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श्री कन्हैयालाल लोढ़ा
धवला टीका, पुस्तक १३ में तथा आदि पुराण में कहा है
जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं। तं होज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता।। -गाथा २, ध्यानाध्ययन, धवला टीका, पुस्तक १३,
गाथा १२ स्थिरमध्यवसानं यत् तद् ध्यानं येच्चलाचलम्। सानुप्रेक्षाथवा चिन्ता भावना चित्तमेव।।
-आदिपुराण, २१-९ अर्थ- जो स्थिर अध्यवसान (मन) है, वह ध्यान है। इसके विपरीत जो चंचल (अस्थिर) चित्त है, उसे भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता कहा जाता है। ये सब मन की प्रवृत्तियाँ या क्रियाएँ हैं अत: इन्हें ध्यान नहीं कहा जा सकता। अभिप्राय यह है कि जहाँ क्रिया व कर्तृत्व है वहाँ कायोत्सर्ग नहीं है।
ध्यान में काया, वचन और मन में प्रवृत्ति या क्रिया करने का निषेध 'द्रव्य संग्रह' में स्पष्ट शब्दों में किया है
मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि जेण होइ थिरो।
अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं।। कायोत्सर्ग : ध्यान की पूर्णता
-द्रव्य संग्रह, ५६ ध्यान में चित्त स्थिर, एकाग्र होता है। मन के एकाग्र होने
अर्थ- हे साधुओ! तुम काया से कुछ भी चेष्टा मत करो, से चित्त का निरोध होता है।२ चित्तवत्ति का निरोध ही योग है।३ वचन से भी कुछ मत कहो और मन से कुछ भी चिन्तन मत योग की पराकाष्ठा समाधि है। समाधि की उपलबिध संयम, तप करा, जिसस आत्मा आत्मा हा म स्थिर होता हुआ रमण कर, व व्यवदान से होती है। संयम से आस्रव का निरोध होता है। यही परम ध्यान है। आस्रव के निरोध से नवीन कर्मों का बन्ध रुकता है। तप से ध्यान में किसी विशेष आसन, स्थान, समय आदि का व्यवदान होता है। व्यवदान से साधक अक्रियता प्राप्त करता है। महत्व नहीं है, महत्व मन-वचन काया के योगों के समाधान अक्रिय युत होकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाता है। परम शान्ति (स्वस्थता) का है, यथाको प्राप्त होकर सर्वदुःखों का अंत कर देता है।
सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जं देस-काल-चेट्ठासु। देह के आश्रय रहते कायोत्सर्ग, देहातीत होना सम्भव नहीं वरवेवलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा।। है। कायोत्सर्ग या देहातीत होने के लिए देह के आश्रय से ऊपर
तो देस-काल-चेट्टानियमो झाणस्स नत्थि समयंमि। उठना होता है। जो तन, वचन और मन, इन तीनों की अक्रियता
जोगाण समाहाणं जह होइ तहा (प) यइयव्वं ।। से ही सम्भव है। (जैसा कि कायोत्सर्ग के पाठ में कहा है।)
. -ध्यान शतक, ४०-४१ कारण कि क्रिया, मन, वचन व काया से होती है। क्रिया कोई
अर्थ- मुनियों ने सभी देश (स्थान), काल और चेष्टा की भी हो, वह हलचल, चंचलता तथा अस्थिरता उत्पन्न करती है।
अवस्था में अवस्थित रहते हुए अनेक प्रकार के पापों को नष्टकर कायोत्सर्ग में काया, वचन व मन की क्रिया का निरोध कर इन्हें
सर्वोत्तम केवलज्ञान आदि को प्राप्त किया है, अत: ध्यान के लिए निश्चल व स्थिर किया जाता है जैसा कि कायोत्सर्ग करने के
आगम में किसी विशेष देश, काल चेष्टा, आसन आदि के होने पाठ 'तस्स उत्तरी करणेणं' के अन्त में कहा गया है
का नियम नहीं कहा है, किन्तु जिस प्रकार से भी योगों का मन, ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि
वचन काया का समाधान (स्वस्थता, स्थिरता, निर्विकारता) हो, अर्थात् जब तक मैं कायोत्सर्ग करता हूँ तब तक काया को उसी प्रकार का यत्न करना चाहिये। स्थिर, वचन से मौन और मन को ध्यानस्थ आत्मस्थ रखूगा।
अभिप्राय यह है कि कायोत्सर्ग में मन, वचन और काया अर्थात काया. वचन तथा मन से कोई भी क्रिया नहीं करूंगा। की किसी भी प्रकार की हलचल. चंचलता. प्रवत्ति या क्रिया से जैसा कि ध्यानाध्ययन (ध्यान शतक) ग्रन्थ में, षट्खण्डागम की
९, पथा
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रहित होना है। यहां तक कि शरीर में स्वतः होने वाली अभिप्राय यह है कि जहाँ 'करना' है वहाँ क्रिया है, जहाँ स्वाभाविक क्रियाओं उच्छ्वास-नि:श्वास, खाँसी, छींक, जम्भाई क्रिया है वहाँ कर्म है। अत: ध्यान-साधना में अपनी ओर से कुछ और डकार का आना, अधोवायु का निकलना, चक्कर आना, भी करने का निषेध है। ध्यान-साधना में करना होने' में बदल अंगों का कफ का, दृष्टि का स्वत: सूक्ष्म संचालन होना आदि जाता है जिससे शरीर व चित्त आदि के स्तर पर जो भी घटनाएँ को भी कायोत्सर्ग के पाठ में आगार के रूप में स्वीकार किया घटती हैं, संवेदनाएँ आदि प्रकट होती हैं वे साधक को मात्र दिखती है। स्वयं की ओर से शरीर को किसी भी क्रिया करने की, हाथ- हैं, उनका मात्र दर्शन-ज्ञान होता है, वह प्रयत्नपूर्वक 'देखता' नहीं पैर हिलाने, आसन बदलने आदि की छूट भी (आगार) नहीं है। है। जैसे हम रेल में यात्रा कर रहे होते हैं उस समय बाहर की तब वचन व मन की क्रिया की छूट कैसे हो सकती है? नहीं वस्तुएँ दिखाई देती हैं, उन्हें देखने व जानने की क्रिया नहीं करनी हो सकती।
पड़ती है। वे अपने-आप दिखती हैं उन्हें देखने के लिए प्रयत्न नहीं बौद्ध धर्म में प्रतिपादित 'विपश्यना-अनुपश्यना' ध्यान के
करना पड़ता। प्रयत्न में काया का आश्रय लेना पड़ता है। काया
करना पड़ता। प्रयत्न प्रतिपादक मुख्य ग्रन्थ 'महासतिपट्टानसुत्त' में वेदनानुपश्यना,
___ का आश्रय रहते कायोत्सर्ग कदापि सम्भव नहीं हैं। चित्त अनुपश्यना, धर्म अनुपश्यना आदि प्रत्येक अनुपश्यना के पूर्व में कह आए हैं कि चित्त का निश्चल, स्थिर होना ध्यान साथ एक सूत्र दिया गया है। यथा
है। चिन्तन, मनन, अनुप्रेक्षा, भावना, संकल्प, विकल्प आदि से "यावदेव जाणमत्ताय पटिस्सतिमत्ताय अनिसित्तो च विहरति चित्त सक्रिय अस्थिर रहता है, निश्चल नहीं होता है, अत: तब न च किञ्चि लोके उपादियति।"
तक ध्यान नहीं होता। इन सबसे परे होने पर ही चित्त शान्त व
स्थिर होता है। इसे ही समाधि कहा गया है। प्रकारान्तर से कहें (अनुपश्यना में) जब तक मात्र ज्ञान, मात्र दर्शन बना रहता है तब तक अनाश्रित होकर विहार करता है और लोक (शरीर
तो निर्विकल्प स्वसंवेदन, चैतन्य रूप दर्शनोपयोग ध्यान है।
दर्शन रूप होने से ध्यान को अनुपश्यना व विपश्यना कहा जाता और संसार) में कुछ भी ग्रहण नहीं करता है। भिक्षुओं! इस
है। अनुपश्यना-विपश्यना शब्द 'पश्य' क्रिया से बने हैं।' प्रकार भिक्षु अनुपश्यना में अनुपश्यी होकर विहार करता है।
'पश्य' शब्द दृश् (दर्शने) धातु से बना है। अत: ध्यान दर्शनमय ___ इस प्रकार महासतिपट्ठानसुत्त में अनुपश्यी साधक के लिए
होता है। दर्शन निर्विकल्प, स्वसंवेदन रूप होता है। जैसा कि किसी भी अनुपश्यना में लोक, शरीर और संसार के आश्रय
ध्यान का वर्णन करते हुए तत्त्वानुशासन में कहा है-५ ग्रहण करने तथा क्रिया करने का निषेध है, यहाँ तक कि वेदना, चित्त धर्म आदि अनुपश्यना में जो स्वत: हो रहा है उसका केवल
तत्राऽऽत्मन्यासहाये यच्चिन्तायाः स्यान्निरोधनम्। ज्ञाता-द्रष्टा होता है, क्योंकि कोई भी क्रिया लोक का आश्रय
तद्ध्यानं तद्भावो वा स्वसंवित्तिमयश्च सः।।५।। लिए बिना नहीं होती है अर्थात् देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि
अर्थ- किसी भी सहायता (आश्रय) से रहित आत्मा में जो लौकिक आश्रय लिए बिना नहीं होती है और अनुपश्यना
चिन्ता का निरोध है, वह ध्यान है अथवा जो चिन्ता के अभाव (विपश्यना) में लोक का किंचित भी आश्रय ग्रहण न करने का विधान है। 'महासतिपट्टानसुत्त' में ध्यान-साधक के लिए सिर से पाहुडदोहा में कहा हैपैर तक पूरे शरीर के प्रत्येक अंग-उपांग पर उत्पन्न होने वाली
जिमि लोणु विजिज्जइ पाणियहं तिमि जइ चित्तु विलिज्ज। संवेदनाओं को देखने एवं उनके अनित्य होने का चिन्तन करने
समरसि हवइ जीवड़ा काइं समाहि कारिज्ज।। का भी विधान नहीं है। वे ध्यान से पूर्व की आत्म-निरीक्षण की
-पाहुडदोहा, १७६ अर्थात् स्वाध्याय की क्रियाएँ हैं। कारण कि संवेदनाओं को
जिस प्रकार नमक पानी में विलीन होकर समरस हो जाता देखना और उनके अनित्य स्वभाव का चिन्तन मन-बुद्धि की
है उसी प्रकार यदि चित्त आत्मा में विलीन होकर समरस हो जाये क्रिया से ही सम्भव है, क्योंकि कोई भी क्रिया बिना आश्रय के
तो फिर जीव को समाधि में और क्या करना है? अर्थात् चित्त नहीं होती है। कायोत्सर्ग-व्युत्सर्ग में शरीर, संसार, कषाय और
का बाह्य विषयों से विमुख हो, आत्म स्वरूप में लीन होना ही कर्म इन सबका व्युत्सर्ग आवश्यक है अर्थात् इनसे असंग होना,
समाधि है, ध्यान है। इनके आश्रय का त्याग करना आवश्यक बताया है।
श्री जिनसेनाचार्य कहते हैं : पातंजल योग सूत्र में कहा है
योगो ध्यानं समाधिश्च धीरोध: स्वान्तः निग्रहः। योगाश्चित्तवृत्ति निरोधः।१-२
अंतः संलीनता चेति तत्पर्यायाः स्मृता बुधेः।। चित्त की वृत्तियों का निरोध होना योग है।
२१-२२ आर्ष
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अर्थ- योग, समाधि, बुद्धि-निरोध, स्वान्तनिग्रह, करना, उनका समर्थन व विरोध न करना, असंगतापूर्वक अनुभव अन्त:संलीनता ये ध्यान के पर्यायवाची हैं। योग अर्थात् चित्त का करना अपायविचय है। यह कषायव्युत्सर्ग है। निरोध, समाधि-चित्त की स्थिरता, धी निरोग-बुद्धि से चिन्तनरहित
विपाकविचय - अपाय का, दोषों का, कर्मों का, कर्मों होना. स्वान्तः निग्रह-अपने अन्तःस्थल में स्थिर होना, अन्तः का विपाक-उदय का फल जैसा प्रकट हो रहा है उसे उसी रूप सलानता- अपन अन्त:करण म सलान हाना ध्यान ह अथात् मन, में समता व असंगतापूर्वक अनुभव करना विपाकविचय है, यह चित्त, बुद्धि और अहं का निरोध-निग्रह होना ध्यान है।
कर्म-व्युत्सर्ग है। तत्त्वार्थ सूत्र के नवम अध्ययन में धर्म-ध्यान के भेदों में
संस्थानविचय - संसार या लोक के स्वरूप का अर्थात् आए 'विचय' शब्द की व्याख्या करते हुए तत्त्वार्थवार्तिक और रातानि-शिति-ग (विनायकेचक प पवाद का असतापक सर्वार्थसिद्धि टीकाओं में 'विचयो विवेको विचारणेत्यनर्थान्तरम्'
अनुभव करना संस्थानविचय है, यह संसार व्युत्सर्ग है। कहा है अर्थात् विचय, विवेक और विचारणा, ये समानार्थक हैं।
व्युत्सर्ग - अपने में देह की और देह में अपनी स्थापना चिन्तन करने से ऐसा जान पड़ता है कि प्राचीन काल में विचारण
करने से प्राणी को निज स्वरूप की विस्मृति हो जाती है। देह में शब्द का प्रयोग विचरण व आचरण-अनुभव करने के अर्थ में
अपनी स्थापना करने से 'मैं देह हूँ' रूप अहंभाव (देहाभिमान) होता था। वर्तमान में भी विचरण शब्द का प्रयोग विहार करने
उत्पन्न होता है। इसका परिणाम यह होता है कि देह की सत्यता के अर्थ में होता है। बौद्ध धर्म में ध्यान के प्रमुख ग्रन्थ
(स्थायित्व) भासित होने लगती है और अपने में देह की स्थापना महासतिपट्ठान में सर्वत्र अनुपश्यी (ध्यान-साधक) के साथ
करने से देह में ममता (आसक्ति) उत्पन्न हो जाती है, जिससे विहरति (अनुपस्सी विहरति) शब्द आता है, जहाँ पर विहार
देह सुन्दर तथा सुखद लगने लगती है। इस प्रकार देह से शब्द का अर्थ 'यथाभूत तथागत' है, अर्थात् 'यथार्थ' में जैसा हो
अभेदभाव के सम्बन्ध से अहम् (मान) और भेदभाव के सम्बन्ध रहा है उसे वैसा ही अनुभव करना है' इसी आशय से धर्म-ध्यान ।
से 'मम' (माया) उत्पन्न होता है। के चारों भेदों के साथ प्रयुक्त विचय शब्द का अर्थ-विचरण आचरण रूप अनुभव करना उपयुक्त लगता है। विचरण, चिन्तन
अहम् और मम भाव से कामना की उत्पत्ति होती है जिससे आदि अर्थ ध्यान के लक्षण 'थिरमज्झ-वसाणं-स्थिर अध्यवसान' ।
चित्त कुपित, क्षोभित (अशान्त) हो जाता है और कामना की पूर्ति के बाधक होने से असंगत लगते हैं। अत: विचय का अर्थ है- में सुख का और अपूर्ति में दुःख का भास होने लगता है। सुख 'यथाभूत तथागत' अर्थात् ध्यान में जैसा अनुभव के रूप में प्रकट
की दासता और दु:ख के भय से प्राणी निज अविनाशी (अनन्त) हो रहा है उसे यथार्थ रूप में वैसा ही देखना, उसके प्रति राग
स्वरूप से विमुख हो जाता है अर्थात् विभाव में आबद्ध और द्वेष न करना, उसका समर्थन व विरोध न करना, उससे असंग
स्वभाव से च्युत हो जाता है। यद्यपि अविनाशी निज स्वरूप रहना। असंग रहना ही व्युत्सर्ग है। इसी अर्थ में धर्म-ध्यान के
सदैव विद्यमान है, उससे देशकाल की दूरी नहीं है, फिर भी प्राणी भेदों का विवेचन किया जा रहा है।
उसे कठिन मानकर उससे निराश होने लगता है और देह
दृश्यमान वस्तुएँ, जिनसे मानी हुई एकता है, वास्तविक नहीं, ध्यान की उपर्युक्त परिभाषा तथा व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में धर्म-ध्यान के चार भेद आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय
उनके प्रति आशान्वित, लालायित एवं प्रयत्नशील रहता है। यह
प्राणी का घोर प्रमाद है।। और संस्थानविचय में विचय शब्द का अर्थ विचार व चिन्तन करना उपयुक्त नहीं लगता है, कारण कि चिन्तन या विचारना
प्राणी ने देहादि दृश्यमान वस्तुओं में सम्बन्ध कब और क्यों में चित्त ऊहापोह व विकल्पयुक्त होता है, ज्ञानोपयोगमय होता है,
स्वीकार किया, इसका तो पता नहीं चलता है, परन्तु वस्तुओं से निर्विकल्प व स्वसंवेदन रूप नहीं होता है। अत: यहाँ विचय शब्द
सम्बन्ध वर्तमान में ही विच्छिन्न होना सम्भव है। इससे यह सिद्ध का अर्थ विचार करना नहीं होकर विचरण करना, संवेदन व
होता है कि हमारे स्वीकार करने से ही देहादि वस्तुओं से सम्बन्ध अनुभव करना अधिक उपयुक्त लगता है। यथा
हुआ है। अत: प्रत्येक सम्बन्ध स्वीकृति मात्र से उत्पन्न होता है
और अस्वीकृति मात्र से उसका सम्बन्ध नाश हो जाता है। ऐसी आज्ञाविचय- आज्ञा अर्थात् सत्य का श्रुतज्ञान का, अपने
कोई स्वीकृति हैं ही नहीं जो अस्वीकृति से न मिट जाए। अनादि अविनाशी स्वभाव का, शरीर से.आत्मा की भिन्नता का
कोई भी स्वीकृतिजन्य सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि अस्वीकृति जैसा स्वरूप प्रकट हो रहा है, वैसा ही अनुभव होना आज्ञाविचय
के अतिरिक्त अन्य किसी अभ्यास, प्रयास से मिट जाय। है। यह शरीर व्युत्सर्ग कायोत्सर्ग है।
इस दृष्टि से देहादि से अनन्तकाल से सम्बन्ध चला आ रहा है, अपायांवचय - राग, द्वेष मोह आदि त्याज्य अपाय, दोषों वर्तमान में उसका विच्छेद -व्यत्सर्ग हो सकता है। को, कषायों को जैसे वे प्रकट हो रहे हैं, उन्हें वैसा ही अनुभव
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________________ जा वर देह व दृश्यमान वस्तुओं (शरीर संसार लोक से व्युत्सर्ग से मनोज्ञ विषयों के प्रति राग और अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष (सम्बन्ध विच्छेद) होते ही अहम् और मम का नाश हो जाता है। उत्पन्न होता है। रागोत्पत्ति से इन्द्रियाँ विषयों की ओर, मन इन्द्रियों अहम् का नाश होते ही निरहंकार होने से अनन्त से एकता तथा की ओर, बुद्धि मन की ओर गति करने लगते हैं, इस प्रकार बुद्धि, अभिन्नता हो जाती है जिससे अविनाशी अनन्त तत्व अमरत्व मन, इन्द्रियाँ सबकी संसार या बाह्य की ओर गति होने लगती है, की अनुभूति हो जाती है। मम का नाश होते ही सब विकारों का और हम बहिर्मुखी हो जाते हैं, तथा कामना ममता, अहंता में नाश होकर निर्विकार, वीतराग, शुद्ध चैतन्य (सच्चिदानन्द) आबद्ध होकर सुख-दुःख का भोग करने लगते हैं। स्वरूप का अनुभव हो जाता है। इस प्रकार ध्यान व व्युत्सर्ग से इस प्रकार इन्द्रिय दृष्टि से समस्त विषय सुन्दर, सुखद व सब पापों (विकारों) का नाश होकर आत्मा विशुद्ध एवं सत्य (स्थायी, नित्य) प्रतीत होते हैं। इस इन्द्रिय-दृष्टि का प्रभाव सर्वशल्यों से मुक्त हो जाती है, अर्थात् ध्यान से ध्याता को ध्येय मन पर होता है तब मन इन्द्रियों के अधीन होकर विषयों की ओर की उपलब्धि हो जाती है। गतिशील होता है। परन्तु जब मन पर श्रुतज्ञान युक्त बुद्धि दृष्टि जिज्ञासा होती है कि क्या शरीर, इन्द्रिय, संसार वस्तु तथा का प्रभाव होता है तब इन्द्रिय-द्दष्टिजनित विषय सुन्दर, सुखद इनकी सक्रियता के बिना भी जीवन है? यदि जीवन है तो वह व सत्य है- यह प्रभाव मिटने लगता है। क्योंकि इन्द्रिय ज्ञान से जीवन कैसा है? जो वस्तु सत्य, स्थायी व सुन्दर मालूम होती है वह ही वस्तु समाधान- यह सभी का अनुभव है कि शरीर. इन्द्रियाँ, श्रुतज्ञान से, विवेकवती, बुद्धि से नश्वर तथा विध्वंसनशील. मन, बुद्धि आदि की क्रियाओं, प्रवृत्तियों व विषयों का निरोध होने जीर्ण-शीर्ण गलन रूप मालूम होती है। इस ज्ञान से विषय व वस्तु पर ही गहरी निद्रा आती है। उस समय इन सबकी स्मृति व के प्रति विरति (वैराग्य-अरुचि) होती है और मन विषयों से सम्बन्ध नहीं रहता है। उस अवस्था में दुःख का अनुभव नहीं विमुख होने लगता है। इन्द्रियाँ विषयों से विमुख हो स्वत: मन होता है। परन्तु जगने पर व्यक्ति यह ही कहता है कि मैं बहुत में विलीन हो जाती है। मन बुद्धि में विलीन हो जाता है फिर बुद्धि सुख से सोया, यह नियम है कि स्मति उसी की होती है, जिसकी सम हो जाती है। उस समता में स्थित आत्मा सब मान्यताओं से अनुभूति होती है। गहरी निद्रा में किंचित भी दु:ख नहीं था, मात्र अतीत हा जाता है जिसस सब प्रकार के प्रभावी का अर्थात् भाग, सुख ही था। इस अनुभूति से यह सिद्ध होता है कि शरीर. कामनाओं, वासनाओं आदि दोषों की निवृत्ति हो जाती है। इन्द्रियाँ, मन, संसार वस्तु आदि के बिना भी, इनके न रहने पर इन्द्रिय-दृष्टि से विषय-वस्तुओं में सत्यता प्रतीत होती है। भी दु:खरहित सुखपूर्वक जीवन का अनुभव सम्भव है। किन्तु उसका प्रभाव राग उत्पन्न करता है। राग भोग में प्रवृत्त करता यह जड़तापूर्ण स्थिति है, अत: इस अनुभव का आदर न करने है, किन्तु विवेक दृष्टि (श्रुतज्ञान) विषय-सुखों की क्षण-भंगुरता से ही प्राणी शरीर, संसार, वस्तु, व्यक्ति आदि के वियोग से का ज्ञान कराती है, जिससे राग वैराग्य में और भोग योग भयभीत होता है और इनकी दासता को बनाये रखता है। यदि (संयम) में रूपान्तरित हो जाता है वह इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि जाग्रत अवस्था में भी गहरी निद्रा के विश्राम के समान स्थिति के द्रष्टा में विषय-सुखों से, सब मान्यताओं से अतीत होनेप्राप्त कर ली जाय तो यह स्पष्ट अनुभव हो जायेगा कि शरीर, इनके रागजनित प्रभावों से मुक्त होने की क्षमता आ जाती है। संसार आदि की क्रिया के बिना भी जीवन है और उस जीवन जिससे शरीर व शरीर से सम्बन्धित गण, उपाधि आदि से व्युत्सर्ग में किसी प्रकार का अभाव, अशान्ति, पराधीनता, जड़ता, चिन्ता, हो जाता है। विषय सुखों के प्रभाव से मुक्त होने पर कषायभय तथा दुःख नहीं है। अत: शरीर, संसार व भोग के सुख के विसर्जन (व्युत्सर्ग), कषाय-व्युत्सर्ग से कर्म-व्युत्सर्ग ओर बिना जीवन नहीं है- इस भ्रान्ति को त्यागकर शरीर, संसार, कर्म-व्युत्सर्ग से संसार-व्युत्सर्ग स्वतः हो जाता है। आचारांग कषाय (भोग-प्रवृत्ति) व कर्म का व्युत्सर्ग-विसर्जन कर शान्ति, सूत्र की भाषा में कहें तो "जे कोहदंसी से माणंदसी, जे स्वाधीनता, चिन्मयता, निश्चिन्तता, निर्भयता, प्रसन्नता, अमरता माणदंसी से मायदंसी, जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदेसी की अनुभूति कर लेना साधक के लिए अनिवार्य है। यही सिद्ध, से पेज्जदंसी, जे पेज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से बुद्ध व मुक्त होना है। मोहदंसी, जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी, ___"मैं देह हूँ" - इस मान्यता के दृढ़ होते ही इन्द्रिय,मन, बुद्धि जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से नरयदंसी, जे आदि में भी 'मैं' की मान्यता हो जाती है, जो समस्त दोषों की नरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी से जननी है। कारण कि जब इन्द्रिय और मन का अपने विषयों से मेहावी अभिणिवट्टिज्जा कोहं च माणं च मायं च लोभं च सम्बन्ध होता है तब शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श से सम्बन्धित पेज्जं च दोसं च मोहं च गब्भं च मारं च नरयं च तिरियं च मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयों का ज्ञान होता है। इस ज्ञान के प्रभाव। दुक्खं च। एयं पासगस्स दंसणं उवरय-सत्थस्स पलियंत करस्स आयाणं निसिद्धा सगडस्मि किमस्थि आवोही पासगस्स 0 अष्टदशी / 2010
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________________ न विज्जइ। णत्थि तिवेमि। (आचारांग, प्रथम श्रुतस्कन्ध, संकलन : रिधकरण बोथरा अध्ययन 3, उद्देशक 4 सूत्र) __ अर्थात् जो क्रोध को देखता है वह मान को देखत है, जो मान को देखता है वह माया को देखता है, इस प्रकार क्रमश: ॐ की साधना माया से लोभ को, लोभ से राग को राग, से द्वेष को, द्वेष से मोह साधौ सबद साधनौ कीजै को, मोह से गर्भ को, गर्भ से जन्म को, जनम से मार को, मार जेहि सबद ते प्रगट भये सब, सोई सबद गहि लीजै।। से नरक को, नरक से तिर्यंच को, तिर्यंच से दुःख को देखता उसी परम शब्द को पकड़ो ॐ को ही साधो। ॐ को है। इस प्रकार मेधावी क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, ही जपो। ॐ की ही प्रतिध्वनि सुनो। ॐ में ही रस लो। ॐ में गर्भ, मार, नरक, तिर्यंच और दुःख का दर्शन करता है। यह बड़ा आकर्षण है। 'रसो वै सः' वह रस रूप है। परमात्मा रस शस्त्र उपरत द्रष्टा का दर्शन है जो कर्म से उपरत करता है। रूप है। 'ॐ' उसका वाचक है। उसमें डूबो। रोम-रोम से उसी आशय यह है कि व्युत्सर्ग की कोई प्रक्रिया नहीं होती, का रस पियो। परन्तु ध्यान की पात्रता प्राप्त करने के लिए जैन दर्शन में अणुव्रत 'ॐ' ध्यान की मौलिक ध्वनि है। 'ॐ' का ध्यान हम महाव्रत का पालन, पातंजल योग में यम, नियम, आसन, चार चरणों में पूरा कर सकते हैं। इन चार चरणों का कुल समय प्राणायाम आदि, बौद्ध दर्शन में शील और जैन दर्शन में विनय, पैंतालिस मिनट होना चाहिये। पहला, दूसरा और तीसरा चरण वैयावृत्य, स्वाध्याय आदि सद् प्रवृत्तियों का आचरण अपेक्षित है। दस-दस मिनट का है और अन्तिम चरण पन्द्रह मिनट का। संदर्भ सूत्र : 'ॐ' ध्यान-योग के पहले चरण में ॐ का पाठ करो। 1. ध्यान-शतक, गाथा-२ उसका लम्बा उच्चारण करो यानि उसका जोर से रटन करो। 2. उत्तराध्ययन, अ० 29, सूत्र 25 दूसरे चरण में होठों को बन्द कर लो और भीतर उसका अनुगूंज 3. पंतजलि योग, 1-2 करो। जैसे भौरें की गूंज होती है, वैसे ही ॐ की गूंज करो। 4. उत्तराध्ययन, अ० 29, सूत्र 27 तीसरे चरणा में मनोमन 'ॐ' का स्मरण करो। श्वास की धारा के साथ 'ॐ' को जोड़ लो। तल्लीनता इतनी होजाए कि श्वास 5. उत्तराध्ययन, अ० 29 सूत्र 27 ही 'ॐ' बन जाएं। चौथे चरण में बिल्कुल शान्त बैठ जाओ। 6. उत्तराध्ययन, अ० 29, सूत्र 29 पहला चरण पाठ है, दूसरा चरण जाप है। तीसरा चरण अजपा है और चौथा चरण अनाहत है। चौथे चरण में पूरी तरह शान्त बैठना है, स्मृति से भी मुक्त होकर। इन शान्ति के क्षणों में ही अनाहत की सम्भावना दस्तक देगी। ___'ॐ' परमात्मा का ही द्योतक है। इसलिए इसमें रचो। यह महामंत्र है। सारे मंत्रों का बीज है यह। हर मंत्र किसी न किसी रूप में इसी से जुड़ा है। इसलिए ॐ मंत्र योग की जड़ है। एक पेड़ में पत्ते हजारों हो सकते हैं, पर जड़ तो एक ही होती है। जिसने जड़ को पकड़ लिया, उसने जड़ से जुड़ी हर सम्भावना को आत्म-सात् कर लिया। 'ॐ' कालातीत है, अर्थातीत है, व्याख्यातीत है। परमात्मा भी इसी में समाया हुआ है और यह परमात्मा में समाया हुआ है। ईसाइयों का आमीन 'ॐ' ही है। जैनों ने 'ॐ' में पंच परमेष्ठि का निवास माना है। हिन्दुओं ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश का संगम माना है। परमात्मा में डूबने वाले 'ॐ' में डूबें। ॐ से ही अस्तित्व ध्वनित होता है। 'ॐ' से ही परमात्मा अस्तित्व में घटित होता है। 'ॐ' शान्ति' इसके आगे और कोई चरण नहीं है। 0 अष्टदशी / 2020