Book Title: Mahavir ka Kevalgyan Sthal
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/229178/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का केवलज्ञान स्थल एक पुनर्विचार वर्तमान में महावीर के केवलज्ञान स्थल के रूप में सम्मेदशिखर और गिरिडीह के बीच तथा पालगंज के समीप 'बाराकर' को महावीर का केवलज्ञान स्थल माना जाता हैं। यद्यपि पालगंज पुरातात्त्विक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण स्थल है। वहां पालकालीन (लगभग १०वीं शताब्दी का) मन्दिर भी है। उसी को लक्ष्य में रखकर सम्भवत: वर्तमान सम्मेतशिखर को २० तीथंकरों के निर्वाण स्थल के रूप में तथा बाराकर को महावीर के केवलज्ञान स्थल के रूप में लगभग १६वीं शताब्दी में मान्यता दी गई। मेरी दृष्टि में वर्तमान में जिसे श्वेताम्बर परम्परा महावीर का जन्मस्थल मान रही है, वह वस्तुत: महावीर का केवलज्ञान स्थल ही हैं। जैसा मैंने अपने आलेख 'भगवान महावीर का जन्म स्थल : एक पुनर्विचार' में इंगित किया है कि उस स्थल पर ई. सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में भी कोई स्मारक रहा था और यह बहत कुछ सम्भव है कि वह स्मारक महावीर के केवलज्ञान प्राप्ति स्थल की स्मृति में ही बनाया गया हो। वर्तमान में 'बाराकर' को जो महावीर का केवलज्ञान स्थल माना जाता है, वहां १६-१७ शताब्दी से प्राचीन कोई पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होते। जबकि जमई क्षेत्र के अन्तर्गत लछवाड़ के समीपवर्ती क्षेत्र में कम से कम ई. सन के प्रारम्भिक शताब्दियों के पुरातात्त्विक प्रमाण विशेष रूप से ईंट आदि स्वंय लेखक ने देखे हैं। आगमों में विशेष रूप से आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध एवं कल्पसूत्र मैं महावीर के केवलज्ञान प्राप्ति का जो सन्दर्भ उपस्थित है उसमें कहा गया है कि "जंभियग्राम नगर के बाहर ऋजुवालिका के उत्तरी किनारे पर शामकगाथापति के काष्टकरण (काष्टसंग्रह क्षेत्र) में 'वेयावत्त' नामक चैत्य के उत्तर-पूर्व दिशा भाग में न अति दूर और न अति निकट शालवृक्ष के नीचे उकडू होकर गोदुहासन से सूर्य की आतापना लेते हुए उर्ध्वजानु अधोसिर धर्म-ध्यान में निरत ध्यान कोष्टक को प्राप्त शुक्ल ध्यान के अन्तर्गत वर्तमान वर्धमान को निवृत्ति दिलाने वाला प्रतिपूर्ण अव्याहत निरावरण अनन्त, अनुत्तर, श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ। सामान्यतया विद्वानों ने यहां यह मान लिया है कि भगवान महावीर को जंभियग्राम के निकट ऋजुवालिका नदी के उत्तरी किनारे पर शामकगाथापति के खेत में Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ सालवृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने इसमें बहिया और कठ्ठकरणंसी जैसे शब्दों की ओर ध्यान नहीं दिया है। वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा जिसे महावीर का जन्म स्थल मान रही है वह कच्चे मार्ग से वर्तमान जमुई से ७-८ कि.मी. से अधिक दूर नहीं है। इस मार्ग में ऊलाही नदी को दो-तीन बार पार करते हुए जाना पड़ता है। किन्तु यह मार्ग वस्तुत: मोटर, गाड़ियों आदि के लिए नहीं है। वैसे यदि नदी के किनारे-किनारे खेतों में से यात्रा की जाय तो मेरी दृष्टि में यह मार्ग लगभग ७ कि.मी. से अधिक नहीं है। लेखक ने स्वयं कच्चे मार्ग से कार से इस क्षेत्र की यात्रा की है। यदि हम जंभियगाम को आधुनिक जमुई ही मानें तो भी यह स्थान वहां से एक पहाड़ को पार करनेपर ७-८ कि.मी. से अधिक नहीं रह जाता हैं। मेरी दृष्टि में 'बहिया' का अर्थ अति निकट न समझ कर जंभियग्राम का बाह्य क्षेत्र समझना चाहिए। आज भी सामान्य रूप से किसी भी नगर के ८-१० कि.मी. के क्षेत्र को भी उसी नगर का बाह्य भाग माना जाता है। यहां यह भी स्मरण रखना चाहिए कि सामान्यतया भगवान महावीर अपने साधनाकाल में किसी भी बड़े नगर के अति निकट नहीं रहते थे। ‘कठुकरण' शब्द का जो कृषि भूमि या खेत अर्थ लगाया जाता है वह मेरी दृष्टि में उचित नहीं हैं। 'कठ्ठकरण' का अर्थ जंगल या काष्ट संग्रह करने का क्षेत्र ऐसा होता है, कृषि क्षेत्र नहीं होता। पुनः शामक को सामान्य गृहस्थ या कृषक न मानकर गाथापति कहा गया है। गाथापति सामान्यतया नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति को ही कहा जाता है। वस्तुत: भगवान महावीर केवलज्ञान प्राप्ति के पूर्व शामक गाथापति के वन क्षेत्र में साधना हेतु स्थित थे। अतः महावीर का केवलज्ञान स्थल वस्तुत: ऋजुवालिका नदी के उत्तरी किनारे का शामक गाथापति का वन क्षेत्र ही था न कि कोई खेत। पुनः वहां सालवृक्षों के होने का तात्पर्य भी यही है कि वह सालवृक्षों का वन रहा होगा। अत: महावीर के केवलज्ञान स्थल को जंभिय (वर्तमान जमुई) के ऋजुवालिका नदी के (उलाई) उत्तरी किनारे का वन क्षेत्र समझना चाहिए। लेखक ने लगभग १५ वर्ष पूर्व जब इस क्षेत्र की यात्रा की थी तब भी यह क्षेत्र तीन ओर से पहाड़ियों से घिरा हआ वन क्षेत्र ही था। उसके अतिनिकट लेखक को किसी ग्राम आदि की उपस्थिति नहीं मिली। यदि हम 'बहिया' का अर्थ नगर का बाह्य भाग मानें तथा उस स्थल को ऋज्वालिका नदी के उत्तर किनारे पर स्थित वन क्षेत्र के रूप में स्वीकार करें तो भगवान महावीर का केवलज्ञान स्थल वही सिद्ध होता है, जिसे आज श्वेताम्बर समाज महावीर का जन्म स्थल मान रहा है। आगम में केवलज्ञान स्थल को जम्भिय ग्राम नगर का बहिर्भाग (बाहिया) कहा गया है। सामान्यतया 'बहिया' या बहिर्भाग का अर्थ निकटस्थ स्थल माना Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का केवलज्ञान स्थल : एक पुनर्विचार : ३९ जाता है किन्तु आगमों के अनुसार उस काल में २०-२५ किलोमीटर दूर स्थित स्थलों को भी उस नगर का बहिर्भाग ही माना जाता था, उदाहरणार्थ- नालन्दा को भी राजगृह का बहिर्भाग ( तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तर पुरत्थिमे दिसीभाए एत्थणं नालन्दा नामं ज्ञातासूत्र अध्याय ७ का प्रारम्भिक सूत्र ) कहा गया है जबकि नालन्दा और राजगृह के बीच की दूरी लगभग २० किलोमीटर है। अतः वर्तमान लछवाड़ की जमुई ( जम्भिय) का बाह्य विभाग माना जा सकता है। इस सम्बन्ध में कोई भी विप्रतिपत्ति नहीं है। - वर्तमान में महावीर के जन्म स्थान के रूप में मान्य 'लछवाड़' महावीर का कैवल्य प्राप्ति का स्थान है इसकी पुष्टि अन्य तथ्यों से भी होती है। प्रथमतः इसके समीप बहने वाली 'ऊलाई' नामक नदी 'उजुवालिया' का ही अपभ्रंश रूप है। क्योंकि प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से उजुवालिया का उलाई रूप सम्भव है। सर्वप्रथम लोप के नियमानुसार 'ज' का लोप होने पर और व का उ होने पर तथा तीनों ह्रस्व उ का ऊ होने पर ऊलिया रूप होगा, इसमें भी ऊ+ल+इ+य+आ (ऊलइया) में इ+य का दीर्घ ई होकर आ का स्थान परिवर्तन होकर ल के साथ संयोग होने से ‘ऊलाई' रूप बनता है । पुनः संस्कृत के कुछ ग्रन्थों में उजुवालिया (ऋजुवालिका) के स्थान पर ऋजुकूला रूप भी मिलता है। प्राकृत के नियमों के '' अनुसार ॠ का उ, मध्यवर्ती ज का लोप होने पर जु का उ और मध्यवर्ती क का लोप होने पर कू का ऊ उस प्रकार उ+उ+ऊ+ला में दोनों ह्रस्व उ का दीर्घ ऊ में समावेश होकर ऊला रूप बनता है, जिसमें मुख सुविधा हेतु ई का आगम होकर ऊलाई रूप बनता है । ज्ञातव्य है कि यही नदी अन्य जलधाराओं से मिलती हुई आगे चलकर जमुई के आसपास क्यूल के नाम से जानी जाती है, यह भी कूल का अपभ्रंश रूप लगता है। इससे यह सिद्ध होता है - ऊलाई जो जमुई नगर से आगे चलकर क्यूल के नाम से जानी जाती है ऋजुवालिका अथवा ऋजुकूला का ही अपभ्रंश रूप है। अतः नदी के नाम की दृष्टि से भी महावीर का केवल ज्ञान स्थल वर्तमान लछवाड़ ही है। लछुवाड़ नाम भी लिच्छवी वाटक अर्थात् लिच्छवी का मार्ग या लक्ष्यवाट अर्थात् लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग ऐसा सिद्ध करता है। चूंकि इस प्रकार लिच्छवी महावीर का ज्ञान प्राप्ति या लक्ष्य प्राप्ति का स्थल होने से ही यह स्थल लछुवाड़ कहलाया होगा, इस सम्भावना को पूर्णतः निरस्त नहीं किया जा सकता है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 इस स्थान पर तीर्थ स्थापन नहीं होने का कारण भी स्पष्ट है। चूंकि आज भी यह स्थान निर्जन है उस काल में तो यह इससे भी अधिक निर्जन रहा होगा, फिर सन्ध्याकाल होते होते वहाँ कोई उपदेश सुनने को उपलब्ध हो, यह भी सम्भव नहीं था। साथ ही इस क्षेत्र में महावीर के परिचितजनों का भी अभाव था, अत: भगवान महावीर ने यह निर्णय किया होगा कि जहाँ उनके ज्ञातीजन या परिचितजन रहते हों ऐसी मध्यमा अपापापुरी (पावापुरी) में जाकर प्रथम उपदेश देना उचित होगा। ज्ञातव्य है कि आगमिक व्याख्याओं में लछुवाड़ से मध्यदेश में स्थित मल्लों की राजधानी पावा की दूरी 12 योजन बताई गई है, जो लगभग सही प्रतीत होती है। वर्तमान में भी लछुवाड़ से उसमानपुर-वीरभारी के निकटवर्ती स्थल को पावा मानने पर ऋजु या सीधे मार्ग से वह दूरी लगभग 190 किलोमीटर होती है। 15 किलोमीटर का एक योजन मानने पर यह दूरी 180 किलोमीटर होती है। ज्ञातव्य है जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश में एक योजन 9.09 मील के बराबर बताया गया है। इस आधार पर 1 योजन लगभग 15 किलोमीटर का होता है। मानचित्र में हमने इसे स्केल से मापकर भी देखा है जो लगभग सही है। इस प्रकार हमारी दृष्टि में महावीर का केवलज्ञान प्राप्ति का स्थल जमुई के निकटवर्ती क्षेत्र लछवाड़ ही है, वर्तमान बाराकर और जामू नहीं है।