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ललितविस्तर ( मूलपाठ )
लिपिशालासंदर्शनपरिवर्तः
देवदेवो हातिदेवः सर्वदेवोत्तमो विभुः । असमश्च विशिष्टश्च लोकेष्वप्रतिपुद्गलः ||९|| अस्यैव त्वनुभावेन प्रज्ञोपाये विशेषतः । शिक्षितं शिष्ययिष्यामि सर्वलोकपरायणम् ॥१०॥
इति हि भिक्षवो दश दारकसहस्राणि बोधिसत्त्वेन सार्धं लिपि शिष्यन्ते स्म । तत्र बोधिसत्त्वाधिस्थानेन तेषां दारकाणां मातृकां वाचयतां यदा अकारं परिकीर्तयन्ति स्म, तदा अनित्यः सर्वसंस्कारशब्दो निश्चरति स्म । आकारे परिकीर्त्यमाने आत्मपरहितशब्दो निश्चरति स्म । इकारे इन्द्रियवैकल्यशब्दः । ईकारे ईतिबहुलं जगदिति । उकारे उपद्रवबहुलं जगदिति । ऊकारे ऊनसत्त्वं जगदिति । एकारे एषणासमुत्थानदोषशब्दः । ऐकारे ऐर्यापथः श्रेयानिति । ओकारे ओघोत्तरशब्द: । औकारे औपपादुकशब्दः । अंकारे अमोघोत्पत्तिशब्दः । अःकारे अस्तंगमनशब्दो निश्चरति स्म । ककारे कर्मविपाकावतारशब्दः । खकारे खसम सर्वधर्मशब्दः । गकारे गम्भीरधर्मप्रतीत्यसमुत्पादावतारशब्दः । घकारे घनपटलाविद्यामोहान्धकारविधमनशब्दः । ङकारेऽङ्गविशुद्धिशब्दः । चकारे चतुरार्यसत्यशब्दः । छकारे छन्दरागप्रहाणशब्दः । जकारे जरामरणसमतिक्रमणशब्दः । झकारे झषध्वज बैलनिग्रहणशब्दः । अकारे ज्ञापनशब्दः । टकारे पटोपच्छेदनशब्दः । ठकारे ठपनीयप्रश्नशब्दः । डकारे डमरमारनिग्रहणशब्दः | ढकारे मीढविषया इति । णकारे रेणुक्लेशा इति । तकारे तथतासंभेदशब्दः । थकारे थामबलवेगवैशारद्यशब्दः । दकारे दानदमसंयमसौरभ्यशब्दः । धकारे धनमार्याणां सप्तविधमिति । नकारे नामरूपपरिज्ञाशब्दः । भकारे भवविभवशब्दः । फकारे फलप्राप्तिसाक्षात्क्रियाशब्दः । बकारे बन्धनमोक्षशब्दः । भकारे भवविभावशब्दः । मकारे मदमानोपशमनशब्दः ।
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अनुसंधान-१६ • 218 यकारे 'यथावद्धर्मप्रतिवेधशब्दः। रकारे रत्यरतिपरमार्थरतिशब्दः । लकारे लताछेदनशब्दः । वकारे वरयानशब्दः । शकारे शमथविपश्यनाशब्दः । षकारे षडायतननिग्रहणाभिज्ञज्ञानावाप्तिशब्दः । सकारे सर्वज्ञज्ञानाभिसंबोधनशब्दः । हकारे हतक्लेशविरागशब्दः । क्षकारे परिकीर्त्यमाने क्षणपर्यन्ताभिलाध्यसर्वधर्मशब्दो निश्चरति स्म ॥
इति हि भिक्षवस्तेषां दारकाणां मातृकां वाचयतां बोधिसत्त्वानुभावेनैव प्रमुखान्यसंख्येयानि धर्ममुखशतसहस्राणि निश्चरन्ति स्म ।।
तदानुपूर्वेण बोधिसत्त्वेन लिपिशालास्थितेन द्वात्रिंशद्दारकसहस्राणि परिपाचितान्यभूवन् । अनुत्तरायां सम्यक्संबोधौ चित्तान्युत्पादितानि द्वात्रिंशद्दारिकासहस्राणि । अयं हेतुरयं प्रत्ययो यच्छिक्षितोऽपि बोधिसत्त्वो लिपिशालामुपागच्छति स्म ॥
१. R प्रज्ञोपायं. २. R शिक्षयिष्यामि. ३. R "वैपुल्य' for "वैकल्य'. ४. R ऐरपथः for ऐर्यापथः. ५. R ध्वजवर' for "ध्वजबल'. ६. R तथासंभेद for तथता”. ७. R परिज्ञान' for परिज्ञा. ८. R भवतिभव for भवविभव'. ९. R प्रतिषेध for “प्रतिवेध'. १०. R. निग्रहषडभिज्ञ for "निग्रहणाभिज्ञ". ११. "भिलाष' for "भिलाप्य'.
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ललितविस्तर (अनुवाद)
डो. प्रीतम सिंघवी
'बारहक्खर कक्क' में हमारे प्रास्ताविक वक्तव्य में हमने मातृका अथवा तो बारहखडी को लेकर जो कुछ रचनाएं मध्यकालीन साहित्य में की गई थी उनका परिचय दिया है।
सरहपाद के अपभ्रंश भाषा में रचित 'मातृका-प्रथमाक्षर दोहक'का परिचय अनुसंधान के १२ वें अंक में दिया गया है (पृष्ठ ६३-६६) । वह रचना अपभ्रंश भाषामें है। यहाँ पर बौद्ध ग्रंथ ललितविस्तर में बोधिसत्त्व शाला में मातृका पढ़ने लगे इसका जो वर्णन दिया गया है वह शायद सबसे प्राचीन है। यह वर्णन बौद्ध मिश्र संस्कृत में हैं।
नीचे उसका अनुवाद दिया जा रहा है ।
बोधिसत्त्व के साथ दस हजार बालक लिपि सिखते थे। जब वे मातृका पढते थे तब -
जब वे अकार का उच्चारण करते थे तब सर्व संस्कार अनित्य है, ऐसा वचन निकलता था ।
जब आकार का उच्चारण करते थे तब आत्महित और परहित हो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब इकार का उच्चारण करते थे तब इन्द्रियों (आध्यात्मिक शक्तियों) की विपुलता हो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब ईकार का उच्चारण करते थे तब जगत् ईतिबहुल (संकटबहुल) है, ऐसा वचन निकलता था । .
जब उकार का उच्चारण करते थे तब जगत् उपद्रवबहुल है, ऐसा वचन निकलता था ।
जब ऊकार का उच्चारण करते थे तब जगत् ऊनसत्त्व (जगत् कम
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अनुसंधान - १६•220
अच्छाई वाला) है, ऐसा वचन निकलता था ।
जब एकार का उच्चारण करते थे तब सभी दोष एषणा (कामना) से उत्पन्न होते हैं, ऐसा वचन निकलता था ।
जब ऐकार का उच्चारण करते थे तब ऐर्यापथ (क्लेश रहित क्रियामार्ग) श्रेष्ठ है, ऐसा वचन निकलता था ।
जब ओकार का उच्चारण करते थे तब ओघोत्तर (संसार प्रवाह से उपर उठो, उस को पार करो ), ऐसा वचन निकलता था ।
जब औकार का उच्चारण करते थे तब औपपादुक सत्त्व है (जिसकी उत्पत्ति रज और वीर्य से नहीं होती ऐसे जीव है), ऐसा वचन निकलता था । जब अंकार का उच्चारण करते थे तब अमोघ शक्ति (जो कभी विफल नहीं होती, निकम्मी नहीं होती) की उत्पत्ति हो, ऐसा वचन निकलता था । जब अःकार का उच्चारण करते थे तब सर्व अन्त को पाता है, ऐसा वचन निकलता था ।
जब ककार का उच्चारण करते थे तब कर्म के फल सत्त्व (जीव) को प्राप्त होता है, ऐसा वचन निकलता था ।
जब खकार का उच्चारण करते थे तब सर्व धर्म आकाश की तरह शून्य है, ऐसा वचन निकलता था ।
जब गकार का उच्चारण करते थे तब धर्मों का प्रतीत्य समुत्पाद (धर्मों का कार्यकारणभाव) समझना कठिन है, गंभीर है, ऐसा वचन निकलता था । जब घकार का उच्चारण करते थे तब मोहान्धकार के घनपटल को हटाओं, ऐसा वचन निकलता था ।
जब ङकार का उच्चारण करते थे तब अंगविशुद्धि करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब चकार का उच्चारण करते थे तब चार आर्य सत्य है, ऐसा वचन निकलता था ।
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अनुसंधान-१६ • 221 जब छकार का उच्चारण करते थे तब छन्द (इच्छ, तृष्णा) और राग का नाश करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब जकार का उच्चारण करते थे तब जरा और मरण का अतिक्रमण करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब झकार का उच्चारण करते थे तब झषध्वज (=मीनकेतु =कामदेव) के बल का निग्रह करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब अकार का उच्चारण करते थे तब ज्ञान कराओ या देना चाहिये, ऐसा वचन निकलता था ।
जब टकार का उच्चारण करते थे तब पट का (आवरण का) उच्छेद करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब ठकार का उच्चारण करते थे तब ठपनीय (स्थापनीय प्रश्न यानी जिस प्रश्न को बाजू पर कर देना उसका उत्तर नहीं देने का) प्रश्न होते हैं, ऐसा वचन निकलता था ।
जब डकार का उच्चारण करते थे तब डमर (प्रबल) मार का निग्रह करो, ऐसा वचन निकलता था ।
- जब ढकार का उच्चारण करते थे तब मीढ (छेडा हुआ) जिसने विषयों को छोड़ दिया है ऐसे पुरुष हैं, ऐसा वचन निकलता था ।
जब णकार का उच्चारण करते थे तब क्लेशरूपी रेणु (रज) है यानी ऐसे पुरुष है जिनको क्लेशरूपी रज लगी हुई है, ऐसा वचन निकलता था।
जब तकार का उच्चारण करते थे तब तथता (सत्य को पूरा पूरा) को जानो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब थकार का उच्चारण करते थे तब थामबल (आरब्ध की दृढता) और वेग तथा वैशारद (शुद्धता) प्राप्त करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब दकार का उच्चारण करते थे तब दान, दम, सौरभ्यता प्राप्त करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब धकार का उच्चारण करते थे तब आर्यों के सात प्रकार के धन 24
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अनुसंधान-१६ • 222 प्राप्त करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब नकार का उच्चारण करते थे तब नाम और रूप का अच्छा ज्ञान प्राप्त करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब पकार का उच्चारण करते थे तब परमार्थ है, ऐसा वचन निकलता था ।
जब फकार का उच्चारण करते थे तब फल प्राप्ति और साक्षात्कार क्रिया करो, ऐसा वचन निकलता था । ....... जब बकार का उच्चारण करते थे तब बन्धन से मुक्ति हो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब भकार का उच्चारण करते थे तब भव का नाश करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब मकार का उच्चारण करते थे तब मद, मान दोनों का उपशम करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब यकार का उच्चारण करते थे तब यथावत् धर्म (वस्तु जैसी है वैसी बराबर) को जानो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब रकार का उच्चारण करते थे तब रति (सत कर्मों में आसक्ति) अरति (दुष्कर्मों में अनासक्ति) और परमार्थ रति (रति में आसक्ति) को समझो या करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब लकार का उच्चारण करते थे तब संसाररूपी लता का छेदन करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब वकार का उच्चारण करते थे तब श्रेष्ठ यान (धर्म मार्ग) ग्रहण करो, ऐसा वचन निकलता था ।
जब शकार का उच्चारण करते थे तब शमथयान (समाधि मार्ग) और विपश्यना में क्रमश: प्रवेश करो । ऐसा वचन निकलता था ।
जब धकार का उच्चारण करते थे तब षडायतन (पाँच इन्द्रिय और मन) का निग्रह करो, और छ अभिज्ञज्ञान (अलौकिक ज्ञान) है उनकी प्राप्ति करो, ऐसा
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________________ अनुसंधान-१६. 223 वचन निकलता था / जब सकार का उच्चारण करते थे तब सर्वज्ञज्ञान का पूर्णरूप से सम्यक् बोध करो, प्राप्त करो, ऐसा वचन निकलता था / जब हकार का उच्चारण करते थे तब क्लेश और विशेष राग का नाश करो, ऐसा वचन निकलता था / जब क्षकार का उच्चारण करते थे तब क्षणपर्यन्त (क्षणिक) और अभिलाप्य (वाच्य) है सर्व धर्म, ऐसा वचन निकलता था / इस तरह भिक्षुओं बालकों को मातृका का पठन करने का सिखाते थे तब बोधिसत्त्व के प्रभाव से असंख्य या तो लाखों धर्मतत्त्व के शब्द निकलते थे / ऐसे जब बोधिसत्त्व लिपिशाला में थे तब बत्तीस हजार बालक परिपक्व हो गए / इस तरह बत्तीस हजार बालकों के चित्त में सर्वोत्तम सम्यक् सम्बोधि का ज्ञान उत्पन्न किया / इस कारण से और इस उद्देश्य से बोधिसत्त्व शिक्षित होने पर भी लिपिशाला में गए / (कुछ कठिन परिभाषिक शब्दों के अर्थ करने के लिये डो. नगीनभाई शाहने सहाय दी है। इसके लिये मैं उनकी आभारी हूँ / )