Book Title: Jain Darshan ka Hridaya hai Syadwad
Author(s): Charitraprabhashreeji
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210665/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन का हृदय है-'स्याद्वाद' परमविदुषी श्री कुसुमवतीजी म. की सुशिष्या । विदुषी साध्वी चारित्र प्रभा जी म. सा, 0000000000000000000 'स्याद्वाद' जनदर्शन का हृदय है, और भारतीय कान्तवाद" और "स्याद्वाद' का पृथक्-पृथक् अर्थ दर्शनों को परस्पर जोड़ने वाला एक मात्र सूत्र है। मान सकते हैं । ऐसे व्यक्तियों को यह ध्यान रखना इसलिए जैन दार्शनिक चिन्तन में "स्याद्वाद" को पडेगा कि "अनेकान्त" का अर्थ होता नेकान्त" का अर्थ होता है-"अनेक ॥ एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। यद्यपि इसके बीज, धर्म" | इन धर्मों की जब विवेचना की जायेगी तो बिन्दुरूप में, सहस्राब्दियों पूर्व से ही, जैन-आगमों में वह सारे धर्मों को युगपद् विवेचित करने में समर्थ "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप में, "अस्ति-नास्ति-अव- नहीं बन पाती। जब भी विवेचन होगा, क्रमशः क्तव्य'-रूप" में, "द्रव्य-गुण-पर्याय"-रूप में तथा एक-एक धर्म को लक्ष्य करके ही किया जा सात नयों के रूप में यत्र-तत्र प्रकीर्ण, उपलब्ध रहे सकेगा। फलतः यह विवेचना, एक ऋमिकता, | हैं, किन्तु इन्हीं सबको व्यवस्थित कर “सप्तभंगी" "अनेकान्त" में नहीं है, वरन् उसके “कथन" में, || के रूप में, इसे एक स्पष्ट संज्ञा प्रदान करने में यानी "वाद" में है। इसलिए अनेकान्तों का जो | समन्तभद्र और सिद्धसेन जैसे आचार्यों के योगदान जो स्वरूप होता है, वह "वाद" में सुरक्षित नहीं । को विस्मृत नहीं किया जा सकता । बाद के अनेकों रह पाता। यह "वाद" की यानी "कथन", आचार्यों ने इसे लक्ष्य बनाकर विशाल वाङमय की "भाषा" की विवशता है । इस विवशतावश प्रयुक्त रचना की । विगत ५०० वर्षों से दार्शनिक जगत के ऋमिकता को "योगपद्य" का ही रूप मानना पड़ता एक-एक सजीव पक्ष के रूप में इसे गौरव मिला है। है। अन्यथा “अवक्तव्य" कहकर हम "अनेकान्त" आइये, पर्यालोचन करें, कि "स्याद्वाद" आखिर है की विवेचना नहीं कर पायेंगे । निष्कर्ष यह है कि क्या ? और मानव जीवन व्यापार में इसकी उप- "अनेकान्त" वस्तुगत स्वरूप है, जो तमाम अपेयोगिता क्या हो सकती है। क्षाओं से संवलित है। अतः उसका कथन भी, ___"स्याद्वाद" शब्द "स्यात्" और "वाद" इन दो "अनेकान्तवाद" स्वरूप वाला मानना होगा। शब्दों को मिलाकर बनता है। प्रथम "स्यात्" का अन्यथा “अनेकान्त" स्वरूप और “अनेकान्तवाद" अर्थ होता है-अपेक्षा यानी “दृष्टि"। 'वाद" का दो अलग-अलग संज्ञाएँ बन जाने पर एक विलक्षण अर्थ है-"सिद्धान्त" यानी मन्तव्य । अतः दोनों समस्या उठ खड़ी हो जाती है। अतएव “अनेशब्दों को मिलाने पर इनका सम्मिलित अर्थ कान्त" और "स्याद्वाद" को समानार्थवाची माना! होगा-“सापेक्ष सिद्धान्त" अर्थात् वह सिद्धान्त, जाता है। इस समानार्थकता से जो शाब्दिक अन्तर। जिसका आधार अपेक्षा हो । “अनेकान्तवाद" - पैदा होता है, उसे दृष्टिगत करते हुए, हम मोटे "अपेक्षावाद" "कथंचित्वाद" "स्याद्वाद" आदि तौर पर यह मान सकते हैं कि-"अनेकान्त" अनेक नाम इसके हो सकते हैं। कुछ व्यक्ति "अने- अनेक धर्मात्मक पदार्थ स्वरूप “वाच्य" है, और। ५४८ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट 06 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ AB3 For Puvate & Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद उसका वाचक है। वस्तुतः “अनेकान्त- उन्होंने “सप्तभंगी" नाम दिया है। और इसकी मार वाद" और "स्याद्वाद" में, यह सूक्ष्म अन्तर बनता परिभाषा, एक राय होकर इस प्रकार की हैही नहीं है। यह अन्तर तभी बन पाता है, जब हम "प्रश्नवशादेकत्र वस्तून्यविरोधेन विधि प्रतिषेध "अनेकान्त" के साथ "वाद" शब्द न जोडे । कल्पना "सप्तभंगी"। सप्तानां 'भंगाना' समा हारः सप्तभंगी। -इतिवा। "प्रवचनसार" की मन्यता के अनुसार "स्या- हार द्वाद" वह सिद्धान्त है. जिसमें परस्पर विरुद्ध धर्मों जैन दार्शनिक मानते हैं कि किसी भी एक वस्त का समन्वय विभिन्न अपेक्षाओं के साथ मुख्यता में, सात प्रकार के ही संशय, प्रश्न उत्पन्न होते हैं । म और गौणता के आधार पर किया जाता है। जैसे क्योंकि, वस्तु में सात धर्मों की ही, प्रमाणों के अनु- Ike एक न्यायाधीश, अपनी सूक्ष्म विवेकिता के सार सिद्धि होती है । अतः इन धर्मों से सम्बन्धित आधार पर निष्पक्ष निर्णय देने का महत्वपूर्ण कार्य प्रश्नों, जिज्ञासाओं के उत्पन्न होने पर इन प्रश्नों ए मा सम्पन्न करता है, उसी तरह विभिन्न विचारों में के समाधान हेतु सात प्रकार के ही उत्तर अपेक्षित | समन्वय साधने के लिए, न्यायाधीश जैसा ही कार्य होते हैं । इन सात उत्तर वाक्यों को ही 'सप्तभंगी' "स्याद्वाद" निभाता है। इसी आधार पर स्यावाद के शब्द के द्वारा कहा गया है। किन्त इन सातों विशेषज्ञ विद्वान इस शब्द की परिभाषा इस प्रकार वाक्यों में अर्थात् प्रत्येक वाक्य में 'एव'-ही शब्द करते हैं-"अपने और दसरों के विचारों में, मतों का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है। और, में, और कार्यों में उनकी मूल-भावनाओं का सम- प्रत्येक वचन, कथन में, एक-'अपेक्षा' विशेष न्वय करना "स्याद्वाद" है। इस परिभाषा को निहित होने के कारण, उसके सूचक 'स्यात्' शब्द स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने सुन्दर शब्द का प्रयोग भी प्रत्येक वाक्य में अनिवार्यतः करना चित्र प्रस्तुत किया है होगा । अन्यथा 'घट' का विवेचक वाक्य, 'पट' का विवेचक भी हो सकता है, यह खतरा पैदा हो IKS एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्व मितरेण ।। जायेगा। इन सात उत्तर वाक्यों अर्थात् सात अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी। भंगों के प्रकार निम्नलिखित होते हैंइस परिभाषा को अष्टसहस्रीकार ने इन १. स्यादस्त्येव घटः, शब्दों में व्यक्त किया है-प्रत्यक्षादि प्रमाणा २. स्यान्नास्त्येव घटः, विकद्धानेकात्मक वस्तु प्रतिपादकः श्रुतस्कन्धात्मको ३. स्यादस्ति-नास्त्येव घटः स्याद्वादः"। ४. स्यादवक्तव्य एव घटः ये परिभाषाएँ स्पष्ट करतो हैं कि "अनेकान्त- ५. स्यादस्त्यवक्तव्य एव घटः वाद" और "स्याद्वाद के शाब्दिक अर्थों का भेद, ६. स्यान्नास्त्यवक्तव्य एव घटः कोई अर्थ नहीं रखता । यही तथ्य इस बात से भी ७. स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्य एव घट: स्पष्ट हो जाता है कि जैन दार्शनिकों ने इन दोनों इनमें से प्रथम वाक्य में 'घट' अपने द्रव्य-क्षेत्रशब्दों से अभिव्यक्त पदार्थ के स्वरूप विवेचन के काल-भाव की अपेक्षा से घट ही है। न कि 'पट' लिए जो एक शैली/पद्धति सुनिश्चित्त की है, उसे आदि अन्य कुछ। दूसरे वाक्य में, 'घट' पर-द्रव्य १ प्रवचनसार २/७ २ आप्तमीमांसा १०४ ३ पुरुषार्थ सिद्ध युपाय । ५४६ ॥ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट 0640 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jan Education International or Private & Personal Use Only v.jainsusary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000000000000000 क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से (पर-रूप) नहीं ही तत्व में अनेक धर्म हैं। ये धर्म हर समय, वस्तु में है। जबकि तीसरे वाक्य में 'घट' अपने द्रव्य-क्षेत्र- विद्यमान रहते हैं । जब, किसी एक अपेक्षा से वस्तु काल-भाव की और पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव तत्व के बोध की आवश्यकता होती है, तब भी की भी क्रमिक अपेक्षाओं से, क्रमशः 'घटरूप ही है। उसमें अन्य सारे धर्म विद्यमान रहते हैं । इन दूसरे पट आदि अन्य रूप नहीं है।' किन्तु यही दोनों धर्मों की अपेक्षाएँ वांछित अपेक्षा के साथ सम्बद्ध अपेक्षाएँ युगपत् एक साथ उत्पन्न हो जायें, तब होकर अपने उत्तर न माँगने लग जायें, यह बचाने उनका समाधान भाषा के वश के बाहर हो जाता में ही 'स्यात' शब्द के अनिवार्य प्रयोग की सार्थकता है। इसीलिए उसे 'अवक्तव्य'-'अकथनीय' ही है, निहित है । यह कहा जाता है। चतुर्थ वचन का यही आशय भारतीय दार्शनिकों ने स्याद्वाद की सापेक्षता ५ है। यहीं से यह स्पष्ट होता है कि मौलिक रूप से को सहज ही स्वीकार कर लिया है, किन्तु पश्चिमी तो प्रथम तीन ही भंगों की सार्थकता है । शेष भंगों विद्वानों ने भी इसकी उपादेयता को कम महत्व की उत्पत्ति; इन्हीं तीनों से सम्बद्ध अपेक्षाओं के नहीं दिए + नहीं दिया। सम्मिश्रण से होती है। ____ इसीलिए पश्चिमी और भारतीय कई उक्त सात कथन-वाक्यों में 'एव' शब्द का विद्वानों ने इस सिद्धान्त की स्पष्टता, सहजता और प्रयोग इसलिए किया गया है कि वाक्य का अर्थ कठिनता को भी सिद्ध करने के लिए अपनी-अपनी 'घट' का ही बोध कराये, पट आदि का नहीं । यदि लेखनियाँ उठाई हैं। हालांकि इस सिद्धान्त की EARST इस 'एव' शब्द का प्रयोग न किया जाये तो, जिस आलोचना शंकराचार्य जी ने पर्याप्त की थी। पर, तरह अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से 'घट' उनकी इस आलोचना के औचित्य पर प्रयाग विश्व के अस्तित्व का बोध होता है, उसी तरह पर द्रव्य- विद्यालय के तत्कालीन कूलपति डा० गंगानाथ झा क्षेत्र-काल-भाव को अपेक्षा की भी अवसर मिल द्वारा की गई टिप्पणी विशेष उल्लेखनीय मानी जा C) जाने से घट, अस्तित्ववान् रहते हुए भी 'पट' के सकती है। वे लिखते हैं-जब मैंने शंकराचार्य जी अस्तित्व का बोध भी होने लग जायेगा । यह अव्य- द्वारा किए गए जैन सिद्धान्त का खण्डन पढ़ा, तभी वस्था, तत्व बोध में न होने पाये; इसीलिए वाक्य- मुझे यह विश्वास हो गया था कि इस सिद्धान्त में Sil भंग में 'एव' शब्द का प्रयोग किया जाना अनिवार्य बहत कुछ (सार) होना चाहिए, जिसे वेदान्त के Milf माना गया है। ज्ञाता आचार्य ने ठीक से नहीं समझा। मैंने अब इसी प्रकार प्रत्येक वाक्य में 'स्यात्' शब्द का तक जैन-दर्शन का जो भी, जितना अध्ययन किया ERIAL प्रयोग करना भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि है, उसके आधार पर मैं यह दृढ़ विश्वासपूर्वक कहर यह 'स्यात्' शब्द एक अपेक्षा विशेष का ज्ञान सकता हूँ कि यदि शंकराचार्य महोदय ने जैन दर्शन । कराता है। के मौलिक ग्रन्थों को देखने का कष्ट किया होता, जिससे, यह ज्ञान भी होता है कि वस्तु-तत्व तो उन्हें स्याद्वाद सिद्धान्त का विरोध करने का । में और भी अपेक्षाएँ हैं। इन अनेक अपेक्षाओं अवसर न मिलता। का अहसास कराने के लिए ही 'स्यात्' शब्द की डा. झा की उक्त टिप्पणी से यह स्पष्ट ज्ञात अनिवार्य प्रयोगता रखी गई है। चूकि वस्तु- होता है कि शंकराचार्य महोदय ने स्याद्वाद के उस FRN १ तत्वार्थराजवार्तिक १/१६/५ २ जनदर्शन (साप्ताहिक) १६/६/३४ ५५० कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ FOP Private & Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिनतम पक्ष को ही देखा, जिसके लिए यह सिद्धान्त विश्व में प्रसिद्ध है । एक ही वस्तु में उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य जैसे परस्पर विरोधी धर्मों की सत्ता कैसे हो सकती है । यह है इस सिद्धान्त की जटिलता । इसी जटिलता को लक्ष्य कर, बहुत से विद्वानों ने इस सिद्धान्त की जमकर आलोचनाएँ की हैं । किन्तु यही तथ्य, जब परस्पर विरोधी धर्मों की उपस्थिति, एक ही पदार्थ में मानने जैसी बात, सामान्य व्यक्तियों की समझ में नहीं आ सकती, तब, उन्होंने इसी सिद्धान्त की विवेचना, इतने सरल शब्दों में कर डाली कि छोटे से छोटा बालक तक बिना किसी श्रम के आसानी से समझ ले । जैसे, एक स्वर्णकार सोने के घड़े को तोड़कर, सोने का मुकुट बना रहा है । इसी समय उसके पास तीन ग्राहक आ जाते हैं। इनमें से एक ग्राहक सोने का घड़ा खरीदना चाहता था, तो दूसरा सोने का मुकुट खरीदने की इच्छा लेकर आया था, जब कि तीसरे को स्वर्ण की आवश्यकता थी । उस स्वर्णकार की क्रिया प्रवृत्ति को देखकर पहले ग्राहक को कष्ट का अनुभव हुआ, तो दूसरे को प्रसन्नता भी हुई, जबकि तीसरे ग्राहक के मन में कष्ट और प्रसन्नता जैसा कुछ भी 'अनुभव नहीं हुआ। वह उस स्वर्णकार को तटस्थ भाव से देखता रहा । ऐसा क्यों हुआ ? इसका कारण यह है कि प्रथम ग्राहक स्वर्णघट खरीदना चाहता था, परन्तु स्वर्णकार को सोने का घड़ा तोड़ते हुए देखकर उसे कष्ट का अनुभव होना सहज ही है । दूसरा ग्राहक उसी स्वर्णकार को अपनी मनचाही वस्तु - स्वर्णमुकुट बनाते हुए देखकर प्रसन्नता अनुभव करे, यह भी एकदम सहज ही है । तीसरा ग्राहक, सोना ही चाहता था अतः १ आप्तमीमांसा ५६ / ६० स्वर्णं घट को तोड़ने से या स्वर्ण मुकुट बनाने से, उसे अपनी इच्छित वस्तु पाने में कोई फर्क नहीं पड़ता था । इसलिए उसकी तटस्थता भी सहज मानी आनेगी । इस उदाहरण का अभिप्राय यह है- एक ही पदार्थ - " स्वर्ण" में, एक ही समय में, एक व्यक्ति “विनाश" को होता हुआ देख रहा है, तो दूसरा "उत्पत्ति" को, और तीसरा “ध्रौव्य" को । तीनों ही दशाएँ; परस्पर विरोधी हैं, फिर भी एक ही समय में, एक ही पदार्थ में यह भी पायी जाती हैं । इसी तरह, विश्व की प्रत्येक वस्तु में, एक ही समय में, एक साथ तीनों स्थितियाँ रहती हैं । इसी तथ्य को जैनदार्शनिकों ने वस्तु मात्र की " त्रिगुणात्मकता" कहा है, और यह त्रिगुणात्मकता वस्तुमात्र का सहज-स्वभाव है । इसी तरह वस्तु मात्र में भिन्न अपेक्षाओं से अनेकों परस्पर विरोधी धर्म, एक समय में एक साथ बने रहते हैं । उक्त उदाहरण स्याद्वाद की सहजता, सरलता का द्योतक है । वास्तविकता यह है कि " स्याद्वाद" उक्त उदाहरण से भी अधिक सरल है । इतना सरल कि- रास्ता चलते समय कोई बालक आप से स्याद्वाद के बारे में प्रश्न पूछ ले तो भी आप आराम से समझा सकें। संयोगवश, एक जैनाचार्य महोदय के साथ ऐसी ही स्थिति, आ भी गई । विहार-यात्रा में सड़क मार्ग से जाते हुए, उन्हें किसी बालक ने पूछा - "भगवन् ! आपका स्याद्वाद क्या है ?" आचार्य ने अपने एक हाथ की 'कनिष्ठा' और "अनामिका” । उंगलियों को ऊपर उठाकर, उस बालक से पूछा - " बतलाओ वत्स ! इन उँगलियों में कौन उंगली बड़ी है ?" कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ५५१ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालक ने उत्तर दिया – “अनामिका” | अब आचार्य ने कनिष्ठा के स्थान पर 'मध्यमा' को “अनामिका” के साथ ऊपर उठाया, और बालक से पुनः पूछा - "अब बतलाओ, इन दोनों उंगलियों में कौन उँगली छोटी है ?" बालक ने उत्तर दिया- 'अनामिका" । यह उत्तर सुनकर आचार्य ने उसे समझाया जिस तरह तुमने एक ही उँगली को "बड़ा" ओर "छोटा" कहा, उसी तरह यह " स्याद्वाद" भी एक ही पदार्थ में स्थित, परस्पर विरोधी धर्मों की बात बतलाता है ।" आचार्य की बात सुनकर बालक हँसता हुआ चला गया । यही है इस सिद्धान्त की सहजता / सरलता, जो किसी भी विद्वान का ध्यान अपनी और वरवश आकृष्ट कर लेती है । “स्यादाद” सिद्धान्त में नयों की बहुमुखी विवक्षा हमेशा ही रहती है। क्योंकि जिस किसी भी पदार्थ का, जो अर्थस्वरूप, स्याद्वाद द्वारा अलग करके विवक्षित किया जाता है, उसी अर्थ / स्वरूप की अभिव्यन्जना करने वाले "नय" होते हैं ।" नीयते - साध्यते गम्यते मानोऽर्थः येन" - इस व्युत्पत्ति से "नय" का उत्तम उक्त स्वरूप ही स्पष्ट होता है । ये " नय" सात हैं । इन्हीं पर “स्याद्वाद" का या सप्तभंगों का आधार स्थित है। ये सात नय है : - नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत । उक्त सातों नयों को मूलतः दो विभागों में विभाजित किया गया है-' द्रव्यार्थिक" और "पर्यायार्थिक" । कुछ आचार्यों ने " नैगम" और "संग्रह" को द्रव्याथिक के अन्तर्गत माना है जबकि कुछ आचार्य मात्र " नैगम" को ही " द्रव्यार्थिक" के अन्तर्गत मानते हैं । द्रव्यार्थिक नय, मात्र १ आप्तपरीक्षा १०८ २ द्रव्यानुयोगतर्कणा ५५२ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट "सामान्य" का ही गुण ग्रहण करता है, इसलिए इसके अन्तर्गत वस्तुतः केवल नैगम का ही समावेश मानना उचित होगा । पर्यायार्थिक नय, भेद विवक्षाओं को, और "विशेष" को भी ग्रहण करता है । अतः शेष छः ही नयों को, इसके अन्तर्भूत माना जाता है । इन सात नयों के अन्य उपभेद बहुत हैं । उनका सामान्य विवेचन भी यहाँ विस्तार का कारण बन सकता है । किन्तु इन्हीं सातों नयों को एक दूसरी अपेक्षा से "निश्चयनय" और "व्यवहारनय" के भेदों, उपभेदों के रूप में विभाजित और व्यवहृत किया जाता है । इसलिए इनके सम्बन्ध में भी, कुछ कहना उचित ही होगा । " स्याद्वाद" सिद्धान्त का व्यावहारिक उपयोग करते समय, वस्तुतः नयों के "निश्चय" और "व्यवहार" भेदों की ही विशेष अपेक्षा प्रतीत होती है ! क्योंकि, सप्तभंगी के सन्दर्भ में जो भी प्रासंगिक विशिष्ट अपेक्षाएँ जागृत होती हैं, उन का मुख्य सम्बन्ध "निश्चय" व व्यवहार से ही जुड़ता है । क्योंकि, प्रत्येक द्रव्य व्यवहार में हमें जैसा दिखलाई पड़ता है, वस्तुतः वह वैसा होता नहीं । उसके और भी अनेकों रूप होते हैं, हो सकते हैं, यह बतलाने वाला नय है- “निश्चयनय" । इसी तथ्य को आचार्यों ने इस पंक्ति में व्यक्त किया है"तत्वार्थ निश्चयो वक्ति व्यवहारश्च जनोदितम् 12 इस कथन को निम्नलिखितः उदाहरण से स्पष्ट समझा जा सकता है । एक बार भगवान् महावीर से पूछ गया"भगवन् ! फाणित प्रवाही गुड़ में कितने वर्णरसगन्ध होते हैं ? भगवान ने उत्तर दिया- 'व्यवहार में तो मात्र 'मधुर' रस ही उसमें में है, यह कहा साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KO जायेगा किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा से उसमें की सम्पूर्णता का ज्ञान नहीं कराता, न ही उसका पांचों वर्ण, दोनों गंध, पाँचों रस, और आठों स्पर्श केवल 'दीर्घत्व' उसके सम्पूर्ण स्वरूप का परिचायक होते हैं। बन पाता है / बल्कि, इन दोनों स्वरूपों का सम्मिइस उत्तर का आशय यह है कि वस्त का जो लित रूप ही आम्रफल के समग्र-स्वरूप का द्योतका स्वरूप इन्द्रियग्राह्य होता है, वह जिस तरह का बाधक बनता है। होता है, उससे भिन्न प्रकार का उसका वास्तविक इसलिए स्व-द्रव्य, क्षेत्र, काल-भाव की / स्वरूप होता है। अपेक्षा से और पर-द्रव्य, क्षेत्र काल भाव की हम सब उसी बाह्य स्वरूप को देख पाते अपेक्षा से भी वस्तु का जो स्वरूप निश्चित होता 1 हैं, जो इन्द्रियग्राह्य होता है। सर्वज्ञ तो निश्चय है वही स्वरूप, वस्तु मात्र का वास्तविक स्वरूप रूप में, उसके 'बाह्य' और 'आभ्यन्तर' दोनों होता है। हो स्वरूपों को देखते जानते हैं / सापेक्षवाद इसी वास्तविक स्वरूप को व्याख्या करने के अधिष्ठाता डा० अलबर्ट आइंस्टीन ने भी अपना के लिए दार्शनिक जगत का एक मात्र सिद्धान्त / आशय इसी तरह का व्यक्त किया है / वे कहते हैं- 'स्याद्वाद' ही है। यह न केवल लोक व्यवहार को 'हम तो केवल आपेक्षिक सत्य को ही जानते हैं। वरन् पदार्थ मात्र को अपना विषय बनाता है। / सम्पूर्ण सत्य को तो सर्वज्ञ ही जानते हैं। चू कि, 'स्याद्वाद' शब्द में 'स्यात' शब्द को राष्ट्रभाषा सर्वज्ञ का ज्ञान, 'केवलज्ञान' होता है, इसलिए वह हिन्दी के 'शायद' शब्द का पर्यायवाची मानकर 'पूर्णज्ञान' भी होता है। इसी कारण वह द्रव्य कुछ विद्वानों ने इसे 'संशयवाद' की संज्ञा दो है, की समस्त विवक्षाओं को भली-भाँति जानते हैं। तो कुछ विद्वानों ने इसे सप्तभंगी वाक्यों में आये ___वस्तु/पदार्थ की सापेक्षता को स्वीकार करने के अस्ति-नास्ति' शब्दों का अर्थ ही सही सन्दर्भ में न लिए ही स्याद्वाद सिद्धान्त के अन्तर्गत सप्तभंगों समझकर इसे 'अनिश्चिततावाद' की संज्ञा प्रदान का प्रतिपादन किया गया है। इसके बिना किसी की है। भी पदार्थ के स्वरूप को पूर्णता प्राप्त नहीं हो इस तरह की शंकायें, उन्हीं व्यक्तियों द्वारा सकती। जैसे, आम का एक फल अपने से बड़े उठाई जाती हैं, जो आलोच्य सिद्धान्त के मर्म को आकार वाले फल की अपेक्षा से 'छोटा होता है, समझ बिना ही, स्व-इच्छित रूप से, कुछ भी कह और अपने से छोटे फल की अपेक्षा से 'बड़ा' भी देते हैं / वस्तुतः इन दोनों ही शंकाओं को पूर्वहोता है। लिखित विश्लेषणों के अनुसार, सिर उठाने का दोनों अपेक्षाओं को दृष्टि से आम के फल अवसर ही नहीं मिलता। वैसे भी जिन जैनेतर में 'लघुत्व' और 'दीर्घत्व' दोनों ही रूपों को विद्वानों ने इसके मर्म को आत्मसात् किया है, वे जब स्वीकार किया जायेगा तभी आम का स्वरूप दृढता के साथ, यह कहने में भी संकोच नहीं करते पूरा माना जाएगा क्योंकि, केवल लघुत्व आम फल कि 'स्याद्वाद' ही जैनदर्शन का हृदय है। 1 कोस्मोलोजी ओल्ड एण्ड न्यू / 553 2. कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jan Education Internatione 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