Book Title: Jain Darshan aur Apna Sharir
Author(s): Nandighoshvijay
Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/229230/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 जैनदर्शन और अपना शरीर मनुष्य जन्म बहुत ही दुर्लभ है, और मनुष्य जन्म के विना कभी मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती है । संसार में आत्मा जब तक मोक्षप्राप्ति नहीं करता है तब तक वह शरीरधारी ही होता है । बिना शरीर वह धर्म आराधना नहीं कर सकता है । अतएव शास्त्रकारों ने बताया है कि शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् अतः अपने इस शरीर के बारे में जानना आवश्यक है । जैन धर्मशास्त्रों के अनुसार शरीर के पाँच प्रकार है : 1. औदारिक शरीर, 2. वैक्रिय शरीर, 3. आहारक शरीर, 4. तैजस शरीर, 5. कार्मण शरीर । प्रत्येक जीव के कम से कम तीन शरीर होते हैं । क्वचित् विशिष्ट पुरुषों को एक साथ चार शरीर भी हो सकते हैं । किन्तु एक साथ पाँच शरीर किसी भी जीव को कभी भी नहीं होते है । सामान्यतया अपनी भौतिक दुनिया में जीव को अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इत्यादि जिनको केवल स्पर्श रूप एक ही इन्द्रिय है वे और उनके अलावा हिलते-चलते क्षुद्र जीव-जंतुओं जिनको जैन जीव विज्ञान के अनुसार दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय वर्ग में रखे जाते हैं वे, पानी में रहनेवाले मछली इत्यादि जलचर जीव, गाय, घोडा, इत्यादि पशु, साँप, छिपकली इत्यादि और चिड़ियाँ, कौआ, तोता इत्यादि पक्षी जिन्हें पंचेन्द्रिय कहे जाते हैं उन सबको केवल औदारिक, तैजस व कार्मण मिलाकर तीन शरीर ही होते हैं । जबकि देव और नारकी को वैक्रिय, तैजस व कार्मण मिलाकर तीन शरीर होते हैं । वे अपने वैक्रिय शरीर को अपनी इच्छानुसार विविध स्वरूप-आकार में रूपांतरित कर सकते हैं । आधुनिक युग के विज्ञानीयों की भाषा में उसे अंग्रेजी में ऐच्छिक शरीर (Desire body) कहा जाता है । जबकि समग्र सृष्टि में एक मनुष्य ही ऐसा है कि जिनको अपनी स्थूल आँखों से दिखायी देनेवाला हाड-मांस-चाम का औदारिक शरीर तो है ही किन्तु वह यदि विशिष्ट क्रिया-तप इत्यादि द्वारा वैक्रिय शरीर या विशिष्ट ज्ञान द्वारा आहारक शरीर भी बना सकता है । तथापि वह एक साथ वैक्रिय व आहारक दोनों शरीर नहीं बना सकता है । । इन पाँच प्रकार के शरीर में से जिनका यहाँ महत्त्व प्रस्थापित करना है वे | 29 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं तैजस् शरीर व कार्मण शरीर । ये दोनों प्रकार के शरीर समग्र ब्रह्मांड में सभी संसारी जीवों को होते हैं । हाँ, जो जीव समग्र कर्म के सभी वंधन को तोडकर मोक्ष में गया है अर्थात् अष्टकर्म से मुक्त हो गया है, उसको इन पाँच शरीरों में से एक भी शरीर नहीं होता है । अतः उसे अशरीरी कहा | जाता है । तैजस्-कार्मण शरीर को अंग्रेजी में Vital body कहा जाता है | औदारिक शरीर या स्थूल भौतिक शरीर के बारे में आधुनिक विज्ञान ने विशिष्ट अनुसंधान करके बहुतसी जानकारी उपलब्ध करायी है किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से उसका कोई मूल्य नहीं है । तैजस् शरीर जिसे सूक्ष्म शरीर भी कहा जाता है जो आहार का पाचन करके स्थूल शरीर के घटक द्रव्य खून, चरबी, माँस, अस्थि, मज्जा, इत्यादि बनाता है, वह और अपने स्थूल व सूक्ष्म शरीर के स्वरूप आदि जिनके आधार पर तय होते हैं. वही कामण शरीर, जिसे अन्य लोग कारण शरीर भी कहते हैं, दोनों बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। __ देवताओं के चित्र में, उनके मस्तक के पीछे बताया गया भामंडल, उनकी दिव्यता का प्रतीक है । वस्तुतः वह उनके सूक्ष्म शरीर तैजस् शरीर की शुद्धि का प्रभाव है । अन्य जीवों में और मनुष्य में भी ऐसा घिरावक्षेत्र (परिमंडल) होता है, जिसे आभामंडल (aura) कहा जाता है । वस्तुतः यह आभामंडल जैविक विधुचुंबकीयक्षेत्र (bio-electromagnetic field) ही है | जैसे प्रत्येक चुंबक का अपना चुंबकीय क्षेत्र होता है वैसे ही प्रत्येक जीव | का अपना प्रभाव क्षेत्र होता है । मनुष्य के इस आभामंडल का आधार सूक्ष्म शरीर तैजस् शरीर की शुद्धि पर निर्भर करता है और उसका आधार कार्मण शरीर द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गल परमाणु व उसके वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पर है । यद्यपि शुभ या अशुभ पुद्गल परमाणु के ग्रहण का आधार अपनी मनःस्थिति अर्थात् मन द्वारा किये गये शुभ या अशुभ विचार पर है । अतः उनके परिणाम स्वरूप आभामंडल की तीव्रता व शुद्धि-अशुद्धि का आधार मन या विचार पर है । इस आभामंडल को कुछेक लोग शक्तिकवच भी कहते हैं और यह मन जिसको कुछ लोग छट्ठा इन्द्रिय (sixth| sense) कहते हैं वह भी सूक्ष्म परमाणुसमूह एकम से बना है । ___ श्री अशोक कुमार दत्त इस आभामंडल को देख सकते हैं । वे जैन नहीं हैं लेकिन उनका अनुभव जैन दार्शनिक मान्यताओं का समर्थन करता है 30 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके इस प्रकार के अनुभव तथा ऐसे ही अन्य लोगों को होने वाले अनुभव | अनुसंधान का एक नया क्षेत्र खोल देते हैं । उनका एक विधान जैन कर्मवाद (Jain Karma Philosophy) को आश्चर्यजनक रूप में प्रतिबिंबित करता है । वे कहते हैं कि जो शक्तिकण इस शक्तिकवच के घिरे में आ जाते हैं उसे सूक्ष्म शरीर भोजन के रूप में ग्रहण कर लेता है। स्थूल दृष्टि से जैन दार्शनिकों ने तीन प्रकार का आहार बताया है : 1.| | कवलाहार या प्रक्षेपाहार, 2. लोमाहार, 3. ओजाहार | 1. कवल के रूप में पकाया हुआ धान्य आदि मुख द्वारा खाना कवलाहार या मुख द्वारा आहार लेने की संभावना न हो तब छिद्र करके प्रवाही देना या इंजेक्शन द्वारा सीधे ही खून में शक्तिदायक पदार्थ या औषध आदि देना वह प्रक्षेपाहार 2. वातावरण में स्थित आहार पानी के सूक्ष्म अणु को रोम द्वारा ग्रहण करना लोमाहार और 3. गर्भस्थ शिशु या जीव उत्पत्ति के प्रथम क्षण में माता-पिता | के शुक्र-शोणित आहार करे वह ओजाहार । सूक्ष्मदृष्टि से जैन कर्म सिद्धांतानुसार यह आत्मा / जीव जितने आकाश प्रदेश में स्थित है उससे अनन्तर आकाश प्रदेश में स्थित कार्मण वर्गणा के पुद्गल स्कंधों को ग्रहण करता है और आत्मा उसे अपने कार्मण शरीर में |मिला देता है । इसके बाद वह आत्मा के साथ कथंचित् अभिन्न स्वरूप प्राप्त कर लेता है । ___ यही शक्तिकवच अर्थात् आभामंडल के बारे में श्री दत्त कहते हैं कि जैसे-जैसे शक्तिकवच का घिरावा बढ़ता जाता है वैसे-वैसे शक्तिकणों को ग्रहण करने की और उनको उत्सर्जित करने की क्षमता भी ज्यादा बढ़ती है। | इसके बारे में ऐसा कहा जाय कि जैसे-जैसे आत्मा की उन्नति होती है वैसे-वैसे उनका शक्तिकवच अर्थात् आभामंडल ज्यादा ज्यादा बड़ा, शुद्ध व स्पष्ट होता जाता है । अतएव दैवी तत्त्वों अर्थात् देवी-देवता या तीर्थकर | परमात्मा का आभामंडल शुद्ध, स्पष्ट एवं आँखों से देखा जा सके ऐसा होता है । जड़ पदार्थों में भी आभामंडल होता है किन्तु सजीव पदार्थ की भाँति वह स्थिर नहीं होता या आध्यात्मिक विकास अनुसार उसका विकास नहीं होता है । वह तो प्रतिदिन क्षीण व निस्तेज होता रहता है । देवों में भी उनका आयुष्य छ: माह शेष रहने पर, उनका आभामंडल निस्तेज हो जाता 31 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है / उनकी फूल की माला मुरझा जाती है और शरीर मलिन होने लगता है, | किन्तु जो देव एकावतारी अर्थात् तत्पश्चात् भव में ही मनुष्य होकर मोक्ष में जाने वाले हैं वे इस नियम में नहीं आते हैं / उनका आभामंडल प्रतिदिन ज्यादा तेजस्वी बनता है, फूल की माला मुरझा नहीं पाती / तदुपरांत इस आभामंडल अर्थात् जैविक विद्युद्चुबकीय क्षेत्र की तीव्रता का आधार मन की शक्ति या संकल्प शक्ति पर भी है / जैसे-जैसे जीव की संकल्प शक्ति तीव्र बनती है वैसे-वैसे उनका आभामंडल बड़ा व शक्तिशाली बनता है / अतः मनुष्य को अपनी मानसिक शक्ति संकल्पशक्ति को निरंतर शुभ विचार, मंत्रजाप और इष्ट देव के स्मरण द्वारा तीव्र बना सकता है / तीर्थकर परमात्मा के अद्भुत आभामंडल के बारे में विशेष विवेचन आगे के प्रकरण में दिया जायेगा / जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एणं जाणइ / आचारांग सूत्र JE EGAM JANAI SE SAVVAM JANAI. JE SAVVAM JANAI SE EGAM JANAI "ONE, by knowing which all is known. All, by knowing which one is known" Acaranga sutra 32