________________ 612 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ दिया और इस प्रकार भारतीय संस्कृति की एकात्मता को खण्डित किया। हैं। यह मूल्यांकन विभिन्न दृष्टिकोणों पर आधारित होता है। अत: हम यह यदि हमें भारतीय संस्कृति का प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करना है तो कह सकते हैं कि जैनों का अनेकान्त सिद्धान्त ऐतिहासिक मूल्यांकन के यह आवश्यक है कि हमारे सांस्कृतिक इतिहास का एक समन्वित और क्षेत्र में भी पूर्णत: लागू होता है। हमें उन दृष्टिकोणों या सिद्धान्तों की समग्र दृष्टिकोण के आधार पर पुनर्मूल्यांकन हो। सापेक्षता को समझना है जिसके आधार पर ऐतिहासिक मूल्यांकन होते हैं। जब तक ऐतिहासिक मूल्यांकन का हार्द नहीं समझ पायेंगे तब तक आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ अध्ययन : जैन दृष्टिकोण ऐतिहासिक मूल्यांकन एवं ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या मात्र किसी किसी भी व्याख्या या अध्ययन के दो पक्ष होते हैं- एक दृष्टिकोण पर या किसी एक सिद्धान्त पर संभव नही है। इतिहास 1. आत्मनिष्ठ और 2. वस्तुनिष्ठ। आत्मनिष्ठ व्याख्या में व्याख्याता का न तो पूर्ण वस्तुनिष्ठ (Objective) हो सकता है न पूर्ण आत्मनिष्ठ अपना दृष्टिकोण प्रधान होता है और वह अपने दृष्टिकोण के अनुरूप (Subjective) ही। जब भी हमें किसी इतिहास लेखक की किसी तथ्यों को व्याख्यायित करता है जबकि वस्तुनिष्ठ व्याख्या में तथ्य/ घटनाक्रम की व्याख्या का अध्ययन करना होता है तो हमें यह देखना घटनाक्रम प्रधान होता है और व्यक्ति निरपेक्ष होकर उसे व्याख्यायित करता होगा कि उस व्यक्ति का दृष्टिकोण क्या है। वह किन परिवेश और है, फिर भी इतना निश्चित है कि व्याख्या व्याख्याता से पूर्णत: निरपेक्ष परिस्थितियों में उस व्याख्या को प्रस्तुत कर रहा है। नहीं हो सकती है। व्याख्या में तथ्य/घटनाक्रम और व्याख्याता-व्यक्ति दोनों ही आवश्यक हैं। अत: कोई भी व्याख्या एकान्त रूप से आत्मनिष्ठ या सहवर्ती परम्परा के प्रभाव और तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता वस्तनिष्ठ नहीं हो सकती है। उसके आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ दोनों ही यदि हम जैन परम्परा के इतिहास को देखें तो हमें स्पष्ट रुप पक्ष होते हैं। से यह दिखाई देता है कि किस प्रकार अन्य सहवर्ती धाराओं के प्रभाव ऐतिहासिक अध्ययन के लिए यह आवश्यक है कि उसका से उसके ऐतिहासिक चरित्रों में पौराणिकता या अलौकिकता का प्रवेश अध्ययन और ऐतिहासिक तथ्यों का मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ आधार पर होता गया और आचार और विचार के क्षेत्र में परिवर्तन आता गया। हो। दूसरे शब्दों में प्रामाणिक इतिहास लेखन, अध्ययन और मूल्यांकन इसका सबसे अच्छा उदाहरण स्वयं भगवान महावीर का जीवन चरित्र के लिए वस्तुनिष्ठ या तथ्यपरक अनाग्रही दृष्टि आवश्यक है, इसमें ही है। महावीर के जीवनवृत्त संबंधी सबसे प्राचीन उल्लेख आचारांग किसी प्रकार का वैमत्य नहीं है। इतिहास लेखन, अध्ययन एवं के प्रथम एवं द्वितीय श्रुत स्कंध में तथा उसके बाद कल्पसूत्र में उपलब्ध मूल्यांकन सभी व्यक्ति से संबंधित है और व्यक्ति चाहे कितना ही तटस्थ होता है। तत्पश्चात् नियुक्ति, भाष्य और चूर्णी साहित्य में उनके जीवन और अनाग्रही क्यों न हो, फिर भी उसमें कहीं न कहीं आत्मनिष्ठ पक्ष का चित्रण मिलता है। इनके बाद जैन पुराणों और चरित्रकाव्यों में उनके का प्रभाव तो रहता ही है। ऐसे व्यक्ति तो विरल ही होते हैं जो निरपेक्ष जीवनवृत्त का चित्रण किया गया है। यदि हम उन सभी विवरणों को और तटस्थ हों। दूसरे, इतिहास लेखन घटनाओं की व्याख्या है और सामने रखकर तुलनात्मक दृष्टि से उनका अध्ययन करें तो यह स्पष्ट इस व्याख्या में आत्मनिष्ठ पक्ष का पूर्ण उपेक्षा भी संभव नहीं है। जैन हो जाता है कि महावीर के जीवन में किस प्रकार क्रमश: दार्शनिकों ने अपने अनेकान्त सिद्धान्त के द्वारा यह स्थापित किया था अलौकिकताओं का प्रवेश होता गया। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध कि प्रत्येक वस्तु, तथ्य और घटना अपने आप में जटिल और के नवें अध्ययन में महावीर एक कठोर साधक हैं जो कठोर जीवन बहुआयामी होती है, उसकी व्याख्या अनेक दृष्टिकोणों के आधार पर चर्या और साधना के द्वारा अपनी जीवन-यात्रा को आगे बढ़ाते हैं, संभव है। उदाहरण के रूप में ताजमहल का निर्माण एक ऐतिहासिक किन्तु आचारांग के द्वितीय श्रुत स्कंध से प्रारम्भ होकर कल्पसूत्र और घटना है किन्तु ताजमहल निर्माता के चरित्र की व्याख्या विभिन्न रुचियों परवर्ती महावीर चरितों में अलौकिकताओं का प्रवेश हो गया। अत: के व्यक्तियों के द्वारा विभिन्न प्रकार से की जा सकती है। किसी के सामान्य रूप से प्राचीन भारतीय इतिहास और विशेष से जैन इतिहास लिए वह कला का उत्कृष्ट प्रेमी हो सकता है तो किसी के लिए वह जो हमें पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध होता है, उसके ऐतिहासिक तथ्यों प्रेयसी के प्रेम में अनन्य आसक्त। कोई उसे अत्यन्त विलासी तो कोई की खोज अत्यन्त सावधानीपूर्वक करना होगा। यह कहना उचित नहीं उसे जनशोषक भी कह सकता है। इस प्रकार एक तथ्य की व्याख्या है कि समस्त पौराणिक आख्यान ऐतिहासिक न होकर मात्र काल्पनिक भिन्न-भिन्न प्रकार से हो सकती है। हैं। दूसरी ओर यह भी सत्य है कि पुराणों और चरितकाव्यों में काल्पनिक अंश इतना अधिक है कि उसमें से ऐतिहासिक तथ्यों को तथ्यों की जटिलता-एक सत्य निकाल पाना एक दुरूह कार्य हैं। जो स्थिति हिन्दू पुराणों की है वही तथ्य की जटिलता और व्याख्या सम्बन्धी विभिन्न दृष्टिकोण की स्थिति जैन पुराणों और चरित ग्रंथों की भी है। यह भी सत्य है कि संभावना ये दो ऐसे तथ्य हैं जिन पर ऐतिहासिक मूल्यांकन निर्भर करता जैन इतिहास के लेखन के लिए हमारे पास जो आधारभूत सामग्री है है। जिसे आज 'हिस्ट्रीओग्राफी' कहा जाता है वह अन्य कुछ नहीं अपितु वह इन्हीं ग्रंथों में निहित है, किन्तु इस सामग्री का उपयोग अत्यन्त ऐतिहासिक तथ्यों की व्याख्या के विभिन्न सिद्धातों के मूल्यांकन का शास्त्र सावधानीपूर्वक करना होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org