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मारवाड़ चित्रशैली एवं जैन विज्ञप्तिपत्र
मधु अग्रवाल किसी भी प्रदेश के युगविशेष की संस्कृति एवं सभ्यता उस काल-विशेष की कला में निहित होती हैं। ये कलाकृतियां बीते युग का दर्पण हुआ करती हैं ।
समस्त मारवाड़ प्रदेश प्राचीनकाल से ही जैन धर्मानुयायियों का उल्लेखनीय केन्द्र रहा है। इन जैन धर्मावलम्बियों की सांस्कृतिक समृद्धि इनके संरक्षण में बनी मूर्तियों, भित्तिचित्रों, ताम्रपत्रों एवं पट्टों में सिमटी है।
राजस्थानी चित्रकला के प्रमुखतया दो स्वरूप मिलते हैं-एक लोककलात्मक एवं दूसरा दरबारी। प्रथम स्वरूप अधिकतर धर्मपीठों एवं जनसमाज में पल्लवित हुआ है तथा दूसरा सामन्ती परिवेश में । निश्चय ही उपयुक्त दोनों स्वरूप अबाधगति से प्रवाहित होते रहे हैं। अधिकांशतः जैन चित्रों को भी हम लोक चित्रों के तहत रखते हैं। जैन विज्ञप्तिपत्रों में भी उस प्रदेश की जैन धार्मिक मान्यताओं, जैन एवं अजैन समाज के तहत रखते हैं। जैन विज्ञप्तिपत्रों में भी उस प्रदेश की जैन धार्मिक मान्यताओं, एवं जैन अजैन समाज के सामान्य जनजीवन की झांकी मिलती है।
विज्ञप्तिपत्र कुण्डलित पट होता है। लम्बे कागज पर खंडों में चित्र बने होते हैं। इसके पीछे महीन कपड़ा लगा रहता है। कुण्डलित पटों की परम्परा पश्चिम भारतीय चित्रों में काफी पहले से चली आ रही है। पन्द्रहवीं शताब्दी के पंचतीथी पट एवं वसन्त विकास ऐसे ही कुण्डलित पट हैं। इन पटों पर चित्रकार स्थान की सीमा में नहीं बँटा होता है। जैन समाज की परम्परानुसार जब कभी जैनाचार्यों या मुनियों को कोई जैन संघ अपने स्थान पर चौमासे के लिए अथवा समाज के धर्मलाभ के लिए बुलाता है, उस समय विनयपूर्वक निमन्त्रण पत्र भेजा जाता है, जिसे विज्ञप्तिपत्र कहा जाता है । जैनियों का अत्यन्त पवित्र पर्व पर्युषण पर्व माना जाता है, जो प्रतिवर्ष भाद्रपद माह में होता है तथा प्रायः आठ दस दिन तक चलता है। बीते हुए वर्ष में जाने-अनजाने में हुई त्रुटियों या अपराधों के लिए इस अवसर पर अपने मित्रों व अन्य व्यक्तियों को क्षमायाचना पत्र भेजे जाते हैं। जिन्हें क्षमापना पत्र कहा जाता है। इनकी गिनती विज्ञप्ति-पत्रों के वर्ग में ही होती है। इनके आकार-प्रकार में काफी विविधता पायी गयी है। श्री भंवरलाल नाहटा के अनुसार अबतक का ज्ञात सबसे लम्बा विज्ञप्ति पत्र बीकानेर का माना जाता है । यह ९७ फुट लम्बा है, जो ९४ फुट तक चित्रित है। श्री अगरचन्द नाहटा के अनुसार विज्ञप्तिपत्रों में सर्वाधिक लम्बा पयूषण पर्व लेख किशनगढ़ के एक विज्ञप्तिपत्र का है। इस लेख की हस्तलिखित प्रति २५ पन्नों की है। आरम्भ में ऐसे पत्रों में केवल लिखित निमन्त्रण होता था। डॉ० हीरानन्द शास्त्री के अनुसार इन लिखित पत्रों का एक अन्य प्रकार भी होता है। उनमें जैन साधु अपने गुरु को वर्ष भर का लेखा
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मधु अग्रवाल
जोखा भेजते हैं । डॉ० शास्त्री ने इस वर्ग का १६६० ई० का गोधा विज्ञप्ति पत्र प्रकाशित किया है । १७वीं शती से ही इन पर लेखन के साथ-साथ चित्रों को भी स्थान दिया जाने लगा । जिनकी परम्परा २०वीं शती के आरम्भिक दो-तीन दशकों तक रही । ये पत्र साहित्य, कला, इतिहास, सामाजिक स्थिति तथा स्थानीय भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहे हैं । सामान्यतः इन पन्नों पर पूर्ण कलश, अष्ट मांगलिक प्रतीक, तीर्थङ्करों की माताओं द्वारा देखे जाने वाले चौदह मंगल स्वप्न ( महासन ) तथा तीर्थङ्करों के कायचित्र के अतिरिक्त जिस नगर से विज्ञप्ति पत्र भेजा जाता है वहाँ के मुख्य स्थानों, जैन, अजैन मंदिरों, भवनों, मार्गों, बाजारों, वाहन, राजमहल, देवालय, जलाशय तथा जीवन के चित्र बने होते हैं । इसके बाद
महाराज, अन्य शिष्य, श्रावकों व मुनियों सहित नगर के प्रवेश द्वार के समीप पड़ाव में दिखाये जाते हैं। चित्रों के अतिरिक्त जहाँ से विज्ञप्ति पत्र भेजा जाता है तथा जिस स्थान को भेजा जाता है दोनों का विवरण, निमन्त्रण करने वाले नगर के साधुओं व श्रावकों आदि की वन्दना तथा अपने यहाँ पधारने की विनती लिपिबद्ध की जाती है । ये पत्र विद्वान् मुनियों की काव्य प्रतिभा एवं विद्वत्ता के प्रतीक भी हैं । इनके निर्माण में समय व धन लगता था । इस प्रकार के विज्ञप्ति पत्रों के निर्माण की परम्परा केवल श्वेताम्बर जैन समाज व कला की देन है ।
इन पत्रों को प्रकाशित करने का श्रेय सर्वप्रथम डॉ० हीरानन्द शास्त्री को है । उन्होंने १७७९ ई० में निर्मित सिरोही के १७९७ एवं १८३५ ई० में निर्मित जोधपुर के तथा १७९५ ई० में चित्रित बड़ौदा के विज्ञप्ति पत्रों को प्रकाशित किया । तत्पश्चात् डॉ० यू० पी० शाह ने बड़ौदा म्यूजियम बुलेटिन में "देसूरी विज्ञप्ति पत्र", भँवरलाल नाहटा ने राजस्थान भारती पत्रिका में बीकानेर के विज्ञप्ति पत्र एवं अगरचन्द नाहटा ने राजस्थान में मरु भारती पत्रिका में किशनगढ़ के विज्ञप्ति पत्र को प्रकाशित किया ।
गुजरात के अलावा राजस्थान चित्र शैली में इन पत्रों के चित्रण की परम्परा मुख्य तौर पर मारवाड़, बीकानेर एवं किशनगढ़ में पायी गई है। मारवाड़ चित्रशैली ही बीकानेर एवं किशनगढ़ चित्र शैली की जन्मदात्री रही है । इन पत्रों की परम्परा मुगल दरबार में भी रही है । अब तक का ज्ञात पहला चित्रित विज्ञप्तिपत्र जहांगीर के दरबार के मुगल चित्रकार शालीवाहन ने चित्रित किया । अकबर के बाद जहाँगीर मुगल साम्राज्य का उत्तराधिकारी हुआ, किन्तु हिन्दुओं की धार्मिक भावना के प्रति अकबर की समन्वय तथा सहिष्णुता की नीति के अर्न्तगत जीवहत्या के निरोध के पक्ष में जहाँगीर नहीं था । फिर भी समकालीन मुनि जिनविजय सूरि के शिष्य विवेकहर्ष तथा उदयहर्ष के नेतृत्व में सम्राट के दरबारी राजा रामदास के साथ एक शिष्ट मण्डल १६१० ई० में जहाँगीर के दरबार में आगरा पहुँचा तथा पर्युषण पर्व के दिनों में जीव हत्या पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए विशेष आग्रह कर शान्ति आदेश का फरमान प्राप्त करने में सफल हो गया । उसी अवसर पर आगरा के जैन समाज की ओर से उक्त पत्र लिखा गया ।
निमन्त्रण पत्र होने के कारण ये समृद्ध नहीं होते । चूँकि इन पत्रों का
कल्पसूत्र एवं कालकाचार्य कथा की प्रतियों की भांति उद्देश्य बिल्कुल भिन्न था। फलतः राजदरबार में
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मारवाड़ चित्रशैली एवं जैन विज्ञप्ति पत्र
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चित्रित होने वाले चित्रों जैसी बारीकी, नफासत एवं भव्यता इनमें नहीं पायी जाती, परन्तु शैलीगत समानता होती ही है। ये समकालीन दरबारी चित्रों से प्रभावित हैं और शैली के विकास की विवेचना में इनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। दरबार में शैली के उत्तरोत्तर पतन के साथ हम इनका भी ह्रासमान रूप देखते हैं। मारवाड़ चित्रशैली के कालक्रम निर्धारण में मारवाड़ की राजधानी जोधपुर एवं अन्य नगरों से पाये गये इन निमन्त्रण पत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। १९वीं शती के मध्याह्न के बाद अन्य केन्द्रों की भांति
दरबार में भी चित्रों के प्रति उदासीनता बरती जाने लगी। धीरे-धीरे चित्रकला की परम्परा लप्त होने लगी है। पतन के इस दौर में २०वीं सदी के पहले दशक तक हासमान रूप में ही सही २००-२५० वर्षों की कला परम्परा की धरोहर इन्हीं पत्रों में कैद है ।
अहमदाबाद के एल०डी० इन्स्टिट्यूट ऑफ इन्डोलोजी, एल०डी० म्यूज्म, देहली जैन उपाश्रय, जैन प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान एवं बीजे० इंस्टिट्यूट में मारवाड़ शैली के कई पत्र हैं। इनकी सची एवं चित्र डॉ० यू०पी० शाह ने देजरार ऑफ जैन भण्डार पुस्तक में प्रकाशित की है। उक्त सूची से ही यहाँ मैने दो विज्ञप्ति पत्रों की शैली की विवेचना की है । ये १८वीं१९वीं सदी में चित्रित हुए। मारवाड़ प्रदेश के जोधपुर एवं अन्य ठिकानों से गुजरात भेजे गये हैं।
इनके चित्रण में काफी विविधता है। संरक्षकों की रुचि एवं धन व्यय करने के आधार पर इस प्रदेश से पाये जाने वाले विज्ञप्ति पत्रों का भिन्न-भिन्न प्रकार का चित्रण है।
अहमदाबाद के एल०डी० इंस्टिट्यूट ऑफ इंडोलोजी में संग्रहित एक पत्र (एल० डी० २७६४७) विशेष रूप से उल्लेखनीय है । यह सोजत के जैन संघ द्वारा सूरत के उदयसागर सूरि को लिखा गया। सोजत, मारवाड़ का महत्त्वपूर्ण ठिकाना था। यह पूरा पत्र उत्तम अवस्था में है। नीचे इसके लेख की लिपि कई जगह धुंधली हो गयी है। इसे अनुमानतः अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध का माना गया था। गत वर्ष इसके लेख की अन्तिम धुंधली पड़ती पक्तियों को ध्यानपूर्वक देखने पर मुझे इस पर तिथि मिली। यह संवत् १८०३ [१७४६] मैं चित्रित हुआ था। अन्य विज्ञप्ति पत्रों की तुलना में यह आकार में छोटा है। २०५ सेमी० लम्बा २२ सेमी० चौड़ा है। इसमें शहर, मार्गों, मन्दिर एवं जुलूस का चित्रण नहीं है।
चित्र आठ खंडों में विभाजित है। पहले खण्ड में लाल पृष्ठभूमि में उजले एव आसमानी रंग के घोड़े हैं। दौड़ते हुए घोड़ों का अत्यन्त उत्कृष्ट चित्रण हुआ है। घुड़सवार का चित्रण नागौरी शबीहों के घुड़सवारी के अनुरूप हुआ है। मारवाड़ के ठिकाने नागौर में कई चित्रों में मुगल प्रभाव के तहत कम घनी नुकीली दाढ़ी का चित्रण हुआ है।
दूसरे खंड [ चित्र नं १ ] में पताका एव धारियाँ लेकर जाते अनुचरों की वेषभूषा अठारहवीं शती के प्रायः सभी राजस्थानी चित्रों में सेवकों के अंकन में एक जैसी है। इस पूरे पत्र में आंखों का चित्रण जोधपुर के चित्रों से बिल्कुल भिन्न है तथा सिरोही के चित्रों के निकट है। सिरोही मारवाड़ एवं मेवाड़ के मध्य स्थित है। कई बार सिरोही मारवाड़ का
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मधु अग्रवाल अधीनस्थ प्रदेश रहा है। कई विद्वान् सिरोही एवं मारवाड़ के चित्रों को एक ही शैली रखते हैं।
इस पत्र में कई स्थानों पर गुजरात के चित्रों का भी प्रभाव है। आरम्भ से ही मारवार के चित्रों पर गुजरात का प्रभाव पाया गया है। वास्तव में मारवाड़ चित्र शैली गुजरात में ही निकली है। १७वीं सदी के अभिलेख विहीन कई चित्रों के बारे में निश्चित रूप से यह कहना मुश्किल है कि ये मारवाड़ के थे या गुजरात प्रदेश में निर्मित हुए।
दूसरे, तीसरे, चौथे एवं पाँचवें खंडों में पुरुष गायकों एवं नर्तकों का चित्रण हुआ है। इन चारों चित्रों [ चित्र-२] में तारतम्य एवं क्रमबद्धता है। नृत्य संगीत के वातावरण की हलचल, उन्मुक्तता पूरी तरह संप्रेषित हो रही है। इनकी वेषभूषा वातावरण के अनुकूल तीखे रंगों की है। रूपहले रंगों का भी प्रचुरता से प्रयोग हुआ है। चारों खंड ऊपर-नीचे से एक इंच चौड़ी रेखा द्वारा विभाजित किये गये हैं। क्रमशः बैगनी, लाल तथा पीला एवं बैगनी रंगों की पृष्ठभूमि है । रंगों में सामंजस्य है।
छठे खंड [चित्र-३] में हरी पृष्ठभूमि में स्त्रियों के जुलस का दृश्य है। उनका चिया सिरोही चित्रों के अत्यन्त निकट है।
त्रों के अत्यन्त निकट है। गोल भरा-भरा चेहरा. गालों की माडलिंग, गोल ठड्डी आँखें, माथा आदि सिरोही चित्रशैली की परम्परा में है। समकालीन चित्रों की तरह आकृतियाँ गठी हुई, आकर्षक, औसत कद की एवं समानुपातिक संरचना वाली है। इसकाल तक आते आते समकालीन चित्रों के लहंगे भारी भरकम घेर वाले होते हैं। यहाँ कम घेर लहंगे पारदर्शी दुपट्टे के कंगूरे अठारहवीं सदी के प्रारम्भ के चित्रों की भाँति चित्रित हुए हैं। आभूषणों का भी रूढिबद्ध अंकन है। आकृतियाँ स्थिर गतिहीन प्रतीत हो रही हैं।
___ सातवाँ खण्ड १४ इंच लम्बा है। लाल रंग की पृष्ठभूमि में अन्य रंगों का आकर्षक सामंजस्य हुआ है। जैन साधु साध्वियां दीक्षा दे रहे हैं। आकृतियाँ समकालीन चित्रों की परम्परा में हैं। अठारहवीं सदी के मध्य के आस-पास मारवाड़ एक बीकानेर दोनों चित्र शैलियों में इस प्रकार गोल भरे-भरे चेहरे, भारी गर्दन, दोहरी ठुड्डी। हल्के गलमुच्छे, मूछे, एवं पगड़ी चित्रित होती रही है। यहाँ आंखों के चित्रण में अन्तर है.।। जैन साध्वी के समकक्ष बैठा किशोर एवं नीचे औरतों के समूह की ओर आ रहा किशोर भी समकालीन मारवाड़ बीकानेर के चित्रों में प्रायः चित्रित हुआ है। ये तत्त्व मथेन घराने के चित्रकारों की विशिष्ट शैली में है। नेशनल म्यूजियम में संग्रहीत मंथेन रामकिशन द्वारा चित्रित १७७० ई० की रागमाला एव अन्य चित्रों में इस भाँति के किशोर वय की आकृतियां चित्रित हैं।
इन पत्रों पर चित्रकारों का नाम नही मिलता है। शैली के आधार पर कहा जा सकता है कि उनका चित्रण मंथेन घराने के चित्रकारों ने ही किया होगा। इसे मथेन या मंथेरना दोनों कहते हैं। मथेन जोगीदास म० अखेराज, म० रामकिशन, म० अमैराम, म० सीताराम
ईनाम बीकानेर के हस्तलिखित सचित्र ग्रन्थों में पाये गये हैं। इन नामों से अनुमान होता है कि यह चित्रकारों का एक घराना रहा होगा । इनके बारे में अधिक जानकारी नहीं।
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मारवाड़ चित्रशैली एवं जैन विज्ञप्ति पत्र
२४९ मिल पायी। इनकी शैली मारवाड़ के सचित्र हस्तलिखित ग्रन्थों में भी मिलती है। जोधपुर, प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान में संग्रहीत १७८८ में चित्रित मारवाड़ के पाली ठिकाने पर चित्रित मधुमालती प्रति में भी मथेन सीवराम का नाम मिलता है। इससे यह तथ्य स्पष्ट होता है कि ये चित्रकार दोनों स्थानों पर चित्र बनाया करते थे । जयपुर के कुं० संग्राम सिंह के अनुसार जैन सूरि के साथ इस घराने के चित्रकार रहते थे।
इस परे खंड में प्रवचन का शांत स्थिर वातावरण है। साधु-साध्वियों के चेहरे आध्यात्मिक भावों से युक्त हैं। चेहरे गहरे रंग के हैं। मारवाड़ के पोकरण, आसोप आदि ठिकानों में भी चेहरे गहरे वर्ण के चित्रित होते रहे हैं। ___ यह पत्र निश्चित रूप से १८वीं शदी के उत्कृष्ट चित्रों में से एक है। यद्यपि इसमें
- बारीकी एवं नफासत नहीं है फिर भी ये चित्र कुशलता पूर्वक चित्रित किये गये चित्रों के अत्यंत उत्कृष्ट उदाहरण हैं। तकनीकी दष्टि से भी ये काफी परिष्कृत हैं। रेखाएँ सशक्त वेगवान एवं प्रवाहमय हैं। साफ सुथरा पूर्ण चित्रण है। मारवाड़ शैली के विकास एवं विज्ञप्ति पत्रों की परम्परा-दोनों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है।
१९वीं शती में इनका चित्रण बहत बड़ी संख्या में होने लगता है। इस काल में ऐसे कुछ पत्र मिले हैं जिनमें विशिष्ट आकृतियों के चित्रण पर ही ध्यान दिया गया है । प्रमुख आकृतियों का समकालीन उत्कृष्ट दरबारी चित्रों के समतुल्य चित्रण हुआ है। पर सहायक आकृतियों का अत्यंत सामान्य कोटि का चित्रण हुआ है। सम्भवतः यह प्रतिपालक के आदेश एवं रुचि पर निर्भर करता होगा। अहमदाबाद के ढेहला जैन उपाश्रय भंडार में संग्रहीत विज्ञप्ति पत्र (डी. ए. नं. २००) इस वर्ग का एक उल्लेखनीय उदाहरण है । यह पत्र १८२५ ई० में जोधपुर से अहमदाबाद के श्री विजय जी को लिखा गया था ।
यह महाराजा मानसिंह के काल में चित्रित हुआ है । पत्र में चित्रित जैन साधु (चित्र-४) का भरा गोल चेहरा, ठुड्डी, नुकीली नाक, बड़ी-बड़ी नुकीली आंखें समकालीन नाथ संप्रदाय के नाथ गुरुओं के चित्रों की भांति चित्रित हुई हैं। इस पत्र में प्रमुख चित्रों के अंकन में रेखाएँ सशक्त हैं । भावनापूर्ण चित्रण हुआ है। जैन साधु के मुख पर आध्यात्मिक भावों के साथ-साथ प्रसन्न सहज एवं शांत भाव है। सामने प्रवचन सुन रहे व्यक्तियों के समूह एवं पोछ खड़े सेवक की घनी दाढी, मँछ, गलमुच्छे, बड़ी-बड़ी आँखें, ऊँची पगड़ी का चित्रण दरबार में चित्रित होने वाले लघु चित्रों, हस्तलिखित सचित्र ग्रंथों एवं इन पट्टों में एक जैसा है। यहाँ रेखाएँ कमजोर हैं। इनमें टूट है। इसी खंड में जैन आचार्यों के नीचे के पैनल में चित्रित साधु-साध्वियों का बेजान एवं भावहीन चित्रण हुआ है। सम्मुखदर्शी जैन साधु का चित्रण १८वीं सदी के सिरोही चित्रशैली के उपदेशमाला प्रकरण की प्रति के चित्रों से मिलता है। इनके समक्ष चित्रित स्त्रियों के समूह का विविधतापूर्ण चित्रण हुआ है । यह निम्नकोटि का अनाकर्षक चित्रण है । आकृतियाँ ठिगनी हो गई हैं। सबसे आगे वाली स्त्री की कान तक खिची लम्बी आँखें, भौंहे व चपटे गाल एवं ठड़ी, छोटी नाक परम्पराबद्ध नारी चित्रण से भिन्न है। साधारणतया मारवाड चित्रशैली में लम्बी आंखें ऊपर की ओर उठी होती हैं। अधमुंदी बड़ी-बड़ी घनी पलकों के साथ चेहरे पर सौम्य भाव होते हैं। ठिगनी स्थूल आकृतियाँ इस काल में बहुत कम चित्रित हुई हैं।
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________________ 250 मधु अग्रवाल यदाकदा चित्रित हुई हैं तो भी उनकी कमर पतली चित्रित की गयी है। यहाँ इन परम्पराओं से परे चौड़ी कमर का चित्रण हआ है। पीछे खड़ी स्त्री की केरीनुमा ऊपर की ओर उठी हुई आँख, अंडाकार चेहरा, लम्बी गर्दन, नुकीली नाक दरबारी चित्रों की परम्परा में है। नुकीली लम्बी नाक एवं चेहरे की लम्बाई पर किशनगढ़ शैली का प्रभाव है। भावहीनता एवं कमजोर रेखांकन के कारण सौंदर्य कुछ हद तक कम हो गया। किशनगढ़, जोधपुर रियासत की ही शाखा थी फलतः दोनों की चित्रशैली में कुछ हद तक समानताएँ थीं। चूंकि नारी सौंदर्य एवं कलात्मकता की दृष्टि से किशनगढ़ के चित्र जोधपुर के चित्रों से अधिक उत्कृष्ट हैं। पीछे बैठी स्त्री का चित्रण १७वीं सदी के जगदीश मित्तल संग्रह एवं जयपुर भागवत दशम स्कंध की प्रति से मिलता है। नीचे के पैनल से नृत्य-संगीत का उल्लास प्रकट हो रहा है। कमजोर रेखांकन के बावजूद भावाभिव्यक्ति सशक्त है। नर्तकी की मुद्रा एवं वस्त्रों की फहरान से नृत्य की गति का सुन्दर आभास हो रहा है / पुरुष वाद्य-वादकों के चित्रण में मुखाकृति एवं वेशभूषा पर १७वीं सदी के गुजरात में चित्रित होने वाले चित्रों का प्रभाव है। प्रमुख आकृतियों की उत्कृष्ट चित्रण परम्परा में माता त्रिशला के शयन दृश्य का अत्यंत सफल चित्रण हुआ है। माता त्रिशला एवं सेविकाओं की लम्बी आकृति, अंडाकार चेहरा, क. पतली कमर. लम्बी स्प्रिगतमा जल्फों का आकर्षक चित्रण समकालीन उत्कृष्ट चित्रों के नारी सौंदर्य के निश्चित मापदण्डों के अनुसार हुआ है। इस काल में ऐसा चित्रण मारवाड़, बीकानेर एवं जयपुर तीनों शैलियों में मिलता है। मारवाड़ चित्रों में इस काल में चित्रित होने वाले सभी पुरुष आकृतियों के चित्रण में महाराजा मानसिंह की छवि ही चित्रित की गयी है। इस पत्र में भी इसी परम्परा का अनुकरण किया गया है। इस पत्र की शैलीगत विवेचना में हम नये-पुराने कला तत्त्वों का समावेश पाते हैं। लोक चित्रों के होने के बावजूद ये कई दृष्टियों से दरबारी चित्रों के समकक्ष हैं। चित्रकार ने दरबारी चित्रों की जकड़न से स्वतन्त्र होकर उन्मुक्त चित्रण किया है तथा नये-नये प्रयोग किये हैं / इन चित्रों में लोक संस्कृति की सच्ची झलक है। ये पत्र तत्कालीन जैन संस्कृति के अमूल्य दस्तावेज हैं जिनमें सिर्फ पीढ़ियों की परम्पराएँ ही नहीं, मारवाड़ के जीवन के सभी पक्ष सुरक्षित हैं।