Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
मेवाड़ प्रदेशके प्राचीन डिंगल कवि
श्री देव कोठारी प्राचीन संस्कृत शिलालेखों एवं पुस्तकोंमें मेदपाट' नामसे प्रसिद्ध वर्तमानका मेवाड़, राजस्थान प्रान्तके दक्षिणी भूभागमें उदयपुर, चित्तौड़गढ़ व भीलवाड़ा जिलोंमें फैला हुआ प्रदेश है। शताब्दियों तक यह प्रदेश शौर्य, साहस, स्वाभिमान और देशगौरवके नामपर मर मिटने वाले असंख्य रणबांकुरोंकी क्रीड़ास्थली के रूप में प्रसिद्ध रहा है तथा यहाँके कवियोंने रणभेरीके तुमुलनादके बीच विविध भाषाओं में विपुल साहित्यका सृजन किया है और उसे सुरक्षित रखा है।
दिवंगिर जो आगे चलकर डिंगलके नामसे अभिहित की जाने लगी, आचार्य हरिभद्रसूरि (वि० सं० ७५७-८२७) से लेकर लगभग वर्तमान समय तक इस प्रदेशके कवियोंकी प्रमुख भाषा रही। प्रारंभमें डिंगल, अपभ्रशसे प्रभावित थी किन्तु धीरे-धीरे उसका स्वतंत्र भाषाके रूपमें विकास हुआ। अब तक किये गये अनुसंधान कार्यके आधारपर विक्रमकी चौदहवीं शताब्दीके उत्तरार्द्ध तक इस प्रदेशमें जैन साधुओं द्वारा निर्मित काव्य ही मिलता है। महाराणा हमीर (वि० सं० १३८३-१४२१) के शासनकालमें सर्वप्रथम सोदा बारहठ बारूजी नामक चारण कविके फुटकर गीत मिलते है और उसके बाद जैन साधुओंके साथ-साथ चारणोंका काव्य भी क्रमशः अधिक मात्रामें उपलब्ध होता है। यह परम्परा वर्तमान समय तक कम अधिक तादाद में चालू रही है। यहाँके राजपूत, भाट, ढाढी, ढोली आदि जातियोंके कवियोंने भी काव्य निर्माणमें योग दिया है परन्तु परिमाणकी दृष्टिसे वह कम है। चारण कवियोंका काव्य परिनिष्ठित डिंगलमें मिलता है तो जैन साधुओं व अन्य जातिके कवियोंका काव्य लौकिक भाषासे प्रभावित डिंगलमें मिलता है। यही कारण है कि चारणोंके काव्यमें तद्भव शब्दोंका प्रयोग अधिक है तो चारणेतर काव्यमें लौकिक भाषाके शब्दोंका । यहाँ प्रस्तुत लेखमें मेवाड़ में इस प्रकारके प्रसिद्ध प्राचीन चारण और चारणेतर कवियों तथा उनके काव्यका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है
(१) हरिभद्रसूरि-प्रभाचन्द्रसूरी द्वारा वि० सं० १३४४ में रचित 'प्रभावक चरित' थे अनुसार डिंगल भाषाके आदि कवि आचार्य हरिभद्रसूरि चित्तौड़ के राजा जितारिके राजपुरोहित थे। पद्मश्री मुनि जिनविजयजीने इनका जन्म स्थान चित्तौड़ और जीवनकाल वि० सं० ७५७ से ८२७ के मध्य माना है।४
१. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग २ पृष्ठ ३३४-३३५ । २. (i) डॉ० ब्रजमोहन जावलिया डिंगल: एक नवीन संवीक्षण, मधुमती मार्च ६९, पृष्ठ ८३-८४
(ii) डिंगल शब्दकी व्युत्पत्तिके सम्बन्धमें अनेक विद्वानोंने अपने मत प्रस्तुत किये है, किन्तु डॉ.
जावलियाका यह मत ही अधिक समीचीन जान पड़ता है। ३. श्री अगरचन्द नाहटा-जैन साहित्य और चित्तौड़, शोध पत्रिका-मार्च १९४७ (भाग १, अंक १)
पृष्ठ ३४। ४. जैन साहित्य संशोधक, पूना, भाग १, अंक १ में मुनि श्री जिनविजयजीका लेख-'हरिभद्रसूरिका
समय-निर्णय'।
भाषा और साहित्य : २२९
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
'गणधर सार्द्धशतक'की सुमतिगणिको बृहद् वृत्तिमें इन्हें स्पष्टतः ब्राह्मण वंशमें उत्पन्न माना है। ये अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता और बहश्रत विद्वान थे। प्रतिक्रमण अर्थ दीपिकाके आधारपर इनके द्वारा कुल १४४ ग्रन्थ लिखे गये, जिनमेंसे वर्तमानमें छोटी-बड़ी १०० रचनाएँ उपलब्ध हैं। णेमिणाह चरिउ, धूर्ताख्यान, ललित विस्तरा, सम्बोध प्रकरण, जसहर चरिउ आदि ग्रन्थोंमें अपभ्रंशसे अलग होती हुई तत्कालीन डिंगलका स्वरूप स्पष्ट दिखाई देता है। 'णेमिणाह चरिउ'के प्रकृति वर्णनके निम्न उदाहरणसे इस तथ्यका पता चल सकता है
भमरा धावहिं कुमुइणिउ डब्भिबि कमल वणेसु, कस्सव कहिं पडिवधु जगे चिरपरिचिय गणेसु, विरह विहुरिय चक्कमिहुणाई मिलि ऊण साणंद,
हुम तु? भमहि पहियण महियले, कोसिय कुलु एक्कु परिदुहिउ रविहि,
__ आरूढे नहयले। (२) हरिषेण-दिगम्बर मतावलम्बी हरिषेण चित्तौड़ के रहनेवाले थे। धक्कड़ इनकी जाति थी। पिताका नाम गोवर्धन और माताका नाम धनवती था।४ विक्रम सं० १०४४ में इन्होंने ' ग्रन्थकी रचना की। इस ग्रन्थमें ११ सन्धियोंमें १०० कथाओंका वर्णन किया गया है। जिनमें २३८ कडवक हैं। राजस्थानमें यह ग्रन्थ बहत प्रसिद्ध रहा है। इसकी अनेक हस्तलिखित प्रतियां है। 'धम्म परिक्खा'की रचनाका प्रयोजन व उपादेयता बतलाते हुए कवि कहता है कि
मणुए-जम्मि बुद्धिए कि किज्जइ । मणहरजाइ कव्वु ण रहज्जइ ।।
तं करत अवियाणिय आरिस । होसु लहहिं भड़ रड़ि गय पोरिसा ॥ अभी तक इस ग्रन्थका प्रकाशन नहीं हुआ है । विस्तृत जानकारीके लिए 'वीरवाणी'का राजस्थान जैन साहित्य सेवी विशेषांक द्रष्टव्य है।
(३) जिनवल्लभसूरि-बारहवीं शताब्दीके पूर्वार्द्धमें अर्थात् वि० सं० ११३८के पश्चात् जिनवल्लभ
१. श्री रामवल्लभ सोमानी-वीरभूमि चित्तौड़, पृष्ठ ११४ । २. श्री अगरचन्द नाहटा-राजस्थानी साहित्यकी गौरवपूर्ण परम्परा, पृष्ठ २६ । ३. श्री राहुल सांकृत्यायन-हिन्दी काव्य धारा, पृष्ठ ३८४ व ३८६ । ४. श्री रामवल्लभ सोमानी-वीरभूमि चित्तौड़, पृष्ठ १२२ । ५. वही, पृ०१२२ । ६. डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल-राजस्थानी जैन सन्तोंकी साहित्य साधना. मुनि हजारोमल स्मृति ग्रन्थमें
प्रकाशित लेख, पृ० ७६६ । ७. श्री रामवल्लभ सोमानी-वीरभूमि चित्तौड़, पृ० १२२ । ८. वही, पृ० १२२ । ९. श्री रामवल्लभ सोमानी द्वारा लिखित 'हरिषेण' शीर्षक लेख, 'वीरवाणी' राजस्थान जैन साहित्य सेवी
विशेषांक, पु०५२-५५ ।
२३० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूरि पाटण (गजरात)में आचार्य अभयदेवसूरिसे दीक्षा लेकर चित्तौड़ आये। और यहाँ कई वर्षों तक रहकर विधि मार्गका प्रचार किया तथा अपने प्रभावके उद्गमका केन्द्र स्थान बनाया। वि० सं० ११६७में जिनदत्तसूरिको अपना पट्टधर नियुक्त कर इसी वर्ष कार्तिक कृष्णा १२को चित्तौड़में इनका देहावसान हो गया । कवि, साहित्यकार व ग्रन्थकारके रूपमें इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। इनके द्वारा रचे गये ग्रन्थोंमें 'बद्धनवकार' ग्रन्थ बड़ा प्रसिद्ध है। ग्रन्थका रचनाकाल विवादास्पद है। इसमें विकसित होती हुई डिंगल भाषाका निम्न स्वरूप मिलता है
चित्रावेली काज किस देसांतर लंघउ । रयण रासि कारण किस सायर उल्लंघउ । चवदह पूरब सार युगे एक नवकार । सयल काज महिलसैर दुत्तर तरै संसार ।"
(४) जिनदत्तसूरि-- आचार्य जिनवल्लभसूरिके पट्टधर आचार्य जिनदत्तसूरिके संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं तत्कालीन लोक भाषाके प्रकांड पंडित हए है। 'गणधर सार्द्धशतक' इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। मेवाड़ के साथ-साथ सिन्ध, दिन्ली, गुजरात, मारवाड़ और बागड़ प्रदेशमें भी ये विचरण करते रहे। इनका स्वर्गवास वि० सं० १२११में अजमेरमें हुआ। श्वेताम्बर जैन समाजमें ये युगप्रधान, बड़े दादा साहब व दादा गुरुके रूप में प्रसिद्ध हैं। चर्चरी, उपदेश रसायन, काल स्वरूप कुलकम् इनकी अपभ्रंश-डिंगलकी रचनाएँ हैं।' 'उपदेश रसायन' में कवि गुरुकी महिमाका वर्णन करते हुए तत्कालीन डिंगल भाषाका निम्न स्वरूप मिलता है
दुलहउ मणुय-जम्मु जो पत्तउ । सह लहु करहु तुम्हि सुनि रुत्तउ । सुह गुरू दंसण विष्णु सो सहलउ । होइ न कीपइ वहलउ वहलउ ॥३॥ सु गुरु सु वुच्चइ सच्चउ भासइ । पर परिवायि-नियरु जसु नासइ ।
सव्वि जीव जिव अप्पउ रक्खइ । मुक्ख मग्गु पुच्छियउ ज अक्खइ ।।४।।" (५) सोदा बारहठ बारू जी- ये मूलतः गुजरातमें खोड़ नामक गाँवके रहने वाले थे । इनकी माताका नाम बरबड़ीजी (अन्नपूर्णा) था जो शक्तिका अवतार मानी जाती थी। महाराणा हम्मोर (वि०सं०१३७३-१४२१) द्वारा चित्तौड़ विजय (वि० सं० १४००) करने में इन्हीं बरवड़ीजी और बारूजीका विशेष हाथ था।" चित्तौड़ विजयकी खुशीमें महाराणाने इन्हें करोड़ पसाव, आंतरी गाँवका पट्टा आदि देकर अपना
१. श्री रामवल्लभ सोमानी-वीर भूमि चित्तौड़, पृ०११६ । २. श्री शान्ति लाल भारद्वाज-मेवाड़में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ०८९३ । ३. (i) खरतरगच्छ पट्टावली, पृ० १८ ।
(ii) श्री रामवल्लभ सोमानी-वीर भूमि चित्तौड़, १० ११७-१८ । ४. श्री शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़ में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ०८९३ । ५. सीताराम लालस कृत राजस्थानी सबद कोस, प्रथम खण्ड, भूमिका भाग, पृ० १०१ । ६. श्री शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़ में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ०,८९४ । ७. श्री अगरचन्द नाहटा-राजस्थानी साहित्यकी गौरवपूर्ण परम्परा, पृ० २९ । ८. वही, पृ० २९ । ९. वही, पृ० ४३ । १०. श्री राहुल सांकृत्यायन, हिन्दी काव्य धारा, पृ० ३५६-५८ । ११. मलसीसर ठाकुर श्री मूरसिंह शेखावत द्वारा सम्पादित-महाराणा यश प्रकाश, पृ० १७ ।
भाषा और साहित्य : २३१
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
पालपोत बनाया। इस अवसरपर बारूजीका बनाया हुआ गीत मिलता है। इन्हें प्रथम राष्ट्रीय कवि कहा जा सकता है। क्योंकि चित्तौड़से विदेशी शासकोंको हटाने में इन्होंने अपने गीतोंके द्वारा महाराणा हम्मीरको बहुत उत्साहित किया था। महाराणाकी मूल प्रेरक शक्ति चारिणी थी। हम्मीरके उत्तराधिकारी महाराणा क्षेत्रसिंह या खेता (वि० सं० १४२१-१४३९)के कालमें किसी समय बारूजी बून्दीके हाड़ा लाल सिंह (जिसकी कन्या महाराणा क्षेत्रसिंह)के लिये कुछ अपशब्द कहे इसपर बारूजीने पेटमें कटार मारकर आत्महत्या कर ली।
(६) मेलग मेहड़-महाराणा मोकलके शासनकाल (वि० सं० १४५४-१४९०) के मध्य किसी समय यह चारण कवि मेवाड़ में आया। महाराणा इसकी काव्य प्रतिभासे बहुत प्रसन्न हुए और उसे रायपुरके पास बाड़ी नामक गाँव प्रदान किया । कविके बहुतसे फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं ।
(७) हीरानन्दगणि-ये महाराणा कुम्भा (वि० सं० १४९०-१५२५) के समकालीन तथा पिपलगच्छाचार्य वीरसेनदेवके पट्टधर थे। महाराणा इन्हें अपना गुरु मानते थे। दरबारमें इनका बड़ा सम्मान था तथा इन्हें 'कविराजा' की उपाधि भी महाराणाने प्रदान की थी।९ देलवाड़ामें लिखे इनके 'सूपाहनाथ चरियं के अतिरिक्त कलिकालरास, विद्याविलासरास, वस्तुपालतेजपालरास, जम्बूस्वामी विवाहलउ, स्थलिभद्र बारहमासा आदि ग्रन्थ भी मिलते हैं।
(८) जिनहर्षगणि-ये आचार्य जयचन्द्रसूरिके शिष्य थे। महाराणा कुम्भाके शासनकालके समय इन्होंने चित्तौड़में चातुर्मास किया था। इसी अवसरपर वि० सं० १४९७ में इन्होंने वस्तुपाल चरित काव्यकी रचना की। इनका प्राकृत भाषाका 'रमणसेहरीकहा' नामक ग्रन्थ बड़ा प्रसिद्ध है।
(९) पीठवा मीसण-चारण पीठवा मीसण, महाराणा कुम्भाके समकालीन थे । इनके फुटकर गीत उपलब्ध होते हैं। सिवाना सिबियाणेके जैतमाल सलखावतकी प्रशंसामें इनका रचा हुआ एक गीत प्रसिद्ध है ।१२ इससे अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती।
(१०) बारूजी बोगसा-बोगसा खांपके चारण बारूजीका रचनाकाल वि० सं० १५२० के आस-पास है। ये महाराणा कुम्भाके आश्रित थे।3 इनके फुटकर गीत प्रसिद्ध हैं। एक गीतकी दो पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं
१. मलसीसर ठाकुर भूरसिंहकृत महाराणा यशप्रकाश, पृष्ठ १८-१९ ।
डॉ० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृष्ठ १३७ । ३. मलसीसर ठाकुर भूरसिंह कृत महाराणा यश प्रकाश, पृ० २०-२१ । ४. डॉ० मनोहर शर्मा-राजस्थानी साहित्य भारतकी आवाज, शोध पत्रिका, भाग-३, अंक-२ १०६ । ५. रामनारायण दूगड़ द्वारा सम्पादित मुंहणोत नैणसीकी ख्यात, प्रथम भाग, पृ०-२२ । ६. सांवलदान आशिया-कतिपय चारण कक्यिोंका परिचय, शोध पत्रिका, भाग १२, अंक-४ पृ०६१ । ७. वही पृ० ५१ । ८. रामवल्लभ सोमानी, महाराणा कुंभा, पु० २१७ । ९. वही, पृ० २१७ । १०. शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ० ८९५ । ११. रामवल्लभ सोमानी-वीर भूमि चित्तौड़, पु. ११९ । १२. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ. १४९ । १३. डॉ. मोतीलाल मेनारिया-राजस्थानी साहित्यकी रूपरेखा, १० २२२ ।
२३२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
जद घर पर जोवती दीठ नागोर धरती।
गायत्री संग्रहण देख मन मांहि डरती।' (११) खेंगार मेहडू-महाराणा कुम्भा के समकालीन मेहडू शाखाके चारण कवि खेंगारके कुछ गीत साहित्य संस्थान, उदयपुरके संग्रहालयमें विद्यमान हैं। संभवतः ये कुंभाके आश्रित थे। कुम्भाकी अजेयता एवं वीरताके वर्णनसे युक्त इनके फुटकर गीत मिलते हैं ।
(१२) टोडरमल छांधड़ा-महाराणा रायमल (वि० सं० १५३०-१५६६) के बड़े पुत्र कुंवर पृथ्वीराज 'डडना' द्वारा टोड़ाके लल्ला खाँ पठानको मारनेसे सम्बन्धित इनका एक गीत बड़ा प्रसिद्ध है। टोडरमल महाराणा रायमलके समकालीन थे । इनके गीतोंमें भावोंका अंकन बड़ा सुन्दर हुआ है।
(१३) राजशील-ये खरतर गच्छीय साधु हर्षके शिष्य थे।४ इन्होंने वि० सं० १५६३ में महाराणा रायमलके शासनकालमें 'विक्रम-खापर चरित चौपई की चित्तौड़ में रचना की।५ यह लोक कथात्मक काव्य विक्रम और खापरिया चोरकी प्रसिद्ध कथापर आधारित है। इनकी तीन रचनाएं और भी उपलब्ध होती हैं।
(१४) जमणाजी बारहठ-जमणाजीको राष्ट्रीय कविके रूपमें याद किया जाता है। ये महार संग्रामसिंहके समकालीन थे। बाबरके साथ हुए युद्धमें महाराणा सांगाको मूर्छा आनेपर राजपूत सरदार उन्हें बसवा ले आये और जब महाराणाकी मुर्छा खुली तब जमणाजीने 'सतबार जरासंघ आगल श्री रंग' नामक प्रथम पंक्ति वाला प्रसिद्ध गीत सुनाकर शत्रुके विरुद्ध पुनः तलवार उठानेके लिए महाराणाको प्रेरित किया था। इनके और भी फुटकर गीत मिलते हैं।
(१५) गजेन्द्र प्रमोद-ये तपागच्छीय हेमविमलसूरिकी शिष्य परम्परामें हुए हैं। महाराणा सांगाके समकालीन थे। चित्तौड़ गढ़ चातुर्मास कालमें तत्कालीन डिंगल भाषामें सिखी हुई 'चित्तौड़ चेत्य परिपाटी' नामक कृति मिलती है।
(१६) केसरिया चारण हरिदास-इनको कवित्व शक्ति और स्वामी भक्तिसे प्रभाबित होकर महाराणा सांगाने चित्तौड़ का राज्य ही दान कर दिया था। इसपर केसरिया चारण हरिदासने 'मोज समंद
बिल' तथा 'धन सांगा हात हमीर कलोधर' नामक प्रथम पंक्ति वाले दो गीत बनाकर महाराणा सांगाका यश ही चिरस्थायी बना दिया । इनके और भी फुटकर गीत मिलते हैं।
(१७) महपेरा देवल-इनके पूर्वज मारवाड़के धधवाड़ा ग्रामके रहने वाले थे। महपेरा धधवाड़ा छोड़कर चित्तौड़ के महाराणा संग्रामसिंह (सांगा) के पास चला आया। महाराणा इनकी काव्य प्रतिभासे
१. वही, पृ० २२२ । २. प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग ३, साहित्य संस्थान-उदयपुर प्रकाशन, पृ० २१ । ३. वही, पृ० २७। ४. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पु० २५७ । ५. शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ० ८९५ । ६. डॉ. मनोहर शर्मा-राजस्थानी साहित्यकी आवाज, शोध पत्रिका, भाग ३, अंक २, पृ० ८। ७. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १३७ । ८. मलसीसर ठाकूर भरसिंह कृत महाराणा यश प्रकाश, पृ०७०-७१ । ९. मलसीसर ठाकुर भूरसिंह कृत महाराणा यश प्रकाश, पृ० ५८-५९ ।
३०
भाषा और साहित्य : २३३
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
बहुत प्रभावित हुए और जहाजपुरके पास ढोकल्या गाँव प्रदान किया । इनके वंशज आजकल खेमपुर, धारता, व गोटियामें हैं । महपेराके फुटकर गीत मिलते हैं ।
(१८)धर्मसमुद्र गणि-थे महाराणा सांगाके समकालीन जैन साधु थे। खरतरगच्छीय जिनसागर सरिकी पट्ट परम्परामें विवेकसिंह इनके गुरु थे। इनकी कुल सात रचनाएँ-सुमित्रकुमार रास, कुलध्वज कुमार रास, अवंति सुकुमाल स्वाध्याय, रात्रि भोजन रास, प्रभाकर गुणाकर चौपई, शकुन्तला रास और सुदर्शन रास मिलती है। इन सात रचनाओंमेंसे वि० सं० १५७३ में 'प्रभाकर गुणाकर चौपई' की रचना धर्मसमुद्रने मेवाड़में विचरण करते हुए की ।
(१९) बारहठ भाणा मीसण-गौड़ोंका बारहठ चारण भाणा मीसण महाराणा रत्नसिंह (वि० सं० १४८४-८८) का समकालीन था। चित्तौड़के पास राठकोदमियेका रहनेवाला था और अपने समयका प्रसिद्ध कवि था । बून्दीके सूरजमलने इन्हें लाख पसाव, लाल लश्कर घोड़ा और मेघनाथ हस्ती दिया था। महाराणा, सूरजमलसे नाराज थे। एक समय महाराणाके सामने भाणाने सूरजमलकी तारीफ की और उसे लाख पसाव, घोड़ा व हाथी देने की बात कही, इसपर महाराणा बड़े क्रोधित हुए तथा भाणाको मेवाड़ छोड़कर चले जानेको कहा। भाणा तत्काल मेवाड़ छोड़कर बून्दी चला गया । भाणाके फुटकर गीत मिलते हैं।
(०) मीरांबाई-मीरांबाईके जन्म, परिवार व मृत्युके सम्बन्धमें विद्वान् एक मत नहीं है । अधिकांश विद्वान् इसका जीवनकाल वि० सं० १५५५ से १६०३ तक मानते हैं। यह मेहताके राठौड़ राव दूदाके चतुर्थ पुत्र रत्नसिंहकी बेटी तथा महाराज सांगाके पाटवी कुंवर भोजराजकी पत्नी थी। इसका जन्मस्थान कुड़की नामक गांव और मृत्यु स्थान द्वारका था। इसके जीवनसे सम्बन्धित अनेक कथाएँ प्रचलित हैं।
मीरांबाईके पदोंको संख्या कई हजार बतलाई जाती है। हिन्दी साहित्य सम्मेलनसे 'मीरांबाईकी पदावली' नामक पुस्तकमें २०० पदोंका तथा राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुरसे १०००से अधिक पदोंका संग्रह प्रकाशित हुआ है। डॉ. मोतीलाल मेठारिया के अनुसार मोरांबाईके पदोंको संख्या २२५-२५०से अधिक नहीं है। इसके रचे पाँच ग्रन्थ' भी बतलाए गये हैं किन्तु उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। श्री कृष्ण
१. सांवलदान आशिया-कतिपए चारण कवियोंका परिचय, शोध पत्रिका वर्ष १२ अंक ४, पृ० ३७ । २. (i) जैन गुर्जर कवियो, भाग १ पृ० ११६, भाग ३ पृ० ५४८ ।
(ii) डॉ. होरालाल माहेश्वरी, राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २५२ ३. रामनारायण दूगड़-मुहणोत नैणसीकी ख्यात, प्रथम भाग, पृ० ५१ । ४. वही, पृ० ५१-५२।। ५. डॉ. हीरालाल माहेश्वरी, राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० ३१४ । ६. ओझा : राजपूतानेका इतिहास, दूसरी जिल्द (उदयपुर राज्यका इतिहास), पृ०-६७० । ७. डॉ० मोतीलाल मेनारिया-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १४५-४६ । ८. सीताराम लालस कृत राजस्थानी सबदकोस (भूमिका) पृ० १२६ । ९. राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १४७।। १०.डॉ० हीरालाल माहेश्वरी, राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० ३२३ ।
२३४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
चन्द्र शास्त्री द्वारा मीरा कला प्रतिष्ठान, उदयपुरसे मीराबाईसे सम्बन्धित प्रामाणिक जानकारी शीघ्र ही प्रकाशित की जा रही है । मीरांकी भाषा राजस्थानी है जो डिंगलके सरल शब्दोंसे पूरी तरह प्रभावित है।
(२१) महाराणा उदयसिंह–महाराणा सांगाके पुत्र और उदयपुर नगरके संस्थापक महाराणा उदयसिंह (वि० सं० १५९४-१६२८)की साहित्यके प्रति विशेष रूचि थी। ये स्वयं डिंगलमें कविता करते थे। कवि गिरवरदानने 'शिवनाथ प्रकाश' नामक अपने प्रसिद्ध ग्रन्थमें इनके दो गीत उद्धृत किये हैं। उदाहरणके लिये एक गीतकी चार पंक्तियां निम्न हैं
कहै पतसाह पता दो कूची, धर पलटिया न कीजै धौड़।
गढ़पत कहे हमे गढ़ म्हारौ, चूंडाहरौ न दे चीतौड़ ॥ (२२) रामासांदू-ये महाराणा उदयसिंहके समकालीन थे। इन्होंने महाराणाकी प्रशंसामें 'बेलीराणा उदयसिंहरी'को वि० सं० १६२८के आस-पास रचना की। इस वेलिमें कुल १५ वेलिया छन्द हैं ।५ वेलिके अतिरिक्त फुटकर गीत भी मिलते हैं। रामासांदूके लिये ऐसा प्रसिद्ध है कि जोधपुरके शासक मोटाराजा उदयसिंह (वि० सं० १६४०-१६५१)के विरुद्ध चल रहे चारणोंके आन्दोलनको छोड़कर मुगल विरोधी संघर्षमें मेवाड़में चले आये। ये हल्दीघाटीकी लड़ाईमें महाराणा प्रतापको ओरसे मुगलोंके विरुद्ध लड़ते हुए मारे गये।
(२३) कर्मसी आसिया-इनके पूर्वज मारवाड़में थकुके समीप स्थित भगु ग्रामके रहने वाले थे । महाराणा उदयसिंहके आश्रित कर्मसीके पिताका नाम सूरा आसिया था। जालोरके स्वामी अक्षयराजने कर्मसीकी कार्य पटुतासे मोहित होकर इन्हें अपने दरबारमें नियुक्त कर दिया। जब महाराणा उदयसिंहका अक्षयराजाकी पुत्रीसे हुआ, उस समय महाराणाने कर्मसीको अक्षयराजसे मांग लिया। चारण कवि सुकविरायका कहा हआ इस घटनासे सम्बन्धित एक छप्पय प्रसिद्ध है। चित्तौड़ गढ़पर उदयसिंहका अधिकार होनेपर कर्मसीको रहने के लिये महाराणाने एक हवेली दी थी और इनकी पुत्रीके विवाहोत्सवपर स्वयं महाराणा उदयसिंह इनके मेहमान हए थे। तथा इस अवसरपर महाराणाने इन्हें पसंद गाँव (राजसमन्द तहसीलके अन्तर्गत) रहने के लिये दिया था। इस घटनाका भी एक छप्पय° प्रसिद्ध है । वर्तमानमें इनकी संतति पसुंद, कड़ियाँ, मंदार, मेंगटिया, जीतावास तथा मारवाड़ के गाँव बीजलयासमें निवास करती है। फटकर डिंगल
१. महेन्द्र भागवत द्वारा सम्पादित ब्रजराज काव्य माधुरी, डॉ० मोतीलाल मेनारियाकी भूमिका, पृ० ५ । २. डॉ. मोतीलाल मेनारिया-राजस्थानी साहित्यकी रूपरेखा, पृ० २२३ ।। ३. रामनारायण दूगड़ द्वारा सम्पादित मुहणोत नैणसीकी ख्यात, प्रथम भाग, पृ० १११ । ४. टेसीटरी-डिस्क्रप्टीव केटलॉग, सेक्सन il, पार्ट i, पेज-६ । ५. सीताराम लालस कृत राजस्थानी सबद कोस, (भूमिका) पृ० १३० । ६. डॉ० देवीलाल पालीवाल-डिंगल गीतोंमें महाराणा प्रताप, परिशिष्ट (कवि परिचय) पृ० १११,१२ । ७. गिरधर आसिया कृत सगत रासो, हस्त लिखित प्रति, छन्द सं० ७३ । ८. सांवलदान आसिया-कतिपय चारण कवियोंका परिचय, शोध पत्रिका, वर्ष १२ अंक ४ पृ० ४२-४३ ९. प्राचीन राजस्थानी गीत भाग ८ साहित्य संस्थान, उदयपुर प्रकाशन, पृ० २० । १०. वही, पृ० २० ।
भाषा और साहित्य : २३५
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
गीतोंके अलावा नाडोलके सूजा बालेछा (सामंत सिंह चौहानका पुत्र)के शौर्यकी प्रशंसामें ६१ छप्पयका एक लघुकाव्य भी इनका मिलता है। इसी प्रकार सीरोहीके राव रायसिंह (वि० सं० १५९०-१६००)के सम्बन्धमें इनके रचे गये फुटकर गीत मिलते हैं ।
(२४) सुकविराय-ये संभवतः महाराणा सांगा, विक्रमादित्य और उदयसिंह के समकालीन कवि थे । इनके अबतक ३१ छप्पय प्रकाशमें आये हैं। जिनमें किया गया वर्णन उपरोक्त तीनों महाराणाओंका समसामयिक लगता है । भाषापर इनके अधिकारको देखते हुए अनुसंधान करनेपर और भी इनकी उपलब्ध हो सकती हैं ।
(२५) महाराणा प्रतापसिंह-वीर शिरोमणि माहराणा प्रताप (वि०सं० १६२८-१६५३) डिंगलमें कविता करते थे। बीकानेरके पृथ्वीराज राठौड़ तथा इनके बीच डिंगलके दोहोंमें जो पत्र व्यवहार हुआ था, वह प्रसिद्ध है। इसके अलावा प्रतापने अपने प्रिय घोड़े चेटककी स्मृतिमें १०० छप्पयोंका एक शोकगीत (Elegy) भी बनाया था। इसकी हस्तलिखित प्रति सोन्याणा (जिला-उदयपुर) निवासी तथा 'प्रताप चरित्र' महाकाव्यके रचयिता केसरीसिंहजी बारहठने राजनगर कस्बेके किसी मालीके पास देखी थी।
(२६) गोरधन बोगसा-ये महाराणा प्रतापके समकालीन और डींगरोलवालोंके पुरखे थे।' इनका रचनाकाल वि० सं० १६३३के आसपास माना जाता है। हल्दीघाटीके युद्ध (वि० सं० १६३३)में ये प्रतापके साथ लड़े थे ।१० युद्धका आँखों देखा वर्णन इन्होंने फुटकर गीतोंमें किया है। गीत वीररससे परिपूर्ण हैं ।११
(२७) सरायच टापरिया-टापरिया शाखाके चारण१२ सरायच भी प्रतापके समकालीन थे। १३ दिल्लीमें पृथ्वीराज राठौड़से इनकी एक बार भेंट हुई थी। पृथ्वीराजने इनकी खूब आवभगत की और बादशाह अकबरसे भी मिलाया। अकबर इनकी कवित्व शक्तिसे बहुत प्रभावित हुआ। सूरायच वीरताका उपासक और राष्ट्रभक्त कवि था। इसके दोहों व सोरठोंकी भाषा ओजपूर्ण व शब्द चयन विषयानुकूल है।४ १. वही, पृ० ५८से ९४ । २. (i) रामनारायण दूगड़ द्वारा सम्पादित मुहणोत नैणसीकी ख्यात, भाग १ पृ० १४३ ।
(ii) डॉ० होरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० ३५३ । ३. प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग ८, पृ० १से २५ । ४. डॉ० महेन्द्र भानावत द्वारा सम्पादित ब्रजराज काव्य माधुरी, डॉ० मोतीलाल मेनारियाकी भूमिका
पृ०-७। ५. ओझा-राजपूतानेका इतिहास (उदयपुर राज्यका इतिहास) दूसरी जिल्द, पृ० ७६३-६५ । ६. डॉ० भानावत द्वारा सम्पादित ब्रजराज काव्य माधुरी, डॉ० मोतीलाल मेनारियाकी भूमिका, पृ० ७ । ७. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १३८ । ८. प्राचीन राजस्थानी गीत (साहित्य संस्थान प्रकाशन) भाग ३, पृ० ४३ । ९. सीताराम लालस कृत राजस्थानी सबदकोसकी भूमिका, पृ० १३२ । १०. वही, पृ० १३२ । ११. वही, पृ० १३२। १२. वही, पृ० १३२ । १३. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० १३८ । १४. सीताराम लालसकृत राजस्थानी सबदकोसकी भूमिका, पु० १३२ ।
२३६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
|
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२८) जाड़ा मेहडू-इनका वास्तविक नाम आसकरण था किन्तु शरीर मोटा होनेके कारण लोग इन्हें 'जाड़ाजी' कहते थे। एक जनश्रुतिके अनुसार मेवाड़के सामन्तोंने जब गोगुन्दामें जगमालको गद्दीसे उतारकर प्रतापको सिंहासनासीन किया उस समय जगमालने जाड़ाजीको अकबरके पास दिल्ली भेजा था। जाड़ाजी रास्तेमें अजमेर रुके और अकबरके दरबारी कवि व प्रसिद्ध सेनापति अब्दुल रहीम खानखानाको अपनी कवित्व शक्तिसे प्रभावित किया। इस सम्बन्धमें इनके चार दोहे मिलते हैं ।२ रहीमके माध्यमसे यह अकबरके पास पहुँचा और जगमाल के लिए जहाजपुरका परगना प्राप्त किया। इसपर जगमालने प्रसन्न होकर इन्हें सिरस्या नामक गाँव प्रदान किया । मेवाड़ में मेहडूओंकी शाखा इन्हीं के नामसे प्रचलित है, जिसे जाड़ावतकहते हैं । जाड़ाजीका जीवनकाल वि० सं० १५५५ से १६६२ तक माना जाता है। इनकी फुटकर गीतों के अलावा पंचायणके पौत्र और मालदेव परमारके पुत्र शार्दूल बरमारके पराक्रमसे सम्बन्धित ११२ छन्दोंकी एक लम्बी र नना भी मिलती है । प्रतापसे सम्बन्धित गीत भी मिलते हैं।
ये पूणिमागच्छके वाचक पद्मराजगणिके शिष्य थे। इनका समय अनुमानतः वि० सं० १६१६-१६७३ है । मेवाड़-मारवाड़ सीमापर स्थित सादड़ी नगरमें वि० सं० १६४५ में ये चातुर्मास करनेके निमित्त आये थे। उस समय यहाँ भामाशाहका भाई और महाराणा प्रतापका विश्वासपात्र व हल्दीघाटी युद्धका अग्रणी योद्धा ताराचन्द राज्याधिकारीके रूप में नियुक्त था। ताराचन्दके कहनेसे हेमरतनने 'गोरा बादल पदमिणी च उपई' बनाकर मगसिर शुक्ला १५ वि. सं. १६४६ में पूर्ण की। इसकी अनेक हस्तलिखित प्रतियाँ मिलती हैं। श्वेताम्बर जैनोंमें इस कृतिका सर्वाधिक प्रचार है। रचनामें अल्लाउद्दीनसे युद्ध, गोरा बादलकी वीरता एवं पद्मिनीके शीलका वर्णन है। हेमरत्नकी कुल ९ रचनाओं के अलावा एक दसवीं रचना 'गणपति छन्द'१० और मिली है।
(३०) नरेन्द्रकीति-जैन मतावलम्बी नरेन्द्र कीतिने जावरपुर (वर्तमान जावरमाइन्स-उदयपुर जिला) में वि० सं० १६५२ में 'अंजना रास'की रचना की । इस पौराणिक काव्यमें रामभक्त हनुमानकी माता अंजनाके चरित्रका वर्णन है । रचना जैन धर्मसे प्रभावित है।
(३१) महाराणा अमरसिह-महाराणा प्रतापके उत्तराधिकारी महाराणा अमरसिंह (वि० सं० १६५३-१६७६) अपने पिताकी तरह स्वाभिमानी और स्वतंत्रता प्रिय व्यक्ति थे। कविके साथ-साथ ये कवियों एवं विद्वानोंके आश्रयदाता भी थे। ब्राह्मण बालाचार्यके पुत्र धन्वन्तरिने इनकी आज्ञासे 'अमरविनोद'
१. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य प० ३५३ । २. मायाशंकर याज्ञिक द्वारा सम्पादित रहीम रत्नावली, पृ० ६६-७६ । ३. सांवलदान आसिया-कतिपय चारण कवियोंका परिचय, शोधपत्रिका, भाग १२ अंक ४, पृ० ३९ । ४. वही, पृ० ३९। ५. प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग ३, पृ० ३६ (साहित्य संस्थान प्रकाशन)। ६. प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग ११, पृ० १ से ४२ (साहित्य संस्थान प्रकाशन)। ७. जैन गुर्जर कवियो, तृतीय भाग, पृ० ६८०।। ८. मुनि जिनविजयजी द्वारा सम्पादित गोरा बादल पदमिणी चउपई, पृ०७ । ९. डॉ. पुरुषोत्तमलाल मेनारिया--राजस्थानी साहित्यका इतिहास, पृ० १०९ । १०. 'गणपति छन्द'की हस्तलिखित प्रति डॉ० ब्रजमोहन जावलिया, उदयपुरके निजी संग्रहमें है।
भाषा और साहित्य : २३७
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
नामक मेवाड़ी भाषाका ग्रन्थ बनाया था। इसमें हाथियों सम्बन्धित अनेक तरहकी जानकारी दी गई है। अकबरका दरबारी कवि अब्दुर्रहीम खानखाना महाराणाका मित्र था। खानखानाको भेजे हए इनके दोहे मिलते हैं ।
(३२) मानचन्द्र-ये आचार्य जिनराजसूरिके शिष्य थे। इन्होंने वि० सं० १६७५ में 'बच्छराज हंसराज रास'की रचना की। इस रचनामें बच्छराज और हंसराज नामक दो भाई कथाके प्रमुख पात्र हैं। मानचन्दको मानमुनिके नामसे भी जाना जाता है । ये महाराणा अमरसिंह तथा महाराणा कर्णसिंह (वि० सं० १६७६-१६८४) के समकालीन थे।
(३३) गोविन्द-महाराणा जगतसिंह (वि० सं० १६८४-१७०९)के समकालीन रोहड़िया शाखाके चारण गोविन्दजीका रचनाकाल वि० सं० १७०० के आस-पास माना जाता है। इनके बहुतसे फुटकर गीत प्रकाशमें आये हैं । जगतसिंहकी प्रशंसामें रचे गये गीत प्रसिद्ध हैं। भाषाका लालित्य और शब्द चयन सुन्दर है।
(३४) कल्याणदास-ये मेवाड़ के सामेला गांवके रहनेवाले थे। इनके पिता लाखणोत शाखाके भाट बाघजी थे। इन्होंने वि० सं० १७०० में महाराणा जगत सिंहके शासनकालमें 'गुण गोविन्द' नामक ग्रन्थ की रचना की। ग्रन्थमें कुल १९७ छन्द हैं, जिसमें भगवान राम और कृष्णकी विविध लीलाओंका भक्तिपूर्ण वर्णन है । साहित्यिक सौन्दर्यकी दृष्टिसे ग्रन्थ श्रेष्ठ हैं।
(३५) लब्धोदय-ये महामहोपाध्याय ज्ञानराजके शिष्य थे। दीक्षासे पूर्व इनका नाम लालचन्द था। वि० सं० १६८० के लगभग इनका जन्म माना जाता है। खरतरगच्छाचार्य श्री जिनरंगसूरिकी आज्ञासे ये उदयपुर में आये । इसके बाद इनका बिहार मेवाड़में ही अधिक हुआ। इसका प्रमाण उदयपुर, गोगुन्दा, तथा धुलेवा (ऋषभदेव)में रचित इनकी कृतियाँ हैं। इनकी सर्वप्रथम रचना 'पद्मिनी चरित चउपई' मेवाड़ के महाराणा जगतसिंहकी माता जंबूमतीके मंत्री खरतरगच्छीय कटारिया केसरीमलके पुत्र हंसराज और भागचंदकी प्रेरणासे लिखी गई उपलब्ध होती है। यह रचना चैत्र पूर्णिमा वि० सं० १७०७ में सम्पूर्ण हुई । इसमें ४९ ढाल तथा ८१६ गाथाएँ हैं। भागचन्दकी ही प्रेरणासे इन्होंने उदयपुरमें वि० सं० १७३९ की बसंत पञ्चमीको 'रत्नचूड़ मणिचूड़ चउपई की रचना की। इसमें ३८ ढाले हैं । भागचन्दकी सन्ततिका इसमें पूरा परिचय दिया गया है। इस रचनासे पूर्व कविने तीन और भी रचनाएँ की थीं, जिनके नाम गाँव गोगुन्दामें रचित 'मलयसुन्दरी चउपई में मिलते हैं । 'मलयसुन्दरी चउपई की रचना वि० सं० १७४३ में धनतेरसके दिन गोगुन्दामें की थी। 'गुणावली चउपई की रचना भागचन्दकी पत्नी भावलदेके लिए केवल १२ दिनमें (अर्थात् वि० सं० १७४५ को फाल्गुन कृष्णा १३ से फाल्गुन शुक्ला १० तक) रचकर
१. डॉ. महेन्द्र भानावत द्वारा सम्पादित ब्रजराज काव्यमाधुरी, डॉ. मोतीलाल मेनारियाकी
भूमिका, पृ० ८। २. वही, १०८। ३. शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ०८९६ । ४. सीताराम लालसकृत राजस्थानी सबदकोस, भूमिका, पृ० १५०।
राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, शा० का. उदयपुर, हस्तलिखित ग्रन्थ सं० ५९१ । ६. भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्पादित 'पद्मिनी चरित्र चौपई, पु० २९ ।
२३८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
समाप्त की। 'धुलेबा ऋषभदेव स्तवन' (वि० सं० १७१०) तथा ऋषभदेव स्तवन (वि० सं० १७३१) नामक दो रचनाएँ जैनियोंके प्रसिद्ध तीर्थ ऋषभदेव या केसरियाजी (जिला-उदयपुर से सम्बन्धित हैं। डॉ. ब्रजमोहन जाबलियाके संग्रहमें चैत्र पूर्णिमा छन्द, शनिचर छन्द और 'करेड़ा पार्श्वनाथ स्तवन' नामक तीन रचनाएं और उपलब्ध होती हैं । कविका स्वर्गवास वि० सं० १७५१के आसपास माना जाता है।
(३६) राव जोगीदास-ये महाराणा जगतसिंह (वि० सं० १६८४-१७०९)के समकालीन गाँव कुंवारियाके रहनेवाले थे । इनके फुटकर गीत मिलते हैं । 'दाखे इम राण जगो देसोतां, कैलपुरो जाणियां कल' नामक पंक्ति वाले गीतमें इन्होंने महाराणा जगतसिंहके समान-उदार व दानी होनेके लिये अन्य राजाओंको उपदेश दिया है।'
(३७) धर्मसिंह-जैन मतावलम्बी मु नि धर्मसिंहकी एक रचना 'शिवजी आचार्य रास' प्राप्त हुई है। इसका रचनाकाल वि० सं० १६९७ और रचना स्थान उदयपुर है। इस समय महाराणा जगतसिंह शासन कर रहे थे। इस रासमें श्वेताम्बर अमूर्ति पूजक आचार्य शिवजीका वर्णन है। लोंकागच्छीय साधुओंमें इस कृतिका ऐतिहासिक महत्त्व है।
(३८) भुवनकीति-ये खरतगच्छीय जिनसूरिके आज्ञानुवर्ती थे। इन्होंने वि० सं० १७०६में उदयपुर नगरमें 'अंजना सुदरी रास'की रचना बीकानेरके मंत्री श्री कर्मचन्दके वंशज भागचन्दके लिये की। उन दिनों मेवाड़ में जगतसिंहका राज्य था । इनकी 'गजसुकमाल चउपई' तथा 'जम्बूस्वामी रास' नामक रचनाएं भी मिलती है।
(३९) महाराणा राजसिंह-महाराणा जगतसिंहके उत्तराधिकारी महाराणा राजसिंह (वि० सं०१७०९-१७३७) स्वयं कवि और कवियोंके आश्रयदाताके रूप में प्रसिद्ध हैं । इनके शासन कालमें संस्कृत, डिंगल व पिंगल ग्रन्थ तथा अनेक फुटकर गीत लिखे गये। राजविलास, राजप्रकास, संगत रासो आदि इनके राज्य कालके प्रमुख डिंगल काव्य ग्रन्थ हैं। डॉ. मोतीलाल मेनारियाने इनका बनाया हुआ 'कहाँ राम कहाँ लखण, नाम रहिया रामायण' नामक छप्पय ब्रजराज काव्य माधुरीकी भूमिकामें उद्धृत किया है।
(४०) किशोरदास-ये महाराणा राजसिंहके आश्रित गोगुन्दा जाने वाले मार्गपर स्थित चीकलवास गांवके रहने वाले सिसोदिया शाखाके दसौंदी राव थे। इनके पिताका नाम दासोजी था। दासोजीके दो पुत्र श्यामलजी और किशोरदास थे। किशोरदासके कोई संतान नहीं थी। श्यामलजीके वंशधर अब भी चीकलवासमें रहते हैं। किशोरदासका लिखा 'राजप्रकास' १३२ छन्दोंका उत्कृष्ट ऐतिहासिक डिंगल काव्य है। इसमें महाराणा राजसिंहके राज्यारोहणके उपरांत वि०सं० १७१४में 'टीका-दौड़ की रस्म पूरी करनेके लिये महाराणा द्वारा मालपराकी लट तथा उनके गुण गानका वर्णन है।
१. प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग-३ (साहित्य संस्थान प्रकाशन) पृ० ५२ । २. शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़में रचित जैन साहित्य, हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ० ८९६ । ३. शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, प.० ८९७ । ४. ब्रजराज काव्य माधुरी (संपादक-महेन्द्र भानावत) प०८।
वरदा (त्रैमासिक) वर्ष ५ अंक ३में प्रकाशित श्री बिहारीलाल व्यास 'मनोज'का लेख-किशोरदासका
परिचय ६. डॉ. मोतीलाल मेनारिया, राजस्थानी भाषा और साहित्य, प० २१२ । ७. वरदा (त्रैमासिक) वर्ष ५ अंक २ १०१८-२६ श्री बिहारीलाल व्यास 'मनोज'का लेख ऐतिहासिक
काव्य-राज प्रकास
भाषा और साहित्य : २३९
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४१) गिरधर आसिया-ये आसिया शाखाके चारण थे। इनका रचना काल वि० सं० १७२०के लगभग है। लगभग पांच सौ छन्दोंका एक उत्कृष्ट डिंगल भाषाका ग्रन्थ 'सगतसिंघ रासो' इनका बनाया हुआ मिला है। जिसकी प्रति इनके वंशज मेंगटिया निवासी ईश्वरदान आसियाके पास दोहा, भुजंगी,
आदिसे युक्त इस ऐतिहासिक काव्यमें महाराणा प्रतापके कनिष्ठ भाई शक्तिसिंहका चरित्र वर्णन हैं। इनकी मुलाकात मुहणोत नैणसीसे भी हुई थी।
(४२) जती मानसिंह-कविराजा बांकीदासके अनुसार ये मानजो जती (यति) थे। इनका सम्बन्ध श्वेताम्बर विजयगच्छसे था। इन्होंने महाराणा राजसिंहके जीवन चरित्रसे सम्बन्धित 'राजविलास' नामक प्रसिद्ध ऐतिहासिक काव्य बनाया। इसकी भाषा डिंगलसे पूरी तरह प्रभावित है।४ कुल अठ्ठारह विलासोंमें समाप्त इस ग्रन्थमें महाराणा राजसिंहके जीवनसे सम्बन्धित अधिकांश घटनाओंका इसमें सजीव वर्णन है । इसका रचना काल वि० सं० १७३४-३७ है ।५ जती मानसिंहकी उदयपुरमें रचित 'संयोग बत्तीसी' नामक रचना भी मिली है। इसे मान मंजरी संयोग द्वात्रिंशिका, संयोग बत्तीसी मान बत्तीसी भी कहते हैं। बिहारी सतसईकी भी इन्होंने टीका की थी।
(४३) साईदान-ये झाड़ोली गाँवके निवासी सोलगा खाँपके चारण मेहाजालके पुत्र थे। इनका रचना काल महाराणा राजसिंहका शासन काल है । लगभग २७७ पद्योंकी एक अपूर्ण रचना 'संमतसार' इनके नामसे प्राप्त हुई है। यह वृष्टि विज्ञापनका ग्रन्थ है, जिसमें दोहा, छप्पय, पद्धति आदि छन्दोंका प्रयोग हमा है । ग्रन्थ शिव-पार्वती संवादके रूपमें है।
(४४) पीरा आसिया-महाराणा राजसिंहके समकालीन ये आसिया शाखाके चारण थे। इनका रचना काल वि० सं० १७१५के आसपास माना जाता है। इनकी फुटकर गीतोंके अलावा कोई बड़ी रचना अभी तक प्राप्त नहीं हई है। फुटकर गीतोंमें 'खटके खित वेध सदा खेहड़तो' नामक प्रथम पंक्ति वाला गीत जिसमें अकबरकी दृष्टि में प्रताप व अन्य हिन्दू नरेश कैसे हैं का वर्णन किया गया है।'
(४५) माना आसिया-महाराणा जयसिंह (वि० सं० १७३७-१७५५)के समकालीन मानाजी आसिया मदारवालोंके पूर्वज थे । इनके फुटकर गीत प्रसिद्ध हैं। औरंगजेबने हिन्दुओंको मुसलमान बनानेके उद्देश्यसे जब आक्रमण किया था, उस समय खुमाण वंशी जयसिंहने हिन्दूधर्मकी रक्षा की थी। इस सम्बन्धका इनका गीत बड़ा प्रसिद्ध है।
१. डॉ० मोतीलाल मेनारिया, राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ.० २१३ । २. रामनारायण दूगड़ द्वारा सम्पादित मुहणोत नैणसीकी ख्यात, प्रथम भाग प.० ५४ । ३. नरोत्तम दास स्वामी द्वारा सम्पादित बांकीदासकी ख्यात, १० ९७ ४. डॉ० गोवर्धन शर्मा--प्राकृत और अपभ्रंशका डिंगल साहित्यपर प्रभाव, पृ० १९१-९२ ।
मोतीलाल मेनारिया व विश्वनाथ प्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित, राज विलास, भूमिका भाग, पृ०६ ।
शान्तिलाल भारद्वाज-मेवाड़में रचित जैन साहित्य, मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, ग्रन्थ पृ०८९७ । ७. वही, पृ०८९७। ८. डॉ. मोतीलाल मेनारिया-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पु० २०९ । ९. डॉ. देवीलाल पालीवाल द्वारा सम्पादित डिंगल काव्यमें महाराणा प्रताप, पृ० ११४ । १०. प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग ३ (साहित्य संस्थान प्रकाशन) पृ० ६९-७० ।
२४० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४६) उदयराज-डॉ. मोतीलाल मेनारियाने इन्हें मेवाड़ प्रदेशका जैन यति बतलाया है। इनका रचनाकाल महाराणा जयसिंहका शासन काल है। डॉ० मेनारियाने इनका एक छप्पय अपनी पुस्तक में उद्धृत किया है।
(४७) राव दयालदास-ये राशमी (चित्तौड़गढ़) के पास गलन्ड परगनेके रहनेवाले थे। फूलेऱ्या मालियोंके यहाँ पर इनकी यजमानी थी। इनका बनाया हुआ 'राणा रासो' नामक ग्रन्थ साहित्य संस्थानके संग्रहालय में उपलब्ध है। इसमें मेवाड़के आदिकालसे लेकर महाराणा कर्णसिंह (वि० सं० १६७६-१६८४) के राज्याभिषेक तकके शासकोंका वर्णन है। कर्णसिंहके बाद महाराणा जगतसिंह, राजसिंह और जयसिंहका भी इसमें नामोल्लेख है किन्तु इनका वर्णन नहीं किया गया है। इस कारण इसका रचनाकाल संदिग्ध है। ग्रन्थमें कुल ९११ छन्द हैं । साहित्य संस्थान द्वारा इसका सम्पादन किया जा रहा है।
(४८) दौलतविजय-खुमाण रासोके रचयिता दौलतविजय तपागच्छीय जनसाधु शान्तिविजयके शिष्य थे । दीक्षासे पूर्व इनका नाम दलपत था। अद्यावधि 'खुमाण रासो' की एक ही प्रति मिली है जो भंडारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूनाके संग्रहालयमें सुरक्षित है। इसमें खुमाण उपाधिसे विभूषित मेवाड़के महाराणाओंका वर्णन बापा रावल (वि० सं० ७९१) से लेकर महाराणा राजसिंह तक दोहा, सोरठा, कवित्त आदि छन्दोंमें हआ है। डॉ० कृष्णचन्द्र श्रोत्रियने इसका सम्पादन किया है। इसका रचनाकाल वि० सं० १७६७से १७९०के मध्य किसी समय है।
(४९) बारहठ चतुर्भुज सौदा-ये महाराणा अमरसिंह द्वितीय (१७५५-१७६७)के समकालीन व आश्रित चारण कवि थे। महाराणाने इन्हें बारहठकी उपाधिसे विभूषित किया था, इस सम्बन्धका इनका ही बनाया हुआ एक गीत मिलता है। अन्य फुटकर गीत भी साहित्य संस्थान संग्रहालयमें हैं।
(५०) यति खेता-महाराणा अमरसिंह द्वितीयके राज्यकालमें इन्होंने उदयपुर में रहते हुए 'उदयपुर गजल' की रचना की। इसमें उदयपुर नगर व बाहरके दर्शनीय स्थानोंका सरस वर्णन है। ये खरतरगच्छीय दयावल्लभके शिष्य थे। 'चित्तौड़ गजल'६ नामसे एक और रचना भी मिलती है।
(५१) करणीदान-कविया शाखाके चारण करणीदान शूलवाड़ा गांव (मेवाड़) के रहनेवाले थे। गरीबीसे तंग आकर ये शाहपुराके शासक उम्मेदसिंह (वि० सं० १७८६-१८२५) के पास आये और अपनी कवितासे उन्हें खश किया. इस पर उम्मेदसिंहने इनके घरपर आठ सौ रुपये भेजे। यहाँसे करणीदा शासक शिवसिंह (वि० सं० १७८७-१८४२) के पास गये। वहाँ शिवसिंहने इनकी कवित्व शक्तिसे प्रभावित हो लाख पसाव दिया। इसके बाद ये महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (वि० सं० १७६७-१७९०) के आश्रयमें चले आये। महाराणाने इन्हें लाख पसाव देकर सम्मानित किया तथा इनकी माताजीको मथुरा, वृन्दावन
१. डॉ. मोतीलाल मेनारिया-राजस्थानी साहित्यकी रूपरेखा, पृ० २२९ । २. वही, पृ० २२९ । ३. हस्तलिखित प्रति सं० ८४ । ४. (i) नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ४४ अंक ४, अगरचन्द नाहटाका लेख ।
(ii) भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्पादित पद्मिनी चरित्र चौपई, पृष्ठ ४१ ।। ५. प्राचीन राजस्थानी गीत, भाग-३ (साहित्य संस्थान, प्रकाशन), पृष्ठ ७३-७४ । ६. यह गजल डॉ. ब्रजमोहन जावलिया, उदयपुरके निजी संग्रहमें हैं।
भाषा और साहित्य : २४१
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
आदि तीर्थोकी यात्रा कराई। किन्तु अन्तमें ये जोधपुरके महाराजा अभयसिंहके पास चले गये। और अपने अन्तिम समय तक वहीं रहे। इनकी पाँच रचनाएँ-सूरजप्रकाश, विड़द सिणगार, अभयभूषण, जतीरास, ठाकुर लालसिंह यश तथा कई फुटकर गीत मिलते हैं। 3 मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह द्वितीयकी प्रशंसामें बनाया हुआ इनका एक गीत 'ग्रहाँ हेक राजा सिधा हेक राजा अंगज' प्रसिद्ध है।४
(५२) पताजी आसिया-ये आसिया शाखाके चारण महाराणा संग्राम सिंह द्वितीयके समकालीन थे। इनके फुटकर गीत साहित्य संस्थान संग्रहालयमें हैं। एक 'सुरतांण गुण वर्णन' नामक ऐतिहासिक काव्य ग्रन्थ भी मिला है, जिसका रचनाकाल वि० सं० १७७२ है। इस ग्रन्थमें बेदला ठीकानेके पूर्वज सुरताणसिंहके चरित्रका वर्णन है।
(५३) जीवाजी भादा-ये संभवतः महाराणा अरिसिंह (वि० सं० १८१७-१८२९) के समकालीन कवि थे।५ इनके फुटकर गीत मिलते हैं। जिनमें महाराणा अरिसिंहका यश वर्णन है।।
(५४) जसवंतसागर-ये तपागच्छीय जैनाचार्य जससागरके शिष्य थे। इनकी 'उदयपुरको छन्द' नामक एक रचना उपलब्ध हुई है । इसका रचनाकाल वि० सं० १७७५-९०के आसपास है। इसमें उदयपुर नगरकी विस्तृत जानकारी दी गई है।
(५५) कुसलेस-जाटोंका याचक (ढोली) कुसलेस अंटाली (आसिंद-भीलवाड़ा) का रहनेवाला था। यह महाराणा अमरसिंह द्वितीय व संग्रामसिंह द्वितीयका समकालीन था। इसका एक लम्बा गीत 'बत्तीस खान वर्णन मिला है, जिसमें ढाल, तलवार, किला, घी, आदिकी उत्पत्ति व प्रसिद्ध स्थानका वर्णन है।
(५६) नाथ कवि-यह कुसलेसका पुत्र था। अपने पिताके समान यह भी प्रसिद्ध कवि था। महाराणा अरिसिंहके शासनकालमें वि० सं० १८२० में 'देव चरित' नामक एक काव्य ग्रन्थकी रचना की । इसमें बगड़ावतों तथा देवनारायणके कृत्योंकी कथा है। डॉ० ब्रजमोहन जावलियाने हाल ही में इसका सम्पादन किया है। इसकी हस्तलिखित प्रति भी डॉ० जावलियाके निजी संग्रहमें है ।
(५७, सूग्यानसागर-ये तपागच्छीय श्यामसागरके शिष्य थे। महाराणा हम्मीरसिंह द्वितीय (वि० सं० १८२९-१८३३) के शासनकालमें उदयपुर चातुर्मासके अवसरपर यहाँके सेठ कपूरके आग्रहपर उसके पुत्रोंके स्वाध्यायके लिए वि० सं० १८३२को मृगसिर शुक्ला-१२ रविवारको इन्होंने ढालमंजरी अथवा राम रासकी रचना की।
(५८) किशना आढ़ा-प्रसिद्ध कवि दुरसा आढाके वंशज किशना आढ़ा महाराणा भीमसिंह (वि० सं० १८३४-८५) के आश्रित कवि थे। इनके पिताका नाम दुल्हजी था, जिनके किशनाजी समेत
१. वीर विनोद, भाग-२ पृष्ठ ९६५-६६ । २. वही पृष्ठ ९६६-६७ । ३. डॉ० जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव-डिंगल साहित्य, पृष्ठ ३७ । ४. मलसीसर ठाकुर भूरसिंह शेखावत द्वारा सम्पादित महाराणा यश प्रकाश, पृष्ठ १७९-८०। ५. डॉ. जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव-डिंगल साहित्य. पष्ठ ३८ । ६. ठा० भूरसिंह शेखावत-महाराणा यशप्रकाश पृष्ठ १८८। ७. मुनि कान्तिसागर, जसवन्तसागर कृत उदयपुर वर्णन, मधुमती, वर्ष ३, अंक ३ । ८. इसकी हस्तलिखित प्रति डॉ० ब्रजमोहन जावलियाके निजी संग्रहमें है।
२४२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
छ: पुत्र थे। किशनाजी उनमेंसे तीसरे थे। रघुबरजस प्रकाश नामक इनके प्रसिद्ध ग्रन्थमें इन्होंने अपने वंशका परिचय दिया है। इनका प्रथम ग्रन्थ 'भीमविलास' है, जिसे कविने महाराणाकी आज्ञासे वि० सं० १८७९ में लिखा ।२ इसमें महाराणा भीमसिंहका चरित्र तथा उनके शासन प्रबन्धका वर्णन है। दूसरा ग्रन्थ 'रघुबरजसप्रकास' है। रीति साहित्यके इस प्रसिद्ध ग्रन्थमें संस्कृत व डिंगल भाषाके प्रमुख छन्दोंके लक्षण भगवान् रामके यशोगानके साथ समझाये हैं। यह ग्रन्थ वि० सं० १८८१ में सम्पूर्ण हुआ। किशनाजीने तत्कालीन इतिहासज्ञ कर्नल टॉडको ऐतिहासिक सामग्री संगृहीत करने में बड़ी मदद की थी।
(५९) ऋषि रायचन्द्र-ये जैनश्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदायके तीसरे आचार्य तथा महाराणा भीमसिंह (वि० सं० १८३४-८५) व महाराणा जवानसिंह (वि० सं० १८८५-१८९५) के समकालीन थे। इनका जन्म चैत्र कृष्ण १२ वि० सं० १८४७ में तथा स्वर्गवास माघ कृष्ण १४ वि० सं० १९०८ में हुआ। गोगुन्दासे तीन मील दूर बड़ी रावल्या इनका जन्म स्थान था। पिताका नाम चतुरोजी व माताका नाम कुशलांजी था। इनका लिखा हुआ अधिकांश साहित्य तेरापंथी सम्प्रदायके वर्तमान आचार्य व उनके आज्ञानुवर्ती साधुओंके पास है जो अभी तक अप्रकाशित है।४
(६०) दोन दरवेश-लोहार जातिके दीनजी एकलिंगजी (कैलाशपुरी) के रहने वाले थे। इनके गुरुका नाम बालजी था जो गिरनारके रहनेवाले थे।५ इनका रचनाकाल वि० सं० १८५२ के आसपास है तथा इनकी बनाई हुई कक्का बत्तीसी, चेतावण, दीन प्रकाश, नीसांणी, भरमतोड़ तथा राजचेतावण नामक रचनाएँ उपलब्ध होती हैं।६ समस्त रचनाओंका उद्देश्य ज्ञानोपदेश है। महाराणा भीमसिंह इनका बहुत आदर करते थे और जब तक महाराणा जीवित रहे ये मेवाड़ में ही रहे। महाराणाके स्वर्गवासके बाद ये कोटा चले गये, जहाँ चम्बल नदी में स्नान करते समय बि० सं० १८९० के आस-पास देहान्त हो गया। इनकी रचनाओंमें इनका नाम दीन दरवेश मिलता है।
(६१) ऋषि चौथमल-इन्होंने वि० सं० १८६४ में कार्तिक शुक्ला १३ को देवगढ़ में रहते हुए 'ऋषिदत्ता चौपई की रचना की। इस चौपईमें कुल ५८ ढाले हैं। इस उपदेशात्मक रचना में नारोके आदर्श चरित्रको चित्रित किया गया है।
(६२) कवि रोड़--जैन मतावलम्बी कवि रोड़ चित्तौड़ जिले में स्थित सावा गाँवके रहने वाले थे । इनके तिता मलधार गोत्रके गिरिसिंह (डूंगरसिंह) थे। इनका लिखा हुआ 'रीषबदेव छन्द'' नामक काव्य मिलता है। इस काव्यमें महाराणा भीमसिंहके कालमें मराठों द्वारा ऋषभदेव (केशरियाजी) के मन्दिरको
१. सीताराम लालस द्वारा सम्पादित रघुबरजस प्रकास, पृ० ३४० । २. डॉ. मोतीलाल मेनारिया-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २७७ । ३. डॉ० जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव-डिंगल साहित्य, पृ० ४१ । ४. इनका कुछ फटकर काव्य लेखकके निजी संग्रहमें है। ५. डॉ. मोतीलाल मेनारिया-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २७८ । ६. राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, शा० का० उदयपुर, ग्रन्थ सं० १९६, २०८, २१६, २२२,
२४०, २५२। ७. डॉ० ब्रजमोहन जावलिया-कवि रोड़ कृत रीषबदेवजों रो छन्द, शोध पत्रिका वर्ष १४ अंक १। ८. यह प्रति डॉ० ब्रजमोहन जावलिया उदयपुरके निजी संग्रहमें है।
भाषा और साहित्य : २४३
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________ लूटनेका प्रयास, उनकी असफलता तथा मन्दिरके रक्षकोंकी वीरताका वर्णन है। इस घटनाके समय कवि स्वयं वहाँ मौजूद था। इस काव्यका रचनाकाल वि० सं० 1863 की आश्विन कृष्णा 1 बृहस्पतिवार है। उपसंहार-मेवाड़ प्रदेशमें उपरोक्त प्रमुख कवियोंके अतिरिक्त प्राचीनकालमें अनेक कवि और भी हुए हैं, जिनका परिचय लेखके विस्तार भयसे यहाँ नहीं दिया जा रहा है। अन्य लेख में शीघ्र ही देनेका प्रयत्न करूंगा। इनके बनाये हुए अनेक फुटकर गीत और अन्य रचनाएँ तत्र-तत्र बिखरी हुई मिलती हैं, जिनपर व्यापक अनुसंधानकी आवश्यकता है। इस प्रकारके कतिपय कवि निम्नलिखित है चारण डूला, कालु देवल, आसियामाला, बाघजीराव, ठाकुरसी बारहठ, रतनबरसड़ा, चारण पीथा, शूजी कवि, चारण भल्लाजी गांधण्यां, बारहठ गोविन्द, विदुर, कम्माजी, वेणा, नन्दलाल भादा, कीरतराम, वखतराम, विनयशील, महेश, मोहन विमल, ओपा आढ़ा, भीमा आसिया, इसरदास भादा, आईदान गाइण, साह दलीचन्द (हीताका निवासी) ठाकुर राजसिंह (हीताका निवासी), केसर, सीहविजय, खेतल, हेम विजय, केतसी, करुणा उदधि आदि / इन कवियोंके अलावा डिंगलके सहस्रों गीत ऐसे मिलते हैं, जिसका विषय मेवाड़के महाराणा, युद्ध व योद्धा, शस्त्र प्रशंसा, शत्रु निन्दा, अध्यात्म आदि है किन्तु इनके रचयिता अज्ञात है। इन गीतोंकी उपस्थिति स्वयं किन्हीं अज्ञात कवियोंकी ओर संकेत करती है, जो समयके व्यतीत होनेके साथ-साथ उनके गीतोंमें उनके नामोंके उल्लेखके अभावमें पीछे छट गये हैं। व्यापक अनुसंधानके द्वारा ऐसे अज्ञात कवियों और जैन सन्तोंका परिचय व साहित्य मेवाड़ के साहित्यिक गौरवको स्पष्ट कर सकता है। 244 : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ