Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
TARNINDIAHINITITUDIST
डा० ज्योतिप्रसाद जैन एम० ए०, एल-एल० बी०, पी-एच० डी०, लखनऊ जैन कथासाहित्य
ANSWEARNI
विश्व के सम्पूर्ण साहित्य को लें, अथवा किसी भी देश, जाति या भाषा के साहित्य को लें, उनका बहुभाग एवं सर्वाधिक जनप्रिय अंश किसी न किसी रूप में रचित उसका कथात्मक साहित्य ही पाया जाता है. मात्र लौकिक साहित्य के क्षेत्र में ही यह स्थिति नहीं है वरन् तथाकथित धार्मिक साहित्य के सम्बन्ध में भी यही बात पाई जाती है. साहित्य के साथ जैन विशेषण की उपस्थिति यह सूचित करती है कि यहाँ जैन नाम से प्रसिद्ध धार्मिक-परम्परा विशेष का साहित्य अभिप्रेत है. यह परम्परा चिरकाल से उस अत्यन्त प्राचीन एवं विशुद्ध भारतीय सांस्कृतिक धारा का प्रतिनिधित्व करती आई है जो 'श्रमण' नाम से प्रसिद्ध रही है. इस निवृत्तिप्रधान परम्परा में आत्मस्वातन्त्र्य एवं श्रमपूर्वक आत्मशोधन पर अत्यधिक बल दिया गया है और अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण उसने तथाकथित हिन्दु धर्म की जननी भोग एवं प्रवृत्तिप्रधान ब्राह्मण वैदिक संस्कृति से अपना पृथक् अस्तित्व बनाये रक्खा. क्योंकि इस जैन श्रमणपरम्परा का मूल उद्देश्य वैयक्तिक जीवन का नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नयन था. उसकी दृष्टि केवल सामूहिक लोकजीवन अथवा किसी वर्ग या समाज विशेष तक ही सीमित नहीं रही वरन् उसने प्रत्येक जीवात्मा को व्यक्तिशः स्पर्श करने का प्रयत्न किया. यही कारण है कि इस परम्परा द्वारा प्रेरित, सृजित, प्रचारित एवं संरक्षित साहित्य भारतवर्ष की प्रायः समस्त प्राचीन एवं मध्यकालीन भाषाओं में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है. प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड, तामिल, राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी आदि भाषाओं के विकास एवं उनके साहित्यिक भंडार की अभिवृद्धि में जैन साहित्यकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान है. विपुल जैन साहित्य केवल तात्त्विक, दार्शनिक या धार्मिक क्रियाकाण्ड से ही सम्बन्धित नहीं है, वरन् भारतीय ज्ञानविज्ञान की प्रायः प्रत्येक शाखा पर रचित अधिकारपूर्ण रचनाएं उसमें समाविष्ट हैं. तत्त्वज्ञान, अध्यात्म, लोकरचना, भूगोल, खगोल, ज्योतिष, मन्त्रशास्त्र सामुद्रिक, शिल्पशास्त्र, न्याय, तर्क, छन्द, व्याकरण, काव्यशास्त्र, अलंकार, कोष, आयुर्वेद, पदार्थविज्ञान, पशुपक्षिशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र, इतिहास, राजनीति आदि प्रायः प्रत्येक तत्कालप्रचलित विषय पर जैन विद्वानों की समर्थ लेखनी चली और उन्होंने भारती के भंडार को भरा. किन्तु जैनसाहित्य का लोकदृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण, रोचक एवं जनप्रिय अंश उसका कथा-साहित्य है जैन-कथासाहित्य अत्यन्त विशाल, व्यापक, विभिन्न भाषामय एवं विविध है. लोककथाएँ, दन्तकथाएं, नैतिक आख्यायिकाएं, प्रेमाख्यान, साहसिक कहानियाँ, पशु पक्षियों की कहानियाँ, अमानवी-देवी देवताओं सम्बन्धी कहानियाँ, उपन्यास, नाटक, काव्य, चम्पू, दूहा, ढाल, रासे, व्यङ्ग, रूपक, प्रतीकात्मक आख्यान, इत्यादि समय-समय एवं प्रदेश-प्रदेश अथवा भाषा-भाषा में प्रचलित विविध शैलियों एवं रूपों में जैन कथासाहित्य उपलब्ध है. स्वतन्त्र कथाएं भी हैं और अनेक कथाओं की परस्पर सम्बद्ध शृंखलाएं भी हैं. कुछ छोटी-छोटी कहानियाँ हैं तो कुछ पर्याप्त बड़ी. जैन कथाओं की यह विशेषता है कि वे विशुद्ध भारतीय हैं और अनेक बार शुद्ध देशज हैं. इसके अतिरिक्त पर्याप्त संख्या में वे पूर्णतया मौलिक हैं. कभी-कभी महाभारत आदि जैनेतर ग्रन्थों से भी कथास्रोत ग्रहण किये गये हैं. (यथा नल-दमयन्ती की कथा) मौखिक द्वार से प्रचलित लोककथाओं को भी अनेक बार आधार बनाया गया है किन्तु
Jain Edt
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________ 866 : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय उन्हें अपने (जैन) रूप में ढाल कर ही प्रस्तुत किया गया है. जैनकथाकार बहुत कुछ स्वतंत्र एवं उन्मुक्त होता है. बौद्धकथाकार की भांति उसपर कोई प्रतिबंध नहीं होता. प्रायः प्रत्येक बौद्धकथा किसी न किसी बोधिसत्त्व को केन्द्रबिन्दु मानकर चलती है. किन्तु कोई भी कथानक हो, कोई और कैसे भी पात्र हों अथवा कैसा भी घटनाक्रम या स्थितिचित्रण हो, जैन कथाकार मजे से अपनी कहानी एक रोचक एवं वस्तुपरक ढंग से कहता चलता है, केवल कहानी के अन्त में प्रसंगवश कुछ दार्शनिकता का प्रदर्शन, अथवा पुण्य के सुफल और पाप के कुफल की ओर संकेत कर दिया जाता है अथवा कोई नैतिक निष्कर्ष निकाल लिया जाता है या यह सूचित कर दिया जाता है कि प्रस्तुत कथा अमुक धार्मिक मान्यता या सिद्धान्त का एक दृष्टान्त है. अपनी इस उन्मुक्त स्वतन्त्रता के कारण जीवन की प्राय: प्रत्येक भौतिक, मानसिक, बौद्धिक या भावनात्मक परिस्थिति को जैनकथाकार अपनी कथा में आत्मसात कर लेता है और फलस्वरूप अनेक जैनकथाएं जनजीवन के प्रायः प्रत्येक अंग को स्पर्श कर लेती हैं. अतः आबालवृद्ध, स्त्रीपुरुष, जनसाधारण के स्वस्थ मनोरंजन का साधन बन जाती हैं और लोकप्रिय हो जाती हैं. मनोरंजन के मिस किसी तात्त्विक, दार्शनिक, सैद्धान्तिक या नैतिक तथ्य की छाप श्रोता के मस्तिष्क पर डालने के अपने उद्देश्य में उसके बहुधा सफल हो जाने की संभावना रहती है. टाने, हर्टल, ब्हलर, ल्यूमेन तेस्सितोरि, जैकोबी आदि अनेक यूरोपीय प्राच्यविदों ने जैन कथासाहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण गवेषणाएँ की हैं. पूर्वमध्यकाल में ही अनेक जैनकथाएँ भारत के पश्चिमी तट से अरब पहुँचीं, वहाँ से ईरान और ईरान से यूरोप पहुँची. अनेक जैनकथाओं को तिब्बत, हिन्दएशिया, रूस, यूनान, सिसली और इटली के तथा यहूदियों के साहित्य में चीन्ह लिया गया एवं खोज निकाला गया है. जैनकथासाहित्य के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह साहित्य अखिल भारतीय संस्कृति से घनिष्कृतया सम्बन्धित है और इसी कारण विभिन्न कालों एवं प्रदेशों के जनजीवन का जैसा प्रतिबिम्ब इन जैन कथाओं में मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है. पराणों, पौराणिक चरित्रों, खंडकाव्यों, महाकाव्यों, नाटकों आदि को न गिनें तो भी सैकड़ों स्वतन्त्र कथाएँ हैं और सैकड़ों ही छोटी-बड़ी कथाओं के संग्रह हैं. केवल विक्रमविषयक 60 कथाएँ मिलती हैं और केवल मैना-सुन्दरी एवं श्रीपाल के कथानक को लेकर 50 से अधिक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं. अनेक कथासंग्रहों में 100 से 200 तक कथाएँ संग्रहीत हैं, किसी किसी में 360 हैं जिससे कि वक्ता प्रतिदिन एक के हिसाब से पूरे वर्षभर श्रोताओं का नित्य नवीन कथा से मनोरंजन करता रहे. जैन कथा साहित्य के प्रधान मूलस्रोत पइन्नाओ को तथा शिवार्य की 'भगवती-आराधना' को माना जाता है. गुणाढ्य की प्रसिद्ध बृहत्कथा का आधार काणाभूति द्वारा भूतभाषा में रचित जिस ग्रन्थ को माना जाता है वह जैन विद्वान काणाभिक्षु का ही प्राकृत कथाग्रन्थ रहा प्रतीत होता है. श्वे० आगमसूत्र एवं दिग० पौराणिक साहित्य भी अनेक जैन कथाओं के उद्गम स्रोत रहे हैं. प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण जैनकथा ग्रन्थों में हरिषेण का बृहत्कथाकोष, प्रभाचन्द्र, श्रीचन्द्र, नेमिदत्त, आदि के आराधनाकथाकोष, जिनेश्वर सूरि एवं भद्रेश्वरसूरि की कथावलियाँ, रामचन्द्र का पुण्यास्रवकथाकोष इत्यादि उल्लेखनीय हैं. स्वतन्त्र कथाओं में तरंगवती कहा, समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान, कुवलयमाला, उपमितिभवप्रपंचकथा, धर्मपरीक्षा, सम्यक्त्वकौमुदी, तिलकमंजरी, धर्मामृत, शुकसप्तति, रत्नचूड की कथा आदि विशेष महत्त्वपूर्ण हैं.