Book Title: Khajuraho ka Prshwanath Mandir Bramhan evam jain Dharmo ke Samanvay ka Murttrup
Author(s): Maruti Nandan Prasad Tiwari
Publisher: USA Federation of JAINA
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो का पार्श्वनाथ मन्दिर : ब्राह्मण एवं जैन धर्मों के समन्वय का मूर्तरूप डॉ० मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी जैन धर्म में समन्वय का भाव अत्यन्त उदार रहा है। इसी कारण ब्राह्मण धर्म के देवीदेवताओं को जैन देवमण्डल में उदारतापूर्वक सम्मिलित किया गया है। जैन धर्म की ६३ शलाकापुरुषों की सूची में राम, बलराम एवं कृष्ण-वासुदेव के अतिरिक्त रावण एवं जरासंध भी सम्मिलित हैं।' राम और कृष्ण ब्राह्मण धर्म के दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरित्र रहे हैं। जनमानस में इनकी विशेष लोकप्रियता के कारण ही जैन देवमण्डल में इन्हें क्रमशः २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के सम कालीन ८वें बलदेव और २२वें तीर्थङ्कर नेमिनाथ के चचेरे भाई के रूप में ९ वें वासुदेव के रूप में मान्यता मिली।" मथुरा की कुषाणकालीन नेमिनाथ - मूर्तियों में सर्वप्रथम बलराम और कृष्ण का निरूपण हुआ है। मथुरा के अतिरिक्त बलराम और कृष्ण का अंकन देवगढ़ ( मन्दिर - २, १०वीं शती ई०) की नेमिनाथ मूर्तियों में तथा विमलवसही एवं लुणवसही ( १२वीं - १३वीं शती ई०) के वितानों पर देखा जा सकता है । कृष्ण की तुलना में राम का शिल्पांकन लोकप्रिय नहीं था । राम की मूर्तियाँ केवल खजुराहो के पार्श्वनाथ जैन मन्दिर पर ही मिलती हैं । २४ तीर्थङ्करों के शासन देवताओं के रूप में निरूपित यक्ष और यक्षियों में भी अधिकांश ब्राह्मण प्रभाव से युक्त हैं । इनके विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, स्कन्द- कार्त्तिकेय, काली, गौरी, सरस्वती, चामुण्डा के नामों और लक्षणों के प्रभाव देखे जा सकते हैं। ऋषभनाथ के गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी यक्षी तथा श्रेयांसनाथ के ईश्वर यक्ष और गौरी यक्षी इस प्रभाव को पूरी तरह स्पष्ट करते हैं । जैन देवमण्डल में ब्राह्मण देवी-देवताओं के सम्मिलित किए जाने के अन्य कई उदाहरण भी दिए जा सकते हैं । किन्तु यहाँ खजुराहो के पार्श्वनाथ जैन मन्दिर पर आकारित ब्राह्मण देव मूर्तियों का दोनों धर्मों के समन्वय की दृष्टि से अध्ययन ही हमारा अभीष्ट है । मध्य प्रदेश के छत्तरपुर जिले में स्थित खजुराहो, मूर्तियों और मन्दिरों के कारण विश्व प्रसिद्ध है । चन्देल शासकों के संरक्षण में लगभग ९वीं से १२वीं शती ई० के मध्य इस स्थल पर शैव, वैष्णव, शाक्त एवं जैन धर्मों से सम्बन्धित मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण हुआ । खजुराहो के १. पउमचरिय, ५- १४५-५७ । २. राम से सम्बन्धित ग्रन्थों में विमलसूरि कृत पउमचरिय ( ४७३ ई० ) और कृष्ण से सम्बन्धित ग्रन्थों में तीसरी चौथी शती ई० के प्रारम्भिक ग्रन्थों महापुराण एवं हेमचन्द्र कृत त्रिशष्टिशलाका उत्तराध्ययन सूत्र, नायाधम्मकहाओ एवं अंतगड्दसाओ जैसे के अतिरिक्त जिनसेनकृत हरिवंशपुराण ( ७८३ ई० ), पुरुष चरित्र मुख्य हैं । ३. राज्य संग्रहालय, लखनऊ जे. ८, जे. ४७, जे. १२१; मथुरा संग्रहालय, २५०२ । ४. कालियदमन, कंदुकक्रीड़ा, नृसिंहमूर्ति ( विमलवसहो ); कृष्ण जन्म एवं बाललीला के दृश्य ( लूणवसही ) । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो का पार्श्वनाथ मन्दिर : ब्राह्मण एवं जैन धर्मों के समन्वय का मूर्तरूप १४५ जैन मन्दिर पूर्वी समूह के मन्दिरों के अन्तर्गत आते हैं । घण्टई मन्दिर के अतिरिक्त खजुराहो के अन्य सभी प्राचीन और नवीन जैन मन्दिर एक विशाल किन्तु आधुनिक चहारदीवारी के अन्दर स्थित हैं । इस स्थल के नवीन जैन मन्दिर भी प्राचीन मन्दिरों के ध्वंसावशेषों से ही निर्मित हैं । वर्तमान में इस चहारदीवारी के अन्दर कुल ३२ जैन मन्दिर हैं, जिनमें केवल पार्श्वनाथ और आदिनाथ मन्दिर ही अपने मूलरूप में हैं । खजुराहो के जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ मन्दिर प्राचीन और सर्वाधिक सुरक्षित है । स्थापत्यगत योजना एवं मूर्त अलंकरणों की दृष्टि से भी पार्श्वनाथ मन्दिर जैन मन्दिरों में विशालतम एवं सर्वोत्कृष्ट है । पूर्वाभिमुख पार्श्वनाथ मन्दिर के पश्चिमी प्रक्षेप में गर्भगृह के पृष्ठभाग से जुड़ा एक स्वतन्त्र देवालय भी है, जो इस मन्दिर की अभिनव विशेषता है । श्रीकृष्णदेव ने लक्ष्मण मन्दिर (९३०-५० ई०) से समानता के आधार पर पार्श्वनाथ मन्दिर को धंग के शासनकाल के प्रारम्भिक दिनों (९५०-७० ई०) में निर्मित माना है ।' पार्श्वनाथ मन्दिर मूलतः ऋषभनाथ को समर्पित था, जो गर्भगृह को गोमुख चक्रेश्वरी से युक्त मूल प्रतिमा के सिंहासन तथा ललाटबिम्ब पर चक्रेश्वरी के निरूपण से स्पष्ट है | पार्श्वनाथ मन्दिर ब्राह्मण और जैन धर्मों के समन्वय का निःसन्देह मूर्तरूप है। दोनों धर्मों के समन्वय या सहअस्तित्व का इतना स्पष्ट मूर्त उदाहरण हमें अन्य किसी मन्दिर में नहीं मिलता है । इस मन्दिर के विभिन्न भागों पर ब्राह्मण धर्म के देवी-देवताओं तथा काम सम्बन्धी मूर्तियां बनी हैं, जो मन्दिर के निर्माण में ब्राह्मण प्रभाव को पूरी तरह स्पष्ट करती हैं । विष्णु को समर्पित पूर्ववर्ती लक्ष्मण मन्दिर का, स्थापत्य और देव - मूर्तियों की दृष्टि से पार्श्वनाथ मन्दिर पर स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। दोनों मन्दिरों को कृष्णलीला ( यमलार्जुन ) तथा राम-सीता हनुमान और बलरामरेवती की मूर्तियां समान विवरणों वाली हैं। पार्श्वनाथ जैन मन्दिर के विक्रम संवत् १०११ के लेख में उल्लेख है कि धंग के शासन काल हो श्रेष्ठ पाहिल ने जिननाथ ( पार्श्वनाथ ) का भव्य मन्दिर बनवाकर उसके लिए प्रभूत दान दिया था । महाराज धंग के गुरु वासवचन्द्र भी जैन थे, जिन्होंने निश्चित हो अपने पद के प्रभाव का उपयोग किया होगा । पाहिल द्वारा पार्श्वनाथ मन्दिर को सात वाटिकाओं का दान दिए जाने पर धंग ने उनका सम्मान भी किया था। यह बात जैन धर्म के प्रति धंग के उदार दृष्टिकोण को प्रकट करती है । पार्श्वनाथ मन्दिर के गर्भगृह तथा मण्डप को भित्तियों के प्रक्षेपों और आलों में जंघा पर क्रमशः नीचे से ऊपर की ओर छोटी होती गयी मूर्तियों को तीन समानान्तर पंक्तियाँ हैं । नीचे की १. कृष्णदेव, “दि टेम्पुल्स आफ खजुराहो इन सेन्ट्रल इण्डिया, एन्शिपष्ट इण्डिया, अंक १५, १९५९, पृ. ५४; लक्ष्मण और पार्श्वनाथ मन्दिरों पर धंग के शासन काल के विक्रम संवत् १०११ ( ९५४ ई० ) के दो लेख हैं । इन लेखों की लिपि में पर्याप्त अन्तर के कारण पार्श्वनाथ मन्दिर के लेख को लुप्त मूल अभिलेख की प्रतिलिपि माना जाता है, जिसे लगभग १०० वर्ष बाद फिर से लिखा गया । २. एपिग्राफिया इण्डिका, खण्ड - १, पृ. १३५-३६ कृष्णदेव, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ. ४५; जन्नास, ई० तथा ऊबइये, जे., खजुराहो, हेग, १९६०, पृ. ६ । १९ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ डॉ० मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी पंक्ति में प्रक्षेपों पर विभिन्न देवताओं की स्वतंत्र तथा शक्तिसहित एवम् अप्सराओं तथा जिनों की लांछनरहित मूर्तियाँ हैं। इनमें अष्टदिक्पालों, यक्षी अम्बिका, शिव, विष्णु एवं ब्रह्मा आदि की मूर्तियाँ हैं। बीच-बीच में आलों में व्यालों की विविध रूपों वाली मूर्तियाँ हैं। मध्य की पंक्ति में विभिन्न देव युगलों, लक्ष्मी तथा लांछनरहित जिनों आदि की मूर्तियां हैं। मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से केवल निचली दो पंक्तियों की मूर्तियाँ ही महत्वपूर्ण हैं ।' ऊपर की पंक्ति में प्रक्षेपों तथा आलों में पुष्पहार से युक्त विद्याधर युगल, गन्धर्व एवं किन्नर-किन्नरियों की उड्डीयमान आकृतियाँ हैं। नीचे की दोनों पंक्तियों की देव-युगल एवं स्वतंत्र देवों की मूर्तियों में देवता सदैव चतुर्भुज हैं किन्तु उनकी शक्तियां द्विभुजा हैं। इन मूर्तियों में देवताओं की शक्तियों की एक भुजा सदा आलिंगन-मुद्रा में है और दूसरे में दर्पण या पद्म प्रदर्शित है । तात्पर्य यह है कि विभिन्न देवताओं के साथ उनकी पारम्परिक शक्तियों, यथा-विष्णु के साथ लक्ष्मी, ब्रह्मा के साथ ब्रह्माणी एवं शिव के साथ शिवा के स्थान पर व्यक्तिगत विशेषताओं से रहित सामान्य लक्षणों वाली शक्तियाँ निरूपित हैं। मण्डप और गर्भगृह के जंघा के अतिरिक्त ब्राह्मण देवताओं की स्वतंत्र एवं युगल मूर्तियां मन्दिर के शिखर एवं वरण्ड भाग पर भी चारों ओर बनी हैं। स्वतंत्र देवमतियों में केवल शिव, विष्ण एवं ब्रह्मा की तथा देव में शिव विष्ण एवं ब्रह्मा के साथ ही कबेर. राम, बलराम. अग्नि एवं काम की भी मतियां हैं। जंघा की मतियों में देवता सदैव त्रिभंग में हैं, पर अन्य भागों की मूर्तियों में इन्हें ललितमुद्रा में भी दिखाया गया है। मन्दिर के जंघा एवं अन्य भागों पर जैन यक्षी, अम्बिका एवं चक्रेश्वरी तथा सरस्वती, लक्ष्मी, ब्रह्माणी आदि की भी मतियां हैं। जिनों तथा चक्रेश्वरी एवं अम्बिका यक्षियों की मतियों के अतिरिक्त मण्डप के जंघा की अन्य सभी मूर्तियां ब्राह्मण देवकुल से सम्बन्धित और प्रभावित हैं। इन मतियों में विष्णु के किसी अवतार रूप तथा इसी प्रकार शिव के किसी संहारक या अनुग्रहकारी स्वरूप की मूर्तियां नहीं हैं, जिससे यह प्रकट होता है कि कलाकार ने ब्राह्मण प्रभाव पर किंचित नियंत्रण रखने की भी चेष्टा की थी। त्रिशल एवं सर्प तथा नन्दी वाहन वाले शिव एवं श्रक और पुस्तक से युक्त ब्रह्मा को कुछ विद्वानों ने क्रमशः जैन परम्परा के ईश्वर और ब्रह्मशान्ति यक्षों से पहचानने का प्रयास किया है, जो इस मन्दिर के शिल्पांकन में ब्राह्मण देवमूर्तियों के स्पष्ट प्रभाव के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक नहीं है। खजुराहो में श्रेयांशनाथ की एक भी मूर्ति नहीं है, अतः श्रेयांशनाथ के यक्ष ईश्वर के स्वतंत्र निरूपण का प्रश्न ही नहीं उठता। इसी प्रकार पार्श्वनाथ मन्दिर पर विष्णु एवं बलराम की कई स्वतन्त्र तथा शक्तिसहित युगल मूर्तियाँ हैं। किन्तु खजुराहो की नेमिनाथ की मूर्तियों में बलराम और कृष्ण का निरूपण नहीं हुआ है, जबकि देवगढ़ तथा मथुरा के दिगम्बर स्थलों पर नेमिनाथ की मूर्तियों में इनका अंकन हुआ है। तात्पर्य यह कि पार्श्वनाथ मन्दिर की विष्णु तथा बलराम की मूर्तियाँ ब्राह्मण मन्दिरों के अनुकरण पर बनीं। यदि ये जैन परम्परा के अन्तर्गत बनी होती तो नेमिनाथ की मूर्तियों में भी उनका निश्चित ही अंकन हुआ होता। इसी सन्दर्भ में एक अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि देवताओं का अपनी शक्तियों के साथ आलिंगनमुद्रा में निरूपण भी पूरी तरह जैन परम्परा के विरुद्ध है। जैन परम्परा में कहीं भी कोई देवता अपनी शक्ति के साथ अभिलक्षित नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में १. विस्तार के लिए द्रष्टव्य, ब्रुन, क्लाज, "दि फिगर आव ट लोअर रिलीफ्स आन दि पार्श्वनाथ टेम्मुल ऐट खजुराहो", आचार्य श्री विजय वल्लभसूरि स्मारक प्रन्थ, बम्बई, १९५६, पृ. ७-३५ । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो का पार्श्वनाथ मन्दिर : ब्राह्मण एवं जैन धर्मों के समन्वय का मूर्तरूप १४७ देवताओं का शक्ति के साथ और वह भी आलिंगनमुद्रा में निरूपण परम्परा के सर्वथा प्रतिकूल है। यह तथ्य भी मन्दिर की मूर्तियों के ब्राह्मण देव-परिवार से सम्बन्धित होने का ही समर्थक है। पार्श्वनाथ मन्दिर की अप्सरा मूर्तियाँ खजुराहो मन्दिरों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं । इनमें नारी सौन्दर्य पूरी तरह साकार हो उठा है। अप्सरा मूर्तियों में तीखी भंगिमाओं के माध्यम से शारीरिक आकर्षण और ऐन्द्रिकता की जो अभिव्यक्ति हई है. जैन धर्म उसकी भी संस्त करता । अप्सरा मूर्तियों के अतिरिक्त मन्दिर पर कामक्रिया में रत युगलों की चार मूर्तियां हैं। इनमें स्त्री-पुरुष युगलों को निर्वस्त्र और प्रगाढ़ आलिंगन तथा सम्भोग को स्थिति में दिखाया गया है । गर्भगृह की दक्षिणी भित्ति पर वस्त्रधारी एक स्त्री पुरुष युगल की प्रगाढ़ में आलिंगनबद्ध मूर्ति भी है। यद्यपि पाश्वनाथ मन्दिर की काम-मूर्तियाँ खजुराहो के लक्ष्मण, कन्दरिया महादेव, दूलादेव एवं विश्वनाथ मन्दिरों की तुलना में बिल्कुल ही उद्दाम नहीं हैं किन्तु इस प्रकार का शिल्पांकन निश्चित ही ब्राह्मण मन्दिरों के प्रभाव का प्रतिफल है। पार्श्वनाथ मन्दिर के शिल्पांकन में जहाँ ब्राह्मण प्रभाव पूरी तरह मुखर है वहीं आदिनाथ मन्दिर इस प्रभाव से पूरी तरह मुक्त है। पार्श्वनाथ मन्दिर के भित्ति एवं अन्य भागों की स्वतन्त्र एवं देव युगल मूर्तियों में पद्म के विविध रूपों तथा सर्प और बीजपूरक का सामान्य रूप से प्रदर्शन हुआ है। गर्भगृह की भित्ति के आठ कोणों की दिक्पाल मूर्तियों के ऊपर शिव की आठ मूर्तियाँ बनी हैं। इनमें जटामुकुट, वनमाला और उपवीत से शोभित चतुर्भुज शिव त्रिभंग में हैं और उनके हाथों में वरदाक्ष, त्रिशूल, सर्प और कमण्डल है । समीप ही वाहन नन्दी भी उत्कीर्ण है । मण्डप की भित्ति पर भो शिव को इन्हीं विशेषताओं वाली चतुर्भुज मूर्तियाँ हैं। पूर्वी भित्ति की एक मूर्ति में शिव अपस्मारपुरुष पर खड़े हैं और उनके करों में अभयमुद्रा, त्रिशूल, चक्राकार पद्म तथा कमण्डल हैं। मण्डप की अन्य मूर्तियों में नन्दीवाहन वाले शिव जटामुकुट से शोभित हैं और उनके दो करों में पद्म और शेष दो में त्रिशूल, सर्प, कमण्डल या बीजपुरक में से कोई दो प्रदर्शित हैं। एक उदाहरण में शिव के अभयमद्रा, गदा, सर्प और कमण्डलु भी प्रदर्शित है। ये मुर्तियाँ ऋषभनाथ और शिव के पारस्परिक सम्बन्ध को प्रकट करती हैं। विष्णु की स्वतन्त्र मूर्तियाँ केवल मण्डप की भित्ति पर ही हैं इनमें चतुर्भुज विष्णु के साथ वाहन नहीं दिखाया गया है। उनके हाथों में गदा, शंख, चक्र, धनुष, पद्म आदि प्रदर्शित हैं । अधिकांशतः विष्णु को एक हाथ गदा पर टेककर आराम करने की मुद्रा में दिखाया गया है। कुछ उदाहरणों में परशु, बीजपुरक तथा अभयमुद्रा भी दिखायी गयी है । १. तांत्रिक प्रभाव एवम् अन्य धर्मों तथा उनसे सम्बन्धित कलास्थलों पर काम सम्बन्धी अंकनों की विशेष लोकप्रियता के कारण ही सम्भवः जैनों ने भी इस प्रकार के मूर्त अंकनों की प्रासंगिकता का अनुभव किया होगा। यह बात जैन ग्रन्थ हरिवंशपुराण ( ७८३ ई० ) के एक सन्दर्भ से भी स्पष्ट है ( २९.१०५)। हरिवशपुराण ( जिनसेनकृत) में एक स्थल पर उल्लेख है कि सेठ कामदत्त ने प्रजा के कौतुक के लिए एक जिन मन्दिर में कामदेव और रति की मूर्तियां भी बनवाई। कामदेव और रति को देखने के कौतुहल से जगत के लोग जिन मन्दिर में आते थे, और इस प्रकार कौतुकवश आए हुए लोगों को जिन धर्म की प्राप्ति होती थी। यह जिननंदिर कामदेव मंदिर के नाम से ही प्रसिद्ध था । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी मण्डप की भित्ति, शिखरं एवं अन्य भागों पर विष्णु-लक्ष्मी तथा शिव-पार्वती (२५ से अधिक ) की सर्वाधिक मूर्तियाँ हैं । इनमें शिवपार्वती या तो त्रिभंग में हैं या फिर ललितमुद्रा में । शिव-पार्वती की मूर्तियों में शिव का एक हाथ कटि पर है और दो में पद्म और सर्प हैं; एक हाथ आलिंगनमुद्रा में है । वाम पार्श्व की देवी का दाहिना हाथ आलिंगनमुद्रा में है तथा बायें में बीज पूरक ( या दर्पण ) है | कभी-कभी शिव के दो हाथों में से एक में फल और दूसरे में पद्म भी प्रदर्शित है । लक्ष्मी-नारायण मूर्तियों में, जिसका एक मनोज्ञ उदाहरण दक्षिणी भित्ति पर है, विष्णु किरोटमुकुट से शोभित हैं और उनके तीन हाथों में पद्म, शंख और चक्र प्रदर्शित हैं, एक हाथ आलिंगनमुद्रा है । कभी-कभी विष्णु को गदा पर एक हाथ टेककर आराम करते हुये भी दिखाया गया है । ऐसी मूर्तियों में अन्य हाथों में शंख और सर्प ( या फल या पद्म) हैं। वाम पार्श्व की लक्ष्मी आकृति का दाहिना हाथ सदा आलिंगनमुद्रा में है और बायें में पद्म है । १४८ विष्णु और शिव के अतिरिक्त मन्दिर पर ब्रह्मा की भी स्वतन्त्र और युगल मूर्तियाँ हैं । मन्दिर की जंघा पर श्मश्रु युक्त ब्रह्मा की एक स्वतन्त्र मूर्ति है । ब्रह्मा के करों में वरदाक्ष, स्रुक, पुस्तक और कमण्डलु प्रदर्शित हैं । यहाँ ब्रह्मा के साथ न तो वाहन दिखाया गया है और न ही ब्रह्मा त्रिमुख हैं । उत्तरो भित्ति पर ब्रह्मा को शक्तिसहित मूर्ति है । ब्रह्मा यहाँ तीन मुखों वाले, घटोदर और श्मश्रु युक्त हैं । उनके दो हाथों में स्रुक और पुस्तक हैं जकि शेष दो हाथों में से एक कटि पर है और दूसरा आलिंगनमुद्रा में है । यहाँ शक्ति को ब्रह्मा के दाहिने पावं में दिखलाया गया है । देवी की वाम भुजा आलिंगनमुद्रा में है जबकि दाये में चक्रकार पद्म है । जंघा पर बलराम-रेवती, कुबेर- कोबेरी, अग्नि-आग्नेयी, राम-सीता, काम - रति एवं यमयी (?) की भी मूर्तियां हैं। दक्षिणी भित्ति की सप्त सर्पफणों के छत्रवाली किरीट मुकुट से शोभित बलराम की मूर्ति में दो करों में चष्क और हल हैं; एक दाहिना हाथ आलिंगनमुद्रा में है तथा बायां कटि पर है । यहाँ भी शक्ति दक्षिण पाश्व में ही खड़ी हैं । शक्ति के दाहिने हाथ में सनाल पद्म है जबकि बायां आलिंगनमुद्रा में है । दक्षिणी भित्ति पर ही कुबेर की भी शक्तिसहित मूर्ति है । कुबेर की एक दक्षिण भुजा आलिंगन में है और दो में नकुलक एवं चक्राकार पद्म हैं; चौथी भुजा गदा पर आराम कर रही है । दक्षिण पार्श्व की कौबेरी को मूर्ति में दाहिने हाथ में चक्राकार पद्म है, जब कि बायां आलिंगनमुद्रा में है । उत्तरी भित्ति की राम-सीता मूर्ति में किरीट मुकुट तथा छन्नवोर से सज्जित राम के दो हाथों में एक लम्बा बाण प्रदर्शित है। राम की उर्ध्वं वाम भुजा आलिंगनमुद्रा में है जबकि नीचे का दाहिना हाथ पालितमुद्रा में दक्षिण पार्श्व में खड़े कपिमुख हनुमान के मस्तक पर है। राम की पीठ पर तूणीर भी प्रदर्शित है। सीता के बायें हाथ में नीलोत्पल है और दाहिना हाथ आलिंगनमुद्रा में है । इस मूर्ति के ऊपर हो सम्भवतः रावण द्वारा सीता से भिक्षा ग्रहण करने का प्रसंग भी उत्कीर्ण है । जटामुकुट से युक्त साधु आकृति ( रावण ) के भिक्षापात्र में उसके सामने खड़ी आकृति (सीता) को भिक्षा डालते हुए दिखाया गया है। पार्श्वनाथ मन्दिर के दक्षिण शिखर पर उत्कीर्ण रामायण के एक अन्य कथा दृश्य का उल्लेख भी यहाँ प्रासंगिक है । अशोकवाटिका से सम्बन्धित दृश्य में क्लान्तमुख सीता को खड्गधारी असुर आकृतियों से वेष्टित दिखाया गया है । सीता के समक्ष ही कपिमुख हनुमान की आकृति बनी है जिन्हें सोता को दर्शाया गया है। जैन ग्रन्थ पउमचरिय ( विमलसूरिकृत ) में रामकथा का विस्तृत उल्लेख है । इस राम की मुद्रिका देते हुए Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MIET चित्र १ दक्षिणी भित्ति (बलराम-रेवती, शिव), पार्श्वनाथ मन्दिर, खजुराहो Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चित्र 2 विष्णु-लक्ष्मी (आलिंगन मूर्ति) दक्षिणी भित्ति पार्श्वनाथ मन्दिर, खजुराहो (चित्र अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑव स्टडीज, वाराणसी के सौजन्य से) चित्र 3 राम-सीता (आलिंगन मूर्ति) उत्तरी भित्ति, पाश्र्वनाथ मन्दिर खजुराहो (चित्र अमेरिकन इन्स्टीट्यूट ऑव स्टडीज, वाराणसी के सौजन्य से) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो का पार्श्वनाथ मन्दिर : ब्राह्मण एवं जैन धर्मों के समन्वय का मूर्तरूप 149 ग्रन्थ में अशोकवाटिका से सम्बन्धित दृश्य की भी चर्चा मिलती है ( पउमचरिय 53 / 11) / अर्धमण्डप और मण्डप पर वरण्ड के ऊपर द्विभुज राम की कई छोटी मूर्तियाँ भी हैं / इनमें राम के दोनों हाथों में एक लम्बा शर दिखाया गया है। मण्डप की उत्तरी भित्ति पर ही अग्नि की भी शक्तिसहित एक मूर्ति है। अग्नि श्मश्रु युक्त है और उनके तीन हाथों में धनुकार्षण, दण्ड और शिखा हैं तथा एक हाथ आलिंगनमुद्रा में है। शक्ति की दाहिनी भुजा आलिंगनमुद्रा में है, जबकि बायें में चक्राकार पद्म है। काम और रति की भी दो युगल मूर्तियाँ हैं जो क्रमशः पूर्व और उत्तर की भित्तियों पर हैं। पूर्वी भिति की मूर्ति में श्मश्रु और जटामकूट से शोभित काम के दो हाथों में पंचशर एवं इष-धन है, जबकि शेष दो हाथों में से एक व्याख्यानमुद्रा में है और दूसरा आलिंगनमुद्रा में। उत्तरी भित्ति की मूर्ति में काम-दाढ़ी मूंछों से रहित तथा किरीट मुकुट से सज्जित है। उनके दो हाथों में पूर्ववत् पंचशर (मानव मुख) और इषुधनु हैं, तथा एक हाथ आलिंगन मुद्रा में है। केवल व्याख्यानमुद्रा के स्थान पर एक हाथ में पद्मकलिका प्रदर्शित है। दोनों ही उदाहरणों में रति बायें पार्श्व में खड़ी हैं और उनका दाहिना हाथ आलिंगनमुद्रा में है जबकि बायें में पुस्तक (या पद्म) प्रदर्शित है / उत्तरी भित्ति पर ही एक ऐसी युगल मूर्ति भी है जिसकी सम्भावित पहचान यम-यमी से की जा सकती है। जटामुकुट और मूंछों से युक्त देवता के दो हाथों में खट्वांग और पताका है जबकि शेष हाथों में से एक में व्याख्यान-अक्षमाला है और दूसरा आलिंगनमुद्रा में है। शक्ति का दाहिना हाथ आलिंगनमुद्रा में है और बायें में पद्म है। देव युगल आकृतियों के अतिरिक्त मन्दिर के जंघा तथा अन्य भागों पर सामान्य स्त्री-पुरुष युगलों की भी मूर्तियाँ हैं। ये मूर्तियां अधिकांशतः आलिंगनमुद्रा में हैं। इनमें स्त्री का दाहिना हाथ सदैव आलिंगन मुद्रा में है और बायें में दर्पण (या पद्म) प्रदर्शित है। कभी-कभी इन युगलों को वार्तालाप की मुद्रा में भी दिखलाया गया है। इन मूर्तियों में आकृतियां विभिन्न रूपों और वस्त्राभूषणों वाली हैं, जो समाज के विभिन्न वर्गों एवं स्तरों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इनमें कभी-कभी स्त्री को चुम्बन की स्थिति में या चुम्बन के लिए पुरुष के सम्मुख आते हए और पुरुष को स्त्री का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचते हुए या उसके पयोधरों का स्पर्श करते हुए दिखलाया गया है / ये आकृतियां निर्वस्त्र न होकर पूरी तरह वस्त्र सज्जित हैं। कुछ उदाहरणों में समीप ही किसी आकृति को इन कृत्यों पर आश्चर्य व्यक्त करते या पीछे मुड़कर वापस लौटते हुए भी दिखाया गया है / पूर्वी जंघा के एक दृश्य में यह भाव पूरी तरह स्पष्ट है। दृश्य में श्मश्रु तथा जटाजूट से शोभित किसी ब्राह्मण साधु के दोनों ओर दो स्त्रियां खड़ी हैं। इनमें से एक ने साधु की दाढ़ी और दूसरे ने उसकी जटाओं को पकड़ रखा है। यह दृश्य निश्चित ही स्त्रियों द्वारा साधु को उसके किसी कृत्य पर दण्डित करने से सम्बन्धित है। रीडर, कला इतिहास विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-२२१००५