Book Title: Mahila Samaj ko Mahavir Darshan ki Den
Author(s): Shanta Bhanavat
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिला समाज को महावीर - दर्शन की देन सन् १९७५ का वर्ष हमने अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मनाया। इसके दौरान महिलाओं की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक स्वतंत्रता की समस्याओं के सम्बन्ध में चिन्तन चला। यह हर्ष का विषय है कि आज के शिक्षित पुरुषवर्ग ने नारी स्वातंत्र्य के इस महत्व को समझा है और वह भी इस ओर पहल कर रहा है । यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि इस समस्या की ओर आज से २५०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर का ध्यान गया था। उन्होंने नारी को केवल आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता देने की बात ही नहीं कहीं, वरन् इससे भी आगे बढ़कर नारी को अपने समग्र व्यक्तित्व का विकास करने के लिये आध्यात्मिक स्वतंत्रता देने की बात भी कही । महावीरकालीन समाज में नारी की स्थिति बड़ी खराब थी । उसे धर्म के बोल सुनने का अधिकार नहीं था । गाजर, मूली, भेड़, बकरियों की भांति वह चौराहों पर खड़ी कर बेच दी जाती थी । बड़े-बड़े सेठ, श्रीमन्त उसे खरीद लेते और उसका उपयोग दासी की तरह करते । इस प्रसंग में कुमारी चन्दना की उस घटना को हम विस्मृत नहीं कर सकते जब एक सारथी ने उसे चाँदी के चंद टुकड़ों के खातिर एक वैश्या के हाथों सौंपा था । वैश्या के घर नित नये भरतार करने और रसीले मादक पदार्थ सेवन की बात सुन कुमारी चन्दना का दिल रो पड़ा। उसने उसके साथ जाने से इन्कार कर दिया । तब वह घना श्रेष्ठी के हाथों में बेची गई। वहाँ उसे दासी का काम करना पड़ा । चन्दना की भांति न जाने कितनी नारियों को उस समय दासता की जंजीरों में जंकड़ कर जीवन बिताना पड़ा होगा । नारी स्वातंत्र्य के हामी महावीर को यह सब कहां बरदाश्त वी. नि. सं. २५०३ डॉ. श्रीमती शान्ता भानावत था ? समाज में पद दलित और उपेक्षित समझी जाने वाली नारी जाति के उद्धार के लिये ही तो उन्होंने अपने साधना काल के रहे वर्ष में एक कठोर अभिग्रह धारण किया था, कोई राजकुमारी दासी बनी हुई हो, उसके हाथो में सूप हो, जिसके कोने में उड़द के बाले पड़े हों, वह देहली के बीच खड़ी हो हाथों में हथकड़ियां और पैरों में बेड़ियां पड़ी हों, सिर मुंडित हो, आँखों में अश्रु और ओठों पर मुस्कान हो, वह स्वयं तीन दिन की भूखी हो, भिक्षा का समय बीत गया हो। ऐसी स्थिति में यदि कोई राजकुमारी मुझे भिक्षा देगी तभी में आहार ग्रहण करूंगा, अन्यथा भूखा ही रहूंगा । महावीर को इसी संकल्प में निराहार विचरण करते-करते पाँच माह पच्चीस दिन बीत गये। इस बीच अनेक राजाओं ने उनकी षटरस व्यन्जन की खूब मनुहार की पर उन्होंने सिर्फ उदर पूर्ति ही नहीं करनी थी । वे तो पददलित समझी जाने वाली नारी से भिक्षा लेकर उसके पद को गौरवान्वित करना चाहते थे । महावीर का यह अभय दासी बनी राजकुमारी चन्दनबाला के हाथों पूरा हुआ । फिर प्रभु महावीर से प्रतिबोध पाकर चन्दनबाला ने दीक्षा अंगीकार की। प्रभु महावीर ने अपने धर्म संघ में पुरुष की भांति नारी को भी सम्मिलित किया । उन्होंने कहा - नारी व पुरुष की आत्मा एक है। पुरुषों की भांति नारियों को भी अपने विकास की पूर्ण स्वतंत्रता है । नारी को पुरुष से हेय समझना, अज्ञान, अधर्म और अतार्किक है । प्रभु महावीर ने कहा वासना, विकार और कर्म जाल को काट कर नारी मोक्ष की अधिकारिणी बन सकती है । उसे भी निःसंकोच धर्मोपदेश सुनने का वैसा ही अधिकार है जैसा पुरुष को है। प्रभु महावीर की वाणी से प्रेरित हो जयन्ती श्राविका ने उनसे अनेक तात्विक प्रश्न पूछे थे। अपने प्रश्नों का सही समाधान पा जयन्ती ने महावीर के पास दीक्षा अंगीकार की । १३७ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु महावीर की वाणी से प्रभावित हो अनेक नारियों ने साधना का मार्ग अपनाया। यही कारण था कि उनके धर्म संघ में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक थी । चौदह हजार साधु थे, तो छत्तीस हजार साध्वियां, उनसठ हजार श्रावक थे तो तीन लाख अठारह हजार श्राविकाएँ । महावीर की दृष्टि में नारी की मातृत्व शक्ति का बड़ा सम्मान था । उन्होंने माता त्रिशला के अपार वात्सल्य भाव को गर्भ काल में ही अनुभव कर लिया था। इसी कारण वे बैरागी बनकर चुपचाप घर छोड़ कर नहीं गये । अठ्ठाइस वर्ष की उम्र में दीक्षा लेने की उन्होंने बड़े भाई नंदीवर्द्धन से अनुमति मांगी । जब भाई ने अनुमति नहीं दी तो वे भाई, पत्नी, बहन, अबोध पुत्री की मक भावनाओं का आदर कर, दो वर्ष तक और गहस्थ जीवन में रहे । ___ भगवान महावीर ने अपने समय में , स्वातंत्र्य की दिशा में नारी को पुरुष के बराबर आत्म कल्याण के अधिकार देकर बहुत क्रांति की थी। पर बड़े दुखः की बात है कि नारी मुक्ति की दिशा में महावीर का किया गया प्रयत्न आगे चलकर फिर धूमिल पड़ गया । मध्य युग तक आते आते नारी बाल विवाह, पर्दा प्रथा, अंधविश्वास, दासत्व, निरक्षरता, जैसी कुरीतियों में फिर कैद हो गई और उसका व्यक्तित्व दब गया। १८ वी १९ वीं शती में नारी सुधार की दिशा में फिर अनेक आंदोलन गतिशील हुए। फलस्वरूप भारतीय संविधान में नारी और पुरुष के अधिकारों में किसी प्रकार का भेद नहीं रहा। उसे वयस्क मताधिकार दिया गया जो विश्व इतिहास में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है । बौद्धिक दृष्टि से भारतीय नारी पुरुष की अपेक्षा किसी भी तरह कम नहीं रही। हमारे देश में महिलाएं प्रधानमंत्री, राजदूत, राज्यपाल रह चुकी हैं। वे मंत्री, संसद सदस्या, इंजीनियर, पायलेट, छाताधारी सैनिक, सभी कुछ हैं। रोजगार के सभी क्षेत्र उनके लिये खुले हैं । भारतीय नारी परिश्रम से जी चराने वाली भी नहीं है। प्रतियोगी परीक्षाओं में वे पुरुषों से भी आगे बढ़ रही हैं। इतना होने पर भी आज जब हम अपने पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो हमें चारों ओर अशांति, अनैकिता,भ्रष्टाचार,रिश्वत खोरी, भाई-भतीजावाद के दर्शन होते हैं। आज के मानव का लक्ष्य येनकेन प्रकारेण धन कमाना ही बन गया है। धन की तृष्णा उसके मन में दिन-रात बढ़ती जा रही है । वह हजारपति है तो लखपति बनना चाहता है और लखपति है तो करोड़पति । व्यक्ति की ये बढती हुई इच्छाएं उसे अनैतिक कार्य करने की ओर प्रवृत्त करती हैं । उन्हीं के वशीभूत हो वह गरीबों का पेट काट कर अपना घर भरता है । देश में बढ़ती हुई जनसंख्या, मंहगाई, बेकारी, विलासप्रियता, फेशनप्रियता आदि ने व्यक्ति को पथ भ्रष्ट कर दिया है । आज मानव की दृष्टि भी विकारग्रस्त बन गई है । उसे गन्दे-अश्लील चित्र देखने में आनन्द आता है। आज व्यक्ति के विचार भी विकारग्रस्त बनते जा रहे हैं । वह स्वयं खाना, पीना और मौज करना चाहता है। दूसरे को खाते पीते देख वह स्वयं उससे ईर्ष्या करता है। वृद्ध माता पिता की सेवा सुश्रूषा में उसे लज्जा की अनुभूति होती है। आज का व्यक्ति विनय को तिलांजलि दे, उच्छखल बनता जा रहा है। इन सब दुष्कृतियों का परिणाम यह हो रहा है कि हमारे जीवन में घोर निराशाएं, कुण्ठाएं, व्याप्त हो गई हैं। बौद्धिक और आर्थिक जगत में हमने आशातीत प्रगति की है जिससे हमें काफी भौतिक सुख-सुविधाएं मिलने लगी हैं । पर हमारे विवेक. श्रद्धा और चरित्र का स्रोत सूख जाने से मानसिक शांति नष्ट हो गई है । मानसिक शांति ही सब सुखों का मूल है। दुनिया की समस्त भोग सामग्री व्यक्ति को उपलब्ध है पर यदि उसकी आत्मा को शांति नहीं तो वह विपुल सामग्री उसके लिये क्लेशकारी होगी। इसी मानसिक शांति को प्राप्त करने के लिये परिवार, समाज और राष्ट्र में व्याप्त सभी कुरीतियों को दूर करना होगा। इन कुरीतियों को दूर करने में नारी ही विशेष पहल कर सकती है। वही परिवार और समाज की केन्द्र है। प्रकृति से उसका कार्य क्षेत्र बाहरी नहीं, भीतरी है। वही घर की आंतरिक समस्याओं को सुलझाती है। यदि उसको दृष्टि सम्यक् होगी तो वह कम आमदनी में घर खर्च चला लेगी। वह फेशन व विलास की सामग्री तथा अनैतिक तरीके से कमाये गये धन का स्वागत नहीं कर, भ्रष्टाचार की बाढ़ को रोकने का प्रयत्न करेगी। परिवार को उच्छं खल नहीं बनने देगी । पारिवारिक सदस्यों में विनय, क्षमा, प्रेमवृत्ति, जैसे गुणों का विकास करेगी। इन गुणों का विकाश वह भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह व परिमाण व्रत से कर सकती है । यहाँ संक्षेप में उनका परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है - १. अहिंसा नारी को अहिंसा में पूरा विश्वास रखना चाहिये । अहिंसा शब्द का अर्थ है किसी की हिंसा नहीं करना, किसी को नहीं मारना। हिंसा का मुख्य कारण प्रमाद है ये प्रमाद पाँच प्रकार के होते हैं- १.इंद्रियों की विषयासक्ति, २.क्रोध, मान माया आदि मनोवेग ३. आलस्य व असावधानी, ४. निन्दा, ५. मोह-राग-द्वेष आदि । ये पाँचों प्रमाद हृदय को विकृत बनाते हैं जिससे अमैत्री और कलह की वृद्धि होती है। इसलिये नारी को सदैव इन प्रमादों से दूर रहना चाहिये उसे सोचना चाहिये - सभी जीव जीना चाहते है, मरना कोई नहीं । जैसा व्यवहार मुझे अपने लिये पसन्द नहीं है, वैसा व्यवहार मुझे दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिये । क्रोध में आकर बिना कारण बच्चों को मारना-पीटना, दंड देना, गाली देना, उनके प्राणों को कष्ट पहुंचाना भी हिसा है । अपने को दूसरों से बड़ा मान कर घमण्ड करना, किसी का अपमान करना, किसी के गुप्त रहस्य को प्रकट करना, कपट पूर्वक व्यवहार करना, विषय भोग की वस्तुओं का संग्रह करना, आमोद-प्रमोद और स्वाद के वशीभूत होकर शराब, मांस आदि अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करना या सेवन करने वाले की सराहना करना भी हिंसा है। १३८ राजेन्द्र-ज्योति Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. मुसीबत में घबराकर, या क्रोध में आकर आत्मघात करना भी हिंसा है. क्योंकि आत्मघाती भय, क्रोध, अपमान, लोभ, कायरता आदि दुर्गुणों से प्रेरित होकर हिंसा करता है। ये दुर्गुण सद्गुणों का नाश करते हैं / इसलिये महिलाओं को ऐसे कुकर्म से बचना चाहिये। 2. सत्य ___महिलाओं को सत्य में पूर्ण निष्ठा रखनी चाहिये / घर में किसी सदस्य को झूठी प्रशंसा करना, जाली हस्ताक्षर करना, घर में किसी दूसरे की वस्तु रखकर उसे देने से इंकार करना, किसी की झूठी बात बनाना जैसी दुष्प्रवृत्तियों से नारी को बचना चाहिये परिवार को झूठे आचरण से बचाने के लिये स्वयं के जीवन को पूर्ण सत्यनिष्ठ बनाना उसका प्रथम कर्तव्य है। 3. अचौर्य महिलाओं को किसी प्रकार के चौर्य कर्म में सहायक नहीं बनना चाहिये / चोरी ही समस्त बुराइयों की जड़ है / इसी से समाज में अनैतिकता फैलती है। किसी पड़ौसी या अन्य किसी की चीज बिना उससे पूछे चोर वृत्ति से लेना, चोरी का माल खरीदना, चोर को चोरी करने में किसी प्रकार की मदद देना, नकली वस्तु को असली बताना, मिलावट करना, नाप तौल' में धोखेबाजी करना, टेक्स चोरी करना / ये सब चोरी हैं / यदि परिवार के व्यक्ति मिलावट या धोखाधड़ी का कार्य करते हों तो उनकी इस वृत्ति को रोकना नारी का प्रथम कर्तव्य है / इस व्रत के पालन. से सम्पत्ति का अपहरण मिटकर न्याय नीति का प्रसार होता है। ___आज महिलाओं में तस्कर वृत्ति से लाई गई विदेशी वस्तुएं खरीदने की प्रवृत्ति बहुत ज्यादा बढ़ गई है / यह भी बहुत बड़ी राष्ट्रीय चोरी है। इस चोरी से स्वावलम्बन की भावना को ठेस पहुंचती है अतः इसकी रोकथाम में महिलाओं को प्रभावकारी भूमिका निभानी चाहिए। 4. ब्रह्मचर्य नारी को ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्वपति संतोष रखना चाहिये / आज पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से हमारे देश की नारियों में भी सेक्स की खुली छूट की मांग बढ़ती जा रही है। सस्ते प्रेम के नाम पर कई घृणित और कुत्सित व्यापार चलते हैं / फलस्वरूप समाज और राष्ट्र में अनैतिकता पनप रही है / ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाली नारी नग्न नृत्य, अश्लील गायन, वैश्यावृत्ति तथा अन्य कुत्सित चेष्टाओं से सदैव दूर रहती है / उसका एक मात्र लक्ष्य रहता है- प्राण जाय पर शील धर्म न जाय, शील धर्म की रक्षार्थ उसे प्राण भी गंवाने पड़े तो वह हिचकती नहीं। नारी के शील और संयम पालन से पूरे परिवार को संस्कारशील बनाने में बड़ी मदद मिलती है / अपने चरित्र से वह पूरी पीढ़ी को प्रभावित करती है / 5. परिग्रह परिमाण इस व्रत को पालन करने वाली नारी में धन के प्रति आसक्ति नहीं होती। वह धन धान्य की निश्चित मर्यादा कर लेती है / उससे अधिक धन का संग्रह वह नहीं करती। यों तो इच्छाएं आकाश के समान अनन्त होती हैं। धन, धान्य, सोना, चांदी आदि की निश्चित मर्यादा कर वह बढ़ती हुई इच्छाओं पर अंकुश ल गा देती है / इस के पालन से समाज में आर्थिक विषमता मिटकर समता व शांति का प्रसार होता है। समाज में व्याप्त अपहरण, शोष ग, चोरी आदि बुराइयाँ इससे रुकती हैं। इस प्रकार जीवन में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाण आदि ब्रत धारण करने से परिवार और समाज में प्रेम, आत्मीयता, सहृदयता, विश्वास, प्रामाणिकता, नैतिकता, समता आदि सद्गुणों की भावना का प्रचार-प्रसार होता है। जीवन अनुशासित, नियमित व कर्तव्यनिष्ठ बनता है। नारी सदा से सेवा परायण, सहनशील और त्याग की मूर्ति रही है / आज जहाँ हमें नारी को बाह्य करीतियों से मक्त करना है, वहाँ उसके आन्तरिक जगत को विकसित करने के भी सुनियोजित प्रयत्न करने आवश्यक हैं / क्योंकि सदाचार, नैतिकता, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता जैसे गुण उसके आन्तरिक जगत में ही स्थित रहते हैं और उसी से विकसित रहकर उन्हें बाह्य जगत में अन्यत्र फैलने-पनपने का अवसर मिलता है / इसके लिये महिला स्वाध्याय केन्द्र, महिला नैतिक शिक्षण शिविर, महिला साहित्य परिषद जैसे सांस्कृतिक संगठन खड़े किये जाने चाहिये। मानव में मनुजता का प्रकाश सत्य, शौर्य, उदारता, संयम आदि गुणों से ही होता है। जिसमें गुण नहीं उसमें मानवता नहीं, अन्धकार मनुजता का संहारक है, वह प्राणिमात्र को संसार में धकेलता है। -राजेन्द्र सूरि श्री. नि. सं. 2503 139 Jain Education Intemational