Book Title: Jain Katha Sahitya me Nari
Author(s): Sushila Jain
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -O -O जैन-कथा-साहित्य में नारी डॉ० श्रीमती सुशीला जैन मोहन निवास, कोठी रोड, उज्जैन कथा, विभान्ति, जागृति उद्बोधन, आत्मचिन्तन, तच्वनिरूपण, विविध कला-परिज्ञान-संचरण, दिव्यानुभूति मानवोचित अनेक वस्तुस्वभाव परिशीलन आदि का सहज स्रोत है। यही कारण है कि आदिकाल से मनीषियों का कथा साहित्य के प्रति स्वाभाविक आकर्षण है। यह कहना अनुचित न होगा कि मानव-संस्कृति के साथ ही यह कया अनुस्यूत है । विश्व का कोई ऐसा अंग नहीं है जो कथा की परिधि में समाहित न हुआ हो। चींटी से लेकर गजराज तक वास्तविकता इसके पात्र हैं एवं धरती का अणु पर्वतराज की विशाल काय को लेकर कथा का कथानक बना है। कल्पना, के वेश में अलंकृत होकर कहानी की सर्जना करती है, सूर्य इसे आलोकित करता है, चन्द्रमा अपनी शीतल किरणों से इसकी थकान मिटाता है, सागर अपनी लहरों से इसके पैरों को प्रक्षालित करता है, सुमन अपनी सौरभ से उसे नित्य सुरभित करता रहता है। वीरों की तलवारें कथा के प्रांगण में चमकती हैं, वनवासियों के तार कथा के माध्यम से स्वर्ग तक पहुँचते हैं, राजाओं के गहन न्याय कहानी की तरलता से सर्वमान्य बनते हैं एवं नारी के विविध रम्यरूप आख्यायिका के आख्यान बनकर मानव को विमोहित करते रहते हैं । महाराजा से लेकर रंक तक अपनी सरलता - कोमलता क्षमा सन्तोषवृत्ति आदि को साहित्य की इस कमनीय विधा से रम्यरूपायित किया करते हैं। ऐतिहासिकता, कथा की अभिव्यक्ति से ही तो सर्वमान्य बनी है। भारतीय नारी की लम्बी यात्रा इस कथा - साहित्य में इस प्रकार गुम्फित हुई है कि इसका प्रत्येक चरण कहीं अपूरित है तो कहीं संत्रासों से उद्वेलित हुआ है। वहीं इसका प्रथम अध्याय ओजपूर्ण है तो कहीं उसकी मध्य रूप. रेखा दयनीय स्थिति से आकान्त है। लेकिन इन विविध रूपों में नारी का बहुविध रूप कहीं भी अस्थिर नहीं हो सकता है । कितने अत्याचार, अनाचार एवं बीभत्स दृश्य इस रमणी ने देखे फिर भी उसकी दारुण परिस्थिति कुछ ही पलों में संदमित होकर स्वार्थी मानव की जाति का आदि सन्देश बनी निश्चयतः नारी परम तपस्या की प्रतीक है. साधना का अकम्पित लक्ष्य है, कठोर संयम का स्वरूप एवं समय की आधारभूत क्रान्ति है । जैन कथा - साहित्य में सामान्यतया नारी के ये रूप उपलब्ध हैं १. पुत्री के रूप में २. कन्या के रूप में ३. रानी-महारानी के रूप में, ४ शासिका के रूप में, ५. मानिनी के , रूप में, ६. विद्रोहिणी के रूप में, ७. अविवाहिता के रूप में, ८ विवाहिता के रूप में, 8. विरह पीड़िता के रूप में, १०. राष्ट्र संरक्षिका के रूप में ११. गृहिणी के रूप में, १२. साध्वी के रूप में, १३. सच्चरित्रा के रूप में, १४. पतिता के रूप में, १५. मोहिनी के रूप में, १६. आदर्श शिक्षिता के रूप में, १७. विविध कला - विशारदा २०. रूप लावण्य-कमनीयता के रूप में, के रूप में १८. युद्ध-प्रवीणा के रूप में १६. धर्मसेविका के रूप में २१. राजनीतिज्ञा के रूप में २२. गणिका के रूप में २३. गुप्तचर के रूप में २४, प्रगतिशीला के रूप में, २५. परम्परागत रूढ़ियस्ता के रूप में, २६ व्यभिचारिणी के रूप में, २७ मंत्र-तंत्रादि- विशारदा के रूप में, २८. अंकुरित यौवना के रूप में, २६ ज्ञात यौवना के रूप में, ३०. स्वाभिमानिनी के रूप में, ३१ प्रकीर्णका । विनय, क्षमा, गृह-कार्य-कुलता, शिल्प, वैदुष्य, धीरता, ईश्वरभक्ति तथा पातिव्रत्य आदि गुणों से अलंकृत नारी सभा श्रृंगार नामक ग्रन्थ में रूपाली, चन्द्रमुखी, चकोराक्षी, चित्तहरिणी, चातुर्यवन्ती, हंसगतिगामिनी, शीलवंती, सुलक्षिणी, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-कथा-साहित्य में नारी ६४३ . ................................... श्यामा, नवांगी, नवयौवना, गौरांगी, गुणवन्ती, पद्मणी, पीनस्तनी और हस्तमुखी आदि चालीस रूपों में विभक्त महादेवी, शिवा, जगदम्बा, भद्रा, रौद्रा, गौरी, बुद्धि, छाया, शक्ति, कृष्णा, शान्ति, लज्जा, श्रद्धा, कान्ति, दया, तृप्ति आदि के रूपों में आपूत नारी प्राचीन जैन साहित्य में बहु प्रशंसित अवश्य हुई है लेकिन बहुपत्नीत्व की प्रथा ने उसे समय-समय पर अधिक पीड़ित किया है। जैन धर्मग्रन्थों को देखने से पता चलता है कि प्राचीनकाल में प्रतिष्ठित धनी परिवारों में बह-पत्नीत्व का प्रचुरता से प्रचलन था । वही व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठित और सम्मानित माना जाता था जो अनेक पत्नियाँ रखता था । श्रावक लोग भी अनेक पत्नियां रखते थे। राजमल द्वारा रचित लाटी संहिता वि० सं० १६४१ की एक प्रशस्ति में भासू नाम के एक श्रावक की मेधा, रूपिणी और देविला नाम की तीन पत्नियों का उल्लेख मिलताहै। आगे इसी ग्रन्थ में संघपति भासू के नाती न्योता को पद्माही और गौराही नामक दो पत्नियों और संघपति मोल्हा की छाजाही और विधृही आदि तीन पत्नियों का उल्लेख किया गया है। इस काल के (वि० सं० १०७०) अमितगति के एक पुराने ग्रन्थ धर्मपरीक्षा की मण्डपकौशिककथा के प्रकरण में आये कुछ श्लोकों से उन दिनों विधवा-विवाह के प्रचलन की सम्पुष्टि होती है। जैन धर्म-ग्रन्थों में इस बात के भी अनेक सुपुष्ट प्रमाण मिलते हैं कि समाज के अन्य वर्गों के समान जन-सम्प्रदाय में भी दासियाँ रखने की प्रथा थी। 'दास: क्रय-क्री तकर्मकर:' के अनुसार खरीदी हई नारियाँ ही दासी कहलाती थीं। जिन स्त्रियों को विधिवत् विवाह न करके वैसे ही घर में रख लिया जाता था उन्हें चेटिका कहा जाता था। चेटिका सुरतप्रिया और भोग्या होती थीं। जो दासियाँ खरीदी जाती थीं उनमें से कुछ को पत्नी के रूप में भी स्वीकार कर लिया जाता था । ऐसी स्त्रियों को रखैल या परिग्रहीता की संज्ञा दी गई। उन दिनों गृहस्थों का ब्रह्मचर्य अणुव्रत अथवा स्वदारसंतोष व्रत यही था कि वे खरीदी हुई दासियों और धर्मपत्नी को छोड़कर अन्य सब स्त्रियों को माता, बहन और बेटी समझते थे। नारी के भेदों की चर्चा भी जैन-ग्रन्थों में प्रचुरता से हुई है। जैन कथा-साहित्य में नारो-मेव विभिन्न देशों की कमनीय नारियों को उनके विशिष्ट अंग-सौन्दर्य को ध्यान में रखते हुए विभाजित किया गया है-केरल देश (अयोध्यापुरी का दक्षिण दिशावर्ती देश) की स्त्रियों के मुखकमलों को उस प्रकार विकसित करने वाले जिस प्रकार सूर्य कमलों को विकसित करता है, वंगीदेश (अयोध्या का पूर्वदिशावर्ती देश) की कमनीय कामिनियों के कानो को उस प्रकार विभूषित करने वाले जिस प्रकार कर्णपूर (कर्णाभूषण) कानों को विभूषित करता है; चोल-देश (अयोध्या की दक्षिण दिशा सम्बन्धी देश) की रमणियों के कुच (स्तन) रूपी फूलों की अधखिली कलियों से क्रीड़ा करने वाले, पल्लवदेश (पंच द्वामिल देश) की रमणियों के वियोग दुःख को उत्पन्न करने वाले, कुन्तल देश (पूर्वदेश)। की स्त्रियों के केशों को विरलीकरण में तत्पर, मलयाचल की कमनीय कामिनियों के शरीर में नखक्षत करने में तत्पर पर्वत सम्बन्धी नगरों की रमणियों के दर्शन करने में विशेष उत्कंठित, कर्नाटक देश की स्त्रियों को कपट के साथ आलिगन करने में चतुर, हस्तिनापुर की स्त्रियों के कुच-कलशों को उस प्रकार आच्छादित करने वाले जिस प्रकार कंचक (जम्फर आदि वस्त्र विशेष) कुचकलशों को आच्छादित करता है। ऐसे हे राजन् ! आप काश्मीर देश की कमनीय कामिनियों के मस्तकों को कुकुम-तिलक रूप आभूषणों से विभूषित करते हैं । १. सम्पादक : क्षेमचन्द्र सुमन : नारी तेरे रूप अनेक, भूमिका, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखित, पृ० ४२ २. नारी तेरे रूप अनेक : भूमिका, पृ० ४१-४२ ३. श्रीमत्सोमदेवसूरि-विरचित : यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य, पृ०६८ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O ६४४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड संस्कृत साहित्य के उत्थान में अन्य महिलाओं के साथ जैन महिलाओं का योगदान भी महत्त्वपूर्ण है ( विशेष अध्ययनार्थ द्रष्टव्य संस्कृत साहित्य में महिलाओं का दान लेखक डा० यतीन्द्र विमल चौधरी, प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० ६७६) । : इसी प्रकार धर्मसेविकाओं के रूप में जैन-नारियों ने जो ख्याति प्राप्त की है, यह सर्वदा अनुकरणीय रही है। प्राचीन शिलालेखों एवं चित्रों से पता चलता है कि जैन श्राविकाओं का प्रभाव तत्कालीन समाज पर था। इन धर्मसेविकाओं ने अपने त्याग से जैन समाज में प्रभावशाली स्थान बना लिया था। उस समय की अनेक जैन देवियों ने अपनी उदारता एवं आत्मोत्सर्ग द्वारा जैन धर्म की पर्याप्त सेवा की है। इस सन्दर्भ में इक्ष्वाकुवंशीय महाराज पद्म की पत्नी धनवती मौर्यवंशीय चन्द्रगुप्त की पत्नी सुषमा, एवं सिद्धसेन की धर्मपत्नी सुप्रभा के नाम विशेष उल्लेख नीय हैं।" 1 जैन कथा-ग्रन्थों की संक्षिप्त तालिका प्रथमानुयोग के अन्तर्गत जो भी जैन साहित्यिक सामग्री ग्राह्य है, वह सब जैन कथात्मक है। मैं तो यह मानती हूँ कि यह प्रथमानुयोग, अन्य तीन अनुयोगों से ( चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, करणानुयोग ) से बृहत्तर है । तीर्थकरों की जीवन गाथाएँ, त्रेसठशला कापुरुषों का जीवन चरित्र चरितकाव्य (पद्यात्मक एवं गद्यात्मक ), कथा कोश आदि की तालिका बहुत बड़ी है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं प्रदेशीय विभिन्न भाषाओं में रचित जैन कथा - साहित्य प्रचुर है। डा० वासुदेवशरण अग्रवाल 'लोक कथाएँ और उनका संग्रह कार्य' शीर्षक निबन्ध में लिखते हैं - बौद्धों ने प्राचीन जातकों की शैली के अतिरिक्त अवदान नामक नये कथा साहित्य की रचना की जिसके कई संग्रह ( अवदान शतक, दिव्यावदान आदि) उपलब्ध हैं । परन्तु इस क्षेत्र में जैसा संग्रह जैन लेखकों ने किया वह विस्तार, विविधता और बहुभाषाओं के माध्यम की दृष्टि से भारतीय साहित्य में अद्वितीय है उन्नीसवीं शती तक जैन साहित्य में कयाग्रन्थों की अविच्छिन्न धारा पायी जाती है। विक्रम संवत् के आरम्भ से लेकर यह कथा-साहित्य इतना विशाल है कि इसके समुचित सम्पादन और प्रकाशन के लिए पचास वर्षों से कम समय की अपेक्षा नहीं होगी। - डॉ. शंकरलाल यादव अपने शोधग्रन्थ हरियाणा प्रदेश का लोक-साहित्य में जैन कथा-साहित्य के विस्तार के सम्बन्ध में अपने विचार इस प्रकार प्रकट करते हैं कथा-साहित्य सरिता की बहुमुखी धारा के वेग को त्रिगामी बनाने में जैन कथाओं का योगदान उल्लेखनीय है। जैनों के मूल आगमों में द्वादशांगी प्रधान और प्रख्यात है । उनमें नायाधम्मकहा, उवासगदसाओ, अन्तगड, अनुत्तरोपपातिक, विपाकसूत्र आदि समग्र रूप में कथात्मक हैं । इनके अतिरिक्त सूयगडंग, भगवती, ठाणांग आदि में अनेक रूपक एवं कथाएँ हैं जो अतीव भावपूर्ण एवं प्रभावजनक हैं। तरंगवती, समराइच्चकहा तथा कुवलयमाला आदि अनेकानेक स्वतन्त्र कथा ग्रन्थ तथा विश्व की सर्वोत्तम कथा - विभूति हैं। यदि इनका अध्ययन विधिवत् तथा इतिहास क्रम से किया जाय तो कई नवीन तथ्य प्रकाश में आयेंगे और जैन कथा साहित्य की प्राचीनता वैदिक कथाओं से भी अधिक पुरानी परिलक्षित होगी। जैनों का पुरातन साहित्य तो कथाओं से पूर्णतः परिवेष्टित है । कतिपय कथा कोश निम्नस्थ हैं --- (१) कथाकोश अथवा कथाकोशप्रकरणम् इसके रचयिता श्रीवर्धमानसूरि के शिष्य विनेश्वरसूरि हैं। प्राकृत के इस ग्रन्थ में २३६ गाथाएँ हैं । - ९. विशेष अध्ययनार्थ देखिए - ब्र० चंदाबाई जैन-धर्मसेविका प्राचीन जैन देवियाँ, प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० ६८४ २. आजकल - लोक-कथा अंक, पृ० ११ २. हरियाणा प्रदेश का लोक साहित्य, पृ० ३३०-४० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-कथा-साहित्य में नारी ६४५. ......................................................... (२) कथाकोथ-रचयिता अज्ञात है । इसमें १७ कथाएँ हैं, जो संस्कृत में लिखी गई हैं। (३) कथारत्नकोश-श्रीप्रसन्नचन्द्र के शिष्य श्रीदेवभद्र द्वारा रचित है। यह प्राकृत कृति है । (४) कथाकोश (भरतेश्वर बाहुबलि-वृत्ति)-प्राकृत की यह रचना है जिसमें महापुरुषों की जीवन कथाएँ हैं। (५) कथाकोश (व्रतकथाकोश),-श्री श्रुतसागररचित यह संस्कृत कृति है। जिसमें व्रतों से सम्बन्धित व अनेक जैन कथाएँ हैं । इसकी रचना शैली प्रांजल है तथा कथ्य बड़ी रमणीयता से प्रतिपादित किया गया है। (६) इस रचना में १४० गाथाएँ हैं । प्राकृत की यह कृति श्रीविजयचन्द्र रचित है। (७) आख्यानमणिकोश-यह प्राकृत में लिखित है, जिसमें ४१ अध्याय हैं। (क) कथारत्नसागर-इसमें १५ तरंग हैं जिसे श्रीदेवभद्रसूरि के शिष्य नरचन्द्रसूरि ने रचा है। (6) कथारत्नाकर-इसमें संस्कृत में लिखित २५८ जैन कथाएँ हैं। जो संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि के पुरातन उद्धरणों से अलंकृत भी है। (१०) कथार्णव-जैन तपोधन वीरों की इसमें कथाएं हैं। अन्य उपदेश कथाएँ भी यहाँ द्रष्टव्य हैं। कवि धर्मघोष ने इसे प्राकृत में लिखा है। (११) कथा-संग्रह-सामान्य संस्कृत में लिखित अनेक सरस कथाएँ इसमें संग्रहीत हैं। एक मुख्य कथा के अन्तर्गत अनेक उपकथाएँ गुम्फित की गई हैं। इसके रचयिता श्री राजशेखरमलधारी हैं। (१२) श्रीरामचन्द्र मुमुक्षु कृत संस्कृत पुण्यात्रव कथा-कोश-भी बहुचर्चित है। इन कथाकोशों के अतिरिक्त शताधिक जैन कथाकोश उपलब्ध हैं। शान्तिनाथ चरित्र, वसुदेवहिंडी, पउमचरियं, च उप्पन्न महापुरिस चरियं, तरंगलोला, भुवनसुन्दरीकहा, निर्वाण लीलावती कथा, वहत्कथाकोश, उपदेश प्रासाद, जंबुचरियं, सुरसुन्दरचरियं, रयणचूरराय, जयति प्रकरण आदि-आदि अनेक कथा ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद हो चुका है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष में विभाजित जैन कथाओं के कुछ उपभेद भी हैं, जिनमें नारी के विविध रूप अंकित नारी के कुछ रंगीन अथवा मर्म-स्पर्शी चित्र इन कथाओं में रूपायित हए हैं (१) कर्कशापत्नी-धन का घड़ा और बुद्धिहीन पड़ौसी, पृ०६. (२) अतीत की राजकुमारी आज की दासी-दास-प्रथा की जड़ें हिल गईं, पृ० १३. (३) साध्वी प्रमुखा का प्रभावक ज्ञानोपदेश—सबसे पहला कार्य, पृ० १६. (४) रानी मृगावती का अटल आत्मविश्वास गूंजा-मेरे लिए अब अंधकार नहीं रहा, पृ० २४. (५) नृत्य कला प्रवीणा देवदत्ता नामक वेश्या की लास्यभंगिमा-हथेली पर सरसों कैसे उगेगी, पृ० ३१. (६) शील का चमत्कार-नामक कथा में नारी का भव्यरूप, पृ० ३४. (यह सब पृष्ठ संख्या जैन जगत के जैन कथा अंक के हैं।) (७) माली की दो लड़कियाँ केवल भक्तिभाव से जिन मन्दिर की देहली पर एक-एक फूल चढ़ाने के कारण मरने के उपरान्त सौधर्म इन्द्र की पत्नियां बनती हैं । (पुण्यास्रव कथाकोश, पृ० १.) १. राजकथा, चोरकथा, सेनकथा, भयकथा, युद्धकथा, पातकथा, वस्त्रकथा, शयनकथा, मालाकथा, गंधकथा, ग्रामकथा, निगम कथा, स्त्रीकथा, पुरुषकथा, शूरकथा, पनघटकथा, आदि-आदि । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 646 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रस्थ: पंचम खण्ड (8) मैनासुन्दरी अपनी व्रत-साधना के बल पर अपने पति को कुष्ठरोग से मुक्त करती है। (श्रीपाल एवं मैनासुन्दरी की कथा, पुण्याथव कथाकोश) (8) सती जसमा ओडण, सती ऋषिदत्ता एवं लीलापत-झणकारा, अपने पतिव्रता के भव्यरूप में विश्ववन्दनीय बनती हैं। (देखिए-अध्यात्मयोगी-श्रीपुष्करमुनि-जैन कथाएँ भाग 20 आदि)। संघर्षों के द्वन्द्वों में उन्मत्त शीर्षा नारी सर्वथा वरेण्य है, वह पूजनीय है, अनुकरणीया है एवं आलोकित प्रतिभा की धनी है / शक्तिसंगम तंत्र ताराखण्ड में प्रदत्त यह नारी प्रशस्ति शाश्वत अर्थवती है न नारीसदृशो योगो, न भूतं न भविष्यति // न नारीसदृशो मंत्रः, न नारीसदृशं तपः / न नारीसदृशं वित्तं, न भूतो न भविष्यति / 0000