Book Title: Haribhadrasuri aur Hemchandrasuri Author(s): Hajarimal Banthiya Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/211056/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -हजारीमल बांठिया. कानपुर र जैनाचार्य श्री हरिभद्रसूरि और श्री हेमचन्द्रसूरि जैन साहित्यकाश में कलियुग-केवली आचार्य इनका समय वि. सं. ११४५ से १२२६ तक माना श्री हरिभद्रसूरि एवं कालिकाल-सर्वज्ञ आचार्य श्री गया है । इनकी माता का नाम पाहिनी एवं पिता हेमचन्द्रसूरि दोनों ही ऐसे महान् दिग्गज विद्वान का नाम चाच था। हरिभद्र राजस्थान के सूर्य थे आचार्य हुए हैं-किसको 'सूर' कहा जाए या किस तो हेमचन्द्र गुजरात के । इन्हीं दोनों आचार्यों के को 'शशि'-यह निर्णय करना दुष्कर कार्य है। प्रभाव के कारण ही आज तक गुजरात और राजवीर-प्रसूता भूमि चित्तौड़गढ़ में उच्च ब्राह्मण कुल स्थान जैन धर्म के केन्द्र बने हुए हैं। हरिभद्र के में जन्मे श्री हरिभद्र चतुर्दश ब्राह्मण विद्याओं में गुरु का नाम जिनदत्तसूरि था और हेमचन्द्र के गुरु पारंगत उद्भट विद्वान थे। इनके पिता का नाम का नाम देवचन्द्रसूरि था। शंकर भट्ट और माता का नाम गंगण या गंगा था। दोनों ही आचार्य उदारमना थे। उनके दिल । हरिभद्र पण्डितों में अपने आपको अजेय मानते थे। में हठान रंचित मात्र नहीं था। हजारों वर्षों के यू इसलिए चित्रकूट नरेश जितारि ने उनको अपना बीत जाने पर भी हरिभद्रसूरि का जीवन प्रकाशराजगुरु मानकर राजपुरोहित जैसे सम्मानित पद मान सूर्य की तरह आभा-किरणें बिखेर रहा है। पर नियुक्त कर दिया था। कलिकाल-सर्वज्ञ हेम- उनमें जैसे उदारमानस का विकास हुआ वैसा चन्द्राचार्य भी चौलुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज एवं बिरले पुरुषों में दृष्टिगोचर होता है । उनका उदात्तसम्राट कुमारपाल के राजगुरु थे । श्री हरिभद्रसूरि घोष आज भी सुविश्रुत है। प्राकृत भाषा के पण्डित थे तो हेमचन्द्राचार्य संस्कृत 'पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । . भाषा के। पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजय जी ने युक्ति मद् वचनं यस्य तस्य कार्य परिग्रहः ।३८। श्री हरिभद्रसूरि का समय वि. स. ७५७ से ८२७ तक अर्थात्-वोर वचन में मेरा पक्षपात नहीं। निर्णीत किया है और सभी आधुनिक शोध विद्वानों कपिल मुनियों से मेरा द्वेष नहीं, जिनका वचन का ने भी इस समय को ही निर्विवाद रूप से मान्य तर्कयुक्त है-वही ग्राह्य है। किया है । इस तरह श्री हरिभद्रसूरि विक्रम की इसी प्रकार जब हेमचन्द्राचार्य ने सोमनाथ - आठवीं शताब्दी के ज्योतिर्धर आचार्य थे तो हेम- मन्दिर में सम्राट कुमारपाल के साथ शिव मन्दिर त्रन्द्राचार्य विक्रम की बारहवीं शताब्दी के । इनका में प्रवेश किया तो संस्कृत के श्लोकों द्वारा शिव की जन्म वणिक-कुल में धंधू का (गुजरात) में हुआ। स्तुति की। पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास Gन ( 90 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Leucation International F8 Private & Personal Use Only www.jainenorary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 'भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य। स्वीकार कर राजपुरोहित से धर्म पुरोहित बन गये। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।' जब इसका अर्थ गुरु से समझ लिया तो जैन शास्त्र ___अर्थात्-भव बीज को अंकुरित करने वाले ज्ञान की तरफ उनका झुकाव हो गया और अल्प राग-द्वेष पर जिन्होंने विजय प्राप्त करली है, भले समय में ही आगम, योग, ज्योतिष, न्याय, व्याकवे ब्रह्मा, विष्ण, हरि और जिन किसी भी नाम से रण, प्रमाण शास्त्र आदि विषयों के महान ज्ञाता 78 सम्बोधित होते हों उन्हें मेरा नमस्कार है। और आगमवेत्ता बन गये और कई ग्रन्थों की टीकायें ___ 'महारागो महाद्वषो, महामोहस्तथैव च । लिखीं। कषायश्च हतो येन, महादेवः स उच्यते॥ हंस और परम हंस हरिभद्रसूरि के भानजे थे 10 अर्थात्-जिसने महाराग, महाद्वेष, महामोह वे भी जैन साधु बन गये। आचार्य श्री के मना | और कषाय को नष्ट किया है वही महादेव है। ६ करने पर भी वे बौद्ध दर्शन अध्ययन करने बौद्धइस प्रकार हेमचन्द्राचार्य द्वारा शिव की उदार- मठ में गये। मना स्तुति करने पर सम्राट कुमारपाल तो प्रभा जैन-छात्र हैं, यह सन्देह होने पर बौद्ध VE वित हआ ही किन्तु उनसे द्वेष भाव रखने वाले प्राध्यापकों ने हंस को वहीं मार दिया और परमशैव-पण्डित भी दाँतों तले अंगुली दबा गये। हंस किसी तरह भाग निकले किन्तु वह भी चित्तौड़ । ___आचार्य हरिभद्र वैदिक दर्शन के परगामी आकर मारे गये ।। विद्वान तो थे ही फिर भी उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी अपने दोनों प्रिय शिष्यों के मर जाने से थी यदि किसी दूसरे धर्मदर्शन को मैं समझ न सका हरिभद्रसूरि को बहुत दुःख हुआ और बौद्धों तो मैं उसी का शिष्य बन जाऊँगा। एक बार रात्रि से बदला लेने के लिए उन्होंने १४४४ बौद्ध-साधुओं को राजसभा से लौटते समय राजपुरोहित हरिभद्र को विद्या के बल से मारने का संकल्प लिया-1 जैन उपाश्रय के निकट से गुजरे। उपाश्रय में साध्वी किन्तु गुरु का प्रतिबोध पाकर हिंसा का मार्ग छोड़ संघ की प्रमुखा 'महत्तरा याकिनी' निम्न श्लोक कर १४४४ ग्रन्थों की रचना का संकल्प के स्वर लहरी में जाप कर रही थी लिया और माँ भारती का भण्डार भरने लगे। 'चक्कि दुगं हरिपणगं, दुर्भाग्य से इस वक्त ६० करीब ग्रन्थ ही उपलब्ध पणगं चक्कीण केसवो चक्की। हैं। जिसमें से आधे तक अब ही प्रकाशित हुए हैं। केसव चक्की केसव, ___ आचार्य हरिभद्रसूरि ने उच्चकोटि का, विपुल दूचक्की केसीय चक्किथा। परिमाण में विविध विषयों पर साहित्य की रचना राजपुरोहित हरिभद्र ने यह श्लोक सुना तो की है। उनके ग्रन्थ जैन शासन की अनुपम सम्पदा उनको कुछ भी समय में नहीं आया तो अर्थ-बोध है। आगमिक क्षेत्र में सर्वप्रथम टीकाकार थे। योग पाने की लालसा से उपाश्रय में प्रवेश कर याकिनी विषयों पर भी उन्होंने नई दिशा व जानकारी दी। महत्तरा से इसका अर्थ पूछा तो उन्होंने कहा- आचार्य हरिभद्रसूरि ने आवश्यक, दशवकालिक, 7 इसका अर्थ तो मेरे गुरु श्री जिनदत्त सूरि ही बता जीवाभिगम, प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार-इन । सकते हैं। __ आगमों पर टीका रचना का कार्य किया। जब गुरु के पास प्रातःकाल हरिभद्र गये 'समराइच्चकहा' आचार्य हरिभद्रसूरि को तो श्री जिनदत्तसूरि ने कहा-जैन मुनि बनने अत्यन्त प्रसिद्ध प्राकृत रचना है। शब्दों का लालित्य, पर ही इसका अर्थ समझ में आयेगा-तब शैली का सौष्ठव, सिद्धान्त सूधापान कराने वाली तत्काल राजपुरोहित हरिभद्र ने जैन-मुनि बनना कांत-कोमल पदावली एवं भावभिव्यक्ति का अजस्र ४१४ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ . . . merivate 3 Dersonalise Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहता ज्ञान निर्झर कथा वस्तु की रोचकता एवं इस प्रकार हम देखते हैं दोनों आचार्यों के रचित सौन्दर्य प्रसाद तथा माधुर्य इसका समवेत रूप- ग्रन्थ जैन ही नहीं अपितु विश्व साहित्यकाश के इन सभी गुणों का एक साथ दर्शन इस कृति से बेजोड़ नक्षत्र हैं। सुधी पाठक स्वयं ही निर्णय करे होता है / इस ग्रन्थ का सम्पादन जर्मन के डा० कलिकाल केवली आचार्य श्री हरिभद्रसूरि या कलिहरमन जैकोबी ने सन् 1926 में किया था जो रायल काल सर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि कौन 'सूर' है एशियाटिक सोसायटी कलकत्ते से छपा है। लिखने या कौन 'शशि' है। का सारांश यह है कि लाखों श्लोक परिमाण पुरातत्वाचार्य स्व० मुनि जिनविजयजी आचार्य साहित्य की रचना आचार्य हरिभद्रसूरि ने की है। श्री हरिभद्रसरि से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ___ आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने भी इतना ही विपुल हरिभद्रसरि की मूत्ति स्वयं अपने अर्थ से निर्मित साहित्य संस्कृत में रचा है, उसका भी परिमाण कराई और हरिभद्रसरि के चरणों में अपनी मूर्ति लाखों श्लोकों का है। आचार्य हेमचन्द्र का भी पूरा भी खूदवा दी और चित्तौड़गढ़ के प्रवेश मार्ग पर साहित्य उपलब्ध नहीं हैं। इनकी भी प्रतिभा हेम-सी ही श्री हरिभद्रसूरि ज्ञान मन्दिर बनवा दिया जिसका निर्मल थी। संचालन आजकल श्री जिनदत्तसूरि सेवा संघ वे ज्ञान के विपल भण्डार थे। पाश्चात्य कलकत्ता कर रहा है। विद्वानों ने तो आचार्य हेमचन्द्र को 'ज्ञान-समुद्र' कह कर सम्बोधित किया है। हेम शब्दानुशासन मुनिजी को इस बात का गहरा दुःख व्याकरण और त्रिषष्ठि शलाका परुष चरित था कि वर्तमान में जैन समाज ने हरिभद्रआचार्य श्री की अद्भुत रचनायें हैं। जर्मनी के डा० सूरि को भुला दिया है, उनको यथोचित्त सम्मान जार्ज वल्हर ने हेमचन्द्राचार्य के ग्रन्थों से प्रभावित नहीं मिला। होकर जर्मनी भाषा में आचार्य हेमचन्द्रसूरि का सर्व- जैनियों को हरिभद्रसूरि के नाम से विश्व प्रथम जीवन चरित्र लिखा जिसका अनुवाद हिन्दी विद्यालय खोलना चाहिए था-गुजरात में में स्व० श्री कस्तूरमल जी बाँठिया ने किया है। हेमचन्द्राचार्य को तो बहुत आदर से याद किया हेमचन्द्र की पारगामी प्रज्ञा पर दिग्गज विद्वानों के जाता है, जगह-जगह उनकी प्रतिमायें व चरण हैं 11 मस्तिष्क झुक गये। उन्होंने कहा भारत सरकार का कर्तव्य है ऐसे दो महान ज्ञानकिं स्तुमः शब्द पयोधे हेमचन्द्र ते मंतिम् / पुंज भारतीय जैन आचार्यों का यथोचित सम्मान ___ एकेनासीह येने दृक् कृतं शब्दानुशासनम् / कर उनकी स्मृति में ज्ञान मन्दिर-विद्या मन्दिर ___ अर्थात्-शब्द समुद्र हेमचन्द्राचार्य की प्रतिभा बनवाये। 17 की क्या स्तुति करें जिन्होंने इतने विशाल शब्दानु शासन की रचना की है। P WAH 415 पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Por. 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