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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
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MAMA
कुंडलिनी योग - जैन दृष्टि में
पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह [अहमदाबाद ]
सिद्धियों का उपयोग अच्छे कार्यों के लिए किया जाता है इसलिये महापुरुष पहले प्रार्थना, उपासना या ध्यान द्वारा परमतत्त्वों की साधना करते हैं, और उसके बाद योग प्रक्रिया में प्रवेश करते हैं ।
योग से मिट्टी का मानव वज्र जैसा बनता है। सागर की लहरों जैसी उनकी संकल्प शक्ति किसी पर्वत के खडक जैसी दृढ़ बनती है। काम करने के प्रचंड स्रोत की आवाज हृदय में गूंज उठती है और पामर आदमी को भी सिंह का सामर्थ्य देकर अमर बना देती है। जीवन उसका चरण किंकर और मृत्यु उसकी दासी बन जाता है। ऐसी महाशक्ति कुंडलिनी योग द्वारा प्राप्त होती है। वह योग गुरुगम से ही प्राप्त हो सकता है। इस विषय में यहाँ जैन दृष्टि से लिख रहा हूँ ।
इस भूमंडल का आधार जैसे मेरु पर्वत है इसी प्रकार इस मानव शरीर का आधार मेरुदंड या करोहर है।
मेरुदंड तेतीस अस्थिखंडों से बना हुआ है। अन्दर से वह रिक्त है । उसके नीचे का छोटा है। इस स्थान के पास का भाग कंद कहलाता है और उस कंद में महाशक्ति की प्रतिमूर्ति स्थान है, ऐसा माना जाता है ।
मानव शरीर में मेरुदंड की दोनों ओर इड़ा और पिंगला नाम की नाड़ियाँ हैं । इन दोनों नाड़ियों के बीच अत्यन्त सूक्ष्म एक नाड़ी है जिसे सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। इस नाड़ी के नीचे के भाग में चार पत्र वाला त्रिकोणाकार कमल है। इस कमल पर सर्पाकार वाली कुंडलिनी शक्ति की अवस्थिति है ।
गुदा और लिंग के बीच निम्न मुखवाला योनिमंडल है जिसे कंदस्थान भी कहते हैं। उस कंद स्थान में कुंडलिनी महाशक्ति सभी नाड़ियों को आवृत करके साढ़े तीन आंटे लगाकर, अपनी पूंछ अपने मुँह में रखकर सुषुम्ना नाड़ी के छिद्र को अवरुद्ध कर सर्प की तरह निद्रावस्था में पड़ी हुई है, तो भी वह अपने तेज से स्वयं देदीप्यमान है । वह सर्प की तरह संधिस्थान में गाढ़ निद्रा में पड़ी रहती है। उसे यौगिक प्रक्रिया से जागृत किया जा सकता है। वस्तुतः कुंडलिनी वाणी का कारणस्वरूप वाग्देवी है ।
उपर्युक्त कंद और कुंडलिनी के विषय में विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत प्रदर्शित किये हैं ।
भाग नोकदार और कुंडलिनी का निवास
एक मत जिसका ऊपर निरूपण किया है उसके मुताबिक दूसरे मत के अनुसार कंद की स्थिति नाभि के समीप मानी गयी है। पास स्थित है। तीसरा मत एक पाश्चात्य अनुभवी विद्वान का है, पास है ।
कंद मूलाधार चक्र के समीप ही अवस्थित है, जबकि इस मत के अनुसार कुंडलिनी भी नाभि प्रदेश के वह कहता है कि कुंडलिनी अनाहत (हृदय) चक्र के
स्वामी विवेकानन्द ने कुंडलिनी के विषय में 'राजयोग' नामक पुस्तक में कहा है कि जिस के मनोभाव संगृहीत रहते हैं उसे मूलाधार चक्र कहते हैं और कमों की जो शक्ति कुंडलित रहती है। के कारण कुंडलिनी कही जाती है ।
कुंडलिनी के विषय में जैनेतर विद्वानों ने बहुत अधिक लिखा है। जैनाचार्यों ने भी कई रचनाओं में इस विषय में अपने उपयोगी विचार प्रकट किये हैं ।
श्री वप्पभट्टिमूरि (वीं शताब्दी) की 'सरस्वतीमन्त्रकल्पस्तोत्र' ( प १२ आदिपदकात् कुण्डलिनी)
केन्द्र में सब जीवों यह कुंडलित होने
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कुंडलिनी योग-जैन दृष्टि में
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रचना मानी जाती है। यह कंडलिनी के विषय में जैनाचार्यों में सर्वप्रथम प्रकाश डालती है, ऐसा मालूम देता है। उन आचार्यश्री ने सरस्वती की साधना की थी, ऐसा उनके चरित में बताया गया है।
श्री हेमचन्द्राचार्य (१३वीं शताब्दी) ने जो 'योगशास्त्र' की रचना की है उसमें सप्तम और अष्टम प्रकाश क्रमशः पिंडस्थ और पदस्थ ध्यान के बारे में हैं, यद्यपि उसमें कुंडलिनी का नाम निर्दिष्ट नहीं है तो भी वे शरीरस्थ चक्रों के विषय में अच्छा वर्णन देते हैं जो कुंडलिनी के अनुरूप हैं। श्री हेमचन्द्राचार्य ने भी सरस्वती की साधना की थी।
जिस स्तोत्र के कर्ता और रचनाकाल ज्ञात नहीं हो सका है वह 'चउव्विहज्झाणथुत्त' (नमस्कार स्वाध्याय, प्राकृत विभाग, पृ० ३९६) है, यह किसी जैनाचार्य की रचना है। यह १२ पद्यों का प्राकृत भाषा में स्तोत्र है, इसमें कुंडलिनी के १० चक्रों का निरूपण किया गया है।
श्री बालचन्द्र सूरि (१३वीं शती) द्वारा रचे हुए महामात्य बस्तुपाल विषयक 'वसन्तविलास महाकाव्य' (सर्ग १, श्लो० ७०, ७३) और 'उपदेशकन्दली-वृत्ति' (१. १.) में, 'गुणस्थान क्रमारोह' में, श्री जिनहर्षगणिकृत 'रयणसेहरीकथा' (पृ० १०) में, श्री मुनिसुन्दरसूरि (१५वीं शती) द्वारा रचे हुए कई स्तोत्रों में और जयमूर्तिगणि की 'अध्यात्मरूपा स्तुति' तथा इसी लेखक की गुजराती भाषा में रची हुई 'माइबावनीकाव्य' में कुंडलिनी विषयक स्पष्ट निर्देश किये हुए देखने में आते हैं। श्री संघतिलक सूरि के शिष्य श्री सोमतिलक सूरि, जिन्होंने लघु पंडित रचित 'त्रिपुराभारतीलघुस्तव' पर टीका रची है, वे तो कुंडलिनी के अठंग अभ्यासी हों, ऐसा प्रतीत होता है।
विशेष स्पष्ट रूप से तो श्री सिंहतिलक सूरि (१४वीं शती) ने अपने 'परमेष्ठि विद्यायन्त्र स्तोत्र' में पद्य ५६ से ७६ में विशद वर्णन किया है। उन्होंने कुंडलिनी नाम देकर शरीरस्थ नव चक्र और उनके दल, वर्ण, स्थान और आकृति के विषय में स्फुट विवेचन किया है। उनके द्वारा किया हुआ वर्णन उल्लेखनीय है ।
नवचक्र १. गुदा के मध्य भाग के पास आधारचक्र । २. लिंगमूल के पास स्वाधिष्ठानचक्र । ३. नाभि के पास मणिपूरचक्र । ४. हृदय के पास अनाहतचक्र । ५. कंठ के पास विशुद्धचक्र । ६. अवान्तर जिह्वा (घंटिका) के पास ललनाचक्र । ७. ललाट में दोनों भ्र कुटियों के पास आज्ञाचक्र । ८. मूर्धा के पास ब्रह्मरन्ध्रचक्र, जिसको सोमचक्र भी कहते हैं। ६. सोमचक्र के ऊर्ध्व भाग (ब्रह्मबिंदुचक्र) में सुषुम्नाचक्र हैं।
इस प्रकार नौ चक्र होते हैं। इसमें कंठ-विशुद्धचक्र तक पाँच चक्र और आज्ञाचक्र छठवां चक्र गिना जाता है। मुख्य छह चक्र माने गये हैं जो जैनेतर विद्वानों में प्रसिद्ध हैं।
चक्रों के दल ये प्रत्येक चक्रकमल के दल-पत्र क्रमश: इस प्रकार हैं : १. मूलाधार के चार पत्र ।
६. ललना के बीस पत्र २. स्वाधिष्ठान के छह पत्र ।
७. आज्ञा के तीन पत्र ३. मणिपूर के दस पत्र
८. ब्रह्मरन्ध्र के सोलह पत्र ४. अनाहत के बारह पत्र
६. ब्रह्मबिंदु के हजार पत्र ५. विशुद्ध के सोलह पत्र
'षट्चक्रनिरूपण' आदि ग्रन्थों में आधारचक्र ४ दल का, स्वाधिष्ठानचक्र ६ दल का, मणिपूरचक्र १० दल का, अनाहतचक्र १२ दल का, विशुद्धचक्र १६ दल का, आज्ञाचक्र २ दल का और सहस्रारचक्र १००० दल का होता है, ऐसा बताया गया है। इन छह चक्रों के अलावा अन्य चक्रों के बारे में कोई निर्देश नहीं है।
चक्र दल के वर्ण (अक्षर) चक्रों की दल संख्या के अनुसार 'अ' वर्ण से लेकर 'ह' और 'क्ष' तक के मातृकाक्षर छह चक्रों में विभाजित किये गये हैं :
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________________ 154 श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड 1. मूलाधार के चार पत्रों में व श ष स / 2. स्वाधिष्ठान के छः पत्रों में ब भ म य र ल / 3. मणिपूर के दश पत्रों में ड ढ ण त थ द ध न प फ / 4. अनाहत के बारह पत्रों में क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ / 5. विशुद्ध के सोलह पत्रों में अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः / 6. आज्ञा के तीन पत्रों में ह क्ष ( ? ल) इस वर्ण विभाग से यह शरीर भारती यंत्र या सरस्वती यंत्र बन जाता है। ब्रह्मबिंदुचक्र जिसे सहस्रारचक्र भी कहते हैं उसमें स्थित मन और शरीर की पाँच इन्द्रियाँ मिलकर यह षट्कोण यंत्र नाम से भी प्रसिद्ध है। नवचक्रों का वर्ण-रंग मूलाधार का रंग रक्त, स्वाधिष्ठान का अरुण, मणिपूर का श्वेत, अनाहत का पीत, विशुद्ध का श्वेत, ललना का रक्त, आज्ञा का रक्त, ब्रह्मरंध्र का रक्त और ब्रह्मबिंदु का श्वेत वर्ण बताया गया है। चक्रों के तत्त मूलाधार का पृथ्वी तत्त्व, स्वाधिष्ठान का जल, मणिपूर का अग्नि, अनाहत का वायु, विशुद्ध का आकाश, और आज्ञा का महातत्त्व बताया गया है। अन्य चक्रों के तत्त्व के बारे में निर्देश नहीं मिलता है। चक्रों के तत्त्वबीज / मूलाधार का लं बीज, स्वाधिष्ठान का वं बीज, मणिपूर का रं बीज, अनाहत का यं बीज, विशुद्ध का हं बीज, आज्ञा का ॐ बीज है, ऐसा कहा है। चक्रों की अधिष्ठायिका देवियाँ मूलाधार की डाकिनी, स्वाधिष्ठान की राकिनी, मणिपूर की लाकिनी, अनाहत की काकिनी, विशुद्ध की शाकिनी, ललना की हाकिनी, और आज्ञा की याकिनी देवियाँ अधिष्ठात्री हैं। ये सभी ज्ञानाधिकार की देवियाँ हैं। चक्र-यंत्र का आकार मूलाधार का आकार चतुष्कोण, स्वाधिष्ठान का चन्द्राकार, मणिपूर का त्रिकोणाकार, अनाहत का षट्कोणाकार, विशुद्ध का गोलाकार, आज्ञा का लिंगाकार, ब्रह्मरन्ध्र का चंद्राकार और ब्रह्मबिन्दु का कमलाकार होता है। ये वर्ण, रंग, तत्त्व, तत्त्वबीज, अधिष्ठात्री देवियाँ और आकार ध्यान करने में उपयोगी हैं। पिंडस्थध्यान के समय की जाने वाली धारणाओं में इन सबकी जरूरत रहती है। मन्त्रबीजों का ध्यान और फल / पदस्थध्यान में मन्त्रबीजों का ध्यान किया जाता है। हरेक चक्र के मन्त्रबीज हैं। मूलाधार का मन्त्रबीज 'ऐं', स्वाधिष्ठान का 'एं ह्रीं क्लीं', मणिपूर का 'श्रीं', अनाहत और विशुद्ध का कोई मन्त्रबीज नहीं बताया है / ललना का 'ह्रीं', आज्ञा का 'ह्रीं क्लीं 'झ्वी' और ब्रह्मरन्ध्र तथा ब्रह्मबिन्दु के मन्त्रबीजों का उल्लेख नहीं है। मूलाधार में 'ऐं' बीज का श्वेतवर्णी ध्यान करने से सरस्वती देवी सिद्ध होती है। इसकी सिद्धि से कवित्व और वक्तृत्व-शक्ति आती है / लेखनधारा अविच्छिन्न गति से रचना करती है। स्वाधिष्ठान में 'ऐं' का ध्यान वशीकरण के लिए होता है। स्वाधिष्ठान में "हीं, क्लीं' और 'एं' का ध्यान वशीकरण का फल देता है। मणिपर में 'श्रीं' का जपाकुसुम जैसा अरुणवर्णी ध्यान वशीकरण और लाभ के लिए किया जाता है। आज्ञाचक्र में 'ह्रीं' और 'क्लीं' का ध्यान वशीकरण का कार्य करता है, और 'श्वीं' के ध्यान से विष और रोग को दूर किया जाता है। अन्त में बताया गया है कि इन मन्त्रबीजों से क्या मतलब जबकि मन्त्रबीजों की झंझट में बिना पड़े इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी में कुंडलिनी शक्ति का ध्यान भुक्ति और मुक्ति देता है। इस तरह यह कुंडलिनी इस लोक में सुख-समृद्धि की प्राप्ति में सहायक बनती है।