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कुंडलिनी योग-जैन दृष्टि में
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रचना मानी जाती है। यह कंडलिनी के विषय में जैनाचार्यों में सर्वप्रथम प्रकाश डालती है, ऐसा मालूम देता है। उन आचार्यश्री ने सरस्वती की साधना की थी, ऐसा उनके चरित में बताया गया है।
श्री हेमचन्द्राचार्य (१३वीं शताब्दी) ने जो 'योगशास्त्र' की रचना की है उसमें सप्तम और अष्टम प्रकाश क्रमशः पिंडस्थ और पदस्थ ध्यान के बारे में हैं, यद्यपि उसमें कुंडलिनी का नाम निर्दिष्ट नहीं है तो भी वे शरीरस्थ चक्रों के विषय में अच्छा वर्णन देते हैं जो कुंडलिनी के अनुरूप हैं। श्री हेमचन्द्राचार्य ने भी सरस्वती की साधना की थी।
जिस स्तोत्र के कर्ता और रचनाकाल ज्ञात नहीं हो सका है वह 'चउव्विहज्झाणथुत्त' (नमस्कार स्वाध्याय, प्राकृत विभाग, पृ० ३९६) है, यह किसी जैनाचार्य की रचना है। यह १२ पद्यों का प्राकृत भाषा में स्तोत्र है, इसमें कुंडलिनी के १० चक्रों का निरूपण किया गया है।
श्री बालचन्द्र सूरि (१३वीं शती) द्वारा रचे हुए महामात्य बस्तुपाल विषयक 'वसन्तविलास महाकाव्य' (सर्ग १, श्लो० ७०, ७३) और 'उपदेशकन्दली-वृत्ति' (१. १.) में, 'गुणस्थान क्रमारोह' में, श्री जिनहर्षगणिकृत 'रयणसेहरीकथा' (पृ० १०) में, श्री मुनिसुन्दरसूरि (१५वीं शती) द्वारा रचे हुए कई स्तोत्रों में और जयमूर्तिगणि की 'अध्यात्मरूपा स्तुति' तथा इसी लेखक की गुजराती भाषा में रची हुई 'माइबावनीकाव्य' में कुंडलिनी विषयक स्पष्ट निर्देश किये हुए देखने में आते हैं। श्री संघतिलक सूरि के शिष्य श्री सोमतिलक सूरि, जिन्होंने लघु पंडित रचित 'त्रिपुराभारतीलघुस्तव' पर टीका रची है, वे तो कुंडलिनी के अठंग अभ्यासी हों, ऐसा प्रतीत होता है।
विशेष स्पष्ट रूप से तो श्री सिंहतिलक सूरि (१४वीं शती) ने अपने 'परमेष्ठि विद्यायन्त्र स्तोत्र' में पद्य ५६ से ७६ में विशद वर्णन किया है। उन्होंने कुंडलिनी नाम देकर शरीरस्थ नव चक्र और उनके दल, वर्ण, स्थान और आकृति के विषय में स्फुट विवेचन किया है। उनके द्वारा किया हुआ वर्णन उल्लेखनीय है ।
नवचक्र १. गुदा के मध्य भाग के पास आधारचक्र । २. लिंगमूल के पास स्वाधिष्ठानचक्र । ३. नाभि के पास मणिपूरचक्र । ४. हृदय के पास अनाहतचक्र । ५. कंठ के पास विशुद्धचक्र । ६. अवान्तर जिह्वा (घंटिका) के पास ललनाचक्र । ७. ललाट में दोनों भ्र कुटियों के पास आज्ञाचक्र । ८. मूर्धा के पास ब्रह्मरन्ध्रचक्र, जिसको सोमचक्र भी कहते हैं। ६. सोमचक्र के ऊर्ध्व भाग (ब्रह्मबिंदुचक्र) में सुषुम्नाचक्र हैं।
इस प्रकार नौ चक्र होते हैं। इसमें कंठ-विशुद्धचक्र तक पाँच चक्र और आज्ञाचक्र छठवां चक्र गिना जाता है। मुख्य छह चक्र माने गये हैं जो जैनेतर विद्वानों में प्रसिद्ध हैं।
चक्रों के दल ये प्रत्येक चक्रकमल के दल-पत्र क्रमश: इस प्रकार हैं : १. मूलाधार के चार पत्र ।
६. ललना के बीस पत्र २. स्वाधिष्ठान के छह पत्र ।
७. आज्ञा के तीन पत्र ३. मणिपूर के दस पत्र
८. ब्रह्मरन्ध्र के सोलह पत्र ४. अनाहत के बारह पत्र
६. ब्रह्मबिंदु के हजार पत्र ५. विशुद्ध के सोलह पत्र
'षट्चक्रनिरूपण' आदि ग्रन्थों में आधारचक्र ४ दल का, स्वाधिष्ठानचक्र ६ दल का, मणिपूरचक्र १० दल का, अनाहतचक्र १२ दल का, विशुद्धचक्र १६ दल का, आज्ञाचक्र २ दल का और सहस्रारचक्र १००० दल का होता है, ऐसा बताया गया है। इन छह चक्रों के अलावा अन्य चक्रों के बारे में कोई निर्देश नहीं है।
चक्र दल के वर्ण (अक्षर) चक्रों की दल संख्या के अनुसार 'अ' वर्ण से लेकर 'ह' और 'क्ष' तक के मातृकाक्षर छह चक्रों में विभाजित किये गये हैं :
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