Book Title: Jain Agam ane Mansahar Aetihasik Charcha
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम अने मांसाहार : ऐतिहासिक चर्चा विजयशीलचन्द्रसूरि इतिहास एना पेटमां अगणित जाणी-अजाणी घटनाओनो-वातोनो भण्डार समावीने बेठो छे. ज्यारे ज्यारे तेनी अजाणी वातो प्रकाशमां आवे छे, त्यारे त्यारे जिज्ञासु मन कोई अनेरा परितोषमा गरकाव थई जाय छे. 'जाणवू' ए किया जेवो-जेटलो सन्तोष आपे छे, तेटलो-तेवो सन्तोष भाग्ये ज बीजी कोई क्रिया आपी शके छे. प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ. हर्मन याकोबीए जैन आगमोनुं सम्पादन प्रकाशन कर्यु छे ए वात विद्वज्जगतमां जाणीती छे. तेमां श्रीआचाराङ्गसूत्रना सम्पादन दरम्यान तेमने प्रतीत थयु के जैन ग्रन्थोमां पण मांसाहारनुं विधान छे. एटले तेमणे ते वात पोताना शोध-पत्रो द्वारा 'खास संशोधन' रूपे जाहेर करी. स्वाभाविक रीते ज जैनोए अने जैनाचार्योए ते सामे तीखी प्रतिक्रिया आपी, अने “जैन आगमोमां मांसाहारनुं विधान नथी ज.' तेवी शास्त्रो अने परम्परा द्वारा स्वीकृत मान्यतानुं प्रतिपादन कर्यु. ते वखते, एटले के आजधी आशरे ११३ वर्षो अगाऊ, जेमणे आ वातनुं खण्डन करेलुं, तेमां तपगच्छ जैन संघना मूर्धन्य साधुपुरुषो पंन्यास श्रीगम्भीरविजयजी, मुनि श्रीनेमिविजयजी, मुनि श्रीआनन्दसागरजी - आ वणनां नामो आगळ पडतां छे. ते समयना 'मुंबई समाचार'मां आ विषये चर्चापत्रो तथा सामसामा निवेदनो छपायां छे. तो बन्ने पक्षो वच्चे परस्पर पत्रव्यवहार पण थयेल छे. आमां चार लखाणो अहीं आप्यां छे. १. पं. गम्भीरविजयजीनो लेख. २. मुनिद्वय - नेमिविजयजी तथा आनन्दसागरजीनो डॉ. याकोबी उपर लखायेल विस्तृत पत्र : परीहार्यमीमांसा. ३. डॉ. याकोबीए ते मुनिद्वय उपर लखेल प्रत्युत्तर. ४. डॉ. याकोबीने ते बे मुनिवरोए आपेल प्रत्युत्तर. आमां प्रथम लेख गुर्जरभाषाबद्ध छ; बाकी ३ संस्कृत भाषामां छे. प्रथम लेखमां पं. गम्भीरविजयजीए आचाराङ्गसूत्रना ते सूत्र साथे तेनो हृदयंगम तरजुमो आप्यो छे. गुरुगम के गुरुपरम्पराप्राप्त आम्नाय मेळवनार Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-४१ गीतार्थ साधु ज आपी शके तेवो सरस-स्पष्ट खुलासो तेमणे आप्यो छे, अने ते द्वारा 'जैन मुनि मांसाहार न करे; नहोता करता' ते मुद्दो तेमणे सुग्रथित रीते साबित कर्यो छे. अत्यन्त रोगातङ्कादि कारणे अभक्ष्य पुद्गल पदार्थनो बाह्य उपयोग करवानुं ते सूत्रपाठ सूचवे छे, तेनुं पण तेमणे विशद प्रतिपादन कर्यु छे. एक वात समजवायोग्य छे. सूत्रना शब्दो द्विअर्थी छे. तेनो प्राथमिक अर्थ मांसपरक थतो होवा छतां संस्कृतज्ञ आचार्यो वगेरेए तेना निघण्टु (वनौषधि) शास्त्राधारित वनौषधिपरक अर्थ करवानु वलण सुदृढपणे अपनाव्यु छे, जे आजे पण प्रवर्ते छे. पं. गम्भीरविजयजी समक्ष, टीकाकार महर्षिओ आदिना प्रतिपादन-आधारित, ते सूत्रगत ते ते शब्दोना ते ते प्राथमिक अर्थो ज स्वीकारवानी परम्परा पण छे. ते परम्परा प्रमाणे, विलक्षण संजोगोमां बाह्यपरिभोगरूपे मांस आदिनो उपयोग करवानुं अपवादपदे मान्य होवा छतां, आहाररूपे तेनो उपयोग-उपभोग निषिद्ध अने अमान्य ज होवा, तेमणे सिद्ध कर्यु छे. अने आ परम्पराना परिप्रेक्ष्यमां ज, निघण्टुशास्त्रादिनी मददथी ते ते शब्दोना वनस्पतिपरक अर्थ करीने, बाह्य के अभ्यन्तर कोई पण स्वरूपे मांसपरिभोगनो जैन ग्रन्थोमां निषेध होवानु ज सिद्ध करनार आचार्योने, (दा.त. पाशचन्द्रसूरि) तेमणे, असत्यभाषी तरीके वर्णव्या जणाय छे. सापेक्षभावे आ वात लईए तो परस्पर विरोधनो परिहार थई शके छे. तत्त्व तो हमेशां बहुश्रुतगम्य ज होवा. परन्तु एक विशिष्ट दृष्टिकोण आ द्वारा आपणने सांपडे छे, ए नक्की. आ लेखनु लेखनवर्ष जोके कर्ताए नोंध्यु नथी, छतां ते वि.सं. १९५३-५४ आसपास लखायो होय ते अनुमान थाय छे. आ लेखनी कर्ताए स्वहस्ते लखेली जणाती हस्तप्रति भावनगर तपा. संघना हस्तलिखित ज्ञान भण्डारमा उपलब्ध छे. पांच पत्रनी ते प्रतिनी झेरोक्स नकल परथी आ लेख अत्रे आपेल छे. आ प्रति ते भण्डारमा 'जेकोबीनो पत्र' एवा नामे नोंधायेल छे. तेनो पोथी नं. ४०३ छे, प्रत नं. १३४८. बीजी पत्रात्मक रचना छे परीहार्यमीमांसा. वि.सं. १९५४मां, मुंबई समाचार वर्तमानपत्रमा डॉ. जेकोबी तथा मेक्समूलर नामना विद्वानोनो पत्र Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ October-2007 छपायो; ते पत्रनी नकल श्रावक हीरजी खीमजी कायाणी नामे गृहस्थ द्वारा स्तम्भतीर्थ-खम्भातमां बिराजता मुनि नेमिविजयजी तथा आनन्दसागरजीने प्राप्त थई; ते बन्नेए तेना जवाबमां जे पत्र-लेख लख्यो, ते ते समये 'परीहार्यमीमांसा' नामे पुस्तिकारूपे प्रकाशित थयो. तेमणे निघण्टु आदि विविध शास्त्रो, टीकाग्रन्थो आदिनां/प्रमाणो टांकीने तथा विविध तर्क अने युक्तिओपूर्वक, 'जैन आगममां मांसाहारनुं विधान छे' तेवी, उक्त विद्वानोनी वातनुं खण्डन करेल छे. साथे ने साथे, ते समये कोई जैन गृहस्थे पण उक्त बे विद्वानोना मतनुं समर्थन करतो लेख समाचारपत्रमा लख्यो हशे, तेनुं पण 'श्रमणोपासकापलापप्रकाशः' एवा शीर्षक नीचे, आ ज पत्र-लेखमां बन्ने मुनिओए खण्डन कर्यु छे. आ पुस्तिका सं. १९५५मां खम्भात-जैनशालाना शेठ पोपटलाल अमरचंदे प्रकाशित करी हती. पं. गम्भीरविजयजीनी सौम्य भाषानी तुलनामां, ते वखते युवान एवा आ बन्ने मुनिराजोनी भाषामां आक्रमकतानो स्पर्श माणी शकाय छे. तो पाछळनां वर्षोमां जैन संघमा 'शासनसम्राट' तथा 'आगमोद्धारक' एवा बिरुदो वडे विख्यात बनेला महान जैनाचार्योनो मैत्रीपूर्ण सहवास तथा सहयोगमां कार्य करवानी रीत - ए बधांनो पण आ पत्र-लेख द्वारा संकेत मळी आवे छे. त्रीजा क्रमांके आवे छे डो. याकोबीनो उक्त बे मुनिओ उपर आवेल जवाब. तेमां तेमणे 'जे ते शब्दो वनस्पतिवाचक नहि, पण मांसादिवाचक ज छे' एवा पोताना मन्तव्यना समर्थनमा दलीलो-तर्को आलेख्या छे. छेवटमा तेमणे बे महत्त्वनी वातो नोंधी छे : "अमने तो आ ज अर्थ बेसे छे. परन्तु अमे न समजी शकता होईए अने अन्यथा अन्य अर्थ पण अभ्यासीओ करी शकता होय तो तेओ भले तेम करे. अने, जो अमे अमारा द्वारा सम्पादित आचाराङ्गसूत्रनी बीजी आवृत्ति छापीशुं, तो टिप्पणीरूपे तमे बेए जणावेल अर्थ जरूर टांकीशुं." परम्परा अनुसार ते विद्वाने करेल अर्थ अनधिकृत-अनुचित भले हतो; पण एक त्राहित अभ्यासी तरीके तेमणे सूत्रना शब्द तथा तेना प्राथमिक थता अर्थने स्वीकारीने पोतानुं मन्तव्य जाहेर करेलुं, ए मुद्दो, आपणने गमे के Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-४१ न गमे पण, आपणे स्वीकारवो ज पडे. पोताना मन्तव्यना समर्थनमां तर्को वगेरे तेमणे आप्या ज छे; अने छतां परम्पराप्राप्त पद्धतिजन्य अन्य अर्थघटननो तेमणे तिरस्कार नथी कर्यो, पण टिप्पणीमां राखवानुं स्वीकार्यु छे. आवी समजण केटला लोको दाखवी शके ? .. पत्र संस्कृतमां लखायो छे. तेनी भाषा तथा रजूआत/शैली जोतां कोईने ख्याल न आवे के आ पत्र कोई जर्मन विद्वाने लखेलो छे ! एमनां विधानो के मन्तव्यो साथे साव असम्मत होवा छतां एमना ज्ञान अने चिन्तनने तो दाद आपवी ज पडे. आ पछी आवे छे डॉ. याकोबीना पत्रनो मुनिद्वय द्वारा अपायेल प्रत्युत्तर. खीमजी हीरजी कायाणी द्वारा याकोबीनो पत्र विलम्बे पहोंच्यो होई तेनो जवाब राजनगर (अमदावाद)थी बन्ने मुनिओ आपी शक्या छे ते पत्र वांचतां जणाय छे. प्रायः सं. 1956- ए वर्ष होवू जोईए. आ पत्रमा तेमणे डो. याकोबीना पत्रगत मुद्दाओनुं सुपेरे खण्डन कर्यु छे. परन्तु याकोबीने तेमणे सम्बोधन कर्यु छे ते खास ध्यान आपवा योग्य छे : "ज्ञानाभ्यासविलासवासितान्तःकरणान् संस्कृताध्यापकान्". केटलो विवेक नीतरे छे आ शब्दोमां ! मतभेद एटले झघडो के विरोध ज एवी वृत्ति आ लोकोमां नहोती, तेनुं आ ज्वलन्त उदाहरण छे. नेमिविजयजीए अमदावादमां 'जैन तत्त्वविवेचक सभा' स्थापी हती. अने तेना उपक्रमे 'जैन तत्त्वविवेचक' नामे मासिक पत्रिका पण प्रगट थती हती, ते जणावq अहीं उपयुक्त छे. ते सभाना सेक्रेटरी शाह केशवलाल अमथाशा वकीलना नामे तेओए जवाब मंगाव्यो छे. परन्तु ते पछी कोई जवाब आव्यो होय तो ते प्राप्त नथी. आपणा इतिहास, एक वीसरावा आवेलुं आ प्रकरण छे. आम छतां हजी पण क्यारेक क्यारेक आ विषय पर गमे तेवा अनधिकारी माणसो गमे तेम लखी नाखता जोवा-जाणवा मळे छे. प्रस्तुत थयेल पत्रादि लेखो, एक बाजुए आ विषये मार्गदर्शन आपी शके तेम छे, तो बीजी बाजुए काळना गर्तमां सरी पडता एक ऐतिहासिक पृष्ठने चिरंजीवी बनाववानो पण आमां खयाल छे.