Book Title: Jain Darshan me Moksh ki Avadharna
Author(s): Amrutlal Gandhi
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - दर्शन में मोक्ष की अवधारणा मानालामालेखक: डॉ. श्री. अमृतलाल गांधी) FREETTES जैन धर्म की बारहखड़ी नमस्कार महामंत्र से प्रारंभ होती प्राकृतिक रूप से अनादि काल से चली आ रही है और अनन्तकाल है । इसमें सर्व प्रथम तीर्थंकर परमात्मा अरिहंतों की और द्वितीय तक चलती रहेगी । इस सृष्टि में अनेकों आत्माएं कर्म-बंधन के नमो सिद्धाणं के पद में उन समस्त जीवात्माओं नमस्कार किया कारण भव भ्रमण करती रहती हैं। सभी आत्माओं पर विभिन्न जाता है जो तीर्थंकरों द्वारा समय-समय पर बतलाये गये मार्ग का प्रकार के कर्मों का बंधन है जिसके दूर होने पर सभी आत्माएं अनुसरण कर सिद्धावस्था को प्राप्त हुए हैं । इसीका पर्यायवाची स्वयं परमात्मा स्वरूप बन सकती हैं। शब्द मुक्ति या मोक्ष है। जैनधर्म का शाश्वत सिद्धान्त है :जैन: जिन का अनुयायी अप्पा कप्पा विकताय, दुहाण य सुहाण य । "जैन दर्शन में मोक्ष" विषय पर विचार करने के पूर्व हमारे अप्पा मित्तम मित्रं च, दुष्प-ट्टियं सुप्पट्ठियं ।। लिये "जैन" शब्द का सही अर्थ जानना आवश्यक है । हिन्दु शब्द जैसे जाति का वाचक है, बौद्ध शब्द जैसे व्यक्ति का वाचक है अर्थात् आत्मा ही सुख दुःख का करने वाला है, उसके फल वैसे जैन शब्द किसी जाति या व्यक्ति का वाचक न होकर विशेष भोगने वाला है, एवं उनसे मुक्ति पाने वाला है । जब तक आत्मा गुणों का वाचक है । "जैन" शब्द "जिन" से बना है। जैन धर्म पर शुभ-अशुभ कमा का आवरण ह, वह आत्मा मनुष्य, पशु, दव का अर्थ है "जिन का धर्म" | "जिन" का अर्थ है "जीतने और नारकी की चार गतियों में भ्रमण करती रहती है । परन्तु जब वाला" | जीतने का प्रश्न शत्रुओं का ही होता है, मित्रों का नहीं । आत्मा के कर्म बंधन समाप्त हो जाते हैं, वह इस भ्रमण से मुक्त तो ये शत्रु कौन है ? इसका उत्तर "उत्तराध्ययन सूत्र" की गाथा हो जाती है और अनन्त सुख की मोक्षावस्था को प्राप्त हो जाती २३/८ में दिया गया है "एगप्पा अजिए सत्तू" अर्थात् अपनी अविजित आत्मा ही शत्रु है । सुख: आत्मा का स्वभाव हमारा शत्रु कोई अन्य नहीं है अपितु असंयम में बहती हुई प्रायः सभी दार्शनिकों के मतानुसार संसार की प्रत्येक आत्मा राग द्वेष में कलुषित आत्मा ही हमारी शत्रु है । इसीलिये अन्य चाहे वह कहीं भी और किसी भी अवस्था में क्यों न रही हो, किसी को जीतने की आवश्यकता ही क्या है ? जो सबसे बड़ा उसके अंतस्तल में सुख प्राप्ति की अभिलाषा रहती है । सुख आत्मा शत्रु है उसे ही जीतना चाहिये । इस आत्म-शत्रु को अर्थात् आत्मा का स्वभाव है । इसलिये प्राणिमात्र अनादि काल से सुख प्राप्ति के में रहे हुए राग, द्वेष के संस्कारों को, क्रोध, काम, लोभ को लिये प्रयलशील है। सुख प्राप्ति के संबंध में अनेक विचारकों एवं विकारों को जीतना यही सबसे बड़ी विजय है | "उत्तराध्ययन चिन्तकों ने अपने अपने दृष्टिकोण से विचार व्यक्त किये हैं और सूत्र" की ही गाथा ९/३६ में लिखा है “सव्वमप्पे जिऐ जियं" उसकी प्राप्ति के लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ अर्थात् जिसने इस राग-द्वेषात्मक संसार को जीत लिया उसने माने हैं । जिनकी दृष्टि में वर्तमान जीवन ही सबकुछ है और इह सब कुछ जीत लिया । मेरी भावना प्रार्थना के भी प्रथम बोल यही लोक के सिवाय परलोक एवं जन्मान्तर नहीं है, उन्होंने वर्तमान है, "जिसने राग, द्वेष कामादिक जीते, सब जग जान लिया ।" जीवन एवं उसी में भौतिक सुख प्राप्त करने के साधन अर्थ और अतः जो अपनी वासना को, अपने विचारों को, राग, द्वेष के काम इन दो पुरुषार्थो को ही माना और उनका लक्ष्य यह रहा संस्कारों को जीत लेता है, उन्हें जड़ मूल से समाप्त कर देता है, किवह आत्मा वीतराग बन जाता है और उसे ही “जिन" अर्थात् यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । विजेता कहा जाता है । उस जिन पुरुष, वीतराग भगवान् के आदर्शों पर, उनकी शिक्षाओं पर, उनके द्वारा कथित मार्ग पर जो भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ चलता है, जो जिन का अनुगामी है, वही "जैन" है । "जैन" का अर्थात् जबतक जीओ, सुख से जीओ, कर्जा करो और घी पीओ जो उपदेश है वह है “जैन धर्म" | इस प्रकार जैन धर्म एक गुण क्योंकि यह शरीर भस्म हो जायेगा। वाचक शब्द है । उसमें इन्द्रिय विजय की, आत्म संयम की एवं इसका कोई पुनरागमन नहीं है। मनोनिग्रह की ध्वनि गूंज रही है, संक्षेप में, यही जैन - धर्म का भारत में यह विचार-पक्ष लक्षण है। चार्वाक दर्शन के नाम से प्रसिद्ध जैन-धर्म : आत्मवादी दर्शन हुआ | पाश्चात्य जगत की वैदिक मान्यताओं से भिन्न, जैन - धर्म परमात्मवादी न होकर विचारधारा में इसी प्रकार का आत्मवादी है । वह सृष्टि के रचयिता या संचालक के रूप में ईश्वर दृष्टिकाण खाआ, पावा आर एश जसा किसा शक्ति को नहीं मानता | उसके अनसार यह सष्टि करा के नाम से प्रसिद्ध है। यह श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७०) खोटी साख भरे नहीं, करे न खोटे लेख । जयन्तसेन वह नर सुखि, सकल विश्व में देख ॥ Jain Education Interational Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णतया भौतिकतावादी विचारधारा है जिसका संबंध मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष है और “संवर" तथा "निर्जरा" मोक्ष वर्तमान जीवन से ही है। के साधन है | "संवर" का अर्थ है कर्म आने के द्वार को रोकना परन्तु अन्य प्रबुद्ध विचारकों एवं चिन्तकों ने दृश्यमान जगत और "निर्जरा" का अर्थ है “पहले से आत्मा के साथ बंधे हुए के अतिरिक्त उत्तम या अधम परलोक एवं मृत्यु के बाद पुनर्जन्म कर्मों को क्षय करना" | बौद्ध दर्शन के अनुसार भव-संताप परम्परा एवं जन्मांतर भी माना है । अतएव उन्होंने धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ का विच्छेद होना मोक्ष है और संसार को दुःखमय, क्षणिक एवं माना और स्पष्ट किया कि परलोक और पुनर्जन्म में सुखप्राप्ति धर्म शून्य मय समझना मोक्ष का साधन है । नैयायिक, वैशेषिक, के पुरुषार्थ द्वारा ही संभव है | जैन-धर्म की मान्यता के अनसार । सांख्य-योग आदि दर्शनों ने भी दुःख का ध्वंस हो जाना मोक्ष माना अर्थ और काम भौतिक सुख हैं जो क्षण-भंगुर हैं जबकि धर्म के मार्ग से प्राप्त मोक्ष का सुख अनन्त है | जैन दर्शन के अनुसार जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष का सीधा अर्थ है "समस्त कर्मों जिन का अनुयायी अपने आराध्य तीर्थंकर देव से सदैव इसी से मुक्ति" । इसमें अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कर्म आते हैं अनन्त सुख की प्राप्ति की कामना करता है । यह बात 'जय क्योंकि जैसे हथकड़ियाँ चाहे सोने की हो या लोहे की, मनुष्य को वीयराय' सूत्र की प्रथम गाथा से स्पष्ट होती है जो इस प्रकार है:- दोनों ही बन्धनयुक्त रखती है, उसी प्रकार जीव को उसके शुभ "जय वीय राय । जय गुरु । होउ मम तुह प्रभावओ भयवं । और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म बंधन में रखते हैं । अन्य शब्दों में, मोक्ष का अर्थ है "राग और द्वेष' दोनों का पूर्ण क्षय | वस्तुतः भवनिव्वेओ मग्ग णुसारिया, इट्ठ फल सिद्दी॥ कर्म बंधन के कारणों एवं पूर्व से संचित कर्मों का पूर्ण रूप से क्षय अर्थात् हे वीतराग ! हे जगद्गुरु ? आपके प्रभाव से मुझे हो जाना ही मोक्ष है । तात्त्विक दृष्टि से कहा जाय तो आत्मा का संसार से विरक्ति, मोक्ष मार्ग का अनुसरण तथा इष्टफल (अर्थात् अपने शुद्ध स्वरूप में सदा के लिये स्थिर हो जाना ही मोक्ष या मोक्ष के अनन्त सुख) की प्राप्ति हो । मुक्ति है। मोक्ष और मोक्षप्राप्ति के साधन: यह बात ध्यान रखी जाय कि मोक्ष का अर्थ जीव का अभाव मोक्ष पुरुषार्थ को स्वीकार करने वाले जैन, बौद्ध, नैयायिक, अथवा विनाश नहीं है अपितु जीव या आत्मा का अपने शुद्धि वैशेषिक और सांख्य-योग दर्शन हैं। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक स्वरूप में अपनी स्वतंत्र सत्ता रहित स्थित होना ही मोक्ष है । आत्मा यानि जीव अपने समस्त कर्म-कर्मफल, ज्ञान, मोक्षादि के चौरासी लक्ष्य योनियों के भव भ्रमण की सांसारिक अवस्था में तो लिये पूर्ण रूपेण स्वतंत्र है । जीव स्वयं अपना स्वामी है । उसका कर्म बंधन के कारण जीव वि-भाव रूप में रहता है किन्तु जब वह बंधन एवं मुक्ति किसी के रोष अथवा कृपा का परिणाम नहीं है। पुरुषार्थ द्वारा अपने कर्मों का क्षय कर देता है तब जन्म-मरण के अपितु स्वयं के कर्तव्यों एवं कार्यों का परिणाम है । प्रभुत्त्व शक्ति चक्र से मुक्त होकर वह स्व-भाव में स्थित हो जाता है और यही से युक्त जीव सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान व सम्यक् चारित्र के द्वारा उसकी चरम परिणति है । चार घाती कर्मों को नष्ट करके जब अर्हत् दशा को प्राप्त होता है अन्य शब्दों में मोक्ष आत्म विकास की पूर्ण अवस्था है । एक तब उसमें प्रभुत्त्व शक्ति का पूर्ण विकास होता है । फिर जब वह बार मुक्ति प्राप्त कर लेने पर यह आत्मा अनन्तकाल तक मुक्ति में शेष चार अर्धांति कर्मों को भी नष्ट करके सिद्ध मुक्त हो जाता है ही रहती है और फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आती है क्योंकि तब वह साक्षात् प्रभु ही हो जाता है और उसका पुनर्जन्म नहीं इस जीव को संसार में जन्म-मरण कराने एवं सुख दुःख देने के होता। कारण जो कर्म होते हैं, मुक्ति की अवस्था में उनका सर्वथा अभाव जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा पर लगे हुए आठों प्रकार के होता है । मुक्ति में इस जीव के साथ किसी प्रकार का शरीर नहीं रहता और न ही उसको किसी प्रकार का भौतिक सुख प्राप्त करने की इच्छा ही रहती है । मुक्ति में यह आत्मा अनंत काल तक एक कई पुस्तकों के लेखक एवं अनुपम, अतीन्द्रिय, आध्यात्मिक सच्चे सुख का उपभोग करती सामाजिक क्षेत्र में भी अनुकरणीय रहती है। कार्य । १९५४ में राजस्थान चूँकि मोक्ष आध्यात्मिक विकास की पूर्ण अवस्था है और प्रशासनिक सेवा में बीसवें स्थान पूर्णता में कोई भेद नहीं होता है, अतः मोक्ष का भी कोई भेद नहीं पर रहे । डेढ़ दर्जन पुस्तकों का है । मोक्ष या मुक्ति कोई स्थान लेखन विभिन्न जैन, सामाजिक व विशेष भी नहीं है किन्तु आत्मा की सार्वजनिक संस्थाओं के संचालक शुद्ध चिन्मय स्वरूप की प्राप्ति है रहे । १९७४ में जोधपुर जिला जिसे वैदिक दर्शन में "सच्चिदानंद" महावीर निर्वाण समिति के मंत्री के रूप में प्रशंसनीय सेवाओं के अवस्था कहा गया है | जैन दर्शन के अनुसार कर्म बंधनों से मुक्त डॉ. अमृतलाल गांधी लिये राज्य स्तर पर ताम्रपत्र से होने पर आत्मा हल्की होने के कारण एम.ए., पी.एच.डी., अलंकृत। ऊपर की ओर उठती है और वह एल.एल.बी. लोक के अग्रभाव में स्थित हो जाती श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (७१) उपयोग उपभोग मध्य, अन्तर बड़ा विशेष । जयन्तसेन समझ लिया, फिर नहीं किंचित क्लेश ।। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है जिसे जैन दर्शन में "सिद्ध शिला" कहा गया है / मुक्ति, है / अतः इन चारों उपायों से कोई भी रुकावट नहीं है / जिसने निर्वाण, परिनिर्वाण, सिद्धावस्था आदि भी मोक्ष के ही नाम हैं। भी कर्म बंधन को तोड़कर आत्मगुणों को प्रकट कर लिया, वही जैन दर्शन के अनुसार जीव एक द्रव्य है और द्रव्य लोक में मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी है / जैन दर्शन में गुणों का महत्त्व है, रहते हैं / जीव का ऊर्ध्वगामी स्वभाव होने के कारण वह लोक के व्यक्ति, जाति, लिंग, कुल, संप्रदाय आदि किसी अन्य का कोई अग्रभाव में स्वतः ही पहुँच जाता है / दीपक की लौ का स्वभाव , महत्त्व नहीं है / इसीलिये कहा गया है कि "मनुष्य जन्म से नहीं, ऊपर जाता है, वैसे ही आत्मा का स्वभाव भी ऊपर जाता है। कर्म के कारण उसमें भारीपन आ जाता है। अतः वह भव-भ्रमण आप अतः निष्कर्ष रूप में, कहा जा सकता हैं कि जहाँ परमात्मवादी करती रहती है परन्तु कर्म मुक्त होने पर स्वाभाविक रूप से ही विचारधारा वाले धर्मों की मान्यता है कि परमात्मा का भक्त बनने आत्मा की मोक्ष की दिशा में ऊर्ध्वगति होती हैं। में ही आत्मा की सार्थकता है, वहाँ जैन धर्म में आत्मा को परमात्मा जब तक कर्म पूर्ण रूप से क्षय नहीं होते, तब तक आत्मा और भक्त को भगवान बनने का पूर्ण अधिकार है। जीवन के इस का शुद्ध स्वभाव छिपा रहता है जैसे बादलों में सूर्य / परन्तु बादलों चरम लक्ष्य को साधक अपनी ही साधना द्वारा चौदह गण स्थानों में के हटते ही जैसे सूर्य पुनः अपने पूर्ण प्रकाश के साथ चमकने आत्मा के क्रमिक आध्यात्मिक विकास द्वारा प्राप्त कर सकता है। लगता है, वैसे ही आत्मा से कर्मों का आवरण हटते ही आत्मा जैन दर्शन के अनुसार मुक्ति किसी दूसरे के हाथ की चीज नहीं है अपने शुद्ध स्वभाव में चमकने लगती है / परन्तु सूर्य पर तो कभी अपितु किसी भी आत्मा की मुक्ति उसी के हाथ में है | यहीं कदाचित् पुनः बादल आ सकते हैं लेकिन आत्मा एक बार कर्म 'अपना हाथ जगन्नाथ' वाली कहावत लागू पड़ती है / निम्न श्लोक मुक्त होने के बाद फिर कभी कर्मों से आवृत नहीं होती है। में यह बात भली क्राँति स्पष्ट हो जाती है :जैन दर्शन के अनुसार “दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः" स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते / कहा गया है अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चारित्र, मोक्ष के मार्ग है। स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते / इसमें हमें तप को और जोड़ना चाहिये क्योंकि महावीर सहित अर्थात् आत्मा स्वयं अपना कर्म करती है और उसका फल अनेक तीर्थंकरों एवं सिद्ध पुरुषों ने घोर तपस्या द्वारा ही अपने भोगती है / अपने कर्म बंधनों के कारण ही वह संसार परिभ्रमण कर्मों की निर्जरा की है। परन्तु यह दर्शन, ज्ञान और चारित्र सही करती है तथा पुरुषार्थ द्वारा मुक्ति प्राप्त करती है। होना चाहिये / जिसके लिए जैन दर्शन में 'सम्यक्' शब्द का प्रयोग किया है / ज्ञान से तत्त्वों की जानकारी होती है और दर्शन से "मोक्ष में आत्मा अनन्त सुखमय रहता है, उस सुख की न तत्त्वों पर श्रद्धा आती है / चारित्र से आते हुए कर्मों को रोका कोई उपमा है और न कोई गणना ही / " - भगवान महावीर जाता है और तप द्वारा आत्मा से बंधे हुए कर्मों की निर्जरा होती उन्मुक्त संवाद की अमोघ दृष्टि का शेष भाग (पृष्ठ 69 से) भारतीय जनता की संस्कृति का रूप सामासिक है / उसने धीरे-धीरे बढ़कर अपना आकार ग्रहण किया है / इस संस्कृति में समन्वयन की तथा नूतन बातों - सिद्धान्तों को पचानेकी, पचाकर आत्मसात कर लेनेकी अद्भुत योग्यता है / इसी शक्ति के कारण भारत विकसित होता रहा / इसके मूल में स्याद्वाद की दृष्टि है / स्याद्वाद जैन धर्मका अनूठा और उन्मुक्त दर्शन है / भाषा के आवरण में छिपे सत्य को अनावृत्त करने का माध्यम ही स्यावाद है। आचारांग सूत्र में (1/3/3) कहा गया है - सच्चस्स आणाए उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ - अर्थात् सत्य की आज्ञा में प्रस्तुत - बढ़ता हुआ मेधावी साधक मृत्युको जीत लेता है / स्याद्वाद इस साधक की आरती उतारता है / आज के युग में वैचारिक विषमताने शीत युद्ध का वातावरण तैयार कर रखा है / अनेकांत तथा स्याद्वाद द्वारा समता, एकता, सहभाव और बंधुता का वातावरण तैयार किया जा सकता है / स्याद्वाद नयी मनुष्यता के लिए परम आश्वासक तत्त्व है - स्याद् इसीकी मदद से मानवता का उपकार हो सकता है। मधुकर-मौक्तिक संकेतपूर्वक साध्य की ओर प्रेरित करने वाले, साध्य की ओर गतिशील करने वाले आराध्य अरिहंत परमात्मा हमें जीवन का सही स्वरूप समझाते हैं। हमें यदि अपने सच्चे स्वरूप को समझना है, तो अरिहंत परमात्मा को आराध्य बना कर अरिहंत परमात्मा की वाणी को अपने जीवन में उतारना होगा और उनके प्रवचन का मनन-चिन्तन करना होगा; फिर हमें यह मालूम हो जाएगा कि यद्यपि सिद्ध पद साध्य है, फिर भी अरिहंत परमात्मा उस साध्य की ओर हमें ले जाते हैं. इसलिए अरिहंत पद भी आराध्य है। यदि हम आराध्य के निकट जाते हैं और उन्हें समझते हैं, तो साध्य की दिशा भी मिल जाती है और जब साध्य की दिशा की ओर आगे बढ़ते हैं, तो सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है। - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि मधुकर' श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (72) जिसने जीता स्वयं को, जीत लिया संसार / जयन्तसेन अखंड है, उस की जय जयकार / /