Book Title: Mahavir ka Samyawad
Author(s): Paripurnanand Varma
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/211669/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर CT साम्यवाद परिपूर्णानन्द वर्मा आजकल साम्यवाद की बड़ी चर्चा है और बहुत से लोग जानना चाहते हैं कि महावीर का मत इस विषय में क्या है। साम्यवाद के लिये "सोशलिज्म" शब्द सबसे पहले सन 1838 में फ्रांस के पियर लूरे ने गढ़ा था। इसका सक्रिय रूप बनाने में 18-19 वीं सदी में सेंट साइमन, टाम पेन, विलियन गोडविन और विलियन गौडविन ने भूमिका तैयार की थी। फ्रांस के फुटियर तथा इग्लैंड के रौबर्ट औवेन ने इसकी रूप रेखा तैयार की पर इसका वास्तविक रूप कार्लमाक्स तथा फ्रीडरिश एंजीला के सन् 1848 की विज्ञप्ति में प्रकट हुआ। इसी को, इसी साम्यवाद को "कम्यूनिज्म' कहते हैं। चूंकि कम्यूनिज्म में ईश्वर को कोई स्थान नहीं है इसीलिये कुछ लोगों का विचार है कि जैन साम्यवाद के अधिक निकट हैं। पर इसी विदेशी साम्यवाद के लिये जर्मन कवि हीनरिश हीन (1797-1856) ने लिखा था कि "यह भूख ईर्ष्या तथा मृत्यु का दूत है।" आज की स्थिति में यह बात सत्य से दूर नहीं है। एक अमेरिकन पादरी एफ. डी. हटिंगटन (1819-1904) ने लिखा था कि “साम्यवाद स्वतंत्रता तथा समानता के लिये अंधी भूख है।" एबनेजेर इलियट (1781-1849) नामक ब्रिटिश कवि ने इसे "अपना एक पैसा देकर आपका एक रुपया छीनने वाला" वाद कहा था। आजकल लोग क्या कहते हैं, यह हम देना नहीं चाहते। राजनीति पर हम नहीं लिख महावीर का साम्यवाद इन सभी दोषों से मुक्त है। जब वे कहते हैं कि हर एक में प्राण हैं, जीव है, किसी को कष्ट न दो, सबको अपने समान समझो, "जीओ और जीने दो", "धन का संचय मत करो", "अपरिग्रह धारण करो", "धन देने के लिये है", सम्मृद्धि का अभिमान छोड दो, दान करो, अपना धन बांट दो, मन बचन या कर्म से भी न किसी का कुछ अपहरण . करो, न कष्ट पहचाओ, तब साम्यवाद में और क्या बाकी रहा। दूसरे की सम्पत्ति छीनना ५१ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थायी साम्यवाद है। हिंसक साम्यवाद है। अपनी जिस धर्म में केवल अपने आपको जीतना सबसे सम्पत्ति दूसरों में बाँटकर उपयोग करना अहिंसक बड़ी विजय हो, वह वास्तविक साम्यवादी धर्म है। साम्यवाद है । महावीर कहते हैं : आज के लौकिक साम्यवाद से न कहीं सुख है, न कहीं शान्ति, केवल अशान्ति का एक हाहाकार मचा हुआ है। जहाँ लाहौ तहाँ लोहो लाहा लोहो पवडढई । वह साम्यवाद संघर्षवाद बन गया है। अहिंसा और दो मासकय कज्जं कोडीए वि न निठ्ठियं ।। स्याबाद में श्रद्धा रखने वाला अपहरणकर्ता नहीं हो जैसे लाभ होता है. वैसे लोभ होता है, लाभ से । सकता । भगवत् गीता में वणित समत्व की भावना तथा लोभ बढ़ता है। दो माशे सोने से पूरा होने वाला काम भगवान महावीर का समभाव ही असली साम्यवाद करोड़ से भी पूरा नहीं हुआ। महावीर ने कितना सुन्दर बचन कहा है :वे कहते हैं : निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवो। सुवण्ण रूप्पस्स तु पव्वया भवे, समोयो सब भूएसु तसेसु थावरेसु य ॥ सिया हु कैलास सभा असंख्या । "ममत्व रहित, अहंकार रहित, निर्लेप गौरव को नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि, त्यागने वाला, त्रस और स्थावर सभी जीवों में समभाव इच्छा उ आगास समा अणन्तिया रखने वाला मुनि होता है।" युग का वरदान कदाचित् सोने और चाँदी के कैलाश पर्वत के समान जैन धर्म के मनोयोग, बचनयोग तथा कामयोग के असंख्य पर्वत हो जाये तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ जातको कोई नहीं काट सकता. हठयोग की कोई भी भी नहीं होता, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त क्रिया बिना इन तीन के पूरी नहीं हो सकती। जीव में दो प्रकान के भोग होते हैं--अभिसंधिभोग--जिसमें वह अपने से काम करता है जैसे चलना, उठना, काम करना, पुनः कहा है : तथा दूसरा है अनुभिसंधि योग जो कार्य निद्रा. ध्यान, "धणेण किं धम्मधूराहिगारे।" चिन्तन के समय होता रहता है। जीव का यही चैतधन से धर्म की गाढ़ी कब चलती है। न्यत्व है। जीव अजीव का संभोग, जीव पुद्गल तथा "न ए नित्तासए परम ।" पर्याय के सिद्धान्त, पदार्थ द्वारा कर्म बंधन इनको दूसरों को त्रस्त मत करो। वैज्ञानिक रूप से भी जिसने समझने की चेष्टा की, वह इस "सत्य" की गरिमा को स्वीकार करेगा, चाहे वह महावीर के अनुसार : किसी धर्म के सम्बन्ध में भी विवेचन करे। जैन दर्शन ने दुष्कर्म का विचार उठाना भी पाप और बन्धन का सले कामी विसे कामा आसी विसोवमा । कारण बतलाया है। आज का न्याय शास्त्र "विचार कामे पत्थेमाणा अकामा जन्ति दो गई । या नीयत" पर बहुत जोर देता है । बौद्ध धर्म में "काम भोग शल्य हैं, विष हैं और आशी विष सर्प "गुप्त गुण" कहा गया है जिसमें कि मनुष्य बिना किसी के तुल्य है। काम-भोग की इच्छा करने वाले, उनका की जानकारी के सद्विचार रखता है और उसका पालन सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त करते हैं।" करता है। ५२ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म के सदाचार में सद्विचार परम "महावीर के उपदेश एक उस विजयी आत्मा के आवश्यक है। महावीर ने पर्याय की, द्रव्य की पुद्गल विजय गान के समान हैं जिसने इसी संसार में छुटकारा की जो व्याख्या की है तथा जीव-अजीव, जीव तथा स्वतंत्रता तथा मुक्ति प्राप्त कर ली है--उनके आदेश पदार्थ की जिस मिलीजुली सत्ता का विवेचन किया है, हर एक के लिये अनिवार्य नहीं हैं। जो बिना उनको स्वीउसी को दूसरे शब्दों में तपस्वी अरविन्द घोष ने भी कार किये भी अनुभव से ज्ञान प्राप्त किये बिना ही उस स्वीकार किया है। मार्ग पर चलने लगते हैं, वे भी अपनी आत्मा की एक स्वरिता नष्ट होने से और उसके गन्दला होने के भय जैन धर्म की प्राचीनता के बारे में अब कोई विवाद से वच जाते हैं।" भी नहीं रहा। जैकोबी के अनुसार पार्श्व ऐतिहासिक डा. फैलिक्स वाल्वो लिखते हैं :-- सत्य हैं / लेखक कीथ के अनुसार पार्श्व का जन्म ईसापूर्व 740 में हुआ था। जैन महापुराण (उत्तर __ "बिना किसी शंका या सन्देह के, निश्चय पूर्वक पुराण, पर्व 74, पृष्ठ 462) के अनुसार पाश्वे महावीर महावीर अपने ही उदाहरण से यह दिखला देते हैं कि के पूर्व 23वें तीर्थकर थे / पार्श्व के शिष्य श्री कुमार मानव के मस्तिष्क को किस प्रकार संयम में लाया जा ने महावीर के पिता को जैन धर्म की दीक्षा दी थी / सकता है और उस पर ऐसा अनुशासन हो सकता है डा. बाथम ने पार्श्व द्वारा जैन धर्म के प्रचार का वर्णन कि एक ही जीवन में उच्चतम बौद्धिक तथा आध्यात्मिक किया है। डा. ग्लसेनेप ने अपने ग्रंथ में लिखा है कि सीमा पर पहुंच जाय।" बौद्ध धर्म के बहुत पहले से जैन धर्म भारत में प्रचलित था। उत्तर पुराण (74/2) के अनुसार इनके वाल्य काल में ही वर्धमान का दर्शन कर उनके तेज को देखकर महावीर ने पुरानी श्रमण परम्परा को और जाग- संजय तथा विजय नामक दो तपस्वियों ने उनका नाम रूक और परिपक्व किया है। डा. अलफ्रेड पार्कर के "सन्मति" रखा था। महावीर कलियुग के वरदान हैं। शब्दों में : हम उनसे "सन्मति" की याचना करते हैं / "महावीर के विचार-मानव कर्त्तव्य शास्त्र की उच्चतम अभिव्यक्ति हैं / अहिंसा का महान नियम, सबसे बलवान मौलिक सिद्धान्त है जिसके आधार पर मानव मात्र के कल्याण के लिये एक नैतिक जगत की रचना हो सकती है।" आज मनुष्य पुनः विचार करने लगा है कि आत्मचिन्तन तथा एकान्त में स्वरूप लक्षण कितना आवश्यक है। बिना आत्म-चिन्तन हम असली तत्व तक नहीं पहुँच सकते / स्वामी सत्यानन्द सरस्वती ने सन् 1975 में ही प्रकाशित अपनी पुस्तक में लिखा है कि बिना आत्मचिन्तन के आत्म ज्ञान नहीं ही सकता। पूरी मीमांसा के साथ जैन मत यही कहता है / इतालियन विद्वान डा. अलबर्टी पोगी लिखते हैं: -