Book Title: Hetu ke Rup Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/229035/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेतु के रूप हेतुके रूपके विषयमें दार्शनिकोंमें चार परम्पराएँ देखी जाती है---- वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध; २-नैयायिक; ३--अज्ञातनामक; ४-जैन । प्रथम परम्पराके अनुसार हेतुके पक्षसत्व, सपक्षसत्व और विपक्षव्यावृत्तत्व ये तीन रूप हैं। इस परम्पराके अनुगामी वैशेषिक, सांख्य और बौद्ध तीन दर्शन हैं, जिनमें वैशेषिक और सांख्य ही प्राचीन जान पड़ते हैं। प्रत्यक्ष और अनुमान रूपसे प्रमाण द्वय विभागके विषय में जैसे बौद्ध तार्किकों के ऊपर कणाद दर्शनका प्रभाव स्पष्ट है वैसे ही हेतुके रूप्यके विषयमें भी वैशेषिक दर्शनका ही अनुसरण बौद्ध तार्किकोंने किया जान पड़ता है। प्रशस्तपाद खुद भी लिङ्गके स्वरूपके वर्णनमें एक कारिकाका अवतरण देते हैं जिसमें त्रिरूप हेतुका काश्यपकथित रूपसे निर्देश है। माठर अपनी वृत्तिमें उन्हीं तीन रूपोंका निर्देश करते है (माठर० ५)। अभिधर्मकोश, प्रमाण समुच्चय, न्यायप्रवेश (पृ० १), न्यायबिन्दुः (२.५ से), हेतुबिन्दु (पृ. ४) और तत्वसंग्रह (का० १३६२) आदि सभी बौद्धग्रन्थों में उन्हीं तीन रूपोंको हेतु लक्षण मानकर त्रिरूप हेतुका ही समर्थन किया है। तीन रूपोंके स्वरूपवर्णन एवं समर्थन तथा परपक्षनिराकरणमैं जितना विस्तार एवं विशदीकरण बौद्ध ग्रन्थों में देखा जाता है उतना किसी केवल वैशेषिक या सांख्य ग्रन्थमें नहीं। नैयायिक उपर्युक्त तीन रूपों के अलावा अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षितत्व ये दो रूप मानकर हेतुके पाञ्चरूप्यका समर्थन करते हैं। यह समर्थन सबसे पहले किसने शुरू किया यह निश्चय रूपसे अभी कहा नहीं जा सकता । पर सम्भवतः इसका प्रथम समर्थक उद्योतकर (न्यायवा० १. १. ५) होना चाहिए । हेतुबिन्दुके टीकाकार अर्चटने (पृ० २०५) तथा प्रशस्तपादानुगामी श्रीधरने नैयायिकोक्त पाञ्चरूप्यका रूप्यमै समावेश किया है। यद्यपि वाचस्पति १ प्रो. चारबिट्स्कीके कथनानुसार इस त्रैरूप्यके विषयमें बौद्धोंका असर वैशेषिकोंके ऊपर है---Buddhist Logic vol. I P. 244. २ 'यदनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विते । तदभावे च नास्येव तल्लिङ्गमतुमापकम् ॥ विपरीतमतो यत् स्यादेकेन द्वितयेन वा! विरुद्धासिद्धसन्दिग्धमलिङ्ग काश्यपोऽब्रवीत् ।।'-प्रशस्त० पृ० २०० । कन्दली पृ० २०३ ! Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ (तात्पर्य० १. १. ५, १. १. ३६), जयन्त (न्यायम० पृ० ११०) श्रादि पिछले सभी नैयायिकोंने उक्त पाञ्चरूप्यका समर्थन एवं वर्णन किया है तथापि विचारस्वतन्त्र न्यायपरम्परामें वह पाञ्चरूप्य मृतकमुष्टिकी तरह स्थिर नहीं रहा । गदाधर आदि नैयायिकोंने व्याप्ति और पक्षधर्मतारूपसे हेतुके गमकतोपयोगी तीन रूपका हो अवयवादिमें संसूचन किया है। इस तरह पाञ्चरूप्यका प्राथमिक नैयायिकाग्रह शिथिल होकर त्रैरूप्य तक आ गया। उक्त पाञ्चरूप्यके अलावा छठा अज्ञातत्व रूप गिनाकर घड्प हेतु माननेवाली भी कोई परम्परा थी जिसका निर्देश और स्वएडन अर्चट' ने 'नैयायिक-मीमांसकादयः' ऐसा सामान्य कथन करके किया है। न्यायशास्त्रमै ज्ञायमान लिङ्गकी करणताका जो प्राचीन मत (शायमानं लिङ्ग तु करणं न हि-मुक्ता० का०६७) खण्डनीय रूपसे निर्दिष्ट है उसका मूल शायद उसी घड्रूप हेतुवादकी परम्परामें हो। जैन परम्परा हेतुके एकरूपको ही मानती है और वह रूप है अविनाभावनियम । उसका कहना यह नहीं कि हेतुमें जो तीन या पात्र रूपादि माने जाते हैं वे असत् हैं। उसका कहना मात्र इतना ही है कि जब तीन या :पाँच रूप न होने पर भी किन्ही हेतुओंसे निर्विवाद सदनुमान होता है तब अविनामावनियमके सिवाय सकल हेतुसाधारण दूसरा कोई लक्षण सरलतासे बनाया ही नहीं जा सकता। अतएव तीन या पाँच रूप अविनाभावनियमके यथासम्भव प्रपञ्चमात्र है। यद्यपि सिद्धसेनने न्यायावतारमें हेतुको साध्याविनाभावी कहा है फिर भी अविनाभावनियम ही हेतुका एकमात्र रूप है ऐसा समर्थन करनेवाले सम्भवतः सर्वप्रथम पात्रस्वामी हैं। तत्त्वसंग्रहमें शान्तरक्षितने जैनपरम्परासम्मत अविनाभावनियमरूप एक लक्षणका पात्रस्वामीके मन्तव्यरूपसे ही निर्देश करके खएडन किया है । जान पड़ता है पूर्ववर्ती अन्य जैनतार्किकोंने हेतुके स्वरूप १ षडलक्षणो हेतुरित्यपरे नैयायिकमीमांसकादयो मन्यन्ते । कानि पुन: षड्पाणि हेतोस्तैरिष्यन्ते इत्याह...त्रीणि चैतानि पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकाख्याणि, तथा अबाधितविषयत्वं चतुर्थ रूपम्,...तथा विक्षित करख्यत्वं रूपान्तरम्एका संख्या यस्य हेतुद्रव्यस्य तदेकसंख्यं...य ग्रेकसंख्यावच्छिन्नायां प्रतिहेतुरहि तायां हेतुव्यक्तौ हेतुत्व तदा गमकत्वं न तु प्रतिहेतुसहितायामपि द्वित्वसंख्यायुक्तायाम्...तथा ज्ञातत्वं च शानविषयत्वं च, न ह्यज्ञातो हेतुः स्वसत्तामात्रेण गएमको युक्त इति ।'-हेतुवि० टी० पृ० २०५। २. 'अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशङ्कत्ते-नान्यथानुपपनत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥'-तत्वसं० का० १३६४-६६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपसे अविनाभावनियमका कथन सामान्यतः किया होगा । पर उसका सयुक्तिक समर्थन और बौद्धसम्मत रूप्यका खण्डन सर्वप्रथम पात्रस्वामीने ही किया होगा अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र श्रयेण किम् ।। नान्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।। न्यायवि० पृ० १७७ यह खरा इनकारिका अकलङ्क, विद्यानन्द ( प्रमाणप० पृ० ७२) श्रादिने उद्धत की है वह पात्रस्वामिकतृक होनी चाहिए। पात्रस्वामीके द्वारा जो परसम्मत रूप्यका खण्डन जैमपरम्परामें शुरू हुश्रा उसीका पिछले अकलङ्क (प्रमाणसे० पृ० ६६ A ) आदि दिगम्बर श्वेताम्बर तार्किकोंने अनुसरण किया है। औरूप्यखण्डनके बाद जैनपरम्परामें पाञ्चरूप्यका भी खण्डन शुरू हुआ। अतएव विद्यानन्द (प्रमाणप० पृ० ७२), प्रभाचन्द्र (प्रमेयक पृ० १०३), वादी देवसूरि ( स्याद्वादर० पृ० ५२१ ) आदिके दिगम्बरीय-श्वेताम्मरीय पिछले तर्कग्रन्थोंमें गैरूप्य और पाञ्चरूप्यका साथ ही सविस्तर खण्डन देखा जाता है। आचार्य हेमचन्द्र उसी परम्पराको लेकर रूप्य तथा पाञ्चलप्य दोनोका निरास करते हैं। यद्यपि विषयदृष्टिसे श्रा. हेमचन्द्रका खण्डन विद्यानन्द आदि पूर्ववतीं श्राचार्योंके खण्डनके समान ही है तथापि इनका शान्दिक साम्य विशेषतः अनन्तवीर्य की प्रमैयरत्नमालाके साथ है। अन्य सभी पूर्ववर्ती जैनताकिकोंसे आ० हेमचन्द्र की एक विशेषता जो अनेक स्थलों में देखी जाती है वह यहाँ भी है। वह विशेषता---संक्षेप में भी किसी न किसी नए विचारका जैनपरम्परामें संग्रहीकरणमात्र है। हम देखते हैं कि प्रा. हेमचन्द्रने बौद्धसम्मत त्रैरूप्यका पूर्वपक्ष रखते समय जो विस्तृत अवतरण न्यायबिन्दुकी धर्मोचरीय वृत्तिमेसे अक्षरशः लिया है वह अन्य किसी पूर्ववती जैम तर्कग्रन्थमें नहीं है। यद्यपि वह विचार बौद्धतार्किककृत है तथापि जैन तर्कशास्त्र के अभ्यासियोंके वास्ते चाहे पूर्वपद रूपसे भी वह विचार खास ज्ञातव्य है । ऊपर जिस 'अन्यथानुपपन्नत्व' कारिकाका उल्लेख किया है वह निःसन्देह तर्कसिद्ध होनेके कारण सर्वत्र जैनपरम्परामें प्रतिष्ठित हो गई है। यहाँ तक कि उसी कारिकाका अनुकरण करके विद्यानन्दने थोड़े हेर-फेरके साथ पाञ्चरूप्यखण्डन विषयक भी कारिका बना डाली है--(प्रमाएप० पू०७२)। इस कारिकाकी प्रतिष्ठा तर्कबल पर और तर्कक्षेत्रमें ही रहनी चाहिए थी पर इसके प्रभावके कायल अतार्किक भक्तोंने इसकी प्रतिष्ठा मनगढन्त ढङ्गसे बढ़ाई। और यहाँ तक बह बढ़ी कि खुद तर्कग्रन्थलेखक श्राचार्य भी उस कल्पित ढङ्गके Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिकार बने / किसी ने कहा कि उस कारिकाके कर्ता और दाता मूलमें सीमन्धरस्वामी नामक तीर्थङ्कर हैं। किसीने कहा कि सीमन्धरस्वामीसे पद्मावती नामक देवता इस कारिकाको लाई और पात्रकेसरी स्वामीको उसने वह कारिका दी। इस तरह किसी भी तार्किक मनुष्यके मुख में से निकलनेकी ऐकान्तिक योग्यता रखनेवाली इस कारिकाको सीमन्धरस्वामाके मुखमैं से अन्धभक्तिके कारण जन्म लेना पड़ा-सन्मतिटी० पृ० 566 (7) / अस्तु / जो कुछ हो प्रा० हेमचन्द्र भी उस कारिकाका उपयोग करते हैं। इतना तो अवश्य जाम पड़ता है कि इस कारिकाके सम्भवतः उद्भावक पात्रस्वामी दिगम्बर परम्पराके ही हैं। क्योंकि भक्तिपूर्ण उन मनगढन्त कल्पनाओंकी सृष्टि केवल दिगम्बरीय परम्परा तक ही सीमित है। ई० 1636 [प्रमाण मीमांसा