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प्रयोग सर्वथा निषिद्ध ही माना जाये।
इस प्रकार विशिष्ट नियंत्रणों के साथ ही वाहन प्रयोग और विदेश यात्रा की अनुमति अपवाद मार्ग के रूप में मानी जा सकती है । उसे सामान्य नियम कभी भी नहीं बनाया जा सकता क्योंकि भूतकाल में भी वह एक अपवाद मार्ग ही था। इस प्रकार आचार मार्ग 计 युगानुरूप परिवर्तन तो किये जो सकते हैं परन्तु उनकी अपनी उपयोगिता होनी चाहिए और उनसे जैन धर्म के शाश्वत मूल्यों पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में देश और काल
समग्र एवं संश्लेषणात्मक अध्ययन की आवश्यकता
भारतीय संस्कृति के सम्यक् ऐतिहासिक अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि उसकी प्रकृति को पूरी तरह से समझ लिया जाये। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। वस्तुतः कोई भी विकसित संस्कृति संश्लिष्ट संस्कृति ही होती है क्योंकि उसके विकास में अनेक संस्कृतियों का अवदान होता है। भारतीय संस्कृति को हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि चारदीवारी में अवरुद्ध करके कभी भी सम्यक् रूप से नही समझा जा सकता है। जिस प्रकार शरीर को खण्ड-खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, ठीक उसी प्रकार भारतीय संस्कृति को खण्डों में विभाजित करके देखने से उसकी आत्मा ही मर जाती है। अध्ययन की दो दृष्टियाँ होती हैंविश्लेषणात्मक और संश्लेषणात्मक विश्लेषणात्मक पद्धति तथ्यों को खण्डों में विभाजित करके देखती है, तो संश्लेषणात्मक विधि उसे समग्र रुप से देखती है। भारतीय संस्कृति के इतिहास को समझने के लिए यह आवश्यक है कि इसके विभिन्न घटकों अर्थात् हिन्दू, बौद्ध और जैन परम्पराओं का समन्वित या समग्र रूप में अध्ययन किया जाये। जिस प्रकार एक इंजन की प्रक्रिया को समझने के लिए न केवल उसके विभिन्न घटकों अर्थात् कल-पुर्जों का ज्ञान आवश्यक है, अपितु उनके परस्पर संयोजित स्वरूप को तथा एक अंग की क्रिया के दूसरे अंग पर होने वाले प्रभाव को भी समझना होता है। सत्य तो यह है कि भारतीय इतिहास के शोध के सन्दर्भ में अन्य सहवर्ती परम्पराओं के अध्ययन के बिना भारतीय संस्कृति का समग्र इतिहास प्रस्तुत ही नहीं किया जा सकता।
कोई भी धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नहीं होती हैं, वे अपने देश-काल तथा अपनी सहवर्ती अन्य परम्पराओं से प्रभावित होकर ही अपना स्वरूप ग्रहण करती हैं। यदि हमें जैन, बौद्ध या हिन्दू किसी भी भारतीय सांस्कृतिक धारा के इतिहास का अध्ययन करना है तो उनके देशकाल और परिवेश को तथा उनकी सहवर्ती परम्पराओं के
के प्रभाव से समय-समय पर अनेक परिवर्तन होते रहे हैं और इन्हीं परिवर्तनों के फलस्वरूप ही जैनधर्म के विभिन्न सम्प्रदाय अस्तित्व में आये हैं। यदि हम उनके इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को तटस्थ दृष्टि से समझने का प्रयत्न करेगें तो विभिन्न सम्प्रदायों के प्रति गलतफहमियाँ दूर होंगी और जैन धर्म के मूलधारा में रहे हुए एकत्व का दर्शन कर सकेगें। साम्प्रदायिक सद्भाव और एक दूसरे को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए इस ऐतिहासिक दृष्टिकोण की आज महती आवश्यकता है। आज हम इसे अपनाकर अनेक पारस्परिक विवादों का सहज समाधान पा सकेगें।
जैन इतिहास : अध्ययन विधि एवं मूलस्रोत
प्रभाव को सम्यक् प्रकार से समझना होगा। भारत के सांस्कृतिक इतिहास को समझने और उसके प्रामाणिक लेखन के लिए एक समग्र किन्तु देशकाल सापेक्ष दृष्टिकोण को अपनाना आवश्यक है।
ऐतिहासिक अध्ययन के लिए जहाँ एक ओर विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर एक समग्र दृष्टिकोण (Holistice Approach) भी आवश्यक है। भारतीय ऐतिहासिक अध्ययन का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसे विभिन्न धर्मों और परम्पराओं का एक घेरे में आबद्ध करके अथवा उसके विभिन्न पक्षों को खण्ड-खण्ड करके देखने का प्रयत्न हुआ है। अपनी आलोचक और विश्लेषणात्मक दृष्टि के कारण हमने एक दूसरे की कमियों को ही अधिक देखा है। मात्र यही नहीं, एक परम्परा में दूसरी परम्परा के इतिहास को और उसके जीवन मूल्यों को प्रान्त रूप से प्रस्तुत किया गया है।
भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के लेखन में पहली भूल तब हुई जब दूसरी परम्पराओं को अपनी परम्परा से निम्न दिखाने के लिए उन्हें गलत ढंग से प्रस्तुत किया गया। प्रत्येक परम्परा की अगली पीढ़ियाँ दूसरी परम्परा के उस गलत प्रस्तुतीकरण को ही आगे बढ़ाती रहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय संस्कृति और विशेष रूप से भारतीय दर्शन में प्रत्येक पक्ष ने दूसरे पक्ष का विकृत चित्रण ही प्रस्तुत किया। मध्यकालीन दार्शनिक ग्रंथों में इस प्रकार का चित्रण हमें प्रचुरता से उपलब्ध होता है।
सौभाग्य या दुर्भाग्य से जब पाश्चात्य इतिहासकार इस देश में आये और यहाँ के इतिहास का अध्ययन किया तो उन्होंने भी अपनी संस्कृति से भारतीय संस्कृति को निम्न सिद्ध करने के लिए विकृत पक्ष को उभार कर इसकी गरिमा को धूमिल ही किया। फिर भी पाश्चात्य लेखकों में कुछ ऐसे अवश्य हुए हैं जिन्होंने इसको समग्र रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया और एक के ऊपर दूसरी परम्परा के प्रभाव को देखने का भी प्रयत्न किया। किन्तु उन्होंने अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए भारतीय संस्कृति की एक धारा को दूसरी धारा के विरोध में खड़ा कर
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________________ 612 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ दिया और इस प्रकार भारतीय संस्कृति की एकात्मता को खण्डित किया। हैं। यह मूल्यांकन विभिन्न दृष्टिकोणों पर आधारित होता है। अत: हम यह यदि हमें भारतीय संस्कृति का प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करना है तो कह सकते हैं कि जैनों का अनेकान्त सिद्धान्त ऐतिहासिक मूल्यांकन के यह आवश्यक है कि हमारे सांस्कृतिक इतिहास का एक समन्वित और क्षेत्र में भी पूर्णत: लागू होता है। हमें उन दृष्टिकोणों या सिद्धान्तों की समग्र दृष्टिकोण के आधार पर पुनर्मूल्यांकन हो। सापेक्षता को समझना है जिसके आधार पर ऐतिहासिक मूल्यांकन होते हैं। जब तक ऐतिहासिक मूल्यांकन का हार्द नहीं समझ पायेंगे तब तक आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ अध्ययन : जैन दृष्टिकोण ऐतिहासिक मूल्यांकन एवं ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या मात्र किसी किसी भी व्याख्या या अध्ययन के दो पक्ष होते हैं- एक दृष्टिकोण पर या किसी एक सिद्धान्त पर संभव नही है। इतिहास 1. आत्मनिष्ठ और 2. वस्तुनिष्ठ। आत्मनिष्ठ व्याख्या में व्याख्याता का न तो पूर्ण वस्तुनिष्ठ (Objective) हो सकता है न पूर्ण आत्मनिष्ठ अपना दृष्टिकोण प्रधान होता है और वह अपने दृष्टिकोण के अनुरूप (Subjective) ही। जब भी हमें किसी इतिहास लेखक की किसी तथ्यों को व्याख्यायित करता है जबकि वस्तुनिष्ठ व्याख्या में तथ्य/ घटनाक्रम की व्याख्या का अध्ययन करना होता है तो हमें यह देखना घटनाक्रम प्रधान होता है और व्यक्ति निरपेक्ष होकर उसे व्याख्यायित करता होगा कि उस व्यक्ति का दृष्टिकोण क्या है। वह किन परिवेश और है, फिर भी इतना निश्चित है कि व्याख्या व्याख्याता से पूर्णत: निरपेक्ष परिस्थितियों में उस व्याख्या को प्रस्तुत कर रहा है। नहीं हो सकती है। व्याख्या में तथ्य/घटनाक्रम और व्याख्याता-व्यक्ति दोनों ही आवश्यक हैं। अत: कोई भी व्याख्या एकान्त रूप से आत्मनिष्ठ या सहवर्ती परम्परा के प्रभाव और तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता वस्तनिष्ठ नहीं हो सकती है। उसके आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ दोनों ही यदि हम जैन परम्परा के इतिहास को देखें तो हमें स्पष्ट रुप पक्ष होते हैं। से यह दिखाई देता है कि किस प्रकार अन्य सहवर्ती धाराओं के प्रभाव ऐतिहासिक अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि उसका से उसके ऐतिहासिक चरित्रों में पौराणिकता या अलौकिकता का प्रवेश अध्ययन और ऐतिहासिक तथ्यों का मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ आधार पर होता गया और आचार और विचार के क्षेत्र में परिवर्तन आता गया। हो। दूसरे शब्दों में प्रामाणिक इतिहास लेखन, अध्ययन और मूल्यांकन इसका सबसे अच्छा उदाहरण स्वयं भगवान महावीर का जीवन चरित्र के लिए वस्तुनिष्ठ या तथ्यपरक अनाग्रही दृष्टि आवश्यक है, इसमें ही है। महावीर के जीवनवृत्त संबंधी सबसे प्राचीन उल्लेख आचारांग किसी प्रकार का वैमत्य नहीं है। इतिहास लेखन, अध्ययन एवं के प्रथम एवं द्वितीय श्रुत स्कंध में तथा उसके बाद कल्पसूत्र में उपलब्ध मूल्यांकन सभी व्यक्ति से संबंधित है और व्यक्ति चाहे कितना ही तटस्थ होता है। तत्पश्चात् नियुक्ति, भाष्य और चूर्णी साहित्य में उनके जीवन और अनाग्रही क्यों न हो, फिर भी उसमें कहीं न कहीं आत्मनिष्ठ पक्ष का चित्रण मिलता है। इनके बाद जैन पुराणों और चरित्रकाव्यों में उनके का प्रभाव तो रहता ही है। ऐसे व्यक्ति तो विरल ही होते हैं जो निरपेक्ष जीवनवृत्त का चित्रण किया गया है। यदि हम उन सभी विवरणों को और तटस्थ हों। दूसरे, इतिहास लेखन घटनाओं की व्याख्या है और सामने रखकर तुलनात्मक दृष्टि से उनका अध्ययन करें तो यह स्पष्ट इस व्याख्या में आत्मनिष्ठ पक्ष का पूर्ण उपेक्षा भी संभव नहीं है। जैन हो जाता है कि महावीर के जीवन में किस प्रकार क्रमश: दार्शनिकों ने अपने अनेकान्त सिद्धान्त के द्वारा यह स्थापित किया था अलौकिकताओं का प्रवेश होता गया। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध कि प्रत्येक वस्तु, तथ्य और घटना अपने आप में जटिल और के नवें अध्ययन में महावीर एक कठोर साधक हैं जो कठोर जीवन बहुआयामी होती है, उसकी व्याख्या अनेक दृष्टिकोणों के आधार पर चर्या और साधना के द्वारा अपनी जीवन-यात्रा को आगे बढ़ाते हैं, संभव है। उदाहरण के रूप में ताजमहल का निर्माण एक ऐतिहासिक किन्तु आचारांग के द्वितीय श्रुत स्कंध से प्रारम्भ होकर कल्पसूत्र और घटना है किन्तु ताजमहल निर्माता के चरित्र की व्याख्या विभिन्न रुचियों परवर्ती महावीर चरितों में अलौकिकताओं का प्रवेश हो गया। अत: के व्यक्तियों के द्वारा विभिन्न प्रकार से की जा सकती है। किसी के सामान्य रूप से प्राचीन भारतीय इतिहास और विशेष से जैन इतिहास लिए वह कला का उत्कृष्ट प्रेमी हो सकता है तो किसी के लिए वह जो हमें पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध होता है, उसके ऐतिहासिक तथ्यों प्रेयसी के प्रेम में अनन्य आसक्त। कोई उसे अत्यन्त विलासी तो कोई की खोज अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना होगा। यह कहना उचित नहीं उसे जनशोषक भी कह सकता है। इस प्रकार एक तथ्य की व्याख्या है कि समस्त पौराणिक आख्यान ऐतिहासिक न होकर मात्र काल्पनिक भिन्न-भिन्न प्रकार से हो सकती है। हैं। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि पुराणों और चरितकाव्यों में काल्पनिक अंश इतना अधिक है कि उसमें से ऐतिहासिक तथ्यों को तथ्यों की जटिलता-एक सत्य निकाल पाना एक दुरूह कार्य हैं। जो स्थिति हिन्दू पुराणों की है वही तथ्य की जटिलता और व्याख्या सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोण की स्थिति जैन पुराणों और चरित ग्रंथों की भी है। यह भी सत्य है कि संभावना ये दो ऐसे तथ्य हैं जिन पर ऐतिहासिक मूल्यांकन निर्भर करता जैन इतिहास के लेखन के लिए हमारे पास जो आधारभूत सामग्री है है। जिसे आज 'हिस्ट्रीओग्राफी' कहा जाता है वह अन्य कुछ नहीं अपितु वह इन्हीं ग्रंथों में निहित है, किन्तु इस सामग्री का उपयोग अत्यन्त ऐतिहासिक तथ्यों की व्याख्या के विभिन्न सिद्धातों के मूल्यांकन का शास्त्र सावधानीपूर्वक करना होगा।
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________________ जैन इतिहास : अध्ययन विधि एवं मूलस्रोत 613 जैन इतिहास के अध्ययन के स्रोत और उपयोगी कही जा सकती हैं। इन स्थविरावलियों और पट्टावलियों पुराणों के अतिरिक्त आगमिक व्याख्याओं विशेषत: नियुक्ति, काल्पनिक बातों को छोड़कर अनेक आचार्यों के व्यक्तित्व व कृतित्व के भाष्यों और चूर्णियों में भी अनेक ऐतिहासिक कथानक संकलित हैं किन्तु संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं। हिमवंत स्थविरावली और उनमें भी वही कठिनाई है जो जैन पुराणों में है। ऐतिहासिक कथानक और नन्दीसंघ पट्टावली जिनकी प्रामाणिकता के संबंध में कुछ प्रश्नचिह्न हैं काल्पनिक कथानक दोनों एक दूसरे से इतने मिश्रित हो गये हैं, उन्हें फिर भी वे जैनधर्म के इतिहास को एक नवीन दिशा देने की दृष्टि से अलग-अलग करने में अनेक कठिनाईयाँ है। सत्य तो यह है कि एक महत्त्वपूर्ण हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में आज भी और उन्हें एक दूसरे से पृथक् करना एक जटिल समस्या है। फिर भी महत्त्व को हम नहीं नकार सकते। उनका ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यांकन उनमें जो ऐतिहासिक सामग्री है उसका प्राचीन भारतीय इतिहास की आवश्यक है। रचना में उपयोग महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक है। आगमिक व्याख्याओं में अधिकांश कथानक व्रत पालन अथवा उसके भंग के कारण हुए (ई) प्रबन्य ग्रन्थ दुष्परिणामों को अथवा किसी नियम के संबंध में उत्पन्न हुई आपवादिक पट्टावलियों के अतिरिक्त अनेक प्रबंध भी (१२वीं से १५वीं स्थिति को स्पष्ट करने के लिए ही दिये गए हैं। ऐसे कथानकों में शती तक) लिखे गये जिनमें कुछ विशिष्ट जैनाचार्यों के कथानक चाणक्य कथानक, भद्रबाहु. कथा, कालक कथा, भद्रबाहु द्वितीय और संकलित हैं। इनमें हेमचन्द्र कृत परिशिष्टपर्व, प्रभाचन्द्र कृत वाराहमिहिर आदि के कथानक ऐसे हैं जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है। प्रभावकचरित, मेरुतुंग कृत प्रबंधचिन्तामणि, राजशेखर कृत प्रबंधकोश मरण विभक्ति तथा भगवती आराधना की मूल कथाओं और उन आदि प्रमुख हैं। इन प्रबंधों के कथानकों में भी अनेक स्थलों पर आचार्यों कथाओं को लेकर बने बृहद्आराधना कथाकोश आदि का भारतीय के चरित में अलौकिकता का मिश्रण है। आज उनकी सत्यता का हमारे इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। पास कोई आधार नहीं है फिर भी इन प्रबन्धों में अनेक ऐतिहासिक तथ्य निहित हैं। (ब) ऐतिहासिक चरित काव्य एवं स्थविरावलियाँ इसी प्रकार परवर्ती काल में अनेक ऐतिहासिक चरित काव्य (एफ) चैत्यपरिपाटियाँ भी लिखे गये हैं, जैसे-त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित, कुमारपाल चरित, स्थविरावलियों, पट्टावलियों, प्रबंधों के अतिरिक्त जैन इतिहास कुमारपालभूपाल चरित आदि जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। ऐसे ही जैन की महत्त्वपूर्ण विद्या चैत्य-परिपाटियाँ या यात्रा विवरण हैं जिनमें विभिन्न आगमों विशेष रूप से कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में जो तीर्थों के निर्देश तो हैं ही, उनके संबंध में अनेक ऐतिहासिक सत्य भी स्थविरावलियाँ दी गयी हैं वह भी ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व वर्णित हैं। मरुगुर्जर में हमें सैकड़ों चैत्य परिपाटियाँ (१६वीं से १९वीं की है। उनमें दिये गये अनेक आचार्यों के नाम तथा उनके गण, कुल, शती तक) उपलब्ध होती हैं। जिनमें आचार्यों ने अपने यात्रा विवरणों को शाखा आदि के उल्लेख मथुरा के अभिलेखों में मिलने से उनका संकलित किया है। इसी से मिलती-जुलती एक विद्या तीर्थमालाएँ हैं। यह ऐतिहासिक महत्त्व स्पष्ट है। भी चैत्य परिपाटी और यात्रा विवरणों का ही एक रूप है। इसमें लेखक (स) ग्रन्थ प्रशस्तियाँ विभिन्न तीर्थों का विवरण देते हुए तीर्थ के अधिनायक की स्तुति करता ऐतिहासिक अध्ययन की दृष्टि से ग्रंथ प्रशस्तियों का भी है। यद्यपि परवर्ती काल की तीर्थमालाओं में मुख्य रूप से तीर्थनायक की अत्यन्त महत्त्व होता है। उनमें लेखक न केवल अपनी गुरु परम्परा का प्रतिमा के सौन्दर्य वर्णन को प्रमुखता मिली है किन्तु प्राचीन तीर्थमालाएँ उल्लेख करता हैं, अपितु अनेक सूचनाएँ भी देता है, जैसे यह ग्रंथ किसके मुख्य रूप से नगर, राजा और वहाँ के सांस्कृतिक परिवेश का भी विवरण काल में, किसकी प्रेरणा से और कहाँ लिखा गया। यह ठीक है कि ग्रंथ देते हैं और इस दृष्टि से वे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत करती प्रशस्तियों में विस्तृत जीवन परिचय नहीं मिलता किन्तु उनमें संकेत रूप हैं। अधिकांश तीर्थमालाएँ १५वीं से १८-१९वीं शताब्दी के मध्य की में जो सूचना मिलती है, वह इतिहास लेखन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का है और इनकी भाषा मुख्यतः मरु-गुर्जर हैं किन्तु कुछ तीर्थमालाएँ प्राचीन निर्वहन करती है। भी हैं। इसी क्रम में जैनाचार्यों ने अनेक नगर वर्णन भी लिखे हैं, जैसे नगरकोट कांगडा वर्णन। नगर वर्णनों संबंधी इन रचनाओं में न केवल (द) पट्टावलियाँ नगर का नाम है अपितु उनकी विशेषताएँ तथा उन नगरों से संबंधित जैन परम्परा में अनेक पट्टावलियाँ (गुरु-शिष्य परम्परा) भी उस काल के अनेक ऐतिहासिक वर्णन भी निहित हैं। चैत्य परिपाटियों लिखी गयी हैं। उनमें आचार्यों के संबंध में उल्लेखित कुछ चमत्कारों को और तीर्थमालाओं की एक विशेषता यह होती है कि वे उस नगर या छोड़ दें तो शेष सूचनाएँ जैन संघ के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तीर्थ के संबंध में पूरा विवरण देती हैं।
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________________ 614 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ (जी) विज्ञप्ति पत्र प्राकृत भाषा के अभिलेखों में अजमेर से 32 मील दूर बारली एक अन्य विधा जिसमें इतिहास संबंधी सामग्री व नगर- (बड़ली) नामक स्थान से प्राप्त एक जैन लेख जो एक पाषाण स्तम्भ पर वर्णन दोनों ही होते हैं वे विज्ञप्ति पत्र कहे जाते हैं। विज्ञप्ति पत्र वस्तुतः 4 पक्तियों में खुदा हैं, सबसे प्राचीन बताया गया है। इस लेख की लिपि एक प्रकार के विनति पत्र हैं जिसमें किसी आचार्य विशेष से उनके को स्व गौरी शंकर हीराचन्द ओझा ने अशोक से पूर्व का माना है। ई०पू० नगर में चार्तुमास करने का अनुरोध किया जाता है। ये पत्र इतिहास 3-2 शती से जैन अभिलेख बहुतायत से मिलते हैं। मात्र मथुरा से ही के साथ ही साथ कला के भी अनुपम भंडार होते हैं। इसमें जहाँ एक लगभग ई०पू० २शती से लेकर १२वीं शती तक के 200 से भी अधिक ओर आचार्य की प्रशंसा और महत्त्व का वर्णन होता है, वहीं दूसरी अभिलेख मिले हैं। मथुरा से प्राप्त ये अभिलेख प्राकत, संस्कृत मिश्रित ओर उस नगर की विशेषताओं के साथ-साथ नगर निवासियों के चरित्र प्राकृत में तथा संस्कृत में हैं। इन अभिलेखों का विशेष महत्त्व इसलिए का भी उल्लेख होता है। लगभग १५वीं शती से प्रारम्भ होकर 16- भी है क्योंकि इनकी पुष्टि कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों से १७वीं शती तक अनेक विज्ञप्ति पत्र आज भी उपलब्ध हैं। ये विज्ञाप्ति भी होता है। इससे पूर्व कलिंग नरेश खारवेल का उड़ीसा के हाथी गुंफा पत्र जन्मपत्री के समान लम्बे आकार के होते हैं जिसमें नगर के से प्राप्त शिलालेख एक ऐसा अभिलेख है जो खारवेल के राजनीतिक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के सुन्दर चित्र भी होते हैं, जिससे इनका कलात्मक क्रिया-कलापों पर प्रकाश डालने वाला एक मात्र स्त्रोत है। यह अभिलेख महत्त्व भी बढ़ जाता है। न केवल ई०पू० प्रथम-द्वितीय शती के जैन संघ के इतिहास को प्रस्तुत इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि आगम, आगमिक करता है, अपितु खारवेल के राज्यकाल व उसके प्रत्येक वर्ष के कार्यों व्याख्यायें, स्वतंत्र ग्रंथों की प्रशस्तियाँ, धार्मिक कथानक, चरित ग्रंथ, का भी विवरण देता है। अत: यह सामान्य रूप से भारतीय इतिहास और प्रबंध साहित्य, पट्टावलियाँ, स्थविरावलियाँ, चैत्य परिपाटियाँ, विशेष रूप से जैन इतिहास की महत्त्वपूर्ण थाती है। तीर्थमालाएँ, नगर वर्णन और विज्ञप्ति पत्र आदि सब मिलकर सामान्य परवर्ती अभिलेख विशेषत: ५-६वीं शती के दक्षिण से प्राप्त रूप से भारतीय इतिहास विशेषत: जैन इतिहास के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण अभिलेखों में चालुक्य-पुलकेशी द्वितीय का रविकीर्ति रचित शिलालेख योगदान प्रदान करते हैं। (634 ई०), हथुडी के धवल राष्ट्रकूट का बीजापुर लेख (997 ई०) आदि प्रमुख हैं। दक्षिण से प्राप्त अभिलेखों की विशेषता यह है कि उनमें (एच) अभिलेख आचार्यों की गुरु परम्परा, कुल, गच्छ आदि का विवरण तो मिलता ही इन साहित्यिक स्त्रोतों के अतिरिक्त अभिलेखीय स्त्रोत भी जैन है साथ ही अभिलेख लिखवाने वाले व्यक्तियों व राजाओं के संबंध में इतिहास के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इनमें परिवर्तन-संशोधन की गुंजाईश कम भी सूचना मिलती है। होने तथा प्राय: समकालीन घटनाओं का उल्लेख होने से उनकी अन्य प्रमुख अभिलेख कक्क का घटियाल प्रस्तर लेख प्रामाणिकता में भी सन्देह का अवसर कम होता है। जैन अभिलेख विभिन्न (वि०सं० 918), कुमारपाल की बडनगर प्रशस्ति (वि०सं० उपादानों पर उत्कीर्ण मिलते हैं जैसे-शिला, स्तम्भ, गुफा, धातु प्रतिमा, 1208), विक्रमसिंह कछवाहा का दूबकुण्ड लेख (1088 ई०), स्मारक, शय्यापट्ट, ताम्रपट्ट आदि पर। ये अभिलेख मुख्यतया दो प्रकार जयमंगलसूरि रचित चाचिंग-चाहमान का सुन्धा पर्वत अभिलेख आदि के हैं- 1. राजनीतिक और 2. धार्मिक। राजनीतिक या शासन पत्रों के हैं जिनसे धार्मिक इतिहास के साथ ही साथ राजनीतिक व सांस्कृतिक रूप में जो अभिलेख हैं वे प्रायः प्रशस्तियों के रूप में हैं जिसमें राजाओं इतिहास भी ज्ञात होता है। की विरूदावलियाँ, सामरिक विजय, वंश परिचय आदि होता है। धार्मिक इस प्रकार जैन साहित्यिक व अभिलेखीय दोनों ही स्त्रोतों से अभिलखों में अनेक जैन जातियों के सामाजिक इतिहास, जैनाचार्यों के महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। हमें यह समझ लेना चाहिये कि जैन संघ, गण, गच्छ आदि से संबंधित उल्लेख होते हैं। विद्वानों, रचनाकारों ने जैन इतिहास के लिए हमें महत्त्वपूर्ण अवदान किया जैन अभिलेखों की भाषा प्राकृत, संस्कृत, कन्नड़ मिश्रित है, जिसका सम्यक मूल्यांकन और उपयोग अपेक्षित है। हम इतिहासविदों संस्कृत, कन्नड़, तमिल, गुजराती और पुरानी हिन्दी हैं। दक्षिण के कुछ से अनुरोध करते हैं कि वे अपने अध्ययन व भारतीय इतिहास की नवीन लेख तमिल में तथा अधिकांश कन्नड़ मिश्रित संस्कृत में हैं जिनमें ऐहोल व्याख्या के लिए इन स्रोतों का भरपूर उपयोग करें ताकि कुछ नवीन तथ्य प्रशस्ति, राष्ट्रकूट गोविन्द का मन्ने से प्राप्त लेख, अमोघवर्ष का कोन्नर सामने आ सकें। शिलालेख आदि मुख्य हैं।