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जैन दर्शन में ध्यान
ध्यान आत्मज्ञान का साधन है:
ध्यान याने क्या ? साधक के प्रश्न का समाधान करते हुए कहा गया है कि - चित्त को एकाग्र करना, मन की गतियों को शान्त करना एवं चेतन, अचेतन, अवचेतन तक सभी गतियों का शान्त होना ध्यान है। कर्म-निर्जरा का मूल आधार ध्यान है। स्वानुभूति के लिए ध्यान साधना आवश्यक है।
आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में कहा है. का साधन है आत्मज्ञान से कर्मों की निर्जरा होती ही मोक्ष है।"
पद्धति
(साध्वी डॉ. मुक्तिप्रभाजी एम.ए. पीएच.डी.)
आत्मज्ञान को प्राप्त करने एवं मन चित्त को एकाग्र करने में बाधक तत्त्व को हटाना जरूरी है । तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है एकाग्र रूप से चित्त का निरोध अथवा पदार्थ पर विचार का केन्द्रीकरण ध्यान है। इस प्रकार का ध्यान अधिक से अधिक एक मुहूर्त (४८ मिनिट) तक हो सकता है।
". ध्यान आत्मज्ञान
है और कर्म निर्जरा
जैन दर्शन में ध्यान के दो भेद किये गए हैं
१. अप्रशस्त और २. प्रशस्त । अप्रशस्त ध्यान के दो प्रकार हैं१. आर्तध्यान और २. रौद्रध्यान । प्रशस्त ध्यान के दो प्रकार हैं१. धर्मध्यान और २. शुक्लध्यान । ध्यान पद्धति
चरण-कमल का ध्यान :
श्री जिनेन्द्र भगवान के चरण की शरण ग्रहण करने वाला संसार को पार करने में समर्थ हो सकता है। अतः ये चरणकमल अनन्त शक्ति सम्पन्न हैं । इस चरण कमल के ध्यान से साधक लौकिक-अलौकिक सिद्धि का स्वामी बन सकता
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श्रीमद् जयंतसेनरि अभिनंदन वाचना
चरण-कमल की विशेषता :
जैसे कमल में सुवास होती है, वैसे चरण-कमल में भी सुवास होती है। कमल पुष्प की सुवास समयानन्तर समाप्त होती है, परंतु चरण-कमल की सुवास सदा रहती है तथा यह चरण कमल की सुवास अनुपमेय, अव्याख्येय, अवर्णनीय एवं अगम है।
कमल तो कीचड़ में पैदा होता है, इसीलिये वह कलंकित है. परंतु श्री जिनेन्द्र भगवान के चरण कमल इस कलंक से रहित होने के कारण पूर्णतः निष्कलंक हैं। कमल सूर्यास्त से खेद को प्राप्त होता है, पर भगवान के चरण कमल खेदादि दोष से रहित हैं। इतना ही नहीं ऐसे चरण कमल का ध्यान करने वाला अवंचक योगी भी ऐसी शुद्ध दशा को प्राप्त करने में सफल रहता है।
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आपके चरण युगल के आश्रित व्यक्ति पर क्रमबद्ध ( तराप मारने के लिए तैयार ) सिंह भी आक्रमण नहीं करता ऐसे श्री जिनेन्द्र देव के चरण कमल की सेवा दुर्लभ है। आनन्दघनजी ने यहां तक कहा है कि तलवार की धार पर चलना सरल है, पर श्री जिनेन्द्र भगवान के चरण-कमल की सेवा दुर्लभ है।
श्री हेमचन्द्राचार्यजी कहते हैं कि रात्रि में भटकते हुए व्यक्ति को दीप, समुद्र में डूबते हुए व्यक्ति को द्वीप, जेठ की दुपहरी में मरु में धूप से संतप्त व्यक्ति को वृक्ष और हिम में ठिठुरते हुए व्यक्ति को अग्नि की भांति दुष्करता से प्राप्य ऐसे आपके चरण रजकण इस कलिकाल में प्राप्त हुआ।
कमल का
चरण कमल के ध्यान के पूर्वः
चरण-कमल के ध्यान के पूर्व ध्याता अपने ध्येय को ऐसा निवेदन प्रस्तुत करता है कि हे परमात्मा! मुझ पर कृपा कर आनन्द के समूह ऐसे आपके चरण-कमल की सेवा का मुझे अवसर प्रदान करो। मेरे मन रूपी भ्रमर को आपके चरण रूपी कमल के पास निवास प्राप्त होवे ।
ऐसे ध्यान में संपूर्ण तीव्र भावों से युक्त होकर भक्त कवि कहते हैं, हे नाथ! आपके चरण कमलों की भक्ति का यदि कुछ फल हो तो उससे हे शरणागत प्रतिपालक आप ही इस लोक में और परलोक में मेरे स्वामी होवें। ऐसे चरण-कमल का ध्यान करते समय साधक को सर्वप्रथम अन्य सर्व कार्यों को त्याग कर शरीर के प्रत्येक अवयव एवं भक्ति से प्रकट हुए रोमांचों से व्याप्त होकर विधिपूर्वक आराधना करनी चाहिए।
चरण कमल में चित्त जोड़नेवाला साधक सदैव आत्मभाव में जाग्रत रहता है तथा दुर्दशा को दूर कर मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं मध्यस्थ इन चार भावनाओं में ही हमेशा चित्त को संलीन रखता है। चरण कमल के ध्यान का परिणामः
अरिहन्त के चरण कमल के ध्यान से साधक लौकिक अलौकिक अनेक परिणामों को पाता है, क्योंकि श्री जिनेन्द्र देव के चरण कमल अनेक ऋद्धियों के भंडार हैं। अनन्त शक्ति के आगार हैं। अशरण की शरण के ये एक मात्र आधार हैं। श्री जिनेन्द्र भगवान के चरण कमल परम मंगल होने से भव्य आत्मा इनका ध्यान कर
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वृत्ति विनय की है नहीं, घट में भरा गुमान । जयन्तसेन अशक्य है, मानवता का ज्ञान ॥
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________________ अनेक लौकिकऋद्धियों को प्राप्त करने में सफल रहता है। अरिहन्त प्रभाकांति वाले जिनेश्वर स्वाभाविक पवित्र एवं सुन्दर होते हैं / अरिहन्तं के चरण-कमल सदा प्रशंसनीय और स्वाभाविक सुन्दर होते हैं, इनका भगवान का देह वर्ण पियंगु जैसा हरा तो किसी का स्फटिकवत् श्वेत, ध्यान करने वाले साधक लक्ष्मी, यश, कांति एवं धैर्य को प्राप्त करते / किसी का सुवर्ण जैसा पीला, तो किसी का पद्मराग जैसा लाल एवं किसी का अंजन जैसा श्याम होता है। इन पांच वर्षों में से कोई भी आचार्य ने पूज्यपाद के चरण-कमल की संलीनता का महत्व वर्ण अरिहन्त को स्पर्श करता है। दर्शाते हुए उसका उपाय भी बताया है, और कहा है व अरिहन्त भगवान के चक्षु युगल प्रशम रस से भरे हुए हैं। तव पादौ मम हृदये वदन-कमल अति प्रसन्न हैं। श्रीमानतुंगाचार्य ने प्रभु के वदन कमल मम हृदयं तव पदद्वये लीनम् / का स्वरूप दर्शाते हुए बहुत सुंदर कहा है कि सदैव उदय रहने वाला, तिष्ठतु जिनेन्द्र, मोह रूपी अन्धकार को नष्ट करने वाला, राहु के मुख द्वारा ग्रसे जाने तावद्यावनिर्वाणसंप्राप्ति: / / के अयोग्य मेघों के द्वारा छिपाने के अयोग्य, अधिक कांतिवाला और अर्थात् हे अरिहन्त / जब तक मैं निर्वाण प्राप्त करूं, तब तक संसार को प्रकाशित करने वाला आपका मुख कमल रूपी अपूर्व आपके चरण युगल मेरे हृदय में और मेरा हृदय आपके दोनों चरणों चन्द्रमण्डल सुशोभित होता है। देव, मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों का में लीन बना रहे। हरण करने वाला एवं संपूर्ण रूप से जीत लिया है तीनों जगत की हृदय - कमल में तात्विक प्रतिष्ठा: उपमाओं को जिसने ऐसा आप का मुख कहां और कहां कलंक से सम्यक् प्रकार से परमात्मा में अपने विशुद्ध चित्त को स्थापित मलिन चन्द्रमा का मुख मंडल। करना और बाद में अर्हत् स्वरूप का ध्यान करना। तीन गढ़ में प्रभु का वदन - कमल परम मंगल स्वरूप है। प्रात:काल स्फुरायमान प्रकाश वाले समवसरण के मध्य में रहे हुए चौंसठ इन्द्रों स्मरणीय है, ध्यान द्वारा दर्शनीय है। कल्याण करने वाला है। इस से जिनके चरण कमल पूजित हैं, ऐसे तीन छत्र, पुष्पवृष्टि सिंहासन, प्रकार वदन - कमल के ध्यान के कई लौकिक, लोकोत्तर परिणाम हैं। चामर अशोक वृक्ष, दुंदुभि दिव्य ध्वनि और भा-मण्डल ऐसे आठ महाप्रातिहार्यों से अलंकृत सिंह के लांछन से युक्त सुवर्णवत् कांतिवाले प्रभु का इस प्रकार ध्यान करने से अज्ञान दूर होता है और ज्ञान पार्षदों में विराजमान श्रीवर्धमान जिनेश्वर को ध्याता अपने हृदय में का प्रादुर्भाव होता है, तथा भव्यजन सावधान बुद्धि से युक्त होकर प्रभु साक्षात् देखें / ऐसे साधक नेत्र एवं मन को उनमें लीन कर दें। के निर्मल मुख कमल आदि पर लक्ष्य बांधने वाला देदीप्यमान स्वर्ग की सम्पत्तियों को भोग कर कर्म रूपी मल समूह से रहित होकर शीघ्र प्रतिष्ठा के बाद साधक को अपनी साधना का पूर्ण विश्वास होना ही मुक्ति पा जाता है। चाहिए, क्योंकि शंका, संशय या संदेह करने से साधना सफल नहीं होती है। साधना की सफलता का परम रहस्य यही है कि जिसने हर्ष के प्रकर्ष से युक्त परमात्मा को जो विधि पूर्वक ध्याता है, अपने हृदय कमल में ऐसे जिनेश्वर भगवन्त की प्रतिष्ठा करली है, वह मोक्ष का सुख प्राप्त करता है। उसके लिए विश्व में ऐसा कोई कल्याण नहीं है, जो उसके सामने न मधुकर मौक्तिक आता हो / वह उसकी प्राप्ति में अवश्य ही सफल रहता है। उसके अशुभ से विपरीत है-शुभ / यह मनुष्य को मनुष्यता के दुःख प्रथम समाप्त हो जाते हैं। उसकी देह सुवर्णवत् आभा संपन्न हो शंगार रुप भावों से ओतप्रोत कर देता है.। जब मनुष्य शुभ की जाती है। एक बार अरिहंत परमात्मा को हृदय में धारण करने पर ओर प्रगति करता है, तब वह शुद्ध को पहचान सकता है। अन्यत्र कहीं उसका मन नहीं रमता। इस मन रूपी मंदिर में जिनेश्वर शुद्धिकरण और निशुद्धिकरण की प्रक्रिया के शुभारंभ के पश्चात् के स्फुरायमान होने से पापरूपी अन्धकार का विनाश हो जाता है। ज्ञातव्य के ज्ञान के पश्चात् शुभ से शुद्ध प्राप्त किया जा सकता जिस प्रकार अन्य स्थानों को छोड़कर कमल जैसे सरोवर में विकसित है। इसे समझने के लिए गहन विचार मंथन की आवश्यकता होता है, उसी प्रकार एक बार अरिहन्त परमात्मा में संलीन हृदय कभी है, पर पहले इसे भावों की तरतमता से जान लेना आवश्यक है। भी नहीं रुकता। हृदय कमल में तात्विक प्रतिष्ठा, यह ध्यान की एक जिनशासन में अशुभ से शुभ में प्रवेश पाने के लिए प्रार्थना का विधान किया गया है। प्रकृष्ट उत्कृष्ट भाव निर्मल होते है, उत्तम पद्धति है। उनकी नस नस में निर्माण समाया हुआ होता है। इसीलिए भावों वदन-कमल का ध्यान: की जाज्वल्यमान पुरस्कृति के लिए अचेत मन को जागृत करना परमात्मा के शांत - प्रशांत वदन, उनमें साधना की सिद्धि से बहुत आवश्यक है। युक्त दैदीप्यमान दिव्य दो नेत्र युगल। न केवल वदन कमल ही, आकर्षण की मदिरा से पथभ्रष्ट होकर जो भव के प्रेमपाश अरिहन्त परमात्मा का संपूर्ण देह ही अद्भुत एवं रूप सम्पन्न होता है। में जकड़े गये हैं, उनके लिए बार-बार यह कहा गया है कि जब जन्मकृत चार अतिशयों में अद्भुत रूप और गंध से युक्त देह का होना तक अन्तर्मन में सद्भावों की सरिता कल कल करती बहने नहीं प्रथम अतिशय है / पियंगु, स्फटिक, सुवर्ण, पद्मराग और अंजन जैसी लगेगी, तब तक पवित्रता की अभिव्यक्ति बिल्कुल असंभव है। श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथावाचना बनी बिगड़ती जिंदगी, करे अहं नर कोय / जयन्तसेन विनम्रता, सुखदायक नित होय //