasenarāja after him might have been constantly overpowered by the Musalman kings and Kalasena as a son-in-law or a brother-in-law of the family might have helped it to retain or regain the kingdom.2 ( The earlier time-limit of the author of Sangitamīmāṁsā : Before we consider the names of some of the rulers whom Kalasena is supposed to have subdued, we should fix the earlier time limit of the author of Samgitamimāṁsā. It would help in identifying some of these rulers. As we have said, whoever wrote the Samgitamimamsā he was well-versed in the Samgitaratnakara of S'arigadeva and its commentary Kalanidhi by Kalliñatha, S'arngdeva lived in the time of Yadava King Singhana (1240-1247 A. D.). Kumbhakarna, as we shall see, reigned between 1433 to 1468 A, D. The Samgitaratnakara was thus about two centuries old for Kumbhakarna, and must have reached a position of authority, so that one can understand its being utilized by him. But the adoption in Nrtyaratnakos'a (p. 124) of a passage from 1. See the geneology of the Yadavas of Devagiri (No. XVIII), Sources of Karnatak History Vol. I., S. Srikantha Sastri, M.A. The University of Mysore, Mysore, 1940. 2. See B. G. Vol. XII. Khanedesh pp. 241-42 and B. G. Vol. XVI Nasik p. 186 and foot-note 1. 3. S. R. Anandas'rema Series p. 40., Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRTYARATNAKOS'A ['9 the Kalānidhi of. Kallinātha might appear as a difficulty. Let us therefore consider Kallinātha's date. Paņạit Mangesh Ramkrishna Telang in the Sanskrit introduction to : his edition of Sañgitaratnākara? says that Kallinātha might have lived in Vijaynagar between 1400 to 1600 A. D. Mr. Alain Danielou in his foreword to the fourth volume of the Sañgītaratnākara published in the Adyar Library Series (1953) says that Kallinātha wrote his 'Kalanidhi' at the end of the 15th century (p.v.). But this span of a century does not help in fixing the priority of Kalānidhi to Nrtyaratnakosa. Prof. K. A. Nilakanta Sastri who is of the opinion that Kallinātha flourished under Mallikārjuna? narrows down the time-span, because Mallikārjuna, according to Nilakanta Sastri's dating, reigned between 1447-65 A. D.3 This would make Kallinātha almost a contemporary of Kumbhakarņa. However, from the Prasasti introducing the author .. we learn that Kallinātha was a member of the learned assembly of Immadi-Devarāya-son of the Yādava Praudha Devarāya who was the son of Vijaya. There is some controversy about the immediate successor of Praudha Devaraya or Devarāya II. It appears that this Prasasti of Kallinātha is not taken notice of by Sewell or - 1. Anandasrama Series p. 4. :: 2. and his grandson Rāma Amatya. p. 354. A History of South India, second edition 1958, Oxford University Press. ;": 3. ibid. pp. 261-2, p. 300. . 4. See appendix 3 to the Introduction. 5. There seems to be some confusion about this Immadideva or Devarāya. Sewell Says, "An inscription bearing a date coriesponding to Saturday, August 2, A.D. 1449, at Conjeevaram records a grant by a king called Virapratāpa Praugha-ImmadiDeva Raya to whom full royal titles are given,'. Though Nuniz omits the name of the successor Deva Raya II., Sewell thinks that there had been a Deva Raya III reigning from A.D. 1444 to 1449. though he regards the point as yet to be settled (see A forgotten Empire-pp. 79-80. See also appendix C. p. 404). If however, this Pras'asti of Kallinātha had been consulted there would have been no doubt about Devarāya the III who is called 'Pratāpavān Immaçi-Devarāya' by Kallinātha, and 'Vira-Pratäpa Praudba Immadi Deva Rāya' in the inscription of 1449. It is not clear why Prof. K.A. Nilakanta Sastri says that Kallinātha flourished under Mallikārjuna and his grandson Rāma Amatya. who wrote the Svara-melakalanidhi, In the geneology given by Sewell, Mallikarjuna is given after a hypothetical heir who succeeded Devaraya II whose reign is given the period between (?) 1444-1449, while Mallikarjuna is given the period between 1452-53 -1464-65 (Appendix 'C' p. 404 Ibid). Prof. Nilakanta Sastri gives the following table of the geneology of the Sangama dynasty:-- Devarāya - 1 (1406-22) • Rāmachandrarāya (1422): Vijaya Rāga-I (1422-26) (?) Praudha Devarāya ... or Devarāya-II . .. (1426-46) (?) Vijayatāya- II :::(1446-47): Mallikārjuna (1447-65) . Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ] INTRODUCTION der of Bellur family. At the time when the empire of Vijayanagar flourished, Bellur was one of the petty states of Karnatak, and Ere Krishnappa Nayaka, its chief. He appears to have been enfoffed by .. Krishna Deva Rāya in 1524. Ere Krishnappa Nāyak was the son of Baippa Nayaka and Kondommā. It is likely that the king of Bedura or Belur mentioned in the Kālasena's Prasasti might have been Baippa Nāgaka or probably his son Eri Krishnappa Nāyaka. Thus this inquiry about the times of the kings mentioned in the Prasastis of Kālasena leads us to put him somewhere between 14301530 A.D. Identity of place-names : Now let us see if we can locate Kālasena by identifying some of the place-names mentioned in his Prasastis. The main difficulty in understanding these place-names lies in the Sanskritization of current names and in some cases coining Puranic substitutes for these places. Still it is possible in some cases to restore the original names and identify their present locations. Our first business is to locate Kālasena, and so we shall first take those place-names which are relevant to this purpose. The title number 93 calls him 'Trisañdhyakşetrasamudra-sambhavarohiņi-ramaña'. This means 'moon born out of the sea of Trisandhyakşetra or according to the P. R. K. Sri-Trisañdhyā. Now, what place is hidden under this name? In a mythical account of the river Godāvari we find that Devi lives in the form of Trisañdhyā at the source of this river. We can therefore regard Trisañdhya or (dhyā) Kșetra as the region round about the Tryambaka mountain in which the Godavari has its source. Brahma giri is an old name of this mountain and so Godavariis called Brahmādrijātā. This also properly explains his title No.5, Sri Brahmadri-vibhu, which means 'lord of Brahmādri'. Title no. .. 51 describes him as one who has constructed a beautiful road leading to Bralmagiri and no. 66, as one who has performed many sacrifices .., near Brahmagiri; while title no. 50, as one who has raised a Kirti- . stambha-Tower of Victory near Tryambakes' wara---the temple of . : Tryambaka. Title No. 41 refers to him as one who has conquered Añja: nädri surrounded by the peaks of the Aşțādas'agiri. This Añjanādri is the Anjaneti hill four miles from Tryambaka town and about four- . 1. Ter hvinda Dynasty ci Vijayanagar, Rev. Honay Heras, S.J. M. A. B.G. Paul & C. Palliber, Madig: 1927, s.. 2 Std. .18-155. * ( izravu) i nfaUT: i m at frantasi faceva i 2701, 17 ; 19.34.5 = iii fara VETT Tfazer i Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NẶTYARATNAKOSA ( 13 teen miles from Nasik." What place is meant by Aștādas'agiri is not clear. Thus we can locate Kālasena in the Nasik district somewhere near Trgambaka. In the Pāțhyaratnakos'a (p. 69 verse 12) he is called 'Janasthānāyanibhrt' that is the ‘king of Janasthāna'. This region is to be identified with a region which includes Pañcavați and Nasik. Nandlal • De describes it as Aurangabad and the country between the Godavari and the Krishņā.” The title No. 4 of the Prasasti refers to him as .one who has rescued Janasthāna of twelve thousand and other parts of the earth'. So from these titles we can guess that Kālasena was a chief ruling : in the Nasik district and region round about. : Now let us see what other place-names can be identified. Title No. 9 represents him as having destroyed all enemies from Agastipura. This Agastipura can be identified with Igatpuri about thirty miles ..south-west of Nasik.3 Title No. 15 mentions Kalyāṇapura. Fleet identifies Kalyāṇapura with the modern Kalyāṇi in the erstwhile Nizam's Dominions. But it might be Kalyāņa in the Thana district. Sthāna in the title No. 16 we have already identified with the fort of Thaner. It may be Thāņā near Bombay also. S'ripura in the title No. 17 can be identified with Sirpur in the Ahmadnagar district.5. Title No. 18 mentions Vātikācala and Acala. The latter may be identified with the Achala fort in the Nasik district-the west-most point in the Chandor range, and the former perhaps with Tringalawāļi.6 Madanpura in the title No. 19 may be the Madangad of the Nasik i district.? Suvarnagiri of the title No. 20 may be the Suvarnadurga in the Konkan.8 Navasāri and Ghanadevi can be identified with the modern Navasari and Gañadevi in the Surat district. So also Patali of the title No. 22 with the modern Pāțaời. Tārāpura of No. 23 with the town of the same name near Bombay. In Sanjñāpura of No. 25, there seems to be a reference to Sanjñā-the queen of the Sun-who is also called Rājñi or Rändel in Gujarati. Thus Sanjnāpura is equi 1. Nasik p. 416. 2. Geographical Dictionary of Ancient and Medieval India, p. 80. 3. Geographical Dictionary of Ancient and Medieval India, p. 2 and Nasik p. 444. . It is derived from Vigatpuri (?Vikațapuri) meaning a city of difficulty. . 4. See B. G. Vol. I Part II p. 335 f. n. 1. 5. Abmadnagar p. 728. 6. Nasik p. 414 and 441. 7. Nasik p. 450. 8. B. G. Vol. I Part II p. 75. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ] INTRODUCTION valent of Rāṇipura or the modern Rander town. Puņyastambha of No. 28 is Puntamba in the Ahmadnagar district and Sangamanira of No. 29 is Sangamaner in the same district.? Suklapura of No. 30 may be the place of the same name on the Narmada near Broach in Gujarat. Giripura Dungara of No. 31 may be the modern Dungerpur now in Rajasthan. Damanapura of 32 may be the modern Damman. Baggula of No. 36, we have placed in Bäglān in the Nasik district, and Bedura of No. 37, we have identified with Bellur. Narâna of No. 38 may be identified with the Narnāla, hill fort in the Akola district in Berar.3 Mahārāstra of No. 42 and Gurjara of No. 43 are well known. Mahoragapura of No. 44 may be the present Nagpur. Vasti and Sopara of No. 47 can be identified with Vasai (Bassain) and Sopātā near Bombay. Triyambaka of No. 50 is Tryambak in the Nasik district. Brahmagiri of No. 51, we have already identified as the mountain which is the source of the Godavari. There are some place-names in the titles which still remain obscure. But from what we have shown above it is clear that Kālasena had much to do with the regions of the Nasik, Khandesh, and Ahmadnagar districts and the adjacent area. Conclusion : Our examination of the longest Pras'asti of Kālasena has shown that Kālasena was the lord of Brahmagiri--the mountain which is the source of the Godavari river, and that he lived sometime between 1430 to 1550 A. D. His varsa or family was known as Vyāghra-Cāmikara or more probably Suvarņa-Vyāghra, The 'golden tiger' might have been the emblem on their flag. His father's name was Mrgānka Tāmarāja and mother's Jasamāmbikā. He was married to Karmāvati Lashumādevi of the Nikumbha family. He had helped his in-laws in regaining or retaining the kingdom of their ancestor Indrarāja. Unless this Pras'asti is a complete fraud or fabrication, we must say that such a prince must have ruled Janasthāna in the Nasik district in the fifteenth or the sixteenth century. Inspite of our best efforts, however, we have not been able to obtain any other corroborative evidence. Even the name of Kālasena is something rare, for we have met with only one instance of that name, viz. Kālasena, the elder brother of 1. Surat p. 299. 2. Ahamadnagar p. 733 and p. 736 respectively. 3. I G. XVIII 3-p. 379-350. 4. See B. G. Vol. I, Part II. Suvarna Garuda-Dhvaja was the emblem of the Yadavas of Devagiri p. 577, Silahāras p 538, 544, Ratas p. 552, Suvarnavrsabhadhvaja was the emblem of the Kalacuris p. 469. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRTYARATNAKOS'A [ 15 Gopacandra Bagula.1 But his geneology is so different from that of our Kalasena that he cannot be identified with him. In addition, there is the reference that Kalasena took away the treasures of Baggularāja. There is mention of one Kalu-a-deva in the history of Orissa. He was a son of Prataparudra and might have reigned after him for a year or so in 1540-41.2 Considering his relation with the Nikumbhavams'a and the fact that it was subordinate to Yadavas of Devagiri, we may hazard the guess that he might have belonged to some less known branch of these Yadavas and might have ruled in the Nasik district. "The Devagiri Yadavas continued overlords of south and east Nasik till they were conquered by the Musalmans at the close of the thirteenth century."3 Or he might have belonged to one of the feudatory families of fhe Deccan. Towards the end of the 15th century a Maratha chief seized the fort of Galna in Malegaon and plundered the country round. About 1487 Malik Wagi and Malik Ashraf-the governors of Daulatabad retook Galnā. But in the disturbances that followed the murder of Malik Wagi, the Nasik chiefs again became independent. We are tempted to guess that Kalasena might have been one of these chiefs. But we cannot say anything definitely until we have more information about these Nasik Chiefs; or other feudatory families of the Daccan.3 Kumbhakarna Coming to Kumbhakarna popularly known as Kumbhā Rāņā or simply, Kumbha or Kumbho, we find that we do not suffer from any dearth of sources of information regarding him. We have coins and inscriptions of his reign. There are prasastis or panegyrics in colophons of his literary works, references in the Ekalinga māhātmya and similar works. All this is in Sanskrit. We have Khyats and poems in old Rajasthani. In addition we have Muslim historians like Ferista writing about him in Persian. III This abundance of sources, however, presents problems which are difficult to solve. The information gathered from Sanskrit and Rajasthani sources does not, on some important events, tally with the one 1. Rästraudha-Vanṣa-Mahä-Kavya Intro. p. XXII. 2. History of Orissa Vol. 1, pp. 337-38, R. D. Banerji, Calcutta, 1930. 3. Nasik pp. 186-188. 4. See Bibliography in the Maharana Kumbha by Harbilas Sarda, Second Edition. 1932, Ajmer. This work and the chapter dealing with Kumbha in the Rajputaneka-Itihasa, Vol. II by M. M. Gaurishankar Ojha are good modern works on the subject. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] INTRODUCTION from Persian accounts. Also, the Khyāts in old Rajasthāni of different families present different and sometimes contradictory accounts of events when their respective heroes are concerned. In spite of these difficulties, however, we are able to gather much reliable information about Kumbhakarņa and his times. It gives us the picture of a great warrior and ruler, a patron of arts and learning and a builder of magnificent monuments. Mahārāṇā Kumbha's life was full of storm and stress, even for those stormy times. He was with his father Mahārāņā Mokal when the latter had started on a campaign to fight Sultan Ahmad Shah of Gujarat who, according to the Vir Vinod had, in 1432 A. D., proceeded to Mewar with a large army and was passing through Jheelwara-a part of Mewarmand was plundering the country and breaking temples (M.K: pp. 29-30). According to the S'ộngirs'i inscription of V.S. 1485 (A.D. 1429) Mokal had defeated Ahamad once before, when he had come to espouse the cause of Firojkhan of Nagor. However Mahārāņā Mokal, before he could meet Ahamad was, in A.D. 1433, assassinated, when encamped at Bāga, by his uncles Chāchā and Mairā-natural sons of his grandfather Khetsingh by a woman of the carpenter class. They interpreted an innocent inquiry about the name of a particular tree by Mokal as a reflection on their birth and so made a conspiracy with Mahipā to kill Mokal. Kumbhā as the heir-apparent to the throne had to reach Chitor quickly, which he could do with great difficulty on account of the ensuing fray. His life was also aimed at (p.32) by the conspirators, who pursued him to Chitor, where, however, they found that the gates were closed against them. Chacha, Mairā and Mahipä returned to Madaria, where Chāchā was proclaimed as the Mahārāṇā of Mewar, Mahipā becoming his Diwan (pp-32-33). But they received no support and had to run away to the hills of Pai Kotra with their families. They threw themselves into the stronghold of Rātākot which they fortified against Kumbhā. Kumbhakarņa ascended the throne of Mewar at Chiror in 1433 A.D. He was the eldest son of Mahārānā Mokala by his Paramāra queen . inst 1 The fage-numbers in this section of the Introduction refer to the Kumbhā Rāņā, by Harbilas Sarda, Second edition, when not otherwise specified. 2 Mokal had in all seven cons-Kumbhakaran, Kshemakaran, Shiva, Satta, Nathsingh, Viramdeva, Rajdhar (p. 33) and a daughter named Lalbai--married to Achalsingh the Khuchi Chief of Gagroon. It was to help this son-in-law that Mokal had to start on an expedition in which he was eventually murdered (p. 29). Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRTYARATNAKOSA [ 17 - Saubhāggadevi-daughter of Rājā, son of Jaitmal, the ruler of Rūnkot in Marwar (p. 3). The year of his birth has not been ascertained. The first concern of Kumbhā after he became the ruler of Mewar must have been to avenge the assassination of his father Mahārānā Mokal. It was, however Ranmal Rathod of Mandor in Marwar, the maternal uncle of Mokal, who took the lead in the matter. On hearing the news of the murder of his nephew, he threw off his turban and putting on a 'phenta' vowed that he would not wear a turban till he had taken full revenge. This was one of the traits of Rajput character. After presenting the Nazar to the new Mahārāņā he started in pursuit of Chächā, Mairā and Mahipā towards Pai hills. After strenuous effort Ra!!mal Rathod succeeded in attacking his enemies in the fort and defeat them-killing Chacha and Mairā. But Mahipā and Chācbā's son Ekkā escaped and went to Maņậu the Capital of Malwa at the time and sought the protection of the Sultan of Malwa, Mahmud Khalji (p. 39). Kumbhā asked Mahmud Khalji to surrender the traitors to him which, however, the latter refused to do. This started hostilities between Mewar and Malwa which lasted for several years, Kumbhā sent an army said to consist of a hundred thousand horsemen and fourteen hundred elephants. It was under the command of the valiant Rathod Ranmal. The action took place near Sarangpura place between Chitor and Mandsaur in A.D. 1437 (p.50). Mahmud Khalji's army was routed and the Sultan fled and shut himself up in the fort of Mandu. Ranmal's army besieged the fort. When Mahmud Khalji found that he could not hold the fort, he asked Mahipā to go away. Mahipā escaped to Gujarat. Kumbhā took the fort by storm and Ranimal captured Sultan Mahmud Khalji. Kumbhā returned to Chitof in great triumph, carrying the captive Sultan with him. Mahmud was kept as a prisoner for six months in Chitor and then released without any ransom. There have been many comments on this magnanimity which turned out to be misplaced?... The construction of a Jaya-Stambha (Pillar of Victory) at Chitor was started to commemorate this victory (51). There seems to be no contradictory evidence as far as this major event - the victory over the Sultan Mahmud Khalji of Malwaris concerned. . But this was not the only fight in which he was engaged in 1.ibid p.50. ibid pp. 51-52. 2 See pp. 52-57 M.K. 3-ibid p. 51. See for an opposite account C.H. I. Vol. III P. 528. . . Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 ] INTRODUCTION these years. Taking advantage of the turmoil caused by the assassination of Mokal and engrossment of the new Mahārāṇā in avenging the murder of his father, Sahas Mal the Rao of Sirohi on the castern side and the Maha Rao of Bundi on the western side tried to take slices out of the territory of Mewar. Kumbhā sent a force under Doạiyā Narsingh, son of Rao Shalji against Sahas Mal. “Narsingh captured the stronghold of Abu, seized Basantgarh and Bhula and annexed the whole of the eastern part of Sirohi territory to Mewar” (p. 79). This victory was obtained before A. D. 1437. as can be inferred from a reference in a copperplate of A. D. 1437, lying in the Rajputana Muscum, Ajmci, which mentions a grant of land in the village Chavarli in the Ajari Pargannah of Sirohi (p. 79). But the Khyat of Sirohi has a different tale to tell. According to it Kumbhā had usurped Abu where he was allowed to take refuge by Maharao Lākha of Sirohi when attacked by the Sultan of Gujrat. This account of Sirohi, however, is not trustworthy in as much as Mahārao Lakhā came to the throne of Sirohi in A.D. 1451, while Abu was taken, as noted just before, in A.D. 1437. From a reference in Mirat-i-Sikandari it also becomes clear that Abu was in possession of Kumbhā in A.D. 1456 (p. 80). Similarly the Haras of Chauhan family, so called after Har Raj of Bundi, threw away their allegiance to Mewar and conquered the fort of Amargarh and molested the Rajputs of Mandalgarh (p.83). But Kumbha marched against them and took back Amargarh as well as annexed Bamboda, Bundi, Khatgarh and Mandalgarh. Thus the Haras were subdued, though on payment of ‘Fauj Kharch' the Mahārao was allowed to keep Bundi. This victory over Bundi must have been achieved in or before the year A.D. 1439, as it is referred to in the Ranakpur Temple-inscription of V.S. 1496, A.D. 1439. A feud between the Sisodia and Rathod Sardars at the court of Chitor resulted in the conquest and occupation of Marwar: Ranmal the great general of Maharāņa Kumbhā, was the eldest of the fourteen sons of Rao Chonda of Mandor and, therefore, the rightful hcir to the throne of Marwar. But Rao Chonda at the instigation of his . Mohil queen expressed a desire to him that he would like to give the kingdom of Marwar to Kanhã-son of Mohil. Like a dutiful son, he left Mandor with soo horsemen for Chitor. Maharana Lākhā bestowed : a jagir of forty villages on him. Raơ Chonda died in A.D. 1410 and Kanhā succeeded him (p. 17). Kanhā died without leaving a son and so there was a quarrel amongst the brothers of Kanhā and their . i i. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRTYARATNAKOSA [ 19 sons for the kingdom of Marwar. Eventually Ran Mal who was provided with a large army by his nephew Maharana Mokal succeed ed in recovering his rightful inheritance and reigned at Mandor . (p. 25). But on hearing of the assassination of his nephew and bene:: factor he, as we have noted, went to Chitor to lead Kumbhā's men to take vengence on the murderers of Rāņā Mokal. After his success, he preferred to stay in Chicor to living in the che arid desert of Marwar. Takinga dvantage of his position he surrounded hinself and the young Maharānā Kumbhā with Rathods. In course of time his influence at the court created jealousy amongst other nobles of Mewar, particularly Kumbha's uncle Rāghavadeva, who was his hated rival. Ran Mal managed to get Raghvadeva murdered by a ruse. This created a great undercurrent of indignation against the Rathods (pp. 40-41): But Ran Mal's brilliant victory over the Sultan of Malwa increased his influence and power in Mewar. It, however, raised apprehensions in the minds of Sisodia nobles and Sardars of Kumbhā. Kumbha was warned against Ran Mal's iufluence and power with his Rathods everywhere. This might result, he was told, in the usurpation of the throne of Mewar by Rathods. Kumbhā, however, was too sure of the loyalty of Ran Mal to suspect him. But in course of time he also became suspicious and he welcomed the return of his old uncle Chonda - the elder brother of Rāghavadevato Chitor from Malwa. This Chonda who was the eldest son of Mahārānā Lakhā and therefore the rightful heir to the throne of Mewar had given Ran Mal a promise to give up his right to the throne in favour of the son that may be born to his sister Hamsābai at the time of her marriage with Mahārāņā - Lākhā, a promise which he loyally fulfilled: (p. 19). When Hamsabai's son Mokal ascended the throne Chonda was at the head of affairs in Mewar. But on account of zenana and court intrigues instigated by Ran Mal, he left Chitor with his brother Ajja and others for Mandu, making his orher brother Rāghavadeva responsible for the care of the young Rāņā Mokal (pp. 23-24). The Sultan of Malwa gave him the district of Hallar as a Jagir, but when he asked Chonda to lead his army against his nephew Kumbhā, Chonda refused. (p. 50) This was the man who had returned to Chitor to guard his nephew against Ran Mal and his Rathods. The old Rao of Mandor : saw danger, but was too bráve a man to yield or escape. He, how ever, sent away bis sons Jodha (who later founded Jodhpur), Kandhal and others from Chitor, asked them to live in the 'taleti', be on their guard and not to come in the fort of Chitor even when he himself called them. (p. 63). But the Sisodia nobles of Mewar were deter*: mined to reinove him and Ran Mal was killed by a ruse just as he Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 ] INTRODUCTION had managed to kill Rāghavdeva (p. 6s). This event is commemorated in a couplet : चुंडा अजमल आविया, माई हुं धक प्राग। GETTURA Hifzar, 7 at 117 11 (p. 65) Todhā and his seven hundred Rathods mounted their horses and made for Marwar. Chonda burning with ragé at the wrongs done to him by Ran Mal relentlessly pursued Jodhā and his Rathods. He arrived at Mandawar (Mandor) close on Jodha's heels. Jodhā was unable to make a stand there and escaped to the village of Kāhuni, ten miles from Bikaner (p. 67). Kumbhā's forces under his uncle Rawat Chonda took possession of Marwar and established Thāņās-military and administrative postsall over the land. The inscription in the temple at Ranakpur, of A. D. 1439 mentions the occupation of Mandor by Kumbhā, In the year 1438 A. D. after the murder of Ran Mal the Rathods were expelled from Mewar. The same year saw the passing of Marwar into the hands of Mahārāṇā Kumbhā. (p. 68). Thus within six years of coming to the throne Kunibhā had consolidated his kingdom of Mewar by defeating Chauhan families of Sirohi and Bundi and showed his prowess to the neighbouring Sultan of Malwa by imprisoning him for six months in Chitor. The feud between his uncles and the maternal uncle of his father, Sisodia sardars and Rathods, got him the possession of Marwar, but also lost him his great general and brave warrior Rao Ran Mal Rathod. In the Rankpur Jain Temple inscription of V. S. 1496 (A. D. 1439-40), summarizing, so to say, the military career of Kumbhā before this date, there are historically important references about places which Kumbhā had conquered and persons who had sucd for peace with him. The places which are referred to are as follows: (1) Sarangpur (in Malwa). (2) Nagpur (Nagor), (3) Gagaran (in Kota), (4) Narāwaka (Narana in Jaipur), (s) Ajayameru (Ajmer), (6) Mandor (Mandonar in Marwar), (7) Mandalakara (Mandalagadha), (8) Bundi, (9) Khatu (three Kbatus, two Badi Khatus and one Chhoti Khatu in Jodhpur and one in Jaipur. Here the reference is probably to Khatu in Jaipur), (10) Chatsu (Chaksu in - Jaipur), and (1) Jāna (unidentified) The most inportant reference in this Jain inscription, however, is to his title 'Hindu Suratrāņa'-given by the Sultans of Delhi (Sayyad Mohammad A. D. 1434-1444). and Gujarat (Ahmedshah I. A. D. 1411-1442). As an insignia of this recognition he was given an Later on at the intercession of his grandmother Hansābai, Kumbhā connived at the re-conquest by Jodhā of Mandor in A.D 1445 after seven yeais occupation pp. 71.76. 2. See Ojha's History of Rajaputana, pp. 607-8. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRTYARATNAKOSA [:21 Arapatra---royal- umbrella. This indicates some early encounters withi n Delhi, and Alimedabad, in which the Sultans must have made peace, with him by recognizing him as an equal, giving him the title of 'Hindu Suratrāņa''Hindu Sultan.'.. In these six years, Kumbhā was foresighted enough to repair old fortresses, build new ones and gencrally strengthen the defences of his kingdom (p. 57). This forcsight served him well. Even though he had subdued the chiefs of Sirohi and Bundi, they remained more or less turbulent. But the real danger to his authority and security was from Mahmud Khalji of Malwa who was too ambitious and powerful a man to forget his first defeat and detention in Chitor. There was a rebellion in Haravati in A.D. 1443 and Kumbha had to go there to punish the rebels. When he was thus engaged Mahmud of Malwa attacked Mewar and came as far as Kumbhalgarh. There was a fortified temple of Bān Mātā in the village of Kailwara at the foot of the hill. Malimud attacked this place which was valiantly defended by Thakur Dipsingh for seven days. On the seventh day Dipsingh was killed and Mahmud destroyed the temple. From there he proceeded to Chitor. But he was intercepted at : Mandalgarh by Kumbhā who had run post-haste from Hārāvati on hearing news of Mahmud's expedition. The result of the first meeting of the armies was not decisive; but a few days later, in a night attack by Kumbha, Mahmud was defcated and obliged to return to Mandu (pp. 85-87). :::: :.. . According to Ferishta, in the first battle which took place on the 26th April 14:43, Mahārāna Kumbhā'was unsuccessful; and on the next day Mahmud returned to Mandu with some loot (p. 87 f. n.). After more than three years, Mahmud of Malwa led another expedition against Mewar. According to Ferishta, on the rith of October, 1446. A.D. Mahmud went towards Mandalgarh with a large army. While he was crossing the river Banas, Kumbha's army attacked his and after a fierce fight Mahmud was again defeated and compelled to return to Mandu. According to Ferishta, however, the Sultan returned after taking Najarānā and soon after sent Tajkhan with eight thousand cavalry and twenty elephants to attack Chitor (p. 88)! In A. D. 1454; Mähmud of Malwa: again attacked Chitor and, according to Hindu sources, was defeated by: Kumbha before he : could come near Chitor and was obliged to retreat. According to Ferishita, however, Mahniud of Malwa attacked Chitor, threatened Kumbhā with appointing his own governor, founded a town named Khaljipur, subdued Kumbhā and at the approach of rainy season 1. Ferishta, Vol. IV, p. 215. 2 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] LION INTRODUCTION returned to Mandu with some gold (pp. 88-89)1. In the same year Mahmud of Malwa, at the invitation of the Mussalman residents of Ajmer who complained of religious persecution, invaded the place. Ajmer, the ancient heritage of the Chau. hans, was added to the domains of Mewar by Rannall Rathod with the aid of the forces of Mewar in the time of Maharana Mokal (p. 90)2. Gajadhar Singh the governor of the fort of Ajmer valiantly defended it for four days, then came out and attacked Mahmud's army in the open. He was, however, killed in the action and Mahmud got the posse ssion of the fort. But while going to Mandalgarh Kumbha's army , attacked him as he came near the river Banas. He sustained a heavy defeat and had to fly to Mandu (pp. 91-92). According to Ferishta, however, 'the retreat was mutually sounded'. The remark of Mr. Briggs on this point is : "The drawn battle mentioned by the Malwa historians must be deemed a defeat” (p. 93). Idar and Nagor involved Kumbhā in a war with the Sultans of Gujarat. Leaving alone the semi-legendary account of the connection of Idar with Bāpā Rāval, the founder of Gubclot dynasty of Mewar, ". the geographical position of Idar in relation to Gujarat and Mewar.. made it a sort of buffer state between these kingdoms. In fact ‘ldar was the Portico of Mewar'.3 In spite of the fact that the Rathods of Idar were matrimonially related to the Sisodias of Mewar, there, were frequent feuds between the two for supremacy. Rana Hammir (A.D 1326-1364) defeated Jaitrakarņa of Idar. of Idara According to the inscription of A. D. 1460 on the Kirtistambha of Chitor Kshetrasimgha or Khetā (A. D. 1364-1382), the great grand : father of Kumbhā (p. 4), conquered Idar and imprisoned its ruler Rājā Ran Mal (A D. 1346-1404)5 who was supposed to have defea- : ted Jafar Khan-the first Sultan of Gujarat, The inscription of A.D. :: 1485 at Ekalingji informs us that he later on placed Ran Mal's son on the the throne of Idar (p. 7). Mokal (A.D. 1420-33) (p. 26) the ... father of Kumbhā, was aided by Sanwaldas?—the Raja of Idar in his ... cxpedition against the Sultan of Gujarat (p. 31). 1. Ibid. Vol. IV, p. 222. 2. C.H.I., Vol. III, p. 523, 3. See the Letter from Raja Jai Singh of Amber to Rana Sangram of Mewar regarding Idar written in S. 1784 (A.D. 1728), published as appendix in Todd's Rajasthan, Vol. III, P 1825. 4. Rajputane-ka-Itihasa (Hindi), p. 550. 5. Idar räjya no Itihasa (Guj.), Part 1, by Jogidas Ambalal Joshi, (pp. 97-104). h. Semal alias Punjaji A.D. 1404-1428, ibid. pp. 104-109. 7. Santunidas was another name of Rao Bhana. He was the younger brother of Rao Punia to whom he succeeded in 6.D. 1482 (ibid p. 111). So in the reign of Mokal he was not the ruler, but must have been sent by his brother Narandas... Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRTYARATNAKOSA [ 23 According to Mohamadan historians Zafar Khan led a campaign against the Rajput state of Idar and subdued it in A. D. 1400 (C.H.I., Vol. III, p. 295). In A. D. 1418 Ahmad Shah had to march against the combined forces of the Rajas of Idar, Champaner, Mandal and Nandol as well as Hushang of Malwa. The Sultan of Malwa, however, fled away before the battle took place at Modasa. The forces of the Rajas were, somehow, dispersed (C.H.I. Vol. III, p.297). From 1425 until 1428 Ahmad Shah carried on his fights with Idar, which ultimately ended in the reduction of Hari Rai, the rājā, to the condition of a vassal of Gujarat (C.H.I. Vol. III, p. 298). It was Rao Jemal alias Punja who was the rular of Idar at the time of the confederation. Hari Rai seems to be a synonym of Narandas. : Naturally the powerful Ranas of Mewar could not tolerate the subjugation of Idar, the portico to Mewar, by the Sultans of Gujarat and so engaged themselves in hostilities against them whenever there were opportunities, Kshetrasingh or Kheta (A.D.1364-82) is credited by the bards with a victory over one Humayun. Col. Tod mistook him to be the Delhi monarch Hymayun (Vol. I, p. 321). The Humayun of the bards could not be the Mughal emperor Humayun who was more than a century later than Kheta (C.H.I. Vol III, p. 526). MM. Gaurishanker Oza and Shri Harbilas Sarda identify him with Amin Shah who has become Humayun Shah in some manuscripts (R. I, Vol. R. P:56's, M.K.p.s). There is, however, another possibility which can explain the traditions of the bards. Zafar Khan who later became the first Sultan of Gujarat under the name of Muzaffar Khan (A.D. 1392-1410) was addressed as 'Azam Humayun' by the Delhi Sultan on the occasion of his signal victory over Farhat Mulk at Kambhoi in January 1392 A.D. But Kshetra could not have fought with this Zafar but most probably with Zafar Khana of Sonargaon who was the governor of Gujarat from A.D. 1363-1 372 in the time of Muhnimad Tughlak. Kshetra Singh could have only fought with hiin. The mistake of the bards lies in applying the title of Humayun to Zafar of Sonargaon - a title which belonged to Zafar who became the Sultan of Gujarat. It is easy to understand this mistake, caused as it was by the identity of the name. There is another reference which goes to show that Kshetra Singh must have fought with some of the Muslim chieftains of Gujarat. 1. See Commissariat's History of Gujarat, Vol. I, p. 53. 2. There were three governors bearing the title Zafar Khan in Gujarat in the four. ..teenth century. The first was Malik Dinar who served under Sultan Ala-ud. Din's son Kutub-ud-din Mubarak, being the brother-in-law of the latter. Sec History of Gujarat by Commissariat Vol. I, pp. 45.46). The other two are men tioned above.... Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] INTRODUCTION There is a reference in the Kumbhalgadha prasasti to the effect that Kshetrasingh made kings "Sādala and others' (AraglfaF 797:) abandon their cities. M.M. Ojhaji is not sure as to who this king Sādala was; , but guesses that he might have been the King Sātala of Togā who was a contemporary. But the reference in Kumbhalgadha-prasasti is to a number of kings begining with Sādala.' This reference may very well apply to 'Amiran-e-Sādah’ the foreign nobles whose revolts in Gujarat were suppressed by Sultan Muhammad Tughlak personally. This term was applied to these leaders of mercenary troops by Persian historians who called them Yuzbashis also. They were something like chiefs in such cities as Baroda, Dabboi, etc. having sway over the whole districts. We think that the reference to 'Sādalādikari Nrpāḥ', being made to abandon their cities is to these 'Amiran-i-Sadah' a term which has been rendered in English as 'Amirs of hundred' or 'centurions'.2 If this view is correct, it would show that Kshetrasingh must have had many occasions of fighting with Gujarat. The reference in the inscription of the Chitod Kirtistambha calling Sri Rañainalla 'Gurjaramandales'vara’, as also the one in the inscription at Kumbhal gaaha saying that Ranamalla blunted or weakened Dafar Khan (Zafar Khan) the lord of Pattana (Anahilwar Patan) (f QT (ET) 7:9TÀSTI 490 sfē THIRIT ustana 1) point to the same fact. Rāņā Mokal (A.D. 1420-1433) according to Shringirishi inscription of A.D. 1428, defeated Padshah Ahmed - the Sultan of Gujarat (A.D. 1411-1442, the founder of Ahmedabad)-irresistible in battle and made him run for his life (पात्साहोमददुःसहोऽपिसमरे etc.)4. It was, however, Nagor (Nagaur) which particularly antagonized the Sultans of Gujarat to the Mahārāṇas of Mewar. This place played a conspicuous part in the history of medieval India. It was held by Prithviraj Chauhan and after his defeat had passed into the hands of ... Mahmodan rulers. But Chonda Kathod had conquered and added 1. Sce History of Rajputana, Vol. II. pp. 567-68. 2. See Commissariat's History of Gujarat, Vol. I, pp. 30-31, 3. History of Rajputana, Vol. II, pp. 565-6. This Zafar Khan must be taken to be the Zafar Khan of Sonargaon-the governor of Gujarat (A.D. 1363-72). 4. Maharana Kumbha (p. 27 and p 205.). Sir Wolsely Haig, however, says "Mokal's reign was not distinguished by any feats of arms. The bards attribute to him a victory over the king of Delhi, but no such contemporary king of Delhi was in a position to attack the Rana of Chitor, and if there is any foundation for the bard's story Mokal must be suspected of refusing an asylum to Mahmud the last of the Tughlug dynasty, when he was fleeing from Delbi, after his defeat by Timur" (C.H.I, Vol III., pp. 527-98) 5. See I.G.I., Vol. XVIII, pp. 297-3. Nagor is a town in Rajasthan'and a district, 75 miles north cast from Jodhpur cits (Comm. History of Gujarat Vol. I. p. 48). , - Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRTYARATNAKOS'A [ 25 to his dominions this important city and the district of Nagaur, a Muslim stronghold which the dissolution of the kingdom of Delhi, following Timur's invasion of India, enabled him to acquire. But in his fight with Bhatis Tana and Mira-sons of Raningadeo whom Chonda had slain-he was killed at the gate of the city. Tānā and Mira, who had accepted Islam, had obtained a force from Khizir Khan, then governor of Multan, with which they attacked their enemy. The death of Chonda occured in 1408 and Nagaur was then lost to the Rathods" (CH.I Vol. III, p. 522). It again came under the rule of Delhi Sultans. Prince Firuz the heir apparent to the throne of Sultan Muhmmad Tughluq married the beautiful sister of Sadhu and Saharan (Sadharan) who were Tank Rajputs. These two brothers accompanied their sister to Delhi and later accepted the creed of Islam. Saharan got the title of Wajih-ul-Mulk (the support of the state) of Didwana. He became governor of Nagaur.1 Wajihul-Mulk had two sons-Zafar Khan (born at Delhi, June 1342) and Shams Khan (Comm. History of Gujarat, Vol. I, p. 48). In 1391 Muhamud Shah, the youngest son of Firuz appointed Zafar Khan2 to the government of Gujarat who later on became the first Sultan of Gujarat under the name of Muzaffar Shah (1396). Shams Khan his brother became governor of Nagaur after his father Wajih-ulMulk.3 It appears that when Muzaffar Shah become an independent ruler the region of Nagor also came under Gujarat. So the Sultans of Gujarat could not put up with the depredations of the Rathods of Marwar and the Sisodias of Mewar. We have noted that Chonda Rathod was killed in 1408 at Nagor1 and that the place was lost to the Rathods But according to Mehta Nainsi's Khyat, Ran Mal-the eldest son of Chonda recovered the place and took up his residence there.5 But this does not appear to be true, because according to the Samiddhes'vara Mahadeva Temple inscription (A.D. 1429) Mahārāņa Mokal had to invade Nagor. He defeated Firoz Khan son of Shams Khan, and compelled him to accept his suzerainty. It must have been this event which involved Mokal in a fight with Ahamad who could not tolerate the defeat of his uncle's son. So when Maharana Kumbha came to the throne of Mewar there was something like a state of war between Gujarat and Mewar and 1. C.H.I., Vol. III., p. 294. 2. According to Sarda, Sadharan, was the name of Zafar Khan when he was a Hindu. p. 43. Maharana Kumbha. 3. Sarda says, 'Shams Khan had obtained from his elder brother Muzaffar Shah, the first Sultan of Gujarat, the province of Nagor' p. 44., Maharana Kumba. 4. According to Sarda 1410 A.D. (p. 24). 5. Ibid, p. 25. 6. Sarda, Maharana Kumbha p. 27. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 ] INTRODUCTION Nagor was the principal cause. As Ferishta says "Rana's (Kumbha's) family had long wished for an opportunity to humble the chief of Nagoor."1 This opportunity came to him on account of a family feud for succession between the two sons of Feroz Khan who died in A.D. 1455. Shams Khan his elder son (named after his grandfather) succeeded him, but as Ferishta says, "Mujahid Khan, brother of Feroz Khan, having expelled Shums Khan, kept possession of the estate." So the nephew Shams Khan immediately applied to Rāņā : Kumbhā of Chitor for aid.1 Kumbhā agreed to help him on condition that Shams Khan acknowledge his supremacy by demolishing a part of the battlements of the fort of Nagor. To this Shams Khan agreed. Mujahid Khan was defeated and he had to fly to. Gujarat. Shams Khan after he was placed on the throne of his father by Kumbhā did not carry out the condition of demolishing a part of the fort but later strengthened the fort. This breach of faith brought back Kumbha with a big army to Nagor. Shams Khan was driven out of the fort which was then demolished by Kumbhā. Shams Khan naturally ran to his kinsman Sultan Qutb-ud-din at Ahmedabad. The Sultan espoused his cause and sent a large army under Rai Ram Chandar and Malik Gaddai to take back Nagor. The Gujrat army was, however, defeated by Kumbhā and only : remnants returned to Ahmedabad to carry the news of the disaster. Sultan Qutb-ud-din himself, then, marched against Kumbhā who bad advanced to Abu to meet him. This was an opportunity for the Rao of Sirohi to seek the aid of Qutub-ud-din to get back Abu from Kumbhā who had wrested it from him. Qutub-ud-din sent Malik Shaaban Imad-ul-Mulk to help the Rao of Sirohi and himself marched to Kumbhalgarh. Kumbbā, knowing of this ruse, attacked and defeated Imad-ul-Mulk with great slaughter and with forced marches: forestalled Qutub-ud-din by reaching Kumbhalgarh before him. Imadul-Mulk joined Qutub at Kumbhalgarh but they could not take the fortress and so defeated returned to Gujarat. According to Ferishta; however, the Rana was defeated and he sued for peace, consenting to pay a large sum in specie and a quantity of jewels; after which Kootab Shah returned to Ahmedabad. But if Qutub-u-din was rcally victorious it is difficult to understand why he agreed immediately after vards to enter into an offensive alliance with Mahnud Klialii - the Sultan of Malwa aginst Kumblā. Ferishta says, "On his road to Gujarat he was met by Taj Khan, an ambassador from the court of Malwa, who had been sent to propose an offensive alliance against Rāṇā Kumbhā of Chitor, whose country, it was agreed, . : . 1. p. 40. Ferithta, Vol. IV. 2. Sarda, pp 94.92. 2 Forisota, Vol. IV. p. 41. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRTYARATNAKOS'A [ 27 should be divided between the allies. All the towns to the southward and lying contiguous to Gujarat, were to be attached to the kingdom of Kootb Shah, while the districts of Mewar and Ahurwara should be reduced and retained by the Malwa forces. The treaty was solemnly signed by the respective envoys at the town of Champanere, in the latter end of the year 860 (A.D. 1450)'). This was the most formidable struggle in the generally stormy military carcer of Rāṇā Kumbhā. Mahmud Khalji of Malwa, till now, had made five attempts to avenge his defeat by Kumbhā in A.D. 143738(Sarda p. 93), but Kumbhā had proved too powerful for him. When he must have come to know that even the powerful Sultan of Gujarat Qutub-ud-din could not have a clear victory over Kumbhā, Mahmud must have thought of forming an alliance with Qutub-uddin. This, according to Mirat-e-Sikandari, he did in the name of Islam to defeat the infidel. (History of Rajputana, Vol. II, p. 616. Mirat-e-Sikandari Baily's History of Gujarat, p. 150). In pursuance of this treaty of Champaner, Qutub-ud-din in AH. 861, A.D. 1457, marched towards Chitor from the Gujarat side via Abu and Mahmud Khalji fron Malwa. According to Ferishta, "The Rana was desirous of opposing the Malwa army first, but Kutub-Shah's approaches were so rapid, that he reached Sirohy and entered the hills; compelling the Rana to come to a general action, in which the Rajput army. was entirely defeated; he was defeated a second time, and fled to the hills, whence he deputed an ambassador, and purchased the retreat of the king of Gujarat by the payment of fourteen maunds of solid gold, and two elephants" (Ferishta, Vol. IV, p. 42). About Mahmud Khalji also, Ferishta says that he was induced to retreat to Malwa by a reasonable donation? This account. scarcely fits in with the object of the treaty of Champaner which was to divide the kingdom of Mewar between the Sultans of Gujarat and Malwa. It seems rather strange that both the Sultans should have been satisfied with merely rich Nazarāņās. It seemis, that they had failed to achieve their object in spite of their ccombined forces, one attacking Mewar from the west and the other from the east. The accounts of Rasika-priyā and the Chitor Kirtistambha, (Sarda, p. 103) which say that the combined armies of Gujarat and Malwa were defeated by Kumbhā, are, therefore, more credible. ::Thüs by the end of A.D. 1457, Kumbhā was able to consolidate his kingdom of Mewar, containing the Sultans of Gujarat and Malwa to the limits of their respective kingdoms; though the 1. Ferista, Vol. III, pp. 41-42. 2 Ferista, Vol. IV, p. 42. W : Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ] INTRODUCTION of Mahmud Khalji I of Malwa, lic says "He (Mahmud) carned a re- i putation as a builder, and one of his works was a column of victory at Maņdu erected to commemorate bis success against Rāna Kumbh ā . of Chiror. The more famous column of victory at Chicor is said to commemorate victories over Mahmud of Gujarat and Mahmud of Malwa. If this is so 'it, like some call bully lifts its head and lics'.. Mahmud I failed to capture Chitor 'but thc Rana never gained any important victory over him."! The Bombay gazeteer, Vol. I, gives a connected view of . these two towers of victory. As far as architectural evidence is.' concerned 'there stands a paved ramp crowned by a confused ruin : facing the east entrance to the great Mosque of Hoshang Ghori. As late as A. D. 1843, this ruin is described as a square marblc chamber. Each face of the chamber had three arches, the centre arch in two of the faces being a door. Above the arches the wall was of stone faced with marble. Inside the chamber the square corners were cut ... off by arches. No roof or other trace of superstiucture remained. This chamber seems to be the basement of the column of victory which was raised in A. D. 1443 by Mahinud I (A.D. 1432-1469) in honour of his victory over Rana Kumbha of Chitor.' According to the writer of the above account the special interest of Mahmud's colunin lies in being 'if not the original, at least the cause of the building of Kumbhā Rana's still uninjured Victory Tower which was completed in A. D. 1454 at a cost of £ 900,000 in honour of his defeat of Mahmud' (p. 361). The authorities for Mahmud's Tower of victory are Ferishta's History, Abul Fazal's Ain-i-Akari and Memoirs of Jahangir. But none of these authorities says that it was built to commemorate Mahmud's victory over Rānā Kumbha in A. D. 1444. Ferishta says, "Sooltan Mahmud, having ordered public prayers to be read on this : occasion, determined to defer the siege of Chitor till the next year, and returned without molestation to Mandoo, where he built a beautiful pillar seven stories high, in front of a college, which he founded opposite the musjid of Sooltan Hooshang” (p. 210). It is quite clear that this is not a description of a victory which . requires to be commemorated by a column of victory. The originai Persian text of Ferishta no where calls it a 'Fateh Minara' as it . would have been, if it were a tower of victory. Nor do Abul Fazali and Jahangir give it any such name. All of then call it ‘Minara-eHaft Manzari'-'a minaret with seven aspects or sides', an octagonal structure. It is not even called a building with seven stories as it is. 1 According to Sir W. Haig-The successes of the Gahlots against Malwa were gained by Sangram Singh, not by Kumbha, against Mahmud II, not Mabmud I (p. 361 C. HI Vol. III Ch. IVX).. . Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRTYARATNAKOS'A ( 31 wrongly translated by Briggs, though the structure had seven stories. But the point mentioned just now that 110 where a word like 'Fateh' C is associated with this Minaret is important. . For we find that us ually such a word is found associated with a thing if it is done to commemorate a victory. For example, Akbar calls the village of Sikri *Fathabad' (town of victory) after his conquest of Gujarat, which was soon exchanged in both popular and official use for the synonymous Fathpur (V. Smith-Akbar the great Mogul, p. 75). Similarly Khān Kháānān after his victory over the ex-Sultan Muzaffar II in 2584 called the garden that he laid out on the site of the battle, near Sarkhej:Fateh Bagh' (Commissariat's History of Gujrat, Vol. II, p. 29). Mandelslo in his Travels in Western India (A. D. 1638–3a.p. 47) also refers to this event and calls the garden Zyreit bag' (Jitbag) or 'Fateh Wadi' garden of victory. The place is still known as Fateh-Wadi. Thus, as far as we know, there is no clear evidence to call this ‘Minarct' á Minaret of Victory. Considering the description of Ferishta it would be highly incongruous of Mahmud Khilji to call it . a. tower of victory. He must have had a greater sense of propriéty than his modern English historians would credit him with. As to Mahmud's Tower being the cause of the building of Kumbha's. Jayastambha, the dates would go against it. As we have : seen the second storey of the Jaya Stambha was completed in A. D. 1442-43 and so the foundation of the Jayastambha must have been . laid in A. D. 1.439-40, if not earlier. So, if at all, Mahmud meant this 'Haft-Manzir' to be a tower of victory, he must have taken his inspiration froin Kumbhā's Jaya Stambha which was in course of construction in A. D. 14441. So we must conclude that there is no basis for the remark of Sir W. Haig that the Jaya-stambha of Kumbha like some tall buily lifts its head and lies'. The Taya-Stamblia of Kumbha has been graphically described by - Tod in his Annals of Rajasthan. He compares it to the Kutb-Minár of Delhi which though much higher, is, in his opinion ‘of a very infe...rior, character? (Vol. III, pp. 1819-1820). James Fergusson compares :. it with Trajan at Rome,' and says that the Jayastambha is in infi nitely better taste as an architectural object than the Roman example; *; though in sculpture it may be inferior' (p. 59). Fergusson's description · may be quoted here, as it succintly describes this monument. "It stands 1 Percy Brown taking Haft Manjir to be a Tower of Victory, however, says. "T; interesting to note that a little earlier the Chitor Rana himself had erected that famous and beautiful tower, the Jaya Stambha at Chitor to celebrate his vicotry over Mahmud, a fact which evidently inspired the latter to counter this, when the opportunity occured, with his own triumphal column" (Indian Architects Islamic Period, p. 63).' .. James Fergusson is of the opinion that "Muhammadans adopted the plan of ere. cting towers of victory to commemorate their exploits.' So also did the Chinese whose nine storyed pagodas are almost literal copies of these Indian towers, translated into their own peculier mode of expression" (His. of Indian and End Architecture, Vol., II p. 60). . ed thind the ease Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ] INTRODUCTION affairs of Nagor again involved him in a fight with Qutub-ud-din of Gujarat who after this adventure suddenly died in A. D. 1459 ... (May 25, Sarda, p. 104). x x x x x So for we have reviewed the career of Kumbhā as a warrior and general and as a consolidator of his vast dominion. His claim to grcatness, however, does not depend upon his military achicvcnicnts. and inartial spirit only. He was also a great buildcr-builder of: fortresses and temples, one who raised the great Javastambha, Tower . of Victory, at Chitor. What is, however, remarkable about him is " that he is credited with the authorship of several works in Sanskrit.' There was no doubt that he was a great patron of learning. I We shall, first, briefly notice the monuments that he built and encouraged also the prosperous Jain community of his kingdom to build. Col. Tod, relying probably on some current tradition, says, "OF eighty four fortresses for the defence of Mewar thirty two werc. erected by Kumbha" (p. 336, Vol. I). We cannot sav how far this tradition of thirty two is right, but we get definite information about .. three forts from inscriptions and references in literary works. For example, the pras'astis at the end of each Ullāsa of N. R. K. nicntion two forts—Kumbhala-meru and Chitrakūta (Chitod). . The first he almost built anew and therefore Kumbhā is described as 'Srimat-Kumbhalameru-navina-nirmita-parājita-Su-meruņā (p. 107) . one who has defeated the excellent Meru mountain by the new construction of resplendent Kumbhalaineru'. Naturally the fort was. named after him and it has remained famous in tradition and history as Kumbhala-gadha or Kumbhalamer. According to tradition the original fort was built by the Jain king Samprati the grand son of Asoka Maurya. Considering the tradition about Mauris or Mauryas in Mewari there may be some truth in this. There is no doubt, however, that as Tod says, it was 'on the site of a more ancient fortress' (p. 336). Its natural position and the works that Kumbhā:.... raised made it impregnable. That Kumba saw its great strategical importance in those times of constant warfare, particularly, with Mohamadan rulers who were spreading their power around him, shows bis insight as a general. Kumbbā started the construction of the fortress in V.S. 1500, A.D. 1443-44. It was completed on the 13th of the dark half of Chaitra V. S. ISIS, A.D. 1458–59. The architect of Kumbhalameru. was Mandana--that famous writer on Vāstu-Šāstra ---Science of architecture Sarada, p. 128). 1. See Tod's Annals of Rajasthan, Vol., I, p. 265. History of Rajputana, Vol.I. DD-412-13, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NỘTYARATNÁKOŠA : € 28 - As to Chittodgadh, he strengthenied it's defences and builc sevën Polas or Pratolis (gates) named Rāma, Hanumān, Bhairava, Lakşmi; Câmunţā; Tārā; and Rājapolas. He constructed a road over which carriages could easily go upto the fort. Before his time there was only a foot-path (Sarda, p. 138). Kumbhā seems to have attached great importance to this road because the reference to Chitod in his pras'astis of N.R.K. pertains to its building. The road going up the ascent to the fort is compared to a 'path leading up to heaven', and therefore Chitod which is an earthly paradise is truly made so by it (S'rimate - Chitrakūta. Bhauma Svargatā-Yathārthikaraña-cārutarapathena).1 After conquering Abu from thie Parmārs, he built there also a fortress in V. S. 1509, A. D. 1452-53. It has beconie famous as Achalgadh. On the descent from Achalgadh to Delvādā there are four statues an equestrian statue of Kumbhā, cwo of two other Mahārāņās and the fourth, bigger than these, of the Purohita or family priest of Kumbhā (p. 123). Chitod is famous for its two magnificent towers : one the Tower of glory-Kirtistambha and the other Tower of Victory-Jayastambha. This Jayastambha is also popularly known as Kirtistambha. The first, formerly known as 'S'ri-Allaţa's and locally known as Kaitan Rāņi's was erected by Jija - a Bagherwal Mahajan of the Jain community and dedicated to the first Jain Tirthapkara Ādinātha. Most probably it belongs to the 12th century A.D.2 The second Jayastambha was erected by Mahārāṇā Kumbha tó celebrate his victory over Sultan Mahmud Khilji I of Mandu (Malwa) in A. D. 1438. The Tower was completed, according to the Pras s'asti. of the Jayastambha, on Māgha Suda ioth Puşya Nakşatra V. S. ISOS. A. D. 1449. An inscription in the perforated window in the ... second storey of the Tower shows that the second storey was compi leted in V. S. 1499, "A. D. 1442-43 (Sarda p. 139). Thus it took : about six years to build from the third to the topmost ninth storey. So it may be reasonably guessed that the first two stories might have taken about two to three years and so the foundation of the Tower must have been laid in about 1439-40 A. D. This means that Mahārāṇā, Kumbhā, after a year or so of his victory, started building his Jaya-Stambha, may be even earlier, in the first flush of his great victory. The remarks of Sir Wolseley Haig (Chapter lyx of the Cambridge History of India, Vol. III (P. 361) ) on Kumbhā's Tower of Victory require to be considered here. Estimating the achievements 1 Pp. 107, 229 In some references we have tanvikarana-meaning-'a road making it easy to reach the earthly paradise - Citrakūta. ...." 2 Fergusson's History of Indian and Eastern Architecture - Vol. II, p. 118; acc also Percy Brown's Indian Architectura Vol.1; 2nd Edn. pp. 149-50. .. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 32 ) INTRODUCTION on a basement, 47 ft. sq. and 10 ft. high, being nine storcys in height each of which is distinctly marked on the exterior. Astair in the interior communicates with each, and leads to the two upper storcys, which are open, and more ornamental than those below. It is 30 ft. wide at the base, and 122 ft. in height; the whole being covered with architectural ornaments and scluptures of Hindu divinities to such an extent as to leave no plain parts, while at th: same time this mass of decoration is kept so subdued, that it in no way interferes either with the outline or the general effect of the pillar" (p. 60)!..; Vincent Smith calls this Jaya-Stambha 'an illustrated dictionary of Hindu mythology' because it contains all the denizens of the Hindu påntheon, with their names attached'. It has also 'images representing the seasons, rivers, weapons and other things unpublished.' Smith thinks that whenever this series of sculptures shall be reproduced it will be invaluable as a key to Bialımanical iconography. In his opinion, however, it is not likely to contribute much to the history of art, because, the better class of art in Rajputana dates from an ear: lier period ending with the twelfth century' (p. 127 A History of Finc Art in India and Ceylon. Second Edition, Oxford, 1930). : * From the inscription in the second storey of the Jaya-Stambha referred to aboves it appears that the architect of this magnificent edifice was one Jaitra, assisted by his two sons Nāpā and Punjā (p. 139-Sarda). Whether the Nāpā mentioned here is the same as Nāthā—-brother of Maņdana is not clear (Sarda p. 137 f.n.). A treatise on the architecture of Jaya-Stambhas attributed to Kumbhā was engraved on stone-tablets and fixed in the lower part of this Jaya-Stambha (p. 168) : The Prasasti of this Jaya-Stambha was engraved on several black marble tablets (Tod, p. 1819): Of these only two are now in existence—the first and the last but one containing verses I to 28. & 168 to 187 respectively. We know from a transcript of this prasasti by a Pandit in V.S. "1735, "A.D. 1678' that many more slabs existed at the time. Kesava Jhoting-son of Narahari of the Burgu family was entrusted with the composition of the pras'asti, but he died before it was completed. The latter part was composed by his son Mahesa on Monday the sth day of the dark half of Mārgasisa, V. S. 1517 (A. D. 1460-61). This Prasasti is a fine historical poem . . 1 "The dome that now crowns this tower was substituted for an older dome since I sketched it in 1839" P. 60. Fergusson. 2 'A part of the first tablet, found at Chitor and since deposited in the Udaipur - Museum, gives Maharana Kumbhakaran's description of the characteristic features of Towers according to Jaya and Aparajit" (MK, p. 164). 3 This manuscript was in possession of M.M. Gaurishanker Oza. See his History of : Rajputana Vol. Il p.631. .! ! Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NÃTYARATNAKOS'A [ 33 - giving us the geneology of the Gohils and a detailed account of the achievements of Kumbhā-political, literary and architectural. 4. Kumbhā was a deeply religious man and built several grand temples. In Chitor, Kumbhalgarh and Abu, in cach of these, he built a temple known by the common name of Kumbhasvāmi. Of these the magnificent temple at Chitor was built in V S. ISOS, A.D. 1448–49. In Kumbhalgarh he built a temple known as Māmdeva temple ..in A. D. 1458. It is in the gorge below the fort of the brow of the mountain overlooking the pass. It contains a pras'asti inscribed on immense slabs of black marble which together with the pras'asti on the Jaya-Stambha in Chitor gives us important material for the family of Guhil (p. 135). Kumblia also renovated several other temples, particularly the temple of Ekalingji—his tutelary deity, He also built several Kuņdas and stepwells more or less near the temples. Near the Māmadeva temple in Kumbhalgarh he constructed a Kuņda :(a reservoir) at whose edge he met his death.1 -: Colnel James Tod refers to the long repose and high prosperity enjoyed during the reign of Hamir, the great-great-grand father of Kumbhā, by the subjects of Mewar, judging by their magnificent public works, when a triumphal column (the Jain Kirtistambha) must · have cost the income of a kingdom (p. 320 Vol. I). This remark holds equally good for the reign of Kumbhā also. Not only did he himself build magnificent structures but encouraged his subjects to do the - same by giving all sorts of facilities. For example, Shah Gunaraj, a favourite of Kumbhā built temples in Ajahari (Ajari), Pindaryāțaka, and Salera. He also renovated many old temples. Vela-son of Shah Kela-built a temple dedicated to Santinātha, the sixteenth Jain Trithankara, in Chitor. He also built the graceful and richly carved Singar Chauri or Vedi near the Jaya Stambha (pp. 160-161. M. K.): A Saiva temple on a hill near the Sema village, not far from Ekalingji, and Jain temples in Vasantpur, Bhulaand other places were built by Kumbha's subjects. .: The most. magnificent of the temples built in Kumbha's reign is tlie Jain temple at Ranakpur. This place is about'six inilės to the south of Sadari. 'The temple is situated in a valley piercing the western' flank of Aravalli. The choice of the site itself shows a fine sense of natural beauty. :: 1 See Oza's History of Rajputna, Vol. II pp. 620-625). 2 M K. p. 161, Sec also Oza's History of Rajputana, Vol. II, p. 625 . n. 1) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 1 INTRODUCTION From the inscription on a stone-slab built up in a pillar to the left of the entrance into the temple, dated V. S. 1496 A D. 1439-40, we learn that it was built by Kumbha's favourite Sanghapati Dharanaka. It was dedicated to the first Jain Tirthankar Adinatha. To quote"...by his (Kumbhakarna's) favourite Sanghapati Dharanaka... [by] "Ratna his (Dharanakas) elder brother, being directed by the king Rāņa Shri Kumbhakarna, the temple, founded in his (Kumbhakarna's) own name, of the first lord of the Yuga-Sri Chaturmukha-called Trailokyadipaka, was by his order and favour, bulit in the city of Ranapura and was consecreated by Sri Somasundara Sūri.........This is made by the architect Depaka" (p. 117-Bhavanagar Inscription.)1 This Trailokya-Dipaka built by the architect Depaka for Dharanaka and Ratna is one of the most outstanding pieces of Hindu architecture.2 James Fergusson says "Indeed, I know of no other building in India, of the same class, that leaves so pleasing an impression or affords so many hints for the graceful arrangement of columns in an interior.3 2 Now we come to the literary works attributed to Kumbha." The very first epithet of Kumbha in the Prag'astis of N. R. K. as well as Rasika Priyā (p 174 ) is -- 'श्री सरस्वती रससमुद्रसमुद्भूतकै रवोद्याननायक०' 'leader in the garden of lotuses growing out of the water of Sarasvati.' So he liked to be known first and foremost as a leader amongst men of learning. The Ekalingamahatmya would credit him with the knowledge of the Vedas, Smrtis, two Mimamāmsās, Natyas'astra of Bharata with its four Bhāṣyas Ratanakara, other works on music and dancing, Arthas'astra, the eight grammars, Upanisads, the Darsanas, and Literature in general. It calls him Sarvajna omniscient, but more appropriately Prajna-sphurat-Kesari-a lion throbbing with intellect' (M. K. p. 223, vs. 172, 173, 202). This same work attributes to him the authorship of a commentary on Gitagovinda, four dramas in the languages of Karnataka, Medapata and Mahārāṣṭra. The Prasasti on the Jayastambha of Chitod confirms all this and mentions as his works Sangita-rāja, Sūḍa-prabandha, and a comme 1 राणा श्री कुंभकर्ण सर्वोर्वीपतिसार्वभौमस्य विजयमानराज्ये तस्य प्रसादपात्रेण.... प्राग्वाटवंशावतंससं० सागरतुत सं० कुरपाल भा० कामलदे पुत्र परमाहंत्त सं० घरणान ज्येष्ठभ्रातृनं० रत्ना भा० रत्नादे पुत्र सं० लापा ......... .... जावड़ादिप्रवर्द्धमानसंतानयुतेन राणपुरनगरे राणा श्रीकुंभकर्णनरेन्द्र ण स्वनाम्ना निवेशिततदीयसुप्रसादादेशतस्त्र लोक्यदीपकाभिधानः श्रीचतुर्मुखयुगादीश्वरविहारः कारितः प्रतिष्ठितः श्रीसोमसुन्दरसूरिभिः gaf¤¿ a gaa1<à¶1 etc. pp. 114-115 Bhavanagar Inscriptions. 2 It is a pleasure to note that the temple has been appropriately and carefully reno vated so as to maintain its original beauty by the Jain Community under the able leadership of Seth Kasturbhai Lalbhai of Ahmedabad. 3 For the description of the temple, its plan and views, see Fergussons's History of Indian and Eastern Architecture, Vol. II, pp. 45-48. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NRTYARATNAKOS'A [ 35 ntary on Canại-S'ataka. It also calls him a master-poet and expert ..Viņā player, a dramatist who wrote all the ten varieties of Rūp akas mentioned by Bharata. In dancing he followed the school of Nandikes'vara and propitiated S'iva in that way (M. K. pp. 219-220, : 156-160, 166-168) that is by dancing before him or causing dance performences in that style. He has thus the title of Abhinava-Bharatācārya which is mentioned in the pras'astis of Samgitanjimāṁsā including N. R. K. His work on the architecture of Jayastambhas inscribed on the slabs of his Jayastambha at Chitor has already been mentioned. . Thus Kumbha has to his credit two commentaries--one on Gitagovinda called Rasikapriyā and the other on Canļīs'ataka, four dramas in Mewadi, Kannad, Maharaştri and Rūpakas illustrating different types of drama and a work on architecture and also Sangita miņāmsā. Of these, manuscripts of Samgitamimāmsā, Gitagovinda commentary Rasikapriyā, and a slab bearing a portion of : his work on architecture are discovered. The Rasikapriyā has been published in the Kavyamala series of Nirnaya Sagara Press. The first volume of Samgitamiinamsā Pāțhya Ratna Kos'a has been published in the Ganga Oriental series and the N. R. K. is being published in R. P. S. Like most of us, Shri Harabilas Sarda marvels as to how could Kumbhā find leisure to study all this and time to write these works, engaged constantly as he was in warfare, building forts, defending and ruling his kingdom (p. 163). There have been kings in Indian - History like Harşa, Bhoja etc. who were supposed to be learned and authors of literary works. (But as to Harsa, his authorship of the three plays had been suspected even in old times and it was supposed - that a poet named Dhoyi wrote them). We have seen that the authorship of Samgitamimāmsā is contested, between Kālasena and Kumbhakaina. We have advanced a guess that probably the author was some panaita who first dedicated it to Kumbhakarņa and later to Kāla-sena whose identity, however, we are not able to discover. The Ekalinga māhātmya was composed in the time of Kumbha and we find the following verses common in Pāțhyaratnakoșa and Ekalinga Māhātmya : यः श्रुत्वा भरतं चतुभिरिखिलैर्भाष्यैश्च रत्नाकर । सोपायं बहुशो विलोक्य निखिलान्नाटयागमान् वीक्ष्य च । गौरीनन्दिमते, मतङ्ग शिवसंगीते सशार्दूलके दृष्टवा दंतिलदुर्गशक्तिभरिणतीस्ता नारदोक्तीरपि ॥ (91. . ... e cetto Rei, gafar EIFFT) (a to po? quoted in M. K. p. 223) A comparative study of Samgitanimāmsā and Ekalinga Māhā 1 Pandit Amritlal Bhojak' of Patan informs me that he has in his possession a manuscript of the commentary on Candi s'ataka. : Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ APPENDIX I रसरत्न-कोश (Ms. 9933. Central Library, Baroda) . पत्र ३ . इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र या संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे रसलक्षणोल्लासे रसस्वरूपनिरूपणं नाम प्रथमं परीक्षणं । पत्र ७ a. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेन्द्रण विरचिते संगीतराजे पोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे रसलक्षणोल्लासे रससत्त्वनिरूपणं [नाम] द्वितीयं परीक्षणम् ॥ पत्र ८ b. इति श्रीमहाराजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीतराजे षोडशसास्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे रसलक्षणोल्लासे रसाश्रये परीक्षणं तृतीयम् ।। पत्र १५, १६. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीतराजे पोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रत्नकोशे रसोल्लासे विभाषादिपरीक्षणं नाम चतुर्थ परीक्षणं ।। श्री ॥ इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन, अभिनवभरताचार्येण मालवांभोधिमाथमंथमहीधरेण, योगिनीप्रसादासादितयोगिनीपुरेण, मंडलदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमंडलाधीश्वरेण, अजयजयाजयविभवेन, यवनकुलकालकालरात्रिरूपेण शाकंभरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्त-. शाकंभरीतोपितशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण, नागपुरोद्ध लनधषितनागपुरेण, अर्बुदाचलग्रहणसंदर्शिताचलाद्भुतप्रतापेन, गुर्जराधीश[धीर त्वोन्मूलनप्रचंडपवनेन, श्रीमत्कुंभलमेरुनवीन निर्मितसुमेरुणा, श्रीचित्रकूटभौमस्वर्गयथार्थीकृतरचितचारुतरपथैन श्रीमेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन, अरिराजमत्तमातंगपंचाननेन, प्ररुढपत्रयवनदवदहनदवानलेन, प्रत्यथिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तडेन वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोडकोदंडदंडमंडिताखंडभुजदंडेन भूमंडलाखंडलेन, श्रीचित्रकूटविभुना, अध्युष्टतमनरेण गज-नरतुराधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन, वेदमार्गस्थापनचतुराननेन, याचककल्द्र मेण. वसुंधरोद्धरणादिवराहेण परमभागवतेन, जगदीश्वरीचरणकिंकरेण, भवानीपतिप्रसादाप्तापसादवरप्रसादेन, राजगुर्वादिविरुदावलीविराजमानेन राजाधिराजमहाराजश्रीमोकलनंदनेन राजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रेण विरचित उल्लासः पूर्णः ॥ उल्लासश्च समाप्ति समगादिति विततमतीनाम- . भिमसिद्धिरस्तु । श्री॥ पत्र २० ३. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रेण विरचिते संगीतराजे षोडश- .. साहन यां संगीतमीमांसायाँ रसरत्नकोशे विभावोल्लासे नायकभेदवर्णनं नाम प्रथमं परीक्षणं समाप्तं ।। पत्र ३१ b. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णेन विरचिते संगीतराजे पोडशसाहस्र यां ... संगीतमीमांसायां[रस] रत्नकोशे विभावोल्लासे नायिकावर्णनं नाम द्वितीयं परीक्षणं समाप्तं ॥ . ... : पत्र ३५ a. इति श्रीमहीमहेंद्रश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीतराजे पोडशसाहान यां संगीत- ... मीमांसायां रसरत्नकोशे विभावोल्लासे चेप्टादिविभावनं नाम तृतीयं परीक्षणं समाप्तं ।। ...... ___ पत्र ३८ ३. इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकरवोद्याननायकेन, . अभिनवभरताचार्येण .. मालवांनोधिमायमंयमहीधरेण, मंडलदुर्गोदरणोद्ध तसकलमंडलाधीश्वरेण, अजयजयाजय- .. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 39 ] विभवेन, यवनकुलकालरात्रिरूपेण शाकंभरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीरमणपरि' शीलनपरिप्राप्तशाकंभरीतोषितशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण, नागपुरोद्ध लनर्षितनागपुरेण, इत्यादि विरुदावलीविराजमानेन श्रीमहाराजाधिराजमहाराणश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रविरचिते संगीतराजे षोडशसाहन यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे उद्दीपनविभावपरीक्षणं नाम चतुर्थं समाप्तं ।। उल्लासश्च समाप्तः ॥ ..पत्र ४७ a. इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भुतकैरवोद्याननायकेन, अभिनवभरताचार्येण, मालवांभोधिमाथमंथमहीधरेण, अजयमेरुजयाजयविभवेन, यवनकुलकालकालरात्रिरूपेण, शाकंभरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीतोपितशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण, नागपुरोद्ध लन धर्पितनागपुरेण, अर्बुदाचलग्रहणसंदर्शिताचलाद्भुतप्रतापेन, गूर्जराधीशधीरत्वोन्मूलनप्रचंडपवनेन, श्रीमत्कुंभलमेरुनवीननिर्मितसुमेरुणा, श्रीचित्रकूटभौमस्वर्गीकृतयथार्थीकरणरचितचारुपथेन, प्ररूढपत्रयवनदवदहनदवानलेन, मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन, अरिराजमत्तमातंगपंचाननेन प्रत्यथिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तडेन, वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोइंडकोदंडदंडमंडिताखंडभुजदंडेन, भूमंडलाखंडलेन, श्रीचित्रकूटविभुना, अध्युष्ट· तमनरेश्वरेण, गजनरतुगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन, वेदमार्गस्था[प] नचतुराननेन, याचक कल्पनाकल्पद्रुमेण, वसुंधरोद्धरणादिवराहेण, परमभागवतेन, जगदीश्वरीचरणकिरेण भवानीपतिप्रसादादाप्तापसादप्रसादेन, राजगुर्वादिविरुदावलीविराजमानेन, राजाधिराजमहाराणश्रीमोकलनंदनेन ।। इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे अनुभावकोल्लासे प्रथमं नाम तृतीयं अनुभावपरीक्षणं ॥ ५० B. इति श्रीराजाधिराजकुंभकर्णमहीमहेंद्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे अनुभावोल्लासे अवस्थानिरूपणं नाम तृतीयं परीक्षणं समाप्तं । पत्र ५३ b. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां ... संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे अनुभावोल्लासे सात्त्विकभावपरीक्षणं तृतीयं समाप्तं ।। ...... पत्र ५५.a... इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन, अभिनवभरताचार्येरण, मालवांभोधिमाथमंथमहीधरेण: योगिनीप्रासदासादितयोगिनीपुरेण, मंडलदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमंडलाधीश्वरेण, · अजयमेरुजयाजयविभवेन, यवनकुलकालरात्रिरूपेण, शाकंभरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण, नागपुरोद्ध लनधषितनागपुरेण, अर्बुदाचलग्रहणसंदशिताचलाद्भुतप्रतापेन, गुर्जराधीशधीरत्वोन्मूलनप्रचंडपवनेन, श्रीमत्कुंभलमेरुनवीननिर्मित सुमेरुणा, श्रीचित्रकूटभौमस्वर्गीकृतयथार्थीकरणरचितचारुतरपथेन, मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणी- रमणेन, अरिराजमत्तमातंगपंचाननेन, प्ररूढपत्रयवनदहनदवानलेन, प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तण्डेन, वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोइडकोदंडदंडमंडिताखंडभुजदंडेन, भूमंडलाखंडलेन, श्रीचित्रकूटविभुना, अध्युष्टतमनरेश्वरेण, गजनरतुरगाधीशराजवितयतोडरमल्लेन वेदमार्गस्थापनचतुराननेन, याचककल्पनाकल्पद्रु मेण, वसुंधरोद्धरणादिवराहेण, परमभागवतेन, जगदीश्वरीचरणकिंकरेण, भवानीपतिप्रसादाप्तापसादवरप्रसादेन राजाधिराजश्रीमहाराजमहाराणाश्रीमोकलनंदनेन राजाधिराजश्रीकुंभकर्णेन विरचिते संगीत Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ] INTRODUCTION tmya might show many such common verses, but as the E. M. is not published we could not investigate the matter. The aạthor of this Māhātmya is also not known. Any way, for the present, wc miay. ascribe the authorship of all these works to Kumbhā until cvidence for a contrary opinion is found. Whatever might have been the fact as to his litcray authorship, there is not doubt that Kumbhā was a great patron of Icarning, and fine arts, such as inusic, dancing and acting, poetry and drama as well as architecture, sculpture and painting. We have names of (wo poets—Atri and Mahesa father and son who composed the pras'asti of his Jaya Stambha. Mandana ---the architect of Kumbhalmcru wrote eight books on architecture (1) Devatāmūrti prakaraña, (2) Prtās. ada maņdana, (3) Rāja-vallabha, (4) Rūpa-maņdana, (s) Vāstu. maņdana, (6) Vāstu Šlāstra, (7) Vāstu-Sāra and (8) Rūpavtāra. This Maņdana was a son of Sri S'ekhara and was a native of Gujarat and brought to Mewar by Mahārāņā Mokala (M. K. p. 167 f. n. I). Mandana's son Govinda wrote Uddhāra-dhoraņi, Kalānidhi, and ::. Dvāra Dipkiā. Mandana's brother Nāthā wrote Västumanjari. Thus the reign of Kumbha was glorious not on account of his military achievements only but also on account cf the great creative activity in literature, arts and music as well as in building magnificent forts, temples, wells and chiselling of fine sculptures and carvings. It was one of those periods of Indian History which encourage great cultural activities. This period may be compared with the times of Siddharāja and Kumārapāla of Gujrat, and Munja and Bhoja of . Malwa. X Mahāranā Kumbha was murdered by his eldest son Udaysingba n he was scated on the masonry of a tank near the temple of Māmadeva (Kumbhasvamin) in Kumbhalameru. This last event of a tempestuous life took place in A.D. 1468 (M. K. p. 110, p. 107). It appears that about that time Kumbhā was not normal in his behaviour. It is said that Kumbhā one day saw near the temple of Ekalingji a cow dancing, and making a long loud sound, usually made by cows when they feel satisfied. He said nothing at the time but after returning to Kumbhalameru he began to repeat constantly '90 aisa afa Kamadhenu dances'. A Chārana composed a stanza. purporting that the Gāyatri in the form of the cow who was very unhappy on account of the terror of Muslims began to dance for joy at the door of Sankara when Kumbha killed them : कुमेण राण हरिणया कलम, आजस उर डर उतरिय । तिण दीह द्वार शंकर तणे, कामधेनु तंडव करिय ।। (M. K. p. 109) This story of the Chārana seems to be a later fabrication but the abnormality of Kunibha's nind in his last days seems to be a fact. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . NO .::.. NRTYARATNAKOSA | 37 Whether this was insanity or a sort of religious frenzy, it is difficult to say. Possibly the mental stress and strain that Kumbha must have undergone in his unusually stormy life coupled with his emotional :: temparatient might have resulted in a sort of softening of the brain, or probably his decply religious nature, coupled with a sort of megalomania inight have seen in the ordinary behaviour of a cow, the dance of the Divine Cow which plays such a great part in the mythology pertaining to Bāpā given in the Ekalinga Purāņa. Whatever it may be, it was a tragic scqucl of such an eventful and splendid life. Hij political carcer started with a fight for life when his father Mahā. i rāna Mokal was murdered by his uncles Chāchā and Mājra. He wit nessed the court-intrugues which resulted in the murder of his uncle Rāghava who was something like his guardian, the scquel of which was the murder of his brave general Rathod Ranmall. To this was added the constant anxicty of keeping down rebellions in his own dominion and warding off the invasions of his two powerful neighbours, the Sultan of Malwa on the East and the Sultan of Gujrat on the West. That he was cqual to this task shows that he possessed intelligence, courage and valour to an uncommon degree. But the strain and stress involved in keeping down the court-intrigues and anibitions of his own sons as well as that of fighting external enemics might have ultimately broken even his strong nerves. It is possible to guess that the intrigues of his sons must have been the last straw. The provocation to the parricide Udaysingha requires to be sought out. The explanation probably lies in the court-intrigues in which the Mahārāņā and his sons were involved. . Whatever that may be, it is tragic to note that Mahārāna Kumbha's Tegin started with the murder of his father by his uncles and ended with his murder by his son. . The estimate of Mahārāna Kumbhā's personality cannot be better expressed than in the words of Colnol Tod who says that he had the energy of Hamir, Lakha's taste for the arts, and a genius comprehensive as either and more fortunate (p. 334 Vol. I). In accordance with the Hindu ideal of a hero, he has been thus described by the poet of the Jaya-Stambha-prasasti : धीरोद्धतं समिति संसदि धीरशान्तं मित्रेषु भूपतिषु भूपमुदारधीरम् । कान्तासुधीरललितं कलयन्ति सन्तो ये नायकावलिगुण वज] जन्मभूमिम् ।। १६५ (quoted in M. K. p. 220) . 1 This inscription and the Rasika-priyä mention the names of two queens of Kumbb Kumbhaldevi and Apūrvadevi. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 40 ] राजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे अनुभावोल्लासे प्रवासाद्यनुभाववर्णनं . चतुर्थ परीक्षणं ।। उल्लासश्च समाप्तः । श्री पत्र ६१ b. इति श्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रेण विरचिते संगीतराजे पोडशसाहस्र यां संगीत- ... मीमांसायां रसरत्नकोशे व्यभिचारिसंज्ञकोल्लासे निर्वेदादिरसनिरूपणं प्रथमं परीक्षणं ।। पत्र ६२ b. इति श्रीराजाधिराजमहामंडलेश्वरमहाराणाधीकुंभकर्णमहीमहेंद्रेण विरचिते संगीतराजे पोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे अनुभावोल्लासे प्रतिरसं भावावस्थानसूचकं नाम द्वितीयं परीक्षणं समाप्तं ।। __ पत्र ६५ b. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रण विरचिते संगीतराजे पोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे व्यभिचारिभावोल्लासे रससंकरादिनिरूपणं तृतीयं । परीक्षरणं ।। पत्र ६६ b. यं प्रासूत समस्तराज[]शिरोरत्नं नृपो मोकलः सौभाग्यकनिकेतनं गुणवतीसौभाग्यदेवीसुतः। आचंद्रार्कमुद(? दे)हेतुरधिकं संगीतराजश्चिरं जीयात् कुंभनर रेश्वरेण रचितस्तेन (? नो)विकल्पाश्रु (ल्पद्रु)रणा ॥ १४ श्रीमद्विक्रमकालतः परिगते नंदाभ्रभूत्तक्षितौ (तक्षितौ)। .. [१५०६] वर्षेऽक्षाद्रचनलेंदुशाकसमये १३७४ संवत्सरे च ध्रुवे । ऊर्जे मासि तिथौ हरे रविदिने हस्तक्षयोगे तथा योग (गे) चाभिजिति स्फुटोऽयमभवत्संगीतराजाभिधः ॥ १५ ग्रंथेऽत्र पञ्चोत्तररत्नकोशा उल्लाससंज्ञा खलु विंशतिश्च । परीक्षणानां गदिता ह्यशीतिः संख्यासहस्राणि च पोडशात्र ॥ १६ ॥ चंडीशश [तक व्याकरणेन गीतगोविंदवृत्त्या सुकृतं यदत्र । . संगीतराजेन च तेन चंडी हरिहरः प्रीतिमवाप्नुवन्तु ।। १७ ।। । इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन अभिनवभरताचार्येण मालवांभोधिमाथमंथमहीघरेण योगिनीप्रसादासादितयोगिनीपुरेण मंडलदुर्गोद्धरणोद्ध तसकलमंडलाधीश्वरेण . अजयजयाजयविभवेन यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण शाकंभरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकंरीप्रमुखशक्तित्रयेण नागपुरोद्धू लनधषितनागपुरेण अर्बुदाचलग्रहणसंदर्शिताचलाद्भुतप्रतापेन गूर्जराधीशधीरत्वोन्मूलनप्रचंडपवनेन श्रीमत्कुंभलमेरुनवीननिर्मितसुमेरुणा श्रीचित्रकूटभौमस्वर्गीकृतयथार्थकरणरचितचारुतरपथेन मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन अरिराजमत्तमातंगपंचाननेन प्ररूडपत्रयवनदवदहनदवानलेन प्रत्यथिपृथिवीपतितिमिरततिनिरा- ... करणप्रौढप्रतापमार्तडेन वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोडकोदंडमंडिताखंडभुजादंडेन भू-. .. मंडलाखंडलेन श्रीचित्रकूटविभुना अध्युष्टतमनरेश्वरेण गजनरंतुरगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन वेदमार्गस्थापनचतुराननेन याचककल्पनाकल्पद्र मेण वसुंधरोद्धरणादिवराहेण परमभागवतेन जगदीश्वरीचरणकिकरेण भवानीपतिप्रसादाप्तापसादवरप्रसादेन राजगुर्वादिविरुदावलीविराजमानेन राजाधिराजमहाराजमहाराणाश्रीमोकलनंदेन राजाधिराजश्रीकुंभकर्णेन विरचिते संगीतराजे पोडशसाहन यां सगीतमीमांसायां रसरत्नकोशे संचारिभावोल्लासे ग्रंथसमाप्ति (?:) परीक्षणं चतुर्थ समाप्तं ।। शिवमस्तु । श्री Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 41 ] वाद्यरत्नकोश (Ms. 9934. Central Libarary, Baroda) । पत्र ६.a. इति राजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां वाद्यरत्नकोशे ततोल्लासे एकतंत्रीलक्षणं प्रथम परीक्षणं समाप्तं ।। .पत्र १३ a. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रेण विरचिते संगीतराजे षोडश.. साहस्र यां संगीतमीमांसायां वाद्यरत्नकोशे ततोल्लासे नकुलादिपरीक्षणं समाप्तं । पत्र २४ १. इति श्रीराजाधिराजश्रीकंभकर्णमहीमहेंद्रविरचिते संगीतराजे षोडश- साहस्र यां संगीतमीमांसायां वाद्यरत्नकोशे ततोल्लासे मत्तकोकिलालक्षणं तृतीयं परीक्षणं ।। पत्र ३७ a. इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भ तकैरवोद्याननायकेन, अभिनवभरताचार्येण, मालवांभोधिमाथमंथमहीधरेण, योगिनीप्रसादासादितयोगिणीपुरेण, मंडलदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमंडलाधीश्वरेण, अजयमेरुजयाजेयविभवेन, यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण, शाकंभरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण, नागपुरोद्ध लनधर्षितनागपुरेण,अर्बुदाचलग्रहण संदर्शिताचलाभूतप्रतापेण, गूर्जराधी[शधी रत्वोन्मूलनप्रचंडपवनेन, श्रीमत्कुंभलमेरुनवीन- निर्मितपराजितसुमेरुणा, श्रीचित्रकूटभौमस्वर्गतायथार्थीकरणरचितचारुपथेन, मेदपाट समुद्रसंभवरोहिणीरमणेन, अरिराजमत्तमातंगपंचानेन, प्ररूढपत्रयवनदवदहनदवानलेन, प्रत्य थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तडेन, वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोडको- दंडदंडमंडिताखंडभुजादंडेन, भूमंडलाखंडलेन, श्रीचित्रकूटविभुना, अध्युष्टतमनरेश्वरेण, गजनरंतुरगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन, वेदमार्गस्थापनचतुरानने [न], याचककल्पनाकल्पद्र मेण, वसुंधरोद्धरणादिवराहेण, परमभागवतेन, जगदीश्वरीचरण किंकरेण, भवानीपतिप्रसादाप्ता- पसादवरप्रसादेन, राजगुर्वादिबिरुदावलीविराजमानेन, राजाधिराजश्रीमोकलेन्द्रनंदनेन, राजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रोण विरचिते संगीतराजे पोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां वाद्यरत्नकोशे ततोल्लासे किंनरीपरीक्षणं चतुर्थ समाप्तं ।। ततोल्लासः समाप्तः ।। पत्र ४२ b. इति श्री राजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीत राजे पोडशसाहन यां ... संगीतमीमांसायां वाद्यरत्नकोशे सुशिपिरोल्लासे वंशनिरूपणपरीक्षणं प्रथमं समाप्तं ।। .....पत्र ५२ ... इति श्रीकुंभकर्णविलासे (? विरचिते) संगीतराजे पोडशसाहस्र यां संगीतमीमांसायां वाद्यरत्नकोशे सुशि(पि)रोल्लासे वंशसंबंधिस्वरोत्पत्तिपरीक्षणं द्वितीयं समाप्ति समगादिति ।। श्री ॥ .. पन ५३ a. - इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीतराजे पोडशसाहन यां .. संगीतमीमांसायां वाद्य रत्नकोशे सुशि (पि) रोल्लासे दोषपरीक्षणं तृतीयं ।। पत्र ५५ ३. इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन, अभिनवभरताचार्यण, - मालवांभोधिमाथमहीधरेण, योगिनीप्रसादासादितयोगिनीपुरेण, खंडलदुर्गाद्धरणोद्धृतसकल मंडलाधीश्वरेण, अजयमेरुजयाजयविभवेन, यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण, शाकंभरीरमण- परिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीतोपितशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण, नागपुरोळू लनर्पितनागपुरेण, अर्बुदाचलग्नहांसंदर्शिताचलाद्भुतप्रतापेण, गोर्जराधीशधीरत्वोन्मूलनप्रचंडपवनेन, श्रीमत्कुंभलमेरुनवीननिर्मितपराजितसुमेरुणा श्रीचित्रकूटभौमस्वगतायथार्थीकरणरचितचारुतर.. पथेन, मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन, अरिराजमत्तमातंगपंचानेन, प्ररूढपनयवनदवदवा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 42 ] नलेन, प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तडेन, वैरिवनितावैधव्यदीक्षादान दक्षोद्दण्डकोदंडदंडमंडमंडिताखंडभुजादंडेन, भूमंडलाखडनेन श्रीचित्रकूट विभुना, अध्युष्टतमनरेश्वरेण, गजनरतुरगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन, राजगुर्वादिविरुदावलीविराजमानेन, राजाधिराजश्रीकुंभकर्णमहीमहेंद्रेण विरचिते संगीतराजे वाद्यरत्नकोशे सुशि (पि) रोल्लासे पादादिपरीक्षणं चतुर्थं समाप्तं । उल्लासश्च समाप्तः ।। पत्र ६३ b. इति श्रीराजाधिराजमहीमहेंद्रश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीत राजे वाद्यरत्नकोशे घनोल्लासे मार्गतालपरीक्षणं प्रथमं समाप्तं ।। N.B. Three Pariksaņas of this Ullāsa are wanting. So does the whole of Avanaddhollasa. The Ms. at the beginning and at the end is . named Ghanollāsa-pustakam. . ____पाठ्यरत्नकोश ( Ms. 9932. Central library, Baroda ) पत्र ५ b. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीतराजे पाठ्यरत्नकोशे अनु-.... क्रमणिकोल्लासे कर्तृ प्रशंसानाम प्रथमं परीक्षणं ।। . ___ पत्र ८ १. इति श्रीराजाधिराजमहीमहेंद्रश्रीकुंभकर्णविरचिते पाठ्यरत्नकोशे अनुक्रमणिकोल्लासे आरंभसमर्थनं नाम द्वितीयं परीक्षणं ॥ पत्र ८ b. इति श्रीराजाधिराजमहीमहेंद्रविरचिते संगीतराजे पाठ्यरत्नकोशे अनु-.. क्रमणिकोल्लासे संगीतस्तुति म तृतीयं परीक्षणं ॥ पत्र १० b. सरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेनाभिनवभरताचार्येण, मालवांभोधिमाथमंथमहीधरेण मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन, अरिराजमत्तमातंगपंचाननेन आरुढपत्रयवनदवदहनदवानलेन, प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तण्डेन, वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोइंडकोदंडदंडमंडिताखंडभुजादंडेन भूमंडलाखंडलेन, श्रीचित्रकूटविभुना? अध्युष्टतमनरेश्वरेण, गजनरतुरगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन, वेदमार्गस्थापनचतुराननेन, ... याचककल्पनाकल्पद्रु मेण, वसुंधरोद्धरणादिवराहेण, परमभागवतेन,जगदीश्वरीचरणकिंकरेण, भवानीपतिप्रसादाप्तापसादवरप्रसादेन, राजगुर्वादिविरुदावलीविराजमानेन, राजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते श्रीसंगीतराजे पाठ्यरत्नकोशेऽनुक्रमणिकोल्लासेऽनुक्रमणिको नाम चतुर्थ .. परीक्षणं ।। उल्लासश्च प्रथमः समाप्ति समगादिति विततमतीनामभिमतसिद्धिरस्तु । पत्र १३ १. इति श्रीराजाधिराज पदोल्लासे पदपरीक्षणं प्रथमं ॥ .. पत्र १४ ३. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्ण वाक्यपरीक्षणं नाम द्वितीयं समाप्तं ॥ . ... . पत्र २० a.. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुं० पदोल्लासे रसपरीक्षणं तृतीयं समाप्तं ॥ .. पत्र २३ b. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुं० परिभापानाम चतुर्थ परीक्षणं. परिपूर्ण पदोल्लासश्च समाप्तः ।। पत्र २५ a. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुं० छंदउल्लासेऽनुष्टुप्परीक्षणं प्रथमं समाप्तं ॥ ... Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [43] पत्र २६ b. इति श्रीमहाराजाधिराजश्रीकुं० छंद उल्लासे वृत्तशासनं परीक्षणं नाम : द्वितीयं समाप्तं ॥ C पत्र ३१ b. इति श्रीराजाधिराजश्रीकुंभकर्णविरचिते तत्त्वप्रदीपे पाठ्यरत्नकोशे छंद उल्लासे आर्यावलोकनं नाम तृतीयं परीक्षणं ॥ पत्र ३२ . इति श्रीराजाधिराजमही महेंद्र श्रीकुंभकर्णविरचिते छंद उल्लासे प्रस्तारपरिपाटी नाम चतुर्थ परीक्षणं ॥ छंद उल्लासश्च तृतीयः समाप्तः । पत्र ३२ b. इति श्रीमहाराजाधिराजाश्रीकुंभकर्णविरचिते संगीतराजे पाठ्यरत्नकोशेऽलंकारोल्ला से उद्देशपरीक्षणं प्रथमं समाप्तं । पत्र ३८ a इति श्रीराजाधिराजश्री कुंभकर्ण महीमहेंद्र रेग विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्रयां संगीतमीमांसायां पाठ्यरत्नकोशेऽलंका रोल्लासे लक्षणपरीक्षणं द्वितीयं ॥ पत्र ३६ a इति श्रीमहाराजाधिराजश्रीकुंभ० शब्दालंकारपरीक्षणं तृतीयं ॥ पत्र ४१ २. इति श्रीराजाधिराजन (?) श्ररिराजमत्तगजसिंहेन, मेदपाटसमुद्रसंभव रोहिणी रमणेन, अभिनवभरतेन, अश्वपति नरपति- गजपति राजत्रयतोडरमल्लेन, राजगुरु - चापगुरु-सेलगुरु इत्यादिविरुदावलीविराजमानेन, महीमहेंद्रश्रीकुंभकर्णेन विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्रयां संगीतमीमांसायां पाठ्यरत्नकोशे अलंकारोल्लासे दोषगुणोल्लासः पाठ्यरत्न कोशश्च समाप्ति समगादिति विततमतीनामभिमतसिद्धिः ॥ The portion of the Ms. from Folios 51 to 87 appears to be Gitaratnakosa. There is no puspikā or colophon giving the name or titles at the end. Kumbha and Citrakuṭa are mentioned in stray verses. APPENDIX II श्रास्ते कर्णादेशः सुविमलयशसा पूरिताशः पृथिव्यां कावेरीकृष्णवेणीत रलतरतरङ्गार्द्रदक्षोत्तरांसः । हृष्टः संश्लिष्टपूर्वापरनिजवपुषा प्राच्यपाश्चात्यवेले पाथोनाथप्रसत्तिप्रवलितनिखिलस्वाङ्गसौभाग्यलक्ष्मीः ॥ ५ ॥ भोगिस्थिता भोगवती च नित्यं पुरीह विद्यानगरी सुपर्व रम्या दिविजस्थलीव । चकास्ति तुङ्गातरङ्गैरभितः पवित्रा ॥ ६ ॥ एतां शास्ति प्रशस्तं प्रतिभटमुकुट प्रोतनिर्यत्न निर्यद्ंरत्नज्योति: प्रवालावनमनचटुल| टोपतापप्रतापः । कर्णाटाघाटलक्ष्मी चरणपरिलसत्पौरुषोत्कर्षशाली प्रौढ : श्रीदेवराजो विजयनृपसुतो यादवानां वरेण्यः ॥ ७ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 44 ] विश्वंभराभाग्यकृतावतार स्तस्यास्ति पुत्रो यशसा पवित्रः। संगीतसाहित्यकलास्वभिज्ञः प्रतापवानिम्मडदेव एपः ।। ८॥ सुधर्मेव सभा यस्य समुल्लासिकलाधरा। गान्धर्वगुणगम्भीरा विद्याधरविनोदिनी ॥ ६ ॥ वाचा गेयेन नित्यं समुचितकुसुमैस्तोपितार्धाङ्गयोप: कीर्त्या व्याप्तस्त्रिलोकीमभिनवभरताचार्यलक्ष्मप्रपूा । पादाने वीरभूषामरिणगविलसत्सर्ववाग्गेयकार स्तस्यामस्ति प्रशस्तश्रुतिगणचतुरः कल्लिनाथार्यवर्यः ।। १० ।। [ संगीतरत्नाकरः। चतुरकल्लिनाथविरचितकलानिध्यात्यटीकासंबलितः ॥ संपादको ... . मनेशशर्मा आनन्दाश्रमसंस्कृतग्रन्यावलिः ग्रन्थाङ्कः ३५, पूना खिस्तान्दाः १८६ ६॥ NOTE: Samgitarāja was completed in V.S. 1509, S'aka 1374, on Kārtika darkhalf II (month ending in Parnima), Sunday, October 8. 1452' ... A.D: (See p. 40). The day and the date given in the M.K. (p. 208)... Wednesday the 13th day of the dark half of Kartika......IIth Octo-. . ber, 1456 A.D.'-are not correct. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INDEX (The numbers refer to pages of the Introduction ; 'n' refers to Foot Note.) Abhinava Bharatācārya, a title, 35 n. Abu, 18, 26, 27, 29, 33. Abul azal 30. Acala (Achala), fort of, 13. Achalgadb, fort of, 29. Achal Singh, the Khichi Chief of : : Gagroon, 16 n. Agastipura, 13. Ahamad, 16, 25. Ahmadnagar, district of, 13, 14, Ahmad Shah, 13. Ahmedabad, 21, 24, 26. Ahmedshah I, of Gujarat, 20. Ahurwara, 27. Ajari (Ajahari), in Sirohi, 18, 33. Ajagameru (Ajmer), 20. : Ajim Kbān, 10. Ajja, 19. Akbar, 31. Akola, district of, 14. Alain Danielou, 9. Ala-ud-Din Ahmed Bahmani, 11. Allata, 29. : Amargarh, fort of, 18. Amiran-e-Sadah, 24. Āmodarāya, 6. 3.Aminshah, 23. Amritlal Bhojak, 25 n. Anahilwar Patan, 24. Ananya Mallika, 10. Añjanādri, 12. Apārvadevi, a queen, 37 n. Aparājit, 32 n. Aravalli, 33. Arvind, dynasty of, 12. Aşțādas'agiri, 12, 13. As'oka, 28. Atri, author of Jaya Stambha pras'āsti, 36. Aurangabad, 13. Azam Humayun, 23. Āzam Khan, 10. Baggularāja, 10, II, 15. (Baglan Bāglān, II, 14. (Bāgula, Baggula, 11, 14. Bagumra, 7 n. Baharji, II. Bayley, author of the 'History of Gujarat, 27. Bamboda, 18. Baippa Nayaka, 12. Bāna Māta, temple of, 21. Bāpā Rāval (Bāpā), 22, 37. Baroda, 24. Basantgarh, 18. Beợura, II. Bedura-Bhūpāla, also Boddhura bhūpāla, 10, II. Belur, II. Bellur, 12, 14. Berar, 14. Bhairavasena, II. Bhana, 22 n. Bharata, author of 'Natyasastra' : 2, 35 sBharatakosa (Bharatakosa, 2,5 n. Bhaskarācarya, 7. Bhaskarayamsa, 8. Bhavanagar-inscriptions of, 34, 34 n. Bhavāni, 11. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 46 ] Bhillama, 7 n. 8. Bhoja, 35, 36. Bhula, 18, 33. Bikaner, 20. Brahmagiri, 12, 14. Brahmādrijātā, 12. Briggs, 22, 31. Broach, 14. Bombay, 13, 14, 30. Bujārakhāna, 10. Bundi, 18, 20, 21. Devarāya II, 9. Dhoyi, 35. Didwana, 25. Dipsingh, 21. Doạiyā Narsingh, 14. Dungerpur, 14. Candi-S'ataka, 35, 35 n. Chācbā, 16, 17, 37 Champaner Champanere, 23, 27. Chandor, 13. Chatsu (Chaksu), 20. Chhoti Khatu, 20. Chitod, 24, 29, 34. , Chitor, 16, 17, 19, 20, 21, 22, 24 n, 26, 27, 28, 30, 31 n, 33, 35. Chittodgadh, 29. Chitrakāța (Chitod) Citrakāta 28, 29 n. 43 Chavarli, 18. Chonda, of Mandor, 18, 19, 29 Chonda, 20. Chonda, Rathod, 24, 25. Commissariat, 23 n, 24 n, 31, Ekalingji, temple and inscrip-. tion of, 22, 33, 36. Ekalinga Purāņa, 37. Ekka, son of chācha, 17. Ere Krishnappa Nayak, founded the Bellur family of South, II, 12. Farbat Mulk, 23. Fath Khan (Fatah Khan), 10. Fathpur, 31. Fateh Wadi, 31. Fergusson, James, 29, 31, 31 n, 32 n, 34, 34 n. Ferishta (Ferista), 15, 21, 21 n, 22, 26, 26 n, 27, 27 n, 30. Firuz, heir-apparent of Mohammed Tughlug, 25. Gagaran, in Kota, 20. . . Gagaroon, 16 n. . Gablots, 30 n. Gajadhar Singh, 22. Gālnā, fort of, 15.Gañadevi, 13. Ghanadevi, 13. Giripura Dungara, 14. Gitagovinda, of Jaideva, 34:35. Gitaratnakoşa or Gitaratnakosa 1, 43. Godāvari, a river, 12, 13, 14. Gopacandra, Gopacandra Bāgula 11, 15 Gaurishanker ojhà, öza, ojhaji, 23, 24, 32 n... Govana I, 7. Govana II, 7. .. Govana III, 7. Dabboi, 24. Dafar Khan, 24. Dalal, C.D., II. Damanpura, 14. Damman, 14. . Daultabad, II, 15. Delhi, II, 20, 21, 23, 24, n, 25. Delvāda, 29. Depāka, 34. Devagiri, the Yādavas of, 8, 14 n, 15. Devarāya I, 9 n. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Govindaraja, 7. Govinda, 36. Gubelot, 22. Gurjara, 14. Gujrat, Gujarat, 14, 17, 20, 22, 23, 23, n. 24, 25, 26, 27, 28, 31, 36, 37. Hallar, district of, 19. Hamir-Rāņā, 33, 37. Hamsabai Hansabai, sister of Chonda, 19, 20 n. Haras, a family, 18. Haravati, Härāvati, 21. Harbilas Sārdā, 23, 35. Hari Rai, 23. Har Raj, 18. Harṣa, 35Hasan Malik, 10. Hassan, a district, Hemadideva, 7, 8. Heras, H, 10 n, 12 n. (Hindu Sultan, Hindu Suratrana, a title earned by Kumbha, 21. II. [ 47 ] Hoyasalas, a royal family, II. Humayun Shah, 23. Hushang, of Malwa, 23. Idar, 22, 23. Igatpuri, 13. Imad-ul-Mulk, 26. Immaḍi-Devaraya, 9, 10. Indraraja, 7, 14. Indrasenarāja, 8. Jafar Khan, of Gujarat, 22. Jahangir. his Memoirs, 30. Jaisingh, of Amber, Jaitmal, 17. 22 n. Jaitrakarna, of Idar, 22. Jaitrapala, 7 n, 8. Jaitra, architect of the Jayastambha, 32. Jasamāmbika, mother of Kalasena, 7, 14. Jaya, 32 n. Jayastambha 17, 28, 29, 31 31 n, 32, 33, 34, 35, 36. Jaya-stambha-prasasti, 37. Jemal-Rao, 22 n, 23. Jheelwara, 16. Jija, a Jain Community, 29. Jodha Jodha, 19, 20. Jodhpur, 24 n. Jogidas Ambalal Joshi, 22 n. 20. Kahuni, a village, Kailwara, a village, 21. Kambhoi, battle of, 23. Kaitan Rāņi, 29. Kälajit, 6. Kalanidhi, of Kallinatha, 5, 8, 9, 36. Kalasena, 2, 3, 4, 5, 6, 8, 11, 12, 13, 14, 15, 33. Kallinatha, 5, 9, 10, 10n. Kalasena, 3, 3 n, 4, 5, 6, 10. Kalacuris, the emblem of, 14 n. Kalu-a-deva, 15. Kālují, 5, 6. Kalyāṇa, 13. Kalyāṇapura, 13. Kanha, son of Mohil, 18. Kandhal, 19. Karmavati Laṣumā (or Lakhumā), chief queen of Kalasena, 7, 14. {Karnatak Karṇāṭaka, 8 n, 12, 34. Kannad, 35. Kesava Jhoting. 32. Khāna, 10, Khaljipur, 21. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ 48 ] Khandesh Kumbho, 15. IKbānadesh, 7 n. 8 n. II, 14. Kunhan Rājā, Dr C, 1, 2, 5. Khan Khānā, 31. Kutb-Minar, 31. Khatgarh, 18, Kutub-bu-din-Mubarak, 23. Khatu, 20. Kheta, 23. | Lakha Khetsingh, 6. Lakha, Maliarānā, 18. 19, 37. Khizir Khan, 25. Laghumādevi, chief queen of Khuchi, 16. Kalasena, 7n, 8. Kirtistambha, a Jain pillar, 12, Lakhā, of Sirohi, 18. 22, 24, 29, 33. Lakşmi, 29. Kondommā, 12. Lalbai, daughter of Mokal. 16n. Konkan, II, 13. Kootb Shah Madangad, 13. Kootab Shah Madanpura, 13 Kutub Shah, 26, 27. Madaria, 16. Krishņā, 13. Mahesa, 32. 36. Krishna Deva Raya, 12. Mahipa, 16, 17. Kşşşarāja I, 7. Mahmmad Kệsparāja II, 7. (Mahmud, of Gujarat, 10, 30. Kshetra Mahmud, of Malwa, 21, 22, 30, Kshetrasingha or Kheta, 22, Mahmud Khalji I, of Malwa, 17 23, 24. 21, 27, 30. Kshemakaran, 16 n. Mahmud, 21,22,24 0, 30,31,31 n. Kumārapala, 36. Mahmud I Begda, IC, 11. Kumbhakaran, 16 n, 32 n. Mahmud I, 30, 30 n. Kumbhalgarh, 21, 26, 33. Mabmud II, 10, 30 n. Kumbha, 3,4,5,15,155,16,17,20, Mahmud III, 10. 21, 22, 24 n, 25, 26, 28, 30 n, (Mahmud Khalji 31, 33, 34, 35, 36, 37, 43. | Mahmud Khilji, 27, 28, 31, Kumbhā-Rāņā, 18, 19, 20, 20 n, Mahoragpura, 14. 21, 25, 26, 27, 28, 29, 30, 33. (Maira, 34, 35, 36, 37, 37 n. | Maira 16, 17, 37. Kumbhabhūbhujā, 4. Malegaon, 15. Kumbhakarņa, 2, 3, 3n, 4, 5, 8, 9, Malik Wagi, 15. 15, 16, 34, 35. Malik Ashraf, 15. Kumbbaldevi, 37 n. Malik Dinar, 23n. Kumbhasambhava, 4. Malik Gaddai, 26. Kumbhalgadha Malik ShaabanKumbhalagadha, 24, 28. Imad-ul-Mulk, 26. Kumbbala-meru, 28, 36. Mallika, 10. Kumbhaņ 2, 4. Mallikarjuna, 9, 10. Kumbhasvāmi, 4, 33. Malik-ut-Tujjar, II. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [ 49 ] Malwa, 17, 19, 20, 21, 22, 23, 26, Mujahid Khan, 26. ... . . 27, 30 n, 36, 37. Multan, 25. Māmadeva . Munja, 36. | Māmdeva-temple of, 33, 36. Muzaffar Khan, 23. Mandal, 23. Muzaffar Shah, 25, 25 n. Mandu Muzaffar III, 31. Mandu (Mandoo, 17, 21, 22, 30. Mysore, II. Maņậana, 28, 36. (Nagour Mandelslo, 31. Nagour Mandalgarh (Nagoor 16,22,24,241, 25, 25 n, Mandalagadha 26,28,20, (Mandalagara, 18, 20, 21 Nagpur, 14 (Mandor, Nandlal De, 13. Mandawar Nandol, 23. (Mandovar, 17, 18, 19, 20, 2on. Nāpā, 32. Mandu, 19. Narahari, 32. Mandsaur, 17. Narānaka Mangesh Ramkrishna Telang, 9. | Narana, in Jaipur, 20. Manira (Manira-Vira), II. Narnāla, a hill fort, 14. Mayūragiri, 11. Narandas, 22 n, 23. Mehta Nainsi, his Khyat, 25. Narsingh, 18. Mewar, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, Narmada, in Gujrat, 14. .: 23, 24, 25, 27, 28, 33, 36. Nasik, 5, 13, 14, 15. Mhāmarāja (Hmānga), 6, Nasirkhāna, IC. Nathā, his Vastumanjarī, 36. Miran, 11. Nathsingh, 16 n. Miran Ādilkhan, 11. Navasari, 13. Miran Mubarik, 11. Nikumbh-vas'a, 7, 8, 14, 15.'. Mirat-i-Sikandari, 18, 27. Nilakanta Sastri, K.A., 9, 10. Minara-e-Haft-Manzari. 30. Nộtyaratna-kosa, 1, 2, 3, 4, 5, 6, Modasa, 23. 8, 9, 10. Mokal Nộtyas'āstra, 2. ::? Mokalev, Maharana, 16, 18, 19, Nātyas'āstra, of Bharata, 2, 34. ...: 22, 24, 24 n. 25, 36, 37. Nuniz, on. Mohil, 18. Mohammada, 10. Orissa, 15. Mțgāņka-Tāmarāja, 14. Padmāvati, 6. Muhammad I, 10. Padshah Ahmed, founded Muhammad II, 10,-11. Ahmedabad, 24. Muhammad III, 10, Sultans of Pai hills, 17. Gujarat. Pai Kotra, 16. . Mahmud Shah, son of Firuz, 25. Pañcavati, 13. Muhammad Tughlak, 11, 23, 24. Paramāra, 16 Mirā, 25. - . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ so ] Parmārs, 29. Pāțați, 13. Patali, 13. Pathyaratnakosa, 1, 2, 3 n, 4, 6, 10, 13, 35. Pattana, same as Anabilwar Patan, 24. Penkarāja (Peđa), 6. Percy Brown, author of 'Indian Architecture', 29 n, 31 n. Pindarvātaka, 33. Pratāparudra, 15. Prithviraj Chauhan, 24. Prithvivallabha, 7 n. (Punjaji Punja (Punjā, 22 n, 23, 32. Puntamba, 14. . Punyastambha, 14. Qutub, 26. Qutub-ud-din, of Gujarat, 27, 28. Rändel, 13. Rander, a town, 14. Raningadeo, 25. Rānipura, 14. (Ranmal TRaṇamalla, 17, 18, 19, 20, 22, 24, 25, 37. Rasik-priyā, 27, 34, 35, 37 n. (Rāșțrauậbavamsa Mabākāvga (Rāştraudha-Vaņşa-Mabākāyga, 11; 15. Rasaratnakosa, I. Rāghava, 37. Rāghavadeva, 19, 20. Rai Ramchandar, 26. Rajamundry, 10. Rājapolas, 29. Rājā, 17. Rajdhar, 16 n. Rāma, 29. Rāma Amātya, 9 n. Rāmachandrarāya, 9 n. Ramakrishna Kavi, 2, 5n. , Rāmarāja, 6. Rātākot, 16. Ratanakara, 34. Ratnakos'as, I, 4. Rūnkot, 17. Rūpavatāra, 36. Ranapura, 34. Ranakpur, a temple, 18, 20, 33, Sabdakalpadruma, 12. Sādala, 24. sadari, 33. Sadhu, 25. Sahāran (Sadhāran), 25, 25n. Sahas Mal, of Sirobi, 18. Salera, 33. Samgitamimāṁsā (Samgitamiņāṁsā, 1, 2, 5, 8, 35. (Samgitarāja Sangitarāja (Samgitarāja, 1,2, 3n, 4, 5, 5n, 8; 43, 44n, Samgitaratnākara of Sarngadeva, 2, 5, 8, 9. Sanghapati Dharanāka, 34. Samiddbevsara Mahādeva, a temple, 25. Samprati, a Jain king, 28. Sangamaner, 14. Sangamanira, 14. (Sanja Sajñāpura, 13. Sankara, 36. . Sangram, of Mewar, 22n Sangrãm Singh, 30 n. Slantinātha, 33. . . Sanwaldas, 22, 22n.. Sarñgadeva · Särigadeva, author of Sasirgitaratnākara, 2, 5, 8 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ si Sarangpur, in salıra, 20. Sardo, Har Bilas, 250 26n, 27, 28. Sarkhej 'Fatci Bagh', 31. Satala, 24. Satta, 16n. Saubhigyadevi, 17n. Sayyad Mohammad, 20. Sckhara. 36. Sema, a village. 33. Seringapatan, 11. Seth Kasturbhai Lalbhai, of Ahmedabad, 34 n. Sewell, q. Shah Gunaraj. 33. Shalji, 18. (Shamsh:han Shumskhan, 25, 250, 26. Shiva, 16 n. Shringirishi-Inscription of, 24. Sikri Fathabad', 31. Silahäras, 14. Singhana, 7n, 8. Sirohi Sirohy, 18, 21, 27, 26, 20. Sirpur, 13. Sisodia of Mewar, 19, 20. Sohanadeva of Nikumbhavarsā, Sultan Qutb-ud-din, 26. Surat, a district, 13. Suvarnadurga, 13. Suvarna Garuda-dhvaja, 14. Suvarnarşabha-dhvaja 14n. Suvarna-Vyāghra, 14. Svara-Melakalānidhi, gn. Tajkhan, 21,25. Tämarjendra (Tamarāja), 6. Tamarāji (Tamaraja), 0. Tānā, 25 Tank Rajputs, 25. Tārī, 29. Tárāpura, 13. Tātārakhāna, 10. Telingânā, 10. Thalner, 11. Thana, 13. Thana, a fort, 13. Timur 240, 25. Tod, Col. James, 28, 31, 32, Todā, 24. Tonganur, II. Tonnur, 11. Trajan, in Rome, 31. Tringala wādi, 13. Trisandhyā, 12. Trisañdhyakşetra, 12. (Triyambaka Tryambak (Tryambaka, 5, 12, 13, 14. Tryambakes' wara. 12. Tughlug dynasty, 24n. Tujārakhāna, 10, 11n, Tujārasāna. 10. Udaysingha, 36, 37. Uddhāra-dboraņi, 36. Vadyaratnakosa, 1. Vasai (Bassain). 14. Vasantpur, 33. Vastumanjari, 36. Sonargaon, 23, 24. Sooltan Hooshang, 30. Sooltan Mahmud, 30. Somasundara Sūri, 34. Sopārā, 14. S'ridevi, 7. Sripura, 13. S'ộngirs'i, Inscription of 16. Sthāna, II. Sūķa-prabandha, 34. Sluk lapura, 14. Sultan Ala-ud-din, 23n. . Sultan Muhammad Tughlug, 25. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 32 ] Vyāghra-Cāmikara, a dynasty, 6, 14. Wajib-ul-Mulk, 25. Wolsely Haig, 24n. 29, 30n. 31. Vāstu-Sāra, 36. Vāstusastra, 21, 36. Vātikācala, 13. Velāpura, II. Vijaya, father of Prauậha Devarāya, 9. Vijayanagar, 9; 12. Vijay Rāya I, 9n. Vincent Smith, 31, 32. Vigatpuri, 13n. Vikațapuri, 13n. Viramdeva, 16n. Vira Ballala III, 11, Vir Vinod, 16. Yadavas, 14, 15. Yuga-S'ri-Chaturmukha, also called Trailokyadīpaka, 34. Yuzbashis, 24. Zafar, 23 Zafar Khan, 23, 236, 24, 25, 25n. "Zyreitbag’, Jitbag, 31. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मेदपाटदेशाधीश्वर-श्रीकुम्भकर्णनृपति-विरचितः र नृत्य रत्न कोशः। EP. तृतीयोल्लासे प्रथमं परीक्षणम् । ....[मङ्गलम् ।] . यस्मिन् समस्तकरणानि न कारणानि योऽनङ्गहारविजयी च नवाङ्गहारः। यश्चाङ्गहाररुचिरामलनृत्यकारी . , नारीकृतार्थतनुमीशमहं नुवे तम् ॥ करणान्यथ वक्ष्यन्ते नृत्यस्य करणालि वै। शुद्धानि भरतोक्तानि वसुखेन्दु'१०८ मितानि च ॥ करपादाद्यङ्गकस्य क्रिया रसनिरन्तरा।" सविलासानुकरणं नृत्यादि करणं तु तत् । अथोद्देशं वदे तेषां लक्षणं च सविस्तरम् ॥ [शुद्धकरणानि ।] ... " तलपुष्पपुटं लीनं वर्तितं वलितोरु च। .. मण्डलस्वस्तिकं वक्षःस्वस्तिकं स्वस्तिकं ततः ॥ आक्षिप्तरेचितं पृष्ठस्वस्तिकं चार्धपूर्वकम् । स्वस्तिकं दिक्वस्तिकं चोन्मत्तं समनखं ततः ॥ अपविद्धं सञ्चितं च तथा स्वस्तिकरेचितम् । निकुद्दमर्धनिकुहूं कटिच्छिन्नं कटीसमम् ॥ विक्षिप्ताक्षिप्तकं नाम भुजगन्नासितं तथा। । अलातं निकुञ्चितं च घूर्णितं चाधरेचितम् ॥ ऊर्ध्वजान्वर्धमत्तल्लि स्याद्रेचकनिकुहितम् । ....... .........मत्तल्लि ललितं चैव वलितं दण्डपक्षकम् ॥ ...... FREE: AB :put. १०८ after वसु । 2 AB :त्याद । 3 0 °देशवदे। 4 B मतः। 5 AB उन्नतं। ... ......... १९ नृ० रन Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ ___10 नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ [शुद्धकरणानि नूपुरं पानापविद्धं भुजङ्गवस्तरेचितम् । [खुजङ्गाञ्चितछिन्ने च भ्रमरं दण्डरेचितम् ।] . चतुरं च कटिनान्तं व्यंसित क्रान्तसित्यपि ॥ वैशाखरेचितं पार्श्वनिकुद चक्रमण्डलम् । वृश्चिकं लतावृश्चिकं तथा वृश्चिककुहितम् ॥ ... अथाक्षिप्तं चार्गलं च तथा वृश्चिकरेचितम् ।.. उरोमण्डलमावर्त तथा तलविलालितम् ॥ . ललाटतिलक दोलपादकं कुञ्चितं तथा । विवृत्तं विनिवृत्तं च पार्श्वक्रान्तं निशुस्मितम् ।। विद्युद्धान्तमतिक्रान्तं विक्षिप्तं च विवर्तितम् ।. गजक्रीडितकं गण्डस्तूचि स्याङ्गरुडप्लुतम् ॥... तललंस्फोटितं पार्थजानु गृध्रावलीनकम् । सूचीविद्धं सूचि चाधसूची स्याद्धरिणप्लुतम् ।। परिवृत्तं दण्डपादं मयूरललितं ततः । :. प्रेडोलितं सन्नतं च लर्पितं करिहस्तकम् ॥ प्रसर्पितमपक्रान्तं नितम्ब स्खलितं ततः। .... सिंहविक्रीडितं सिंहाकर्षितं चावहित्थकम् ।। ........ निवेशमेलकाक्रीडमुवृत्तं जनितं तथा। तलसंघट्टितं विष्णुकान्तं चोपसृतं तथा ॥ लोलितं मदस्खलितं वृषभक्रीडितं ततः। संभ्रान्तमुद्धाटितं च विष्कुम्भ शकटास्यकम् ॥............ जरूवृत्ताभिधं चैव नागापसर्पितं तथा । ....... गङ्गावतरणं चेत्थमष्टोत्तरमुदीरितम् ॥ ..... करणानां शतं पूर्णमङ्गहारोपयोगिकम् । ..... . अन्यानि सन्ति भूयांसि गतिस्थित्यादियोगतः॥.... अङ्गानां मेलके तानि खयमूद्यानि पण्डितः। प्रायेण व?न)र्तनारम्भे समौ पादौ लताकरौ ॥ __ चातुरस्यं शरीरे च विशेषोऽथो यथास्थितः। चारीमध्यर्धिकामेते दक्षिणे चरणेऽग्रगे॥ म २२.. . ..... 1- AB क्लीडनकम् । 20 तथा । 3 AB करह। 4 A. Natyasastra-and- ... other works such as S. R. give Viskambha; but Monier Williams on the authority of Vopadeva gives विष्कुम्भ. also.. __20 . . Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए . लीनम् ] . मृ० २० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ ... व्यावृत्त्य दक्षिणं पार्श्वमागते करयोयुगे। ६. परिवर्तनतो वामं पार्श्व सनतमाश्रिते॥ : २३ कुचक्षेत्रं श्रितो यत्र हस्तः पुष्पपुटो भवेत् । ....... तलपुष्पपुटं तत् स्यात् पादेऽग्रतलसञ्चरे ॥... २४ रङ्गे पुष्पाञ्जलिक्षेपे लजिते योषितामपि। यदान्यकरणादेतदनु स्यात् करणं तदा । एतत् करक्रियां त्यक्त्वा पाह्या तत् करणानुगा॥.. ॥ इति तलपुष्पपुटम् ॥ १॥ .. . ग्रीवानतांसकूटं च भवेद्यत्र निहश्चितम् ।.. ऊर्ध्वमण्डलिनौ हस्तौ विधाय हृदयेऽञ्जलिः। यत्र तत्करणं लीनं वल्लभाभ्यर्थने स्मृतम् ॥ ॥ इति लीनम् ॥ २॥ हृदयाभिमुखौ हस्तावाश्लिष्टमणिबन्धको। . . . . समं स्वस्तिकतां नीतौ व्यावृत्तपरिवर्तितौ ॥ :.... २७ उत्तानौ पातयेदूर्वोयत्र तवर्तितं मतम् । . . पताको पातयेत्तौ हि यत्रासूया प्रयुज्यते ॥ .... २८ क्रोधेऽधोवदनौ स्यातां निघृष्टौ तौ तथाविधौ। ... विनियोगवशादन्ये शुकतुण्डादिका इह ॥ ॥ इति वर्तितम् ॥३॥, व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां समं वक्षसि चेत् करौ। कृत्वाक्षिप्तिकया चायाँ परिवर्त्य च संहतौ ॥ ३० 'वक्षो नीत्वा निधीयेते शुकतुण्डावधोमुखौ। एवं कृत्वा ततश्चारी बद्धां कृत्वा स्थितियंदा। । . क्रियते वलितो स स्यान्सुग्धस्त्रीत्रीडिते स्मृतम् ॥ ३१ । ॥ इति वलितोसें ॥४॥ मण्डलं स्थानकं कृत्वा चतुरस्रौ करो ततः। .... विदध्याद्विच्यवां चारीनूर्ध्वमण्डलितौ करी ॥ उद्वेष्टितेन कृत्वा तौ विदध्यात् स्वस्तिकाकृती। मण्डलखस्तिकं तत् स्यात् प्रसिद्धार्थावलोकने ॥ ॥ इति मण्डलस्वस्तिकम् ॥ ५॥... 30 15 20 25 : : - -- _ 1 ABO वक्षौ। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ को०-उलास ३: परीक्षण १४८ वक्षःस्वस्तिकम . वक्षास्थितौ करौ कृत्वा रेचितौ चतुरस्रितौ । आसुग्ने वक्षसि पुनर्यन व्यावर्तितेन तौ ॥ ....... ३४ . आनीय स्वस्तिकीभूतौ स्वस्तिकौ चरणौ तथा ।। ३५ . अंसयुग्ममनाभुग्नं तद्वक्षःस्वस्तिकं सत्तम् । लज्जानुतापयोस्तज्ज्ञैर्विनियोगोऽस्य कीर्तितः॥ ३६ ॥ इति वक्षःस्वस्तिकम् ॥ ६॥ . . उद्वेष्टितेन लिष्कस्य पाणी व्यावर्तिताञ्चितौ। सममुत्प्लुत्य कुरुते कराशिस्वस्तिकं यदा ॥ तदा स्वस्तिकमाख्यातं परान्वेषणभाषणे। .. ____ 10 तथा निषेधरामस्ये कचिद्युद्धपरिक्रमे ॥ : १० ॥ इति स्वस्तिकम् ॥ ७॥ ... वक्षाक्षेत्रे करौ कृत्वा व्यावर्तनमधोर्ध्वगौ। . पार्श्वयोश्च ततः क्षिप्त्वा द्रुतभ्रममधोमुखम् ।। हंसपक्षं करं चान्यं वक्ष आनीय तादृशम् । . . 15: : निष्कामयेत्ततः सूचीपादौ यत्र प्रयोजितौ ।। :::::: आक्षिप्तरेचितं तत् स्यादनेनाभिनयेत् सुधीः । - परिग्रहस्याचरितं तथा त्यागपरम्परा ॥ ॥ इत्याक्षिप्तरेचितम् ॥ ८॥ उद्वेष्टनक्रियां कृत्वा विक्षिप्येते करौ यदा। 20... चारी विधायापकान्ता रच्यमानेऽपवेष्टने ॥ कृत्वान्यचरणं सूची यत्राधिकरसंभवम् । खस्तिकं रचयेत् तत् स्यात् पृष्ठस्वस्तिकसंज्ञकम् । विनियोगे स्वस्तिकोक्ते नियोज्यं नृत्यकोविदैः ॥ : ॥ इति पृष्ठस्वस्तिकम् ॥९॥ करिहस्तो दक्षिणः स्यादितरः खटकामुखः।। पादौ हृत्स्वस्तिको यत्र तदर्धस्वस्तिकं भवेत् ॥ ४४ केचित् करिकरस्थाने पक्षवञ्चितकं जगुः। कटिस्थमर्धचन्द्रं च पक्षप्रद्योतकं न वा ॥ ....................... ॥ इत्यर्धस्वस्तिकम् ॥ १०॥ ... 25 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिक्स्वस्तिकम् ] नृ० २० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ कराङ्गिरचितो यत्र स्वस्तिको त्रुटिताङ्गका अग्रतः पृष्ठतः पार्श्वे तद् दिवखस्तिकमुच्यते ॥ स्वाद्गीत परिवर्त्तेऽस्य विनियोगः प्रकीर्तितः । स्वस्तिकोक्तयन्तरेषु स्यात् खस्ति [क]प्रक्रिया त्वियम् ॥ ॥ इति दिक्वस्तिकम् ॥ ११ ॥ * आविद्धां रचयन चारीं पादमश्चितमाचरेत् । करौक्रमाद्रचितौ स्तो यत्रोन्मत्तं तु तद्भवेत् । सौभाग्यादिसमुद्भूते गर्ने विद्वद्भिरीरितम् ॥ ॥ इत्युन्मत्तम् ॥ १२ ॥ * लताहस्तौ समनखौ चरणौ संयुक्तौ मिथः । देहः खाभाविकः प्राक् प्रवेशे समनखं तु तत् ॥ ॥ इति समनखम् ॥ १३ ॥ चतुरस्रं समास्थाय हस्तौ तु चतुरखितौ । व्यावर्त्य दक्षिणं हस्तं मुहुर्निष्काशयन् भजेत् ॥ आक्षिप्तमथ तं हस्तं शुकतुण्डाकृतिं नयन् । पातयेद्दक्षिणस्योरोरुपर्यत्रापरः करः ॥ वामे दक्षस्थितो यत्र खटकामुखसंज्ञकः । अपविद्धं तदेव स्यात् कोपासूयार्थदर्शने ॥ ॥ इत्यपविद्धम् ॥ १४ ॥ नासादेशं गतो यत्र व्यावर्तपरिवर्तनम् । कृत्वा धत्ते लपद्मत्वं करिहस्तस्तदाश्चितम् । स्वस्यातिकौतुकायोज्यं सम्मुखप्रेक्षणे हि तत् ॥ ॥ इत्यञ्चितम् ॥ १५ ॥ * विधाय चतुरस्रः सन् हंसपक्षौ द्रुतभ्रमौ । शीर्षादूर्ध्वमधो नीत्वा व्यावर्तपरिवर्तितैः ॥ आविद्धव तावेव वक्षसि खस्तिकीकृतौ । कट्यां नीत्वा ततः पक्षप्रद्योतकविधानतः ॥ चारों तद्वरागां कृत्वा बहित्थं स्थानकं ततः । उन 她 ४६ ४७ -४८ 5 द ४९ OI ५१ ५०११ ५३ ५२ ५५ 10 15 20 ES ५४२० Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकुहम्। ५६ ० २० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ अर्यात्तदा प्रविज्ञेयं बुधैः स्वस्तिकरेचितम् । . वृत्ताभिनयने तच प्रहर्षादौ नियोजितम् ॥ ॥ इति स्वस्तिकरेचितम् ॥ १६ ॥ मण्डलं स्थानकं कृत्वा चतुरस्त्रं समाश्रितः। स्कन्धशीर्षे करं नीत्वा दक्षद्वेष्टनाश्चितम् ॥ पतन्तेत्पतनाविष्टकनिष्टायङ्गुलित्रयम् ।.... अलपद्मीकृत्य तथोहितेऽडौ च दक्षिणे ॥ आविद्धवक्रतां नीते चतुरस्त्रीकृते ततः। अनेनैव यथा वामपाण्याची यत्र तद्विदा ॥ क्रियते तत्र विज्ञेयं करणं तु निकुहितम् ।। आत्मसंभावनाख्यानपरे वाक्ये प्रकीर्तितम् ॥ ... ॥ इति निकुटम् ॥ १७ ॥ . ५८ 10 ____ ६० तदेवार्धनिकुह स्यादेकेलाड्रेन निर्मितम् ।। तत्रैवार्था(? थै) लियुज्येताप(म)रूढवचनोक्तिके ॥ ॥ इत्यर्धनिकुट्टम् ॥ १८ ॥ . . ६१ . .." 16 20 विधाय भ्रमरी पार्श्वे मण्डलस्थानमाश्रितः। .. . छिन्नां कटीं विधायैकां बाहुशीर्षे च पल्लवम् ॥ ..... करं कृत्वाङ्गान्तरेण यत्रैवं क्रियते पुनः। एवं त्रिचतुरावृत्त्या कटीछिन्नं तु विस्मयें ॥ ॥ इति कटीछिन्नम् ॥ १९॥ वैष्णवस्थानके स्थित्वा चारीमाक्षिप्तिका चरन् । अपक्रान्तां ततः कृत्वा स्वस्तिकं च करद्वये ॥ दक्षिणो नाभिदेशस्थः खटकालुखसंज्ञकः। अर्धचन्द्रस्तथा कव्यां कृतं पाव च सन्नतम् ॥ अन्यदुद्वाहितं यत्रावृत्तयोगान्तरैस्तथा । ....... तत् कटीसममादिष्टं जर्जरत्याभिमन्त्रणे ॥ ॥ इति कटीसमम् ॥ २० ॥ व्यावय॑ते करो यस्तु तत्पक्षेनि बहिः क्षिपेत् । . अन्यस्तु चतुरस्त्रः स्यात् पूर्वोऽथ परिवर्त्यते ॥ .:... . ६५ 25 25 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजङ्गत्रासितम्] नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ ...हस्त आक्षिप्यते चाटिरेवमेवाङ्गकं पुनः। । र अपरं क्रियते यत्र विक्षिप्ताक्षिप्तिकं तु तत् ॥ विनियोज्यं गतौ चैतदागतौ च विचक्षणः। : प्राधान्याचरणस्येदं न तथा मन्वते परे ॥ १ यतो वाक्यार्थधीहस्ताभिनयस्यानुसारिणी।" प्राधान्यतो हस्तकानां नृत्यमानपरं त्विदम् ॥ अन्यदङ्गमतस्तालानुसंधाने चिकीर्षतः। अन्तरालानुसंधाने गतीनां च परिक्रमे । योज्यं करणमेताहगिति तद्वेदिनां मतम् ॥ ॥ इति विक्षिप्ताक्षिप्तिकम् ॥२१॥ भुजगन्नासितां चारी विधायाक्षिप्य कुश्चितम् । अजिं विधायोरुकटीजानु व्यस्त्रं विवर्तयेत् ॥ एकदोलाकरं कृत्वा तथान्यं रवटकामुखम् । व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां भुजङ्गवासितं तु तत् ॥ ॥ इति भुजङ्गनासितम् ॥ २२ ॥ नितम्बश्चतुरस्रो वा करोऽलाता च चारिका । दक्षिणाओं तथा वामे तूर्वजानुस्तथैव चेत् । अङ्गान्तरं तदालातं ललिते वृत्त ईरितम् ॥ .... ॥ इत्यलातम् ॥ २३॥ . वृश्चिकं चरणं कृत्वा तत्पक्षस्थं कर पुनः। अरालं शीर्ष आधाय वेगानासाप्रदेशतः ॥ . कृतो वक्षस्यरालोऽन्यस्तद्विख्यातं निकुञ्चितम् । योज्यमुत्पतनोन्मुख्य वितर्कादौ च सूरिभिः । एके पताकसूच्यास्यावपि नालाग्रगौ जगुः ॥ . ... ॥ इति निकुञ्चितम् ॥ २४॥ 25 .. 1 After अलातम् ॥ २३ ॥ ABo give the following description of विक्षिप्त which has its proper place after अतिक्रान्तम् ॥ ६५ ॥ The meaning of the verses is the same but readings differ: que trai दण्डपादां क्रमाच्चार्यों विधायः चेत् । उद्वेष्टितं तदा चापवेष्टितं करयोः क्रमात् ॥ एकमार्गयोः कृत्वा रेचयेदयपृष्टयोः । पार्श्वयोर्विक्षेपे तो हि विक्षिप्तं तु तदा भवेत् । अभिनेयस्तथैतेन वीरोद्धतपरिक्रमः॥ .. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पूर्णित १५२ १० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ पार्थक्षेत्राभाम्यमाणे अवं व्यावर्तनेन तु। । परिवर्तनतोऽधश्च करे चरणयोः पुनः ॥ . . . . जङ्घास्वस्तिकतः पश्चादपक्रान्तां विहाय च । .. तद्दिक्थे चरणे वामः करो दोलानिधो यदा। 5. करणं घूर्णितं प्रोक्तं तदा मृत्यविशारदैः ॥ ॥ इति पूर्णितम् ॥ २५ ॥ 10 _ मण्डलं स्थानकं कृत्वा हृदिस्थं खटकामुखम् । .. सूचीमुखं चापसार्य यदा तस्यान्तिके नयेत् ॥ उद्घटितोऽधिपाच च सततं त्वपसारणे । तदोर्ध्वरेचितं प्रोक्तमसमञ्जलचेष्टने ॥ ॥ इत्यर्धरेचितम् ॥ २६॥ . चरणं कुञ्चितं कृत्वोजानुं चारिकां यदा। कृत्वा तदिग्भवं हस्तमलपझं विधाय वा ।। अरालं चोवदनं पक्षे वञ्चितकं तथा । कृत्वा जानु स्तनक्षेत्रे नीत्वा हस्तस्तथापरः। .. खटकाख्यस्तदेवोर्ध्वजानुसंज्ञं प्रजायते ॥ . .. - ॥ इत्यूर्वजानु ॥ २७ ॥ .. रेचितो यत्र वामः स्यात् करः कव्यामथेतरः। पादावुपेतापमृतौ तदा करणमीरितम् । अर्धमत्तल्लिसंज्ञं च नियुक्तं तरुणे मदे॥ ॥ इत्यर्धमत्तल्लि ॥ २८ ॥ . 2012 रेचितो दक्षिणो हस्तः पादः सव्यो निकुहितः। - दोला चैव भवेद्वामस्तद्रेचकनिकुहितम् ॥ . . ॥ इति रेचकनिकुट्टितम् ॥ २९ ॥ गुल्फो च स्वस्तिकीकृत्य पादौ यत्रापसर्पयेत् । ... करयोयुगपद्यत्रोद्वेष्टनं चापवेष्टनम् ।...... एवं मुहुमुहुयंत्र तन्मत्तल्लि मदे स्मृतम् ॥...... ॥ इति मत्तल्लि ॥ ३० ॥.. . Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ ८६ ललितम्] नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ ... नितम्बकेशहस्तादिवर्तना दक्षिणे परे। - बद्धोऽन्यः करिहस्तः स्यात् पादश्वोद्धहितस्तथा । अङ्गान्तरं चेल्ललितं नृये स्यातां विलासिनि ॥ ॥ इति ललितम् ॥ ३१॥ * सूचीमुखकरे देहक्षेत्राहरेऽपसर्पति। ... सूचीपादेऽप्यपसृते चारी चेद्धमरी भवेत् । क्रमादङ्गान्तरेऽप्येवं वलिते वलितं मतम् ॥ ॥ इति वलितम् ॥ ३२॥ . ऊर्ध्वजानुयंदा चारी करौ चैव लताभिधौ। . ... इच्छयैकं तयोन्यस्येदुपयूर्ध्वस्य जानुनः। ..... - अङ्गान्तरे पुनश्चैवं दण्डपक्षे प्रकीर्तितम् ॥ ॥ इति दण्डपक्षम् ॥ ३३॥ .. . चारी च भ्रमरीं कृत्वा ततो नूपुरपाटिकाम् । एकेनैव तु पादेन रेचयेत्तद्गतं करम् । " द्वितीयं चेल्लताहस्तं तदा नूपुरमादिशेत् ॥ .. ... .... ॥ इति नूपुरम् ॥ ३४॥ खटकास्यौ नाभिदेशे हस्तौ स्यातां पराङ्मुखौ।..... . सूचीपादोऽन्येन युक्त्वा चा-पक्रान्तया युतः। तथैव स्यात् परः पादस्तदा पादापविद्धकम् ॥ ९० ॥ इति पादा[प] विद्धम् ॥ ३५ ॥ .. .., भुजङ्गत्रासितां चारी कृत्वा हस्तौ च रेचयेत् । .. वामपार्श्वे तु तत् ख्यातं भुजङ्गत्रस्तरेचितम् ॥ ॥ इति भुजङ्गत्रस्तरेचितम् ॥ ३६॥ .. भुजङ्गत्रासिता चारी दक्षेऽङ्घौ दक्षिणः करः।... ..... ... रेचितो स्याल्लताहस्तो भुजङ्गाञ्चितकं भवेत् ॥ ......: ९२ 25 . .... ॥ इति भुजङ्गाञ्चितम् ॥ ३७ ॥.. .... . . __.. - 1 ABO रेचिरम् । 2 ABO स्योलता। ... २० नृ० रत्न . . Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ___10 नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ [छिन्नम् वैशाखं स्थानकं छिन्ना कटी यत्र क्रमात् करौ।. . अलपद्मौ कटीपार्वे तच्छिन्नं करणं भवेत् ॥ .. : ९३ . . ॥ इति छिन्नम् ॥ ३८ ॥ .. समयाक्षिप्तिका चारी करचोद्वेष्टितो भवेत् । वलितं च त्रिकं कृत्वा पादयोः स्वस्तिकं तथा ॥ ..... कुर्यात्तद्वद् द्वितीयान्तं (?) करौ साकं तथोल्वणी । करणं भ्रमरं नाम तद्वद्वत(? तचोद्धत) परिक्रमे ।। . ...' ॥ इति भ्रमरम् ॥ ३९ ॥ दण्डपक्षौ करो कुर्याद्दण्डपादां विधाय च। चारी प्रमोदनृत्ये स्यात् करणं दण्डरेचितम् । केचित् प्रयोगमप्याहुरत्योद्धतपरिक्रमे ॥ ९६ ॥ इति दण्डरेचितम् ॥ ४०॥ .... पाणी वक्षास्थितौ तत्र वामश्चेदलपल्लवः। चतुरो दक्षिणोशिस्तूद्धहितश्चतुरं भवेत् । अनेनाभिनयेत् सूची विस्मये कञ्चुकिस्थिताम् ॥....... ॥ इति चतुरम् ॥४१॥ विधाय वामे सूची च द्रुतापसरणान्विताम् । तत्पार्श्वे दक्षिणं न्यस्य कटिरेचितमाचरेत् ॥ . अथवा भ्रमरी कुर्वन् व्यावृत्तपरिवर्तितौ। . . करौ कृत्वा चातुरस्यं नर्तको विदधाति चेत् ॥ कटिभ्रान्तं तदा ज्ञेयं यतीनां परिपूरणे । ....... ... तालान्तरालगानां तु तथा गतिपरिक्रमे । नियोगः प्रोच्यते सद्भिः कटिभ्रान्तविधानगः ॥...........१०० ॥इति कटिंभ्रान्तम् ॥ ४२॥ उद्वेष्टितविधानेनाधो.यात्येकः परस्परः। .. अर्ध्वं यायाद्विप्रकीर्णो ताहगावृत्तिपेशलौ ॥ उत्तानरेचितश्चैको वक्षाक्षेत्रगतस्ततः। परोऽधोमुखगो यत्र रेचितः स्थानकं गतः (१ ततः)। आलीढं व्यंसितं योज्यं महाकपिपरिक्रमे ॥ .. ... ॥ इति व्यंसितम् ॥ ४३ ॥ ........ 15 20 ॐ 30. . . . . . Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृ० र० कौ० - उल्लास ३, परीक्षण १ अतिक्रान्तागतं पादं पात्यमानं तु कुञ्श्चयेत् । तदैव हस्तं व्यावर्त्य ततो निष्क्रामयेदथ ॥ आक्षिप्य परिवर्त्तेन कुर्यात्तं खटकामुखम् । वक्षः क्षेत्रे त्वेवमेव कुर्यादङ्गं द्वितीयकम् । इति क्रान्तमिदं ज्ञेयमुद्धतस्य परिक्रमे ॥ ॥ इति क्रान्तम् ॥ ४४ ॥ क्रान्तम् ] वैशाखं स्थानकं हस्तौ पादौ ग्रीवा (? वां) कटीमपि । रेचयेद्यत्र तद् ज्ञेयं तज्ज्ञैवैशाखरेचितम् ॥ ॥ इति वैशाखरेचितम् ॥ ४५ ॥ * पाणी च स्वस्तिकीकृत्य तयोरेकस्तदूर्ध्वतः । मुखपार्श्वनिकुट्टः स्यादन्योऽधोवदनो भवेत् ॥ निकुतिस्तद्वदेव पादो यत्र भवेदिदम् । तत् प्रकाशनसञ्चाराभ्यासे पार्श्वनिकुट्टितम् ॥ ॥ इति पार्श्वनिकुट्टितम् ॥ ४६ ॥ यत्राडितां विधायायो दोलायां चक्रवद्धमेत् । मात्रमन्तर्गत कृत्वा तत् प्रोक्तं चक्रमण्डलम् । सुरपूजाविधौ कार्यं तथोद्धतपरिक्रमे ॥ ॥ इति चक्रमण्डलम् ॥ ४७ ॥ * हस्तौ करिकरौ यत्र पृष्ठे वृश्चिकपुच्छवत् । पादः समुन्नतं पृष्ठं दूरे तद्दृचिकं विदुः । व्योमगैरावणादीनां विसाने विनियुज्यते ॥ ॥ इति वृश्चिकम् ॥ ४८ ॥ * वामो लताकरो यत्र चरणो यत्र वृश्चिकः । तल्लतावृश्चिकं नाम गगनोत्पतने स्मृतम् ॥ ॥ इति लतावृश्चिकम् ॥ ४९ ॥ *** चरणं वृश्चिकं कृत्वा बाहुशीलपद्मकौ । क्रमाद्यदा निकुट्येते तदा वृश्चिककु हितम् ॥ ॥ इति वृश्चिककुट्टितम् ॥ ५० ॥ * १५५ १०३ १०४० १०५ १०६ १०७ १०८ १०९ ११०: १११ 10 15 20 25 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १.. [आक्षिप्तम् विधायाक्षिप्तिकां चारी क्षिप्यते खटकामुखः । .. ... चतुरो वा तदाक्षिप्तं विदूषकपरिकले ॥ .. ... ॥ इत्याक्षिप्तम् ॥५१॥ .. वामस्याङ्ग्रेः कनिष्ठायाः समीपे स्यात् प्रसारितः। 5. तदैव स्तब्धवाहुः सन् वामः स्यादलपल्लवः ॥ १ वामेतरः करः किञ्चित् प्रसृतायोऽगलं तथा । परिक्रमेऽङ्गादादीनां विनियोगोऽस्य कीर्तितः ॥ ..... ॥ इत्यर्गलम् ॥ ५२ ॥ चरणो वृश्चिको यत्र स्वस्तिको रेचितौ करौ । __10 विच्युतौ च तदाकाशयाने वृश्चिकरेचितम् ॥ ॥ इति वृश्चिकरेचितम् ॥ ५३ ॥ बद्धामथ स्थितावर्ती चारों कृत्वा करौ यदि। . . उरोमण्डलिनौ कुर्यात्तदुरोमण्डलं मतम् ॥ ११६ ॥ इत्युरोमण्डलम् ॥ ५४॥ चारी चाषगतिर्यत्र दोलाख्यौ च यदा करौ।... उद्वेष्टितौ ततश्चापवेष्टितौ च क्रमाद्यदा। ..: तदावतं भवेदेतत् साध्वसादपसर्पणे ॥.... ॥ इत्यावर्तम् ॥ ५५॥ 15 ऊर्ध्वाङ्गुलितलः पाद ऊर्ध्वपार्थे प्रसारितः। तदग्रपृष्ठतः कार्यमेवमझान्तरेऽपि चेत् । ।...। सूत्रधारगतावेतदुक्तं तलविलासितम. .. १ ॥ इति तलविलासितम् ॥५६॥ वृश्चिकाङ्ग्रेर्यदाङ्गुष्ठो ललाटे तिलकं लिखेत् । तदा ललाटतिलकं विद्याधरगतौ स्मृतम् ॥ ११९ ॥ इति ललाटतिलकम् ॥ ५७ ॥ अर्ध्वजानुं विधायाथ दोलापादां यदाचरेत् । दोलापादौ करौ यत्र दोलापादं तदेरितम् ॥ १२० .॥ इति दोलापाम् ॥.५८ ॥ ........ ___1 BG यदेरितम् । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: १२४ कुञ्चितम् नृ०र० को-उल्लास ३, परीक्षण १ १५७ वामपार्श्वेऽलपद्मः स्यादुत्तानो दक्षिणः करः। यदा तत् कुञ्चितं पादे सव्येऽग्रतलसंचरे। आनन्दनिर्भरसुरानन्दाभिनयने मतम् ॥ ॥ इति कुञ्चितम् ॥ ५९॥ : .. पादमाक्षिप्तचारीकमाक्षिप्याक्षिप्य हस्तकौ । व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां ततो भ्रमरिकाविधौ । रेचितौ चेत् करौ स्यातां विवृत्तमुद्धते गले ॥ १२२ ॥ इति विवृत्तम् ॥ ६०॥..... .. पाणिवस्तिकयुक्त्याऽदः सूचीपादेन जायते। निवर्तते विवृत्याथ प्रत्यावृत्याथ पाश्वतः ॥..... - १२३ 10 त्रिकं स्याद्विनतं चारी बद्धा पाणी द्रुतभ्रमौ। , : यत्र तद्विनिवृत्तं स्यात्तदुद्धतपरिक्रमे ॥ ॥ इति विनिवृत्तम् ॥ ६१ ॥ पार्थाक्रान्ताचार्या वै कुर्यात् पादानुगौ करौ। पार्श्वक्रान्तं तदा यद्वाभिनेयवशगी करी। 15 परिक्रमेऽतिरौद्रस्य भीमलेनादिकस्य तत् ॥ ......... १२५ ।। इति पाश्चैकान्तम् ॥ ६२॥ .... एकस्याङ्ग्रे पार्णिभागे समुन्नततरः परम् । कुञ्चितश्चेद् द्वितीयः स्यात् खटकाख्यस्य मध्यमा ॥ . १२६ वक्राङ्गुली तिलकयेल्ललाटं तन्निम्भितम् । अथवा हस्तकोऽन्त्र स्यावृश्चिकोऽत्र महेश्वरः। अभिनेय इति प्राहुत्यशास्त्रविशारदाः ॥ ___॥ इति निशुम्भितम् ॥ ६३ ॥ चतुर्दिकं शिरःक्षेत्रे पृष्ठतो भ्रामितं द्रुतम् । ..... : भ्रामयेचरणं चेत् स्यात् विशुद्धान्तं तदाद्भुतम् ।.. 25 एतदप्यौद्धते प्रोक्तं नृत्यविद्भिः परिक्रमे ॥ ॥ इति विद्युद्धान्तम् ॥ ६४॥ अतिक्रान्ताख्यचारीकमझिमग्रे प्रसारयेत् । चेत् प्रयोगानुगौ हस्तावतिक्षान्तं तदोच्यते ॥ १२९ : . :..॥ इत्यतिकान्तम् ॥ ६५॥ ............ 30 20 - - : 1 ABO इत्यभिक्रान्तम् । .... Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ : विक्षिप्तम् विद्युद्धान्तां दण्डपादां चारी कृत्वा.क्रमादिह । उद्वेष्टितौ तथा चापवेष्टितौ रेचयेत् करौ॥. . १३० एकमार्गगतावग्रे पृष्ठतः पादयोः क्षिपेत् । :::: विक्षिप्तमभिनेयः स्यात्तेनोद्धतंपरिक्रमः॥ ॥इति विक्षिप्तम् ॥६६॥ . ..... । आक्षिप्य हस्तचरणं त्रिकं यत्र विवर्तयेत्। करं च रेचयेदन्यं तद्वदन्ति विवर्तितम् ॥ ॥ इति विवर्तितम् ॥ ६७ ॥ १३२ ___10 दोलापादाख्यचार्या चेत् कणे स्यात् करिहस्तकः।. क्रियापरः करो यत्र गजक्रीडनकं तदा ॥...... १३३ . ॥ इति गजक्रीडनकम् ॥ ६८॥ .. :: १३४ ___ 15 वक्षःस्थः कटकः पादः सूचीपाच ततं यदा। गण्डक्षेत्रे यदा वामो हस्तः स्यादलपल्लवः ॥ सूचीपादोऽथ वा सूचीमुखो वा नृत्यहस्तकः । गण्डसूची तदा प्रोक्त[1] कपोलालङ्कृतौ भवेत् ॥ ॥ इति गण्डसूची ॥ ६९ ॥.... वृश्चिको विर्यदा हस्तौ लतारेचितकावुरः। समुन्नतं तदान्वर्थ करणं गरुडप्लुतम् ॥ ॥ इति गरुडप्लुतम् ॥ ७० ॥ चार्यातिक्रान्तया यद्वा दण्डपादाख्यया द्रुतम् । उत्क्षिप्य पात्यमानेऽौ लशब्दं तालिकां करौ। कुरुतो यत्र तत् प्रोक्तं तललंस्फोटितं वुधैः ॥ ॥ इति तलसंस्फोटितम् ॥ ७१ ॥ समस्या रूपृष्ठे निहितः चरणः परः। वक्षःस्थलो मुष्टिहस्तः स्यादर्धचन्द्रः कटीतटे। करणं पार्श्वजानुः स्यात् प्रोक्तं युद्धनियुद्धयोः॥ ... ॥ इति पार्श्वजानुः ॥ ७२ ॥ 20 १३७ 25 ... १३८ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ - गृध्रावलीनकम्] नृ०र० को०-उल्लास ३, परीक्षण १ . - भूमिश्लिष्टलताहस्ताङ्गुष्टावधिस्तु पृष्ठतः। .. प्रसृतश्चेन्महापक्षिवुद्धौ (? युद्धे) गृध्रावलीनकम् ॥ ॥ इति गृध्रावलीनकम् ॥ ७३ ॥ कव्यां यदार्धचन्द्रः स्यात् पक्षवञ्चितकोऽथवा। वक्षःस्थः खटकाहस्त परपाणिस्थितोऽपरः। सूचीपादस्तदा सूचीविद्धं सूच्यादिषु स्मृतम् ॥ ॥ इति सूचीविद्धम् ॥ ७४ ॥ 16 कुश्चितं पादमुत्क्षिप्य स्थापयेभूमिमस्पृशन् । तद्दिकः खटको हस्तो वक्षसि स्यात्तथा परः॥.. शिरःक्षेत्रेऽलपद्मश्च तथैवाङ्गान्तरं क्रमात् । .. 10 करणं सूचिसंज्ञं तद्गदितं विस्मये विदा ॥ ॥ इति सूचि ॥ ७५॥ तदैवांकांग(? वैकाङ्ग)रचितमर्धसूचीति सूचितम् ॥ .. १४३ .. ॥ इत्यर्धसूची:॥ ७६ ॥ करौ खटकदोलाख्यौ चारी च हरिणप्लुता। हरिणप्लुतमेतत् स्यारिणस्य लुते गते ॥ .... १४४ ॥ इति हरिणप्लुतम् ॥ ७७ ॥ .... बद्धा चारी तथा हस्तादूर्ध्वमण्डलसंज्ञितौ । अधिः सूची विवृत्तं च त्रिकं भ्रमरिकाश्रितम् । करणं परिवृत्तं तत् कीर्तितं नृत्यपण्डितैः ॥ १४५ 20 ॥ इति परिवृत्तम् ॥ ७८ ॥ .. दण्डपादां द्रुतं चारी कृत्वा नूपुरपादिकाम् । दण्डवद्यत्र हस्तः स्याद्दण्डपादं तदुच्यते॥ १५ ॥ इति दण्डपादम् ॥ ७९॥ . 25 'रेचयित्वा करावूर्वोवृश्चिकाटि निकुञ्य च ।.... भ्रमरी क्रियते चेत्स्यात्मयूरललितं तदा ॥ ..... ॥ इति मयूरललितम् ॥ ८०॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० नृ० २०. को०-उल्लास ३, परीक्षण १ [प्रेहोलितम् ... दोलापादां विधायान्येनाधिणा चेत् करोत्ययम्। उत्प्लुत्य भ्रमरी तूर्ण भवेत् प्रेडोलितं तदा ॥ १४८ ॥ इति प्रेडोलितम् ॥ ८१.॥ . मृगप्लुतां विधायाधिः स्वस्तिकोऽग्रे विरच्यते। ..... छ हस्तौ स्तो' दोलौ संनतं तदधमस्य गतौ मतम् ॥ १४९ . ॥ इति लन्नतम् ॥ ८२ ॥ .. . ..... एकतश्चरणाबडीव(? श्राव)श्चितेऽपसरत्यथ । शिरः त्यान्नामितं तस्य पार्श्वे स्यादुचितं (? तः) करः॥ १५०. एवमङ्गान्तरं यन्त्र तल्लर्पितसुदाहृतम्। __ 10 नियोज्यमेतन्मत्तस्योत्मत्तस्य परिसर्पणे ॥ १५१ । ॥ इति सर्पितम् ॥ ८३॥ वक्षस्युद्वेष्टितो वामः करः स्यात् खटकामुखः । त्रिपातका करः कर्णे पादश्चेदश्चितः कृतः। .. ... ___ अग्रे प्रसार्यते यत्र करिहस्तमिदं विदुः॥ ॥ इति करिहस्तम् ॥.८४ ॥ रेचिताद्धस्ततो पादस्तद्दिको हस्तघर्षणात्। गच्छेत् पादान्तरान्मन्दसन्दसन्यो लताकरः। तदा प्रसर्पितं ज्ञेयं व्योमथानगतौ मतम् ॥ ॥ इति प्रसर्पितम् ॥ ८५॥ . . 20... कृत्वा बद्धामपक्रान्तां चारी च करयोः पुनः। तत्तत् प्रयोगानुगयोरपक्रान्तं प्रकीर्तितम् ॥ ॥ इत्यपक्रान्तम् ॥ ८६॥ १४. पताको चेदधोवस्त्राङ्गुलीको शिरसः स्थलम् ।. . - परिवृत्त्या समानीय निष्काम्यो सयोर्द्वयोः ॥ १५५ 25 अन्योऽन्याभिमुखौ कृत्वा खदेहालिमुखाङ्गुली। नितम्बाख्यौ विधीयेते नितम्बं तु तदा मतम् ।। १५ १५४ 1 ABO स्तौ। 2 ABC °ख्यौर्विधीयते। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्खलितम्] नृ०र० को-उल्लास ३, परीक्षण १ १ ६१ दोलापादस्य गमनागमने हंसपक्षकः। : अन्वेत्यङ्गान्तरं यत्र स्खलितं तत् प्रकीर्तितम् ॥ १५७ ॥ इति स्खलितम् ॥ ८८॥ अलातां चारिकां कृत्वा न्यस्येदनि द्रुतं पुरः। :... चपेटवत् कृतो हस्तस्तथान्याङ्गविधानतः। ...... सिंहविक्रीडितं नाम भवेद्रौद्रगताविदम् ॥ ...... ... १५८ ॥ इति सिंहविक्रीडितम् ॥ ८९॥ पद्मकोशौ[वोर्णनाभौ करावद्धिस्तु वृश्चिकः।.. : प्राञ्चौ भऋत्वापरे पादे 'वृश्चिके तादृशौ पुनः। । कृतौ सिंहाकर्षितकं सिंहाभिनयने मतम् ॥ . १५९ 10 ॥ इति सिंहाकर्षितम् ॥ ९० ॥ . . . . . . . जनितं चरणं कृत्वा ह्यरालं चालपल्लवम् । ___ ललाटे हृत्पंदेशे च हस्तावभिमुखाङ्गुली ॥ १६० क्रमादुद्वेष्टितेन स्तो व्यावृत्त्या पार्श्वगौ ततः। परिवृत्त्यापवेष्टेन वक्षोदेशे च तादृशौ ।।। १६१ मिथोऽभिमुखतां प्राप्तौ निधीयेते यदा तदा।......... अवहित्थं वुधैः प्रोक्तं विनियोगोऽस्य कथ्यते। गोपनप्रायवाक्याथै केचिदन्ये प्रचक्षते ॥ ... १६२ ॥ इत्यवहित्थम् ॥ ९१ ॥ मण्डलस्थानके स्थित्वा निर्भुग्ने हृदये यदा। विन्यस्तो खटकायक्रो निवेशं गजवाहने ॥.. ॥ इति निवेशम् ॥ ९२॥ एलकाक्रीडितौं पादौ हस्तौ खटकदोलकौ। .... वलितं सन्नतं गानमेलकाक्रीडितं तदा। अभिनेतव्यमेतेनाधमप्राणिप्रसर्पितम् ॥ ............. १६४25 ॥ इत्येलकाक्रीडितम् ॥ ९३ ॥ : १६३ . .... .. ...... पशम् ॥ ९२॥ 1 of वृश्चिकोऽधिः पनकोशा वोर्णनाभौ यदा करौ । सं. र. अ. श्लो. ७१८, ABO निशेवं. २१ नृ० रन. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ 5 10 15 20 25 नृ० २० को० - उल्लास ३, परीक्षण १ प्रसार्य पुनरानीतौ हस्तौ पादौ यदा पुनः । गात्रमुद्वृत्तचारीकमुतं तत् प्रकीर्तितम् ॥ ॥ इत्युद्वृत्तम् ॥ ९४ ॥ * चारी च जनितां कृत्वा करं कुर्याल्लताभिधम् । अन्यं वक्षः स्थितं मुष्टिकरणं जनितं तदा । क्रियारम्भोऽभिनेतव्य एतेन महतां नृणाम् ॥ ॥ इति जनितम् ॥ ९५ ॥ * करौ संघतितली रचयित्वा पताकको । दोलापादां भजेचारी वैष्णवस्थानके स्थितः ॥ दक्षिणं कटिदेशस्थं वामं रेचितमाचरेत् । तलसंघट्टितं तत् ल्यादनुकम्पार्थगोचरम् ॥ ॥ इति तलसंघट्टितम् ॥ ९६ ॥ * आकाशाभिमुखो यत्र कुञ्चितश्चरणो व्रजेत् । रेचितौ च करौ विष्णुकान्तं स्यात् क्रमणे हरेः ॥ ॥ इति विष्णुक्रान्तम् ॥ ९७ ॥ * विधाय चारीमाक्षिप्तां वामतस्तदनन्तरम् । हस्तं विधाय व्यावृत्तं परिवर्तन कारकम् ॥ अरालतां नयेदेनं नते दक्षिणपार्श्वके । एतच्चापसृतं ज्ञेयं विनयेनो ( ? ना ) पसर्पणे ॥ ॥ इत्यपसृतम् ॥ ९८ ॥ * वैष्णवे स्थानके पाणिरेको वक्षसि रेचितः । अन्योऽलपल्लवः शीर्ष लोलितं पार्श्वयोर्द्वयोः । विश्राम्यति यदा प्राहुललितं करणं तदा ॥ ॥ इति लोलितम् ॥ ९९ ॥ * क्रमेण स्वस्तिको पादौ तथैवापसृतौ शिरः । परिवाहितमानीतौ दोलो हस्तौ यदा तदा । मदस्खलितकं प्राहुः प्रयोज्यं मध्यमे प ( ? म ) दे || ॥ इति मदस्खलितम् ॥ १०० ॥ ** [ उद्वृत्तम् १६५ १६६ १६७ १६८ १६९ १७० १७१ १७२ १७३ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृषभक्रीडितम् ] नृ० र० कौ०-उल्लास ३, परीक्षण १ हस्तरेचितकं कुर्वन् कुर्याच्चारीमलातिकाम् । कुञ्चितौ च करौ कृत्वा व्यावर्तनविधानतः ॥ कृत्वालपद्मौ न्यस्येते करौ चेद्वाहुशीर्षयोः । वृषभक्रीडितं प्राहुस्तदा करणमुत्तमम् ॥ ॥ इति वृषभक्रीडितम् ॥ १०१ ॥ * चार्यामाविद्धसंज्ञायां व्यावृत्तपरिवर्तितम्' | अलपद्मं करं न्यस्येदूरुपृष्ठे यदा तदा । ससंभ्रमगतौ योज्यं सभ्रान्तं करणं भवेत् ॥ ॥ इति संभ्रान्तम् ' ॥ १०२ ॥ * * चारी संघहितां कृत्वा पार्श्वे तत्संनतिं नयेत् । करौ समुद्यतौ कर्तुं तालिकां च यदा तदा । उद्धहितं प्रयोक्तव्यं नृत्ये तज्ज्ञैः प्रमोदकैः ॥ ॥ इत्युद्धट्टितम् ॥ १०३ ॥ सूचीमुखो नृत्यहस्तो दक्षिणश्चेदपेत्य च । उपव्रजेत् करं वामं सोऽविमो निकुट्टकः ॥ एवमङ्गान्तरेऽपि स्यात् सूच्यविदक्षिणः करः । दक्षिणोऽप्यलपद्मः स्यात् वामहस्तोऽपि पूर्ववत् । एवं पुनः पुनर्यत्र विष्कुम्भं तत् प्रकीर्तितम् ॥ ॥ इति विष्कुम्भम् ॥ १०४ ॥ * 1 चारी तु शकटास्या स्यादेको हस्तः प्रसारितः । अङ्घ्रिणा सह हस्तोsन्यो वक्षःस्थः खटकामुखः । यत्रैतत् शकटास्वं स्यात् प्रयोज्यं बालखेलने # ॥ ॥ इति शकटास्यम् ॥ १०५ ॥ * अरालखटको हस्तौ यत्र व्यावर्तनान्वितौ । सहोरुद्वृत्तया चार्या निदध्यादूरुपृष्ठयोः । ऊरूत्तं प्रेमको प्रार्थनेयस कीर्तितम् ॥ ॥ इति ऊरुद्वृत्तम् ॥ १०६ ॥ .. દર १७४ १७५ १७६ १७७ १७९ १७८ 15 १८० १८१ 5 1 ABC परिवृत्तितम् | 2 ABC repeat ससंभ्रमगतौ योज्यं from the Samb “hrānta karana. 3 ABO खेदने । 10 20 25 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण २ : नागापसर्पितम् हस्तौ रेचयेच्छीर्ष परिवाहितमाचरेत् । .: स्वस्तिकापसृतौ कुर्यात् पादौ नागापसर्पिते। ..... प्रयोज्यमेतदिच्छन्ति प्रायेण तरुणे मदे ।।:::.....: १८२ ॥ इति नागापसर्पितम् ॥ १०७ ॥ ....... अङ्ग्रावुत्क्षिप्यमाणेऽपि तथा निक्षिप्यमाणके। त्रिपताको भजेतां चेदनु प्रोन्नतिसंनताम् ॥ १ तद्वदेव शिरश्चेत् स्याद्गङ्गावतरणं तदा । . .: गङ्गावतारे निर्दिष्टं मुनिना सर्वदर्शिना॥.... ॥ इति गङ्गावतरणम् ॥ १०८॥ ___10 प्रायो वक्षःस्थितः कार्यों वा मस्तु करणे करः। ... दक्षिणस्तु करस्तत्तत्करणस्यानुगः स्मृतः ॥ तलपुष्पपुटस्यादौ प्रयोगाद ज्ञायते किल । पुष्पैः स्याद्देवतापूजामङ्गलार्थतयेति च ॥ गङ्गावतरणस्यान्ते कीर्तनान्मङ्गलान्तता। सर्वकार्येषु विज्ञेयेत्यवदभरतो मुनिः ॥. . १८७ ॥ इत्यष्टोत्तरशतं करणानि ॥ १०९ ॥..... ..... श्रीमत् कुम्भलमेरावर्तुदशिखरे च चित्रकूटे च । दुर्गवरौ वरपदवी यत्करणं राजते जगति ॥... इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते सङ्गीतराजे षोडशसाहस्यां 20 सङ्गीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे करणोल्लासे शुद्धकरणाभिधानं प्रथमं परीक्षणं [समाप्तम् ।]. तृतीयोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम् । - [मङ्गलम् ।]...... यमन्तःकरणेष्वाद्या नित्यामारोप्य तन्वतः। विचिन्तयन्ति तं वन्दे करणातीतसीश्वरम् ॥ ......... अथ देशीपूर्वकाणि वृहद्देशीविदांवरः। करणानि समाचष्टे कुम्भकर्णो धराधिपः॥ . अञ्चितं चैकक(?चोरणाञ्चितं स्याङ्गैरवाञ्चितम् । दण्डप्रणामाञ्चितं च कर्तर्यश्चितमेव च ॥... 1 AG स्तिकोप। 2. AB0 याम। .... 15 १८८ h Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ अश्चितम् नृ०र० को-उल्लास ३, परीक्षण २ : तियंगश्चितकं तद्वत् सभपादाञ्चितं तथा। भ्रान्तपादाश्चितं च करणं स्यात्ततः परम् ।।.. अलगं कूर्मालगं चोळलगं चान्तरालगम् । लोहडी च तथा चान्यैकपादलोहडी तथा ॥ . कर्तरी लोहडी चैव स्यादर्पसरणं तथा। जलादिशयनं नागबन्धं कपालचूर्णनम् ॥ नतपृष्ठं तथा मत्स्यकरणं च प्रकीर्तितम् । करस्पर्शनसंज्ञं च तथैवैणप्लुतं मतम् ॥ तिर्यकरणसंज्ञं च तिर्यक्वस्तिकमेव च । .... स्कन्धभ्रान्तं खण्डसूचि समसूचि ततः परम् ॥ .: । ततो विषमसूचीति बाह्यभ्रमरिका ततः। ..........: ... . अन्तभ्रमरिका चैव छत्रभ्रमरिका तथा ॥ तिरिपभ्रमरी चाथ लगभ्रमरिकेति च । ......: चक्रभ्रमरिका नामोचितश्रमरिका तथा ॥....... शिरोभ्रमरिका चैव तथा दिग्भ्रमरीति च । एवमुत्प्लुतिपूर्वाणि षट्त्रिंशत्संमितानि च । . - करणानि समासेन लक्षिष्यन्ते यथागमम् ॥ स्थित्वा वै समपादेनोत्तानश्चेदुल्लुतेन्नरः । : तदाञ्चितं स्यात् करणम् । ८10 15 ११ ॥ इत्यश्चितम् ॥१॥.. ॥ . . ... . एकपादाञ्चितं तथा ॥ यद्येतदेकपादेन निर्मितम् । ॥ इत्येकक(?च) रणाञ्चितम् ॥ २ ॥ स्वान्वितम् ॥ ............ ....... भैरवाञ्चितमूरुपृष्ठे स्थितका रुप्लुतौ ॥ ॥ इति भैरवाञ्चितम् ॥ ३॥ यदाचितवदुत्प्लुत्य निपतेद्भुवि दण्डवत् । . दण्डप्रणामाश्चितकं वदति नृत्यकोविदः ॥ ॥ इति दण्डप्रणामाश्चितकम् ॥ ४॥ . 1 AB चैव करणं | 2 ABO निपतेद्भुवि । यदाञ्चितवदुप्लुत्य दण्डवन्नृत्यकोदिरः । ... दण्डप्रणामाञ्चितक। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण २ [तिर्यकरणम् तिरश्चैकेन पादेन समुत्प्लुत्य निपत्य चेत्। .. . एकपादेन पृथ्व्यां चेत्तिष्ठेत्तिर्यकतिस्तदा ॥ ॥ इति तिर्यकरणम् ॥ २४ ॥ तिर्थक्वस्तिकमुत्प्लुत्य स्यात्तिर्यकस्वस्तिके कृते ॥ ३६ ॥ इति तिर्यक्स्वस्तिकम् ॥ २५ ॥ पृथव्यां स्थित्वांसयुग्मेन कृत्वा चैवोत्कटासनम् । करणं चाञ्चितं कृत्वा धृत्वाङ्गान्तरसम्बरे ॥ वाहुभ्यां भुवमाक्रस्य भ्रामं भ्रामं च पूर्ववत् । तिष्टेत् प्रतिदिशं यत्र तत् स्कन्धभ्रान्तमुच्यते ॥ . . . . . ॥ इति स्कन्धप्रान्तम् ॥ २६॥ 10 सूचीनां त्रितयं प्रोक्तं तद्विधा परिकीर्तितम् । ..... भौमाकाशविभेदेन समाद्यन्यतमा यदि ।। करणानि दधत्यन्ते सूची.प्राशथितानि तु । सूच्यन्तानि तदा तानि जायन्त इति सूरयः ॥ ॥ इति सूच्य[न्त]म् ॥ २७ ॥ ......... . .. . . ." 20 सव्येतरेण पादेन स्थित्वा सव्याशिकुञ्चनात् । .... ..... सव्यावत भ्रमेद्यत्र सा बाह्यन्नमरी मता ॥ ॥ इति वाह्यभ्रमरी ॥२८॥ अस्या एव विपर्यासादन्तमरिका भवेत् ॥... ॥ इति अन्तर्भमरी ॥ २९ ॥..... स्थित्वैकेनाक्षिणा भूमौ दण्डवचोत्क्षिपेत् परम् । .. सव्यावर्त भवेद्यत्र सा छत्रभ्रमरी मता ॥ . . ॥ इति छत्रभ्रमरी ॥ ३०॥ अशिखस्तिकमाधाय तिर्यग्भ्रमणतो भवेत् ॥ ....... ॥ इति तिरिपभ्रमरी ॥ ३१॥ -- . an " २९॥ . .. ., . . . . i Khandasūci, Višamasūci and Samasūci-all the three seen to be described here. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलगभ्रमरी] नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण २ वैष्णवं स्थानकं कृत्वा तिष्ठेत् सव्याक्षिणा ततः।. देहं भ्रामयतस्तिर्यगलगभ्रमरी भवेत् ॥ ॥ इत्यलगभ्रमरी ॥ ३२॥ खण्डसूच्या भ्रमाचक्रवचक्रभ्रमरी भवेत् ॥ .. .. ॥इति चक्रभम्ररी ॥३३॥ देहस्य तिर्यग् भ्रमणात् समपादादनन्तरम् । उचितभ्रमरी नाम ब्रूते शङ्करकिङ्करः॥ ॥ इति उचितभ्रमरी ॥ ३४॥ सा शिरोभ्रमरी ज्ञेया शिरसैव भुवि स्थिता। पादावूवीकृतौ बिभ्रत् त्रिशो भ्रमणतो द्रुतम् ॥ ॥ इति शिरोभ्रमरी ॥ ३५॥ भ्रामं भ्रामं सकृत् प्राग्वद्यत्र हस्तधृतक्षिति। चतुर्दिक्च क्रमात्तिष्ठेत्तदा दिग्भ्रमरी मता ॥ .. ४९ : ॥ इति दिग्भ्रमरी ॥ ३६॥ अन्येऽपि सन्ति भूयांसो भेदाः करणसंश्रयाः। स्वयं बुद्धिमतोह्यास्ते न प्रोक्ता विस्तराद्भिया ॥ उच्चैर्यदीयकरणानि मनोहराणि तत्तत्तदेशललनालपनेषु चित्रम् । तेन त्रिलोकपरितोषकराणि राज्ञा ___ देशप्रसिद्धकरणानि विनिर्मितानि ॥ ... इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते सङ्गीतराजे षोडशसाहरुयां सङ्गीत-... मीमांसायां नृत्यरत्नकोशे करणोल्लासे देशीकरणनिरूपणं नाम द्वितीयं परीक्षणं समाप्तम् ॥२॥ ६० ड्रिया ॥ ५११० [आनन्दसञ्जीवनाद् उद्धृतं भ्रमरीविषयकं प्रकरणम् ।] अथ आनन्दसंजीवनमध्यात्११चारीहस्तकसङ्गात् करणानि विदुर्बुधाः। प्रभवन्ति भिदास्तेषां भेदास्ते रससंमिताः ।। कचिच्चारीवशाना(? न्ना)म कचिद्धस्तकपूर्वकम् । प्रसादे क्रियमाणे स्यात् कर्तव्यं नाट्यपण्डितैः॥ 1 BO | श्री........ . .. .. .. . . . २२ नृ०रत्न - Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रितम् ॥ ७॥ नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण २ . [कर्तर्यञ्चितम् .. कलयञ्चितमेव च। .... चरणाभ्यां स्वस्तिकाभ्यामञ्चिते परिकीर्तितम् ॥ .. ... १५ ॥ इति कर्तर्यञ्चितम् ॥ ५॥ ..... समपादात् परं तिर्यगुप्लुतौ तिर्यगश्चितम् ॥ ॥ इति तिर्यगञ्चितम् ॥६॥ विधाय पादावूर्वाग्रौ समौ स्कन्धेन भूतलम् । आक्रम्योल्लालयेत्पादौ परिवर्तनमाचरेत् ।। तियंग्यत्र क्रमादेतत् लमपादाञ्चितं विदुः॥ ॥ इति समपादाश्चितम् ॥ ७॥ दक्षिणाष्टिं भ्रामयित्वा तदीयतलपृष्टतः। ... वामाझिजवामध्यं चेदवष्टभ्याञ्चितं ततः॥ कृत्वा धरित्रीं स्कन्धाभ्यामधिष्टाय विवर्तनम् । विधायोल्लालयेत्पादौ भ्रान्तपादाञ्चितं तदा ॥ ॥ इति भ्रान्तपादाञ्चितम् ॥ ८॥ 15.. उत्प्लुत्याधोमुखोऽग्रे च पतित्वा कुकुटासनम् । यत्र बनाति तत्प्रोक्तमलगं करणोत्तमम् ।। ॥ इत्यलगम् ॥९॥ यदि स्यादलगे कूर्मासनं कूर्मालगं तदा ॥ २१ ॥ इति कूर्मालगम् ॥ १० ॥ 26 समालसंस्थाने पतित्वोर्खालगं भवेत् ॥ २२ ॥ इत्यू;लगम् ॥ ११॥ . . कृत्वालगं निपत्योामुत्तानोर स्थलं स्थितः। .. : पृष्ठतः शिरसा श्रोणि स्पृशेचेदन्तरालगम् ॥. पृष्ठतः २ ॥ इत्यन्तरालगम् ॥ १२ ॥ यत्र कृत्वा समौ पादौ विवृत्य त्रिकमुत्प्लुतेत् । तिर्यक् तल्लोहडीसंज्ञम् । ... ... . ॥ इति लोहडी' ॥ १३॥...... .. लोहडीलुण्ठितं भुवा ॥ २४ - 1 ABG put लोहडी after भुवा। But लोहडी लुण्ठितं भुवा seems to be a part of the definition of एकपाद लोहडी. * . Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकपाद लोहडी ] नृ० ८० को०- उल्लास ३, परीक्षण २ एकपादप्रयुक्तेयमेकपादादिलोहडी ॥ ॥ इत्येकपादलोहडी ॥ १४ ॥ * एकपादलुठितं वा । लोहड्येव स्वस्तिकाङ्घ्रिरचिता लोहडी ( ? कर्तरी ) मता ॥ ॥ इति कर्त्तरीलोहडी ॥ १५ ॥ * दर्पसरणं प्रोच्यतेऽधुना । वैष्णवं स्थानमास्थाय पृथ्व्यां चेत् पार्श्वतः पतेत् ॥ ॥ इति दर्पसरणम् ॥ १६॥ * जलशायिवदेतत् स्यादासने जलशायिकम् ॥ ॥ इति जलशयनम् ॥ १७ ॥ * तदेव नागबन्धं स्यान्नागबन्धवदासने || ॥ इति नागवन्धम् ॥ १८ ॥ * समपादस्थितो भूमौ शीणी संस्पृश्य भूतलम् । परावृत्ति वितनुते कपालचूर्णितं हि तत् ॥ ॥ इति कपालचूर्णितम् ॥ १९ ॥ * कपालचूर्णेन जाते वक्षस्युत्तानिते नते । नतपृष्ठं परैरुक्तं वंकोलं करणं त्विदम् ॥ ॥ इति नतपृष्ठम् ॥ २० ॥ कृत्वोत्प्लवनमावर्त्य मध्यं पार्श्वेन मत्स्यवत् । वामेन परिवर्तचेत्त (? तत) न्मत्स्य करणं भवेत् ॥ ॥ इति मत्स्यकरणम् ॥ २१ ॥ * अलगं विधाय करणं हस्तेनाश्रित्य नर्तकीं भूमिम् । परिवर्तत यदेदं स्पर्शनमुक्तं कराद्यं तत् ॥ ॥ इति करस्पर्शनम् ॥ २२ ॥ कृत्वोत्प्लवनं सूचीमन्यतमां से विधाय चेद्भजते । भूर्ध्वस्थानं यदोत्कटासनं तदाहुतं चैणम् ॥ ॥ इत्येतम् ॥ २३ ॥ * १६७ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ३३ 4 ३४. fd ३२२० i 15 25 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० क 10. 15 नृ० र० को०- उल्लास ३, आ० सं० प्रकरणम् यथा गीते सदाभोगः शिखरत्वे निरूपितः । तथा नृत्ये च तासां तु नर्तनं कलशोपमम् ॥ आभोगनर्तने प्रोक्ता अमर्यो मुख्यतो बुधैः । विशेषाद्गमकादीनां सुप्रभास्ताः प्रकीर्तिताः ॥ भरतोक्ता अपि त्यक्त्वा अल्पाल्पाः करणे स्वके । ताभ्यः कियत्यो वक्ष्यन्ते कामसंजीविकास्तु याः ॥ 25 * पताकं हृदये न्यस्य करेऽन्यस्मिन् प्रसारिते । तदेवाएं बहिः क्षिश्वा भ्रमणाद् हृदयङ्गमाः । भ्रमे यत्र स्मृतोऽभ्याससुहृद्भिरित्रः पुरःसरम् ॥ ॥ इति हृदयंगमाः ॥ १ ॥ * बाह्रोः पताकौ संन्यस्य भ्रमणादङ्कमौलिका । शिरः पल्लविका चाथ द्वितीया कथ्यतेऽधुना ॥ ललाटे तु पताकः स्या[द्] भवेदन्यः प्रसारितः । बाह्रोः प्रसारणं कृत्वा करौ स्यातां द्रुतमौ । नर्तनाच शिरोदेशे द्वितीया शीर्षपल्लवा ॥ ॥ इति शीर्षपल्लवाह्रयम् ॥ २ ॥ एका कुञ्चितं कृत्वा द्वितीये पाष्णितः स्थिते । यथोल्लासकरौ तस्यां भ्रमणात् कुञ्चिता मता ॥ ॥ इति कुञ्चिता ॥ ३ ॥ * AR 20 ताले ताले कुञ्चिता स्यात् तथैवास्थिता सती। कुञ्चिताया द्रुतस्पर्धा विज्ञेया भूमिपल्लवा || ॥ इति भूमिपल्लवा ॥ ४ ॥ प्रसार्य बाहुयुगले समे वाङ्घ्रिद्वये स्थिता । तत्र वेगभ्रमणतो विज्ञेया चक्रवर्तिनी ॥ ॥ इति चक्रवर्तिनी ॥ ५॥ * सकृद्रेचितहस्तश्चेत् त्यक्त्वा स्थानं च संभ्रमात् । मण्डला सापि निर्दिष्टा द्विधाऽन्या सा प्रकीर्तिता ॥ [हृदयंगमाः ११. १२ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यमण्डलिका] नृ० र० को०-उल्लास ३, आ. सं. प्रकरणम् १७१ लास्ये तु या भुवस्त्यक्तं वस्तु गृह्णातु पण्डितः। । . मुहुर्मुहुः भ्रमी या ला लास्यमण्डलिका तु सा ॥ .. १३ ॥इति लास्यमण्डलिका.॥ ६॥ . - तिर्यक् वास्फालनेनैव भ्रमणाल्लम्बहस्तयोः।। तिर्यग् मण्डलिका नाम द्वितीयेयं प्रकीर्तिता॥ ॥ इति तिर्यग्मण्डलिका ॥ ७ ॥ सकृत् पाणिगता भ्रान्त्वा चक्रवद्वेगिता सती। तथैवोपविशेद्भूमौ लयात् सिंहासना मता ।। ....... ॥ इति सिंहासना ॥ ८॥ : भ्रमती मण्डले या सा त्वराश्रमणसंगता।। पाणिजभ्रमरीत्युक्ता मुहुः सा परिमण्डली' ॥ ॥ इति परिमण्डली ॥९॥ धूनयती करौ स्वीयौ पादयोः कुञ्चिताग्रयोः। न्युजं तिर्यग् ययोः कुर्याद् सुहुस्तिर्यकृते मते ॥ ॥ इति न्युजकृता ॥ १०॥ . . .. " स्थित्वा चैकाविणा चान्यं दण्डवच प्रसारयेत् ।... यथा भ्रमति सा तस्माद्विज्ञेया तलदर्शिनी ॥ ॥ इति तलदर्शिका ॥ ११ ॥ तिर्यक्पताके चोत्ताने त्वन्येनाच्छादिते सति। : ... . यथा भ्रमयाँ भ्रमरी प्रोक्ता मेलापनी बुधैः ॥. .. ॥ इति मेलापनी ॥ १२॥ ....... बयश्चान्या भवन्त्येताः सव्यजा-अपसव्यजाः। लास्येनैव समुद्भता धन्यास्ता अन्यतोऽधमाः॥ २० : ... एतद्राज्ञां पुरंध्रीणामुद्दिष्टं यन्मयाधुना। ... : नात्र ग्राम्यकृता भावा योज्यास्ते नाट्यकोविदैः॥ २१.. मस्तका भ्रमरी विद्यादथो न्युजादिपातनम् । अङ्ग्रेभूमेश्च यो योगः स च नैसर्गिको मतः। - अन्याङ्गेन समायोगो न कार्यश्च नरैः सदाः॥ १२ .. 1. 50 परीमंडली । 2 ABG repeat भ्रामरी। .. - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३३ . अ नं० २० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३. उच्चैर्यदीयकरणानि मनोहराणि तत्तत्वदेशललनालपमे(?ने)घु चित्रम् । तेन त्रिनेत्रपरितोषकरेण राज्ञा देशप्रसिद्धकरणानि विनिर्मितानि ॥ ॥ इति भ्रमर्यः ॥ १३॥ तृतीयोल्लासे तृतीयं परीक्षणम् । किमङ्गहारस्तव नागराजः किं नागराजस्य दृतिस्तवाङ्गे। इत्थं ह सोक्तो नगराजकन्यया ननर्त देवः सकलाङ्गहारकैः॥ १ [अङ्गहाराः । न व्यग्रैः करणैष्टम दृष्टं वा प्रसाध्यते। ....... 10. : अतस्तद्वयसंपत्त्यै तत्समूहं ब्रुवेऽधुना ॥ ... यच्छिरःप्रमुखागानां प्रदेशमुचितं प्रति । प्रापणं सविलासं तदङ्गहारोऽभिधीयते ॥ अङ्गप्रयोगयोगेन ये हारा हरनिर्मिताः। मध्यस्थपदलोपेन तेऽङ्गहाराः स्मृता बुधैः ॥ ___ 18 'औचित्यान्मेलनेऽङ्गानां प्रयोगः क्रमपेशलः। करणं कीर्त्यते तज्ज्ञैस्तद्व्यं मातृकाः स्मृताः ॥ ........ ५ : त्रिभिः कलापकस्तैश्च चतुर्भिः खण्डको मतः। संघातः पञ्चभिस्तैश्च संज्ञाभेदा इतीरिताः॥ तत्समूहविशेषश्चाङ्गहारस्तत्परः स्मृतः । 20 .. .. तिसृभिः पञ्चभिवा स्यान्नवभिर्वा यथोदितम् ॥ अङ्गहारो मातृकाभिरेकः स्यान्मुनिनोदनात् । ...... .... करणन्यूनताधिक्यं यत्र नो दूषणाय तत् ॥ मुनिनैव खयं सूत्रे विकल्पस्यानुशासनात् ।.. . परिभाषाहाराणां मयैवादौ प्रदर्शिता॥ 25 अथोद्देशपरं लक्ष्म यथाशास्त्रं प्रदश्यते । ... 1 And ऊचिस्यान्नेलने। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरनमानेनाङ्गहाराः] ०२० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३ स्थिरहस्तोऽथ पर्यस्तो भ्रमरश्चापसर्पितः॥ . आक्षिप्तोऽथ परिच्छिन्नस्तथा वैशाखरेचितः। पार्श्वस्वस्तिकसंज्ञश्च सूचीविद्धोऽपराजितः॥ मदाद्विलसिताख्यश्च भत्ताक्रीडस्ततः स्मृतः। आलीढश्वाच्छुरितकः पावच्छेदाभिधस्ततः॥ विद्युद्धान्त इति प्रोक्ता अङ्गहारास्तु षोडश। . मानेन चतुरस्रेण मानदानविपश्चिता ॥ विष्कुम्भापसृतो मत्तस्खलितो म(ग)तिमण्डलः। अपविद्धश्च विष्कुम्भोद्धहिताक्षिप्तरेचिताः॥ रेचितोऽर्धनिकुद्दश्च वृष्णि(?श्चि)कापमृतस्ततः। अलातकः परावृत्तः परिवृत्तकरेचितः॥ उदृत्तश्चैव संभ्रान्तस्ततः स्वस्तिकरेचितः। षोडशैते व्यस्रमाना द्वात्रिंशदुभयेऽप्यमी॥ करणवातसंदर्भविशेषश्चाङ्गहारकः। इत्युक्ते स्यात्तदानन्त्यं ग्रन्थवैचित्र्यहेतुकम् ॥ प्राधान्यं विनियोगस्य समाश्रित्येयतां कृता। गणना गुम्फवैचिच्यात् स्वयमूह्याः परैप(परस्परः॥ : १८ लीनं समनखं कृत्वा व्यंसितं च निकुद्दकम् । ऊरूद्वृत्तं विधायाथ खस्तिकाक्षिप्तके तथा ॥ नितम्बं करिहस्तं च कटीछिन्नमिति क्रमात् । * दशभिः करणैः प्रोक्तः स्थिरहस्तो महीभृता। द्वात्रिंशदङ्गहारेषु ज्ञेयमन्तमवस्थितम् ॥ [चतुरस्रमानेनाङ्गहाराः।] अनुक्तमपि तत्त्वज्ञैः कटीछिन्नं तु लक्ष्भगम् । विधाय लक्ष्म सूत्रस्थं करणद्वन्द्वमादितः॥ चतुर्दिक्षु ततोऽन्यानि करणानि क्रमेण च । नृत्यवैचित्र्यमाधातुमङ्गहारेषु वर्तयेत् ॥ . ॥ इति स्थिरहस्तः ॥१॥ तलपुष्पपुटं तद्वदपविद्धं च वर्तितम् ।... निकुद्दमूरुद्धृत्ताख्यमाक्षिप्तं तदनन्तरम् ॥ .. २३७० 1 30 वर्तते। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । नृ० २० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३ , भिमर. * उरोमण्डलमास्थाय नितम् करिहस्तकम् ।। दशभिः करणैरेलिः कार्यः पर्यस्तकाभिधः॥ ॥ इति पर्यस्तकः ॥ २॥ नूपुरं च तथाक्षिप्तं छिन्नं सूचीनितस्वयम्। करिहस्तं तथा चोरोमण्डलक्रसतोऽष्टभिः । . एभिस्तु करणैः प्रोक्तो भ्रमरो अलपेशलः ॥ ॥ इति भ्रमरः ॥ ३॥ ... अपक्रान्त व्यसितस्य केवलं करजाः क्रियाः। करिहस्तं चाधसूचि विक्षिप्तं च ततः परम् ॥ ___10, कटीछिन्नं तथा चोवृत्तमाक्षिप्तकं पुनः। करिहस्तमिति प्रोक्तं नवकं करणोद्भवम् । 2: अपसर्पितसंज्ञे स्यादङ्गहारे हरप्रिये ॥ ॥ इत्यपसर्पितः ॥ ४॥ ..:. नूपुरं चैव विक्षिप्तमलताक्षिप्तके ततः। उरोमण्डलकं चैव नितम्वं करिहस्तकम् ॥ :: करणैरष्टभिः प्रोक्तो बुधैराक्षिप्तिकोऽत्र च । विक्षिप्तालातकाक्षिप्तान्यत्र केचिद् द्विरभ्यधुः ॥ .. ॥ इत्याक्षिप्तिकः ॥५॥ कृत्वा समनखं छिन्नं संभ्रान्तं दक्षिणाङ्गतः। 20 .. वामतो भ्रमरे चार्यसूच्यतिक्रान्तमेव च ॥ भुजगन्नासितं पश्चात् करिहस्तं क्रमादिति। ... नवभिः करणैः प्रोक्तः परिच्छिन्नोऽङ्गाहारकः ॥ ॥ इति परिच्छिन्नः ॥ ६॥ . . अङ्गद्वयेन वैशाखरेचितं चाथ नूपुरम् । भुजङ्गत्रासितोन्मत्ते मण्डलस्वस्तिके ततः॥ निकुद्दमूरूद्वृत्तं चाक्षिप्तोरोमण्डले तथा । करिहस्तं क्रमादेतैरेकादशभिरुच्यते। वैशाखरेचितो नाम विशाखे पितृसेविना॥ ॥ इति वि(?)शाखा(?ख )रेचितः ॥ ७॥.... 15 1. The reading may be विशाखेऽपि नृसेदिना| The meaning in both the cases is not clear. . .. .. .... . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ - पार्श्वस्वस्तिकः] नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३ दिक्वस्तिकं विधायैकेनाङ्गेनार्धनिकुद्दकम् । · पुनर्दिकखस्तिकं कृत्वाऽन्याङ्गेनाधनिकुट्टकम् ॥ ....." अपविद्धमूरूद्धृत्तं चाक्षिप्तं च नितम्बकम् । करिहस्तमिति प्रोक्तो दशभिः करणैरयम् । पार्श्वखस्तिकसंज्ञोऽयमङ्गहारो हरार्चने ॥ ॥ इति पार्श्वस्वस्तिकः ॥ ८॥ अर्धसूच्यथ विक्षिप्तमावर्त च निकुट्टकम् । अथोरुद्धृत्तमाक्षिप्तनुरोमण्डलकं ततः। करिहस्ते तथा सूची विद्धोऽखूनवभिः स्फुटः ॥.. ॥ इति सूचीविद्धः ॥ ९॥ EE अपराजितसंज्ञे स्याद् दण्डपादं ततः परम् । . व्यंसितं प्रसंर्पितं च निकुवार्धनिकुहके । आक्षिप्तोरोमण्डले च करिहस्तलितीरितः। । नवभिलक्षणं प्रोक्तं मुननिर्भरतादिभिः॥ ॥ इत्यपराजितः ॥ १०॥ बहुशश्चित्रगुम्फानि सदस्खलितकं तथा। मतल्लिकरणं चैव तलसंस्फोटितं तथा ॥ . कृत्वैतानि निकुटुं चोरूवृत्तं करिहस्तकम् । आयत्रिकद्विरभ्यासादस्मिन् तानि तथा दश ॥ चतुःपञ्चादिकान् केचित् निकेऽभ्यासान् विदुर्बुधाः । मदाद्विलसिते तच्च लक्षणस्थं मयोदितम् ॥ ॥ इति मदविलसितः ॥ ११॥ दक्षिणाङ्गेन रचयेद् भ्रमरं नूपुरं तथा। भुजङ्गत्रासितं चैव ततो वाम(?)न चैव हि ॥ वैशाखरेचिताक्षिप्तच्छिन्नानि नमरं तथा। उरोमण्डलसंज्ञं च नितम्बं करिहस्तकम्। एकादशभिरेव स्थान्मत्ताक्रीडोऽङ्गहारकः॥ .. ॥ इति मत्तानीडः ॥ १२॥ वामतो व्यसितं कुर्यान्निकुटुं चतुरं ततः । vM ४२ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आलीः तृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३ द्विः] कृत्वालातकाक्षिप्ते उरोमण्डलकं तथा। अष्टभिः करणैरनालीढः लकरिहस्तकैः ॥ ... ॥ इत्यालीढः॥ १३॥ . ... . .. . नूपुरं भ्रमरं कृत्वा व्यंसितालाताके तथा । नितम्बसूचिसंशं वाच्छुरिते कर(?रि)हस्तकम् । अष्टभिः करणैरस्मिन् लक्ष्म प्रोक्तं मनीषिभिः॥ ॥ इत्याच्छुरितः ॥ १४ ॥ ... पार्श्वच्छेदे च करणं कुर्यादृश्चिककुहितम् ।। ऊर्ध्वजानु तथाक्षिप्तं खस्तिकं च ततः परम् ॥ परिवर्त्य त्रिकं चोरोमण्डलं च नितम्बकम् । करिहस्तेन सहितं करणाष्टकमीरितम् ॥ . . . ॥ इति पार्श्वच्छेदः ॥१५॥ अर्धसूचि तु वामाले विद्युद्धान्तं च दक्षिणे । पुनरंसे विपर्यासाद् द्वयं छिन्नं ततः परम् ॥ अतिक्रान्तं वामतोऽथ लतावृश्चिकसंज्ञकम् । अष्टभिः करणैरेष विद्युद्धान्तः प्रकीर्तितः॥ ॥ इति विद्युद्भान्तः ॥ १६॥ ॥ इति चतुरस्त्रमानेन पोडशाङ्गहाराः ॥ [त्र्यसमानेनाङ्गहाराः।] 20.. अथ व्यस्त्रेण मानेन षोडशान्यान् प्रचक्ष्महे । निकुहार्धनिकुट्टे च भुजङ्गत्रासितं तथा ॥ ततोऽपि करणं कार्य भुजङ्गत्रस्तरेचितम् । आक्षिप्तोरोमण्डले च क्रमात् कृत्वा लताकरम् । विष्कुम्भापसृते ज्ञेयं करणानां तु सप्तकम् ॥ ॥ इति विष्कुम्भापसृतः ॥ १॥ मतल्लि गण्डसूचि स्याल्लीनं चाप्यपविद्धकम् । चत्वारि द्रुतमानेन तलसंस्फोटितं ततः। करिहस्तं च सप्त स्युर्मत्तस्खलितसंज्ञके ॥ ॥ इति मत्सस्खलितः ॥२॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . गतिमण्डल] नृ०२० को-उल्लास ३, परीक्षण ३ मण्डलस्वस्तिकं [छिन्नं निवेशा(?शो)न्मत्तके ततः। उद्धहितं मतल्लिः स्यादाक्षिप्तमतः परम् । उरोमण्डलकं चाष्टगतिमण्डलसंज्ञके ॥ ॥ इति गतिमण्डलः ॥३॥ अपविद्ध कटिच्छिन्नं सूचीविद्धमथो करौ । उद्वेष्टितौ ततश्चारी बद्धा च वलितं त्रिकम् ॥ ऊरूद्वृत्तं च करणमुरोमण्डलकं तथा। पञ्चैव करणानि स्युरन्तिमेन सहान तु॥ ॥ इत्यपविद्धः॥४॥ विष्कुम्भे नवकं ज्ञेयं निकु [च निकुञ्चितम् । अश्चितं च क्रमादूरू वृत्तमर्धनिकुद्दकम् ॥ भुजङ्गत्रासितं कार्यों हस्तावुद्वेष्टितौ ततः। भ्रमरं करिहस्तं चेत्येभिलक्षणगैः क्रमात् ॥ ... ॥ इति विष्कुम्भः ॥५॥ पञ्चैवोद्धहिते तानि निकुद्दाख्यमतः परम् । स्यादुरोमण्डलं चैव नितम्ब करिहस्तकम् ॥ ॥ इत्युद्धट्टितः ॥ ६॥ आक्षिप्तरेचिते कार्यमा स्वस्तिकरेचितम् ।। पृष्ठस्वस्तिकसंज्ञं तु दिक्स्वस्तिकमतः परम् ॥ कटीसमं चूर्णितं च भ्रमरं च ततः परम् । स्याद्वृश्चिकरेचितं च ततः पार्श्वनिकुट्टकम् ॥ उरोमण्डलसंज्ञं च संनतं च ततः परम् । सिंहाकर्षितकं नागापसर्पितसमाह्वयम् ॥ ... अत्र वक्षःस्वस्तिकं च वैकल्पिकमुदीरितम् । ....... ... दण्डपक्षं च करणं ललाटतिलकं ततः॥ . ' ___1 सण्डलस्वस्तिकादूर्व निवेशोन्मत्तसंज्ञिके । उद्घटिताख्यं मत्तल्लिः स्यादाक्षिप्तमतः परम् ॥ उरोमण्डलकं छिन्नं कट्यादिगतिमण्डले। इत्यष्टौ करणानि स्थरिति निःशङ्कभाषितम् ॥ सं. र. अ.७ श्लो. ८४३-४४. 2 AB0 चाथ। 30करो। 4 0 उद्वेष्टितो। 5 AB ललितं। 6 ABO 'रूद्वर्त्त । 7. B0 चार्य ।। .. . २३ नृ०रत a Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ः ऋ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३ [इत्याक्षिप्तरेचितः .. षोडशं करणं ज्ञेयमथो तलविलासितम्।. . निशुम्भितं विद्युद्धान्तं गजक्रीडितकं ततः॥ ६३ ईक नितम्वविष्णुक्रान्ताख्योरुद्धृत्ताक्षिप्तकानि च । ... उरोमण्डलसंज्ञं तु नितम्ब करिहस्तकम् ।। कटीछिन्नमिति प्राहुः सप्तविंशतिरत्र वै।.... वैकल्पितं कटीछिन्नं केचिदाक्षिप्तरेचितम् ॥ इच्छन्ति तन्मतेऽत्र स्युर्विंशतिः पञ्च चैव हि । । नितम्बोरोमण्डलयोरावृत्तिं ये च मन्वते ॥ .. करणानि मते तेषामन्त्र स्युः सप्तविंशतिः। 10 ये वक्षःस्वस्तिकं चात्र कटीछिन्नं च लो जगुः । पञ्चविंशतिरेव स्युस्तदा वृत्त्यापि तन्मते ॥ . . . ॥इत्याक्षिप्तरेचितः॥ ७॥ ... रेचिते करणं पूर्व कुर्यात् खस्तिकरेचितम् । ..... __ अर्धरेचितकं पश्चाद्वक्षास्वस्तिकमेव च ॥ ___15 उन्मत्तसंज्ञकं पश्चात् कुर्यादाक्षिप्तरेचितम् । अर्धमत्तल्लिकरणं स्याद्रेचकनिकुटकम् ॥ विधायैतानि कार्य च भुजङ्गत्रस्तरेचितम् । .... नूपुरं करणं कृत्वा कार्य वैशाखरेचितम् ॥ भुजङ्गाञ्चितकं दण्डरेचितं चक्रमण्डलम् । 20 वृश्चिकं रेचितं कृत्वा कुर्याद् व्यंसितमेव च ॥ विवृत्तं विनिवृत्तं च वर्तितं गरुडप्लुतम् । ....... : मयूरललितं चैव सर्पितं स्खलिताभिधम् ॥ प्रसर्पितं च करणं तलसंघट्टितं तथा । वृषभक्रीडितं कुर्याल्लोलितं च ततः परम् ॥ . . . षड्विंशतिरितीमानि परिवृत्तिप्रकारतः । विधाय विषमै गै[:] पर्यायादिक्चतुष्टये। उरोमण्डलकाद्यं च ततः कुर्याद् द्विकं सुधीः ॥... ॥ इति रेचितः ॥ ८॥..... .. नूपुरं च विवृत्तं च निकुद्यार्धनिकुहके। 30 अर्धरेचितकं पश्चात् स्याद्रेचकनिकुट्टकम् ॥ 10भागे। : ... Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ - अनिकुट्टका] न०र० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३ - ललिताख्यं च वैशाखरेचितं चतुरं ततः। ...... दण्डरेचितकं पश्चात् कार्य वृश्चिककुहितम् ॥ पार्श्वनिकुट्टकं पश्चात् संभ्रान्तोद्धटितेऽपि च।.. उरोमण्डलकं पश्चात् करिहस्तं सहान्तिमम् ॥ एवमर्धनिकुद्दे स्युर्दश सप्त च संख्यया। ॥ इति अर्धनिकुट्टकः ॥९॥ .. . वृश्चिकापसृते कार्य लतावृश्चिकमादितः॥ निकुञ्चितं मतल्लिा स्थानितम्बं करिहस्तकम् ।... षडेतानि महान्त्येव नितम्बला(?स्था)नके परे.॥... इच्छन्ति भ्रमरं तानि तन्मतेऽपि पड़ेव हि। .. ॥ इति वृश्चिकापसृतः ॥ १० ॥ खस्तिकं व्यंसितं तु द्विरलाताख्योर्ध्वजानुनी ॥ निकुञ्चिताधसूच्याख्यविक्षिप्तोद्वर्तकान्यथ।... आक्षिप्तं करिहस्तं चैकादश स्युरलातके ॥ .... व्यंसितं द्विः प्रयुज्येत तदैकमधिकं भवेत् ।। ... ॥ इत्यलातकः ॥११॥ परावृत्ते दक्षिणाङ्गे जनितं शकटास्यकम् ॥ . अलातं भ्रमरं चाथ गण्डे करनिकुद्दकम् । . . . करिहस्तं क्रमात् षट्वं करणानामिहेरितम् ॥ निकुट्टनमिहागस्य नमनोन्नमनं मतम् । ........ ॥ इति परावृत्तः॥ १२॥ .............. परिवृत्तेऽङ्गाहारे तु नितम्ब करणं ततः॥.. करणानुक्रमणे चैव कुर्यात् खस्तिकरेचितम्। विक्षिप्ताक्षिप्तकमथो लता वृश्चिकमेव च ॥.............. उन्मत्तं करिहस्तं च भुजगन्नासितं तथा ।... .. ... .... आक्षिप्तिकं नितम्वं च नितम्बान्तान्यमून्यथ ।। नवभ्रमरकाख्येन परिवृत्त्या समाचरेत् । ........... दिगन्तरमुखस्थित्येत्यावर्त्यापरयोर्दिशोः ॥ करिहस्तकटीछिन्ने विदध्यादाद्यदिक्स्थितः । 1 ABC क्षिति। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . म २ ० २० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३ परिवृत्तरेचितः अङ्गहारान्तरेष्वेव परिवर्त्य विधिस्त्वयम् ॥ ८८ . . मुक्त्वाऽन्त्यकरणद्वन्द्वं केचिदाद्यं विमुच्य च ।.. आहुः पुरातनाचार्या महाभिनवपूर्यकाः ॥ .. .. .८९ : ॥ इति परिवृत्य(त्त)रेचितः ॥ १३ ॥ . .. . चतुरं करणं कृत्वा भुजङ्गाञ्चितकं ततः। गृध्रावलीनकं कार्यमङ्गद्वन्द्वे पृथक् ततः ॥ - विक्षिप्ते करणे कार्ये उद्वृत्तं सूचिसंज्ञकम् । नितम्बं करणं पश्चाल्लतावृश्चिकमेव च ॥. .. * नवभिः करणैः प्रोक्त उद्धृत्तः पूर्वसूरिभिः। 10 विक्षिप्तोद्वत्तके द्विश्वेदधिकं तवयं भवेत् ॥ ॥ इत्युत्तः ॥१४॥ विक्षिप्तमश्चितं चैव गण्डसूचि ततः परम् ।। गङ्गावतरणं पश्चादर्धसूचि ततः परम् ॥ दण्डपादं च वामाने साधयेत्तदनन्तरम् । चतुरं भ्रमरं चाथ नूपुराक्षिप्तके तथा ॥ . अर्धवस्तिकसंज्ञं च नितम्ब करिहस्तकम् । उरोमण्डलकं चैवेत्येवं पञ्चदशात्रुवन् ॥ . . . . . अङ्गहारे च संभ्रान्ते करणानि मनीषिणः। ॥ इति संभ्रान्तः ॥१५॥ वैशाखरेचितं चैव वृश्चिकं द्विः प्रयुज्य च ॥: ... निकुट्टकाभिधं कुर्यात्ततः कार्यों लताकरौ। . .. अन्तिमेन सहैतानि षट् स्युः खस्तिकरेचिते ॥ ...... .: ॥ इति खस्तिकरेचितः॥ १६॥....... कटिभ्रान्तमर्गलं च पार्श्वजानु तथैव च। 2 . हरिणप्लुतकं कार्य ततः प्रेङ्खोलितं पुनः॥ .. से अवहित्थं चापसृतं छिन्नं च कटिपूर्वकम् । करणं नवमं कार्य नवीनभरतोक्तितः। गोविन्दप्रियसंज्ञोऽयं कार्यो गोविन्दपूजने ॥ ........... ॥ इति गोविन्दप्रियः॥ १७॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधवप्रिया नृ०र० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३ .. करणं वलितोरुः स्याद्वलितं च ततः परम् । पादापविद्धं च ततो दोलापादां समाश्रयेत् ॥ पार्श्वक्रान्तं परिवृत्तं सिंहविक्रीडितं ततः। एलकाक्रीडितं पश्चात् कटीछिन्नमतः परम् ।। नवभिः करणैरेभिनिर्मितः कुम्भभूभुजा। माधवप्रियसंज्ञोऽयं प्रयुक्तो माधवाचने । ॥ इति माधवप्रियः ॥ १८॥ ॥ इति त्र्यस्त्रमानेनाष्टादशाङ्गहाराः॥ १०१ [अङ्गहारविधिः।] विनियोगोऽङ्गहाराणां पूर्वरङ्गाङ्गगो बुधैः। ज्ञातव्यो मुरजायैश्च वायैस्ताललयानुगैः॥ वर्धमानासारितेषु पाणिका गीतिकादिषु । उत्थापनादिषु प्रायः श्रेयः परमकातिभिः ॥ १०४ अङ्गहाराङ्गतायां तु करणानामपीरितः। विनियोगः फलं वापि पृथक्त्वेन प्रयोगतः ॥ ॥ इति द्वात्रिंशदङ्गहारलक्षणम् ॥ १॥ स्थिरहस्तो दानविधौ पर्यस्तचाप सर्पितोऽरिजनः । आक्षिप्तो येन रणे विद्युद्धातः परं षड्जः॥ इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्यां संगीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे करणोल्लासे अङ्ग[हार]परीक्षणं तृतीयं समाप्तम् । 20 १०५15 तृतीयोल्लासे चतुर्थं परीक्षणम्। उद्धृत्तोऽपि न संभ्रान्तो विषयैर्योऽपराजितः । मत्ताक्रीडोऽपरिच्छिन्नप्रभावस्तं भजे शिवम् ॥ अथ भरतमुनीश्वराभिमत्या.... निगदति रेचकलक्षणं नरेशः। करचरणकटीषु कण्ठदेशे पुनरुदिता तदवस्थितिमुनीन्द्रः॥ 1.0 अंगहारान् गतानां तु । न. र. को. in भ. को. पृ.७ 1.2 Bc drop तृतीयं । 25 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ रेचकलक्षणम् ऋ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण ४ . यदपि च गदितोऽङ्गाहारमध्ये मुनिविभुना ननु रेचकः समस्तः । तदपि च पृथगुच्यते यतोऽयं फलजनने गदितः पृथक् समर्थः॥ 5 , .. [ रेचकलक्षणम् ।] स भवति कररेचकः क्रमाद्या भ्रमणततिः परितोऽति तूर्णजाता। विरचितवरहंसा हंस] पक्षाकृतित इति प्रचुरोपनृत्यकौ ॥ ॥ इति कररेचकः ॥ १॥ ___ 10. 15 स भवति चरणोद्भवः प्रयत्ना नमनमथोन्नमनं झटित्युपेतः। अतिचलचरणाग्रदेशभूतो य इह चलाचलपाणिभागजातः॥ ॥ इति चरणरेचकः ॥२॥ भ्रमणमिह करोति सर्वदिक्षु यदिह कटी कटिरेचकं तमाहुः। ॥ इति कटिरेचकः ॥३॥ प्रसृत विरलिताङ्गुलेस्तिरश्चा भ्रमणलयेन गलस्य याति शीघा ॥ गलगतविधुतभ्रमिः प्रदिष्टो मुनिविभुना किल कण्ठरेचकोऽयम् । ॥ इति कण्ठरेचकः ॥४॥ इति समुदितरेचकैश्च नृत्य भवति मनोहरणं मुनीश्वराणाम् ॥.... ॥ इति रेचकलक्षणम् ॥ . . ... 1 ABC वरहंसपक्षाकृति । In भ. को. पृ. ८१३ विरचितवरहसहसपक्षाकृति। "2 B0 रेचितः। 3 B प्रति । ...... Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेचकलक्षणम् नृ० र० को०-उल्लास ३, परीक्षण ४ १८३ यः शतधैर्यगांभीर्येन केनाप्यति रे(?रि)च्यते। .. . . . . . तेन श्री कुम्भकर्णेन कृतं रेचक लक्षणम् ॥ . ..... - इति सरखतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन अभिनवभरताचार्येण मालवाम्भोधिमाथमन्थमहीधरेण योगिनीप्रसादासादितयोगिनीपुरेण मण्डलदुर्गोद्धरणोद्धतसकलमण्डलाधीश्वरेण अजयमेरुजयाजेयविभवेन यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण शाकंभरीरमण-5 परिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीतोषितशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण नागपुरोद्भूलनप्रचण्डपवनेन ' अर्बुदाचलग्रहणसंदर्शिताचलाद्भुतप्रतापेण गूर्जराधीशधीरत्वोन्मूलनप्रचण्डपवनेन श्रीमत्कुम्भलमेरुनवीननिर्मितसुमेरुणा श्रीचित्रकूटभौमस्वर्गतातन्वीकरणचारुतरपथेन मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन अरिराजमत्तमातङ्गपञ्चाननेन प्ररूढपत्रयवनदवदहनदवानलेन प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तण्डेन वैरिवनितावैधव्यदीक्षादान-10 दक्षोद्दण्डकोदण्डमण्डिताखण्डभुजादण्डेन भूमण्डलाखण्डलेन श्रीचित्रकूटविभुना अध्युष्टतमनरेश्वरेण गजनरतुरगाधीशराज त्रितयतोडरमल्लेन वेदमार्गस्थापनचतुराननेन याचककल्पनाकल्पतरुणा वसुन्धरोद्धरणादिवराहेण परमभागवतेन. जगदीश्वरीचरणकिङ्करेण भवानीपतिप्रसादाप्ताप (? प्तप्र) सादवरप्रसादेन राजगुर्वादि बिरुदावलीविराजमानेन राजाधिराजमहाराणा-श्रीमोकलेन्द्रनन्दनेन राजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते 15 संगीतराजे षोडशसाहस्यां संगीतमीमांसायां रत्नकोशे करणोल्लासे रेचकपरीक्षणं चतुर्थ समाप्तम् ॥ ... ॥ उल्लासश्च समाप्ति समगादिति विततमतीनामभिमतसिद्धिरस्तु । . [1 0 यश्शौर्यवीर्यगांभीर्य न(?न) केनाप्यतिरिच्यते। ... तेन श्रीकालसेनेन कृतं रेचकलक्षणम् ॥ .. इति श्रीजगदीशवनदेवनिजगणेन ॥ १॥ जगदीश्वरी-कामेश्वरीचरणकिङ्करेण ॥ २ ॥ श्रीब्रह्माद्रिविभुना ॥ ३ ॥ अध्युष्टतमनरेश्वरेण ॥ ४॥ श्रीभीष्मपुरजयानीतानेकराजकन्यारत्नेन ॥ ५ ॥ श्रीपुरग्रहणसंवर्द्धितयशोभरेण ॥ ६॥ वाटिकाचलग्रहणजनितकीर्तिपूरपराजिताचलनायकेन ॥ ७ ॥ संगमनीरदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमण्डलाधी श्वरेण ॥ ८॥ दमनपुरविध्वंसनवंदीकृतयवनीनिचयेन ॥ ९ ॥ महिषमेरुजयाजेयविभवेन 25 - ॥१०॥ शाकम्भरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकम्भरीपरितोषितशाकम्भरीप्रमुखशक्तित्रयेण ॥११॥ अष्टादशगिरिविजयविख्यातवीर्यगर्वेण ॥ १२ ॥ महदंवमातृकापूरोखूलनधर्षिता(? त) महोरगपुरेण ॥ १३ ॥ वनदेवखामिप्र(?प्रा)सादरचनापरपरमेश्वरेण ॥ १४ ॥" त्र्यंबकेश्वरसन्निधिकीर्तिस्तंभोन्नतजयस्तंभेन ॥ १५ ॥ श्रीब्रह्मगिरिभौमवर्गतायथार्थीफरणरचितचारुपथेन ॥ १६ ॥ श्रीकामक्षागिरिनवीननिर्मितिपराजितसुमेरुणा ॥ १७ ॥ 30 श्रीमहिषाचलोपरिश्रीहरिशरणरचिताचलदुर्गेण ॥ १८ ॥ अभिनवभरताचार्येण ।। १९ ॥ " वीणावादनप्रवीणेन ॥२०॥ यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण ॥२१॥ त्रिसंध्यक्षेत्रसमुद्र num ... Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृ० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण १ [भारती संभवरोहिणीरमणेन ॥ २२ ॥ परमभागवतेन ॥ २३॥ श्रीमहाराजाधिराजमहाराणा श्रीतामराजेन्द्रनन्दनेन ॥२४॥ महाराज्ञीश्रीसौभाग्यवतीजसमांविकाहृदयनन्दनेन ॥२५॥ सकलसीमंतिनीशिरोमणिनिकुंभराजन्यवंशावतंसमहाराज्ञीश्रीकर्मवतीलपुमादेवीहृदयाधि- .. नाथेन ॥ २६ ॥ महाराजाधिराजकालसेनमहीन्द्रेण विरचिते सङ्गीतराजे पोडशसाहस्यां । 5 सङ्गीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे करणोल्लासे रेचकपरीक्षणं चतुर्थ समाप्तम् ॥ - ॥ उल्लासश्च तृतीयः समाप्तिं समगादिति विततमतीनामभिमतसिद्धिरस्तु 1] चतुर्थोल्लासे प्रथमं परीक्षणम् । 'ऋग्वेदादितनोर्यस्माद्भारत्या द्यास्तु वृत्तयः । जज्ञिरे तमहं वन्दे वाचो वृत्तिप्रकाशकम् ॥ वृत्तयश्च कलासाश्चोपाध्यायाचार्यलक्षणम् ।। 'नटनर्तकयो(तालिकचारणलक्षणम् ॥. परीक्षणे वार्तिकेषु क्रमादेतन्निरूप्यते । वृत्तीनां लक्षणं पूर्व सामान्येन प्रदर्शितम् ॥ विशेषलक्षणं तासामथ ब्रूमः समासतः। एकार्णवे पुरा विश्वे शेषशायिनि माधवे ॥ मद वीर्यवलोन्मत्तावसुरौ मधुकैटौ। बहुभिः परुषैर्वाक्यैर्जानुभिर्मुष्टिभिस्तथा ॥ तर्जयामासतुर्देवं क्षोभयन्ताविवार्णवम् । . . तौ दृष्ट्वा द्रुहिणो भीतो मुरारं वाक्यमब्रवीत् ॥ 15 20.. ..... [ भारती ।]. ..... भारती सृज देवेश नयेमौ निधनं यतः। ततः शुद्धैरविकृतैः साङ्गहारस्तदाङ्गकैः ॥ युयुधे भगवान् ताभ्यां युद्धमार्गविशारदः। . पादन्यासैस्तदायत्तैरतिभारोऽभवद्भुवः ॥ 25 .... तत्रेयं भारती वृत्तिनिर्मिता लोकभाविना । तीत्रैर्दीप्तिकरैः शाङ्गधनुषो वलितैरथ ॥ .....1 0 ऋग्वेदितनो । 2 AB भारताद्या । 3 0 वाच्ये । 40 प्रकाशके । - 5.0 नटनर्तकयोश्चैव लक्ष्म वैतालीकस्य च । 6 AB केत्र कस्मादे । 70 पूर्व । 8 0 मदो । 9 AB 'तोसुरारि, c तोऽसु | 10 ABO तीस । 11 AB यत । 12 c drops from à: to yat: 1 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्ररोचना] .. नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण १ . सात्त्वती निर्मिता वृत्तिरिति सत्त्वैरसंभ्रमैः । लीलाभावैरङ्गहारैर्विचिनैः सुकुमारकैः॥.. १० .. यद्वबन्ध शिखापाशं तन जाता तु कैशिकी। विचित्रैयुद्धकरणैर्नानाचारीसद्भः ॥ संरम्भावेगबहुला संजाताऽऽर सटी तदा। एवं तदा हतौ दृष्ट्वा दानवौ द्रुहिणोऽब्रवीत् ॥ न्यायसंज्ञा भविष्यन्ति शस्त्रमोक्षे सदा इमाः। ऋषिभिस्तास्तथा दृष्ट्वा कृताः पाव्या(?च्या)भिसंयुताः ॥ नाट्यवेदसमुत्पन्ना चागङ्गासिनयात्मिकाः। भारत्या अभवन् अदाश्चत्वारोऽङ्गत्वमागताः॥ प्ररोचनाऽऽमुखं चैव वीथी प्रहसनं तथा । तत्र प्ररोचना पूर्वरङ्गे पापनाशिनी ॥ जयाभ्युदयमाङ्गल्या विघ्नप्रध्वंसकारिणी । ॥ इति प्ररोचना ॥१॥ प[7]रिपाचोदिका यत्र सूत्रधारेण कुर्वते ॥ 'आमुखं तत्र विज्ञेयं बुधैः प्रस्तावनाभिधम् । उद्घाटका कथोद्धातः प्रयोगातिशयस्तथा ॥ प्रवृत्तिकावगलि(?लगि)ते आमुखाङ्गानि पञ्च वै। ॥ इत्यामुखम् ॥ २॥ - वीथी प्रहसनं चैव दशरूपकगोचरे ॥ ॥ इति वीथीप्रहसने ॥३॥ ॥ इति भारती ॥ . . ... [सात्त्वती। तत्र सत्त्वगुणोत्कर्षा हर्षशौर्यगुणोत्तराः। त्यागशौर्यविशोकाद्या वृत्तिः स्यात् सात्वती शुभा ॥ १९॥ उत्थापकपरिवर्तकसंलापसंघात्यनामधेयाश्च । चत्वारः स्युभदाः सात्वत्या मुनिवरेणोक्ताः॥.. उत्थापनस्तु संहर्षी, ॥ इत्युत्थापकः॥१॥ M . . . 1 A line seems to be missing here or the reading may be: FICT- पमामुखं ज्ञेयं । of. ना. शा. अ. २०. श्लो. ३०-३३. (G. 0.0.). 2 ABo put the verse after इति भारती. ........२४ नृ० रन.. . . . Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૬ 10 : आरब्धार्थपरित्यागात्, $9 15 3 02 20 नृ० २० को०- उल्लास ४, परीक्षण १ 25 साधिक्षेपवचोभङ्गी, ॥ इति परिवर्तकः ॥ २ ॥ * अन्ययोगः परिवर्तिकः । ॥ इति संलापकः ॥ ३॥ 1 ABC मर्म । संलापः प्रोच्यतेऽधुना ॥ २१ आत्मनो दोषयोगाद्यैः संघाते भेदकृद्वचः ॥ ॥ इति संघात्यकः ॥ ४ ॥ ॥ इति सात्त्वती ॥ * [ कैशिकी ।] कामोपभोगप्रचुरा लक्ष्णनेपथ्यशालिनी । विचित्र नृत्यगीताया कैशिकी वृत्तिरिष्यते ॥ नर्मस्फोटो नर्मगर्भो नर्मस्पुञ्जोऽथ नर्स च । कैशिकीसंभवा भेदाश्चत्वारः परिकीर्तिताः ॥ नानाभावरसैर्युक्तः समग्ररसपेशलः । नर्मस्फोटश्च विज्ञेयो विशेषबहुताकुलः ॥ ॥ इति नर्मस्फोटः ॥ १॥ * $ स तु संघात्यको मतः । नायको यत्र कार्यार्थवशाद्भुतैर्गुणैरिह । नर्मगर्भो भवेदेष रूपसंभावनादिभिः ॥ ॥ इति नर्सगर्भः ॥ २ ॥ नवसंगमसंभोगरतिरागसमुद्भवैः । नर्मस्पुञ्जो भवेदनावसान भयसंमुखः ॥ ॥ इति नर्मस्पुञ्जः ॥ ३ ॥ * [ परिवर्तकः शृङ्गारास्थापकं हास्यं बहुलं करणाश्चितम् । आत्मोपक्षेपकं नर्म विप्रलम्भरसोज्ज्वलम् ॥ ॥ इति नर्म ॥ ४ ॥ ॥ इति कैशिकी ॥ २३ २४ २५ २६ २७ २८ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ आरभटी] ०.२० को०-उल्लास ४, परीक्षण १ आरभटी।1...... . मायेन्द्रजालबहुला चित्रथुनियन्त्रिता। विज्ञेयाऽऽरभटी वृत्तिः कपटैबहुभिवृ(?)ता ॥ वस्तूत्थापनसंफेटौ संक्षिप्तकावपातको।. एते भेदास्तु चत्वार आरभट्याः प्रकीर्तिताः ॥ . कार्य विभाव्यते यत्र सविद्रवमविद्रवम् । अनेकरससंयुक्तं तदस्तूत्थापनं भतम् ॥ ॥ इति वस्तूत्थापनम् ॥१॥ शस्त्रप्रहारबहुलो युद्धरम्भसंकुलः । संफेटो नाम विज्ञेयो निर्भेदकपटाकुलः॥ . ॥ इति संफेटकः ॥२॥ अन्वर्थक(शिल्पसंयुक्तो बहुस्सुस्तपबोयु(?पुस्तोपयोग)तः। संक्षिप्तवस्तुविषयो ज्ञेयः संक्षिप्तको बुधैः॥ ३३ ॥ इति संक्षिप्तः ॥३॥ भयहर्षसमुत्थानां विनिपातससंभ्रमः। 18 प्रवेशनिर्गमायुक्तः सोऽवपात इति स्मृतः॥ ३४ ॥ इत्यवपातः॥४॥ ॥ इत्यारभटी॥ एताः प्रोक्ताश्चतस्रस्तु वृत्तयः काव्यसंश्रयाः। .... युद्धे नियु(ब?)द्धे काव्ये ता उपयोगं व्रजन्ति वै॥ .. ३५20 वृत्तिर्वापि रसो वापि भावो वापि प्रयोगतः। पुष्पावकीर्णाः कर्तव्याश्चिमाल्यानुकारिणः ॥...... ३६ ॥ इति चतस्रो वृत्तयः॥ [अथ कलासा लक्ष्यन्ते ।] यद्यपि भेदा लोके भूयांसा करणमार्गगास्तदपि। तानिह विमुच्य यत्नात् कलासकरणानि वक्ष्यन्ते ॥ ३७ विद्युत्खड्गी मृगवल(?कसंज्ञो प्लवसंज्ञमपरमपि द्वितयम्। एते हि षट् प्रभेदाः पृथग्विभिन्नाः कलासकरणस्य ॥ ३८ 1 नाशा समुत्थान (अ. २०, श्लो. ६९. G. 0. S. ) 2 ABO कारिणैः। . Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १८८ 5 10 15 20 25 30 नृ० २० को०- उल्लास ४, परीक्षण १ [ विद्युत्कलासाः विद्युत्खङ्गौ ततो गुरुणा द्वौ मृगयकौ च मण्डूकः । लघुना द्रुतेन हंसः परिमीयन्ते क्रमात् पडमी ॥ विद्युत्कलास इष्टः षोढा खञ्चतुर्विधः कृतिभिः । एको मृगककलासो चकसंज्ञः स्याच्चतुर्धाऽत्र ॥ दर्दुरकोsपि चतुर्धा हंसकलासस्तु त्रिधा ज्ञेयः । एवं द्वाविंशतिधा कलासभेदाः समासेन ॥ * [ विद्युत्कलासाः । ] वर्षासु जलदराजिषु सचमत्कारं यथाऽचिरविलासा । विलसति तथा पताकप्रमुखाः हुनमानतस्तिर्यक् ॥ यस्मिन्नूर्ध्व मधोऽधः प्रकाशमायान्ति हस्तकाः सततम् । विद्युदिव चञ्चलस्तं वदन्ति विद्युत्कलासमिह ॥ पताकं वामहस्तं तु नत्वा दक्षिणकर्णगम् । दक्षं पुनः कटीं वामां वामजङ्घां तथाविधम् ॥ एतद्विपर्ययाद्धस्तद्वन्द्वं कृत्वा ततो नु च । मुखसन्मुखमानेयमित्याद्यो भेद इष्यते ॥ ॥ इति प्रथमः ॥ १ ॥ * अर्धचन्द्र करं कृत्वा दक्षिणं तं खसंमुखम् । आनीय कार्मुकाकारं जानु कुर्याद् द्वितीयके ॥ ॥ इति द्वितीयः ॥ २ ॥ * अञ्जलिं हस्तमाधाय समदृष्टिस्तदङ्गुली | प्रसार्य शिखरं कृत्वाऽग्रे भुजौ सारयेत्परे ॥ ॥ इति तृतीयः ॥ ३ ॥ * केशबन्धौ करौ कृत्वाऽलिके सव्येतरं करम् । वामं कृत्वा मूर्ध्नि कुर्यात् पताकौ च चतुर्थके ॥ ॥ इति चतुर्थकः ॥ ४ ॥ * हस्तं पुष्पपुटं कृत्वा विलोक्य च ततः पुनः । कृत्वोत्सङ्गं स्पृशेत् पश्चाद् दक्षिणं चरणं नटः ॥ : हस्तेन दक्षिणेन प्राग्यामाङ्घ्रि वामकेन तु । इति पञ्चमभेदोऽयं सम्यगन प्रदर्शितः ॥ ॥ इति पञ्चमः ॥ ५ ॥ ३९ ४० ४१ ४३ ४४ ४५ ४६. ४७ ४८. ५० Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खगकलासाः] मुं० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण १ ८ ९ अधो मकरमाधाय हस्ताभ्यां यत्र नृत्यति । सप्लुतैश्चरणन्यासर्भेदः षष्ठोऽयमीरितः॥ . . . . ५१ .. ॥इति षष्ठः ॥ ६॥ ..... ॥ इति विद्युद्धि(?त् कलासस्य षड्भेदाः॥ [खड्गकलासाः।] चकितेव निरीक्षन्ती पश्चाद्वामेतरं मुहुः। प्रचारं धृतखड्नेव तन्वन्ती विविधं द्रुतम् ॥ प्लुतमानादसंबाधं विदधाति करानपि । यत्रार्धचन्द्रप्रभृतीन स खगा द्यः कलासका। कट्यां वामं विधायाथ सखों दक्षिणं करम् ॥ ५३10 10 कृत्वार्धचन्द्रमास्ते चेत् सकम्पं भेद आदिमः। ऊर्ध्व कपोतमाधायाधस्तान्तुष्टिकरं तथा। पताकं तिर्यगाधाय ततः खङ्गं भिदाऽपरा ॥ . [॥२॥] त्रिपताको करौ कृत्वा पश्च(श्चाद) यश्चरणः स तम्। घातयन्निव योऽग्रे चेद् योजयेदिति तत्परः॥ [॥३॥] स्वस्तिकं कर्कटं चैव मुष्टिकं च पताककम् । चतुरः क्रमतः कुर्यात् करान् यत्र तु नर्तकी । धृती मोहे तथा घाते पाते स त्याच्चतुर्थकः ॥ ___ [॥४॥] घातस्तत्र चतुर्धा स्यादूर्वाधः पार्श्वयोर्द्वयोः। खड्गपूर्वकलासस्य भेदा एते चतुर्विधाः ॥ ॥ इति खड्गकलासचतुष्टयम् ॥ . . . ..::. [ मृगकलासः।]. पादाङ्गुलीभिराक्रम्य भूमिमुत्थाय जानुनी। मुहुरापातयेद्यत्र मृगशीर्षकराञ्चिता ॥ .. 1 ABO CET I 2 ABO CET I 3 ABC ET I 4 ABO EFTI... ५७25 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुं० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण १ विककलासाः गर्भखिन्ना मृगीवेयं लास्याइँ त्यतत्परा। हरिणप्लुतया चार्या गुरुमानेन चेत्ततः। त्रिविधां प्लुतिमाधत्ते तदा मृगवि(?क)लासकः ॥ ॥ इति मृगवि(कोलासः॥ [ बककलासाः।] पार्श्वे विधुन्वती यत्र बकवत् सजलो छदौ। कुर्वती हस्तकाँश्चैव संदंशमुकुलादिकान् ॥ आसनं च यथोत्थानं गुरुमानेन तन्वती । नरीनत्ति नटी यत्रानल्परूपविशेषवत् ॥ कलासो बकसंज्ञोऽयं विज्ञेयो नृत्यकोविदैः। विधाय भ्रमरी काश्चित् संहतस्थानके स्थिता ॥ अलपल्लवसंज्ञौ च कृत्वारालौ करौ क्रमात् । यत्राटी तत्र तो नीत्वा युगपत् क्रमतोऽपि वा ॥ .. अङ्गं विधुन्वती चित्रं सवारि (संचारि)गरुताविव । मत्स्यग्रहार्थ बकवत् कृत्वा मुकुलहस्तकम् ॥ मन्दं मन्दं पुरस्ताच पश्चाच प्रपदेन या। याति यस्मिन् कलासे सा विज्ञेया प्रथमा भिदा [॥१॥] 10 15 पदा नटा। निपताको करौ कृत्वा विषमासनमास्थिता। मण्डिको चरणौ कृत्वा यथास्त्रं च पदे पदे ॥..... नयन्ती हस्तकौ चित्रं संदंशमथ तन्वती। पश्यन्ती पार्श्वयोरग्रे चकितेव यदा नटी। कुरुते नृत्यमेषाऽसौ बकभेदो द्वितीयकः॥ [॥२॥] . . सव्ये तदितरे भागे वामे वामेतरं यदि । आपातयेद् द्रुतं जानु सवेगं चरणौ भुवि ॥ निदधाति तदा प्रोक्ता मण्डिका नृत्यकोविदः। मुकुलं हस्तकं कृत्वा शनैः पश्चाद् द्रुतं पुरः॥ गच्छन्ती प्रस्खलत्येव पद्यत्यमु(?पतत्यनु)पदं यथा। 10 संसवा । 25 .. .... Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मण्डूककलासाः] नु० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण १ धृतमुक्ते बको मत्स्येऽनुपदं हस्तकानपि ॥ अलपद्ममरालं च मुकुलं चापि तन्वती । चित्रं नृत्यति यत्रैषा भेदः प्रोक्तस्तृतीयकः॥ [॥३॥] उत्तानवञ्चितौ हस्तौ यथा कृत्वार्द्धचन्द्रकम् । कट्यां निवेश्य हस्तं च प्रपदाभ्यामथारभेत् ॥ नानागतिविशेषांश्च धनुर्वत् पृष्ठतः पुरः। वक्राकृतिः पदाङ्गुष्ठपाणिसंस्पर्शलालसा । प्रनृत्यति यदा चित्रं भेदः प्रोक्तश्चतुर्थकः॥ [॥४॥] ॥ इति वककलासचतुष्टयम् ॥ [ मण्डूककलासाः।] त्रिपताकं करं कृत्वोत्प्लुत्योत्प्लुत्य समे पदे । सर्वतो दधती चित्रं विषमासनमास्थिता ॥ यत्र नृत्यति स प्रोक्तः कलासः प्लवसंज्ञकः। . . त्रिपताको पताको वा नाभौ कृत्वा करौ ततः ॥ प्रयाति पद्धयां पश्चाचेत्तालस्यानुगुणं यदा। तदायमाद्यभेदः स्यात्प्लवस्य मुनिसंमतः ॥ [॥१॥] त्रिपताको करौ कृत्वा वामपादं पुरःसरम् । हस्तं च वाममेवं स्याल्लघुमानेन वामतः॥ गत्वा तत्रासनं कृत्वा समं विषममेव वा । ततः स्थानात् समुत्प्लुत्य गच्छेच्चेत्तुल्यपादिकाम् । मण्डूकस्य द्वितीयोऽयं भेदः प्रोक्तस्तदा वुधैः॥ [॥२॥] त्रिपताको करौ कृत्वा समं वा विषमासनम् । .. स्थित्वा स्थित्वा समुत्प्लुत्य चरणौ दधती क्षितौ ॥ .. पुरो गच्छति पश्चाच लघुमानेन चेत्तदा । .. . पश्यन्ती धरणी प्रोक्तः प्लवभेदस्तृतीयकः ॥ [॥३॥] ७४ 15 20 ८० Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સર 5 10 15 20 25 30 c नृ० २० को० - उल्लास ४, परीक्षण १ पुरतः पृष्ठतश्चैव व्युत्क्रमक्रमयोगतः । वामदक्षिणयोर्नत्यं चतुर्धा यत्र जायते । मण्डूकस्य तदा भेदश्चतुर्थ: कीर्तितो बुधैः ॥ [ ॥ ४ ॥ ] ॥ इति मंडूककलासभेदचतुष्टयम् ॥ 35 [ हंसकलासा: । ] ललितैश्चरणन्यासैर्यत्र हंसीव हस्तकौ । हंसास्यौ संविधायाथ विचित्रगतिपेशलम् ॥ यत्र नृत्यति स प्रोक्तः कलासो हंससंज्ञकः । मकरं दक्षपार्श्वस्थं पताकं वामहस्तकम् । पुरतो यत्र हंसीव यायाद्भेदः स आदिमः ॥ [1131] * * मुकुलं हस्तमारभ्य पादाभ्यां पृष्ठतो व्रजेत् । विचित्रलास्य भेदज्ञा हंसीवासौ द्वितीयकः ॥ [ ॥ २ ॥] हस्तं हंसास्यमाधाय पार्श्वयोर्ललितां गतिम् । आलापवर्णतालानां क्रमतो यत्र नृत्यति । हंसीवासौ तृतीयोऽयं भेदः प्रोक्तः पुरातनैः ॥ [ ॥ ३ ॥ ] ॥ इति हंसकलासत्रयम् ॥ ॥ इति द्वाविंशतिकलास करणानि ॥ * [ उपाध्याय लक्षणम् । ] अथोपाध्यायलक्षणम् [ हंसकलासाः रूपखी निजसंप्रदायधिषणो मोक्षग्रहज्ञः क्षमी' मेधावान् ध्वनितत्त्ववित्सु निपुणस्ताले लये कोविदः । शिष्यं शिक्षयितुं नवीन रचनावाद्यप्रबन्धे सुधीः उद्भेत्ताऽखिलनृत्यभङ्गिभणितेर्नाट्यागमे पारगः ॥ स्थायानामधिकोनता सुकुशलो माधुर्यवित्सु ध्वने वयेऽथो मुखवाद्यजे निपुणधीः स्यान्नृत्यगीतादिनः । 1 BG क्षमें | 2 ABC सुध्र्ध्वने. Kumbha in भ० को सुध्वने पृ. ८०६, ८१ ८२ ८३ ८४ ८५ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यः] ४० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण १। . साक्षात् स्थापयिता स्थितौ जनमनोहारी स्वयं रञ्जकः - पात्रस्यापि हृदेव रूपकविधौ निर्माणकर्मोद्धरः॥ २ 'नृत्यस्याखिलन(?कृ)त्यवित् सममुखप्रा(? स्था)यग्रहज्ञाग्रणी- र्दोषाणामपिधानवित् स्वयमसौ स्यान्नृत्यगीतादिनः। प्राप्तप्रौढिसुशस्तवाक्यविदुरो धीरो गुणोद्भासको नाट्ये शुद्धगुणार्णवो निगदितस्तज्ज्ञैरुपाध्यायकः॥ ॥ इत्युपाध्यायलक्षणम् ॥ [आचार्यः ।। आचार्यः श्रुतिकोविदः पटुमतिर्वाक्ये सुवेषो रसे ज्ञाता लक्षणलक्ष्यतत्त्वविषये पू(?तू)यंत्रये पण्डितः। 10 हास्यज्ञो नृपसंसदि प्रगुणधीरास्योद्भवे वादने .. नानादेशविचित्रकाकुरचनाप्रावीण्यविद्याध्वगः॥ ४ ॥ इत्याचार्यः॥ [ नटः। प्रोक्तश्चान नटो नवीनरचने भाषादिनस्तत्त्वरित् :: चित्तज्ञश्च चतुर्विधाभिनयविन्नाट्यागमे पारगः । ॥ इति नटः॥ [नर्तकः ।] संप्रोक्तोऽपि च नर्तको निशितधीर्मार्गाख्यनृत्ये परं विख्यातोऽन्न कृतश्रमोऽङ्गचलने दक्षः स्वकीये स्मृतः॥ ५20 . ॥ इति नर्तकः॥ :: . [वैतालिकः ।] मर्मज्ञोऽखिलरागराजिषु परं वेदी पुनः किङ्किणी- . वाये चापि वृतोऽत्र नर्तकगणैर्दक्षो मतश्चारणः। भाषाशेषविशेषवित्पटुमतिर्लोकापवादे नृणाम् सर्वेषामपि नर्मशर्मकरणे दक्षोत्र वैतालिकः॥ , . ६ ॥ इति वैतालिकः ॥ 15 25 . 1 ABO °त्यसा। 2 AB0 °गुणेर्णव । 3 ABO चेही. Kumbha in भ. को. बेदी पृ: ९४७. " २५ नृ० रन. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण २ न्यायाः यद्वत्तिं भुञ्जते विप्राश्चतुर्दिक्षु गृहे स्थिताः। आचार्यश्च स्वयं योऽरिविनयाचारशिक्षणे ॥ .. . ७ इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते सङ्गीतराजे नृत्यरत्नकोशे प्रकीर्णकोल्लासे वृत्त्यादिलक्षणं नाम प्रथमं परीक्षणं [समाप्तम् ।] 16 चतुर्थोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम् । [ मङ्गलम् । ] यं न्यायप्रविचारेणोपपत्त्यागमगोचरम् । अक्षपादादयो नित्यं मन्यते तं लुसः शिवम् ॥ .. १ . अथ न्याया:संगरेषु परशस्त्रवचनं खीयशनपरितापनं रिपौ। संविधातुमुचिता शरीरजा न्यायशब्दगणनात्र वर्तना ॥ २ . भारतः स खलु सात्वतो परो वार्षगण्य इह कैशिकस्तथा। तद्भिदास्तु किल वेदसंमिता वृत्तिषु क्रमतया निदर्शिताः॥ ३. तस्य लक्षणविचारशुद्धये महेऽत्र सकलान् प्रविचारान् । चारिकानिगदितास्तु विचित्रा याः पुरा च गतयः परिक्रमाः॥४. भारते निगदिताः प्रविचाराः शस्त्रमोक्षणविधानगोचराः। वामकेन बिभृयात् फलकान्तं दक्षिणेन तु कृपाणमादरात् ॥ ५ तौ करावुपसृतौ विनिधायाक्षिप्य तौ च तत एव शिक्षितः। भ्रामणं च फलकस्य विदध्यातूभयोरथ सपार्श्वयोः सुधीः ॥६ भ्रामयेच्च परितः शिरसस्तत् खङ्गिनं त्वथ शिर कपोलयोः । अन्तरा च मणिवन्धतस्तथोद्वेष्टयेच विधिना प्रयत्नवान् ॥ ७... भ्रामणं च फलकस्य विदध्यात् संभ्रमेदुपरि मस्तकं यथा। भारते विधिरयं मुहुर्मुहुः शस्त्रपात उचितः कटीतटे ॥ ८. .. ॥ इति भारतः ॥ [१] सात्त्वतेऽपि विधिरेष' शस्यते पृष्टतो भ्रमणमत्र शस्त्रगम् । शस्त्रपातविधिरन पादयोः कीर्तितो भरतमुख्यसूरिभिः॥ ॥ इति सात्त्वतः ॥ [२] 20 1 ABO विधेरेप। 2 ABO सात्वितः । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षगण्यः] भू० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण २ वार्षगण्यविषयोऽपि दृश्यतेऽप्येवमेव फलकस्य संभ्रमः। पृष्ठतो निगदितस्त्विहाधिका स्कन्धदेश अथ वक्षसि स्फुटम् ॥१० शस्त्रहस्तविषयं तथा किलोद्वेष्टनं निगदितं तथा पुनः। हृत्प्रदेशविषयं च तद्विदा शस्त्रपातनमिहोदरीकृतम् ॥ ११ :: . . . ॥ इति वार्षगण्यः ॥ [३॥] भारतेन गदितस्तु कैशिकः शस्त्रपातनविधिस्तु मूर्द्धनि।' ॥ इति कैशिकः ॥ [४] 15 सौष्ठवान्विततनुःसुशिक्षितो न्यायवर्णममुमाश्रितो नटः ॥१२ शक्तितोमरशरासनादिकान्यायुधान्यपि समाचरेत् सुखम् । सौष्ठवं वरभुशन्ति तद्विदो येन तेन हि विना कृताः परम् ॥१३10 युद्धकर्मणि च नर्तनेऽपि वा नैव भान्ति निखिलाः प्रविचाराः । न प्रहारविधिरत्र वास्तवः संज्ञयैव निखिलो विधीयते ॥ १४ तं प्रहारमथवान दर्शयेदिन्द्रजालिकमथान मायया। एते न्यायाः प्रयोक्तव्याश्वारीभिः शस्त्रमोक्षणे ॥ १५ ॥ इति न्यायलक्षणम् ॥ . 15 पेरणीलक्षणम् । श्वेतचन्दनकर्पूरभस्माचक्तकलेवरः। शिखावान् मुण्डितशिरा लसत्पुष्पावतंसकः ॥ कणर्घरिकाजालजवाजङ्घालविभ्रमः । लयतालकलाभिज्ञः पञ्चाङ्गज्ञानपण्डितः॥ जितश्रमोऽश्लथश्लिष्टसंधिस्ताण्डवपण्डितः। दक्षः कलासु सासु सभाजनमनोहरः॥ सुरेखो नृत्यशास्त्रज्ञश्चण्डः शारीरपेशलः। सभावरससंयुक्तं यो नृत्यते?ति) स पेरणी॥ घर्घरो विषमं गीतं कविचारस्तथैव च। भावाश्रयश्च व्याचष्ट पञ्चाङ्गानि नृपोत्तमः॥ तत्र घरिका वाद्ये वहनिर्घरो मतः। तस्य भेदाः षडेवात्र पडिवाडस्तदादिमः॥...... .: 1. ABO जिताश्रमो। ... ... : Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ नृ० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण २ . परिवार ततश्चापडपश्चैव शिरिपिट्यपि संज्ञितः। . . . . . . ततश्चालगपाटः स्यात्ततः शिरिहिरातयः॥ ततः खुलहल(?लहुल)श्चेति तल्लक्ष्म व्याहरेऽधुना।... प्रपदेन भुवि स्थित्वा पाया पार्षिणद्वयेन वा ॥ ___ क्रमेण कुट्टनं भूमेः पडिवाड इति स्मृतः। ॥ इति पडिवाडः ॥१॥ भूमेनिकुट्टनं पादतलाचापडपो भवेत् ॥ ॥ इति चापडाप]ः॥२॥ :: .. : भूलग्नतलपादस्य सरणं यत्पुरो भवेत् । 10 .. तथापसरणं पश्चान्मुहुः शिरिपिटी भवेत् ॥ .... ॥ इति शिरिपिटी ॥३॥ .:क्रमेण पादयोयोनि कोमलं यत् प्रकम्पने । . .. स ह्यलगवाड(पाटः)स्यादित्युक्तं नृत्यकोविदैः ।। ॥ इत्यलगवाडः (? पाटः)॥४॥ 15 विधायकं समं पादमङ्किरन्यः पुरो यदि । प्राहुः शिरिहिरं धीरास्तदा केचन तद्विदः ॥ ॥ इति शिरिहिरम् ॥५॥ प्रपदस्थितवामाझे पायोर्यत् कुट्टनं भुवः। .. तद्वत् स्थितस्य चान्यस्य भ्रमः सव्यापसव्यतः॥ योऽसौ खुलहुलुः प्रोक्तो घर्घरो नृत्यकोविदः । ॥ इति खुलहुलुः ॥ ६॥ सरतो युगपद्यत्र प्रपे(?पोदे स तु रुन्धकः॥ ॥ इति रुन्धकः ॥ ७॥ इत्यादयः प(प्र)धानेन घर्घराः शोभयान्विताः। तालानुगामिनस्तूह्याः सर्व एव विपश्चिता ॥..... सूची च नागवन्धश्च मुखबन्धोऽम्बुजासनम् । स(?)न्मुखावाङ्मुखी चैव पुनश्चैव हि सन्मुखी ॥ - Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ चित्रका नृ० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण २. पादास्फाली विलम्बी च हृदिगा जानुगा तथा । ...... चिरं विलोकितव्येति कला द्वादश कीर्तिताः॥ चित्रका पञ्चकारूढेत्येवं रेखा निधोदिता। , . सर्वगात्रेषु शिथिलो यदा नृत्यति केवलम् । चक्षुषा श्लाघ्यते वाद्यं(?) रेखा स्याचित्रिका तदा ॥ .. ॥ इति चित्रका ॥ घर्घरो मुद्रितं चैव बहुधा चाङ्गचालनम् । प्रचुरा हस्तचालिश्चेद्रखेयं पञ्चका मता ॥ ॥ इति पञ्चका ॥ गीताक्षरक्रमाद्वाद्यं तालमानेन वादयेत् । घर्घरा गृह्यते सर्वा रूढा रेखा तु सा मता ॥ ॥ इति रूढा॥ स्यादनोप्लुतिपूर्व यत्करणं विषमं हि तत् । ॥ इति विषमम् ॥ गीतं सालगमन स्याद्यदुक्तं गोण्डलीविधौ ॥ ॥ इति गीतम् ॥ नायको वर्ण्यते यत्रोत्तमः स कविचारकः। ॥ इति कविचारकः ॥ . भावाश्रयो वुधै यो विकृतार्थानुकारवान् ॥ ॥ इति भावाश्रयः॥ ॥ इति पेरणीलक्षणम् ॥ अथ पेरणितः सम्यग् वक्ष्ये पद्धतिलक्षणम् । संप्रदायविदो रङ्गभूमिदेशमुपागताः॥ गोण्डलीविधिवच्चात्र कुयुधिधिधिधीतितैः। ... गम्भीरध्वनिमातोद्यवादनं मिलिताश्च ते ॥ ततो विलम्बितलयं रिगोण्युटवणाश्रयम् । पादत्रयं वादयेयुर्द्विर्द्वि निःसारुतालतः ॥ ततो विकृतवाग्वेषभूषो रङ्गभुवं विशेत् । घोडका प्राज्यहास्यैकरसस्तस्मिन् प्रनृत्यति ॥ 20 । ४१ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 10 मुं० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण २ पेरणिपद्धतिः । रिगोण्युपशमेनाथ प्रनृत्यन् पेरणी विशेत् । ततः शान्तेषु वाद्येषु सहतालधरैः परम् ॥ ४२ गारुको वाद्यमानेऽथ ताले निपुणवादके। . यद्वा सरस्वतीकण्ठाभरणे मईलादिनः ॥ मनोहरे तालरसे(?रसे ताले) ध्वनौ च व्याप्तिमृच्छति । पेरणी प्रारभेणा(?ता)थ 'घर्घरान् पूर्वसूचितान् ।। ततो निबद्ध कविते कूटे वर्णसरेण वा। निःसारुणा च तालेन विषमं नृत्यमाचरेत् ॥ नृत्यन् सालगसूडेन रेखां च स्थापन तथा। हृद्यां च वहनी गीतनर्तनं दर्शयेत् क्रमात् ॥ विषमं च प्रहरणानुगमाभोगवादने । कविचारान् प्रकुरुते तथा भावाश्रयानपि । लोकमार्गानुसारेण ततोऽन्यानपि दर्शयेत् ॥ ॥ इति पेरणीपद्धतिः॥ वाद्येषु वाद्यमानेषु करणैरञ्चितादिभिः । दुष्करैः शस्त्रधाराथ(?पोवञ्चनैर्धमणैरपि ॥ प्रांशुवंशोपरिगतैर्वरनाचित्रचंक्रमः। उच्चैः पक्षिवदुड्डीनै दङ्गपरिवर्त्तनैः ॥ नर्त्तनैर्विषमैरेवमादित्यमाचरन् । शस्त्रसंकटसंपाते छुरिकानर्तनादिषु ॥ भ्रमर्यादिषु च प्रौढो रज्जुसञ्चारचञ्चुकः। भारस्य भूयसो वोढा वुधैः कोह्लाटिकः स्मृतः ।। ॥ इति कोह्लाटिकः ॥ पेरणीव नटो नारी नर्तयन्नतकोऽपि च । 25 कोह्लाटिकः प्लुतिं कुर्वन् यद्वैरी स्यात्पलायनात् ॥ . . इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णविरचिते सङ्गीतराजे नृत्यरत्नकोशे प्रकीर्णकोल्लासे न्यायादिपरीक्षणं द्वितीयं [ समाप्तम् ]:.:., 15 ___ 1 Kumbha in भ. को. पृ. ८९० पेरणी पारभेन्नाट्यं घर्घरान् पूर्वसूचितान् । : ततो निवद्ध कविते गूढे वर्णसरेण वा ॥ 2 ABहा। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लास्याङ्गानि ] नृ० २० को०- उल्लास ४, परीक्षण ३ चतुर्थोल्लासे तृतीयं परीक्षणम् । येनाह्लादयितुं विश्वं ससुरासुरमानवम् । शिक्षिता पार्वती लास्यं तमानन्दघनं नुमः ॥ * [ अथ लास्याङ्गानि । ] स्थित पाठ्यं द्विमूढाख्यं त्रिमूढं पुष्पमण्डिका । प्रच्छेदकः शेषपदमासीनं सैन्धवं तथा ॥ उक्तप्रत्युक्तकं तद्वदुत्तमोत्तमकं तथा । वैता (भा) विकं च त्रिपदं लास्याङ्गानि दशद्वयम् ॥ विरहानलतप्ताङ्गीमदनोन्मीलनीकृता । पठेत् प्राकृतमासीना स्थितपाठ्यं तदीरितम् ॥ यथा 'यं एसो विरह पहावजणिओ अग्गी तनुं तावए जं पंकेरुह चंदचंदणरसा व (? वे ) दंति नो शीयला । जं इहि मह मन्महेण हिययं मोहंदकूमेव ( धकूवेठि ? ) दं तं एवं सह वलण चरिदं संच्छा (ठा) णसंदंशितं ॥ * 'अंगाई पुंखिदशिलीमुहजज्जराई जं निम्मियाइं मयणेण महाउहेण । एअस्स पावहियअस्स महप्पसाओ धित्तूण दोसमलियं पय (इ) णो गयासी ॥ * 1 BO 'दीरि यथा । 2 य एष विरहप्रभावजनितोऽग्निस्तनुं तापयति यत् पङ्केरुहचन्द्रचन्दनरसा वेदयन्ति नो शीतलाः I यदिदानीं मम मन्मथेन हृदयं मोहान्धकूपे स्थितं तदेतत्सह वल्लभेन चरितं संस्थान संदर्शितम् ॥ 3 मदनप्रभुकोपतापिताया मम भीतायाः कुरङ्गलोचनायाः । सखि वल्लभसङ्गवञ्चितायाः शरणं पद्मदलानि जीवस्य ( १ ) ॥ 4 अङ्गानि पुतिशिलीमुखजर्जराणि यन्निर्मितानि मदनेन महायुधेन । १९९ एतस्य पापहृदयस्य महाप्रसादः गृहीत्वा दोषमलीकं पतेः गताऽऽसीत् ॥ १ ६ 15 * "मयणप्पहु कोचता विदाए मह सीदाई (? भीदाए) कुरंग लोअणाए । सहि वल्लहसंग वंचिदाए शरणं पुम्मदलाई जीयसा ( स ) ॥ २ ३ 5 ४ 10 ८ 20 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० 10 नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ [विमूढम् 'अंगाइ शुंखलिद कंपविमोहचिंता-... निदातणुत्तकुसुमाउहकंसिदाइ । एसा वि तत्थ रयणी शशिकालकूट दंसेइ किं सहि कुणेमि पिवप्पदा(वा?)से ॥ 'मोणं करिऊण मया शहियण मज्झस्मि रक्खियो अप्पा। तहवि हले मह वयणे महाअ]रचरिओ पया(वे)सए दुअणो॥ ॥ इति स्थितपाव्यम् ॥ १॥ श्लिष्टभावपरं वाक्यं तथा युक्तपदक्रमम् । मुखप्रतिमुखोपेतं विचित्रार्थ द्विमूढकम् ॥ यथाअङ्कुरितां मम हृदये प्रेमलतां रमणजलधरो मुदितः।। सिञ्चति जीवनरचनैरिह वचनैरुन्नतिं नेतुम् ॥ नीरक्षीरितचुम्बितानि रचयन्नुत्तालचेतोभुवा, __ दन्तग्राहमनिन्दिताधरपुटे दष्टो मया वल्लभः । ग्रामीणः परिहत्य माठपवने यातस्ततोऽनन्तरम् , मातर्मूर्च्छति मीलति प्रचलति प्रोत्करूपते मे मनः ॥ १३ ॥ इति द्विमूढम् ॥२॥ . यद्वाक्यं नैकभावार्थ समवृत्तमलऋतम्। .. ललिताक्षरबन्धं च त्रिमूढं तत् प्रकीर्तितम् ॥ यथाभयहर्षरोषरोदनवदनसंभेदनानि कुर्वाणौ। सरसङ्गरसंगमिनौ जितमिति नौ मन्मथो हसति ॥ 1 अङ्गानि शृंखलितानि कम्पविमोहचिन्तानिद्रातनुत्वकुसुमायुधकर्षितानि । एषापि तत्र रजनी शशिकालकूटं दंशयति किं सखि करोमि प्रियप्रवासे ॥ 2 मौनं कृत्वा मया सखिजनमध्ये रक्षित आत्मा। तथापि हले मम वदुने मधु[क]रचरितः प्रविशति दुर्जनः॥ 3 ABO °क्षिरित। 15 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमण्डिका] .:४० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ २०६ - कुचोन्नमनचातुरीचलितकञ्चलीवन्धया,:::: : कपोलपुलकावलीकलितयाऽऽयतापाङ्गया। .. विमोटनविवर्त्तने विदितसन्धया संगमे त्वयाभि'लषिते कथं सुमुखि मानमालम्बते?से)॥ १६ ॥ इति त्रिमूढम् ॥ ३॥ नर्तक्या विविधं यत्र गीतं वायं च नर्तनम् ।। । नमो(?मनो)वाकायचेष्टाभिहीनं स्यात् पुष्पमण्डिका ॥ १७ [॥ इति पुष्पमण्डिका ॥ ४॥] चन्द्रिकातपसंतप्तास्त्यक्तलजाः स्नुलोचनाः। प्रियान् कृतापराधान् वै यान्ति प्रच्छेदकस्तु सः॥ १८10 यथा। सखि स्फुरति यामिनी शशिनमुन्नमय्यांशुभिः । . ज्वलद्भिरिव मामयं स्पृशति मानमुन्मूलयन् । अतो विगतलजया सुरतसंगरे सज्जया ममापि विदितागसं प्रियमुपासितुं गम्यते ॥ १९॥ ".. 115 ... असौ हरिणलाञ्छनच्छलविकाशिहव्याशनो . वा(?व )नान्तरमिवान्तरं मम विलीलमा(नतामं?)गति । अतोऽन्यवनितारतं रमणमप्रियेऽपि स्थितम् .. व्रजामि सखि रोधिनीमपनयामि लज्जामपि ॥ ॥ इति प्रच्छेदकः ॥५॥ यत्रासने सुखासीनास्तव्याद्यातोद्यवादने । ..... गायन्ति गायकाः खैरमाहुः शेषपदं हि तत् ॥ २१ ॥ इति शेषपदम् ॥ ६॥ ... चिन्ताशोकाकुलत्वेन वाक्ये च (?चा)न्तिनयेऽपि च । विमूढाः खण्डिताः कान्तास्तदासीनमिहोच्यते ॥ २२ 25 यथा-. . प्रसरति दिनमणितेजसि विगलति तमसि प्रकाशिते नभसि । अपनीताधररागं पश्य वयस्य समागते रमणम् ॥ २३ '1 ABC त्वयमि। २६ नृरत्न.. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ नृ० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ . सैन्धवम् ता(?भा)लेऽलक्तकमञ्जिताधरभुरः कर्पूरमुद्रं वहन् निःशकं पतिरभ्युपैति वियति प्रत्यग्रसूर्योदये। चिन्तासागरसंनिमग्नमनसा नीता मया यामिनी किं कुर्वे सखि कैतवं कलयता मुग्धामुना वञ्चिता ॥ २४ ॥ इत्यासीनम् ॥ ७ ॥ यत्र पाठ्यं विना नाट्यं भाषा सैन्धवदेशजा। ... पात्रमुत्समयं यत्र तत् सैन्धवमिहोदितम् ॥ .:.:...: ॥ इति सैन्धवम् ॥ ८॥ .. 15 : : साधिक्षेपपदं यत्र स विचित्रार्थगीतकम् । ....... 10 : प्रसादकं मर्षितस्येत्युक्तप्रत्युक्तकं मतम् ॥ यथा प्राप्तो वसन्तसमयः समयानभिज्ञ रोषं परित्यज भजख मयि प्रसादम्।। उत्तुङ्गपीवरकुचद्वयभूरिभारा माराधितोऽपि न हि रक्षितुमीहसे माम् ॥ उदेति हिमदीधितिर्वहति गन्धहारी हरि.. श्चरन् कुमुदकानने [स्मरपयोनिधिर्वर्धते । इम समयमुल्बणं परिकलय्य मां व्याकुलां: प्रसीद चरणानतां कठिन कातरां पालय॥ ॥ इति उक्तप्रत्युक्तम् ॥९॥ यत्राभिनयवाहुल्यं नानाभावमनोहरम् । . वाक्यं नैकरसं चित्रमुत्तमोत्तमके भवेत् ॥ यथा- .. . ...... ....... . सहर्षमवलोकनं विहितभीतमालिङ्गन सरोषमपि भाषणं सजललोचनं रोदनम् । :: इति प्रथमसंगमे चतुर चित्तचेतोहरो.. विचित्ररससंकरो जयति कोऽपि वामभुवः ॥ ३ १४ वेषे लेप्यनितम्बिनीमनुहरत्यम्भोजिनी नेत्रयोः .:: भ्रूभङ्गे स्मरकार्मुकं कुचयुगे तत् कुम्भिकुम्भद्वयम् । ___1 ABO रोचनं । 2 ABO repeat चित्त । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वैभाविकम् ] नृ०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ वाण्यामन्यभृतां तथा च धरणीं श्रोण्या मियं भामिनी सृष्टिर्मन्मथनिर्मिता रसमयी वाभाति भूमण्डले ॥ ३१ ॥ इति उत्तमोत्तमकम् ॥ १० ॥ कान्ते खप्नोपलब्धेऽपि यत्र कामवशं गता। . : .. विभावान् विविधान् यत्र कुर्याद्वैता(भा)विकं हि तत् ॥ ३२ यथाअद्याकर्णय नैशिकं सखि मया कान्तश्चिरं प्रोषितो। नेत्रा(?निद्रा)मुद्रितनेत्रयापि शयने साक्षादिवावेक्षितः। मायासङ्गमभङ्गभी रुतरयेवोन्मज्य लज्जाजलात् : . कण्ठग्राहमनन्दितः परिवृतःप्रोल्लासितोमोदितः॥.. ३३ 10 ... उचति(?उचित) माचरितं मम निद्रया शशिशरीरसमाहितमुद्रया। अथ सजातजनाकथितः पतिः परपुरादपहृत्य समर्पितः॥ ३४ ॥ इति वैभाविकम् ॥ ११॥ आकारमपि कान्तस्य पश्यन्ती कामपीडिता। ... यत्र खिद्यति दुश्चित्ता प्रिया चित्रपदं हि तत् ॥ ३५15 यथाकान्तं चित्रपदे(?टे) विलिख्य विदधे यावत्तदालापन लब्धो जीवन वासरैः कतिपयैस्त्यक्ष्यामि न त्वामिति । -: तावन्मजन (? द) नल्पवाष्पसलिले संभिन्नभिन्नाक्षरम् क्षे(?खे)दखेदकपाटकोटिघटितं कण्ठे विशीर्ष(?ण) वचः॥३६ 20 मया सखि विलोकितो रमणसन्निवेशं वहन् । इतो विषमसायकः कचन शिल्पिना कल्पितः । । ततः स मयि रोषवानथ विभाव्यमानोऽथ वा महेशकृतिरीहशी विरहितो(?ता) मोहिनी जृम्भते ॥ ३७ ॥ इति चित्रपदम् ॥ १२ ॥ ॥ इति द्वादशमार्गलास्याङ्गानि ॥ . [देशी लास्याङ्गानि ] .... सौष्ठवं स्थापना तालो लढिश्चालिश्चलाचलिः। सुकलासं थरहरं किंतूल्लासं उरोङ्गणम् ॥ . 1 AB श्रोन्यां2 AB भावाति । 3 ABO °भङ्गमभीरु°। 4 ABO अथ सज्जनजना- कथितः पतिः। 5 ABO अकार° | 6 B0 स्थापयेना। . ...! Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ नृ० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ . [सौष्ठवम् ढिल्लायी त्रिकलिर्भावो देशीकारं निजापणम् । अङ्गहारो मनष्टेवा लयो मुखरसस्तथा ॥ .. थसको वितडं शङ्का नीकीनमनिकापि च । विवर्त्तनं मरणता विहली गीतवाद्यता॥ 5 . विलम्विताभिनयावहानङ्गं कोमलिकापि च । .... . तूकमूयार एतानि षट्त्रिंशत्संमितानि च। ....४१ देशीयलास्यकाङ्गानि राजराजो न्यरूरुपत् ॥ :: सौष्ठवं यत् पुरा प्रोक्तं तस्य पात्राङ्गुलैस्तु या। : ४२ चतुभिरष्टभिश्चैव यद्वा द्वादशभिस्त्रिधा॥ .. 10 - खर्वता जानुकट्यूरुकण्टेष्बीर्येच्छयाथ वा। तत्तदेशानुसारेण तत् सौष्टचमिहोदितम् ॥ ....... ... ॥ इति सौष्टवम् ॥ १॥ ::: यच सामग्र्यसंपत्तौ कुतपे प्रगुणीकृते। स्वस्थाने स्थापयेदङ्गं नर्तकी स्थापना तु सा॥ ॥ इति स्थापना ॥२॥ ईषन्मन्दानिलचलत्पद्मपत्रोदविन्दुवत् । यत्राङ्गनाइसंचारो भाति तालः स उच्यते ॥ .. . ..... ॥ इति तालः ॥ ३॥ . .... : 16. सुकुमारं सुमधुरं सदिलासं च चालनम्। 20 युगपत् बाहुकट्यूरु त्र्यसत्वे लढिरुच्यते ॥ केचिदानन्दसंदोहं सङ्गीतप्राप्तिसंभवम् । .. सौन्दर्यातिशयोपेतं कर्माहुर्लढिसंज्ञितम् ॥ . ॥ इति लतिः॥४॥ युगपन्नाभिकट्यूरुपादानां सविलासकम् । नातिमन्दद्रुतं तालसाम्यान्माधुर्यपेशलम् । चालनं चालिरित्युक्ता त्वचलस्थितिभूभृता ॥ ॥ इति चालिः ॥ ५॥ 25 ...1 ABO प्योरू | 2:ABO सौन् । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलाचलिः] ... नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ चलाचलिश्च सैवोक्ता शैम्यसांमुख्यनिर्भरा। :: : ॥ इति चलाचलिः ॥ ६॥ लास्याङ्गानि सचारीणि पादादीनां च चालनम् ॥ ..... कृत्वातिप्रौढितों यत्र गीतवाद्यादिमेलनम्। मध्ये मध्ये नटी कुर्यात् सुकलासं तदा स्मृतम् ॥ केचित् स्थानकचारीणां हस्तकाधकस्य च । . गीतवाद्यलये मेलं कलासमभणन् बुधाः॥ ॥ इति सुकलासः ॥ ७ ॥ नृत्यन्ती नर्तकी यत्र भुजावधि विलासिनी। ...::. कुचयोः कम्पनं कुयोच्छीघं थरहरं तु तत् ॥ ॥ इति थरहरम् ॥ ८॥ ५२10 गीततालसमं यत्र कटिकुं(?कु)चभुजादिनः। .. नर्तकी चालनं कुर्यात् लास्याङ्गं किन्तु तत्स्मृतम् ॥ ॥ इति किन्तु ॥९॥ ५३ ।। 16 ५५20 भावप्रकाशकैर्यत्र(? श्लथै) रङ्गोल्लासैर्मुहुर्मुहुः ।...... सूक्ष्मद्विस्त्रिगुणैवापि द्रुततालान्निरूपितात्। . . स उल्लासो यत्र पात्रं मनो हरति दर्शयत् ॥ ॥ इत्युल्लासः ॥ १० ॥ अग्रतः पृष्ठतोऽधस्तादूर्ध्व वा चालनं भवेत् । ..... . तालमानेन कुचयोः स्कन्धयोर्युगपत् क्रमात् ॥ विलम्बेनाविलम्बेन तदुरोङ्गणमुच्यते। ....... विलम्बितं द्रुतं वापि ललितं यत् कुंचांशयोः। ललिते चालने तिर्यक् केषांचित्तदुरोंगणम् ॥ ॥ इत्युरोङ्गणम् ॥ ११॥ यत्राझं नर्तकी नृत्ये सहेलाभावमन्थरम् । .. 1 BG यत्रर्तुलिगो। 2 CF नर्तक्यास्त्वरया तालाद् द्विगुणत्रिगुणैस्तदा । भावा.. भिव्यञ्जकैः सूक्ष्मैललितैः श्लथवन्धिभिः । अङ्गैरुल्लसनैर्युक्तमुल्लासं संप्रचक्षते । वेमः in भ. को. पृ. ८५. ... ... .. 25 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ 5 10 15 20 25 नृ० २० को०- उल्लास ४, परीक्षण ३ किञ्चित् सौष्ठव माधुर्यविलासं भावभाविता । कुरुते कथिता सा तु ढिल्लायी लास्यकोविदैः ॥ ॥ इति दिलायी ॥ १२ ॥ * लयतालानुगैर्यन शिरोभिः पञ्चभिर्नटी । विधुताकम्पितधुत परिवाहित कम्पितैः ॥ चाय वा स्थानके वापि प्रेक्षकाणां मनो यदा । तद्गतं कुरुते सोता त्रिः कलिः कलिनोदिना ॥ ॥ इति त्रिकलितः ॥ १३ ॥ यत्र नृत्यानुगं गीतं नाट्यं च लयसुन्दरम् । पश्यन्ती हर्षमासाद्य पुष्यतीव कलाङ्करान् । स्वभावं साललं नृत्ये स भावो भावनोदितः ॥ ॥ इति भावः ॥ १४ ॥ * [त्रिकलितः हस्ताद्यङ्गक्रियायोगादभ्यखा (स्ता ) दन्य एव यः । कोsप्यपूर्वी गुणः सूक्ष्मो लयन्त्रितयपेशलः । नानाभावयुतस्तज्ज्ञैर्मन इत्यभिधीयते ॥ ॥ इति मनः ॥ १८ ॥ ६७ अग्राम्यं सुन्दरं नानादेशरीतिसमन्वितम् । तत्तदेशानुसारेण देशीकारं तु नर्तनम् ॥ ६१ ॥ इती देशीकारम् ॥ १५ ॥ * कटाक्षौ यत्र नर्त्तक्याः सोत्तरङ्गौ खभावतः । नानाभावालिङ्गिताङ्गौ नृत्ये ठेवेति कीर्त्तिताः ॥ इति ठेवा ॥ १९ ॥ ५९ रेखा सौष्ठवसंयुक्तं हस्तकानुगदृष्टिकम् । नायकेच्छानुगं नृत्यं निजापणमिति स्मृतम् ॥ ६२ ॥ इति निजापणम् ॥ १६ ॥ ६० e पूर्वोत्तरार्ध योदेहे चापवलुलितानतिः । तालमानसमायुक्तो सोऽङ्गहारः स्मृतो बुधैः ॥ ६३ ॥ इति अङ्गहारः ॥ १७ ॥ bow ६४. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लय] न० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ २०७ .:. नृत्यन्ती यल्लये कापि वेगाचेदपरौ लयौ। साश्चर्य योजयेन्नृत्ये नर्तकी स लयः स्मृतः॥ ॥ इति लयः ॥ २०॥ .. ... यद्रसं तनुते नृत्यं तद्रसानुगुणं सुखम् । '. .. पात्रं वर्णविपर्यासात् कुर्यान्सुखरसस्तदा ॥ ॥ इति मुखरसः॥ २१ ॥ थसका स्यात् सललितं स्तनाधोनयनं लयात् । ... ॥ इति थसकः ॥ २२ ॥ यच्चारीकरणाचं स्यात् स्वभावाल्ललितं बलात् ॥ .. .. ६८ । कुरुते कठिनं तद्धि वितडं कीर्तितं बुधैः । .............. 10 ॥ इति वितडम् ॥ २३ ॥ पूर्वमौद्धत्यतो यन्त्र व्यापार्याङ्गानि नर्तकी॥... सविभ्रमं पुनस्तानि पुरतः पार्श्वयोरपि। आहरन्ती वश्चयते जनं शङ्का तदोदिता॥ ॥ इति शङ्का ॥ २४ ॥ त(?य)दा स्थानर्तकी नीकी सङ्गीते सलये तदा। :: स्खलितावर्जिता रङ्गे नृत्यनीतिविदो विदुः ।। ... . .॥इति नीकी ॥ २५ ॥ सोक्ता नमनिका यस्यां प्रयासेन विना नतिः। .. दुष्करेषु प्रयोगेषु नर्तक्यङ्गेषु दृश्यते ।। ७२ 20 ॥ इति नमनिका ॥ २६ ॥ हस्तकैर्धमरीभिश्च चारीभिः करणैरपि । वाद्यप्रबन्धवर्णानां समत्वेनैव नर्तकी ॥'.... ... ७३ कोनत्यमिदं प्रोचुनॆत्याभिज्ञा विवर्तनम् ।.... .. ॥ इति विवर्तनम् ॥ २७ ॥ . तदा महणता यत्र शृङ्गाररससंभृता। दृष्टिः प्रकाश(इयोते नट्या नृत्यहस्तकसंयुता॥ ॥ इति मझुणता ॥२८॥ 15 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ 5 10 15 20 25 नृ० ० कौ० - उल्लास ४, परीक्षण ३ विहसी स्यात् स्मितं वक्रं पद्मसौन्दर्यपेशलम् । ॥ इति विहसी ॥ २९ ॥ * सा गीतवाद्यता नृत्येन्नर्तक्यनुगुणं यदा ॥ वर्णानां च यस्यापि तथा च गीतवाद्ययोः। ॥ इति गीतवाद्यता ॥ ३० ॥ : * यत्र विश्रम्य विश्रम्य लङ्घयन्ती मुहुर्मुहुः ॥ वाद्यस्यावयवान्नृत्ये नर्त्तकी तद्विलम्बितम् । ॥ इति विलम्वितम् ॥ ३१ ॥ भावसंसूचकैरङ्गैर्नर्तकी यत्र नृत्यति ॥ यथावत् करणैरुक्तोऽभिनयो नयकोबिदा । ॥ इत्यभिनयः ॥ ३२ ॥ अङ्गं लास्याङ्गकं प्रोक्तं ताण्डवाङ्गमनङ्गकम् ॥ यत्र नृत्ये द्वयोर्योगस्तदङ्गानङ्गसंज्ञकम् | ॥ इत्यङ्गानङ्गम् ॥ ३३ ॥ * ज्ञेया कोमलिका यत्राङ्गानां स्याद्वलनादिभिः ॥ क्रियाभिश्वेतसो यत्र दृश्यते तु परार्द्रता । ॥ इति कोमलिका ॥ ३४ ॥ * लयेन चलनं यत्र लसल्लीलावतंसकौ ॥ चलत्वेनाचलत्वेन हावप्रचुरतायुतम् । यत्र कर्णौ प्रकुर्वते तत्तृकं मुनयोऽवदन् ॥ ॥ इति तूकम् ॥ ३५ ॥ * शोभावलितसर्वाङ्गा नृत्यस्यावयवा यदा । पूर्वपूर्वमुपक्रान्ता वत्तैरनुत्तरोत्तरम् । तालप्रयोगचातुर्यात् स उयारो बुधैः स्मृतः ॥ ॥ इति उचारः ॥ ३६ ॥ * अमरीश hmon [विहसी अन्या अपि भिदाः सन्ति देशीलास्याङ्गसंभवाः । न ता इहोपदिश्यन्ते यतः साध्याः खबुद्धिभिः ॥ ७६ ७७ ७८ ७९ ८० ८१ ८२ ८३ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानागतिप्रचारनृत्यम् ] मुं० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ यथा यथा भवेद्रक्तिः पश्यतां सचमत्कृतिः। ... तथा तथा विधातव्यं सङ्गीतमिति सङ्ग्रहः ॥ . . ... ॥ इति देशीलास्याङ्गानि ॥ [नानागतिप्रचारनृत्यम् ।। 'अथ नानागतिप्रचारनृत्यम् । यथा चाह भगवान् श्रीभरताचार्य:- 5 तत्रोपवहनं कृत्वा भाण्डवायपुरस्कृतम् । यथामार्गरसोपेतं प्रकृतीनां प्रवेशने ॥ ध्रुवायां संप्रवृत्तायां पटे चैवापकर्षिते। कार्यः प्रवेशः पात्राणां नानार्थरससंभवः॥ ' रङ्गे विकृष्टे भरतेन कार्यों गतागतैः पादगतिप्रचारः। ज्यस्रस्त्रिकोणे चतुरस्ररङ्गे गतिप्रचारश्चतुरस्र एव ॥ ऋषय ऊचुः यदा मनुष्या राजानस्तेषां देव गतिः कथम् । अथोच्यते कथं नेया गती राज्ञां भविष्यति ॥ इह प्रकृतयो दिव्या [तथा च दिव्यमानुषी। मानुषी चेति विज्ञेया नाट्यत्तक्रियां प्रति ॥ देवानां प्रकृतिर्दिव्या राज्ञां वै दिव्यमानुषी। या त्वन्या लोकविदिता] मानुषी सा प्रकीर्तिता॥ देवांशजास्तु राजानो वेदाध्याये सुकीर्तितम् । एवं देवानुकरणे दोषो ह्यत्र न विद्यते ॥ दूतीदर्शितमार्गस्तु प्रविशेद्रङ्गमण्डलम् । तस्याद्य (? स्माच) प्रकृति ज्ञात्वा भावं कार्य च तत्त्वतः । गतिप्रचारं विभजेन्नानावस्थान्तरात्मकम् ॥ ९२० . 1 ABO अथ देशीनृत्यभेदाः । A has the same reading but there are marks of delition on it. 2 ABO ताण्ड cf भाण्डवाद्यपुरस्कृतम् ना. शा. अ. १२ श्लो.२ (G.O. S.). 3 ABC °पेत प्र° cf यथामार्गरसोपेतं ibid. 4 'ABO सुरतेन कायो। cf रङ्गे विकृष्टे भरतेन कार्यों । ना. शा. अ. १२ श्लो. २० (G. 0. S.). 5 AB0 यथा । of अ. १२ श्लो. २५ । 6 ABC वेद । cf यदा मनुष्या राजानस्तेषां देवगतिः कथम् । ना. शा. अ. १२ श्लो. २५ (G. O. S.). 7 ना. शा. नैषा । 8 inserted from ना: शा. अ.१२ श्लो. २५-२६. नि. सा. 9 तस्मात्तु । ना. शा. अ..१२ श्लो. १४२ (G. 0.S.)............ .......: ... २७ नृ० रत्न० . Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 मुं० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ [नांनागतिप्रचारनृत्यम् म्लेच्छानां जातयो यास्तु पुलिन्दाचा द्विजोत्तमाः।.. तेषां देशातुरूपेण कार्य गतिविचेष्टितम् ॥ पक्षिणां श्वापदानां च पशूनां च द्विजोत्तमाः। स्वस्वजातिसमुत्थेन भावेन प्रतियोजयेत् ॥ सिंहःवानराणां च गतिः कार्या प्रयोत्कृभिः । या कृता नरसिंहेन विष्णुना [प्रभविष्णुना] ॥ .. आलीढं स्थानकं कृत्वा गानं तस्यैव चानुगम् । जानूपरि करं त्वेकमपरं चैव वस्थितम् ॥ अवलोक्य दिशः सर्वाश्चिवुकं बाहुभस्तके। गन्तव्यं विक्रमैविप्राः पञ्चतालान्तरोत्थितः ॥ .. : शेषाणामर्थयोगेन गतिं स्थानं प्रयोजयेत् । शेषं स्थानं प्रयोगेषु रजावतरणेषु च ॥ एवमेते प्रयोक्तव्या नराणां गतयो वुधैः । . नोक्ता याश्च मया ह्यत्र ग्राह्याश्चापि हि लोकतः ॥ अतः परं प्रवक्ष्यामि स्त्रीणां गतिविचेष्टितम् । ....... स्त्रीस्थानकानि कार्याणि गतिष्वाभाषणेषु च ॥.... आयतं चावहित्थं च अश्वक्रान्तमथापि वा। ........... स्थानकं तावदेव स्याद्यावचेष्टा प्रवर्तते। .. भग्नं च स्थानकं नृत्ये चारी च समुपस्थिता ॥.... यो विधिः पुरुषाणां हि कार्यों नाट्यप्रयोक्तृभिः।। स्त्री पुंसः प्रकृतिं कुर्यात् स्त्रीभावं पुरुषोऽपि वा ॥... धैर्योदार्येण सत्त्वेन बुद्धया तद्वच कर्मणि । ... स्त्री पुंभावमभिनयैर्दिशेद वाक्यविचेष्टितैः ॥ स्त्रीवेषचरितैर्युक्तः प्रेक्षिताप्रेक्षितैस्तथा। . मृदुमन्तर्गतैश्चैव पुमान् स्त्रीवृत्तमाचरेत् ॥ गतिप्रका(?चा)रस्तु भयोदितोऽयं . नोक्तश्च योऽभ्यासवशेन साध्यः । ...अतः परं रगपरिक्रमस्य . वक्ष्यामि कक्षान्तरसंविधानम् ॥ ॥ इति नानागतिप्रचारनृत्यम् ॥ 15 20 2 30-:"::: . .. ..... .1 ABO जायते । of म्लेच्छानां जातयो यास्त । ना. शा. अ. १२ श्लो. १५१. (G. 0. S.). 2 inserted from. ना. शा. अ. १२ श्लो. १५४, (G.O.S.). . Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवप्रियम् ] नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ २११ [देशीनृत्यभेदाः।] .. अथ देशीनृत्यभेदाः प्रदर्श्यन्तेऽन्न केचन । .... आतोद्यैर्वाचमानेषु यतिप्रहरणादिषु । रुद्रभक्ताः स्त्रियो यद्वा पुमांसः सौष्ठवान्विताः॥ १०६ 'रुद्राक्षवलया भस्मत्रिपुण्ड्राः शिवरूपिणः । कोणान् दक्षिणवामेन सान् कांस्यादिनिर्मितान् ॥ . १०७ बहुसङ्गमि?भङ्गिम)लोहारि गायन्तः श्रेणिभिः शिवम् ।। कदाचित्सम्मुखीभूय लास्याङ्गैरुपबृंहितम् । यत्र नृत्यन्ति तत् प्रोक्तं शिवप्रियमिह स्फुटम् ॥ १०८ ॥ इति शिवप्रियम् ॥ १॥ नर्तनं यन्मया प्रोक्तमांसारिताभिध पथि। चारीभिर्मण्डलैश्वापि लास्याङ्गैरुपबृंहितैः॥ देशीतालैश्च संयोज्य तचेदन प्रवर्त्यते । तदा रासकसंज्ञं स्यादिति नृत्यविदो विदुः॥ ११०।। . : [॥ इति रासकनृत्यम् ॥ २॥] यत्र स्त्रीभिर्वसन्तौ नृत्यतेऽभिनयात्मकम् । .. वसन्तरागसंवद्वैगीतैरौद्धत्यवर्जितम् । - चरितैश्चित्रितं राज्ञस्तदुक्तं नाट्यरासकम् ॥ [॥ इति नाट्यरासकम् ॥ ३] यत्र राज्ञः पुरो नार्यश्चतस्रोऽष्टाथ षोडश। द्वात्रिंशद्वा चतुःषष्टिराधाय करपङ्कजैः॥ दण्डौ सुवृत्तौ मसृणौ सुवर्णादिविनिर्मितौ। अरनिसंमितौ दैर्घ्य स्थौल्येनाङ्गुष्ठसंमितौ ॥ अथ देशानुरागेण गृहीत्वा दण्डचामरे । .. .... दण्डक्षौमाञ्चले यद्वा च्छुरिकादण्डकावथ ॥ . . चतुर्भिः पञ्चभिर्घातैर्यद्वा खग(?षट्व)प्रहारजैः। सशब्दं घातभेदैश्च युग्मीभूय वियुज्य च ॥ अग्रतः पृष्ठतो वापि पार्श्वसंगतयापि च । 1 ABO °द्राख्य° 1 2 AB0 °तभिदांपथि of ताभिधां पथि Kumbha in भ, 20 ११२ ११३ . ११४25 को. पृ. ९२४..... . ....... . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ . [चर्चरीनृत्यम् घातभेदान वितन्वन्त्यश्वारीनमरिकादिभिः॥ ११६ चित्रैः सव्यापसव्येन मुहुर्मण्डलसंस्थया। ...... लयतालानुगं यन्न प्रत्यन्ति वराङ्गनाः। तदुक्तं नृत्यतत्त्वज्ञईण्डरासकनर्तक(? न)म् ॥ ... ॥ इति दण्डरासकम् ॥ ४॥ द्विपद्या वर्णतालेन चचर्या वा मनोहरैः। सलास्यैर्गतिदैश्च मण्डलीय सर्वशः॥ यत्र नार्यः प्रनृत्यन्ति प्राप्ते वासन्तिकोत्सवे। तालिकाभिरलं हृष्टा देशभूषाविभूषिता । 10 तदुक्तं चर्चरीनृत्यं रसरागलयानुगम् ॥ ॥ इति चर्चरीनृत्यम् ॥ ५॥ यत्र सौराष्ट्रदेशीया नार्यो नृत्यन्ति सुन्दरम् । तत्तद्देशीयभूषाड्या सिचयान्तावगुण्ठिताः ॥ मृद्वङ्गहारसुभगा देशकाकुभिरञ्चितान् । रागेनेष्टेन गायन्त्यो दोहकान रसनिरान् ॥ चारीभिर्धमरीभिश्च चरणैरुद्धतक्रियैः। ललितैः पदविन्यासैहस्तकैर्वहुभङ्गिभिः । यत्र तद्दोहकाख्यं स्यान्नर्तनं नर्तकप्रियम् ॥ ॥ इति दोहकनृत्यम् ॥ ६॥ अन्येऽप्युत्प्रेक्षितुं शक्या भेदा देशीयनृत्यजाः। राजराजोपदेशेन खयमूह्या बुधैश्च ते ॥ ॥ इति देशीनृत्यमेदाः ॥ __.. [ देशीनृत्यपरिभाषा । केचित् सालगसूडस्य भेदमन्यं प्रचक्षते। ध्रुवो मण्ठो 'रूपकं चाडतालो यतिरेव च ॥ प्रतितालस्तथा चैकतालीत्येवं स सप्तभिः। तत्र कल्पस्तथा तालग्रहन्यासाभिधानको ॥ यः पदादौ पदान्ते वा ह्यतीतः स्पर्शरञ्जितः। ..... स कल्पो भण्यते विद्भिः पदावन्यस्य च ग्रहः॥ 1 BG मूडूपकं । 2 ABC तालौ। ..... 15 20 25 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ नृत्याङ्गानि] नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ - य उदहादिधातूनां समाप्तिं ज्ञापयेदथ। तालताडनभेदोऽसौ ताल इत्यभिधीयते ॥ गीतादौ तु भवेत् कल्पस्तालः कल्पसमापने । मध्ये कलासो विज्ञेयः कैश्चिदेष विधिः स्मृतः॥ ॥ इति देशीनृत्यपरिभाषा ॥ [नृत्याङ्गानि । श्रुतितिं कलासश्च तालश्चेति चतुष्टयम् । 'इति देशीविदः प्राहुत्याङ्गानि समासतः ॥ ॥ इति नृत्याङ्गचतुष्टयम् ॥ [देशीगीतनृत्यविधिः। 10 आलस्यादिविभेदेन देशीनृत्यविधिक्रमः। पृथक् प्रदार्शतः कैश्चित् स एवानोपदिश्यते ॥ रङ्गप्रवेशे सजाते पार्श्वयोश्चतुरः करान् । अग्रत[:] षोडश त्यक्त्वा नर्तक्या गायकैस्ततः॥ १३१ ।। आलप्तौ क्रियमाणायां नर्तकी वामपाणिना। .. 15 धृत्वा चेलाञ्चलं दक्षे पताकं दधती करे । कलासैहावभावाभ्यां युतं भ्रमणमाचरेत् ॥ .. ॥ इत्यालप्तिनृत्यम् ॥१॥ अथानक्षरताले तु प्रवृत्ते गीतमानतः। संदंशं त्रिपताकाभ्यां नर्तकी नृत्यमाचरेत् ॥ . १३३ 20 ध्रुवनृत्ये यथौचित्यं षट् चत्वारोऽथ पञ्चधा।.... धातुद्वये द्विताली स्यात् कलासो हस्तकस्तथा ॥ १३४ खेच्छयात्र प्रकर्तव्य इति गीतविदो विदुः। षडुक्ता मन्त(?ण्ठ)का येऽत्र त्रिताली तेषु संस्थिता ॥ १३६ ॥ इति मण्ठकनृत्यम् ॥ २॥ पताकाद्याः कपित्थान्ता रूपकेऽष्टकरा ध्रुवम्। . ध्रुवे लयान् विलम्बादीनुद्वाहाभोगयो?तः ॥ ॥ इति रूपकनृत्यम् ॥३॥ .":...... 25 1 Kumbha in भ.को. (पृ. ८५४) drops this line. 2 ABO°दृश्यते । 3 अग्रतः षोडशः पञ्च नर्तक्यो गायकैः सह । Kumbha in भ. को. (पृ० ५७).. 4 to . संमतिः। 5 ABO: °गयोदु । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४. 5 10 111 15 20 25 नृ० १० को ० - उल्लास ४, परीक्षण ३ उद्ग्राहादिष्वडताले लयः कार्यों विलस्वितः । विकल्पतः कलासाः स्युः खटकामुखपूर्वकाः । सूच्यन्ता हस्तका द्वित्राः कार्या सर्वे ध्रुवे पदे ॥ ॥ इत्यड्डुतालः ॥ ४॥ 30 * यतौ ल्यास्त्रयः प्रोक्ता हस्तकाः षोडश क्रमात् । पद्मकोशादिदोलान्ता', ॥ इति यतिनृत्यम् ॥ ५ ॥ 5 प्रतिताले तु हस्तकाः ॥ कार्याः पुष्पपुटाद्यास्तु चतुरस्रावसानकाः । द्रुतो लयोsध मध्यो वा, ॥ इति प्रतितालनृत्यम् ॥ ६ ॥ अथ नवा ( ? ) [रसा] लिख्यन्ते । 'तथा स्यादेकतालिके ॥ उत्तानवञ्चिताद्यं तु, नलिनी पद्मकोशकम् । अथ (a) साने विधायैतद्धस्तषोडशकं परम् ॥ संयुतैर्वियुतैर्वाथ करैर्नृत्यं समाचरेत् । मध्ये मध्ये भ्रमरिकां गीतान्ते च प्रदक्षिणम् ॥ निसारुरासकं वाद्यास्तालाः खेच्छाकरः करः । आलापोऽपि सहस्तः स्याल्लयो हस्तानुगः स्मृतः ॥ दूरे पादप्रचारः स्याद् झस्पायामिति तद्विदः । डोम्बडे हस्तको ज्ञेयः खेच्छयानुल्यास्त्रयः ॥ षट्स्वेतेषु च गीतेषु कलासः स्याद्विकल्पतः । कल्पतालविधिज्ञेयो मण्ठकस्येव सरिभिः ॥ ॥ इति देशीगीतनृत्यविधिः ॥ [ नवरसाः ।] जीयाद्विसदृशी काचिदपूर्वेव सरखती । यस्यां समभवच्चित्रं काव्यरत्नाकरो महान् ॥ ननु कोऽयं रसो नाम पदार्थस्तद्विचार्यते । रस्यते वा सहृदयैः स्वयं वा रस्यते रसः ॥ [ अडतालः १३७ १३८ १३९ १४० १४१ १४२ १४३ १४४ १४५. १४६ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृङ्गारः] नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ विभावैर्जनितो भावोऽनुभावैरनुबोधितः। ........ व्यभिचारिभिरास्फीतो रस इत्यभिधीयते ॥ १४७ नटोऽनुकरणत्वेन भावुकः पात्रमुच्यते। सभ्यनायकयोस्तस्याश्रयत्वं मन्यते परे ॥ १४४ इति सर्वमिदं सम्यग् रमणीयतरं मतम् । एवं सति नृपेणोक्तो नृप एव रसाश्रयः । एवं रसाश्रयं सम्यग् राजा सर्वर साश्रयः। नाग्र(?अग्रे)स्फुरत्सर्वरसः' सम्यगेवं न्यरूपयत् ॥ १५० अथ शृङ्गाररसः। शृङ्गारहास्यकरुणा रौद्रवीरभयानकाः। 10 वीभत्साद्भुतशान्ताश्व नव नाट्ये रसाः स्मृताः॥ १५१ ।। यथा चाह भगवान् भरताचायः सूत्रेण "विभावानुभावव्यभिचारिलंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।" मन्ये गुणागुणविशेषविवेकदक्षः शृङ्गारमेव सकलेषु रसेषु मुख्यम् । . यत् खीयमर्धमु(?म)पहाय तनोबभार तत्राद्रिराजतनयाधममोच्यमीशः॥ धर्मार्थकामाः सममेव सेव्या इतीतिहासस्य च मूलमेषः। शृङ्गारनामा रस इत्यतोऽय___ मादौ मया लक्षणमुच्यतेऽस्य ॥ पुनार्योश्चेष्टितं यच्च रत्युत्थं स्यात्परस्परम् । तदाहुः केपि शृङ्गारं केऽपि त्वपरथा जगुः ॥ १५४ सुखप्रायेष्टसंपन्न ऋतुमाल्यादिसेवकः । पुरुषः प्रमदायुक्तः शृङ्गार इति संज्ञितः ॥ ऋतुमाल्यालङ्कारैः प्रियजनगान्धर्वकाव्यसेवाभिः। उपवनगमनविहारैः शृङ्गाररसः समुद्भवति ॥ नयनवदनप्रसादैः स्मितमधुरवचोधृतिप्रमा(?मो)दैश्च । मधुरैश्चाङ्गविकल्पैस्तस्याभिनयः प्रयोक्तव्यः ॥ संभोगे(?गो) विप्रलम्भेन विना न रतिकारकः। कषायिते हि वस्त्रादौ भूयान् रागो यतो भवेत् ॥ १५८80 1 ABO सर्वसर्वरसः। 2 Verses 159-161 from: ना. शा. A-6. Verses 46-48 ( N. S.). . . १५२ 20 25 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नु० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण ई हास्यः अथ देवादिविषयरतेरुदाहरणम् सत्यं लन्ति जगत्रयीपरिसरे ते ते सुदा(?)धीश्वरा-. ..... स्तेषां संस्मृतिमात्रमन्त्र फलदं स्वर्गापवर्गादिनः। अस्माकं तु यदादि चित्तफलके संकल्पकल्पद्रुमः ... ___ कुम्भस्वामिपदारविन्दमुदितं तेनैव सर्वाप्तयः ॥ ... १५९ रूपसंपन्नमग्रास्यं प्रेमप्राय प्रियंवदम् । कुलीनसनुकूलं च कलनं केन लभ्यते ॥ संपत्तौ च विपत्तौ च भरणे या न मुञ्चति । स्वामीयातां(?स्वामिनं तत् पतिप्रेम जायते पुण्यकारिणः ॥ १६१ ___10 स्तम्भः खेदोऽथ रोमाञ्चः स्वरभङ्गोऽथ वेपथुः । वैवर्ण्यमश्रु प्रलय इत्यष्टौ सात्त्विका मताः॥ निर्वेदोऽथ तथा ग्लानिशङ्कास्थामदश्रमाः। आलस्यं चैव दैन्यं च चिन्ता मोहः स्मृतिधृतिः ॥ १६३ ब्रीडा चपलता हर्ष आवेगो जडता तथा। 1b गर्यो विषाद औत्सुक्यं निद्रापस्मार एव च ॥ सुप्तं विवोधोऽमर्षश्च अवहित्थमथोऽग्रता। मतिव्याधिस्तथोन्मादस्तथा मरणमेव च । त्रालश्चैव वितर्कश्च विज्ञेया व्यभिचारिणः ॥ ... १६५ भावप्रगल्भा यथा20 न जाने संमुखायाते प्रियाणि वदति प्रिये । सोण्यङ्गानि [किं यान्ति] श्रोत्रतामुत नेत्रताम् ॥ .. . १६६ ॥ इति शृङ्गारः ॥ १॥ अथ हात्यः। विपरीतालङ्कारैविकृताचाराभिधानवेषैश्च । 25 .... [वि]कृतैरङ्गविकारैर्हसतीति [रसः स्मृतो] हास्यः ॥ १६७ तस्य ओष्ठनासाकपोलस्पन्दनदृष्टिव्याकोशाकुञ्चनवेदास्यरागपार्श्वग्रहणादिभिरलुभावैरनुभवः (? भिनयः.) प्रयोक्तव्यः । सितमथ हसितं विहसितमुपहसितं चापहसितमतिहसितम् । द्वौ द्वौ भेदौ स्यातामुत्तममध्याधम प्रकृतौ ।। १६८ 1 inserted from Amaruśataka verse 64.2 ABC ai MAHETHE° of ना. शा. अ. ६. श्लो. ५२. । (G. 0. S.)...... Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २१७ - करुणः ] ०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३.. विकृताचार्वाक्थैरङ्गविकारैश्च] विकृतवेषैश्च । हासयति जनं यस्मात् तस्माद् ज्ञेयो रसो हास्यः ॥ ॥ इति हास्यः ॥ २॥ १६९ अथ करुणो रसः।. . . ... इष्टवध दर्शनाद्वा विप्रियवचनस्य संश्रयाद्वापि । एभिर्भावविशेषैः करुणरसो नाम संभवति ॥ १७० सखनरुदितैर्मोहागमैश्च परिदेवितैरनेकैश्च। ...... अभिनेयः करुणरसो देहायासाभिघातैश्च ॥ १७१ ॥ इति करुणो रसः ॥ ३॥... अथ रौद्ररसः। .... 10 युद्धप्रहारपातनविकृतच्छेद[न] विदारणैश्चैव । एभिश्चार्थविशेषैरस्याभिनयः प्रयोक्तव्यः॥ १७२ ॥ इति रौद्ररसः॥४॥ अथ वीरः। स्थितिधैर्यवीर्यगर्वैरुत्साहपराक्रमप्रभावैश्च । 15 वाक्यैश्चाक्षेप कृतैर्वीररसः सम्यगभिनेयः ॥ .. : १७३ उत्साहाध्यवसायादविषादित्वादविस्मितान्मोहात् । विविधादर्थविशेषाद्वीररसो नाम संभवति ॥ ... १७४ . ॥ इति वीररसः ॥ ५॥ . . . ... . . .. " अथ भयानका।....... . विकृतरससत्त्वदर्शनसंग्रामारण्यशून्यगृहगमनात् । गुरुनृपयोरपराधात् कृतकश्च भयानको ज्ञेयः॥ गात्रमुखदृष्टिभेदैरुरुस्तम्भाभिवीक्षणोद्वेगैः । सन्नमुखशोष हृदयस्पन्दनरोमोद्गमैश्च भयम् ।। पतात स्वभावजं सत्त्वसमुत्थे तथैव कर्तव्यम् । पुनरेभिरेव भावैः कृतकं मृदुचेष्टितैः कार्यम् ॥ .. 1 ABO हासयन्ति । of हालयति. ना. शा. अ. ६. लो. ५०/वन्धद। 3 ABC मनुजैदे। 4 AB0 श्वापेक्ष। 5. ABO माम ... श्री. द्वे...।7 AB0 शोष....."स्प०1 8 ABC... भि.... from. ना. शा.अ. ६. श्लो. ७०-७२. (G..0. S.).:: २८ नृ० रत्न. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ . . * .. अथातो 10 ०२० को०-उल्लास ३, परीक्षण ३ [वीभत्सः.. करचरणवेपथुगात्रस्तम्भसंकोचहृदयकम्पनेन । शुष्कौष्टतालुकण्ठैभयानको नित्यमभिनेयः ॥ १७८ ॥ इति भयानकः ॥ ६॥ आन]भिमतदर्शनेन गन्धरसस्पर्शशब्ददोषैश्च । ....... उद्वेजनैश्च बहुभिर्वीभत्सो रसः सम्यगभिनेयः॥..... १७९. मुखनेत्रविकूणननासाप्रच्छादना[वानमितास्यैः। ..... अव्यक्तपाद पतनैर्वीभत्सः सम्यगभिनेयः॥ ॥ इति बीभत्सो रसः ॥७॥ अथाद्भुतो रसः। यस्त्वतिशयार्थयुक्तं वाक्यं शिल्पं च कर्मरूपं च। . तत् सर्वमद्भुतरले विभावरूपं हि विज्ञेयम् ॥ ... स्पर्शग्रहोल्लुकुसनैर्हाहाकारैश्च साधुवादैश्च । . वेपथुगद्दवचनैः खेदाचैरभिनयस्तस्य ॥ ॥ इति अद्भुतो रसः ॥ ८॥ . अथ शान्तो रसः। । शमस्थायी भवेच्छान्तः सर्वत्र समदर्शनः । तच ज्ञानागतो (१ ते)च्छः स तमोरागपरिक्षयात् ॥ .. १८३ प्रत्यक्षभूमिश्रितयोपारूढत्वेन नर्तकः।। लोकस्यैव स्वभावस्य वासनारूपभेदतः ॥ स्तम्भादिभिः प्रयोज्योऽत एवं शान्तरसात्मता। एतेषामनुभावास्तु ज्ञेया राजोपदेशतः ॥ १८५ ॥ इति शान्तो रसः ॥९॥ 15 १८४ | . . 25 श्यामः सितः कपोतश्च रक्तो गौरः सितस्तथा ।.. नीलः पीतस्तथा शुक्लो रसवर्णोः क्रमादमी ॥ १८६ मूलं तु(?तौ)यत्रिकस्यास्य रसमिच्छन्ति तद्विदः । विभिनटस्थैर्थो भावा(?वोs)नुभावव्यभिचारिभिः।.. ... दाभिविभावैर्व्यज्यते स्थायी स याति रसतां सदा ॥ १८७ शृङ्गाराजायते हास्यः करुणो रौद्रसंभवः। .... अद्भुतो वीरसंभूतो वीभत्साच भयानकः ॥ १८८ . 1 ABC °ष्ठकण्ठता । 2 ABO पाप | 3 ABO °त्सरसः। 4 ABC कय रूपं । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवरसाः ] नृ० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण ३ परस्यानुरागेण शृङ्गारो जायते रसः। ... उक्तिप्रत्युक्तिभेदेन हास्यस्तत्रैव दृश्यते ॥ अत्याकुलतया बाला यदा रोदति मैथुने । करुणस्तत्र विज्ञेयो रौद्रो निष्ठुरताडनात् ॥ ... नखदन्तकराघातैर्वीरो धीरजनप्रियः। ... .. भयाद्विन्दुनिपातस्य भयानकः स उच्यते ॥ १९१ लाला स्वेदः श्रमो मूर्छा वीभत्सो जायते रसः। अद्भुतोऽद्भुतसौख्यत्वात् शान्तो विन्दुनिपातनात् ॥ १९२ ॥ इति नवरसाः ॥ ॥ रसनृत्यं च ॥ 10 170 यं प्रभुं नैकदेशीयनानानृत्यभिदाविदः । राजकन्या रञ्जयन्ति सदानन्दैकमन्दिरम् ॥ १९३ इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्रयां संगीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे प्रकीर्णकोल्लासे लास्याङ्गपरीक्षणं तृतीयं [ समाप्तम् । ] Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोल्लासे चतुर्थं परीक्षणम् । [पात्रलक्षणम्।] ... ." पात्रस्य लक्षणं रेखा गुणा दोषाश्च मण्डनम् । . लक्षणं संप्रदायस्य गुणदोषाश्च तस्य च ॥ : 5 विशुद्धा पद्धतिश्चान तथा श्रमविधिः' शुभः। गोण्डल्याश्च विधिः सम्यक् पात्रलक्षणसंज्ञिते। परीक्षणे क्रमेणैव निरूप्यन्ते यथार्थतः ॥ . ... ....नत्तनाश्रय इहोदित विदा ........, : पात्रमेतदुचितं तु नर्तकी। मुग्धमध्यभिदयोः प्रगल्लता भेदतस्त्रिविधमत्र तत् स्मृतम् ॥ यौवन(?न) त्रितयलक्षणं क्रमात् ... __ तस्य लक्षणसिहाभिधीयते। तेन तत्त्रितयमत्र लक्ष्यते यनिरूपित इहास्ति लक्षितम् ॥ . श्रीफलोपमकुचाधरलीला भृत् कपोलजघनोरुविभ्रमम् । प्रीतिपूर्वसुरतं प्रति तत् सो त्साहमन गदितं मयाऽऽदिमम् ॥ पीवरोरुजघनं कठिनोचैः __ पीनमूलघनसंभ्रमस्तनम् । मन्मथस्य मृतजीवनौषधं । यौवनं निगदितं द्वितीयकम् ॥ तत्परं तु मदनोन्मदिष्णुता__ हेतुकं परमशोभयान्वितम् । कामशिक्षितसुभावसंभृत प्रौढनैपुणरति तृतीयकम् ॥ तुर्यमत्र गदितं तु कैश्वनो न्मन्दमन्मथरसं द्वितीयतः। म्लाल(?न)ताद्युपचिताङ्गसंभ्रम .. तत्प्रगल्भविभवोद्धताद(?दि)तः॥ 1-2 ABO विधि। 30 is Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रेखा ] नृ० २० को ० - उल्लास ४, परीक्षण ४ पात्रमन्त्र गणितं न तूचितं यज्जराभिमुखमेतदीरितम् । शोभया च रहितं विदांगणेनहतं रतिपराङ्मुखं यतः ॥ बालमप्यविदिताङ्गसंभ्रमं तन्मनोविरहितं न संमतम् । यन्न रञ्जयितुमेतदर्हति प्रायशो जनमनांसि संसदि ॥ ॥ इति पात्रलक्षणम् ॥ * [ रेखा ।] या शिरोडकरनेत्रपङ्कजाद्यङ्गमेलनविधौ सति स्फुटम् । के (? का) चिदत्र [च] दिश (हशा) मनोहरा सा स्थितिर्निगदितात्र रेखिका ॥ ॥ इति रेखा ॥ * [ पात्रगुणाः ।] सौष्ठवं विशदकान्तदन्तता रूपसंपदमलातिविस्तरे । कर्णयोश्च लतिके विशालता नेत्रयोरधरविम्बचारुता ॥ कम्बुसुन्दर सुकण्ठता लसत्पद्मतालसमकान्ति बाहुता । मध्यदेशतनुता विशालता स्यान्नितम्बफलकेऽतिपेशला ॥ उच्चता न तु न खर्वता तथा पीनता न न सिरालता तनी । कान्तिमत्त्वमविचार्य धैर्यतौ दार्यता त्वतितरां प्रगल्भता ॥ histar तरुणिमोद्गमः स्तनौ कापि चारुकरभोरुतापि च । २२१ १० ११ 5 10 १४ 15 १२२० १३. 25 30 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ 10 15 15 नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४. [पात्रदोषाः कापि वनकमलस्य माधुरी .. स्वर्णरङ्गकृतभङ्गगौरता ॥ श्यासतापि च चतुर्विधा पुनः .. ... श्लिष्टलंधिसमता लुपाणिता'। मत्तदन्तिगमना मदालसा : चन्द्रजित्वरमुखी सुसंहता ॥ कामवाण इव विश्वजित्वरं(?रः) :, पात्रगो गुणगणोऽयमीरितः। कोमलैयदिह गाननिभ्रम क्षेपकैर्विललदग्र्यसल्लयैः ॥ प्रोशिरत् किमु लु गीतवाद्ययो रक्षराणि सुघटैश्च सुतालैः। चाक्षुषत्वमिह चानयद् ध्वने गीतवाद्यजनितं निजागकैः ॥ स्त्रीयगाननिचये सुपूर्णता मादधत् कुसुमसञ्चये यथा । नृत्यतीत्थमिदमुत्तमं वदत्युत्तमः सकलराजसंसदि ॥ [॥ इति पात्रगुणाः ॥] [पात्रदोषाः ।...... एतदुक्तगुणराशिसमस्त व्यस्तवर्गणविधेविपर्ययः। दोषराशिरुदितोऽन पात्रगो : . दोषराशिरहितेन भूभृता ॥ .. ॥ इति पात्रदोषाः ॥ एतदर्थमिह नृत्यकोविदैः . . कार्यमेव गुणदोषवीक्षणम् । यत्कृतेऽत्र किल जायते परा. . नृत्यसंसदविचार(?पदपि चारी)सुन्दरा ॥ - 1 ABC put here इति पात्रगुणाः । 20 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्रमण्डनानि ] नृ० २० कौ० - उल्लास ४, परीक्षण ४ यत् पुराणमुनिसंमतं त्विदं नाट्यसिद्धिरखिला चरूप्यताः (? निरूपिता) ॥ २१ मार्कण्डेयपुराणोक्ता वृत्ते पात्रतन्त्रता । नृत्तेनालम (मल) रूपेण सिद्धिर्नाट्यस्य रूपतः । चार्वधिष्ठानं यन्नत्यमन्यद्विडम्बनेति च ॥ [ ॥ इति गुणदोषपरीक्षा' ॥ ] * २२३ [ पात्रमण्डनानि । ] स्निग्धविस्तीर्णधम्मिल्लः सविलासनिवेशितः लसत्कुसुमसंभारसंभृतः शुचिरुज्ज्वलः । ग्रन्थिर्विलुलितः स्कन्धे सौरभाकृष्टषट्पदः ॥ विकाशिमल्लिका मोदिपुष्पपुष्प (?) दलिक्षिका । वेणी वा ललिता रत्नरचना गुम्फपेशला ॥ हेमपगता चित्रलेखेवाधिकशोभिनी । विभ्राजते पृष्ठदेशे लुण्ठती जनमोहिनी ॥ मुक्ताजालमनोहारि कुन्तलैर्भूषितं शिरः । स्निग्धसिन्दूररुचिरो रतिसञ्चारमार्गवत् । मुक्तादामविभूषाढ्यः सीमन्तः स्निग्धसुन्दरः ॥ विचित्रतिलको भालः कस्तूरीचन्दनादिना । कर्णयोः कामतूणीरतर्जकाववतंसकौ ॥ मुक्तताटङ्कसुभगौ नीलेन्दीवरसुन्दरौ । तन्वञ्जने च नयने कुङ्कुमाद्यैर्विनिर्मिता ॥ कपोलयोः पत्रभङ्गिरचना मदनप्रभोः । निवेशाय स्वस्तिकाली रत्येव विनिवेशिता ॥ स्फुरद्रश्मिप्रभाजालै रदनावलि निर्गतैः । अकस्माद्भासयन्तीव रङ्गभूमिं समन्ततः ॥ इयत् (? ईषत् ) स्मितमनोहारी पद्मरागांशुपेशलः । ताम्बूलरागसुभगोऽधरो जनमनोहरः ॥ प्रभाप्राग्भारशोभाठ्यरत्नग्रैवेयकाञ्चिता । ग्रीवा कम्युकृतत्रासा वासवेश्म मनोभुवः ॥ 1 ABO put here इति पात्रदोषाः । २२5 २३10 २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३१ ३२ 15 20 25 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ भृ० र० को०-उल्लासे ४, परीक्षण ४ संप्रदायलक्षणम् कामलीलागृहप्रांशुसुवर्णवलयोज्वलौ। प्रोल्लसद्रनसंभिन्नमुद्रिकाभिरलङ्कृताः ॥ अङ्गुल्यो दश पञ्चेषुवाणाः किं द्विगुणीकृताः। ....... चरणौ रत्नमञ्जीरहंसकध्वनिसुन्दरौ ॥ कर्परपूरकाशीरचन्दनै सरं वपुः । तत्तद्देशानुसारेण वस्त्रं कार्पासकं तनु ॥ क्षीरोदकादिकं चेति चेलं वा समकञ्चकम् । मण्डितं मौक्तिकालीभिर्नानापक्षिकृताकृति । एतन्मण्डनमत्रोक्तमन्यद्वा रुचितोऽश्चितम् ॥ ..... श्यामगौरविभागेन यत्र यद्वर्णपोषकम् । देशकालवयोवर्णानुसारेण प्रकल्पयेत् ॥ ॥ इति पात्रमण्डनानि ॥ .......... [संप्रदायलक्षणम् । . . यत्रैको मुखरी वरः प्रतिमुखी युक्तस्तथा द्वौ परी .. प्रोक्तावावजधारिणौ षडथवा माईङ्गिकाः शोभनाः। द्वात्रिंशद्गदितास्तथा च करटाधनोत्रों)युगं च द्वयं स्फूर्जत्तालभृतोयं निगदितं तत् काहलीधारिणोः॥ ३८ अष्टौ कांस्यजतालधारिण इह द्वौ वांशिको सुस्फुटौ सुव्यक्तप्रचुरध्वनी च रसिकौ रक्तिप्रदौ शृण्वताम् ।। 20 चत्वारो भुकरास्तयोर्मधुरसुध्वानास्तथा गायनौः । द्वौ मुख्यौ सह गायनैर्निगदितावष्टाभिरेतद्गतः ॥ ३९ मुख्ये गायनिके तथाष्ट सह गायिन्यस्तयोः कीर्तिताः __पात्रं सर्वगुणान्वितं निगदितं त्वेकं समुल्लासकम् ।। तेषां सर्व इमे सुरूपविभवाः सद्भूषणालङ्कृता... 25 गीतार्थे निपुणाश्च साम्यकरणे हर्षोल्लसचेतसः ॥ .. ...... तस्मादुत्तम एष मे निगदितः सत्संप्रदायो जने .. ख्यातः कुटिलसंज्ञयागणितः स्यान्मध्यमोऽस्मात् पुनः। : अस्यार्धन मितः कनिष्ठ इति वै म्लेच्छान्तकेनामुना राज्ञायं निरगादि राजनिवप्रीत्यै चिरायास्तु सः॥ 30 ॥ इति संप्रदायलक्षणम् ॥ 1 Here a line mentioning aangit seems to be missing. Té Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ संप्रदायगुणदोषा] नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४ [संप्रदायगुणदोषौ । ] चत्वारोऽथ गुणास्तु कुहिलगतास्तालानुवृत्तिलय- स्तेषामप्यनुवृत्तिरामुखरिणस्तन्यूनवृत्तिः खरा। . दोषाः स्युर्गुणप[य]येण निखिला वास्तु ये यत्ततः संवीक्ष्य(१क्ष्यैव) च संप्रदायरचनां कुर्वन्तु राजाग्रतः ॥ ४२ 5 . ....॥ इति संप्रदायगुणदोषौ ॥ . . . . .. [शुद्धपद्धतिः। भूमीन्द्रेऽखिलदानमानकुशले सिंहासनाधिष्ठिते । प्रेक्षार्थ समुपस्थिते बुधगणैः सङ्गीतविद्भिः समम्। पूर्णा रजभुवं प्रविश्य निखिलै रङ्गोपहारैः समं 10 तिष्ठन्तोऽखिलरङ्गकार्यविदुराः सत्संप्रदायान्तराः॥ ४३ वाद्यानां समतां विधाय सकलां नादय साम्यं तत. स्तचित्ताः परिवादयेयुरतुलं मेलापकं तत्परम् । संपूर्ण गजरं ततो जवनिकामन्त प्रसूनाञ्जलिं ... धृत्वा पात्रमवाप्य सौष्ठवमथोऽधिष्ठाय सुस्थानकम् ॥ ४४ 15 - अन्तर्धानपटेऽपसारित इहारब्धे विधानादथो .... . खण्डे चोपशमाह्वये जनमनांस्येकाग्रतामानयन् । .. पात्रं रङ्गभुवं विशेदथ समन्ताद्वाद्यमाने समं ___ खण्डे चोपशमाख्यके सविधिना पुष्पाञ्जलिं मध्यतः ॥ ४५ पात्रं मुञ्चति रङ्गपीठधरणौ यस्मात् सुरग्रामणी- : :..... 20 — मध्येरङ्गमधिष्ठितः खयमसौ तं पूजनायोचितम् । तस्मात् 'संमदसंभृतं त्वविकलैर्नृत्याङ्गकै केवलै. वाद्येनोपशमेन नृत्यति परं पात्रं मनःसंयुतम् ॥ ४६ [मो.] तावत्सरिगोणिकाच तुडिकाः स्यात्तत्पदं तत्परम् . साङ्गन्तं मलपं तथा च कवितं वाद्यप्रबन्धैरिमैः ।.. 25 .: पर्यायेण च या क्रमाद् बहिरथो खेच्छाकृते वादने । - सामस्त्येन लयाश्चितैश्च विषमैर्नृत्याङ्गकैनर्तनम् ॥ ४७ ..1 Kumbha in भ. को.. gives only तस्मात् समद to मनः संयुतम् and - drops पात्रं to °योचितम् । p. 881. 2 Kumbha in भ. को. gives the reading तावत् संकुलगोपिकाश्च तुडिका etc. p. 881. We have adopted "मोता' .. from सं. र. अ. ७. श्लो. १२६६. पदमोताच कवितं etc...... . २९ नृ० रन.. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृ० र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४ [गोण्डलीविधिः शुद्धैश्चाप्यथ रूपकै रुचिवशात्तैर्गीयमानैश्चिरं पात्रं नैकविधं विधाय निपुणं नृत्यं ततः संत्यजेत् । रङ्गे यत्र न वादयन्ति गजरान् पश्चाच ते वादकाः ___ खण्डं तूपशमाभिधं खलु तदा पात्रं पदे प्राविशेत् ॥ ४ उक्तत्थं किल पद्धतिः परिपडिया प्रोच्यते तद्विदां - वृन्दैः साखिलराजराजिमुकुटालङ्कारहीरेण हि। वाचं चासमहस्तमन निगदन्त्येके प्रवेशात् पुरः पाटेर्वा समहस्तकादिभिरिह स्यात् सर्वतोऽथेष्टतः॥ ४९ स्थानं वा समपादमन निगदन्त्येके प्रवेशे वुधाः __केचित् केवलयोः प्रयोगमभणन् तं गीतवाद्यानुगम् । गीतादेरिह वाञ्छितैः परमसावेकैकशः कैश्चने- . . ... त्येवं पद्धतिरीरिता सुविसला शुद्धा त्रिधा भूभृता ॥ ५० ...॥ इति शुद्धपद्धतिः॥ 10 20 [ गौण्डलीविधिः।। 15 गीतैः सालगसूडैश्चै डस्थैः] प्रबन्धैश्च ध्रुवादिभिः। लास्याङ्गैः केवलैरेव तथाङ्गैरपि कोमलैः ।। वाद्यप्रवन्धैः कठिनैः शुद्धैरेलादिभिर्विना। स्वयं नृत्यति यत्पात्रं स्वयं गायति च स्फुटम् । _ वादयेत् त्रिवली वाचं स्वयं तद्गौण्डली विदुः॥ स्कन्धदेशे स्त्रिया वाद्यं ग्राम्यतासूचकं यतः। अतोऽस्य वादनं केचित् तद्विदो नैव मन्यते । गायेच्छारीरबुद्धया सा मूकत्वस्य जिहीर्षया ॥ कर्णाटदेशसंभूतं तस्या मण्डनमिष्यते। आश्रित्य गौण्डलीलक्ष्म तन्नर्तनमिहोदितम् । अन या पद्धतिः प्रोक्ता सैवोक्ता गौण्डलीविधिः ॥ देशी पद्धतिरेवेयं प्रोच्यते तत्क्रमोऽधुना। - कर्णाटालकृतियुताः स्युरस्मिन् सांप्रदायिकाः ॥ - आतोद्यजातमत्रापि समनादं स्मृतं बुधैः ।। .. एकताल्या वादयेयुरथ मेलापकं ततः ॥ _30 येन केनापि तालेन गजरे वादिते.सति । ____ ५४ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौण्डलीविधिः ] नृ० र० को०- उल्लास ४, परीक्षण ४ निःसारुणा वैकताल्योपशमेऽस्य प्रचारिते । प्रविश्य रङ्गं तन्मध्ये पत्रं पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ॥ अङ्गान्याविष्कुर्वदिव पुरो दक्षिणवामयोः । गजरोपशमेनैव नृत्येदविकलं ततः ॥ अड्डतालं च निःसारु तथा चैकतालिकम् । रिगोणीसंश्रिता या तु तथा सर्वाङ्गनर्त्तनम् ॥ कृत्वा ततः क्रमात्तालनियमेन विना कृतौ । अवश्यकवितौ ताभ्यां क्रमान्नर्तनमारभेत् ॥ ततश्चोवणोपेतरिगोण्या चित्रनर्तनम् | निवारितेषु वाद्येषु सह गायनसंयुतैः ॥ वांशिकैरवकाशे च वितीर्णे सं ( स ) ति गोण्डली । उच्चार्य स्थायिनं कुर्यात् रागालप्तिं चतुर्विधाम् ॥ काचिद्रा ( द्वा) गायिनी मुख्यालप्तिं नानाविधामिह । कुर्यान्मण्ठेन तालेन प्रतिमण्ठेन वा पुनः ॥ अन्येन केनचिद्वापि ध्रुवकं सकलं युतम् । गीत्वा तु वाद्यमानायां ढक्कायां मानसंयुतम् ॥ श्लक्ष्णा वाख्यखण्डेन चित्तव्यक्तिमनोहरम् । नर्त्तनं मेलकोपेतं विदध्याद्द्वायकैः समम् ॥ अथानयोरुपरमे विहिते गानवाद्ययोः । स्थायान् विधाय विविधान् मुहुर्भुवपदं व्रजेत् ॥ पूर्वमेव विधायाथ स्थायान् रक्तिसमन्वितान् । नातीव हस्वदीर्घाश्च गमकप्रौढिपेशलान् ॥ प्रान्ततः प्रोल्लसत्तालान् ध्रुवखण्डे कलासयेत् । कलासे वादकाः कुर्युः सममातोद्यवादनम् ॥ विलीनमिव तत्पात्रं कलासे तत्र जायते । चित्रं चित्रार्पितमिव प्रेक्षकैरुपलभ्यते ॥ नृत्यस्य प्रक्रियां कृत्वा ह्यनेन विधिना पुनः । पूर्ववद ध्रुवाभोगखण्डे गायनसत्तमैः ॥ गीयमाने वाद्यमाने वादकैस्तद्वदेव च । खण्डे प्रहरणाख्ये च पुनर्नृत्यं यदृच्छया ॥ किञ्चित् कृत्वा च त्यागे सति संनिहिते पुनः । विचित्र प्रौढचारीभिः पात्रं नृत्यं समाचरेत् ॥ २२७ ५७ ५८ ५९ ६० ६१10 ६२ ६३ ६४. ६५ ६६20 ६७ ६८ ६९ 5. ७० 15 ७२ C. 25 c. ७१३० Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રર૮ नृ०२० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४ - [श्रमविधिः अत्र वाद्यं प्रहरणमाभोगेऽपि च तन्मतम् । .. वायसास्येन च त्यागं कृत्वा विश्रान्तिमाचरेत् ॥ ७३ ध्रुवेणैवं विधायाय विधिवनतनं तथा । . . ध्रुववद् मण्ठकाद्यैश्च प्रारमन्नर्तनं सुधीः ॥ . ७४. परं तेषु विशेषो यः सोऽत्र सस्या निरूप्यते। ध्रुवखण्डनमण्ठादेः केवलं नर्तनं स्मृतम् ॥ प्रारम्भे मण्ठतालेन मण्ठो नर्तनमाचरेत् । .. ततः क्रमादेकताल्या सण्ठके नर्तनं भवेत् ॥ .... प्रतिमण्ठादिषु प्रोक्तं स्वनालेनैव नर्तनम् । ... प्रायः सालगसूडस्थे गीतं कुर्याद्रते लये ॥ ताण्डवे पण्डितैरुतो लयः प्रायो विलस्वितः। नर्तित्वा सालगे सूडे त्वेक्रताल्यन्तरूपतः। त्यागो' यत्र भवेदेष विज्ञेयो गौण्डलीविधिः ॥ ॥ इति गौण्डलीविधिः ॥ 10 15: ... [श्रमविधिः । नमस्कृत्य गणाधीशं तथा देवी सरस्वतीम् ।... ब्रह्मविष्णुमहेशांश्च रङ्गदैवतक सह ॥ क्रमात्तालं वाघमाण्डमुपाध्यायं तथा पुनः । . नृत्तकन्याः स्तम्भयुग्मं दण्डिकां च प्रपूजयेत् ॥ चन्दनागरुकर्पूरमृगनाभिमुखैः शुभैः । विलेपनैश्च सामोदैः सौरव्येण मनोहरैः॥ पुष्पैश्च विविधै पैरारात्रिकसमन्वितैः । नानाविधैश्च नैवेद्यैर्वस्त्रैर्वर्णविभूषितैः ।। बलिपूजोपहारैश्च प्रार्चयेद्गदेवताः। ततः शुभे मुहत्ते च प्रारभेत श्रमं सुधीः ॥ .. कन्यां हृदयंदनां च दण्डिका तिर्यगायताम् । स्तम्भद्वयोपरि स्थाप्या हस्तग्राह्यां सुयन्त्रिताम् ।। अवलम्बाय तस्याश्च दृढां श्लक्ष्णां समां तथा । ततोवाचतश्चालोयित्वा चलनं शुभ्रमादाय कञ्चकम् ॥ 10'गे। ... ... .. ... . ' - Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमविधिः] नृ०र० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४ तामवलम्च्याथोऽभ्यस्येदविवर्तना। .. भूत्वा च सुमनाः कन्या शिक्षाभ्यासपरायणा ॥ पूर्वोक्तमङ्गनिचयं लास्याङ्गान्यखिलान्यपि। स्थापनं चलन रेखां तालसाम्यं लयानपि ।। गीतवाद्यानुगमनं शिक्षि(? क्षे)तानुदिनं शुचिः॥ २२९ .. ८६ ८७६ .... ॥ इति श्रमविधिः ॥ येन खैः करणैर्दिगन्तरनृपाः खे पूर्वजास्तैनव- .:: ... प्रोदञ्चचरणैरनुभूतकरैः संतपणात्तीर्थिकाः। . शुभैस्तैः परमङ्गहारनिचयैरुल्लासिताः स्खें सभो. देशास्तेन नृपेण नृत्यनिगमल्योल्लास उल्लासितः॥ ८८10 - इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन अभिनवभरतीचार्येण मालवाम्भोधिमाथमन्थमहीधरेणं योगिनीप्रसादासादितयोगिनीपुरेण मण्डलदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमण्डलाधीश्वरेण अजयजयाजेयविभवेन यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण शाकम्भरीरमणपरि शीलनपरिप्राप्तशाकम्भरीतोषितशाकम्भरीप्रमुखशक्तित्रयेण नागपुरोलनप्रचंड]धर्षित* नागपुरेण श्रीमत्कुंभलमेरुनवीननिर्मितसुमेरुणा श्रीमचित्रकूटभौमखर्गतायथार्थीकरणचारुत- 15 रपथेन मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन अरिराजमत्तमातङ्गपञ्चाननेन प्ररूढपत्रयवनदवदहनवानलेन प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तण्डेन वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोद्दण्डकोदण्डदण्डमण्डिताखण्डभुजादण्डेन भूमण्डलाखण्डलेन श्रीचित्रकूटविभुना अध्युष्टतमनरेश्वरेण गजनरतुरगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन वेदमार्गस्थापनचतुराननेन याचककल्पद्रुमेण वसुंधरोद्धरणादिवराहेण परमभागवतेन जगदीश्वरीचरणकिक- 20 . रेण भवानीपतिप्रसादाप्तापसादवरप्रसादेन रायंगुरुचायंगुरुसेलगुरुवाँगगलांशयाचायुहयनेयु( ? )स्त( ? स्तु)त्यादिविरुदावलीविराजमानेन राजाधिराजमहाराणाश्रीमोकलेन्द्रनन्दनेन. राजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिंते संगीतराजे षोडशसाहस्यां संगीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे प्रकीर्णकोल्लासे पात्रलक्षणं नाम चतुर्थ परीक्षणम् ॥ उल्लासश्च समाप्ति समगादिति विततमतीनामभिमतसिद्धिरस्तु ॥..:..: 25 ॥ इति नृत्यरत्नकोशे प्रकीर्णकोल्लासे चतुर्थं परीक्षणं समाप्तम् ॥ ॥ समाप्तश्चायं चतुर्थोल्लासः॥ 3 - ' -- 1 AB स्ते। 2 B drops . °वा। 3 B श्रीसर्वविद्यानिधानकवीन्द्राचार्यसरस्वतीनां संगीतराजनृत्यरत्नकोशपुस्तकम् । -AB स्त।. BULOPा ...: ::. :: . Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० नृ० २० को०- उल्लास ४, परीक्षण ४ NOTE—In ms. c there is an entirely different and a very long praśasti about the autheor of this work. It is given below:-. इति निःशंकनिर्भयमल्लेन ॥ १ ॥ सकलभूवलयैकवीरेण ॥ २ ॥ कलाकल्याणकुश[न] श्रीकालसेनेन ॥ ३ ॥ द्वादशसहस्रजनस्थानप्रभृतिवसुन्धरा समुद्धरणैकधीरेण 5 ॥ ४ ॥ श्रीजगदीशवनदेवनिजगणेन ॥ ५ ॥ श्रीकामेश्वरीचरणकिङ्करेण ॥ ६ ॥ श्रीब्रह्मादिविभुना ॥ ७ ॥ प्रथमप्रख्याततामराजआमोद राजरामराज पैकराज म्हामरराज तामराजेन्द्रप्रभृतिसकल महीपालमौलिमाणिक्यरचितसिंहासनादिसमस्तप्रशस्तराजचिह्नाधिष्ठातृ नरेश्वरेण ॥ ८ ॥ अगस्तिपुरनिरस्त समस्त वैरिवर्गेण ॥ ९ ॥ कामाक्षाप्रसादासादित कुन्तीपुरेण ॥ १० ॥ शुद्धोद्धृतोद्धतपति निपातपटुतरतरवारिधारेण ॥ ११ ॥ उद्धतपुरीनारी10 नयननी र निरन्तसारिणीसमाप्यायित शौर्यतरुवरेण ॥ १२ ॥ श्रीभीष्मपुरजयानीतानेकराजकन्यारत्नेन ॥ १३॥ मणिपुरमर्दनादर्शितशौर्येण ॥ १४ ॥ कल्याणपुरजयाजितजामदन्येन ॥ १५ ॥ स्थानवलयितानेकदरीपरिसरपरित्रासितमनीरवीरेण ॥ १६ ॥ श्रीपुरग्रहणसंवर्द्धितयशोभरेण ॥ १७ ॥ वाटिकाचलग्रहणजनितकीर्त्ति पुरपराजिताचलनायकेन ॥ १८ ॥ [मदनपुर ] विध्वंसनचारुचापरचितेन ॥ १९ ॥ सुवर्णगिरि15 खण्डनावनिवज्रहस्तेन ॥ २० ॥ नवसारीधनदेवीयुवती जनवदनयामिनी[ नाथ ]सिंहिकासुतमानकरालवालेन ॥ २१ ॥ पाटलीरणधरणिधीरधनुधैङ्कारमुखरितत्रिभुवनेन ॥ २२ ॥ तारापुरप्रज्वालन समुद्भूतधूममलिनीकृतसकलवैरिवदनेन ॥ २३॥ कुङ्खमपुरजयदर्शित सिंहविक्रमेण ॥ २४ ॥ संज्ञापुरोपार्जितरत्नेन ॥ २५ ॥ वेदिकागिरिनिर्दलनदारुणेन ॥ २६ ॥ कुरङ्गगिरिकोटविघट्टनलम्पटोरुनाशीरेण ॥ २७ ॥ 20 पुण्यस्तम्भोद्भूलनोद्भूताद्भुतशौर्येण ॥ २८ ॥ संगमनी र दुर्गाद्धरणोद्धृतस कलमण्डलाधीश्वरेण ॥ २९ ॥ शुक्लपुरसमूलोन्मूलनप्राप्तजयश्रिया ॥ ३० ॥ गिरिपुरडुंगरग्रहणसार्थकीकृत ग्राग्रहेण ग्रहेण ॥ ३१ ॥ दमनपुरविध्वंसन बन्दी कृत्यय वनी निचयेन ॥ ३२ ॥ आमर्दकगिरिशिखरो[ परि परिभावितशकनिकरेण ॥ ३३ ॥ महिपमेरुजयाजेय विभवेन ॥ ३४ ॥ शाकम्भरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकम्भरीपरितोषितशाकम्भरी प्रमुखशक्ति26 त्रयेण ॥ ३५॥ निजभुजशौर्य वशीकृतवग्गुलराजप्रमुखमहानिधानेन ॥ ३६ ॥ बेडुरभूपालराजकृतसंस्थापनेन ॥ ३७ ॥ नराणरणकर्मकर्मठेन ॥ ३८ ॥ तुजारषा (खा) नमानमर्दन गृहीतराज्यलक्ष्मीसकलभाण्डागारनिचयेन ॥ ३९ ॥ अलङ्गगिरिगहनगह्वरकुहरविहारवैरिवीरसिन्धुरमर्दननिर्दयकण्ठीरवेण ॥ ४० ॥ अष्टादशमिरिशिखरपरि वारिताञ्जनाद्विविजयविख्यातवीर्यगर्वेण ॥ ४१ ॥ सप्तविंशतिसहस्र महाराष्ट्रधराविधून30 नप्रलम्वप्रभञ्जनेन ॥ ४२ ॥ सप्ततिसहस्रगूर्जराम्भोधि माथमन्थ महीधरेण ॥ ४३ ॥ महदम्बमातृकापुरोद्भूलन धर्षिता ( ? ) महोरगपुरेण ॥ ४४ ॥ पलायमानअजीमपा(खा) नसकल गृहीतजय श्रिया ॥ ४५ ॥ जागलस्थलजलधितरत्तुङ्गतरङ्गसंरंभकुम्भसंभवेन ॥ ४६ ॥ वस्तिसोपारकलहक लितकुन्तजनितकुन्दावदातकीर्त्तिधवलितदिगन्तरेण ॥ ४७ ॥ शशकगिरिलुण्ठनपटुतरेण ॥ ४८ ॥ श्रीवनदेवस्वामिप्र ( ? प्रा ) सादरचना35 परपरमेश्वरेण ॥ ४२ ॥ त्रियम्बकेश्वरसन्निधिकीत्ति स्तंभोन्नतजय स्तम्भेनः ॥ ५० Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुं० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४ २३९ श्रीब्रह्मगिरिभौमस्वर्गतायथार्थीकरणरचितचारुपथेन ॥ ५१ ॥ श्रीकामाक्षागिरिनवीन.: निर्मितिपराजितसुमेरुणा ॥ ५२ ॥ श्रीमहिपाचलोपरिश्रीहरिशरणरचिताचलदुर्गेण ॥ ५३ ॥ रायंगुरु चायंगुरु सेलगुरु रायांचापरगुरु वागाङ्गलारायांचामुहवनरायहिंसक्लरायमाचल्लपूर्वपश्चिमउत्तरदक्षिणचतुर्दिशां. रायांचा-आंवुला-इत्यादि-विरुदावलीविराजमानेन ॥ ५४ ॥ अध्युष्टतमनरेश्वरेण ॥ ५५ ॥ सवलराजस[मून्मूलना-5 चार्येण ॥ ५६ ॥ दुर्बलराजसंस्थापनाचार्येण ॥ ५७ ॥ पितृवैरसमुद्भूतरोपपोषणमहीपतिमत्तमातङ्गमस्तकाचशेन ॥ ५८ ॥ अभिनवभार्गवेण ॥ ५९॥ राजभुजवलभीमेन ॥६० ॥ हिन्दूकराजगजपतिना ॥ ६१ ॥ आसनसिंहासनसितातपत्रमाणिक्यमाला- मण्डितवातान्दोलितजयपताकाकनकदण्डचन्द्रावदातचलचामरयुगलमकरध्वजादि-. राजराजालङ्करणावलोकनमत्सरितमानसेतरनृपालमौलिनिहितवामचरणेन ॥६२॥ नल-10 नहुषधुंधुमारभरतभगीरथमान्धातृमेधातिथिप्रभृतिचिरराजरत्नोदात्तचरितेन ॥ ६३ ॥ वेदमार्गस्थापनचतुराननेन ॥ ६४॥ सर्वदाव्यम्बकादिगोदाविमुक्तिसमस्तामुक्तिप्रवितीर्णमुक्तमुक्ताकलापेन ॥ ६५ ॥ श्रीब्रह्मगिरिसन्निधिकृतयुगधर्मानुवृत्तिब्रह्मवृन्दाधि-ष्ठितानेकयज्ञाद्यखिलसुकृतकृत्य सत्यलोकेन ॥ ६६ ॥ परमभागवतेन ॥ ६७ ॥ अभिनव भरताचार्येण ॥ ६८॥ सङ्गीतमीमांसानिर्माणापरप्रभाकरेण ॥ ६९॥ प्रवन्धराजश्रीगीत-15 गोविन्दनिर्माणपरितोषितराधामाधवेन ॥ ७० ॥ कामाक्षास्तुतिकरणाराधितकामेश्वरीचरणकमलेन ॥ ७१ ॥ श्रीगीतगोविन्दटीकारचनवर्णितसाङ्गशृङ्गाररसेन ॥ ७२ ॥ सकलराजवाग्गेयकारतोडरमल्लेन ॥ ७३ ॥ सकलकविराजचक्रचूडामणिना ॥ ७४ ॥ वीणावादनप्रवीणेन ॥ ७५ ॥ सुशारीरशालिना ॥ ७६ ॥ पद्मनगरजनस्थानगोदावरी विराजमानम्लेच्छोच्छेदितचिरकालधर्मसंस्थापनेन ॥ ७७॥ संस्कृतभाषामहाराष्ट्रभाषा-20 त्रैलिङ्गकर्णाटभाषाचतुष्टयविरचितनाटकराजचतुष्टयेन ॥ ७८ ॥ याचकजनकल्पनाकल्पद्रुमेण ॥ ७९ ॥ वसन्तसमयसमागतसमस्तसामन्तसीमन्तिनीशिरोमणिसीमन्तसिन्दूरपूरदूरोद्भूलनप्रकटितप्रौढप्रतापेन ॥ ८० ॥ निसर्गदुर्ग्रहदुर्गवर्गदुर्गमप्र(?प्रा). कारपरिखापरिपातपरिखिद्यमानपरिशङ्कितपरिजनपरिवीतप्रत्यर्थिनितम्बिनीलुटाकार्ग लादीर्घभुजायुगलेन ॥ ८१॥ धीरोदात्तधीरशान्तधीरोद्धतधीरललितचतुर्विधनायक- 25 " गुणग्रामविचारचातुरीचतुराननेन ॥ ८२ ॥ अष्टविधनायिकाहावभावविकोदामोद्दीपितस्मरविलोकनानुभूयमानङ्गाररससान्तरनिरन्तरान्तरानन्देन ॥ ८३ ॥ नाटकनाटिकाख्यायिकाप्रलेहि(? हेलि)काकलाकलापकौशल्येन ॥ ८४ ॥ भारतीयरस दृष्टिभावदृष्टिभावितंभावनाभिनवभरताचार्येण ॥ ८५ ॥ नन्दिकेश्वरमतानुवर्तनाराधितत्रिनयनेन ॥ ८६॥ परमपराक्रमार्जुनेनाथ वृहन्नटेन ॥ ८७ ॥ सतताराधितधर्मेणाथ 30 वृकोदरेण ॥ ८८॥ श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन ॥ ८९॥ यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण ॥ ९० ॥ सततपराभूतसूर्यवंशीन्द्रसेनराजराज्यसंस्थापनढाझीकारेण ॥९१॥ गूर्जरधराधीशमहमदसुलताणधीरत्वोन्मूलनप्रचण्डपवनेन ॥ ९२ ॥ त्रिसंध्यक्षेत्रसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन ।। ९३ ॥ अरिराजमत्तमातङ्गपञ्चाननेन ॥ ९ ॥ मरूदपत्रयवनदवदहनदावानलेन ॥ ९५ ॥ प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरण-35 प्रौढप्रतापमार्तण्डेन ॥ ९६ ॥ वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोहण्डकोदण्डमण्डिता. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ० २० को०-उल्लास ४, परीक्षण ४. खण्डभुजादण्डयुगलेन ॥ ९७ ॥ भूमण्डलाखण्डलेन ॥ ९८ ॥ गजनरतुरगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन ॥ ९९ ॥ वसुन्धरोद्धरणादिवराहेण ॥ १०० ॥ भवानीपतिप्रसादातापसावरप्रसादेन ॥ १०१ ॥ अनन्यमल्लीकगर्वखण्डनमुशलहस्तवलभद्रपराक्रमेण ... ॥ १०२ ॥ महाराजाधिराजमहाराणाश्रीमृगाकतामराजेन्द्रनन्दनेन ॥ १०३॥ श्रीमहा5 राज्ञीश्रीसौभाग्यवतीजसमास्विकाहृदयनन्दनेन ॥ १०४ ॥ विविधविज्ञानविज्ञचम कारिचातुरीधुरीणसकलसीमन्तिनीशिरोमणिरूपलावण्यलजालक्ष्मीनिधानङ्गार सरसीशतराजकन्याप्रवरनिकुंभराजन्यवंशावतंसमहाराज्ञी-श्रीकर्मवतीलपुमादेवीहृद: याधिनाथेन ॥ १०५॥ श्रीमहाराजाधिराजकालसेन-महीमहेन्द्रेण विरचिते सगीतराजे पोडशसाहस्यां सङ्गीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे प्रकीर्णकोल्लाले पात्रलक्षणं नाम 10 चतुर्थ परीक्षणं नृत्यरत्नकोशश्चतुर्थः समाप्ति समागादिति विततमतीनामभिमतसिद्धिरस्तु ॥ शुभं भवतु ॥ श्रीरस्तु ॥ ॥ इति नृत्यरत्नकोशः समाप्तः॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट श्लोकानुक्रमणिका श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोक क्रमांक पृष्ठांक ५११ ४२ - - - - अञ्चितं चरणं नीत्वा ५० १२४ अञ्जलिश्च कपोतश्च अंकुरितां मम हृदये १२ २०० अंकुरेण चतुर्थस्य ११७ १८ अंकुरेण पुनः कुर्युः १६० १७ अंकुरोऽप्यङ्गव्यापारो अग्रतः पृष्ठतोऽधस्तादूद्ध ५५ २११ अग्रतः पृष्ठतो वापि ११६ २१२ ११६ २११ अनदेशेन चेल्लग्ना० अग्रजो मुखजश्चैव ६२५ ५१ अग्रेण चाथ पृष्ठेन ३२ १२२ अग्रेणांहः कुञ्चितेन ३६ १३० अग्ने वेत्रधरा नृपेङ्गित० १२१ ११ अंगाई खिदशिली० ८ १६६ अंगाइ शंखलिद ६ २०० अंगुष्ठो मध्यमाण ६३२ ५२ अङ्गतालं च निःसारु ५६ २२७ अंगुल्यो दश पञ्चेषु० ३४२२४ अड्डस्खलितिका तिर्यक् अङ्गहाराङ्गतायां तु १०५ १८१ अङ्गहारे च संन्नान्ते ६६ १८० . . अङ्गहारो मातृकाभिरेकः ८१७२ अङ्गहयेन वैशाखरेचितं ३२ १७४ अङ्गाद्यभिनयस्यैव यो ३१६ २८ अङ्गानां मेलके तानि २१ १४६ अङ्गप्रयोगयोगेन ये ४ १७२ अंध्रावुत्क्षिप्यमाणेऽपि १८३ १६४ अङ्गं विधुन्दती चित्रं ६४ १६० अंगुष्ठः कुञ्चितो यत्र ।। ५५४ ४५ अंगुष्ठः प्रसृतो यस्या० . ८०४ ६६ अंगुष्ठा (नुगतं जिह्यौष्ठा ?) १३६ ६६ अंगुष्ठौ च तथा गुल्फो ५७ ११४ अंगुल्योऽनुक्रमेणैव ३७ १०६ अंगुल्यनः स्वस्तिका ५५८ ४५ अगुल्यो यत्र करयोरन्यो० ६४५ ५३ अंगुल्यो वितता: क्लिष्टा ५४३ ४४ अंगोपाङ्गचयैस्तत्र अचलस्थितिसंयुक्तं २२ ११० अलि हस्तमाधाय ४७ १८८ अञ्चितं चैकक (च?) रणाञ्चितं अजस्रसूर्वसुत्क्षेपः ७८३ ६६ अत्यन्तचञ्चलोवृत्त २८ ५५ अत्याकुलतया वाला १६० २१६ अतस्तेनैव शोभन्ते २५ १०४ अतिकान्तस्ततो वाम ४३ १४१ प्रतिकान्ताख्यचारी० १२६ १५७ प्रतिक्रान्तागतं पाद १०३ १५५ प्रतिकान्तां वरेद्वाम ६० १४३ अतिक्रान्तं चामतोऽय ४६ १७६ प्रतिक्रान्तां विधाया ५४ १२४ अतिप्रयत्नसाध्येऽर्थे ६५६ ५४ अतिसंकुचिता हास्ये ६६ ६४ प्रतीयोत्फुल्लपुटका ६४ अतो भूतानुग्रहाच्चाष्टधा ४२० श्रतो यदेकवचनं ७२६ ६१ अतः फायमनोवाग्भिः प्रतः प्रपत्नतः सर्वान् २६५ २६ १०० Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक [ २ ] क्रमांक पृष्ठांक 1 श्लोक क्रमांक पृष्ठांक अतः परं प्रवक्ष्यामि ध्रुवा० २१३ १६ अथ शान्तो रसः १८३ २१८ . . प्रतः परं प्रवक्ष्यामि स्त्रीणां १०० २१० अथ शृंगाररसः १५१ २१५ अत्र प्रयत्ननिर्वत्यै लमाने ४३३ ३६ अथ स्थानानि वक्ष्यामो अत्र वाङ्गान्तमाहुः अथ सर्वासु नर्तक्यः १६६ १८ ... अत्र वा प्रहरणमा० ७३ २२८ अथ हास्यः विपरीता १६७ २१६ . . अत्र वक्षः स्वस्तिकं ६२ १७७ प्रथानयोरपरमे ६६ २२७ अत्राकृतिप्रधानत्वे ७२८ ६१ अथानक्षरताले तु प्रवृत्ते १३३ २१३ अत्राङ्गाभिनयः साक्षात् ४६७ ३८ अथाद्भुतो रसः १८१ २१८ अत्राश्रावणिकाचं यदङ्ग० १४३ १३ प्रथाभिधात्यते सम्यक् १३६ - १३ . ... प्रश्वक्रान्तं तदा ज्ञेयं ४८ ११३ श्रथासारितमत्र स्यान्मार्गा० १६६ १६ अथ व्यत्रण मानेन ५० १७६ अथाक्षिप्तं चागलं च अथ क्रमाल्लक्षणमुच्यते ३२ ७४ अथोद्दिशामः खलु ताः ११ ११६ अथ करुणो रसः १७० २१७ प्रथोद्देशपरं लक्ष्म । १० १७२ अथ देवादिविषयरते० १५६ २१६ अथ व्योमभवा चार्यों ४१ १२३ . . अथ देशानुरागेण गृहीत्वा ११४ २११ अचाकर्णय नैशिक अथ देशीनृत्यभेदाः १०६ २११ अधस्तलौ तदाविद्धवौ ६९७ ५८ अथ देशीपूर्वकाणि . २ १६४ अधस्तात् सकृदानीत ४८२ ३६ . अथ नवा(?व) [रसाः] १४५ २१४ अधस्तादङ्गलं त्रस्तं १४१ १०० : अथ नानागतिप्रचार ८५ २०६ अधः सञ्चारिणी तारो०.४४ ८७ . अथ निर्धार्यते सम्यगा० २ १०२ अधः सञ्चारिणी तत्र ५५ ८८ अथ प्रत्यङ्गसंपन्नः अधोगता तु पतिता ६१ ८६ अथ प्रतीत्युपायत्वाद ४३५ ३६ अघोगतं स्यादन्वर्थ .४८८ ४० प्रय प्रयत्ननिर्वृत्त्याः ३३५ २६ अघो मकरमाधाय ५१ १८६ अथ पादनिकुट्टाल्य० १ १३४ अघोवकं दक्षिणं ६९१ ५८ अथ पेरणितः सम्यग् ३८ १६७ अघ्रिणा लजयते ५१ १३१ प्रथ भयानकः १७५ २१७ अधिको भवन्वामो . १२. १३६ अथ भरतमुनीश्वराभिमत्या . २ १८१ नव्यष्ट (?अष्टघा)पाष्णि० १५२ १०१ अथ रौद्ररसः १७२ २१७ अनधिष्ठाय सहसा० ३८३ . ३२ अथवाऽन्योन्यलग्ना० ७५२ ६३ अन्तर्धानपटेऽपसारित ४५ २२५.. ... प्रथ वर्तना-संगीतरत्नाकर० २७ ७४ अन्तनिविष्टतारा या ४१ . ८६ ... अथवा भ्रमरी कुर्वन् १६ १५४ अन्तर्वहिर्गामिक० . ३०८५ ..... अथवा शिखरों नुष्टी ७४४ ६३ अन्तर्बहिर्मानसूत्रादर्षन .. ५७ ६ . प्रयवा हृदयाग्रस्यः ६६४. ५८ अनेन स्थापितान् स्तम्भान - ६४. . ६ ...... प्रय विशतिरुच्यन्ते अनाश्लिष्टा मध्यमायाः । ५४६ ४५ ........ अथ बोरः १७३ २१७ । अनामिकाकनीयस्या० ५७०. ४७ . Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक क्रमांक पृष्ठांक 9 ل श्लोक क्रमांक पृष्ठांक अनावेशेषु भावेषु ६४ ६३ अनुक्तमपि तत्त्वज्ञः २१ १७३ अनुनजन्ननदेशं १६ ७२ अनुवृत्तं दर्शनं स्याद् કહ હર अनुसारेणानुगाम्ये ४३१ ३६ अनेकार्थेषु शब्देषु ५०५ ४२ अन्यदङ्गमतस्तालानुसंधाने ७१ १५१ अन्यदुद्वाहितं यत्रावृत्त० । अन्यपाश्र्वाशिजं पाश्च २३ ७३ अन्यपाश्र्व नयेत्पाद ५७ १२५ अन्यस्य पाष्णिदेशे ५२ १२४ अन्या अपि भिदाः ८३ २०८ अन्याङ्गमप्रधानं स्यादतो ३२१ २८ ...अन्याश्च कथिताः सप्त ६४ ७८ अन्या स्याद्वाह्य वस्तूनां । ४५८ ३७ अन्येऽपि सन्ति भूयांसो ५० १६६ अन्येऽप्युत्प्रेक्षितुं १२३ २१२ अन्ये कनिष्ठिकामीषदः । ६०० ४६ अन्येन केनचिद्वापि ६४ २२७ अन्येष्वासारितेप्वेष २१० १९ अन्योऽन्याभिमुखी १५६ १६० अन्योन्याभिमुखौ स्यातां .६५१ ५४ अन्योन्यं मिलिता: प्राग्वत् १६४ १८ · अन्वर्थक (शि?)ल्पसंयुक्तो ३३ १८७ .... अपकान्तस्ततो वामः ४५ १४२ अपक्रान्ता दक्षिणेतु ५८ १४३ अपक्रान्तं व्यंसितस्य २६ १७४ अपराजितसंज्ञे स्याद् ३७ १७५ अपरे खटकावको शिरः ७५४ ६४ अपरे नाटयकति १८ ११० अपविद्ध कटिच्छिन्नं ५४ १७७ अपविद्धमूरूद्वत्तं .३५ १७५ अपविद्ध सञ्चितं च ६१४५ अपसृत्य द्वितीयाय १८८ १७ अपि संघट्टिता खुत्ता .. ६ १२६ अभ्यन्तरे कनिष्ठाचा ३५ ७५ अभ्यासात् युगपति ७४० ६२ अभिनेयपरां शोभा काञ्चित् ३२८ २६ अन]भिमत दर्शनेन १७१ २१८ अमीभिरेव स्तम्भाधर्नाट्ये ४०८ ३४ अयमों मया यावदुपयोगं ४२१ ३५ अयमेवालपद्मः स्यात् ५८२ ४८ परालखटको हस्ती नरालतां नयेदेनं नते १७१ १६२ अरालाख्यो पताको वा ६४६ ५४ श्ररालाङ्ग ष्ठतर्जन्यौ ६२४ ५१ परालौ हंसपक्षौ वा ७३४ ६२ अराल चोर्ध्ववदनं पक्षे ८२ १५२ प्ररालं दघदन्येन ५६ ७७ अर्धचन्द्रं करं कृत्वा ततो ७७६ ६५ अर्धचन्द्रं करं कृत्वा दक्षिणं ४६ १८८ अर्धन्यत्रो यत्र पादौ ३० १२१ अर्धस्वस्तिकसंच ९५ १८० अर्धसच्यथ विक्षिप्तमावर्त ३६ १७५ अर्धसूचि तु वामाङ्गे ४८ १७६ अलकस्यापनयने ५३६ ४४ अलगं कूर्मालगं चोर्वा० ५ १६५ अलगं विधाय करणं ३३ १६७ अलक्तकादि वस्तूनां ६३० ५२ अलक्तकादिना पादरञ्जने ५५० ४५ प्रलपामरालंच ७११६१ अलपमानुल्वणी च ५२० ४३ अलपल्लवसंज्ञो च ६३ १६० अल्पस्पन्दा सद्वितीयायता ६६ ८६ अलमेतेन चेन्नैवं लोका० ४२४ ३५ अलसा निपततारा ३५ ८६ अलातां चारिकां कृत्वा १५८ १६१ अलातं भ्रमरं चाथ ८३ १७४ अभिनेयार्थतादात्म्यपटुः १२५ १२ अव(?थ) देशी (?श)स्थ० २ १२६ रतवर्ष माती ur Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक क्रमांक पृष्ठांक अवनमा नता कण्ठा० ११ ७२ अवलम्वाय तस्यानच ८५ २२८ अवलोच्य दिशः ६७ २१० अवहित्यं चापसृतं 88 १८० अष्टादशाङ्गलं यत्र ६१ ११४ अस्त्रे संमार्जने नेत्र० ५४२ ४४ अस्या एव विपर्यासाद् ४२१६७ अस्यामाचाश्चत्तत्रः २३९ २१ अस्मिन् करिस्मृतेहेतौ ७२२ ६१ असौ हरिणलाञ्छन० २० २०१ असंवद्धप्रलापे स्याद् वहि: ५५६ ४५ असंयुतोज़गामिभ्यामु० ५४७ ४५ अष्टो कांस्यजतालधारिण ३६ २२४ अहंभाव: स्मृतो गर्वः ४६५ ४० अंसयुग्ममनाभुग्नं ३६ १४८ अंह्निः कनिष्ठयाङ्ग ल्या ३१ १२१ आकारमपि कान्तस्य ३५ २०३ प्राकाशस्यानुग्रहे तु ४१२ ३४ आक्रामेन्मण्डलं पूर्ण २२८ २० पाकेकरा विशोका च ___६ ८३ प्राकाशाभिमुखो यत्र १६९ १६२ पाकुञ्च्य मध्ये ८०२ ६१ पाकुञ्चितपुटामन्द० २३ ८४ आकुञ्चितावहृद्य ६६ ६० पाकुञ्चितोऽन्तनिम्तः ८२ ८१ पाकुञ्चितं स्यादाविद्धजानु ८७ ११८ प्रांघ्रिस्वस्तिमाधाय ४४ १६८ प्राचमने स्यादुत्तान० प्राचम्य प्रेक्ष्य कर्तव्यं २२६ २० प्राचार्यः श्रुतिकोविदः ४ १६३ पातोद्यजातमत्रापि ५६ २२६ प्रातोद्यवादनं तत्र __ २२ २५१ आदर्श याचने श्लक्ष्णः ५२५ ४१ [श्रादौ ?] सम्यङ नान्द ० ३ २० आनन्दोऽप्येवमेवेष्टः ४१७ ३५ श्लोक क्रमांक पृष्ठांक . आन्दोलितः स्यादन्वर्थ २५ -७४ अान्दोलितः कम्पितस्तु ११५ १६ ग्रानीय स्वस्तिकीभूती ३५ १४८ प्रापीड्य पाणिना पृथ्वी ८०७ ६६ अभिमुख्यान्निवर्तेत ७ ७१ अभोगनर्तने प्रोक्ता ४ १७० प्रामुखं तन विज्ञेयं १७ १८५ प्राभुग्नं शिथिलं निम्न प्रायातं चावहित्यं १०१ २१० प्रायान्ती शीघ्रमूधि: ५०५ ४ प्रआयामे तेऽष्टहस्ताः ८४ ८ आयामे परिणाहे च ७५ ७: पायातं चावहित्यं श्रायतं स्थानकं तत्तु ३७ ११२ भालोकितं यत् सहसा ६२ ६३ श्रालप्त्यादि विभेदेन १३० २१३. . पालप्ती क्रियमाणायां १३२ २१३ प्रालीढं स्थानकं तत्तु ३३ १११ प्रालीढं स्थानकं कृत्वा १६ २१० आवर्तितं कनिष्ठाद्य० ३८ १०६ प्रावतं शकटास्याख्यं ___३ १३८ प्राविद्धवको. तावेव ५५ १४६ प्राविद्धवको सूच्यास्यो ५१६ ४२ आविद्धभ्रामितभुजी ७३७ ६२ प्राविद्धवज्ञतां नीते ५६ १५० पाविद्धोऽभ्यन्तराक्षिप्तः २१ ७३ प्राविद्धा रचयन् चारी ४८ १४६ श्रावृत्तिभिः सप्तभिर्वा ५७ १४३ आवेष्टितं स्यादागच्छेदा० ३६. १०५ आवेव्यं कुण्डलादीह १०.१०३ आशीर्वाचनसंयुक्तं २६१ २३ पासनानि प्रकल्प्यानि १११ १० श्रासनं च यथोत्थानं . ... .६१ १६० प्रासनं संश्रितस्त्वेकः : ७८ ११६ आसार्यन्त इति प्रोक्ता... १६ १७० ..... २३.... Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक क्रमांक पृष्ठांक ) श्लोक क्रमांक पृष्ठाक ३ १६६ इच्छन्ति तन्मनेत्र ६६ १७८ उच्चर्यदीयकरणानि २३ १७२ इच्छन्ति भ्रमरं तानि ८० १७६ उच्चैर्नाथ सृजाङ्गहार १ १ इति कीर्तिधरस्त्वाह ४८ ७६ उक्त प्रत्युक्तकं तद्वदु. इति देशीस्थानकानां १० १०६ . उक्ता गवेष्यमाणेयं ७६१ ६४ इति भरतमतेन मार्गचारी० ६३ १२५ उत्प्लुत्याधोमुखोऽग्रे २० १६६ इति सर्वमिदं सम्यग् १४६ २१५ उत्थापक परिवर्तक २० १८५ इत्यष्टौ दृष्टयः प्रोक्ता २० ८४ उत्थापनस्तु संहर्षो २१ १८५ इत्याचार्यमते ख्यातं उत्थापनी प्रयोगे [च १४२ १३ इत्यादवोऽध्यवसाया ३६५ ३१ उत्यापयन्ति रङ्गेऽस्मिन् २१४ १६ इत्यादिकं तथा स्तम्भादिकं ३५५ ३० उत्पाटनेऽन्योन्यनुखं ४३ ५२६ इत्याद्यनेकशश्चैव ज्ञातव्याः ५०४ ४१ उत्पचन्ते नृत्यभेदाः ३८ ४६६ इत्युक्ता दृष्टयो लोकदृष्टि० ५८ ८८ उत्तरे तु प्रवालं स्याद् १०५ इत्येवं नवधा प्रोक्तों ६८ ८९ उत्साहाध्यवसायाद० १७४ २१७ इदं स्थानं प्रयुज्याथ ४४ ११२ उत्तानश्च ततः पार्श्व ३० १०५ इत्यादयः प(?) धानेन ३० १६६ उत्तानपादयं (उत्तानःस्यादयं ?)५४ ६५२ इममेव परे प्राहुः . ६४२ ५३ उत्तानरेचितश्चैको १०२ १५४ इयत् (? ईषत्) स्मितमनोहारी । उत्तानवञ्चिताधं तु १४० २१४ ३१ २२३ उत्तानवञ्चितौ हस्तौ ७२ १६१ इयत्तायाः परिच्छेदेऽङ्ग लिः ६४४ ५३ उत्तानवदनं सुप्तं . इयमुत्थापनी व्यना २३५ २१ उत्तानाङ्गलिरप्रस्थः ५५३ ४५ इह कश्चिद्विपश्चिद्य० ७५८ ६४ उत्तानोऽलिकदेशादि ६०८ ५० - इह प्रकृतयो दिव्या . ८६ २०६ उत्तानोऽयं लगादाने ५७१ ४७ .. इह भावा रसाश्चैव २६८ २६ उत्तानो व्यक्तसंश्लिष्ट ६६३ ५५ इहाभिदधिरे केचिद् २५८ २३ उत्तानो वामहस्तश्चेत् ६८१ ५७ .. ईश्वराणां विलासश्च उत्ताने नयनौपम्ये ६०४ ४६ ईषत्कुञ्चितपक्ष्मानभू पुटा ४३ ८७ उत्तानो पातयेोः २८ १४७ ईषदाकुञ्चितं पाद० ५० १३१ उत्क्षिप्य कुञ्चितं ४६ १२३ ईषद्वक्रपुटापाङ्गा तिर्यग० ४८ ८७ उत्क्षिप्तकुञ्चितस्याङ्ग्रेः ४७ १२३ ईषन्मन्दानिलचलत्पद्म० ४५ २०४ उत्क्षिप्य दक्षिणं पादं २४२ २१ उक्तं द्विवचनान्तत्वं ७१९ ६० उत्क्षिप्ता पतितोक्षिप्त १५१ १०१ उच्चता न तु न खर्वता . १४ २२१ उत्क्षिप्तांसं किञ्चिदिव ४६० ४० उचति(उचित? )माचरितं ३४ २०३ उक्तत्थं किल पद्धतिः ४६. २२६ उच्यते मण्डलगतिः १८ ७३ उद्घटितोऽङ घ्रिपाश्वं च ८० १५२ . उच्चावापाण्डुरौ श्यामौ ७८५ ६६ उद्वृत्तश्चैव संभ्रान्तः १६ १७३ उच्चर्यदीयकरणानि ५१ १६६ । उद्घाटितस्ततो बद्धः १६ १३९ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोक क्रमांक पृष्ठांक उवृत्तोऽपि न संभ्रान्तो उद्भूतास्त इव ग्राह्यगुण ३४५ ३० उद्वत्तश्चरणो मूतिः ५६ १३२ उद्वृत्तत्वं वैष ५२ १४२ उद्वत्तस्यैकपादस्य उद्वृत्तो विध ज्रान्तश्च २० १३६ उद्वेष्टितक्रिया वक्षोदेश० ७४६ ६३ उद्वेष्टनळ्यिां कृत्वा ४२ १४८ उद्वेष्टनं वेष्टयित्वा ५४ १३२ रवेष्टित विधानेनाघो उद्वेष्टिलेन कृत्वा तो ३३ १४७ उद्वेष्टितेन निष्क्रम्य ३७ १४८ उदृष्टितेन निष्पनी ५८ ७७ उद्वेष्टितयुतःकार्यो ६०२ ४६ उद्ग्राहादिष्वड्ताले १३७ २१४ उदेति हिमदीधितिः २८ २०२ उद (ऊर्ध्व ?) वर्तनिका २६ ७४ उद्धृतं पतितानं १५६ १०२ उन्मत्तसंजक पश्चात् ६६ १७८ उन्नती दोलितश्चैव ७१५ ६० उन्नतं च नतं चैव ७८६ ६७ उन्मपितो च विश्लेपा० ७४ १० उपाङ्गता वाऽमीषां स्यात् ३२५ २८ पाङ्गसेवकाः सिंहासन उपाङ्गानि द्वादशेति सपाङ्ग (ों?) यस्य शोभते १ ८२ उपक्रने गीतकानां १७२ १६ उपधानः सिंहमुखः ५१० ४२ उपर्युत्तानितोऽन्दो ५.४४ ४४ उभयं स्मृतमारोहे २०७ १८ रोमण्डलमास्थाय २४ १७४ चरोमण्डलसं च संनतं ६११७७ उरोमण्डलतंच नितम्ब ४३ १८५ उरोमण्डलिनी तान्याम् ५१६ ४३ रोर्तिनिका विद्यादुरो० ४७ ७६ अङ्गि लितलः पाद ११८ १५६ अर्वजान्वर्धमत्तल्लि ८ १४५ अर्ध्वजानुर्यदा चारी ८८ १५३ अर्ध्वजानुरलाता च १५ १२० अजान विधायाय १२० १५६ ऊवं व्रजन् शिरोदेशा० १४ ७२ ऊर्वाधः कम्पनाच्छीघ्र ४८३ ३६ जाभिमुखमुक्षिप्त ४८६ ४० अस्यिोऽयोमुखस्तियंग् ऊर्वाकृती तदा हस्तौ । ६०७ ५० ऊत्वृत्ताडिते चार्यो १४ १३६ ऊर्ध्व गच्छन् नु स्मृतेषु ५२७ ४३ः जर्वप्रसारितो स्कन्चा० ७५० ६३ ऊरूद्वत्तोऽड्डितश्चैव ५० १४२ अद्वत्ताभिघा चारी ४० १२२ अद्वत्तेत्यथ नमः १४ १२० अल्पृष्ठं स्पृशेदेहि ४७ १३१ जल्द्वृ त्तं च करण ५५ १७७ ऊरूवृत्ताभिधं चैव १६ १४६ ऊरू वेणी तलोद्वृत्ता ऋग्वेदादितनोर्यस्माद् ११८४ ...: ऋश्लिष्टाङ्गलियः ऋजुः प्रसारिताः स्तव्याः १५८ १०२.:. ऋतु माल्यालङ्कारः १५६ २१५ एकत्वे सरलोळ ५८४ ४८.. एकतंश्चरणावङघ्रीव . १५० १६० एकतालान्तरों व्यत्रो २६ १११ । एकतालान्तरौ पाद एकदोलाकरं कृत्वा एकपादलुप्तिं वा -२६ १६७ एफः पादः समस्त्वन्यः . ५२ ११३ एकः पादः समस्तस्य .. ४७ ११३ एकपादाञ्चितं तथा १३ १६५ एकपार्श्वगतं तस्माद् एकपादप्रयुक्तैयन् .. २५ १६७ or " Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 . [ ७ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोक क्रमांक पृष्ठांक एकमन्येन पादेन ५३ १३२ एभिरङ्गः प्रयुक्तैः स्यात् २७५ २४ एकमार्गगतावने १३१ १५८ एलकाक्रीडितौ पादौ १६४ १६१ एकस्याङः पाणिभागे १२६ १५७ एवमङ्गान्तरेऽपि स्यात् १७६ १६३ एकं कृत्वा समं पाद० ७१ ११५ एवमङ्गान्तरं यत्र १५१ १६० एक निघाय सममस्य एवमर्धनिकुट्ट स्युः ७८ १७६ एकः पादः समो यत्र १५ ११० एवमन्येऽपि विज्ञयाः ७७८ ६६ एकाङघ्रि कुञ्चितं कृत्वा ६ १७० एवमन्येष्वपि तथा २७ ३०७ एकैकमग्रतः पादौ २८ १२८ एवमस्तीति नारीणां ६५० ५४ एकैकोत्तरवृद्ध्या च एवमाहार्यविधयो २१ १०४ एकव चलितोत्क्षिप्ता ६३ ८६ एवमेकोनपञ्चाशत् ४०२ ३४ ऐक्यादामूलमैक्ये एवमेते मया प्रोक्ता . ३०४ २७ एत एव प्रयत्नेन ३३६ २६ एचमेते प्रयोक्तव्या ६६ २१० एतत्करविपर्यासात् ७०५ ५६ एवमुक्तात् त्रिः प्रकारात् ४०० ३४ एतत् किं जलमाङ्गिक एवं चतुर्दिगीशानां २४४ २२ एतत्पादविपर्यासाद० ४५ ११२ एवं तत्र समग्रलक्षण १२४ ११ एतत् स्वभावजं सत्त्व १७७ २१७ एवं तृतीयाऽभिनये १९२ १७ एतत् स्त्रीस्थानकं कार्य ४२ ११२ एवं ते भरतात्मजा एतदर्थमिह नृत्यकोविदः २१ २२२ एवं द्वादशभिर्युक्ता २६४ २३ एतद्गाथाभिरातोद्यवादनं १६३ १५ एवं प्रकीर्तिताश्चार्य ३७ १३८ एतदाभाषणे कार्ये ३६ ११२ एवं पादद्वयकृता १७ १३५ एतद्राज्ञां पुरंध्रीणाम् २१ १७१ एवं रसाश्रयं सम्यग् १५० २१५ एतद्विपर्ययात्प्रत्यालीढं ३५ ११२ एवं लोकस्य या वार्ता ३११ २७ एतद्विपर्ययाद्वाथ ३६ १२२ एवं व्यवस्थिते राजा २८४ २५ एतद्विपर्ययाद्धस्त ४५ १८८ एवं विधान संयुक्तं ११३ १० एतदुक्तगुणराशि २० २२२ एवं शिष्टानुरोधेन ३८ ४७१ एतच्चोर्ध्वनिरीक्षायां एवं समासतः पुंसां . १३ ११० एतस्यैव यदा वक्रा० ५३३ ४४ एषवाङ्गविपर्यासात् ३४ १२२ एतावेवाचलो मूर्धक्षेत्रगौ ६० ७७ औचित्यान्मेलनेऽङ्गानां ५ १७२ एतावेव यदा पाश्र्वाभि. ७३१ ६१ क्वचिच्चारीवशा ना(?न्न)म २ १६९ एतेऽभिनयविशेषाः ३०१ २६ कटयां यदार्धचन्द्रः स्यात् ५४० १५६ एते पञ्चदर्शवात्र ३२ १०५ कटाक्षी यत्र नर्तक्याः ६५ २०६ एते विशतिसंख्याका: ६८२ ५७ कटिक्षेत्रे सर्पशीपी ६६७ ५५ एतेषां विनियोगस्तु २६ ७४ कटिभ्रान्तं तदा शेयं १०० १५४ एताः प्रोक्ताश्चतस्रस्तु ३५ १८७ कटिभ्रान्तमर्गलं च ६८ १२० एभिश्चतुभिः सहिता कटोछिन्नमिति प्राः ६५ १७८ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक क्रमांक पृष्ठांक फटीछिन्नं तथा चोरू० २७ १७४ कटीजानुर्विवर्तेनोत्तानं ५६ १२५ कटीजानु समासन्न २१ ११० फटीतटे ततः पादौ २४ १४० कटीपञ्चविधा प्रोक्ता ७६२ ६७ कटीसनं चूर्णितं च ६० १७७ कथं वा रतिनिर्वेदादि ३५४ ३० कनिष्ठाङ्ग ष्ठको कन्यां हृदयदनां ८४ २२८ कपालचूर्णेन जाते कपित्थो हस्तको वापि ६५६ ५५ कपोलयोः पत्रभङ्गिरचना २६ २२३ कपोलदेशे विघृतश्चिन्ता ६१६ ५० कपोलो पड्विधौ प्रोक्ती ६३ ६३ कमलादेः प्रार्थनायां ६२० ५१ कम्बसुन्दरसुकण्ठता १३ २२१ करचरणवेप० १७८ २१८ करणावातसंदर्भ १७ १७३ करणाङ्गहारनिचयै० १२६ १२ करणाङ्गहारराहित्यं १३७ १२ करणान्यथ वक्ष्यन्ते २ १४५ करणानि दधत्यन्ते ४० १६८ करणानि मते तेषा० ६७ १७८ करणानां शतं पूर्ण० २० १४६ करणानुक्रमणे चैव- ८५ १७६ करणं वलितोरुः स्याद्वलितं १०० १८१ करणरञ्चितच यंत् २६३ . २६ करणरभिनिर्वृत्ता ३ २४ करणरष्टभिः प्रोक्तो २६ १७४ करपादाङ्गकस्य क्रिया ३ १४५ फरभी मलिनी स्वच्छा० ८४ ८१ करस्तदानयोोंगे द्वित्वो० ७२५ ६१ फरं कृत्वाङ्गान्तरेण ६३ १५० फराकि रचितो यन्त्र ४६ १४६ करावक्लिष्टतलको श्लोक क्रमांक पृष्ठांक . करिहस्तत्वमुचितमुदितं ७२४ ६१ करिहस्तो दक्षिणः स्यादितरः ४४ १४८ करिहस्तकटीछिन्ने ८८ १७६ करो खटकदोलाख्या १४४ १५६ करौ संघट्टिततलो १६७ १६२ करैः षोडशभिः सम्या० ७७ ७ कर्णावतंसे कर्णान्तं ५८७ ४८ कर्तरी लोहड़ी चैव कर्तर्यश्चतमेव च १५ १६६ फर्परपूरकाशीरचन्दनः ३५ २२४ कर्णाटदेशसंभूतं तस्या ५४ २२६ कर्माण्येतानि कथ्यन्ते ८७ ६२ कलाद्वयन गमनमिय० २४३ २१ कलाप एव शीर्पत्यः (?स्थः) ६७८ ५७ कलापं हस्तकं प्राहुः ६७६ ५७ कलाभिः स्यात् षोडशभिः २२६ २० कलासो वकसंज्ञोऽयं ६२ १६० कविनाम्नालंकृतं च २७४ २४ कक्षावर्तनिकोरस्थे ३० ७४ काचिद्रा (? द्वा) गायिनी ६३ २२७ कान्तस्तुतिकथालाप० ४६४ ४० कान्तं चित्रपदे (?) .३६ २०३ कान्ता हास्या च करुणा ७ ८३ कान्ते स्वप्नोपलब्धेऽपि ३२ २०३ कासवाणइव विश्व० १७ २२२ कामलीलागृहप्रांशु ३३ २२४ कामिनीनां केशवन्धे ५६० ४६ कामोपभोगप्रचुरा २३ १८६ कायस्याल कृतिर्येन कार्य पताकाहितयं ५३०. ४३ . कार्या मूर्द्धतु तेषां कार्य विभाव्यते यत्र । ३१ १८७ कार्याः पुष्पपुटाद्यास्तु १३६ २१४ . कालेनाथ पुनविलीनमिव १७ ... ३...... काषायवसनादीनां . . . . : ५२ . ५.. ... / Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - क्रमांक पृष्ठांक ६० ११८ . ६८० ५७ . १६ १०४ ७४ २०७ [ ६ ]. इलाक क्रमांक पृष्ठांक श्लो किञ्चित् कृत्वा च ७२ २२७ कूर्पराधिष्ठितक्षोणि किञ्चित्कुञ्चत्पुटा तिर्यक् . ४२ ८६ कूपरौ पार्श्वलग्नौ किञ्चित् पावनतो कायौ ५६१ ४८ कुर्यादङ्गस्य रचनां किञ्चित श्लेिष्टभुजावेव ६७५ ५६ कुर्यान्नृत्यमिदं प्रोचु० किञ्चित सौष्ठवमाधर्य ५७ २०६ कुर्यात्तद्वद् द्वतीयान्तं किञ्चिद्दत्तो(?दृष्टो)र्ध्व १२७ ९७ कुरुते कठिनं तद्धि किञ्चिद् बाष्पकले नेत्रे ७६ १६६ कुर्वन्ति सुखदुःखे ये किञ्चिद्विवलितं गात्रं ५१ ११३ कुशाङ्क शधनुर्वल्ली किञ्चिदुप्लुत्य पततो २७ १२१ कुसुमाञ्जलिमाकीर्य किमङ्गहारस्तव नागराजः १ १७२ कूर्परस्वस्तिकाकार० कि तु दृष्टाथं संपत्त्यै० ७७२ ६५ कृतो वक्षस्यरालो० कुचक्षेत्रं श्रितो यत्र २४ १४७ कृत्वा कुर्युस्तालयुक्तं · कुञ्चितश्चरणो यत्र ४८ १३१ कृत्वा ततः क्रमात्ताल .. कुञ्चितोढुंगुलिद्वन्द्वः ५३४ ४४ कृत्वातिप्रोठितो यत्र कुञ्चितं पादमानीयोद्ध्वं ४४ १२३ कृत्वा तं पातयेद्भुमो कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्य ४४ १३० कृत्वार्धचन्द्रमास्ते चेत् कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्य स्था० १४१ १५६ कृत्वा धरित्रीं स्कन्धा० कुट्टितश्चरणः पूर्व पुरतो २२ १३५ कृत्वान्यचरणं सूची कुटितश्चरणः पूर्वं पुरः २५ १३६ कृत्वा बद्धामपक्रान्तां कुट्टितश्चरणः पूर्व लुठितो २० १३६ केचित् करिकरस्थाने कुञ्चि (?ट्टि)तश्चरणः पृष्ठे २८ १३७ केचित् स्थानकचारीणां कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्य पार्श्व० ५१ १२४ केचित् सालगसूडस्य कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्या० ४६ १२४ कृत्वालगं निपत्यो कुञ्चितं पादमन्योरुमूल० ५५ १२५ कृत्वालपनौ न्यस्यते कुचोन्नमनचातुरी १६ २०१ कृत्वा समनखं छिन्नं कुट्टितोंगुलिपृष्ठे १६ १३५ कृत्वा सूचीभवन् कुट्टितं चरण पश्चाद् ३३ १३७ कुत्वोत्प्लवनमावर्त्य कुट्टितश्च स्वपार्वे १६ १३५ कुट्टितः प्रथमं पादः २६ १३६ कृत्वोत्प्लवनं सूचीमन्य० कुटिलायां गतौ कार्या ५९८ ४८ कृत्वतानि निकु कुट्टयित्वा च विन्यस्य ३५ १३७ केचिदानन्दसंदोहं कुट्टयित्वा च विन्यस्य ३६ १३७ केचिदुत्तानप्रसृतो कुट्टयित्वा च विन्यस्य ३४ १३७ केनचित्त्वथवा कार्यः कुण्डलमण्डितगण्डयुगं २५३ २२ केशवन्धे प्रकीर्तिता कुतपस्य प्रजायेत केशवन्धौ फरी क्रत्वा ६६ २०७ ४२७ ३५ ५६७ ४६ २०२ १८ ६१ ७७ ७६ १५१ १६० १५ ६० २२७ ५० २०५ ५. १२५ ५४ १८६ १६ १६६ ४३ १४८ १५४ १६० ४५ १४८ ५१ २०५ १२४ २१२ mr.. . .... १७५ १६३ ३० १७४ ४० १४१ ३२ १६७ १६७ ४० १७५ ४७ २०४ ७०३ ५६ ३७३ ३२ ४३ ७६ ४८ १८ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोक क्रमांक पृष्ठांक केशाकर्षेऽर्थ वीक्षायां १० ७२ खण्डसूचि ततो ब्राह्म १०६ . . केषां च न मते सर्प० ७०१ ५९ रखण्डसूच्या भ्रमाच्चक्र० ४६ १६६ कश्चिद् ब्रह्मादिभिर्धन: खङ्गादिधारणे नास्य २२ ७३ . कोऽप्यसो तरुणिमोद्गमः१५ २२१ खर्वताजानुकट्यू० ४३ २०४ कोणेषु परितश्चापि १५३ १४ गङ्गातरङ्गपरिधोतजटम् २१६ १६ : कोणं वासप्रतिद्वारं ६२ ८ गङ्गावतरणस्यान्ते १८७ १६४ क्रमेण स्वस्तिको पादौ १७३ १६२ गच्छन्ती प्रस्खलत्येव ७० १६० ऋज्यादमत्स्यमकर० ६६६ ५५ ग(?य)दोद्धतौ नृत्यहस्ता० ३८ ७५. क्रमात् सूचा च भ्रमरः ४४ १४२ गत्यापकुञ्चिता ज्ञेया ३१ १२९ क्वणद्घर्घरिकाजालजङ्घा १७ १६५ गत्वा तत्रासनं कृत्या ७८ १६१ क्रमाज्जाताश्चतस्रस्तु ३३० २६ गतिप्रका(?चा)रस्तु १०५ २१० क्रमात् कुर्वन्नङ्ग लीभ्यां ५४० ४४ गति कर्तु समदिता ५० ११३. क्रमात्ताक्तं वाद्यभाण्ड०८० २२८ गर्भखिन्ना मगीवेयं ५६ १६० . . क्रमादशीतिरेवं स्युः गम्भीरशब्दवान् मन्द० १०७ . . क्रमादूर्ध्वमस्तिर्यक्कटि० ५४१ गलगतविधुतन्नमिः प्रदिष्टो ७१६२ क्रमादेवं नटो भ्रान्त्वा २५ १४० ग्लान्यालस्य श्रमाद्यासु(?स्तु) ३० ३५१ क्रमादुद्वेष्टितेन स्तो १६१ १६१ गाम्भीर्यमाधुर्यविलासशोभा २७ ५५ क्रमेण कुट्टनं भूमेः २४ १९६ गारुको वाद्यमानेऽथ . . ४३ १९८ - क्रमेण तिर्यग्नमितं ४७७ ३६ गात्रमुखदृष्टिभेदै० १७६ २१७ क्रमेण सह वोत्क्षेपादु० ६२ ८६ गात्रस्य प्रातिलोभ्येन ६३. .७८ क्रमेण पादयोर्वोम्नि २६ १९६ गोततालसमं यत्र कटि० ५३ २०५ क्रमेणोल्लालयेद्यत्र ६० १३२ गीतादौ तु भवेत् कल्प० १२८ २१३ . क्रियते तत्र विज्ञयं ६० १५० गीताक्षरक्रमाद्वाद्य तालमानेन ३५ १६७ क्रियते नृत्यविद्भिर्यस्त० । ३४ १०५ गीतः सालगसूडश्च० ५१ २२६ क्रियाभिश्चेतसो यत्र . ८० २०८. गीयमाने वाद्यमाने ७१ २२७ क्रीडितः पूर्णभ्रमरैश्च] . २६ १४० गुल्फो च स्वस्तिकीकृत्य ८५ १५२ क्रुद्धा स्थिरोवृत्तपुटा १५ ८३ गोण्डलीविधिवच्चान. ३६ १६७ क्रोधाद्या अपि दृश्यन्ते ३८१ .३२ गौणत्वं भणितं तत्तै ७२६ ६१ क्रोधेऽधौ वदनौ स्यातां २६ १४७ गौ लो ग्लो लास्त्रयो. २१५ १६ .. क्षितिस्थित बहिः पाश्र्वा ८० ८० ग्रीवानतांसकूटं च २६ १४७ क्षीरोदकादिकं चेति ग्रीवोक्ता विद्युतभ्राता(?न्ता) ६ ७१ खटकत्रिपताकान्यतरः . ७२७ ६१ घट्टयन पाणिना खटकामुखयो भिक्षेत्रे ...३६ ७५ घट्टयन्नग्रंपाणिभ्यां ८०८ . ६६ .. खटकामुख्यहस्तस्य ५८३ ४८ ... घट्टितो मद्दितश्च .. .७६६६८.... खटकास्यो नाभिदेशे ६० १५३ । घातस्तत्र चतुर्धा . .३६ ८०६ ६६ तुषार ... Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक । श्लोक क्रमांक । ष्ठांक घर्घरो मुद्रितं चैव ३४ १६७ चरणं वृश्चिकं कृत्वा १११ १५५ घर्घरो विषमं गीतं २० १९२ चरणान्तरपावं चेन्नीत्वा० १६ १२०. घ्राणेन मन्दमापीतो १०६ ९५ चरणाङ्ग लिपृष्ठेन १५ १३५ घूर्णन्तौ यत्र कुर्वात २६ १२१ चरणो वृश्चिको यत्र ११५ १५६ चकितेव निरीक्षन्ती ५२ १८९ चरणौ स्वस्तिकी कृत्य १३ १२१ चञ्चद्रत्नमयोरुनूपुर० १२० ११ चरणौ स्वस्तिकीकृत्येक ५८ १३२ चत्वारोऽथ गुणास्तु ४२ २२५ चरणौ वर्धमानस्थो . ५६ १३४ चतुरस्त्रामष्टकलां २५५ २२ चलत्किशलये दीप० ५८४ ४८ चतुरस्त्र व्यस्त्रभेदाद् १३६ १२ चलपादं च तत् २३ ११० चतुरस्त्रभिदास्तित्र १६२ १५ चलत्वेनाचलत्वेन ८१ २०८ चतुरस्त्रौ स्वस्तिको वा ५६ ६६८ चलानगा ज्ञातप्रश्न ५६४ ४६ चतुरस्त्रं च यद् दीर्घ ३६ ४ चलाचलिश्च सैवोक्ता ४६ २०५ चतुरस्त्रं समास्थाय ५० १४६ चलावुक्तौ तु तों ११२ ९५ चतुरंस्त्रस्तथा व्यत्रः १३८ १३ चलितः कम्पितः स्तब्ध ७० ७६ चतुरस्त्रावथ वृत्तावन्यौ ४२ ५१५ चव्यंमाणादिरूपेणो ३६६ ३४ चतुरस्त्रं समं कृत्वा ११ १२६ चातुरस्च्या विशेषे ६६३ ५८ चतुरं करणं कृत्वा ६० १८० चातुरस्त्र्यं शरीरे च २२ १४६ चतुर्थे परिवर्तेऽय २३२ २१ चारी डमरूकुट्टाख्या चतुर्थ वस्त्वभिनयेदङ्गहारं १६६ १८ चारी च पृष्ठलुलि(?)ता ८ १३४ चतुर्दिकं शिरः क्षेत्रे १२८ १५७ चारी चाषगतिर्यत्र ११७ १५६ चतुर्दिक्षु ततोऽन्यानि २२ १७३ चारीपदं तत्रचरेहि २ ११६ चतुर्धा च विधा ३६ ४३७ चारी तु शकटास्या १८० १६३ चतुः पञ्चादिकान् केचित् ४१ १७५ चोरीभिभ्रंमरीभिश्च १२२ २१२ चतुभिः करणः शोभा ४५४ ३७ चारीविवक्षया ज्ञयश्चरणो० ८ १३८ चतुभिश्चरणरेवं २५४ २२ चारी हस्तकसङ्गात् ११६६ चतुभिः पञ्चभितिर्यद्वा ११५ २११ चारों च जनितां कृत्वो० ४६ १४२ चतुर्वर्णानि कुसुमान्या० २४८ २२ चारी च जनितां कृत्वा १६६ १६२ चतुर्विधं तु नेपथ्यं चारी तद्वशगां कृत्वा० ५६ १४६ चतुर्विधं तु विज्ञयं चारी च भ्रमरी कृत्वा ८६ १५३ चतुर्विशतिरित्येते हस्तकाः ४२ ५०६ चारी संघट्टितां कृत्वा १७७ १६३ चतुंस्तम्भसमायुक्ता. चातुर्विध्यात् स्वहेतोः २८१ २५ चतुर्हस्तो भवेद् दण्डो चार्यातिकान्तया या १३७ १५८ चन्दनागरुकर्पूरमृग० ८१ २२८ चार्यापविद्धया हस्तेना० ४५५ ३७ चन्द्रिकातपसंत० १८ २०१ चार्यामाविद्धसंज्ञायां १७६ १६३ चरणं कुञ्चितं कृत्वो० ८१ १५२ चार्या वा स्थानके यापि ५६ २०६ ४३ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोक क्रमांक पृष्ठांक चिकुरापनयस्वेदापनये ५६३ ४६ तत्पूर्वभागे नेपव्यभवनं ८१ ७ . चिन्ताशोकाकुलत्वेन २२ २०१ तत्परं तु मदनोन्मदि० ७ २२० चित्रका पञ्चकारूढत्येवं ३३ १९७ तत्पारिपार्श्वको स्याता २२२ २० ..चित्रैः सव्यापसव्येन ११७ २१२ तत्प्राणभूभ्यां प्रसृत० ३८६ ३३ चित्तवृत्तिगणो बाह्य ४११ ३४ तत्समूहविशेषश्चाङ्ग ७ चिराचिरस्वरूपेण ३३६ २६ ततः खुलहल(?लुहुलु)श्चेति २३ १९६ चुक्कितं नृम्भणे दन्तपङ क्त्यो १३२ १८ ततः पुनः प्रयोक्तान १४७ १३ चुचुकाभिनये तच्चिवुक० ५७७ ४७ ततः स्वल्पेष्ववहितेष्व० चौर्येण वस्तुग्रहणे कुष्ठा० ६२३ ५१ ततः सङ्गत्य पिण्डोस्थोः १६५ छादनीयं प्रयत्नेन ततः सूत्रं दृदं ३७ ४ जङ्घा पञ्चविधा क्षिप्तो ७४ ७६ ततो जवनिका हित्वा.. जङ्घालद्धनिकालाता ६ १२६ ततो निवद्ध कविते कटे नङ्घा स्वस्तिकतः ७८ १५२ ततो विकृतवाग्वेषभूषी ४१ १६७ जर्जरग्रहण कार्य २३० २१ ततो विलम्बितलयं ४० १६७ जठरं सैवं वोद्धव्यं ६६ ७८ ततो विषमसूचीति जनितं चरणं कृत्वा १६० १६१ तथा च नृत्यशब्दार्थ १२७ १२ जनितः स्पन्दितश्चक० २६ १४० तथापि नृत्ये चार्यादौ ४७२ ३८... जलशायिवदेतत् स्यादासने २८ १६७ तथापि शिरसोऽङ्गानां ४६६ ३८ जयाभ्युदयमाङ्गल्या १६ १८५ तथा सुघा निधेयाऽत्र जं इहि मह मन्महेण तथा हि विवदन्तेऽत्र जानुनी भूमिसंलग्ने ७६ ११६ तथा ह्येते प्रोततया ४०४. ३४ . जानुनी भूमिसंस्थेचे ८३ ११७ तथा हि योक्ता युक्त्युत्या ७६२ ६४ : .. जितश्रमोऽश्लथश्लिष्ट १८ १९५ तथैव कनिष्ठा(?डि)[का] ६९ १०६ जिह्वाथ षड्विधा ऋज्यु० १३५ . ६६ तथैव मुनिनाव . ७१८, ६० .. जिह्वावलेहिनी ज्ञेया १३७ ६६ तथाविधः शनैर्घर्षन् ५३१ ४३ जुगुप्सिताऽदृश्यदृष्टा० १८ ८४ तदत्रान्तर्मनोरूपत्वाल्या० ४१४ ३५ .. . ज्ञेयः कुतपविन्यास: १४६ १३ तद्वदेव शिरश्चेत् १८४ १६४. ज्वाला ;भिनयने ५२६ ४३ तर्दधश्चोर्ध्वतश्चापि १०० - ६ ढिल्लायो त्रिकलिर्भावो ३६ २०४ तदा करिकराकारत्वेनोक्तः ७१६ ६० . तण्डुना निमिते नृत्ये २६१ २६ ता स्यानिषधो हस्त ६५८ ५४ . ... ततश्चापडपश्चैव २२ १६६ तदा स्वस्तिकमात्यातं . ३८ १४८ : ..." ततश्चारीसंज्ञं समं २७१ २४ तदा स प्रसरत्येव ३८४ - ३२ ततश्चोरवणोपेत त(?य)दा स्यानर्तको नीकी ७१. २०७. ततं पाश्रावणापाणि . १५८ १४ तदीयसपत्त्युचितात्र ..१० ११६. तत् सप्रपञ्चवाक्यादि २६६ २४ त«तिरिव या वृत्तिः ३२६ २६: 1..M . Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक क्रमांक पृष्ठांक · श्लोक क्रमांक पृष्ठांक तदुत्को संगृहीतः ४१० ३४ तलेन चान्यपादस्याथ २६ १२६ तदुत्कं पूर्वमस्माभि० १७३ १६ तद्वदेव शिरश्चेत् १८४ १६४ तत्राङ्गिकोऽङ्गनिर्वृत्तः .. २८२ २५ त्वरितप्रश्नवाक्ये च राज्ञा ४८४ ३६ तत्राघ्रिणकेन हि जायमाना ४ ११६ तस्य दक्षे मौखरिको १५० १४ तत्राङ्गानि शिरो हस्तौ ४७३ ३८ तस्य लक्षणविचारशुद्धये ४ १६४ तत्राङ्गानि शिरो हस्तौ २६६ २६ तस्यास्तु बहवो भेदा २१३४ तत्रावकीर्य पुष्पाणि १७६ १६ तस्मादनन्यमनसो जायन्ते ३५७ ३१ तत्र घरिका वाद्य २१ १६५ तस्मादुत्तमः एष मे ४१ २२४ तत्र सत्त्वगुणोत्कर्षा १६ १८५ तस्मात् शुष्कापकृष्टेयं २६८ २४ तत्रावलबते प्राणं ४०५ ३४ तस्मात् सर्वचित्तवृत्ति० ४०६ ३४ तत्रयं भारती वृत्ति०६ १८४ तयेवं रतिनिर्वेदप्रमुखा ४०१ ३४ तच्च रङ्गोत्तरस्यां स्याद् १५१ १४ ताण्डवे पण्डितैरुक्तो ७८ २२८ तर्जन्यङ्ग प्ठमध्याःस्युरू/० ५७६ ४७ ताण्डवं तद्भवेद्यत्तु प्राधान्येन २६० २६ तर्जन्यङ्ग ठमध्याः स्युर्यत्र ६०६ ५० ताड़नं तोलनं छेदभेदौ ४१ १०६ तर्जन्याद्यङ्ग लीनां ३३ ता(?भा)लेऽलपतकाजता० २४ २०२ तर्जन्यनाभिकेऽत्यन्तवक्रे० ५७३ ४७ तादृशो मस्तकावं ५३८ ४४ तर्जयामासतुर्देवं ताभिरष्टौ संनिपाताः २४० २१ तदेव चारु चातुर्याद् १८६ १७ तामात्मस्थां व्यनपत्यत्र २६ १०४ तदेव तालसंज्ञं स्यादिति २० ११० तामवस्थां परिप्राप्तो ___ ४१३ ३४ तदेव नागबन्धं .. २६ १६७ ताराकर्माष्टकमथो ८५ ६२ तदेवार्थ निकुट्ट स्यादे० ६१ १५० तारकाणां विभेदा ये ते ७७ ६० तदेवांकांग(?वैकांग) रचित० १४३ १५६ तारकाः स्युस्तत्परितो १५५ - १४ तदोवृत्तौ समाख्याती ६८५ ५७ तालत्रयं ततः सूच्या २२४ २० तन्निपात्य ततो भूमौ ६१ १२५ ताले ताले कुञ्चिता स्यात् १० १७० तन्मार्गजा देशभवा ११६ तालो मृदङ्ग स्तन्त्री १६८ १६ तन्मांस (?)विश्वरूपाभ्यां ३८० ३२ तावेव पार्श्वविन्यस्तो ७३६ ६२ ... तव्योजः करणार्थ १६५ १५ तावेव विप्रकीर्णाख्यो ६८६ ५६ तन्त्रीभाण्डसमायोगाद् १६७ १५ तावतंव तु कालेन २२७ २० तन्मता सप्तषष्टिस्तान् ७६० ६४ तिरश्चीनां तर्जनी च ५६६ ४६ तरुणे क्षामनयना ५७ ८ तिरश्चकेन पादेन समुत्प्लुत्य ३५ १६८ तलपुष्पपुटस्यादौ . १८६ १६४ तिरिपभ्रमरी चाथ १० १६५ तलपुष्पपुट तहदपविद्ध २३ १७३ तिर्यक् स्वास्फालनेनैव १४ १७१ तलपुष्पपुटं लीनं वतित ४ १४५ तिर्यक्करणसंज्ञं च तिर्यक् तलमध्यानसंलग्नाङ्ग ल्यः ५६३. . ४६ तलसंस्फोटितं पावजानु १४ १४६ तिर्यस्वस्तिकमुत्प्लुत्य तले प्रयोः स्वस्तिकीकृत्य २३ १२८ | तिर्यक्पताके चोत्ताने १६ १७१ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 . . ' ६ १५४ ४८.५ क्रमांक पृष्ठांक तिर्यगञ्चितकं तद्वत् ४ १६४ तिर्यगढ़ सकृन्नीतमाधूतं ४८० ३६ तिर्यमुखा मराला च ३ १२६ तिर्यञ्चौ चरणौ पाणि ५५ ११४ तिर्यञ्चं पादमाकुच्य २५ १२८ तिसृष्वन्यासु वर्तन्ते ३३१ २६ तृतीयं वस्त्वभिनयेत् २०० १० तुल्यांश (?स)कूर्परी ६८७ ५७ तुयंमत्र गदितं तु ८ २२० ते च सत्त्वे प्राणमये तेनान्तरालिकेन स्यात् ४२६ ३५ तेनेदं च विराटराजदुहिता १६ ३ तेषां महानुभावानां ३७४ ३२ ते स्युदक्षिणतो विभोर्नव० ११८ ११ ते स्यनटंगतानां तु ३५६ ३१ तैर्वा चतुर्भिस्त्रिभिरेव ६ ११६ तो करावुपसृतो तं प्रहारमथवात्र दर्श[ये] १५ १६५ [ते] त्रयस्त्रयोऽसंभूय त्रिकोणचारी या चारी ३० १३७ त्रिकं स्याद्विनतं चारी १२४ १५७ त्रिनयनमभिनवमृषभगति २३८ २१ त्रिपताकेप्यरालोक्तं त्रिपतातो कटीशीर्षे ७३० ६१ त्रिपताको करौ कृत्वा त्रिपताको तिरश्चीना० ७०६ ५६ त्रिपताको करौ कृत्वापश्च (? श्चाद्) ५५ १८६ त्रिपताको करौ कृत्वा विषमो०६६ १६० त्रिपताको करौ कृत्वा वामपादं ७७ १६१ त्रिपताको करो कृत्वा समं ७६ १६१ त्रिपताकं करं कृत्वो०७४ १६१ त्रिपुडारिविधौ कार्यो . ६१४ ५० विभिः कलापकस्तश्च ६ १७२.. त्रिरष्टभिस्तु विस्तारे ४५ . ५ . श्लोक क्रमांक पृष्ठांक त्रिविधा प्रपि विज्ञेया . ७७४ . ६५ त्रिविधा मदिरा प्टि० ५४ ..८८ व्यस्त्र पक्षस्थयोर्यत्र २८ १११ व्यस्तं चेति पुनमध्यं त्रासोद्ममत्पुटा त्रस्ता त्रिंशत्सपञ्चाः किल भौम्य ८.११६ यसको वितडं शङ्का ४० २०४ यसक: स्यात् सललितं ६८ २०७. दृढं तामवलम्च्यायो०. ८६ २२६ दण्डपक्षौ करो कुर्याद् . दण्डपादं च वांमान १४ १८० दण्डपादां द्रुतं चारी १४६.१५६ दण्डौ सुवृत्तौ मसृणो . ११३ २११ दण्डश्चतुभिभ्यिां दर्दुरकोऽपि चतुर्धा दन्तलक्षणसिद्धयर्थ .१२८.६८ दन्तानां फिचिदाश्लेपः १३३ दन्तानां श्लेषविश्लेषी १३०. १८ दन्तैर्दष्टोऽधरः कोघे १२४ दृप्ता विकसिता सत्त्वमु० १६. ८३ दृष्ट (?ष्टि)पुटताराश्च ..२८२ दृष्टयस्त्रिविघास्तत्र .. .५ ८२ दृष्टा निमेषिणी दृष्टि राकेफरा दूरालोके.. . ४६ ८७ दृष्टिः स्याद्विकृते स्त्रीणां.३४ ८५ दष्टं निकर्षणं चेति · . १२६ १८ दक्षपार्श्वगतं यद्वा . . . . ६५४ ५४ दक्षिणश्चरणः सूची . ५६ १४३ दक्षिणाऽन्न रचयेद् दक्षिणाङ्घ्रि भ्रामयित्वा.. १८ १६६. दक्षिणे जनितां कुर्याद् . . १३८ दक्षिणे जनितां कृत्वा ३६ १४१. दक्षिणे भ्रमरी वामे .१०. १३८ . दक्षिणे(? णा)घ्रि तालमात्र २५ १२१ दक्षिणो दण्डपादोऽय... ३८ १४१ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक क्रमांक पृष्ठांक । श्लोक क्रमांक पृष्ठांक दक्षिणोत्तरपार्श्वस्थ १०३ दक्षिणो नाभिदेशस्थः ६५ १५० दक्षिरणों भ्रमरो वामो० ११ १३६ दक्षिणों जनितो वामः १३ १३६ दक्षिणो जनितो भूत्वा १७ १३६ दक्षिणो जनितां कुर्यात् । ३३ १४१ दक्षिणं कटिदेशस्थं १६८ १६२ दक्षिणां तु यदां जङ्घा ७५ ११६ द्वात्रिंशता तथा हस्त०७४ ७ दिक्चतुष्टयसंयुक्त० - ३० १४० दिक् स्वस्तिकं विधायके० ३४ १७५ 'द्विजेभ्यो भोजनं दद्यात् द्विदेवत्ये दिने शस्ते दिव्यास्त्राणां प्रयोगे च ४८७ ४० द्विविधानि तथा नृत्त० २३ ३ द्विःप्रयुक्तं कम्पितं । ४८५ ४० दीनार्द्धपतितावस्थ० १४ ८३ दीर्घः सशब्दनिष्क्रान्तो० १११ ९५ दुःखे क्षामाववनती ६६ ६३ द्रुतोरप्लुतोऽपसत्यैव २६ १२१ दूतो दर्शितमार्गस्तु । ६२ २०६ दूरमुत्क्षिप्तमत्र स्यात् २२ २४५ दूरे पावप्रचारः स्याद् १४३ २१४ देवतानामृषीणां च राजा ३१० २७ देवानां प्रकृतिदिव्या ६० २०६ देवांशजास्तु राजानो ६१ २०६ - देवेन्द्राभिनये सा स्या०' ५६५ ४६ 'देवेभ्योऽस्तु नमस्कृति २६२ २३ देशनृत्तविधिधा तथा २५ ३ देशी पद्धतिरेवेयं ५५ २२६ देशे देशेषु यत्कोति० . ६१ १३२ देहक्रियांप्रयत्नेच्छादय० ४०७ ३४ देहस्य तियंग भ्रमणात् ४७ १६६ • देहात्ममानिनां तेन , ४१८ ३५ देहः स्वाभाविको यत्र ५८ ११४ देशीतालश्च संयोज्य ११० २११ देशीयलास्यकाङ्गानि ४२ २०४ दोऽष्टहस्तकासे ७३ ७ दैर्घ्य विस्तरतस्तत् ४४ . ५ दोलापादस्य गमनागमने १५७ १६१ दोलापादाख्यचार्या १३३ १५८ दोलापादां विधाया० - १४८ १६० दोले श्लथांसो कर्तव्यो दोलः पुष्पपुटश्चैव ५१२ ४२ दोषरदूषिता भूमि: द्वौ द्वौ स्तम्भौ समा० ६७ द्रव्ययोस्तत्र संबन्धो ७६५ ६४ द्वात्रिंशदेते संप्रोक्ताः ७५६ ६४ द्वावङघ्री पाणिजङ्घो० ६७ ११५ द्विः स्याच्याषगति० २१ १३६ द्विपद्या वर्णतालेन ११८ २१२ धर्मार्थकामाः संममेव १५३ २१५ ध्यानं वैष्णवमन्वहं ६२ ११८ धान्यपुष्पफलादीनां ६६४ ५५ धारणे कुन्तवज्रादेः ५६६ ४६ धार्यः क्रमात् शीष्णि ६४० ५३ घिगित्युक्तौ तु रोषण ६२८ ५१ धुतमेव भवेच्छीघ्र ४७६ ३६ ध्रु वनृत्ये यथोचित्यं १३४ २१३ ध्रुवायां संप्रवृत्तायां ८६ २०६ ध्र वेणवं विधायपि ७४ २२५ ध्रुवेयं चतुरस्त्रा स्यादस्यां २२० २० धूनयती करौ स्वीयो १७ १७१ धूमविधूसरवदनप्रकृति० ३८६ ३३ धर्यलीलाङ्गहारः स्यात् ३०८ २७ घेर्योदार्येण सत्त्वेन १०३ २१० नखदन्तकराघातर्वीरो १६१ २१६ न च शवयं हि लोकस्य ३१३ २७ न तिव्यग्रमनसा ३६६ ३१ खायते १६६ २१६ W ro देत Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक क्रमांक पृष्ठांन ove. ४५३ ३७ २७ १११ नटस्यातत्स्वरूपस्य किं ३३४ २६ नटोऽनुकरणत्वेन भावुकः १४८ २१५ नक्षत्रेऽभिजितित्वं २३१ २१ नतपृष्ठं तथा मत्स्यकरणं नतवाहुनितम्वांसं ७८८ ६७ नतं महीगतं ज्ञेयं ८६ ८१ नता जङ्घा नमज्जानु ७८ ८० नत्वा देवानथ क्षिप्त्वा २७८ २५ न त्वं नाहं न मे कृत्य ५७५ ४७ नन्द्यावर्तस्थितावनी १७ १२७ नन्द्यावर्तस्थपादौ चेत् १६ १२७ नन्द्यावर्तासनाङनी चेत् १५ १२७ नन्वत्र प्रत्यत्यैकार्थे ४४६ ३७ ननु कोऽयं रसो नाम १४६ २१४ न नृत्येन समं किञ्चिद् नभस्यूरू निषण्णी चेत् न भेदः कल्प्यतां विद्वन् ७६६ ६५ नमस्कृत्य गणाधीशं ७६ २२८ नयन्ती हस्तको चित्रं ६७ १६० नयनवदनप्रसादः स्मित० १५७ २१५ नये वदनदेशेऽसौ ६०१ ४६ नर्तक्या विविधं यत्र १७ २०१ नर्तनाश्रय इहोदितं ३ २२० नर्तनविषमरेव० ५. १६८ नर्तनं यन्मया प्रोक्त० १०६ २११ नर्तक्यो मिलिताः पश्चाल्लता १६३ १७ नर्तक्यःषोडशैवं सुकुसुम० २११ १६ नर्मस्फोटो नर्मगों १८६ - २४ नलिनीपद्मकोशौ तो ७४६ ६३ न लोकादेककादेव ४५६ ३७ नव तत्र स्वनिष्ठानि ७८ नवभ्रमरकाल्येन परिवृत्त्या ८७ १७९ नवभिः करणः प्रोक्त ६२ १८० नवभि करणैरेभिनिमितः १०२ १८१ नवसंगमसंभोगरति० २७ १८६ क्रमांक पृष्ठांन नवासने च षट् सुप्तौ १४ ११० नवोढालज्जिते तूर्ध्वक्षेपादु० १५७ १०२ न व्यग्रेः करणैर्दष्ट २ १७२ न्यायसंज्ञा भविष्यन्ति न हङ्गाभिनयात् कश्चित् २६६ २६ न संस्कार विशेषत्वात् ३२२ नाम्नैव कृतलक्ष्मायो १५५ १०१ नाट्यधर्म(? मी) लोकधर्मी० ४५२ ३७ नाटयधर्मी द्विधा तत्र नाट्यप्रकाराः कथिता ३१५ २७. नाट्यमार्गोपाधिभिन्न २८५ २५ नाटयमार्गोपाधिभिन्नं ४४८. ३७ नाटयवेदसमुत्पन्ना १४ १८५ नाट्यशालागतं तन नाट्यादि त्रितयं ततः नाट्याभिप्रायमाश्रित्य ४२२ ३५ नाट्येनाभिनयं नृत्यशब्देन १२८.. १२ नाट्यं मार्ग च देशीयम् - २८६ २५ .. नाट्यं मार्ग च देशीय ४५६ ३७ .. ७३ १६१ नान्दीपदान्तरेष्वेवमेवं नानादेशसमुद्भवाश्च ललना० १५ २. नानादेशविचारचारमतयो १२३ . ११ नानादेशेषु यं देव० नानाप्रहरणाद्याश्च ते १७.१०४ नानाभावरतैर्युक्तः . नानाविधैर्यथा पुष्प नानाशीलाः प्रकृतयः नाभिक्षेत्रादूर्ध्वगामी ५५६ ४६ नाभिनेतुं क्षमं तस्माहि० ४३२ नायको यत्र कार्यार्थ० २६ नायको वर्ण्यते : ३७ नायिकानायकोपेत. नारिंगी चैव धम्मिल्लः५०३ नासानानुगता साना २४ ८४ नानागतिविशेषांश्च २ ६ Uy ३०२ २ ३१४.. २७ . .. . ३७ १९७ 8५: ८ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ १७. ] . श्लोक कार क्रमांक पृष्ठांक | श्लोकमा क्रमांक पृष्ठांक., नासादेशं गतो यत्र -५३, १४६ निर्वेदादिभाववर्गगणने ३६६::३१.. नासानिलेन व्याख्यातो०१.१८, ९६. निर्वत्ता इति विज्ञेयाः .. ३९३....३३ . नासापि षड्विधा १७६३ निवतितोऽन्तर्म (? र्ग)तया:-: ७३, ७६.. नासिकाक्षेत्रतः कार्यः ५५१: “४५) निवेशमेलकाक्रीडमुद्धतं .. १७ १४६ . निञ्चितं मतल्लिः ७६:१७९ निवेश्य (?वेशि)तो स्व-::.: निकुञ्चितासूच्याख्य०-८११७६:: (? त्व)धः निकट्टकाभिधं कुर्यात्ततः ६७१८०:: निश्चेतव्यास्ततश्चैते ५०६ : ४२ निकुट्टका लताक्षेपा० ७.१२६ निष्क्रान्ते सूत्रधारेऽथ २७७ ..२५ निकुट्टनमिहाङ्गस्य ८४.१७६ : निष्क्रियः स्तब्ध इत्युक्तो:७२: : ७६ . निकुट्टमूरूवृत्तं चाhिoj३३१७४: निष्काशो निष्कर्षणं १३४ -९६ : निकुट्टनं तु:पादेन ,३,१३४: निष्पत्तिर्नाट्यशास्त्रस्य १८ .... ३ . निकुट्टितस्तद्वदेव पादो १.०७.१५५: निष्पत्तिर्नाट्यशास्त्रस्य २६:१४ निकुट्टितो समौ पादौ ३२ १३७.. निषण्णौ गगने तत् .....३०:१११ - नितम्बकेशहस्तादि० : ८६ १५.३.. निषेधे नैवमित्युक्तौ १. १४६ १०१.. नितम्बविष्णुक्रान्ता ६४. १७८ :- निसारुरासकं वाद्यास्तालाः .. १४२ २१४... नितम्बश्चतुरस्त्रो वा०७४.१५१.. निःश्वासोऽनुशयादौ स्यात् ११६ ६६.. नितम्वांसभुज : निःश्वासोच्छ्वासमन्दत्वे-... ६८. : ९४.. निहञ्चितं परावृत्तं : ४७५ : ३६. नितम्ब करिहस्त निहतेऽन्यस्य पादस्य : -२८. १२१ :: निदधाति तदा प्रोक्ता ६६ १९० नीरक्षीरित चुम्बितानि ........१३. २००. निपतेतां समुक्षिप्य ४६ १३१ नोलमुत्पलमित्येष :: ७६४.. ६४. नूपुरं च तथाक्षिप्तं . . २५. १७४. निमेषिती तु पुटयोः ७३ नूपुरं च विवृत्तं -.७५ १.७६. नियुक्तो वेदनासूया०१२ नूपुरं चैव विक्षिप्त० २८.१७४. नियुक्ती लोलितो तत्र ७१ नूपुरं भ्रमरं कृत्वा .४५. १७६नियोज्यः स्वरगमनेर हे नूपुरं पादापविद्ध ८.६.१४६.. निरपेक्षौ यथा सर्वो०३३ १०५ नुत्तश्रमविधिस्तद्वत् २८ -...४.. निद्धश्चिरमाभुक्तो ११०- नृत्यन् सालगसूडेन :: ४६. १६. निरूपयन्ति यत् ७२०६१ नृत्यन्ती नर्तकी यत्र :५२ २०५:. निर्गच्छदिव यन्मव्य : १७:२४: नृत्यन्ती यल्लये क्वापि ६६ २०७.. निगच्छति महर्वक्त्रा० १०७ : ६५: नृत्यस्य प्रनियां कृत्वा. -------७०. २२७.. निर्णीयन्ते प्रेक्षकश्च ४२६ : ३६. नृत्यस्याखिलन (कृ)त्यवित्.::.३ १६३.. निर्दिष्टं तत:प्रबोद्ध० :.:...४ ४१:: नत्यानुगं वर्षमाने २०६ :१६. निर्वेदोऽय तया ग्लानि० . : १६३ २१६. नृत्याभिधेऽङ्गाभिनये . ... .४४५ ३७.. निर्वणना तु सा ज्ञेया : ... .. ६० -६२- नृत्य प्रसारिता पावें ...५६ ८० नितम्बो पल्लवाख्या .१७ ४२ २० १७३ . नितम्ब करिह . निम्नपृष्ठं च निर्भ ७८२ ६६ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोक क्रमांक पृष्ठांक नृतस्य चोक्तं फरणात् ५११६ पताको त्रिपताको वा ७१४ ६० नसिंहाभिनये वना १३८ ६६ पताको निपताको वा ७३३ ६२ नेत्रे निमीलिते पादौ ८० ११७ पताको मणिबन्धस्यो ५४ ७७ नेपथ्यजो विधिः सर्व० ४ १०२ पताको स्वस्तिफोभूय ६६० ५८ नेपथ्यवेश्मनस्तत्र पताकं हृदये न्यस्य .६ १७० नेपथ्यशब्दवाच्यस्तु ५ १०२ पताकं वामहस्तं तु ४४ १८८ नेपथ्यस्य गृहीतस्य पतितोर्ध्वपुटा दृष्टिः ___३८ ९६ नेयं चारीप्रचारं २६६ २४ पद्मकोशौ [वोर्णनाभौ] .. १५६ १६१ नैतद्दरिद्रगृहिणीविवाहो. ३७१ ३२ पद्मकोशाभिघो हस्ती ४६ ७६ ... नैवमेवं विधस्यापि ३७२ ३२ पद्मकोशावयोदस्यिो ६९२ ५८ नवं नटानामन्योन्यं पद्मकोशौ प्रकुर्वात ७४७ ६३ ... पङ्किलोामनगः ८१० ७० परचकभयं तस्मात् पङ्को षोडशमात्राभि० २५६ २२ परस्परोपरिगतो . ६६५ . ५५ पञ्चधा मरिणबन्धः स्यात् परस्परं संहताः स्य: ८८ ८ .. पञ्चधा सममाभुग्नं ७७६ ६६ परस्यानुरागेण शङ्गारो० . १८६ २१६ पञ्चमे वाय षष्ठे वा १०६ ४ पराङ मुखतलः किञ्चिद० ६४६ ५३ पञ्चतालान्तरं तिर्यग० ___३३ १२२ पराङ मुखोऽग्रतो गच्छन् । ५४५ ४४ पञ्चविंशति संख्या[श्च] १० १३४ पराङ मुखः पार्वतलः ३१ १०५ : पञ्चहस्तमितायामान् ७० ७ परावृत्तं तु तच्छीर्ष ४६८ ४१ पञ्चहस्तोन्नतां कुर्यात् १६२ १० परिवर्तद्वयं चात्र . २३४ २१ पञ्चाप्यङ्ग लयो यत्र ६२२ ५१ पञ्चवोद्घट्टिते तानि परिवयं त्रिकं चोरो० . ४७ १७६ ५८ १७७ पतदङ्ग लिरावाने ५५७ ४५ परिवर्तास्तु चत्वारः २१८ २०. पतन्तेत्पतनाविष्ट ५८ १५० परिवर्तितमित्येतत् ३५ १०५ पततः क्रमतो यस्याः ५२ ८८. परिवर्तिनी ध्रुवाऽस्यां . २३७ २१ पताकस्य न तन्मूलं ६१२ ५० परिवर्तनतोऽङ्गानां ५३ ११३ पताङ्ग ष्ठको यत्र ६३८ ५२ परिवर्तेषु शेषेषु . २६० २३ पताकाद्याः कपित्यान्ता १३६ २१३ परिवृत्तं दण्डपादं १५ १४६ पताकारालयोः पूर्व २०७४ परीक्षणे घातिकेषु .... ३ १८४ पताको निम्नमध्यो ५९७ ४६. पश्चात् क्षेपाच्च सा प्रोक्ता २३ १३६ पताको विरलाङ्ग ठ० ६३५: ५२ पश्चास्यस्य पुरस्ताच्च ४० १३० पताको चेदधोवक्त्रा० । १५५ १६० परं तेषु विशेषो० . . ७५ २२८ पताको चेझमेदूवं. ४५. : ७६.। पल्लवी चापरे प्राहुः ७११ पताको त्रिपताको वा पश्चात् क्षेपाच्च सा. २३ पताको त्रिपताको वा ७१२ ६० । - पक्षप्रद्योतको दण्डपक्षो .. ५१८. ४३ Mrm Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ [१६ ] श्लोक... क्रमांक पृष्ठांक । श्लोक क्रमांक पृष्ठांक पक्ष्मान्तीनतारं च ८९ ६२ पार्वे विधुन्वती ६० १६० पक्षिणां स्वापदानां च ६४२१० पाश्र्वोन्मुखी तु या पश्चान्नस्य पुरस्ताच्च ४० १३० पाणिरङ रगतल० ३८ १२२ पाठ्या (?नाटया)दे रुप० ४ १ पाणिरेकपदे स्थाने २० १२८ पाणी च स्वस्तिकी० पाणिः पाश्र्वान्तर० ६३ ११५ पाणी वक्षःस्थितीः तत्र ९७ पाया समौ परावृत्ते ६६ ११५ पात्रस्य लक्षणं रेखा.. १ २२० पाणिविद्ध भवेत् ६२ ११५ पात्रमत्र गणितं २२१ पाणिस्वस्तिक० १२३ १५७ पात्रं मुञ्चति रङ्गपीठ०४६ २२५ पिण्डाकारेण विज्ञयः २०५ १८ पादश्चाङ्ग लिपृष्ठेन .१२ १३५ पिण्डीवन्धाः प्रदर्श्यन्ते पादद्वयकृता सा २१ १३६ पिण्डी शङ्खलिका चैव २०३ १८ पादद्वयनिकुट्टाख्या ५ १३४ पिण्डं बघ्नन्ति १८१ १७ पादमाकुञ्चितं पृष्ठे ५५ १३२ पिहितावतिसंलग्नपुटौ ६० पादमाविद्धचारीकमन्यो०६० १२५ पीठस्यास्य पुरः पादमाक्षिप्तचारीक० .. १२२ १५७ पोते रक्तस्तथा पादशिक्षासु कर्तव्या ११ १३५ पीवरोरुजघनं कठिनोच्चैः ६ २२० : पादाङ्ग लीभिराक्रम्य ५८ १८६ पुटो वित्ताडितो ज्ञेया० ७६ पादावग्रेऽङ्ग ली पृष्ठभागेन २२ १२८ पुनितम्बदेशे तु ४२ ७५ पादास्फाली विलम्बी ३२ १९७ पुनः पुनर्वहिः क्षिप्ता० ५६१ पादोऽय स्वस्तिकाकार० ३३ १२६ पुनः पुनविनिष्कम्य ७१३ ६० ... पादौ यदा बहिर्नीती २४ १२८ पुनार्योश्चेष्टितं यच्च १५४ २१५ पार्श्वक्रान्तस्ततो वामो० ४२ १४१ पुमानित्यं दक्षपादं २४६ २२ पार्वकान्तो दक्षिणस्तु ६१ १४३ पुरतः पृष्ठतश्चैव ८१ १६२ पार्श्वनान्तं परिवृत्तं १०१ १८१ पुरस्ताच्च कृता सैव २६ १३७ पार्श्वतश्च पुनःक्षेपात् २४ १३६ पुरस्तादंह्निमुक्षिप्य. ४३ १३० पार्वतो दिनतीवं. ५०१ पुराटिका मिर्थोऽह्नि ३५ १६० पार्श्वतः स्यात्पार्श्वमुखो० ६२६ ५१ पुरो गच्छति पश्चाच्च ८० १६१ पार्श्वद्वयं पुरस्ताच्च ४२ १०६ पुरः किञ्चित् प्रसार्याथो० ४२ १२३ पावनिकुट्टकं पश्चात् ७७ १७६ पुरःपश्चात्सरा नाम ४१३४ पार्श्वमण्डलिनोः पाण्यो० ४६ ७६ पुस्तस्तु त्रिविधो शेयो पार्दस्याभिमुख यद्वा ६५५ ५.४ पुस्तः स उच्यते नाट्ये १३ १०३ पार्श्वक्षेत्राभ्राम्यमाणे . ७७ १५२ पुष्पाणां ग्रहणे नान्दी०५७६ ४७ पावक्षेपनिकुट्टा च ७ १३.४ पुष्यश्च विविध पै० ८२ २२८ पाश्र्वाक्रान्ताह्वचार्या १२५ १५७ पूर्वतो द्वारमेवं स्यात् पाश्र्वाभ्यां यत्र चरणा०. २१ १२८ पूर्वमेव विधायाथ० ६७.२२७ ६० - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २० ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक 1 श्लोक क्रमांक पृष्ठाक पूर्ववद्रङ्गपीठस्य ૯૬ ૭ प्रथमे वा द्वितीये वा २२१ २० पूर्व पताको कर्तव्यो ७०० ५६ प्रथमो पोहनस्यार्थ १८४ १७ पूर्वरङ्गे प्रयुञ्जीत १४८ १३ प्रथमं वस्त्वभिनयेत् २०१ १८ पूर्वोक्तमङ्गनिचर्य ૧૭ રર प्रपदस्थितवामा ः २८ १६६ पूर्वोत्तरार्ययोदेहे ६३ २०६ प्रदर्शयन्त्यङ्गहारैः १६१ १७ पूर्ण खल्लं रिक्तपूर्ण ६७ ७८ पदै मियतः सूचीविद्वात्यं २८ १४० पृष्ठकुट्ट चापगतं ४ १३८ प्रनृत्येदङ्गहारेण चतलो १८६ १७ पृष्ठं प्रसृतपादस्य ४८ १२४ प्रबद्धः स्खलितश्चैव १०२ . ६४ पृष्ठतो वलितं शीर्ष ५३ १२४ प्रभाप्रारभारशोभाव्य० । ३२ २२३ पृष्ठतोऽस्मिन् प्रयुक्ते ५६ १३२ पर्यवस्यन्ति तेषां च ४०३ ३४ पृष्ठतो गमनात् पृष्ठा० २० ७३ प्रयत्नेनाभिनिवर्त्य ३७७ ३२ . पृष्ठतो दर्शनं यत्तत् पर्यस्तकाधङ्गहारैः १८३ १७ पृष्ठानुसारी चाविद्धः १३ ७२ प्रयाति पद्भ्यां पश्चाच्चे० ७६ १६१. .... पृष्ठे चास्य वराङ्गना . ११६ ११ प्रयोगोऽयं यतो रङ्गे १३३ १२ . पृथक्कटोनाभिचरी २४ ११० प्रयोगस्य फलं शेषं २७६ २४ .. पृश्यां स्थित्वांसयुग्मेन ३७ १६८ प्रयोगः पूर्वनेवोक्तः २८८ २५ पेरणीव नटो नारी ५२ १९८ प्ररोचनाऽऽमुखं चैव . १५ १८५ .. प्रकटीकुत्ते तस्मादर्थ २४ १०४ प्रविष्टेप्वपि पात्रेषु ४३ ११२ प्रकृतस्यैव कार्यस्य २७३ २४ प्रस्तावनेति कथितान्येता० १४१ १३ प्रकृतिस्थस्य संलापे० १७ ११० प्रसन्नश्च तथा रक्तः २७.१०५ : . . . प्रकोष्ठग्रहणे चापि ५६५ ४६ प्रसन्नं वदनं हस्तो : ३८ ११२. ... प्रक्षेप्यं नूपुरं विद्या० ११ १०३ प्रसरति दिनमणितेजसि २३ २०१ प्रचारो हस्तयो० प्रपितमपक्रान्तं १६ १४६ प्रगामे मस्तकगतः ५३५ ४४ प्रपितं च करणं ७३ १७८ प्रत्यङ्गालक्ष्मोपाङ्गानां २१ ३ प्रसारितकनिष्ठां च ६३४. ५२ . . प्रत्यङ्गानि स्कन्धों प्रसारितभुजोऽन्यस्तु प्रत्यङ्गमालिङ्गति यं ८९ ८२ प्रसारिते भुजामेका० ८८ ११८ प्रत्यक्षभूमिश्रितयो० १८४ प्रसारितोत्तानतलो .. ७०२ ५६ प्रतिकोणं यथा कोण० ८३ प्रसारितो भवेद्यत्र २१. १२० प्रतितालस्तथा चकतालि० १२५ २१२ प्रसारितं तूभयतो ७८६ . ६७ प्रतिमादिषु प्रोक्तं ७७ २२८ प्रसार्य पुनरानीतो १६५ १६२ प्रतिवस्तु तदा वृत्ति० २०८ १६ प्रसार्य बाहुयुगले .. . ११ १७० प्रवृत्तिकादगलि (?लगि)ते १८ १८५ प्रसृतावायतौ प्रोक्तो ... ७० १०.... प्रविशेयस्ततः सूत्रधारः २२३ २० प्रागल्भ्यमप्रगल्भानां . ७. १ प्रयमे परिवर्ते तु २५६ २३ प्राङ मुखौ खटकावक्त्री . ६८३ ५७ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] श्लोक : .. क्रमांक पृष्ठांक श्लोक क्रमांक पृष्ठांक प्राचां चतुर्णामतेषां ३६ ११२ वाह्यवस्तुविशेषाभि० ३४६ ३० प्राणभूते सत्त्वरूपे .. ३६७ ३३ बाह्याख्यजडरूपेण ३६० ३३ प्राणभूमौ तु विश्रान्ता ४१५ ३५ बाह्यार्थविषयक्रोधादिकानां ३४६ ३० प्राणाद्यनुग्रहात्ते स्युः ४२५ ३५ बाहुभ्यां भुवमाक्रम्य ३८ १६८ प्राणिनः प्रथमे तत्र २० १०४ वाह्वोः पताको संन्यस्य ७ १७० प्राणिसंज्ञाः कृता ह्येते १६ १०४ ब्राह्मणादिचतुःस्तम्भा० १०१ प्राणो मुखान्तनिहितः १२३ ६७ ब्राह्मणाद्युपधिच्छन्नं २ ८ प्राधान्यं विनियोगस्य १८ १७३ भट्टाभिनवगुप्तैश्च ७२३ ६१ प्रान्ततः प्रोल्लसत्तालान् ६८ २२७ भट्टोद्भट्टादयःश्वासोच्छ्वासा०३३८ २६ प्राप्तो वसन्तसमयः २७ २०२ भयहर्ष रोषरोदनवदन० १५ २०० प्रायेण तु बहिर्गीत० . १४५ १३ भयहर्षसमुत्थानां ३४ १८७ प्रायेणेषां नियोगस्तु ७१३८ भयानके रसे प्रोक्तं प्रायो वक्षः स्थित: कार्यो १८५ १६४ भरतोक्ता अपि त्यक्त्वा ५ १७० प्रारम्भे मण्ठतालेन ७६ २२८ भवन्ति यत्र विज्ञेय० ५५५ ४५ प्रांशुवंशोपरिगतै० ४६ १६८ भवेदपसृतं पाश्वं ७६१ ६७ प्रेरणायां प्रहारे च ५२४ ४३ भवेतां सर्पशिरसो प्रेक्षागृहाणां सर्वेषां भारत्ययहिता यत्र वृत्तिः ३२७ २८ प्रोक्तश्चात्र नटो नवीन० ५ १६३ भारती सात्वती चैव ३२६ २८ प्रोद्गिरत् किमु न . १८ २२२ : १८ भारती सृज देवेश ७ प्लुतमानादसंबा, ५३ १८६ भारतेन गदितस्तु कैशिकः १२ १६५ फुल्लान्जेन्दीवरादौ तु ५६० भारते निगदिताः प्रविचाराः ५ १६४ बद्धामथ स्थितावर्ती ११६ १५६ भारतः स खलु सात्वतो ३ १९४ वलिपूजोपहारैश्च ५३ भावप्रकाशकर्यत्र(?श्लथै). ५४ २०५ बह्वयश्चान्या भवन्त्येताः २० भाव्यते तद्गतो भेदो ४४३ ३६ बहिर्गताङ्गलिः स्थूल० ६४७ भावोपसर्जनो यत्र ४४६ ३७ बहिर्नीतो निकुञ्चः २३ ८१ भावः स्वसुखदु खाभ्यां ३४१ २६ बहिर्धमणस्य चरणस्याङ० ५२ १३१ भावाः स्युः सात्त्विका० ३७६ ३२ बहिः प्रसारितां धत्त०६६६ ५६ भाषणे सद्वितीय स्यात् ६३१ ५२ वहिश्चेत् प्रसृतः पाद० १२ १२७ भुजङ्गत्रासितं का? ५७ १७७ बहुश्चाषगतिभिश्चरणः ३२ १४० भुजङ्गनासितां चारों ७२ १५१ बहुशश्चित्रगुम्फानि ३६ १७५ भुजङ्गत्रासिता क्षिप्ता १६ १२० बहुसङ्गभि(?भङ्गिम)नोहारि १०८ २११ भुजङ्गवासितां चारों ६१ १५३ वालमप्यविदिताङ्गसंभ्रमं १० २२१ भुजङ्गाञ्चितकं दण्डरेचितं ७१ १७८ बाह्यधूमादिहेतूत्या ४२८ ३५ भुजङ्गवासिता चारी ६२ १५३ बाह्यभ्रमरकं यत्र वामसङ्गं ३५ १४१ । भुजानकूपरांतेषु ६६६ ५८ १८४ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक भुवमित्यं विभज्याथ भुवा स्वाक्रान्तया साकं. भूत्वोत्तानावधोवस्त्रो भूपानामभिषेचने भूम्यां चरणाग्रेण भ्रमणमिह करोति भ्रमति मण्डले या सा भ्रमन्ती मण्डलाकारं मर्यादिषु चौ ६० १० २ ३२ १२६ १३६ १५६ भूमिश्लिष्टता हस्ता० भूमिपातो विमुक्तं ८५ ११७ ६० ११४ भूमिग्नाङ्ग ुलीपृष्ठ: भूमीन्द्रेऽखिलदांनमान कुशले ४३२२५ २५ १६६ २८३ २५ भूलग्नतलपादस्य भूषणादिरिहाहाय० भूषाप्रसङ्गतः किञ्चिन्ने० स्पृशौ पादपाव २२ १०४ ३० १२६ भूसंलग्नोर पाणि: ६६ ११५ १५.६ १४ भैरवी नैर्ऋते कामगामिनी भौमाकाशिकचारोणां ६ १३८ ६ १८२ १६ १७१ ૪૬ चान्तः स चान्त (? न्त) भ्रामयेच्च परितः भ्रामणं च फलकस्य भ्रामं भ्रामं सकृत् मङ्गल्यं जनता प्रियं मण्डलस्थानके स्थित्वा मण्डलस्वस्तिकं [ छिन्नं ] मण्डलावृत्तिवितता क्रमांक पृष्ठोंक मण्डलेन ततोऽप्येव मण्डलं स्थानकं कृत्वा मण्डलं स्थानकं कृत्वा मंडलं स्थानकं कृत्वा विद्याद्विनिःसृत्य मणिबन्धावधिभ्रान्तो मणीनां वेधने चापि [ २२ ५० ५ ६६ ७०८ & ५१ १६८ ११४ ९६ ७ १६४ ८ १६४ ४६ १६६ ११ २ १६३ १६१ ५३ १७७ ६२ ५७ ७७ ७३५ ३२.१४७ ५७ १५० ७६ १५२ . १६ ७३ ४१७५ ६२६ ५.१ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक ५२ १७६ मतलि गण्डसूचि० मतलिभरश्चैव वामोऽयो० २२ ९३६ मत्तल्लि भ्रमरश्चैव दक्षिण: २७ १४० मत्तवद्यत्र चरणावित० २६ १२८ ५ १८४ ६०३ ४६ १२ १७३ ५ ७१ ५६६ ४६ १७४ १६ ७२ ७ ७६५ ६८ मदवीर्यवलोन्मत्ता० मर्दनाभिनये कार्यो० मदाद्विलसिताख्यश्च मदेदुःखे श्रमे त्रस्तो मध्यमामध्यमो यत्र मध्यमासारिताज्जाता मध्य वस्तु ये पती मध्यस्य वलनाच्छिना मध्ये किञ्चिद्भ्रमत्तारा मध्ये कोष्ठचतुष्केऽस्यां मध्ये महेश्वरः पार्श्वे मध्योपम्ये (?स्थे) तथा मनस्यन्यपरेऽकस्मादृ० मनसा सहितं चास्य मन्दं मन्दं पुरस्ताच्च मनः संवेदनं तस्य मनु (? सा तु ) चारी चरणतो मनोहरे तार से मन्ये गुणागुणविशेष० मर्मज्ञोऽखिलरागराजिषु मणको वताविदाए मया सखि विलोकितो० मल्लयुद्धे खङ्गः कुन्तनि० मल्लयोरिव को स्यातां मल्लानां च भुजास्फोटे म्लेच्छानां जातयो चास्तु मलिना किञ्चदाकुञ्चत् मस्तका भ्रमरी विद्याद् मस्तकं मण्डलाकार० महाभारस्योदृहने मार्कण्डेयपुराणोक्ता: ५६.८८ ત ५० १५४ १४ ५४६ ४५ १०८ ६५ ३४८ ३० ६५ १६० ३६८ ३३ १८. १२० ४४ १६८ १५२ २१५. ६ १६३ ७ १६६ ३७ २०३ ५६४ ४६ ७६६६४ ५६८ ४६ ६३ २१० ३३. ८५ २२ १७१ ४CE: ४१ ६६८ ५५: २२ २२३ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] .. श्लोक क्रमांक पृष्ठांक | श्लोक क्रमांक पृष्ठांक मानसैकाप्रय हेतुत्वे . ३६३ ३१ यच्च सामग्र्यसंपत्ती ४४ २०४ माने मोट्टायिते गर्वे ४६१ ४० यच्छिरः प्रमुखाङ्गानां मायेन्द्रजालबहुला . २६ १८७ यतश्चार्यादिकं सर्व ३ १०६ मिथः पराङ्मुखो सन्तौ ५० ७६ यत्पक्तिद्वितयं पार्वे ७१ ७ .:. मिथोऽभिमुखतां प्राप्तो १६२ १६१ यतः प्रकृतयः पूर्व मिथो युक्तो वियुक्तौ । १५३ १०१ यतः [कर] पृथक्त्वेन ७६३ ६४ - मिथः श्लिष्टकनिष्ठी ५४ ११४ यत् पदबद्ध गीतं १४४ १३ मीननाथ उत्तरस्यां १५७ १४ यतो नाटीकते मानं ७५९ ६४ मीलल्लोलचलत्पक्ष्मा यतो मौलेस्तु मनुजा ४७० ३८ मीलितार्घपटा किञ्चिद् ४० ८६ यतोऽलंकार्यशेषत्व० ३१६ २८ मुक्तजानूत्कटस्यैव ८४ ११७ यतो वाक्यार्थधोहस्ता० ७० १५१ मुक्तताटङ्कसुभगो २८ २२३ यतो लतास्त्रयः १३८ २१४ मुक्ताकलादिवेधे च ६११ ५० यत्र कृत्वा समी पादौ २४ १६६ मुक्ताजालमनोहारि २६ २२३ पत्र नार्यः प्रनृत्यन्ति ११९ २१२ :: .. मुकुलं हस्तमारभ्य ८४ १९२ यत्र नृत्यति स प्रोक्तः ७५ १६१ मुखनेत्रविकूणननासा० १८० २१८ यत्र नृत्यति स प्रोक्तः ८३ १६२ ..... मुख्या पादकिया ३७ १२२ यत्र नृत्यानुगं गीतं ६० २०६ - मुख्ये गायनिके तथाष्ट० ४० २२४ यत्र नृत्ये द्वयोर्योग० ७६ २०८ मुखरागाश्च करयोः ४ ५२ यत्र पाठय विना नाटय २५ २०२ मुखप्रदेशमागच्छन् ५२८ ४३ यत्र राज्ञः पुरो नार्य ११२ २११ मुखोक्षिप्ततयोवृत्तः १२६ ९७ यत्र विस्तारितावंही ४६ १३१ मुक्त्वाऽन्त्यकरणउन्हें ८६ १८० यत्र शुष्काक्षररेव २६७ २४ - मुनिनैव स्वयं सूत्रे ६ १७२ यत्र स्त्रीभिर्वसन्ततों १११ २११ मूलं तु(?)र्य त्रिकस्यास्य १८७ २१८ यत्र सौराष्ट्रदेशीया . १२० २१२ महः प्रसार्य चरणमप्रतों ४५ १३१ यत्राभिनयबाहुल्यं २६ २०२ महूर्तेनानुकूलेन मूलेन यत्रासने सुखासीना २१ २०१ मुनि तेषां विचित्राणि ८६ ८ यत्राडितां विधायाथो १०८ १५५ ‘मोणं करिऊण मया १० २०० यत्रको मुखरी वरः ३८ २२४ ..[मो] तावत्सरिगोणिकाश्च ४७ २२५ यथा गीते सदाभोगः ३ १७० मृगप्लुतां विधायाङघ्रिः १४६ १६० यथाचलो गिरिमरु० मृगशीर्षों हंसपक्षावथवा ६७१ ५६ यथावत् करणरुक्तो ७८ २०८ मृदङ्गपटहाद्यैश्च ५१ ५ यथा तादिके मूनि ३२४ २८ मृदङ्गहारकरणचारी ४६२ ३८ यथा यथा भवेंद्रक्तिः २४ २०६ ...मबङ्गहारसुभगा. . . १२१ २१२ यथोचितद्वारदेश० य उद्ग्रहादिषातूनां . १२७ २१३ । यद्गतागतविधान्तिक २२ ६४ ५५६ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४: ] श्लोक :- क्रमांक पृष्ठांक : श्लोक र क्रमांक पृष्ठांक: यत्ति भुञ्जते विप्रा७१९४ युद्धकर्मणि च नर्तनेऽपि १४, १६५ : यदपि च गदितो० ३:१८२: युयुधे भगवान् ताभ्यां १८४: यद्यपि भेदा लोके :३७:१८७ : यूनां शृङ्गारसर्वस्वं :२... यद्यप्यत्र प्रधानत्वे -४६८: ३० येन केनापितालेन -५७:२२६ यद्वबन्ध शिखापाशं १११८५ येन स्वैः करणदिगन्तर०८ २२६ यदभ्यासवशाद्रज्जु २६२ : २६ येनाम्नायः षडङ्गः ११: ७०1. यद्वाक्यं नैकभावार्थ - १४:२०० येनालादयितुं विश्वं १६६ यदाकृष्टं बलात् पुम्भिन : ३५ .. ४ येनाहार्य जगति ४३.१०६ यदाञ्चितवदुप्लुत्य १४:१६५: योऽशो खुलुहलुः २६१६६ . यदा तु मंकरो हस्तः . :३७: ७५::: योगप्रदालिङ्गानाल्यो ५१३:४२:यदीन्येनांहिणाऽन्यों. २७ १२८ यो निर्गच्छति दुःखेन १०६ १५:: यदा मनुष्या राजान० : ८८-२०६: यो मण्डल इव भ्रान्त्या १५:::५२:...... यदि स्यादलगे कूर्मासन : २१:१६६:: यो विधिः पुरुषाणां १०२:२१:०... यद्रंसं तनुते नृत्यं ६७ २०७: यौवन(?)त्रितयलक्षणं ४२२०... यद्वा द्वात्रिंशता हस्तै० : :७६७ र(?)त्युच्चलतया ४१.६ ३५ यन्मण्डलं भूर्भुवः :१३८ रङ्गे पुष्पाञ्जलिक्षेपे : २५१४७, यमन्तः करणेष्वाधा -१-१६८ रङ्गमध्ये पुष्पमोक्षः १२२५२ २० यस्मात् सर्वक्षितीशः २१२, १९: रङ्गशब्देन तत् कर्मोच्यते । १३४, १२ यस्यां विन्यस्य ५७.१३२:: रङ्गप्रवेशे सजाते . १३१: २१३:यस्मिन्नर्चमघोऽधः ४३.१८८ रङ्गावतरणारम्भे पुष्पाञ्जलिः:४०:१:१२: यस्मिन्नविद्ययाहार्य १. १०२ रङ्ग विकृष्टे भरतेन ७:२०६ यस्मिन् समस्तकरणानि १.१४५ रज्यते वै सहृदयः १३२.१२. यं एसो विरहप्पहा०५ १६६ रत्नानि चात्र देयानि . १०४ : यं प्रभु नैकदेशीय० १९३२१९ रत्यादय इव स्वीयदलनेनः ३४४.३० यः पदादौ पदान्ते १२६ २१२ रत्यादयश्चित्तवृत्तिनिर्वेदात् ३७६३२ यः शतधैर्यगांभीयः १८३ रत्यादि केनातिचर्व्यमाण १.३३ . यादशं दिशियत्या २३ रथचक्राभिनयने ५८६ ४६ यान्यवोचनहं पूर्व १७११६ रम्भोर्वशीप्रभूतिभिदिव्य ३१७ २८ यानि वाच्यस्तु न न यात् ।।३०५:२७ रसाभिधायकं नाट्यशब्द र १२६ १२ यानि शास्त्राणि ये धर्मा ३१२ - २७. रसेऽद्भुते प्राकृतं तु E T : या यत्त्य लीला नियता ३०३ : २६ रसे वीरे च रौद्रे च ८२९१ याँ शिरोध्रिकरनेत्र ११:२२१: रसे वीरे च रौद्रे च . ८४ ६१ युगपच्चरणौ यत्र ४२ १३० रसोपसर्जनीभूतो ४४७:३७: . युगपत् पुरतः पश्चात् ६८ ११५ रामाशु त्तमनायक० :११४ १० युगपन्नाभिकटच पादानां ४८ २०४ राष्टं चास्तु निरा यं २३२६३ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक [ २५ ] क्रमांक पृष्ठांक श्लोक क्रमांक पृष्ठांक रिगाण्युपशमेनाथ : ४२ १६८ लाङ्गलोल्लिखिता शस्ता ३२ ४ रुद्राक्षवलया भस्मत्रि० १०७ २११ लाघवे च प्रकाशे च ३८८ ३३ रूपस्वी निजसंप्रदाय ११६२ लाला स्वेदः श्रमो मूर्छा १९२ २१९ रूपस्वी परचित्तविद् ११५ १० लास्यताण्डवभेदेन २८७ २५ . रूपसंपन्नमग्राम्यं .. १६० ३१६ लास्यं चास्य पुरः रूक्षोग्रा भ्रकुटी भीमा २५ ८४ लास्याङ्गानां तथा रेखा सौष्ठवसंयुक्तं . ६२ २०६ लासः स्त्रीपुंसयो० ४६१ ३८ रेचके भ्रमणे भूमिताडने ८०५ ६६ लास्ये तु या भुव० १३ १७१ रेचयित्वा करावूर्वो० १४७ १५६ लीनं समनखं कृत्वा १६ १७३ रेचिते करणं पूर्व ६५ १७८ लीलासूक्षिप्तमुद्वाहि १४७ १०१ रेचिताद्धस्ततो पाद० १५३ १६० लोकधर्मी द्विधा ज्ञेया ४५७ ३७ रेचिते दक्षिणे हस्ते ७०४ ५६ लोको वेदस्तथाध्यात्म __ ३०६ २७ रेचितो दक्षिणो हस्त: ८४ १५२ लोलिता वृच्छितो रेचितोऽनिकुट्टश्च . १५ १७३ लोलितं मदस्खलितं १८ १४६ रेचितो यत्र वामः . ८३ १५२ लोलितं मन्दमन्दं स्यात् ४८६ ४० रेचितं विदधाते तो ७०९ वक्राङ्गली-तिलक० १२७ १५७ रेचितश्चेति दशधा : १२० ६७ वक्षसः स्वस्वपार्व० ७३६ ६२ रोमाञ्चादि यथा वाह्य० ४२३ वक्षस्युद्वेष्टितो वामः १५२ १६० रोमाञ्चिते भये शीते . ६५ ६३ वक्षः स्थः कटकः पादः १३४ १५८ रौद्री पाञ्चादनी तद्वत् . १६१ १५ वक्षःस्थः कम्पितः कार्यः लक्षणं रेचकस्याथ.. २७ ३ वक्षःस्थितौ करो ३४ १४८ लक्ष्मप्रकरणे पूर्व ....: २ १३८ वक्षःस्थो मुष्टिको हस्तः ३६ १२२ लग्नौष्ठं चञ्चलं नारी० १४३ १०० वक्षःक्षेत्रे करौ कृत्वा ३४ १४८ लज्जिताऽन्योऽन्यतः : ३६ ८६ वक्षःक्षेत्रं श्रयत्येको ५२ ७७ लताख्यौ यो करौ तौ . . ५२१ ४३ वक्षोदेशाच्छिरो गत्वा १७ ७३ लताख्यो वलितो ज्ञेयो... ७५१ ६३ पक्षो नीत्वा निधीयते ३१ १४७ लताहस्तौ समनखी . ४६ १४६ वक्ष्येऽतोऽभिनया० २७९ २५ लयतालानुगैर्यत्र. ५८ २०६ वन्दनानि प्रकुर्वन्ति १८० १७ लयतालावसानस्य ३४२ ३० व्याजः सूत्राकर्षणार्थ -१४ १०३ ललनाललितरङ्ग०. ४६० ३८ व्योम्नि वामो निषष्णोरुः ३२ १११ ललाटतिलक दोल० . १२ ४१६ वर्णानां च लयस्यापि ७६ २०८ ललाटे तु पताकः स्याद् : ८ १७० वर्तना नागबन्धः स्यात् ६५ ७८ ललिताख्यं च वैशाख० : . . .७६ १७६ वर्धमानासारितेषु पाणिफा १०४ १८१ ललितश्चरणन्यासयंत्र ८२ १९२ वर्धमान समास्थाय ::१४ १२७ ललितं वक्षसः क्षेत्रे ७७५ ६५ । वल्गाग्रहे पत्रवृन्त० ५७२ . ४७ ur mr । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 [ २६ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोक क्रमांक पृष्ठांक वलनं त्र्यनगमनं ८१ ६१ वासनाभिनय तद् .३४० २६ वलिता मात्रपूर्वा ३१ ७४ विकारो जायते देहे ३८२ ३२ वलितो पल्लवो चापि ७५३ ६४ विकाशिन्यनिमेषा ५०८७ वर्षवारादिकतेऽभिनेये ३७८ ३२ विकाशिमल्लिकामोदि० २४ २२३ वर्षासु जलदराजिसु ४२ १८८ विकीर्य पुष्पनिचयं १८५ १७ वस्तूत्थापनसंफेटौ ३० १८७ विकृताचारैववियरङ्ग १६६ २१७. वाक्यगाथादिभिर्गम्या ३६० ३१ विचारस्यासहत्वेन ३३३ २६ वागङ्गाभिनयोपेतमिति २७० २४ विचित्रचित्रसंयुक्ता १४. . वाङमयानीह शास्त्राणि ३०० विचित्रजङ्घाचरणो० . ३ ११६ वाचिकोऽपि भवेदर्थ० ४३६ ३६ विचित्रतिलको भालः २७ २२३ वाद्यप्रवन्धः कठिनः ५२ २२६ विचित्रेविहृतर्येनातिकान्तं ६२ १४३ वाद्यवृत्तिविभागार्थ विच्युतो समपादात(?या). ..२२ १२१ वाचषु वाद्यमानेषु ४८ १९८ विच्यवोत्खण्डिते कुर्वन् ५३. १४२ वाद्यस्यावयवानृत्ये ७७ २०८ वितकितेऽपराधे च ५५२ ४५ वाचानां समतां विधाय ४४ २२५ विदधाति कटी यां ७९३ ६७ वामतो व्यंसितं ४४ १७५ विदूषकः सूत्रधारस्तया . २७२ २४ वामदक्षिणभागस्थी ७५५ ६४ विधाय बद्ध्वां चारी चेत् ४३ १२३ वामपाश्र्वेऽलपमः १२१ १५७ विधाय कमतो हस्ताव० ७४३ ६३ वामस्तु स्पन्दित्तो भूत्वा १८ १३६ विधाय चारीमाक्षिप्तां १७० १६२... वामस्तु स्पन्दितां ५१ १४२ विधाय भ्रमरी पावें .. ६२ १५० - वामस्याङः कनिष्ठायाः ११३ १५६ विधाय चतुरस्त्रः सन् : ५४ १४६ . वामेऽलातां तदाद ३७ १४१ विधाय पादावूनि . १७१६६ । वामे दक्षस्थितो यत्र ५२ १४६ विधाय वामे सूची च ६८.१५४ वामेतरः करः किञ्चित् ११४ १५६ विधायाक्षिप्तिका चारी ११२ १५६ : वामे विधाय मकरं ७७७ ६५ विधायकं समं पाद० २७ १९६ वामोऽग्ने कुञ्चितः पश्चाद० ७३ ११६ विधार्यतानि कार्य च.. ७० १७८ : वामोऽलातो दक्षिणस्तु ५४ १४२ विघृतं विनिवृत्तं च . ७२ १७८ ... वामो लताकरो यत्र ११० १५५ विधेयो स्वस्तिकाकारौ ...६०५. ४६... वामः पादो दक्षिणांहः २३ १२१ विद्धा प्रावृतमुल्लाल...१०. १२६. . . वामः समः परः पृथ्व्या० ८०३ ६६ विध कलास इष्ट: पोटा... ४० १८८ . वामः समः परो० ७४ ११६ विद्युत्खड्गौ प्लुततो गुरुणा '. ३६ १८८ वामः सूची च भ्रमरो० ४८ १४२ विद्युत्खड्गौ मृगवल (क)संज्ञो ३८ १८७ दामिवेगेऽघो० . ५३२ ४३ विद्युभ्रान्तमतिकान्तं . १३ १४६ .. वांशिकरवकाशे ६२ २२७ विद्य भ्रान्त इति प्रोक्ता ..:१३ १७३ वार्षगण्यविषयोऽपि १०:१६५ विद्य भ्रातां दण्डपादां.. १३० १५८ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ [ २७ ] श्लोक __ क्रमांक पृष्ठांक श्लोक - क्रमांक पृष्ठांक विद्य द्धान्ता पुरःक्षेपाः . ८ १२६ विशुद्धा पद्धतिश्चात्र २ २२० विनचोर्ध्वपुटा दृष्टि० ३६. ८६ विशेषलक्षणं तासामथ ४ १८४ विनियोगोऽङ्गहाराणां १०३ १८१ विशेष्यते तथा नीलं ७६८ ६५ विनियोज्यं गतौ चैतदा०६६ १५१ विशेष्यं नानुयात्यन्य० ७६७ ६५ विनिवृत्तं तु तत् प्रोक्तं १५० १०१ विष्कुम्भापसृतो मत्त० १४ १७३ विनिष्क्रान्तो विसृष्ट: १२२ ९७ विष्कुम्भे नवकं ज्ञेयं ५६ १७७ विपरीतप्रचारा सा . ३१ १३७ विष्णुदैवतमेतत् स्याद् ... १६ ११० विपर्यासे चरणयोर्वाम... विषमं च प्रहरणानु० ४७ १९८ बिब्बोको वाञ्छितार्थस्य ४६२ ४० विषमं विकटं लध्वित्यत्र ४६३ ३८ विभागादेरभिव्यक्ते - ३२३ २८ विस्मिता दूरविस्फार १६ ८४ विभावर्जनितो भावो० १४७ २१५ विक्षिप्ताक्षिप्तकं नाम भुजङ्ग० ७ १४५ विभु-राष्ट्र-प्रयोक्तृणां .. ३६ ४ विक्षिप्तमञ्चितं चैव ६३ १८० विभ्रान्ता क्वचिदश्रान्त० ५१ ८८ विक्षिप्ते करणे कार्ये ६१ १८० वियोजिते वियोगे तु. ५९२ ४८ विक्षेपवेधौ रचयन् २४१ २१ विरहानलतप्ताङ्गी० . ४ १६६ विहसी स्यात् स्मितं ७५ २०८ विरूपवेषावयवव्यापारं ४६४ ३८ वीक्षणे गरुडादीनां ३१ १११ विरोधित्वसमत्वाभ्यां ४३० ३६ वीडा चपलता हर्ष १६४ २१६ विलम्वेनाविलम्वन ५६ २०५ वीररौद्रकृतं मल्लसंघर्षा० ३४ १११ विलम्विताभिनयावङ्गानङ्गं . ४१ २०४ वीरा संकुचितापाङ्गा २६ ८५ विलम्बितलयेऽभीष्टमान १७७ १६ वेणीकृतास्तथा मुक्ता ५०२ ४१ विलीनमिव तत्पात्रं ६६ २२७ वेषभावाश्रयोपेता १८ १०४ विलोकेतेऽलसं भ्रान्ते . ४५ ८७ वेषे लेप्यनितम्बिनी० ३१, २०२, २०३ विवतिकत्रिक पावं . ७६० ६७ वैतालभृङ्गिरित्यादि ६६, ७८, ७६ विवतितो समुद्वृत्तौ . ७२ ९० वैशाखरेचितं पावनिकुट्ट १० १४६ विवर्तितः कम्पितश्च ११६ वैशाखं स्थानकं छिन्ना ६३ १५४ विवक्षावशतो ब्रूते .. ४५० ३७ वैशाख स्थानकं हस्तौ १०५ १५५ विवक्षा चात्र शोभायां . ४५१ ३७ वैष्णवस्थानके स्थित्वा ६४ १५० विवाहस्थाननयने तथा । ६६९ ५६ वैष्णवे स्थानके पाणिरेको १७२ १६२ विवेकशालिनां चान्तन. ४१६ ३५ वैष्णवं स्थानकं कृत्वा ४५ १६६ विश्वार्थाभिनयप्रपञ्च० ११७, १० वैष्णवं स्थानमास्थाय २७ १६७ विश्लिष्टा हरिणप्लुतानि .. १ ११६ वैष्णवं समपादं च ४. १०६ विश्लिष्यं पाणिविद्धाया० , १८ १२७ वैशाखरेचितेनासामेका १८२ १७ विश्लिष्यान्योन्यमाद्याभ्यां । १८ १९८ व्यजनग्रहणाद्य ना० ३५३ . ३० विशतिः करकर्माणि .४० १०६ : व्यञ्जयन्ती रतिमुखान् २८० २५ .. विशीर्णफलदानोक्तफलः . ३७५ ३२ . व्यजनग्रहणाच्चापि ३७० ३१ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ११७ mmu ६७ १५० [ २८ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक श्लोक क्रमांक पृष्ठांक व्यभिचारिषु सर्वेषु श्याम: सितः कपोतश्च १८६ २१८ व्यादीणं श्वसितं वक्र १४० १४ शरच्चन्द्रप्रतीकाशाऽथवा १५२ १४.... व्याधिते तुन्दिले चैव ६८ ७८ शरीरमलसं नेत्रे व्याभुग्न किञ्चिदायामि १४६ १०१ शशतातारासं द्विः २५७ २३. व्याभुग्नं भुग्नमुद्वाहि १४५ १०० शशताशा सन्निपाती २३३ २१ व्यामूढे वाच्यता ३७ शस्त्रप्रहारबहुलो० ३२ १८७. व्यायामे ताण्डवे प्रोक्तो० ७६ शस्त्रहस्तविपयं तथा ११ १६५ व्यावर्तनक्रियोपेता० ७४५ शस्त्रक्षतादिके सुप्त० ८६ ११८ व्यात्तास्यस्थोन्नता जिह्वा शाखा चैवाड कुरो नृतं . ४४२. ३६ व्यात्तिताख्यं करणं ५८१ ४८ शाखा नृत्ताङ कुरोपाधि० ४३८ ३६ . व्यावय॑ते करो यस्तु शास्त्रार्थस्य स्वीकरणे ६६० ५५ व्यावर्तितेन हस्तश्चेदल० ५५ शिरोदेशे[चन्द्रं?] ३ . १ . व्यावर्तितेनालपीभवन् ७४१ ६२ शिरोभ्रमरिका चैव तथा ११ १६५ व्यावतितोऽन्तर्गात्रं ६२ ७८ शिरः क्षेत्रेऽलपद्मश्च . १४२ १५६ . व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां ३० १४७ शिष्यानोपयिका तत्र ३६२ - ३१... व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्या० ७४८ ६३ शीघ्रये विश्वासकार्ये ६३३ ५२.... व्यावृत्त्य दक्षिणं पार्श्व० २३ १४७ शीघ्रं गतागतंयुक्ता ७९६ : ६८ व्यावृत्त्या वक्षसो भालं शीतश्लेशे ग्राह्यवायौ ११७ . ६६.. व्युत्क्रमेण प्रयोगेऽपि ७५७ ६४ शुक्रतुण्डश्च काङगूल० वृश्चिकाङ घेर्यदाङ्ग प्ठो ११६ १५६ शुकतुण्डको वक्षःस्था० ३४ . ७५.. वृश्चिकोऽङ घ्रिर्यदा हस्तौ १३६ १५८ शुक्रतुण्डावधीवक्त्री ६७० ५६ ... वृश्चिकं चरणं कृत्वा ७५ १५१ शुद्धश्चाप्यय रूपक० . ४८ २२६ ... वृत्तयश्च कलासाश्चो० २ १८४ शुद्ध सत् तत्मते . ३४७ ३० वृत्तिर्वापि रसो वापि ३६ १८७ शूद्रादिहीनवर्णानां . . ४० - ४ व्यंसितं द्विः प्रयुज्येत ८२ १७६ शून्यतायामनाश्वासे ४७८ ३६ शकटास्यो भवेद्वामो० १६ १३६ शन्या च मलिना श्राता(न्ता?) ८ ८३ शकटास्यां भजन चारी० १५ १३६ श्वेतचन्दनकर्पूरभस्मा० १६ १६५ शक्तितोमरशरासनादि० -१३ १६५ शृङ्गाराद्भुतहास्येषु :: .. २८ १०५ शक्तोऽस्मीत्यभिमाने ४८१ ३६ शृङ्गाराज्जायते हास्यः .. १८८.२१८ शङ्खस्याभिनयो ज्ञेयो० . ५४८ ४५ शृङ्गारास्थापकं हास्य :... २८ १८६ शंखस्य धारणे कार्यो०- , ६४८ ५३ शृङ्गारादिरसेविण्टा शतो द्विद्विकलो सं . . २१७' १६ श्लक्ष्णा ध्रुवाल्यखण्डेन .......६५ २२७ . शश्वद्राजकुलोद्भवाः .. १२२ ११ शेषत्वाद्गुणनापत्तेर्न ..: ३२०: २८ .. श्यामगौरविभागेन , २७ २२४ शेषाणामर्थयोगेन श्यामतापि च चतुर्विघा .. १६ २२२. .. . शोभावलितसर्वाङ्गा ... ४४ ७६ ५०७ और Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक लक्ष्णा ध्रुवाख्यखण्डेन श्लक्ष्णे मृदुनि निःसारे • श्लिष्टभावपरं वाक्यं -श्लिष्टो मिथश्चेच्छिखरो श्रव्यं श्रवणयोगेन श्री कुम्भकर्णसङ्गीत - गीत० श्रीफलोपमकुचाधरलीला० श्रीमत्कीतिधराचार्यो० श्रीमत् कुम्भलमेरा० श्रुतिर्गीतं कलासश्च षट्स्वेतेषु च गीतेषु षट्त्रिशम्मिलिताः सर्वा षड्दारुकयुतं तस्य पवंशतिरिसीमानि षोडशं करणं ज्ञेयमथो ० क्रमांक पृष्ठांक . ६५ २२७ ६१० ५० ११ २०० ६७६ ५६ ३०६ २७ ६६ & स एव सूची संज्ञः स एव यत्रः किञ्चिच्चेत् स एवोर्ध्वकृताङ्ग ुष्ठः स्कन्धकूर्परयोर्मध्य.. स्कन्धदेशे स्त्रिया याद्य स्कन्धाभिमुखमाविद्धो स करो भ्रमरो यत्र [ २ ] सङ्कीर्ण तद्भवेन्नृत्यं. सकृद्रे चितहस्तश्चेत् सकृत् पाणिगता सकृन्मनः प्रयुज्यापि सखि स्फुरति यामिनी. सङ्गीत परिक्लेशा नित्यं सञ्चारितत्कुञ्चिता स चेष्ट देवतारूपो० स चेष्टितः स्यात् सजीवो० • स्तम्भादावपि सा तुल्य० स्तम्भादि कारयन्ति स्तम्भादिभिः प्रयोज्योऽत ० स्तम्भादीनां तु वाह्यानां स्तम्भाद्यभिनये कार्यों ५ २२० ६७३ ५६ १८८ १६४ १२६ २१३ १४४ २१४ ११ ८३ C& ७४ १७८ ६३ १७८ ४४१ ३६ १६ ११० ५६६ ४६ .६५७ ५४ ५३ २२६ ५६ ७७ ६१७ ५० ૪૬૫ ३८ १२ १७० १५ १७१ ३५६ .३० १६ २०१ ३१८ २८ ५ १२६ २०४ १८ १५ १०४ ३६७ ३१ ३५० १८५ २१८ ३० ३४३ ६१५ ५० श्लोक क्रमांक पृष्ठांक ६ स्तम्भानां स्थापनं कुर्या लग्ने ५६ स्तम्भितोच्छासनिःश्वास ० १०४ ६४ १६२ २१६ स्तम्भः स्वेदोऽथ ० स्तनदेशागतं जानून्नतं ८७ ८२ सत्पुस्तकोल्लसितपाणि० सप्तं हस्तका सन्ति सत्वमित्युच्यते सांख्य० सत्वं रजस्तम इति स्तव्धतारानिमेषाद्या स्थानेन समपादेन स्थानं वा समपादमत्र स्थापयेत् कुम्भिकाशीर्षे स्थायानामधिकोनता० सद्वितीयैकका वापि सप्तषष्ठिरिती यायं स्पर्श ग्रहोल्लु कुसनं • सर्पशीर्षो पताकौ वा स्फुरद्रश्मिप्रभाजाल ० स्फुरितो स्पन्दितो स्फुरितं कम्पितं प्रोक्तं स भवति कररेचकः स भवति चरणोद्भवः स्वभावावस्थितं स्त्रीणां सभाभ्यां चरणाभ्यां सभ्रूक्षेपकटाक्षा स्यात् सक्षेप स्मितापाङ्ग समन्तादष्टहस्तं समपादनिकुट्टा समपादस्थितो भूमौ समपादं चैकपादं समपादं समास्थाय समपादाग्रतः किञ्चिद० समपादात् परं तिर्यगु० समपादा स्थितावर्ता सममाकुञ्चितं स्थानं : २४६ २२ ५१४ ४२ ३८५ ३२ ३८७ ३३ ४६ ८७ १७ १२० ५० २२६ ६१ ६ २१६२-१९३ ६४ ८६ ७७१ ६५ १८२ २१८ ६५३ ૧૪ ३० २२३ ७१ ६० १४४ १०० ४ १८२ ५ १८२ ४१ ३८ १३० २१ ८४ ४७ ८७ १०२ ε ६ १३४ ३० १६७ ७ १०६ २३ १४० ६४ ११५ १६ १६६ ४६७ १२ १२० १२ १०६ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० [ श्लोक क्रमांक पृष्ठांक समयाक्षिप्तिका चारी १४ १५४ समस्याङप्रेपृष्ठे १३८ १५८ समस्याङ्प्रेस्तु सव्यस्य ७२ ११६ समस्याः परः पादः समस्य चरणस्यान्य० ६५ ११५ समस्यकस्य पादस्य ५६ ११४ समं पतं च विधुत० ४७४ ३८ सम नतं च विवृत. . ८५ ८१ समं साच्यनुवृत्ता० समं स्वभावाभिनये ४७६ ३३ समः स्वभावाभिनय ८०० समाश्चतनश्चतुरा १७८ १६ समा निवृत्ता वलिता समाधा वायवोऽन्वर्थ ११३ ६५ सभाधीशमुखं हस्तं ६७७ ५६ समाङ्ग्रेल्वसंस्थाने २२ १६६ समां कृत्वा भुवं तत्र ३४ ४ समुद्गः कथ्यते चोष्ठ० १२५ ६७ समुद्वृत्तं च निष्काम० ७६ ६१ समोऽञ्चितः कुञ्चितश्च ७६८ ६८ समोत्सरितमत्तल्ली० १३ १२० समौ कुञ्चिती प्रसृती ६७ ८९ समी पादावासनं ८१ ११७ सरलोक्षिप्तमाकम्प ७८४ ६६ सरलः पाश्र्वयोरुध्वं० ૨૪ ૭રૂ स्यादत्रोप्लुतिपूर्व ३६ १९७ स्यादारितकेऽप्येष ६२१ ५१ स्याद्गीतपरिवर्तेऽस्य ४७. १४६ स्युरेवं भित्तिकर्मायो० . ६१. ८ स्वर्णतानरूप्यलोह. स्वस्थाविति नवोच्छ्वास० १०३ १४ सर्वदिक्ष भ्रमणतो० ७६७. ६८ स्वपाश्वं नीयते २० १२० स्वपार्वेऽसलता प्राप्तो० ७४२ . ६३. स्वल्पामारोपितं यच्च ७२१ ६१ ] श्लोक क्रमांक पृष्ठांक सव्यापसव्यं भ्रमणात् ५५. १४२ सव्येतरेण पादेन ४१ १६८ स्वस्तिकाहिच्युती हस्ती ४० ७५ स्वस्तिकीकृत्य जङ्घ १३५ २२ : स्वस्तिकीकृत्य विश्लिष्टे ५६ १२५. स्वस्तिकेन विना भूती ६७२ ५६ स्वस्तिको कुञ्चिती हस्ती ५१ : ७६ स्वस्तिको चरणो यत्र - ३४ १२६ स्वस्तिकं कर्कटं चैव ५६ १८६ स्वात्मानं तन्मयं कुर्वन्निव १३० . .१२ स्वार्धाक्रान्तभुवी स्थाप्यो स्वाभाविके च संलापे ४६ ११२ सविभ्रमं पुनस्तानि ७० २०७ सविलासं तथा हस्ते सव्ये तदितरे भागे ६८. १६० स्वेच्छयात्र प्रकर्तव्य १३५२१३ सर्वेष्वभिनयेप्वत्र सशन्दं वदनाद्यस्तु . १०५ १४ सस्वनरुदितैर्मोहागमश्च १७१ २१७ . ससौष्ठवं समं ज्ञेयं ७८०६६ सहजा पतितोत्क्षिप्ता ६०८: सहर्षमवलोकनं विहित० ३० २०२... साङ्गुष्ठाङ्ग लयो यत्र - ६१८ ५१ साङ्ग ष्ठानलयः . फिञ्चित्कु० .५७८.४७ सात्त्यती निर्मिता वृत्ति.. १०. १८५.." - सात्वतेऽपि विघिरेप० ६ १६४... सात्त्विका प्राङ्गिकेष्वेव ४३४ ३६ ... .. सात्त्विकान्तः पातित्वेन ...३५२ ३० सा द्वितीया यदा मूलादु० . ६५ ८६ सार्धतोलान्तरत्वेन २४ १२१ . साधावर्थे लास्यशब्द: २८६ २५ . साधिक्षेपपदं यत्र . .... २६ २०२... साधिक्षेपवचोभङ्गी २२ १८६ साघीना मुखरागस्य .. २३ १०४ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक सापराधे प्रिये द्यूता० .सा. पाश्र्वदण्डपादेति : सामान्याभिनयो नाम सारिका सा सरत्येक ० सां शिरोभ्रमरी ज्ञेया साष्टहस्तान्तरान् विद्वान् • स्थित पाठ्यं द्विमूढास्यं • स्थित्वा चैकाङ घ्रिणा स्थित्वा पादाग्रतो० स्थित्वा वै समपादे० स्थित्वेकेनाङ्घ्रिणा भूमो स्थितस्तम्भानुसारेण स्थिरहस्तो दानविधौ सितरक्तनीलकृष्ण ० सितरक्तश्यामपीता स्निग्धविस्तीर्णधम्मिल्लः स्निग्धा विकाशिनी स्निग्धा हृष्टा तथा दीना सहवानराणां च गतिः सीदत्यस्मिन् मनः स्वीयगात्रनिचये ताल जानुगतं स्त्री विष्णुः पुरुषः शम्भुः स्त्रीवेषचरितैर्युक्तः [ ३१ क्रमांक पृष्ठांक ५७४ ४७ ४५ १२३ २६७ २६ ३७ १३० ४८ १६६ ७८ ७ २ १६६ १८ १७१ ८०६ ६६ १२ १६५ ४३ १६८ ६६ ७ १०६ १८१ ૫૪ ५ १२ १०३ २३ २२३ १२ ८३ ६ ८३ ६५ २१० ३६४ ३३ १६ २२२ २२ १०६ २४७ २ १०४ २१० ११० १० १६५ २१६ ६१ ११८ सुधाधवलितं शुभ्रं सुप्तं विबोधोऽमर्षश्च ० सुप्तं त्रस्त कर द्वंद्व ० सुमुखी च सुनन्दा सुराने भोजने च सुरेखो नृत्यशास्त्रज्ञश्चण्डः 'सुलयमानुसारामि स्थानकं सूची च नागबन्धश्च सूची च भ्रमरश्चैव • सूचीं च भ्रमरों वामे सूची दक्षस्तथा वामो० १७५ १६ ६१६ ५१ १६ १६५ ३६४ ३१ ३१ १६६ ३४ १४१ ५६ १४३ ३६ १४१ ] श्लोक सूचीदक्षस्तथा घामो० सूचीदक्षिणपादः स्यात् सूचीनां त्रितयं प्रोक्तं सूचीपादोऽथ वा सूचीमुखो० १३५१५८ सूचीमुखकरे देह० सूचीमुखो नृत्यहस्तो सूचया षट्कलं कुर्यु • सूचीविद्धं वामविद्धं सूत्रधाराञ्जली पुष्पमोक्षं सूत्रधार. पूर्वरङ्ग सूत्रभृत्प्रमुखा अस्यां सूत्रभृन्नर्तकी तद्वत् सूक्ष्म प्रसूनावचये सुश्लिष्टाग्री पताक सुकुमारं सुमधुरं सुखप्रायेष्टसंपन्न सेयं प्रदिष्टा द्विविधेह सैव पश्चात् पुरः क्षेपात् सोऽर्घजानुः ससूचीको ० सोऽपि तावत् कलस्तावान् सोक्ता नमनिका यस्यां सोच्छ्वासाकृष्टपवना सोद्वाहिता कटी ज्ञेया सोपोनस्तद्विना सौख्यानुभावेऽप्यधर० सौष्ठवं विशदकान्तदन्तता सौष्ठवं स्थापना तालो सौम्ये सप्तापरां० संश्लेषः स्याद् दृढछिन्नं संगरेषु परशस्त्रवञ्चनं संजल्पतोन्निवृत्तेः संदर्भाद् ब्रह्मणाप्येताः संवंशो भेद्यको रूपं क्रमांक पृष्ठांक ४६ १४२ ३१ १४० ३६ १६८ संनिवेशः सभायाश्च संपत्तौ च विपत्तौ च ८७ १५३ १७८ १६३ १८७ १७ ५ १३८ २५० २२ १३१ १२ २३६ २१ २५२ २२ ६२७ ५१ ६७४ ५६ ४६ २०४ १५५ २१५ ७ ११६ १३ १३५ ४१ १४१ २१६ २० ७२ २०७ १०१ ६४ ७६४ ६८ १३५ १२ ૪૨૬ ४० १२ २२१ ३८ २०३ ६५ ६ हैद २ १९४ ३६६ ३३ ५६ ८५ २०६ १८ १६ ३ १६१ २१६ १३१ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र ५ अनादर ४०, ४४, ७३, १०१ अनामिका ४७ अनिल ४४, ६६ श्रनिष्ट ८७ अनुकरण ४१, ६६, १४५, २०६ अनुकम्प ६७, १६२ श्रनुकृत ७३ अनुकृति ३५ अनुग १६, ४०, 88 अनुगत ११७ अनुगा ६६ अनुचरित १०६ अनुताप १४८ प्रनुभाव २७, ४०, ५०, २१५, २१८ अनुमोदन ४१ अनुराग २११, २१६ अनुराधा ६ अनुरूप २१० अनुरोध ३८, १२६ अनुलोम १३४, १३७ श्रनुवृत्त ९२ अनुवृत्ति २२५ अनुशायिनी १०४ [ ३४ ] धनुसारतः ४८ धनुसारी ७२ अनुसारेण २०४, २०६ धनुषरा ४ श्रनृत ४८ अनेककार्यान्तर ११० श्रन्वित ११० प्रन्वोशकोणमा १४ १३६, १४२, १४३, पक्रान्त १२३, १४६, १४८, १५०, १५२, १६०, १७४ अपकृष्ट २४ पक्षेप १३१ श्रपदं १३ अपनयन ४५, ४६, ५० अपराजित १७५ अपराध ४५, ४७ अपसर्पण ६७, १५६, १६२ अर्पित १४६, १६४, १७४, १७७ अपसरण ४१ श्रपसारित २२५ अपसृत १६२, १६४, १७३, १७६,१७६ १८० अपविद्ध ( क ) १४५, १४६, १७३, १७५ १७६, १७७, १८१ अपवेष्टन १४८, १५२, १६१ अपस्मार ८६, २१६ अपहसित २१६ अपाङ्ग २६, ८५ अप्सरस् ( शतेन ) २ प्रपिधानवित् १९३ पिहित ८६, ० प्रस्तुत १०४ अब्ज ४७ अभय ८१ अभ्यर्थन १४७ अभ्यर्थना २ अभ्यास ११०, १५५, २२६ अभिज्ञ ११ अभिज्ञा ८४ अभिघ ३७, ५६, १७८, १८०, १८५, २११ श्रभिघा १६, ३७, ७४, ७८, ८३, ११३१२० श्रभिघान २१२ अभिनय ३, १७, १६, २४, २५, २६० २७, २८, २९, ३१, ३६, ३७, ३६, ४२, ४३, ४५, ४७, ४८, ४६, ५१, ५२, ६५, ६६, ६८, 58, ६४, ६६ १०२, १०६, ११६, १५०, १५७, Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ [ ३५ ] १६१, १८५, १६३, २०२, २७८, अर्धसूची १४६, १७४, १७५, १७६, २१०, २१५, २१७, २१८ १७६, १८० अभिनन्दन ६७ अर्धस्वस्तिक १४८ अभिनय ६५ अधिका १२० अभिनेतव्य १६२ अराल(कर) ४५ अभिप्राय ३५, ४१ अलगं १६५, १६६, १६७ अभिभ्रमण १५० अलपद्म १५४ अभिमान ३६ अलङ्कार ७२, १०२, १०३, २१५, अभिमुख ६२, १६२, २२१ अभिरुच्यते १७४ अलङ कृति २२६ अभिलाष ८३, ११२, ११३ अलातक १७३ अभिषेचन (भूपानाम्) २ अलाता १२०, १२४, १२६, १३१ अभिष्टाप्ति २ अलातं १३८, १४१, १४२, १४३, १४५, अभ्युदय १८५ १५१, १६१,१७६ अभ्युपगम ५४ अलातिक १४१ अमर ४६ अलिक ३५ अमर्ष ११२, २१६ अवकीर्ण १८७ अम्बर १६८ अवगुण्ठित २१२ अम्बुजासन १६६ अवचय ४७ अराल. ४२, ४७, ५८, ६२, ६३, १५२, अवतरण (रङ्ग) १३, १४, ११२, १४६ . १६१, १६८ , (गङ्गा) १६४, १८०, २१० अर्गलं १४६, १५६ अवतार (गङ्गा) १६४ अर्चन ५१, ११७ अवतंसको २२३ अर्थ १, १०, ३६, ४०, ४३, ४७, ४६, -अवधूत ३० ५२, १०४, २१५ अवपात १८७ अर्थकीर्तन ३ अवरोह १८ अवलम्बन ११२, ११३ अर्थ(परित्यागात्) १८६ प्रवलेहिनी ६६ अर्थप्रकाशन ४० अवलोक ७२ अर्थसंपत्ति १०४ अवलोकन ८७, ११३ अर्थावलोकन १४७ अवलोक्षित २६, ६२ अथिसम्प्रदान ५५ . अवस्था ५३, ६५, ११३ अर्धचन्द्र ३७, ४२, ४४, ६५, १४८, अवस्थित ३६, ४१, ८१, १८१ १५८, १५६, १८, १८६ प्रवाहित्य ५४, १०६, ११२,१४६, १४६ अर्धनिकुट्टक १७५, १७८ . १६१, १८०, २१०, २१६ अर्धमत्त १५२ . अवाच्या ११६ अपरेचितकं ५६, १७८ अशित ७८ अर्थगोचर २ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक [ ३२ ] क्रमांक पृष्ठांक | श्लोक.. . क्रमांक पृष्ठांक संपादयति तां तां स ४०६ ३४ हस्तरेचितकं कुर्वन् । १७४ १६३ संभ्रमे गर्वगमने कर्तव्यः ६६२ ५५ हस्ताद्यङ्गः क्रियायोगाद०६४ २०६ संभोगे (?गो) विप्रलम्भन १५८ २१५ हस्तादूरू कटिन्यस्तौ ७७ ११६ संयुता वियुता वनाः १५४ १०१ हस्तेन दक्षिणेन प्राग .५० १८८ संयुतैवियुतैथि० १४१ २१४ हस्ती करिकरौ यत्र १०६ १५५ संरम्भादेगबहुला १२ १८५ हस्तौ रेचयेच्छोपं १८२ १६४ संलग्नाः पञ्चधा ज्ञेया० १५६ १०१ हस्तं पुष्पपुटं कृत्वा ४६ १८८. संशये क्रमतोऽगुल्यो० ५३७ ४४ हस्तं हंसास्यमाघाय ...८५ १३२ संस्मृतो नृत्यशब्देना ४४४ ३७ होरोषासु जानूक्तं ८८ ८२ संसाध्या भूमिरायामे हृदयाभिमुखौ हस्ती .२७ १४७. संहताङ गुल्यो यत्र ६३७ ५२ हृदयांसललाटानां ७०७ . ५६ संहतं मीलितमुखं १४२ १०० हेतुः समानकालीनो० - ३५८ ३१ संहतं स्थानमास्थाय १६ १२७ हेमपट्टगता चित्रलेखे० .. २५ २२३ ..... हर्षेऽनुमोदने मोघे ५०० ४१ हंसपक्षक राश्लिष्ट० हर्पकोषाभिलाषादेः ४६३ ४० हंसपक्षं करं चान्यं ४० १४८ हस्त आक्षिप्यते चाङध्रि० ६८ १५१ हंसपक्षास्य करयोः . ६८४ ५७ हस्तकद्वयनिष्पाद्य ___ ७१७ ६० हंसपक्षावरालो वा ७३८ ६२ हस्तकमरी भिश्च ७३ २०७ हंसपक्षीकृती तो तु ... ६८६ ५७ हस्तप्रचरणाधीन २६ १०५ हंसास्यो हंसपक्षश्च ५०८ ४२ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ पारिभाषिक - शब्दानुक्रमः प्रक्ष ५०..... अक्षपात ४७ । प्रक्षवलय १... अखिल ४६, १९२ अगर २२८ . अग्रग ४१, ६८,७०, १०५ अग्र १०२ . अग्रणी १२४ अग्रतलः ६६, १५७ अग्रता २१६ अग्राम्य २०६ अङ्क र १७, १८, ३६, ४२, ४६, ७४ अङ्ग ३, १०, १३, १५, १७, ३६, ३८, ४०, ६४, ७१, ७७, १०४, २०८, २११, २२६, २२६ अङ्गक १४५, २२५ श्रङ्गद्वन्द्व १८० अङ्गमुख ८८ . :: अङ्ग रचना २, १०३ अङ्गविकार २१६, २१७ अङ्गविज्ञान ३८ अङ्गहार ३, ५, १२, १७, १८, २५, २६,३६, १२३, १३३, १४२, १४५ १७२, १७३, १७५, १७६, १८०, १८२, १८५, २०६, २०८, २२६ अङ्गहारक १७४, १७६ अङ्गाङ्ग १३ . अङ्गानङ्ग २०४ . . प्रङ घ्रि १५६. अञ्चल २११, २१३. अञ्चित ३६, ४१, ६८, ७१, ७२,७३, . ७६, ६३, १४६, १४७, १४८, १४६ १५३, १६४, १६५, १६६, १७७, १७८, १८०, १९८, २११, २१२ . २१३, २२५ अणु४ अतिक्रान्त ६६, १२३, १३८, १४१, १४३, १४६, १५७, १७४, १७६ अतिशय १८५ प्रतिहसित २१६ अत्युच्च ११० अथर्वण २६ अद्भुत ८३, ८५, ८८, ६१, ६२, ६५, १००, १०५, २१३, २१५, २१८, २१६ अधम २५, ३८, ८८, १६०, २१६ अधर ४०, २,६६, २२३ अधः १०६ प्रधःक्षिप्त १०१ अधस्तल १०५ अधि ८२ अधिक ११६ अधिष्ठान २२३ अधोगत ४० अधोगति ३८ अधोगतः १०५ अधोमुखग १५४ अधोवदन १०५, १५५ अधोवक्त्र १६० अध्यवसाय २१७ अध्यधिक १३६, १४०, १४६ अध्यधिकता १३६ अध्यर्घ १४० प्रध्यात्म २७ प्रध्याय २०६ अनन्त ६५ . । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रशीति ( हस्तका: ) ६४ अश्वक्रान्त १०६, ११३, २१० श्रश्वस्य ११३ श्रश्वानाम् १११ अश्विनी १५ अश्विनी १५ [ ३६ ] प्रश्न ३६, २१६ ष्ट ( दन्तकर्माणि ) ६८ प्रष्ट (दृष्टयः ) ८३, ८४, ८५ प्रष्ट ( चिवुक ) ६६ प्रष्ट (हस्त ) 2 प्रष्ट ( करणानि ) १७४ अष्ट (देशीलास्याङ्गानि ) २०४ श्रष्टकर २१३ श्रष्टगुणम् ५ श्रष्टधा (प्राणादि ) ३५ अष्टोत्तर (करणानि ) १४६ प्रसारितेषु १८१ श्रसूया ८६,८७,८६,६४,६७, १०१, १४७, १४, २१६ संबद्ध (प्रलाप) ४५ श्रसंबन्ध ४७ असंयतः ४१ अस्त्र ४४ प्रङ्करान् २०६ श्रङ्करान् (फल) २०६ श्रङ्गिका २२४ श्रङ्गीकार ३६ अङ्गीकृत ३६ श्रङ गुल्यः उपाङ्गानि ) ८२ ङ्गलं (प्रमाणं ) ४ श्रङ्ग लि ५६, ७७, १०१, ११२, २२४, प्रङ्ग ष्ठ ५२, ४६, १०२, १५६ ङ्ग (नर्तकी) २०७ श्रञ्जन ६५ \ २२३ श्रञ्जलि २२, २५, ४२, ५३, ५५, १४७, १८८, २२५ अन्तःकरण ३० प्रन्तर्भूतं (उद्घाहितं) ३६ श्रन्तर्गता (पाणि) १०१ अन्तरालगम् १६५, १६६ अन्तर्भाव ३६ श्रन्तमरिका १६५ श्रन्तःकरण ३० अन्वेषण १४८ श्रोकरो ६० श्राकर्षण ४०, ६७ श्रापित १४६, १६१ श्रापितकं १७७ श्राकार ५८, ६२, १८८ श्रीकाश ५४, १२०, १३२, १३८, १५६ १६८ श्राकम्पित ३१, ४०, २०६ श्राकाशजा ११६ श्री काशिवय १२६ श्रीकुञ्चन २१६ श्राकुञ्चित ८१, ६०, १०२, ११८ श्राकुल २१६ प्राकृति ५०, १४७ श्राकृति: १९१ श्राकेकरा ८७ श्राक्षिप्त १०३, १२५, १५७, १७३, १७५, १७६, १७७, १७८ १८०, १८५, १८६, २५६ क्षिप्तक १५१, १७३, १७८, १७६: प्राक्षिप्ताम् १६२ प्राक्षिप्तिकाम् १५० श्राक्षिप्तिकिका २२ प्राख्यान १५० श्रागम ११, ३५, १६२, १६३. आग्रह ४७, ७३. श्राघ्राण ६६ श्रङ्गिक १, २५, २६, २८, २९, ३६,.. ३७, ३८ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७ ] आचमन ५० आचरन् १९८ आचरे २१३ प्राचार २१७ प्राचार्य ३, १२, १४, ४६, ४६, ५४, १३८, १३६, १८०, १८४, १९३, १६४. आच्छुरित १७६ पातुर ७८. आतोच २२, २११ पातोद्यवादन १५, २०१, २२७ प्रात्मा १८ प्रात्मिका १८५ अादर्श :६, ४३ आघूत ३८ मानत ४१ पानन १११ प्रानन्द ३५, ८६, १६६ आन्दोलित ६६ प्राप्लुत १६७ प्रबन्ध १८३ प्राभरण ४५, १०३ श्राभुग्न १४८ . प्राभोगनर्तन १७० प्राभ्रम ६८ श्रामिष (सिंहाध:) ४८ प्रामुख ४२,४८, ५४, ५८, ७५, ७७, १५०, १५२, १५६, १६१, १८५, . . २१४ प्रायत ६७, ११२, २१० प्रायताम् २२८ प्रायात १०९ प्रायामिति २१४ भारभटी २६, ३६, १८५, १८७ प्रारम्भ १३, २४, ११२, ११३, १४६ मारात्रिक ४१..:... प्रारुढ १६७ प्रारोप्य १०३ प्रारोप्यकं १०३ आरोह १८ प्रारोहण ६६, ११३ आर्त ११८ मालगपाट १६६ पालप्ति (नृत्य) २१३ मालम्ब ७२, १७१ आलस्य ३०, ८६, ११८, २१६ बालात १७६ प्रालातक १७४ भालातकी १४३ पालाप ४०, २१४ पालापन ३६ प्रालिङ्गन ५०, ५६ पालीढ़ १०१, १११, १५४ १७३, १७६, २१० . आलेल्य ४५ श्रालोक ६६, ८७ पालोकित ६२, ६३ श्रावर्त १३८, १४६, १७५ श्रावर्ता (जङ्घा) १२६ आवर्तन ४४, १०० प्रावर्तित ७६, १०६ प्रावृत्ति १६, १४३, १५४ प्रावाहन ४० प्राविद्ध ५८, ७२, ७३, १४६, १६३ प्राविद्ध(वर्तना) ७५ प्राविद्धा १२५, १४६ प्रावध्यं १०३ प्रावेश ४०, १०० श्रावेष्टित ३७, १०५, १०६ पाशिष १११ श्राशीर्वाद ४५ भाश्लेष ७१. प्राश्रम ६. -- - Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ पाश्रय १३६, १६५, २१५, २२० प्रासन १०, ८०, ८२, ११७, १६६, १६७, १६८, १६०, १६१ प्रासव ३३ प्रासारित १३, १६, १७ प्रासीन १६६; २०१ श्रासंगत १६ सास्कन्दित १३८, १३६ श्राह्लाद ८६ श्राह्वान ३९, ४०, ४४, ४५, ५२, २१, १०६, ११२ श्राहार १३ पाहार्य १, २५, १०२, १०४ प्रोहित १३० इच्छा २०४ इच्छानुगम २०६ इति ४८, ५१, ५६, १०१, २१३ इतिहास २१५ इत्यं २२२ इन्द्राभ्यर्थना २ इन्दीवर २२३ इन्दु १८५ इष्यते ८३, ८४ ईक्षण ८७ ईप्सित ३६ ईश ६३, २१६ ईश्वर १०, ५७, १४२, १६४ ईषां ६० ईर्ष्या ४७, ८२, ६७, १०१, १६३ उप्र ८७ उच्च (ता) ६६, ७०, २०१ उच्छ्वास ६६, ६४, ६६ उच्छ्रित ७०, ७१ उच्यते ११६ उज्ज्व ल ३५ उत्कट १०६, १०६, ११७, १६७ उत्तान २१, १४७, १५७ २१४ ] उत्तानवञ्चित २१४ उत्क्षिप्त ३८, ४०, ८८, ८६, १०१, १०२ उत्क्षेप ४६, ८६, १२६, १३२ उत्खण्डित १२०, १२२, १४२ उत्तम १०, १५, २५, ३४, ३७, १६३, २१६, २२२ उत्तमोत्तमक १६६, २०२ उत्तरोत्तर १११ उत्थ २१६ उत्थान १८७ उत्थापक १८६ उत्यापन १३, १८५, १८७ उत्पतन १५१,१५५ उत्पीडन ४६ उत्प्लवन १६७ उत्प्लुति ३, १६५ उत्सङ्ग ४२, ५४ उत्सरित १२०, १२१, १३८, १३६, १४० उत्सव ३२, २१२ उत्सारण ७३ उत्साह १,४५, ६३, २१७, २२० उत्सेध ६८ उदक २२४ उदर ७० उद्घट्टित ६८, ६६, १५३, १६३, १६४ १७२ उद्धत २६, १५४, १५५, १५७, १५८ उद्धरण ५१ उद्धर ५० उद्भव ६६, १६३ उद्वहन ५५ उयार २०४, २०८ उद्वाहि १००, १०१ उद्वाहित ८० उद्वाहिता ६७ . Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उद्धृत ४२, ५७, ६१, १०२, १३९, १४१, १४२, १६२, १७३, १८० उद्देश १२६, १३४, १४५, १७२ उद्वत्त ३७, ६७ उद्वेजन २१८ . . उद्वेष्टन १४८, १२६ उद्वेष्टित १४७, १५४, १७७ उन्नत ६७,७१, ७२, ८१, ८२, ६६ उन्मत्त १४५, १४६, १६०, १७६ उन्मत्तक १७७ . . उन्माद.८८, २१६ उन्मुख २१, १६६ उन्मेषित ८९,६० उपजीवि ३५ . उपदेश ४०, ४६ उपधानः ४२, ५२ . उपवहन २०६ उपविद्धि ३७ उपविन्यास १३ उपविष्टस्थानक १०६ ... उपशम २२५, २२६, २२७ उपसर्पण..६७ उपसत ६७ ... . उपहसित २१६ उपहार २२५ उपाङ्ग ३,२८, ८२, १०२. उपादान २०४ ... .. .. उपाध्याय(क) ३, ६, १८४, १९३, ३६ ] ऊर्णनाभः ५१ ऊर्ध्वग १०५ ऊर्ध्वज १२० ऊर्ध्वजानु १७६, १७६ ऊर्ध्वस्थान १६७ ऊर्ध्वालगं १६५, १६६ ऋक २६ ऋग्वेद १८४ ऋजु ८१ ऋज्वी ६६ ऋतु २१५ ऋषि १८५, २०६ एकगोचर(नाटय) ११२ एकजानुनत १०६ एकतन्त्र २२३ एकताल २१४ एकदेश (नृत्य) ३७, २१९ एकपञ्चाशत् (स्थानकानि) ११० एकपाद १०६, ११४, १३५ एकपाश्र्वगत १०१ एकोनपञ्चाशत् (भावाः) ३४ एकोनपञ्चाशत् (कोष्ठकाः) ८ एलकादि १०४ ऐकतालिकम् २२७ ऐन्द्रजालिक: १९५ पोज ८५ मोदन ६६ औत्सुक्य ५६; ६४, ६५; १००, १९६, २१६ औदार्य ८५ प्रौद्धत १५७ प्रौद्धत्यतः २०७ औपम्य ४९ कक्षवर्तनिका ७६ कक्षान्तर २१० कचः ४१. . फञ्चुकि १२३, १५४ - .. उपाय ३६. उपासक १२६ . उपाश्रित ८८ उपोहन १७, १८ उर:पाश्चर्घि (मण्डल) ४३ उरूवृत्त १७५. . . उरोमण्डल ४३, ६२, १७५, १७६ जाम् ७० Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फञ्चुली २०१ कटक ४५ फटाक्ष ८४ कटाक्षिणी ८३ कटि १०६ कटिच्छिन्नं १४५, १७७ कटिदेश १६२ कटिपूर्वक ५० कटिरेचकं १३४ कटी ६७, १३३, १५०, १५४, १८१ कटीतर १५८ कटीरेचक १३३ फटीसम १४५, १७७ फटय र २०४ कण्डिका १६ कण्डूय ४८, ५१ कण्ठ २०४ कण्ठरेचक १३३ कण्ठस्थ ७२ कर्ण ४५, १०६ कर्णपूर ५० फर्णाटदेश २२६ कर्णावतंस ४८ कथा ४० कयोद्धातः १८५ कदम्ब ४२, ५२ फनक ६ फनिष्ठ ४७, ५२, २२४ कन्या २२८, २२६ कन्यावर १११ कपट १८७ फपित्य ४२, ४६, ५५, ६३, २१३ फपोत ४२, ५३, १८६, २१८ कपोल ५०, ५६, ८२, ६३ कर्पास ४, २१६ कमल.६७. ... कम्पन ६ . . | ४० ] कम्पित ३६, ४०, ६६, ६७, ६८, ७६, ८०, ६३, ६४, ६७, २०६ . कर ६५, ११०, १३३, १४७, १५६, १८८, १६०, १६१, २१४, २२१, २२६ करचरण १८१ करज १७४ करटा २२४ करण २, ३, १२, १५, २१, २६, ३६, ३८, ५४, १२, १०४, १०५, ११६, १४०, १४१, १४५, १५२, १५८, १६२, १६४, १६५, १६७, १६८, १७२, १७४, १७५, १७६, १७८, १७६, १८०, १८१, १८७, १६८, २०७, २०८, २२६ करणोद्धव १७५ करभ ८१ कररेचक १३३ कराघात २१६ कराङ्ग लि १०१ कराञ्चित १८९ कराद्य (स्पर्शनमुक्त) १६७ करि १७८, १६० करिकर १५५ करिहस्त १४८, १४६, १५३, १७३, १७४, १७५, १७७, १७९. करिहस्तक १७७ करिहस्तत्वम् ६१. करुण ८३, ८४, ६१, १०५, २१५ करुणरस २१७ ... करणा ८४ . . कर्कश ४२ कर्कट ५३, १८६ कर्तृ ११० ..... फर्तक ११७, १२३ कर्तरी १६५, १६७ .: र १६५, २२४, २२८ - . . Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म ४५, ५१, ५२, ८२,८७, ८८, ६२,६८, १००, १११, ११२, १६५ कर्मठ ६, १३२ . कर्माणि ६०.. फर्मरूप २१८ कर्मोपाधिका ६० कलत्र-२१६ . कलश कलशोपम १७० कलस ४५ कला ८४, १९७ कलानिधि १३३ कलाप ३४, ५७ कलापक १७२ कलाभिज्ञ १६५ कलास ३, १८४, १८७, १८, १६०, . १६१, १६२, २१३, २१४, २१८, २२७. : कलासक १८६ कलासकरण १८७ कलिनोदिना २०६ फलेवर. १६५ कवि १०, २४, १४१ कविचार १६५, १६८ कविचारक १६७ कविता १९८, २२५ कशित ७८. कपायित. २१५ कर्षण १०२ काकु २१२ काङ्गल ४२, ४७ कातरा १२६, १२७ कान्त ४०, ६५, १६४, २२१ कान्ता ३१, ८३, ८४ काम १, ४६, ६६, २१५, २२३ कामिनी ४६ . . • फामोपभोग १८६ कारक २१५ कासिक २२४ कार्मण २ कार्य ५२, ५३, ७१, ११०, २०६ फाल २२४ काव्य १८७ काव्यसंश्रय १८७ काव्यार्थनिष्ठा १० काशी २२४ कार्य ५६ कांस्यज २२४ काहली २२४ किङ्किणी १६३ किलकिञ्चित ४०, ८६, १०१ किरीट ४२, ५७ कीति १ किशलय ४८ कुक्कुट १६६ कुङ्कम ४७, २२३ कुञ्चित ६७, ६८, ७१, ७२, ८१, ८२, ८३, ८७, ८८, ६०, ६३, १०१, १०२, १२६, १२६, १५१, १६२, कुट्टन ६६,६८, १३४, १६६ कुट्टनिका(चक्र) १३४, १३७ कुट्टमित ४० कुट्टाख्या (मध्यस्थापन) १३४, १३६ कुड्मल ५१ कुण्डल १०३ कुतप १३, २०४ कुतूहल १११ कुन्त ४६, ७१ कुन्तल ४१, २२३ फुपर ५५ कुन्ज ६८, ११० कुम्भ १६४ कुम्भकर्ण १८३ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ कुम्भिका ६ कूट १९८ कूर्मक ५३ कूर्मालग १६५, १६६ कूर्मासन १०६, ११६ कृतक २१७ कृतान्न ६ कृतिः २०३ कृपाण १६४ शरा ६ कृष्टाङ्ग १३ कृष्टि १०६ केलि १३२ केलिज १०३ केवल २२६ केश ४०, १५३ केशवन्ध ४५, ६०, ७६, १८८ केशाकर्ष ७२ क्लेश ६६ कैतव ४६ कैशिक १६५ कशिकी २८, ३६, १८५, १८६ कोण ६, ८,२११ कोणात्य १३४ कोप ८६, १००, १४६ कोपेष्ट ६६ कोमलिका २०८ कोविद १०, ५४, ५६, ६६, ७६, ८८, १३१, १६५, १६३, २०६, २०८, २२२ कोश ४८, ५१, ६०, ६३ कोष्ठ(अष्टक) ७, १० कोष्ठक ८, कोह्लाटिकः १९८ कोलाष्टिक ३ ] कोतुक १४६ मन्द ११७ क्रम १४३ कमण १६२ क्रमपाद १३४,१३५ ऋव्याद ५५ फ्रान्त १०६, ११७, १२०, १३८, १४१, १४६, १५५, १५८, १६२, १७८ . क्रिया ६५, २१२ क्रियारम्भ १६२ क्रीड(मत्ता) १७५ क्रीडनक १५८ क्रोडनिका १२६, १२६ क्रीडित १२०, १३६, १४०, १४२, १४६, १६१, १६३, १८१ मीडितक १४६, १७८ क्रोध ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ४१, ८७, ६० १४, १७, १११, १४७ ... क्षत ११८ क्षरताल २१३ क्षाम ७८, ७६, ६३ क्षालन ४३ क्षितीश १०६ क्षिप्त ७६, १२०, १४६ क्षिप्रा ८०,१०१ क्षिप्तिका १५६ क्षिप्य १०३ क्षुधा ७८ क्षेत्र १०६, १५५ क्षेपण(शकट) १२० क्षेपनिकुट्टिता १३४ . .. क्षोभ १०० खङ्ग ४६, ८१, १६३, १८७, १५८ १८९ खङ्गिन १६४. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खञ्ज ६८ खटक ४७, ५७, ५६, ६१, ६३ . ७४, ७६, १६१, १६३ खटका १५२ खटकदोलक १६१ खटकाख्य १५७ खटकामुख ४२, १४८, १४६, १६०, : खटकावक्र १६१ खटकास्य १५३ खटकाहस्त १५६, १६६ खण्ड ११६, २२५, २२६, २२७, २२८ खण्डक १७२ . खण्डन ९६, ९८ खण्डसूचि १०६, ११५ खण्डित. २०१ खरा २२५ खर्वता २०४, २२१ खलित ६४, ६५ खल्ल ७८ खिन्न १६० खुत्ता १२६ खुलहुलु १६६ खेडका ४२ खेद ४४,५५, २१६ - गङ्गा १ गङ्गावतरण १६४ गज ६२ गजर २२५, २२६ गजवाहन १६१ .. गण २२२ गणग्रामणी ३ . . गणवर २ :: गणाधीश २२८ गण्ड १७६ गण्उक्षेत्र १५८, १७६ : गण्डसूचि १५८, १७६, १८० गतागत १०६, ११३ गति ११२, ११६, १५१,१५६ गतिमण्डल १७७ गन्ध ८६, ६५, २१८ गन्धर्व १०४ गन्धर्वलोक २ गमन ५५, ६८, ७६, ८० गरुड ४३, ६२, १४६ गरुडप्लुत १५८ गरुडवाहन १११ गर्व ३९, ४०, ४३, ४५, ५४, ६६, ७१, ६७, ६३, १०१ ११२, १४६, २१६, २१७ गलित ११३, १८१ गवादयः(चतुष्पादाः) १.४ गाथा १५ गान २२७ गान्धर्व १४ गामिनी १४ गाम्भीर्य ४५, ५४, ८५, ११२ गायक १४, २०१, २१३, २२७ गायन २२४, २२७ गायनिक २२४ गायिनी २२४, २२७ गारुक १६८ गारुड १०६, ११६ गिरिसुता २ गीत १३, १७, १७०, १९५, २०१, २०६, २११, २.१३, २१४, २२४, २२८, २२६ - गीतज्ञ १० गीतनर्तन १६८ गीतवाद्य २०५, २०८ गीतविद् २१३ गीतादि १६२ -: Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- गीतार्थ २२४ गीतिका १८१ गुडोदन ६ गुण ४, ६४, २२० गुणाः (चत्वारः) २२५ गुणोत्कर्ष १८५ गुरु ५३, ५५ गुल्फ ८२, १०१ गुल्म १८ गृह गृहित ६७ मृध्रावलीनक १४६, १५६, १८० गृहम् (ब्राह्मणादः) ४ गृहिणी ३२ गृहीत ११७ गेय ५ गोण्डली (विधिः) १९७, २२६, २२८ गोपीगण २ गोप्यगोपन ११३ गोरक्ष १४ गोविन्दप्रिय १८० गोविन्दपूजन १८० गोमुख ५ गौर २१८, २२४ गौरी ४ प्रथन ५४ अन्यि ४१, २२३ ग्रह ४६, ४७, ५५, ७३, ८१, १०२ । ग्रहण २१, ३०, ३१, ४६, ४७, ४६, __५१, ५४, ५८, ६८ प्रहार्थ १६० ग्रन्थवैचित्र्य १७३ ग्रामणी २२५ नाम्य २१६ ग्राम्यता २२६ ग्रामीगः २०० ग्रास ४७ ग्रीवा (नवविधा) ७१ ग्लानि: ३०, ११७, २१६ घट्ट १३ घट्टित ६८, ६६ घर्घर १६५, १९६, १६७, १९८ घरिका ८०, १९५ घर्षण ५१, १६० घात ८७, १८६, २११ घ्राण ८६ धूणित १६२ चकप ४२ चकित ७१, १६० चक्र ४६, ४८, १३४, १५५ चस्कुनिका १३४, १३७ चक्रभ्रमरिका १६५ चक्रवर्तन ६६ . चनतिनी १७० चङ्क्र म ७६ चञ्चल १००, ११० चञ्चु १३१ चतुर ४२, ४६, ५७, ५६, ७८, ८३, ११६, १३३, १४६, १५४, १५६, १७५, १७६, १८०, १८६, २१३. चतुरस्त्र ४, १२, १३, २०, ११०,११४ १४७, १४६, १५१, २०६ चतुरनकम् (निकृष्टवेश्म) ४. चतुस्त्रितौ १४८, १४६.... चतुरा ८८, ८६ . चतुर्णाम् (प्राचाम्) ११२ चतुर्थिका १८ चतुर्दश(शिरसः भेदाः) ३६ चतुर्धा (मुख रागः) १०५ चतुर्भुज (महेश्वरः) १४ चतुर्मुख(महेश्वर) १४ . चतुर्वर्ग (नृत्यादेः) १ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५ ] चतुविध(प्राभरण) १०३ चारीपद ११६ चतुःषष्टिः (हस्तकाः) ६५ चारीपद्धति १३२ चतुष्कोण १३६ चारीवडा १७७ चतुष्पाद १०४ चार ११ चन्दन १६५, २२३, २२४, २२८ चालन १६७ चन्द्र ४०, ६५, ८२, १५० चालि २०४, २२३ चन्द्रचूड २४ वाषगत १३८, १४० चन्द्रमा १४ चाषगति १२०, १२१, १३८, १३६, चपेटवत् १६१ १४०, १५६ चम्पक ४७ चित्त १७ चरण ३८, १०१, १४३, १४८, १५१, चित्तज्ञ १६३ १६२, १८६, १६०, १६२, २०७, चित्तवृत्ति ३७ २१२ चित्त १५, १९८ चरणोद्भव १८२ चित्रका १६७ चर्चरी २१२ चित्रकूट १६४ चर्म १०३, १०४ चित्रपद ३०२ चलन ६०, ६१, २२८, २२९ चित्रलेखा २२३ चलालि २०३, २०५ चित्रा ४ चलित ७६, ६६, १०० चित्रिका १६७ चषक ५७ चित्रित ३२ चाप २०६ चिन्ता ४१, ५०, ५२, ६४, ६५, ११२ चापग ४६ चुक्कित ६८ चापड १६६ . . चुचुक ४६ चापडप १६६ चूड ४२, ५२ चापल ८८ चूडामणि २ चामर ११, १०२ चूर्ण १६५, १६६ चार १०१ चूणित १६७, १७७ चारण १८४, १६३ चेलं २२४ चारि ८५ चेष्टा २०१, २१० चारिका १२४, १२६, १३६, १५१, चेष्टित १०४, २१५, २१७ १६४ चौर्य ५१ चारी १, ३, १३, २४, २५, ३८, ११६ छुरितक १७३ १२२, १२६, १३७, १४२, १४३, जगती २१ १४६, १४७, १४६, १५१, १५६, जङ्घा ७०, ७६, १३१ १५६, १६०, १६२, १६३, १६६, जधाख्या १२६ १८५, १६०, १६५, २०६, २०७, जङ्घायर्ता १३१ २१०, २११, २१२ जठर ७८ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ 1 - - - - .. .... - - नडता ८६, नन २ जनताप्रिय २ ननमोहिनी २२३ जनसंघ ४५ ननित ४६, १२०, १२२, १३६, १४०, १४२, १४६, १६१, १६२, १७६ वनिता १३८, १३६, १४१, १४२ नप ३६,७१, ६०, ११७ जम्वुक ६४ जय २३, १८६ जयन्त ६५ नरा ६८ जर्जर २०, २४, १५० जर्जर २२ जलशायिक १६७ जलादि १६५ नल्प १११ नवनिका १३, २२५ न्वर ६३, १०० ज्वरित ३६ नात २१० जाति १०४ जानु ७०, ८१, १४५, १८, २०४ जानुगत १०६ जानुगा १६७ जानुनत ११५ नानुत्कट ११७ जाल १८७, २२३ नितश्रम १६५ जिल्ह्म ८२ जिह्मा ८३, ८६ निहाय ६६ जीवनम् ११० जीववन्ध १०४ जुगुप्सा ८६, ६४ जूटकः ४१ जृम्भ ६६, ७६, ९ जम्भण ६८ ज्ञान ८०, १६५ ज्ञेय ३६ ठेवा २०४, २०६ डमरी १२६, १३१ डमरु १३४, १३६ डमरद्वय १२६ डोम्बड २१४ ढक्का २२७ ढिल्लायो २०४, २०६ तर ३८ तटम् २६ तत्त्व १२, ३१, १६२ तत्वज्ञ २१२ तत्त्ववित् १९३ तत्तूक २०८ तप्त ८३ तमस् ३३ तमोराग २१८ तरुण ८८, १२१, १५२, १६४ तरशाखा ११३ तल ६८, २२, १०२, १०६ तलदशिनो १७१ तलमुखी ७८ तलोदृत्त १२६, १२८ तकित ४५ तर्जन ३६, १०६, ११२ .. तर्जनी १५, ४७, ५०, ५२, १०५ तर्पण ४६ तण्ड २ ताटङ्क २२३ ताडन ६६, १०६, २१३ ताडित ८६, १२६, १२८; १३१, १३६ ताम्र ६ ........ तारफा १४, ३१, १० तारा ५२ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ ] [ ताल १६, १६२, २०३, २०४, २०६, २११, २१२, २१३, २१४, २२१, २२६, २२८ तालधर १६८ तालपत्र ५० तालसंज्ञ ११० तालिका. १६३, २१२, २२७ ताण्डव २, २४, २५, २६, २८, ८०, २०८, २२८ ताम्बूल. ५४, २२३ तिरश्चीन ५६, ८०, १०२, १३४ तिरिपभ्रमरो १६५ तिलक ४४, ७८, १४६ १५६, २२३ तिर्यक् १५१, १६८ तिर्यम् ७२ तिर्यङ मुख १२६, १२७ तिर्यग्नमित ३६, ४१ तीथिका २२६ तीव्र ८८ तुच्छ. ४४ तुङ्ग ६६, ७२ तुडिका २२५ तुण्ड ४२, ५६, ७४, ७५ तुण्डाकृति १४६ तुन्दिल ७८ तुर्य २२० । तुर्यत्रिक २१८ तुष्ट ११२ तूणीरतर्जककाम २२३ तृतीय(रङ्गा) १७ तृतीयक (प्रौढनपुणम्) २२० तेजस् ३४ तोमर १६५.. . तोलन १०६ त्याग १८६.. . त्याज्य ६६ . त्रस्त ८८, १७६, १७८ त्रस्तर १४६, १५६ जस्ता ८३ त्रयोविंशति (देशीयस्थानकाः) ११० त्राटित ६८, ६६ त्रास १०२, ११७, २१६ त्रासिका (हरिण) १२६ त्रासित १२०, १२५, १४०, १४३, १४५, १५१, १७४, १७६, १७६, त्रासिता १४१, १४२, १५१, १५३ त्रिकलि २०४, २०६ त्रिकोण २०६ त्रिकोणचारी १३४, १३५ विगत १३, २४ त्रितय(नृत्य ३८) त्रितय(सूची) १६८ त्रिताली २१३ निपताफ १६०, १८६, १६०, १६१ त्रिपद १६६ त्रिपातक १६० त्रिपुण्ड (भस्म) २११ त्रिमूढ १६६, २०० त्रिवली २२६ थरहरं २०३ थसकः २०४, २०७ वक्ष ८० दक्षिण ३, ८०, १३६, १८८, २२७ दक्षिणेतर १४३ दन २२८ दण्ड ५, १४६, २११ दण्डचामर २११ । दण्डपक्ष १५३, १५४, १७७ वण्डपाद १२६, १३८, १४१, १४२, १४६, १५८, १५६, १७६ दण्डपादाचारी १३१ दण्डपादायुत १४१ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डवत् १७१ दण्डवर्तना ८४ दण्डिका २२० दात ४२, ५५ दन्तोष्ठ ६६ दुप्ता ८३ दर्पसरण १६५ दंष्ट्र ४८ दान ५१, ८१ दानव १०४ दारुक दारुज ८ दारुचय ८ दिग्भ्रमरी १६६ दिङ्गनाथ २१ दिव्य २८, २०६ दिशा १६, ४० दीन ८३ दीपशिखा ४८ दीप्तिकर १८४ दीर्घ ४ दुःख ७१, ५८, ६३ दुःखात ६५ दुर्गाधिदेवत ११२ दुन्दुभि ५ दूरालोक ८७ दृढ २२८ देढा ४ दृश्यफाव्य १ [ ४८ ] देश ११, ३६, ४६, ५०, १०४, १८१, १६५, २१०, २२४ देशभूषा २१२ देशी ३७, १०६ देशीकार २०४, २०६ देशीचारी १३४ देशीचार्य(चतुःपञ्चाशत) १३२ देशीनत्त ३ देशीपूर्व १६४ देशीय २५, ३७, २०४, २१२ देशीस्थ १२६ देशीस्थानक १०१ देशीयस्थानक ११० देशीविद् ६२, १२२, १६७, २१३ दैतिनीवद् १५ दैत्य २१६ दैवत ११०, १११, ११३, २२८ . देवती ४ दोल ४२, ५५, १५६, १६०, १६२ दोला १५५, १६०, १६२ दोलाकर १५१ दोलाल्य १५६ दोलापाद १२४ दोलाभिघ १५२ दोलित ७२, ७४, १४ दोष ४, २१२, २२०, २२२, २२५ दोहक २१२ दोहन ४६ दौर्बल्य ५६ द्रव्य ४४, ६४ व्रत २१४, २२८ दुहिण १८५ द्रुतन १४८ द्वात्रिंशत् (स्वस्तिकरेचिताः) १७३ द्वात्रिंशत् (प्रङ्गहारेषु). १७३ द्वादश(पात्राङ्ग.लिः) २०४ . दृष्टि २६, ३७, ८२, ८३, ८४ दृष्टिविद् ८४ देव १०४, १७२ देवता ४५, ५३, २२८ देवतागार ४ देयतापूना १६४ देवी २२८ द्वार ८. . Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६ द्वितीय(पौवनम्) २२० द्वितीय (मण्डूकमेवः) १९१ द्वितीयक(अङ्ग) १५५ द्वितीयक:(हंसीवासः) १६२ द्विधा (अलंकार) १०३ द्विप ५५ द्विपद्या (वर्णतालेन) २१२ द्विपाद १०४ द्विफलक ४१ विमूढ १६६ द्विमूढक २०० व (वांशिकी) २२४ धनु ४६, १११ धनुवत् १६१ धनुष १८४ धम्मिल ४१, २२३ ध्यान ३६,५१, ७१, ११७, ११८ धरणी ८,६८, १६१ घरा० धर्म १, २७, ३७, ७७, २१५ धर्मि (नाटय) ३५ धर्मी, ३७, १०४ घलित १० प्वज ४८ . यजा १०४. . ध्वनि ५८ . धान्य ५५, १६५ ध्यान १६, ५१, ७१, ११७, ११८ पारण ४४, ४५, ४७, ५३, ७३, ८१ पारादि ४३ धैर्य २१७ ध्रुव १६, २४, २१२, २२८ ध्रुवफ २२७ ध्रुपद २२७ घवा ३, २२, २०६, २२६ ध्र घायुत १२ ध्र वेयं २० नखक्षत ६६ नखदन्त २४६ नग ६ नट ३, ३०, ३१, ३२, ३५, १०३, १२०, १३२, १४०, १४३, १६५, १८५, १६३, १६८, २१५, २१८ नटनर्तक १८४ नटी २२, १६०, २०७ नटनतंक १८४ नटी २२, १६०, २०७ नत १, ६७, ७२, ८१, १०१, ११८, १६७ नता ७६,८०,६४ नतोन्नत ४१ नतोन्मत ४१ नन्धावतं १०९, ११४, १२७ नपुंसफ २२ नमनिका २०४, २०७ नमस्कृत ५३, १ नम्र ७२, ७४ नयन ४६, २२३ नरसिंह २१० मतंकः ३, १६४, १९८२१२,२१८ गतंकगण १६३ नतंबनिय २१२ मर्गको १६, २२, २५, ११३१६७, १८६, १६.१, २०१, २०४, २०५, २०६, २७.२०६२१३,२२० नतंन ११२, १३१,12,१५८,१६० ..... mmu . a ---:-..hindimamtamann धुत ३८, ३६, २०६ सादिक २८ पूनन १०६ म ३०, ६. भूतर ८५ पति: ४५, ११, २९६ arreiram-0 २२५.३६१.२२७, २८ . . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नर्म १८६ नर्मग १८६ नलिनी ४३, ७६, २१४ नव १७५ नव ( श्रासन ) ११० नव (करण) नव ( रसाः ) २१५ १७४, १८० नव ( उपविष्टस्थानक ) १०६ नवधा (पुट ) ८ नवोढा लज्जिता १०२ नाकिन ( वेश्म ) ५ नागवन्ध ७८, १०६, १६५, १६७, १६६ नाटयकोविद १७१ नाट्यपण्डित १६६ नागदन्त ८ नाटक ८, ६७, १०२ नाटय २, १२, २५, २६, २७, २८, ३७ १०२, १०३, ११२, २०२, २०६ नावेद १८५ नाट्यवेदि ५३ नाट्यवेश्म ५ नाट्यवेश्मगत ४ नाट्यशाला ३, ४ नाट्यशास्त्र ३, ४ ११६, ११८, [ ५० ] नाद २२५ नानागति २०६ नानानृत्य २१६ नानाभाव २०२ नानामत (हस्तप्रचाराः ) १०५ नान्दी ३, १३, २३, २४, ४७ नामोचित ( भ्रमरिका ) १६५ नायक ८, १०, १८६, २१५ नायिका नारिंगी ४१ नारी ११, ५४, १६८, २१२ नासा २१६ नासिका ८२ निकम्प ८५ निकर्षण ह निःकास ४४ निकुट्ट १३०,१३४, १३७, १४५, १४६. १६२, १७३, १७४, १७५, १७७, १६६ निकुट्टक १२६, १३०, १४६, १६३, १७३, १७५, १७७, १७८, १७६ निकुट्टा १७५, १७६ निकुट्टित १३५, १५०, १५३. १५५ निकुञ्च ८१ निकुञ्चक ४२, ५२ निकुञ्चित ८१, ८६, १४५, १५१, १७७, १७ निखिल ११६ निगम ११६, २२६ निगूहित ६७ निग्रह १०६ निघृष्ट १४७ निचय १७ निज (दर्शन) ८६ निजापण (देशीलास्याङ्ग) २०४, २०६ -- नितम्ब ४२, ६०, ७४, ७५, ८२, १४६, १५३, १६०, १६३, १७३, १७४, १७५, १७७, १७६, १८० नितम्बक १७६ नितम्बिनी २०२ निद्रा ४०, ८६, २१६ निपात २१६ निबन्ध ११६ निमेषित ८६, ६० निम्नः ८१ नियुद्ध १२३, १५८, १८७ नियोग ४६, १३८ निरन्तर १४५ निरस्त ६५ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५१ ] . निरीक्षा १११ निरूपण- ५१ निर्णीत १२ निर्घर्धर १९४ निजित ११७ निर्दय . ६६ निर्देश ३९, ४३, ७६ निर्माण ४, १६३ निमिति (नाट्यशाला) -३ निर्भर १५७ निर्भुग्न. ६६, १६२ निर्वर्ण ६२ निवर्तन ६७ निवर्तित ७६ निवृत्त ७१, १५७ निर्वेद ३०, ३१, १४, १००, ११६, २१६ निवेश ३, १४६, १६१, निशुम्भितम् १४६, १७८ निषध ४२, ५४, ५५ निस्त्रिश ४६ निषण्ण ११० निषिध ५५, १०१ निषेध १४८ निष्कर्ष ४६, ६६ निष्ठुर २१६ निःसारणा..१६८, २१४, २२७ नि:श्वास ५६, ७६, ६६ नीकी २०४, २०७ नीच ३५ 'नीति १३८, २०७ नोल (रस वर्ण) २१८ नूपुर ६६, १२४, १४६, १६३, १७४, १७५, १७६, १७८ - नूपुरपादिका १२०, १२४, १५९ नूपुरविद्धिका १२६, १२७ , तृत्त ३.२५, ३६, ३७, ६०, ११६ १५१, २२३ नृत्त (हस्त) ५७ नृत्तकरण ३ नृत्तश्रम ४ नृत्य १, २, २६, ३७, ३८, ४३, ६०, ६४, ६७, ७१, ८०, १०५, ११२, १५४, १६३, १७०, १८२, १८५, १६०, १६४, २०६, २०८, २१०, २११ २१२, २१३, २१४, २२५, २२६, २२७ नृत्य (त्रितय) २५ नृत्यकी १८२ नृत्यकोविद १२८, १४८, १९०, १६६ नृत्यज २१२ नृत्यज्ञ १७, ६२ नृत्यन् (शिव:) १ नृत्यङ्गि १६२ नृत्यम् १४५, १५१, २०७ नृत्यवर्ग ७० नृत्यविद् १०१, ११०, १२५, २११ नत्यवैचित्र्य १७३ नृप २१५, २२६ नृपति १२५ नृसिह ५६ नेतयः १४३ नेत्र २२१ नपथ्य ५, ७, ९, १०२, १०३, १०४, १८५ नैऋत १४ नैवेद्य २२८ न्याय ३, १६४ न्यायसंज्ञा १८५ न्यास २१२ न्युटज १७१ पक्ष १४६ पक्ष (प्रथोतफः) ६१ पक्षिन् १०४, १११, १६८,२१० पद्धज २२१ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२ ] पञ्च(प्रामुखाङ्गानि) १८५ पद्माधिदैवत ४३, ११२ पञ्च (गुल्फ) ७६, ८१, १०१ पीकृत्य १५० पञ्चकलं १७ पन्नग १०४ पञ्चका १६७ पर ७७ पञ्चदश करसंश्रया(अङ्गहार) १७५, १८० परचक्र ६ पञ्चधा(मगिवन्ध) ८१ परस २२७ पञ्चपदी २०, २१ परम्परा १४८ पञ्चविध(स्कन्धाः) ७० पराक्रम २१७ पञ्चविंशति(आर्यः) १३८ पराङ मुख १०५, २२१ पञ्चादिकं (अभ्यास) १७५ पराङवक्त्र ६१ पञ्चविद्या(जङ्घा) ७६ पराजित १७३ पट २०६ परार्द्रता २०८ पदह ५ परावृत्त ३६, ४१, १०६, ११५, १२६, पट्टिका ८ १२७, १७२ पडिवाड १६५, १६६ परावृत्ता ७६, ८० पण्डित १५६, १७१, १६३, १६५ परावृत्ति १६७, १७६ परिपडि २२६ परिकमः ८०, १४८, १५४, १५५, .. पतन ४५ १५६, १५७, २१० पताक ४२, ४३, ४४, ४६, ६०, ६५, परिक्षयेत् २१८ ७४, १५१, १६२, १६४, १७०, परिगः ६१ १७१,१८८,१८९, २१३ परिगति १९८ पताका ५८, ५६, ६०, ६१, ७६, ७७, परिग्रह १०६ १४७, १६०, १७०, १८८, १६१, परिघट्टना १५ २१३ परिच्छिन्न १७३, १७४ पताका(वर्तना) ७४ परिच्छेद ५३ पतित ८८, १०१ परिणाह ७ पतिता ८६ परिदेवित २१७ पत्र ४६ परिपूरण १५४ पत्रभङ्गिरचना २२३ परिभाषा १७२ पद २२, २१४, २२६ परिमण्डली १७० पदादी २१२ परिवडि: ३ पदान्त २१२ परिवर्त १२, २०, २१, १४६ । पद्धति २२०, २२६ परिवर्तक १८५ . पन्न ७४, ७७, १५२, १५७, १५९, परिवर्तन १७, १६६, १९८ . परिवर्तित १०६, १४७, १५४ पनकोश ४३, १५५ परिवतिनी २१ पप्रत्व १४६ परिवाहित ३६, ४१, १६२, १६४ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३ ] . परिवृत्त १५६, १८१ परिवृत्ति १४७, १५७, १६१, १७८, १७६ . परिसर्पण १६० . - परीक्षण ६५, ७४, १२५, १८४, २२०, ....२२६ : पर्याय २२६ परोक्ष ५० पल्लव(अल) ४२, ४८, ६०, ६३, ७५, ७७, १५०, १५४, १५६, १५८, १६१, १६२, १६० पल्लववर्तना ७७ पल्लविका (शिरः) १७० परवलं. ४३. पशु. २१० पश्चात्पुरःसरा १३४ पश्चात्क्षेप १३६ पश्चात्पुरः १३५ पश्चात्सरः १३४, १३५ प्लव १६१ प्लवसंज्ञ १८७ प्लुते ११६, १५६, १७८, १८८, १६० - प्लुति २४, १६६, १६७ पाट २२६ .. पाटिका. १६३ पाञ्चाली १५ पाठकाः(नान्दी) १६ पाठ्य ५, ११६, २०२ पाणि २०, १२ पाणिका १८१ पाण्डु ६६ पात .७३, ६०, ६१, १८६, १६५ पातक १८७ पातन १६५ पात्र . ५५, ५७, ६८, १९३, २०६, . २१५, २२०, २२५, २२६, २२७ पात्रलक्ष्म ३ पाद २६, ८२, ११०, १२०, १४४, १४६, १४८, १५३, १५७, १५८, १५६, १६०, १६१, १६२, १६५, १६६, १८० पादगति २०६ पादचारी १२४, १२८ पादद्वय १३४, १३५ पादनिकुट्ट १३४ पादन्यास १८४ पादप ४५ पादरेचक १३२ पादहीन १०४ पादाख्य ११४, १४१, १५६ पादाङ्गः २७ पादापविद्ध १४६ पादास्फाली १६७ पायस ६ पारग (नाटयागमे) १६२, १६३ पारम्पयंकीर्तन ३ पारिपार्व २३ पार्वती २,१६६ पार्श्व २६, ३८, ६२, ६३, ६७, १०६, १५५ पार्श्वक २०, २४, २५ पाश्र्वक्रान्त १२३, १४१, १४२, १४३, १५७, १८१ पाश्चक्षेप १३४, १३६ पाश्वंग ६८,७०, १०५, १३१ पार्श्वगत ११५ पार्श्वग्रहण २१६ पावच्छेद १७३ पार्षजानु १४३, १८० पार्वतः १०५ पार्श्वतल १०५ पार्श्वदृफ ७२ पार्वदण्ड १२३ . " पात्रग २२२. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वद्वयं १३४, १३५. पार्श्वमण्डल ४३ पार्श्वस्य ३६ पाणिः ७६, ८२, १०१, १६३ पाणिग ६८, ७० पापण्डि ५ पाणिगता १७१ पाष्णिपार्श्वगत १०१ पाणिरेचिता १२७ पाणिविद्य १०२, ११५ पाष्णी ७६ पालन ७४ पिण्ड १७, ४७ पिण्डी८, १८ पितृसेविन् १७४ पिण्डदान ४७ पिपासा & पीठ (रङ्ग) ६, १० पीडन ५५ पीत १०३, २१८ पीनता २२१ पुढे १७, ४२, ५५, ८२, ८५, ८६, २१४ पुण्याहवाचन ४ पुराटी १२६ पुराटिका १३० पुराण ८५, २२३ पुरातन १८० पुरुष २२, ११२, २१०, २१५ पुरंध्री १७१ पुरक्षेप: १२६, १३०, १३४, १३६ पुरःसर १३४ पुलिन्द २१० [ ५४ ] पुष ४७, १४५, १९५ पुष्पपुट १४७, १६४, १७३ पुष्पाञ्जलि १४७, २२५ पुस्त: १०३ पुंभावम् २२३ पूजन ११८ पूजा ३६, २२८ पूर ५५ पूरण १३६ पूर्ण ७८, ६३ पूर्ण भ्रमर १४० पूर्व रङ्ग १२, ११२, १८५ पूर्वरङ्गाङ्ग १८१ पूर्वालाप १५ पेरणी ३, १९५, १६८ पेशल १५४, १८६, १६५, २२७ पेषण ४७ प्रकारतः १७८ प्रकाश: ३३ प्रकाशित् ८५, १५५ प्रक्रिया १४६, २२७ प्रकीर्ण ६८ प्रकृति १०२, १०४, ११०, २०६ २१०, २१६ प्रक्षेप्य १०३ प्रगल्भ २२०, २२१ प्रचरणहस्त १०५ प्रचलाङ्ग ुलि ४३ प्रचार ३, २४, २०६, २१४ प्रचारित २२७ प्रचुर १६७ प्रच्छेदक १६६, २०१ प्रणयज ४० प्रणव ६ प्रणाम ४०, ४४, ५३, ५४, १६४ १६५ प्रताप ४३ प्रतिहार प प्रतिनिधि १० प्रतिमण्ठेन २२७ प्रतिलोम १३४, १३७ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [..५५ ] प्रविचार १६५ प्रविलोकित ६२, ६३ प्रवीण ११ प्रवृत्ति ३६, १०२, १०४, २०६, २१०, प्रतिषेध ३६,४३ ...." प्रतिषेधन ११२ प्रत्यक्ष ५० : प्रत्यङ्ग ३, ७० प्रत्यालीढ १०६, १११ । प्रत्याहार ३, १३ प्रत्यक्तक १६६, २०२ प्रथम (प्रियसङ्गम) ६६ प्रदक्षिणा ४५ प्रदेश ५६ . .. प्रद्योतः ४३, ६१, १४६ - प्रद्योतक १४८ प्रधान ४३ प्रनाशिनी १८५ प्रनृत्यति १९७ प्रपञ्च १० प्रपद १६६ प्रबद्ध ६४ प्रवन्ध , १६२, २०७ २२६ प्रभाषण ५१ प्रभेद १८५. प्रभृति ३८ प्रमदा २७ प्रमाण २७ प्रमार्जन ४४ प्रमुख १८८ प्रमोदकः ११३ . प्रमोदास्पद २ ... प्रयोग १२, ४२, ५६, १०२, २१० प्रयोगतः १८७ प्रयोज्य २१८.. ...... प्रयोक्त ४, २६० प्ररोचन १८५... प्ररोचना २४, १८५ प्रलय ३४, २१६ . . . . प्रवाल. .. प्रवृत्तिका १६५ प्रवेश ३, १२, २०, ६०, ६१, ११२, १४६, २०९, २१३ प्रवेशन १०४, २०६ प्रशंस ४३ प्रश्न ३६, ४०, ४६ प्रसङ्ग १०४ प्रसन्न १०५ प्रसरण ८१ प्रसपित १४६, १६०, १६१, १७५, १७८ प्रसाद ८५, १४३ प्रसादन ११७ प्रसारिका १३६ प्रसारित ६७, ७२, १०१, १०२, १०६, ११८ प्रसिद्ध १४७, १७२ प्रसृत ८६,६०,६४, ६५, १०१ प्रस्तावना १३ प्रस्थ (स्थि)ते ४६ प्रहरण १०४, २११, २२७ प्रहर्ष ६३ प्रहसनम् १८५ प्रहार ४३, ७१, ७३ प्राक् १४६ प्राकृत ९०,६१ प्रागल्भ्य १ प्राङ्मुख ५३ प्राची ११२ प्राणायाम ९५ प्राणिन् १०४ प्राणिसंज्ञा १०४ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रान्त ४४ प्रार्थना १६३ प्राधान्य १३८, १७३ प्रायः १६१ प्रावादुका २९ प्रावेशिक २ प्रावृत्त १२६, १३२ प्रासाद १०४ प्रिय ८७, १८१ प्रियतमा ११२ प्रियसङ्गम ९३ प्रीति ३१ पृष्ठ ७०, १६२ पृष्ठकुट्टम् १३८, १४० पृष्ठतः ४१ पृष्ठोत्तानतल १०६ पृथक् १८२ प्रेक्षक ३६, २०६, २२७ प्रेक्षण ६८ प्रेक्षागृह ४, ५ प्रेक्षायं २२५ प्रेक्षित ८७, २१० प्रेङ्खलित १४६, १६०, १८० प्रेमकोपतः ४७ प्रेमको १६२ प्रेरण ६६ प्रेरणा ४३, ४६ श्रेष्ठ २ प्रोक्त १७४ फणीश ५७ फल ४७, ५५ फलक १६५, २१६ फलादान ७२ फुलगली ८३ फुल्लो ( कपोलो) ६३ फूस्कार १७ दक १९१ [ ५६ ] चककलास १६० बकवत् १६० चकसंज्ञ १८८ बद्ध १२२. १५६, १६० वद्धा ४१, १२०, १५७, १५६ बन्दि ११ वन्ध ८, १६, १७, १८, ४२, ४६, ७४, ७६ बन्धन ७२ बन्धनीय १०३ वल ४५ बलि ५ वलिकर्मणि ५१ बहित्य ४२ वहिर्गत ७६, ८०, १०१ बहिर्गीत १३ वहुताकुल १८६ वाण २२२, २२४ बाल २१२ बालक ४६ बालखेलन १६३ बाला २१६ वाष्प ३५ बाहु ७०, ७२ बाहुल्य २७२ विडाल ४७ faate ε७, १०१ वीभत्स ८३, ८५, ११, ११६, २१५, २१८, २१६ बुध ४५ वोडक १६७ ब्रह्मा १,२२,२२८ ब्राह्म ११५ ब्राह्मण ६, ५२. बाह्य भ्रमरी १६८ भक्त २११ भक्ति २०६ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७ ] - - भक्ष ६६, भग्न २१० . भङ्ग ७१, २१६ भङ्गि १०, ८६ भय ३३, ३४, ४३, ५३, ८३, ६३, १४, १०१, १०६, १८७, २००, २१७, २१६ भयानक ८३, ८४, ८५, ६१ ६२, - १०५, २१५, २१७, २१८, २१६ ।। भरणाख्य ८ भरत २, २६, २०६ "भत ३६ भर्सन ५२ भस्म १६५, २११ भाण्डः १५, २०, २०६ भाण्डकृतं ((तन्त्री) १३ भार (स्कन्ध) ७१ भारत १३, १९४, १६५ भार्या ११३ . भाल ४५, २२३ भालक्षेत्र ५० भाव ११, २६, २७, ३७, ४०, ६६, ८०, ८३, ८४, ८६, १८७, २०६, । २०६, २१०, २१८ भावज्ञ १० भावा २७, २१० भावुक २१५ भावेन २२० .. भाषण ५२, ५४, ११२, १४८, २१० भाषा ७४, १२५, २०२ भित्ति ८, ६, १०. .. भीत ३६, ८०,१०० भीति १७१ भोरु. ६७ भुकरा: (चत्वारः)२२४ भुग्म ६६, १०० . : .. भुजग १०४... भुजङ्गः १२५, १५३, १७६, १८० . भुजा ५६ भुव ३६, २२५ भूत ४१, १४८ भूतार्थ (कथन.) ४६ भूपती ४ भूमि ४, १६, १६, २२३ भूमिका १ भूमिजाता ११६ भूमिपल्लव १७० भूरि ६४, ११३ भूषण १०३ भृङ्गि ७८ भेद २६, ३८, १०६, १६९, १५८, १६१, १६५, २११, २१२ भेद(तृतीय) १६२ भेदत्रय (नृत्यस्य) २६ भेद्यक १८ भैरवी १४ भोग २१३, २२८ भोजन ५१, ७३ भौम १६८ भौमी ११६ भौम्य ११६, १२६ भ्रमण २६, ३८, ६६, ८१, ६०, ६१, १४०, १६८, १९, २१३ भ्रमणततिः १८२ भ्रमर ४२, १३८, १३६, १४०, १४१, १४२, १४६, १५४, १७४, १७५, १७६, १७७, १७६, १८० भ्रमरक १२५, १२६, १४१ भ्रमरिका १३८, १४३, १५७, १५६, १६५, १६८, २१२, २१४ भ्रमरी १२४, १३८, १४१, १४२, १४३, १५०, १५३, १५४, १५६, १६०, १६६, १७१, १६०, २०७, २७२ .. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८ ] भ्रमित ८१ १४२, १४५, १५२, १७०, १७५, भ्रमी १७१ १७८, १७६ भ्रान्त ६४, ६६, १२०, १२४, १२६, मत्तवारणी ६ १३०, १३६, १४५, १५४, १५७, मत्स्य ५५, १६०, १६७, १६१ १६५, १६८, १७३, - १७४,१७६, मद ४०, ४१ ५५, ७१, १८, ११६, १८० ११७, १२१, १५२, २१६ मदविलसित १७५ भ्रकुटी ८८ मदाद्विलसित १७३ 5 ८८ मदालसा १०६, १२६, १२८ भ्रूपुट ८८ मदिरा ८३ मकर ५५, ६५, ७४, १८६, १६२ मधु १०३ मकरवर्तन ७५ मङ्गल(वैवाहिकः) २ मधुकैटभ १८४ मध्य ४,४१, १०२, २२० मङ्गल्य २ मध्यग २२ मङ्गल्य(सर्वकर्म) २ मध्यचका १३७ मङ्गलान्त १६४ मङ्गलार्थ १३४ मध्यम ५, २५, ३७, ८८, १११ मध्यर्घ १३८ मञ्जीर २२४ मध्यलुठिता १३७ मणिवन्ध ४७, ७०, ८१, १६४ मनः २०१, २०४, २०६ मण्ठ २१२, २२८ मनीषि १२, १७६ मण्ठक २१४ मण्डन २२०, २२६ . मनुज ३८ मनुष्य २०६ मण्डप मन्थ ४७ मण्डल १, ३, २०,४३, ७२, ७३ ,७७, मन्द ४०,६४ १०१, १११, ११६, १३८, १३६, मन्दा ६३, ६४ १४०, १४१, १४२, १४३, १४६, मन्मथ ८७, २२० १४७, १५०, १५५, १५६, १७४, मयूर १५६ १७५, १७६, १७८, १७६, २११ मरण ४५, २१६ मण्डलार्थी १४२ मराला(चारी) १२६, १२७. मण्डलिफा १२६, १२८, १७१ मर्दन ४३, ४६ मण्डलेश्वरः १४२ मर्दल १६८ मण्डिफा १६०, १६६, २०१ मदित ६८, ६६ मण्डूक १५८, १६१, १६२ मलिन ८१,८३, ८५ मौत ३७, १७३, २१६ मल्ल ६४ मत्त १८१ मल्लयुद्ध ४६ . . . मत्तल्लि १२०, १२१, १३६, १४०, मल्लसंघर्ष १११ : Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लिका २२३ मस्तक ४१, १७१, २१० मसृणता २०४, २०७ महत् (पूर्विका) १३ महाकवि १५४ महेश २२८ महेश्वर- १४, १५७ माङ्गल्य १८५ . मातृका १७२ मात्र ३५ माधव १८४ . माधवाचन १८१ माधुर्य ८५ मान २, ४६, ६४, ६६, २२५ मानदान १७३ मानिनी ११७. मानुष १०४ 'मानुषी २०६ माया १८७, १६५ मारुत ६४,६६ मार्ग २५, ३३, ३७, ४५, ८८, १०६, १८७. मार्गचारी १२५ मार्गजा ११६:मार्गजाता ११६ मार्गदेशीय १३२ मार्गाख्य १६३ मार्गाभिध २... मार्जन ४३ ... माईलिक १४ .. .. माल्यानुलेपन ६, १८७, २१५ मित ४०, ४७, ६४, ८६ मियोयुक्त १०१ मिथ्या ४८. . . . . . . मीननाथ १४ मुक्त ५१, १६७, १६१ मुक्तजानु १०६, १३१ मुक्ताफल ५० मुख ११, ४२,५१, ५८, ५६, ७१, ७२, १४७, १५१, १५५, २२४ मुखबन्ध १६६ मुखप्रति २०० मुख राग १०४ मुख्य(रसः) ३७ मुग्ध २०२, २२० मुग्धस्त्री (वीडित) १४७ मुडुप १३४ मुडुपसंज्ञिका १३४ मुण्डित १६५ मुद्रिका २२४ मुनि २३, २६, १३८, १६४, २०८ मुनीन्द्र ११६, १८१ मुनीश्वर १८२ मुरारि ९८४ मुशलपादिका १२२ मुहूर्त ५२, ७१, २२८ मुष्टि ४२, ४६, ७१ मुष्टिक ६२, ७६, १८६ मूर्छा ४०, ४१, ६६ मूछित ६० मूल ६, ४३, १०१ मूल ग्रन्थि ४१ मग ११७ मृगकलास १८८, १८४ मृगप्लुता १२०, १२३, १६० मृगबलकसंज्ञ १८७ मृगशीर्ष ५०,१८९ मृदङ्ग ५, १६, २१२ मेरु ६ . मेल २०५ मेलका १२१, १३८ १४. - मुकुट २८ . . मुकुल ४२, ५१, ८३, ८६, १६०, १६१, Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६० ] - मेलन ५२, ५६ मेलनविधि (अङ्ग) २२१ मेलापक २२५, २२६ मेलापनी १७१ मैयुन २१६ मोक्ष १,४६, ६६ मोक्षण १०६, १११, १३८, १६५ मोचन ११२ मोटक ४१ मोटन १०६ मोट्टन १०२ मोट्टावित १६ मोटित १०६ मोह ४१, १८६, २१६, २१७ मोहित ११६ मोहिनी २०३ मोखरिक १४ मौन ४१ मोलि ३८ म्लेच्छ २१०, २२४ यक्ष १०४ यजुः २६ यति ८७, १६४, २११, २१२, २१४ यमक २८ यज्ञादिपूर्तेषु २ याचन ११७ याचना ४३ यात्रा २ युक्त ६५, १०१ ३,४४,४५, ४७ युग्म २२८ युत ६४ युक्ति ४६ युद्ध ६२. १२३, १३८, १५८, १८७ युद्धमार्ग १८४ यूला ४, २६ यूनोः ५४ योग ५६, ८६, ६५, ११७ योगप्रद ४२ योगी ३५ योनि ८३ योषिता १४७ यौवन २२० रक्त १६, १०३, १०५, २१८ रक्तिप्रद २२४ रक्षण १०६ रक्षिजन १० रङ्ग १२, १४, २५, २७, १०४, १४७, २०२, २०७, २२५, २२६, २२७ रङ्गकार्य २२६ रङ्गवार १३ रङ्गपीठ ५, ७, १४, १७, १६७, २२५ रङ्गभूमि १४, १६, १६७ रङ्गमण्डल २०६ रङ्गगा १७ रङ्गाङ्ग ३ रचना १६२ रजस् ४, ३२ रञ्जक १६३ रञ्जन १७ रति ३० रत्न रत्नाकर २१४ रथचक्र १२६ रन्ध्र रम्भ २८,७३ रस १२, ३७, ४३, ६६, ६१, १८६, २०७, २१४, २१५, २१८, २१६ रसजा ८२ रसना ४४ रसनिष्पत्ति २१५ . रसभाव ६२ . रसवर्ण २१८ - Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रससंमित १६६ रसात्मिका १०४ - रसिक २२४ रहित १०४... राक्षस १०४ - - राग २६, ८२, १०४, २१५ रागालप्ति २२७ राज ८१ राजकन्या २१६ राजराज ४३ राजा १६, २५, ३६, ५३, ५५, ८२, २०६ राज्य (षडङ्गम्) ७० राशि २२२ : . रासक ३, २११, २१४ रुग्म ६८ रुचिर ८६ रुज (दृशं).६० .. रुद्राक्षवलय २११ रुद्राधिदेवत ११२ रुन्धक (पेरणी). १६६ रूढा(रेखा) १६७ रूप ८,६०, ६२ : रूपक ६, २१२, २१३, २२६, २२८ रूप्य:६ रेखा १९७, १९८, २२०, २२६ रेखासौष्ठव २०६ रेखिका २२१ रेचक ३, ६८, ६९, १३२, १३८, १४५, १५२, १८२. रोग ६५ रोदन ७६, २०० रोम ३५, ६३ रोमन्थावर्तन १०० रोमाञ्च ३६, २१६ रोष ३६, ४०,४६, ५४, ६४, ६७, १०१, २०० रोहिणी ६ रौद्र ८३, ६१, १०५, १११, २१५, २१८, २१६ रौद्रगत १६१ रौद्ररस २१७ रौद्री १५ लक्षण ३८, ७४, ८२, १४३, १४५, १७७, १८३, १८४, १६१, २१५, २२० लक्ष्म १७२ लक्ष्मी ८२ लगभ्रमरिका १६५ लग्न ७१,१०२ लग्नक ७० लङ्कनिका १२६, १३१ लति १२६, १२६ लज्जा ४०, ६६, १४, १००, १२२, १४८ लहिः २०३, २०४ लता ८,१७६ लताकर १५५, १६०, १७६, १८० लताक्षेप १२६, १३० लताख्य ४२, ४३ लताबन्ध १८ लताभिघ १६२ लघु २६, २८ लम्बित ४१ लय २०, १८१, १८२, २०४, २०५, २०७, २१३, २१४, २२५, २२८, . २२६ ललाट १०६ रेचकलक्षण १८६ रेचित ५६, ६०, ६३, ६७,७१, ७४, ७५, ८६, १७, १८, १२२, १२६, १४०, १४६, १४८, १४६, १५२, १५४, १५८, १६२, १६३, १७०, १७३, १७४, १७५, १७७, १७८, १७६, १८० . :.. : Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२ ] ललाटतिलक १७७ ललित २७, ४३, ६४, ७७, ८६, ११३, १३८, १४१, १४५, १४६, १५३, १५६, १७८, १७६, १६२, २१२ ललिता ४०, ८७, १५१ लाङ्गल ४ लाघव ३३ लालित्य ८५ लास २५, ३८ लास्य २, २२६ लिक्षा ४ लिङ्गवति १११ लिप्सा ३४ लोन १६, १४५, १४६, १७६ लीला ४०, ४६, ५४, ८६, १०१, ११३, लीलागृह २२४ लोलाङ्ग २७ लुठित १३७ लुठिता १३४ लुण्ठित १६६ लुलिता १३४ लेसन ५७ लेपन ६,४२ लेहिनी ६६ लोक २७, ४३, १३४ लोकतः ४६, २१० लोकदृष्टि ८८ लोकपाल २१ लोकमार्ग १६८ लोकशास्त्र ४२ लोला(जिह्वा) ६६, १०० लोला(प्रोवा) ७२ लोलित ३८, ४०, ६६, ७०, ७१, १४६, १६२, १७८ सोह ६८ लोहडी १६५, १६६, १६७ ।। लौकिक ३० वक्त्र १३, ५०, ५८, ६० वक्र ४१, ४२, ६६, १०० वक्रता १५० वक्त्रपाणि १५ वका ६६, १०१ वक्ष २६, ३८, १४८ वक्षःक्षेत्र १५४ वचनोक्ति १५० वचोभङ्गी १८६ वज्र ६, ११६ वञ्चित ४२, ५६, ६१, १४८, १५२, १५६, १६०, १६१ वदन ६६, ८२, १००, १४७, २००. . वधू ५५ वन्दन १७ दय १०४, २२४ वर ४७, ८२ वरद ६ वरदा ४३ . वराङ्गना ११, २१२ वरुण ८१ वर्गण(नृत्य) १३२ जित ६४, २११ वर्ण १०४, २०७, २२४, २२० घणक वर्णसर १६८ वर्णाश्रय १६७ वर्तन ६२, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८ . वर्तना ३६, ७४, १६४ ... वर्तनिका ५६, ७४, ७६, ७७, ७८ वर्तित ७८, ७६, ८०, १०५, १४७, १४८, १७३, १७८ . .. वर्षमान १३, १६, १६... ४२, ५६, १०१,११४ .. वर्षमानक ११४ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ ] वानर २१० वाम ८०, १४२, १६२ वामन ६८ वामपाद १४२ वामपाल १५७ वामा १८८ वामान १७६, १८० वायु ३२ वार्षगण्य १६५ वाल ४ वर्म १०४ चलगन १०० वलित ७१, ७४, ७६, १०१, १४५, १५३, १७० वलिता. ७४. १०१ वलितोरु. १४५, १८१ वल्लभ १० वल्ली ४६ वशगा १४६ वसन (काषाय) ५ वसन्तराग २११ वस्तु १७, १६, ६२ वस्तुनिर्देश ४० .. वस्त्र ६, १०३, १९८, २२४ वस्त्रधारण ११३ वहनी १६८ वह्नि १४ : .. वह्निकोण ७. वंकोल १६. वाक्. ३६, १६७ . वाक्काय २०१ . - वाक्य ५३, ६६. १५०, २१७, २१८ वाक्यार्थ. १५१ वागङ्ग २४, २६, १८५ वाचन ४५ वाचिका १, २५, २६, ३६ वात. ८१,६०. वातायन ८, ९, ५६ वार्ता २७. पातिक १८४.. वाद (साधु) ४८ वादक २२६, २२७. वादन १५, १६, ४८, ७१, ७३, १६७, वासनारूप २१८ वास्तव १६५ वाहन (प्रश्वानां) १११ विकट २६, ३८ विकल २२७ विक्रम २१० विकार ६५ विकाशित ६७ विकाशिनी ८३ विकीर्ण ४६ विक्रीडित १४६, १६१, १८१ विकूणित (ता) ६३, ६४ विकृत ८५, १०० विकृष्ट ४, १४, २०९ विकृष्टि १०६ विक्षिप्त १४५, १४६, १५८, १७४, १७५, १७६, १८०, १८५, १८६ विक्षेप ८०, १२६, १३१ विचक्षण ६५, १०१ विचार ११, ४१, ४६, ११२ विचित्र ६, १३८, १४२ विचित्ररस २०२ विचेष्टित २१० विच्छन्न ६४ विच्छेदन ८७ विच्यव १२१,१४२ विच्यघा १२० विच्युत ५०, १५६ बाध. १८१, १६२, १६३, १९८, २०१, २०४, २०५, २०७, २०८, २०६ २२५, २२६, २२७, २२८, २२६ वायज(मुस) १६२ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] विजयोत्सव २ विज्ञान ३६,८७ वितर्क ३६,५८, ८६, १५१, २१६ विकिता ८७ वितड २०४, २०७ विताडित ६० विद्धा १३२ विद्यु भ्रान्त १७६ विद्धोद्वत्त १२० विधाता २ विधि १८०, १६४, १६५, २१०, २१३ २२८ विधूत ३६, २०६ विघृत १०० विनय ४६, ५३ विनिवतित १०६, ११३ विनिवृत्त १०१, १४६, १७८ विनियोग ७४, १०१, १२०, १४८, १६१, १७३, १८१ विन्यास १३ विपद ११६ विपश्चित १७३ विपश्चिता १६६ विप्रकीर्ण ४२ विप्रलम्भ २१५ विप्लुत ८३, ८८ विवोध २१६ विवोक ३६, ४० विभक्त १६ विभजन ४३ विभाव २१५, २१८ विभावन १७ विभु ४, १८२ विभूषित २२८ विभ्रम ५०, ८८, ११३ विभ्रान्ता ८३, ८८ विमान १०३, १११ विमुक्त ६४, ६५, १०१ विमुक्तक १०१ दिमूढ २०१ विमोटन २०१ वियुक्त १०१ वियुत २१४ वियुता १०१ विरञ्चि २२ विरह ११६ विराटराजदुहिता ३ विलम्ब २१३ विलम्बित १६५, २०४, २२८ विलास २,४०, ८५, १६, १७, ११३ विलासित १४६, १५६, १७८ विलीन १४ विलेपन २२८ विलोकन ११३ विलोकित ६२, १९७ विलोम १३४ विलोमिका १३७ विवर्त ६७ विवर्तन ६७, ६०, ११, २०४, ..२०७, २२६ विवर्तित ६७, ८६, ६०, ६७, १०१, ११८, १४६, १५८ विवर्धनी (काम) ८४ विवाह ३२, ४५ विविध २१७ विवेकशाली ३५ विवृत ८१, १०१, १४६, १५७, १५६, १७८ विशदकान्तदन्तता २२१ विशारद ६०, १५२ . . विशाल १६ ....... विशुद्ध २२० . . -: Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ ] विशेष १०, ८३, ८५, १०५, १३४, वीर ८३, ८५, ६१, १११, २१५, २१७ १८४, २१७ २१८, २१६ विशेषण ६५.. वीररस १६ विशेष्य ६५ वीडा २१६ विशोक ८७, १८५ वीडित १४७ विधान्ति २२८ वृत्त ६३, १००, १२२ विश्वकर्मा ४. वृत्ति १२, १५, ३४, ३५, ३६, ३७, विश्लिष्ट १२६ १०४, १८४, १८५, १८६, १८७, विश्लेषः १०६ १६४ विषकुम्भ १७७ वृन्त ४७,५७ विषण्ण ८३, ८७ वृन्तक ४१ विषम २६, ३८, ११६, १२६, १४०, वृन्द २ १९१, १६४, १९७, २२५ वृश्चिक १४६, १५१, १५५, १५६, विषमसूचि १०१, ११५ १५७, १५८, १५६, १६१, १७६, विषाद ३६, ६६, ७६, ८७, २१६ १७८, १७६, १८० विष्कम्भित १०६, ११७ वृषभक्रीडित १७८ विष्कुम्भ १४६, १६२, १७३ वृषभासन १०१ विष्टयादि ४ वृष्टि ६ विष्णु २२, २१०, २२८ वृष्णिका १७३ विष्णुकान्त १४६ . वेग ८८ विसर्ग ११२, वेगदान १११ विसर्जन ४७, १०६, ११४ विसर्प ११२ वेणी २२३ वेणीकृत ४१ विसृष्टः १७... वेताल ६६ विस्तीर्ण ५४.. वेत्रधारा ११ विस्मय ३९, ४१, ६६, ८४, ८६, ६०, वेद २७ १४, १३, १५०, १५४, १५६ वेदना १६, ६७ विस्मापन ८४ . वेदसंमित १६४ विस्मित ८३, ८४, ६४, ६५, २१७ वेदि ७८ विहङ्ग १११ वेदिका १० विहसित २१६ वेपथु २१६ विहस्त २०४, २०८ वेश ६३ विहित २२७ वेशभूषा १६७ विहृत १३८ . वेश्म (नाटय, शूद्रादि) ५, ८, १०, २२३ बीक्षण ७१, १११, ११३ घोक्षा(प्रध) ७२ वेष १०४, २१७ वेषचरित २१० थोषी १८५ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येष्टक वेष्टन १२३ वेष्टित १०६, १५८, १६१ वैकल्पिक १७७ वैणिक १४ वैतालिक ३, १८४, १६३, १६६, वैदूर्य ६ वैवर्ण्य २१६ वैवाहिक (मङ्गल) २ वैशाख १७, १०१, १११, १५४, १५५, .. १७३, १७५, १७८ वैश्य ६ वष्णव ७८, १०१, ११०, ११५, १६२ ....१६७, १६६ वंकोल(करण) १६७ . वश १६८ व्यथा ८७,६७ व्यभिचार ३४, ८३, २१५, २१६, २१८ व्याकोश. २१६ व्याघ्र ५५ व्याज १०३ व्यादीर्ण ६६ व्याधि ४१, ६६, ७८, ६६, ११७, व्यायाम ६८, ८०,६७ . व्यावर्तन १६३ व्यावृत्त ११२, १४७. १५४ व्यावृत्ति १४७, १५७ व्योम ४० व्योमग १५५. च्योमयान १६० भ्यंसित १४६, १५४, १७३, १७५, १७६, १७८, १७६ वृषभासन ११६ शहट १६३ याफटास्य १३६, १४०,१४१, १४२ - शक्ति ४६, १६५ शङ्कर १०२ शका २०७, २१६ . शङ्कितं.८३, ८६ शङ्ख ५, १३६ शत (अप्सरवृन्द) २ शतं(अङ्गहार) १४६ शब्द ६, १२, ५७, १०२, २१८ शयन ५६ शरन्मथाकर्षण ४७ शराफर्ष ४६ शरासन १६५ शरीर १४६ शरीरिण १०४ शस्त्र ६६, १११ शस्त्रपात १६४ सस्त्रमोक्ष १८९ शस्त्रमोक्षण १६४ शम्भु १, २, ३, १६, २२ शाखा ३६ शान्त २१५, २१८, २१६ शान्तरस २१८ शान्तिपाठ ६ शालभजिका शास्त्र (नाटय) २७ शास्त्र(वानिष्ठानि) २६ शास्त्र (समय) ५५ शास्त्रार्थ ५५ शिक्षा २२६ शिखर ४२,४६,५६,६३,१ शिखरत्व १७० शिखापाश १८५ शिखायान १६५ शिर २६, ३८, ३६, ४२,४६, १०६, १६२, २०६, २२१, २२३ :... शिरपिटी १६ शिरिहिर १६६ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७ ] शिरोभ्रमरिका १६५.... शङ्गाररस २०७ शिरोभ्रमरी १६६ .... शृङ्गारी १० शिला ५६ शेषपद १६६, २१० शिल्प २७, २१८ शेषशायिनी १८४ शिल्पि ७, २०३ शल १०४ शिव १, २, २२, ८२, १०६ शैष १०१, ११६, ११८ शिवरूपी २११ शोक ९५, १०१, ११७ शिवप्रिय २११ शोकज ३५ शिवम् १८१, १६४ शोभा २५, २२१ शिशु ४७ शोभाढय २ शिशिर ७१ शौर्य १८५ शिष्टाचार ३८ श्याम ६६, १०३, १०५, २१८ शिष्या (राज) १५ श्यामता २२२ शीघ्र ५२... श्रम ३०, ६६, ७१, ७६, ८६, ६६, शीत ३६, ५४, ६६, ६३, १७, १८, ११८, २१६, २१९, २२८ १००, १०२ श्रमविधि २२० शीष ५, ६,४५, ५४, ५५, ५६, ७१, श्रवण ६, १३, ४८, ८६, १०३ : ११०.. . श्रान्त ८६, ६५ शीर्षक ४२. १०६ श्रावण १३, १४ शीर्षपल्लव १७०.. श्रीफल १६ शुक ४७ श्रुति ७ शुकतुण्ड १४७ श्रोणि २११ शकतुण्ड (वर्तना) ७५ श्रोणि १०३ शुकास्य ६६ : .. श्वापद ६६, २१० शुक्ल २१८ श्वास ३६ शुद्ध २२६ श्लक्षण २२८ शुद्धता १८... श्वास ३६ शुद्धा ३७, २२६ श्लेष १०६ शुष्क १३.. श्वसित ६६, १०० षट् (पुंसां स्थानानि) ११० शूद्रादि (वेश्म) ४ षट्कल १७ शून्य ८३, ८५ पत्रिंशत् (देशीलास्याङ्गानि) २०४ शून्यता ३६ षडङ्ग ७० शूरवाला १७........... षोडश(नर्तक्यः) १६ शवलिका १८ पोडशधा(वाहवः) १७३ शुजार २, ८६, ११, १०५, २१५, पोडशघा (हस्तकाः) २१४ २१६: .... : पोडा(पादतल) १०२ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८ ] - - सङ्गम २ सङ्गीत २०६ सजीव १०३, १०४ सज्जन ११७ सञ्चय २२२ सञ्चर १४१ सञ्चार १९८, २२३ सञ्चारित १२६ सञ्चित १४५ सत्तम २२७ सत्त्व २६, २९, ३०, ३१, ३२, ८५, १८५, २१७, २२२ स्तम्भद्वय २२४, २२८ सदाभोग: १७० सन्नत १४६, १६१ सन्नम् ११० सन्मुख १६३ सर्प २११ सर्पित १४६, १६०, १७३, १७८ सप्त (स्त्री स्थानकानि) ११० । सप्तविध (जानु) ८१ सभा (संन्निवेश) ३ सभापति ६ सभापति (निवेश) ३ सभास्तरण १० सभास्पद ५ सभृङ्गारक २० सभ्य १२, २१५ समं ४, १६, ३८, ३६, ६६, ६८, ७१, ८१, ८६, ६२, ६३, ६४,६८, १०१, ११८, १५०, १६१, २२५, २२६ .. समनख १४५, १४६, १७३, १७४... समनाद २२६ समपाद १०१, १११, १६२, १६७, २२६ समय ५५, ६५ समर्थ १८२ समर्पण ५५ समसूचि ११५ समापन २१३ समुद्भव २ समुद्भूत १४६ समुद्र १७ सरल ७२, ७३ सरस्वती १४, २१४, २२८ सरिका १२६ सरोष ५२ . सविता १३८ सर्व २२४ सर्वाङ्ग २२७ सर्वात्मन १२६ सव्याघ १५ सव्यावर्त १६८ सहजा ८८ सहृदय २१४ सागर ५४ साङ्ग २ साङ्गन्त २२५ साङ्गहार १८४ साङ्गष्ठ १०२ साचि ६२ सात्वत १६४ सात्वती ३६, १८५ सात्विक १, २५, २६, ३०, ३१, ३२, .. ३३, ३४, ३५, ३६, २१६:... साधारण १०५ साध्य ७६ साधिका १२१ साम २६ सामग्री २०४ साम्य २२५, २२८, २२६ सारिफा १३० , सालग १९७, २२६, २२८ सालगसूड २१२ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६ ] सावज्ञ ४७ सिचयान्तः (अवगुण्ठितः) २१२ सित ४,१०३, २१८ सिद्धि १०४, २२३ सिरालता २२१ सीत्कृत ९६. सोमन्तः २२३ सीवन ४६ सुकलास. २०३, २०५ सुधा. सुघालेप ८ .. संघी. १९२. सुनन्द १६ सुन्दर ५०, २०६ सुपीन (स्तन) ६६ . सुप्त ६६, ११०, ११८, २१६ सुप्तस्थान १०१ सुभग २२३ सुमना २२६ सुमुखी १६ १६७, १९३ सूचीदक्ष १४१ सूचीपाद १५३ सूचीमुख १५२, १६३ सूचीमुखकर १५३ सूचीवाम १४१, १४३ सूचीविद्ध १३८, १४०, १४१, १४२, १४३, १४६, १५६, १७३, १७५, १७७ सूच्यान्त १६८, २१४ सूत्र ५, ७, २२, २४, १०३, २१५ सूत्रधार १२, १६, २२, २३, १५६, १८५ सूत्रभृत् २१ सूत्राकर्षण १०३ सूत्राङ्गद १०३ सूर्योदय ५४ सेवा ३६ सैन्धव १६६, २०२ सोपोहना ३, १२ सौख्य २१६ सौदामिनी ४० सौभाग्य १, ११३ सौम्य ४ सौरभ ६४ सौष्ठव ११०, २०४, २२१ संकट १६८ संकीर्ण ५६, ३८ संकोच .२१८ संक्षिप्त १-७ संखोटना १५ संग्रह ३८ संघ ८२, १०२ संघट्टित १४६, १६२, १७५ संघट्टिता १२६, १२६ संघात १७२, १८६ संघात्मक १८५, १८६ सुर ३८ . सरगम २ सुरत: ६६ सुरपूजा. १५५ सुरानन्द १५७ सुरेख १६५ सुलय :३१ सुवेषः १० सस्थानक २२५ सुस्फुट २२४ सूड १६८, २२६ सूचन ४५ सूचिका १२६ सूची १७, १८, २०, ४८, ५६, ६८, ६६, ११६, १२०, १२६, १३२,. १४१, १४२, १४३, १४६, १४८, , १५१, १५४, १५६, १६३, १६५, Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७० ] संघिम १०३ संवाहन ४६ संघोटन १३ संविद ३२ संघोटना १५ संश्रय १०५ संजीविका १७० संश्लिष्ट ४७, १०१ संज्ञा ४० संसद ३१, १९३, २२१ संदिग्ध १५ संसूय २०८ संत २११ संस्कृत ८ संदष्ट ६७ संस्कृति १०३ संदेश १८, ४२, ५१ संस्था २१२ संदोह २०४ संस्फोटित ४७, १०१, १४६, १५८, संदंश ४२, ५१, ६५, १६०, २१३ १७५, १७६ संधि १०३ संहत ८१, २२, ६६, १००, १०१, ११४ संधिक संहप १५५ संध्या १२७ सांस्य ३२ संनतं १७७ सान्तवन ११७ संनिवेश(सभायाः) ३ सांप्रतार्थ ५० संपत्ति २०४ सांप्रदायिक २२६ संपद २२१ सिंदूर २२३ संप्रदाय ४, ८३, २२४, २२५ सिंह ५५, २१० संफेट १८७ सिंहमुख ४२ संबंध ४६ सिंहासन १० संभव २०,१८६, २०८ सिंहासना १७१ संभाधना १५० स्कन्य ७०, ७२, १०६ संभाष ५३ स्कन्वदेश २२६ संभूय ४३ स्खलित ११३, १२६, १४६, १६१, संभेद २०० १६२, १७३, १७६ स्खलितक १७५ संभोग २१६ स्खलितिका १३० संभ्रम ५५, ६६, ६८, ७६, ८८, १६३, १८५ स्तन ४० संभ्रान्त १४६, १६३, १७३, १७४, स्तब्ध ७४ १७६,१८१ स्तवक ११३ संमार्जन ४४ स्तम्भ ६, ७, ८, ३०, ३१, ३४, ४०, संमित १६५, २०४ ६६, १००, १०२, २१६, २१८ संमार १०५, १४६ स्तम्भित ६४, ६६ संपत ५७, २१४, २१७ स्तुति ४०, ७४. संमुता ४२, १०१ स्त्री २२,२१० संतान १०१,१०२ संताप १७,१८५,१८६ स्त्रीभाव २१० ... ......... स्नीनत्त २१० ..... Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान है, ५६, ६९, ७३, ८०, १०६, -- १२०, १२६, १४८, २१०, २२६ । स्थानक ३, २०, २५, ३१, ३६, १०१, ११२, १२६, १४७, १४६, १५०, १५४, १६१, १६२, १६६, १६०, २१०. . . . स्थायान् २२७ स्थायिन ३१, ३४, २१८, २२७ स्थित ४७ स्थितपाठ्य १६६ स्थितावतं १३६, १५६ स्थिति १३४, २१७, २२१ स्थिर ६८ स्थिरहस्त १७३ स्थिरा ४ : स्थूल ७८ .. स्थर्य २, ४५, ५४, ८५ स्निग्ध ८३ स्नेह ८७ स्पन्दन २१६ स्पन्दित . १२०, १२२, १३८, १३६, स्वच्छ ८१ स्वभाव ७१, ६४, २१८ स्वाभाविक १०४, १०५, ११२ स्वरूप १८ स्वर्ण ६ स्वशास्त्रतः ४२ स्वस्तिक ४२, ४३, ५४, ५६, ५८, ५६, ६३, ६४, ७२, ७३, ७६, १०१, ११४, १२६, १२६, १४५, १४७, १४८, १४६, १५०, १५२, १५४, १५६, १६०, १६२, १६४, १६६, १६७, १६८, १७३, १७४, १७५, १७६, १७७, १७८, १७६, १८०, १८६, २२३ स्वस्थ ६४, ६५, १०१, ११६ स्वाङ्ग ११३ स्वाद ५२, १०२ स्वाभाविक १०४ स्वीकार १११ स्वेद ३१, ४६, ५०, ५२, २१६, २१६ हरनिर्मित १७२ हरप्रिय १७४ हरार्चन १७५ हरिण १३१ हरिणप्लुत १२६, १४६, १५६ . हरिणप्लुतक १८० हरिणी १३१ हवन ११७ हर्ष ३४, ३५, ४१, ७१, ६०, १८५, १८७, २००, २१६ हसित २१६ हस्त २६, ३८, ४३, १६०, १६१, १६३, १८८, १६५, १६७, २१४ हस्त(करि) ६०, ६१, १६०, १७४, १७५, १७६, १७६ हस्त (खटकदोल) १६८ हस्त (चपेटवत्) १६१ = स्पर्श ४३, ४४, ८६, २१२, २१८ स्पर्शन १.६५, १६७ स्फटिक ६ . स्फुट १६ स्फुरिका १२६, १३० स्फुरित ३१, १००, १२६ स्फोट १११, १८६ स्फोटन १०६ .. स्मित ४१, ६७, २१६ स्मृत १०२ ... स्मृति २१६. ... स्यन्दन १११ त्रस्त ७० स्रस्तालस १०६ : .. स्वगोपन ७१ ... Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्त (दोल) १६०, १६२ हस्त (नृत्य) ५७, १६३ हस्त (प्रचारः) ३. हस्त(भ्रमणाश्लम्ब) १७१ हस्त (मकरउद्वृत्त) ७५ हस्त (मराल) १२६हस्त (लता) १०६, १४६ हस्तक ३, ११, ४२, ४३, ६५, १४६, १५८, १६६, १७५, १७६, १७६, २१२, २१३, २१४, २२६हस्तकर्म ३, १७५, १७ हस्तक्षेत्र ३ हस्तग्राह्य २२८ हंस १८८ हंसक २२४ १४८, १८२ हंस पक्ष १३३, हंसपक्षक १६१ हंसीवास १९२ हानि ११७ हार १२, ५७, १०३, १७२ ६४, १७४, [ ७२ ] हावभाव २१३: हास ६६, ८ हास्य ७१, ७६, ८३, ८४, ६१, ६४, ६७, ६६, १०१, १०५, १८६, २१५, २१६, २१७, २१८, २१६ हास्ययज्ञ १९३ हिक्का ६६ हित ३६, ७६, ११८, १५० हित्य ३४ हीरा २२६ हेतुक ३५ हेलन ६७ हेला ४०, ८ हम १० होम ११० हृदय ८६ हृदयकम्पन २१८ ह्रदयङ्गन्म १७० हृदिगा १६७ हृष्ट ८३ होरोष ८२ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ ग्रन्थकारेण निर्दिष्टानां ग्रन्थानां ग्रन्थकृतां चाकाराद्यनुक्रमणी भट्ट (उद्भट) २९ भट्ट ( तण्डु) ७४ भट्ट (लोल्लट) २६ भट्टाभिनवगुप्त ६१ भट्टाभिनवपूर्वकाचार्य १८० भरत २, २४, १०४, १२०, १२५, १३३, १३४, १४०, १४५, १६४, १७० भरतमुख्यसूरि १९४ अक्षपादादि १९४ स्थितिभूभृत् २०४ Co अभिनव श्रभिनवगुप्त (भट्ट) ६१ प्रभिनवभारतिका १२५ श्राचार्य ६१, ६४, ६५, १०६ ( केचिद् ) ३४ धानन्दसंजीवन १६ε उत्तरा (विराजराजदुहिता ) ३ उद्भट (भट्ट) २६ उषा ( वाणात्मजा ) २ फलानिधि (सङ्गीतरत्नाकर- टीका) ७४, १३४ कोतिर ७६ फीतिधराचार्य ५६, ६० कुम्भकर्ण १६४, १८३ फुम्भनृप ३ कुम्भभूभुज् १८१ कुम्भस्वामिन् (शिव) २१६ कोहल ९४, १३४ गीतगोविन्द & चित्ररथ २ २, २६ सण्डु (भट्ट) ७४, ७७ नरेश १८१ नोभरत १८० नृपोत्तम १६५ पार्थ २: पुराणमुति ( भारत ) २२३. पूर्वरि ३० बाणात्मना (उषा) २ देशी ४२ बृहद्देशीविद् ४२, १६४ भरतमुनि १८१ भरतात्मज २ भरताचार्य १२, २६, ३८, ६४, २१५ भरतादि ६६, १७५ भवभूति ३० भारत (नाट्यशास्त्र) १३ भारत (मत) १०६ भूभृत् २२२, २२६ महीभृत् ११४, १७३ मार्कण्डेयपुराण २२३ सुनि ६०, ६१, ६४, ६३, १०१, ११०, १११, ११६, १६४, १७२ मुनिवर १८३, १८५ मृतिविभू १८२ मुनिश्रेष्ठ ११४ रत्नाकर ६४ रत्नाकरकृत् ६४ राजन् (कुम्भ) २२४ राजराज २०४, २१२ राजेन्द्र (कुम्भ) १९ राजोपदेश २१८ राहुल ३३ सोल्लट (भट्ट) २९ चालयापन प -कुर (कुम्भ) १६६ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ शंकु ३२ श्रीकुम्भकर्ण संगीत-गीतगोविन्द . श्रीभरताचार्य २०६ श्रीमत्कीतिघराचार्य ५६ ७४ ] संगीतगीतगोविन्द संगीतरत्नाकरटीका (कलानिधि). ७४ सोकल ३ ... सौराष्ट्रयोषा २ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BIBLIOGRAPHY Akbar the Great Mugal (1542-1605) by Vincent A. Smith, C.I.E. Second Edition, Revised Indian Reprint, 1958 S. Chand & Co. Delhi. The Arvindu Dynasty of Vijayanagar by Rev. Heras. Paul & Co. Publishers, Madras, 1927. Bombay Gazetteer Vol. I parts I & II. Vol. XII, Vol. XVI. The Cambridge History of India Vol. III. A Collection of Prakrit and Sanskrit Inscriptions published by the Bhavanagar Archaeological Department, Bhavanagar. Ferishta Vol. IV. Fine Art in India and Ceylon by Vincent Smith, second edition, Oxford, 1930. Geographical Dictionary of Ancient & Medieval India by Nandlal De. History of Gujarat (1297–1573) by Commissariat. History of Indian and Eastern Architecture Vol. II 1: by Jamies Fergusson, London 1910. History of Orissa Vol. I by R.D. Banerji, Calcutta 1930. History of Rajputana Vols. I & II by Gaurishankar Ojba, Ajmer 1932 History of the rise of the Mahomedan Power in India, till the year A.D. 1612, (Translated from the original Persian of Mahomed Kasim Fetishta by John Briggs, M.R. A.S. Vol. IV Calcutta, 1916 Imperial Gazetteer of India, Mahb b bād to Moradabād Vol. XVII New edition Oxford, 1908. Indian Antiquary Vol. III 1879. Indian Architecture (Islamic period) by Percy Brown, Bombay, 1942 Journal of the Indian Historical Research Institute, 1929. Journal of the Royal Asiatic Society Vol. XV Mahārāṇā Kumbhā by Harbilas Sarda-second edition, 1932, Ajmer. Mandu; Publications Division-Ministry of Information und Broadcasting, Government of India, Delhi 8. . The Ruins of Mandoo, by J. Guiaud of Nice, Dhar, 1892. Tod's Annals and Antiquities of Rajasthan Vols. I, II, III by James Tod, Oxford university press, 1920 राजपूताने का इतिहास (पहला खंड) पंडित गौरीशंकर हीराचंद प्रोमा, अजमेर वि.सं. १९८२ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७६ ] प्राचीन लेखमाला भाग १ मुम्बई " " भाग २ भाग ३ भावनगर प्राचीन शोध संग्रह-वजेशंकर गौरीशंकर, राजकोट १८८७ पाव्यरत्नकोश सं० कुन्हन राना भरत नाट्यशास्त्र गायकवाड संस्कृत सिरीज बड़ोदा राष्ट्रीट वं महाकाव्य . शब्दकल्पद्रुम संगीत-रत्नाकर भाग ७ घानन्दाश्रम सं० सिरीज़ MOCGeo Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ERRATA 2. 3 Ere Page Line Incorrect Correct 2 28 Nýtyaratankosa Nrtyaratnakosa 3: 25 Add Il in the ullāsa coloumn Io che that :7* i fn. very every IZ Muharik Mubarik "In Henay Henry Nayaka Nāyaka Eri 19. 12. Rāghvadeva Rāghavadeva Raghavdeva Rāghavadeva 20 26 Rankpur Rānakpur 20:30 Rajaputana Rajputana 23 Hymayun Humayun 23 :31 Mahmodan Muhammad rular ruler 24 :31 Mahmodan . Mohammedan Sadhu, Saharan, Sadha- Sadhu, Sabaran, Sadhāran. 18 Muhamud Mahmud ..16: Baily's Bayley's 284 29 39 İVX XVI 30 .27: Ain-i-Akari . Aln-i-Akbari Khaānān. Khāna 30 : Udaipu Udaipur ...37 Sādari 34: 25 Natyas'astra Nāțyasastra :34: 19 delete the mark, 36 : 12 Prtas Prāsa 36... 14 Rūpaytara R pavatara 18 Dipkiā: D pikā. 12 intrugues intrigues Colnol Colonel ran, 000 far Sadari H + oH Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रक निर्माणम ०पमहाश्च स्यादन्तभूतं हस्ताः प्रत्यके ofict line Add heading मीना ha सीको सूचीमुलाव पलितः जानक्षा नयोनासज्जिते पातिं कनिष्ठा साक्षिासापजानु: साजीको पलितोष नपुरपाधिकाम दायमापि जतायाधिपमेय श्रेयापरम. . . far नाम Page #249 -------------------------------------------------------------------------- _