Book Title: Guru Garima
Author(s): 
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 120 गुरु-गरिमा संकलन एवं अनुवाद श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा रचित स्कन्दपुराण के उत्तरखण्ड में गुरु के सम्बन्ध में जो श्लोक हैं उन्हें 'श्री गुरुगीता' के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है। श्री गुरुगीता में से ही यहाँ कुछ उपयोगी श्लोकों को चुनकर उनका हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है। अनुवाद डॉ. श्वेता जैन ने किया है। -सम्पादक गुरुर्बुद्ध्यात्मनो नान्यत् सत्यं सत्यं न संशयः । तल्लाभार्थं प्रयत्नस्तु कर्तव्यो हि मनीषिभिः ।।७।। अर्थः- हमारे भीतर ज्ञान का जो स्वरूप है वही स्वरूप गुरु का है, अन्य नहीं। यह सत्य है, इसमें कोई संशय नहीं है। क्योंकि ज्ञान जो मार्ग दिखाता है, वही चलने योग्य है। अतः मनीषियों के द्वारा गुरु को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किए जाने चाहिए। गुरुमूर्ति स्मरेन्नित्यं गुरुनाम सदा जपेत् । गुरोराज्ञां प्रकुर्वीत गुरोरन्यन्न भावयेत्।।18 ।। अर्थ :- गुरु के स्वरूप का सदा स्मरण करे। गुरुप्रदत्त शिक्षाओं का सदैव जाप करे। गुरुवर की आज्ञा का पालन करे । गुरु के स्वरूप, शिक्षा और आज्ञा को छोड़कर अन्य विषयों का चिन्तन न करे। गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकारस्तेज उच्यते। अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः ।।23 ।। अर्थः- 'गु' का अर्थ अन्धकार और 'रु' का अर्थ प्रकाश है। गुरु ही अज्ञान का नाश करने वाला ब्रह्म है। इसमें कोई संशय नहीं है। गुकारः प्रथमो वर्णो मायादिगुणभासकः । रुकारो द्वितीयो ब्रह्म मायाधान्तिविनाशनम्।।24।। अर्थः- गुरु शब्द का प्रथम वर्ण 'गु' मायादि गुणों को प्रकट करता है। द्वितीय वर्ण 'ह' ब्रह्म का द्योतक है, जो माया रूपी भ्रान्ति का विनाश करता है। कर्मणा मनसा वाचा नित्यमाराधयेद् गुरुम्। दीर्घदण्डं नमस्कृत्य निर्लज्जो गुरुसन्निधौ ।।28 ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 121 अर्थः- उनकी मन, वचन एवं कर्म से नित्य उत्तराधना करनी चाहिए। गुरु की सन्निधि में बिना लज्जा के दीर्घ दण्ड के समान अर्थात् दण्डवत् प्रणाम कर गुरु की आराधना करनी चाहिए । पतन्तो नरकार्णवे । संसारवृक्षमारूढाः येन चैवोद्धृताः सर्वे तस्मै श्रीगुरवे नमः ||31 || अर्थः- संसार रूपी वृक्ष पर आरूढ़ (क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष से युक्त) तथा नरक रूपी अर्णव में गिरते हुए लोगों का उद्धार करने वाले गुरु को नमस्कार है। गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुरेव परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ||32|| अर्थः- (गुणों का सर्जन करने से ) गुरु ही ब्रह्मा है, (सदाचरण को पुष्ट करने से ) गुरु ही विष्णु है और (भीतर के कर्म कलिमल का नाश करने से ) गुरु ही शिव है। गुरु ही ( मुक्ति का मार्ग दिखाने से) परम ब्रह्म है, उन गुरु को नमस्कार है । अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥34॥ अर्थः- अज्ञान रूपी अन्धकार से अन्धे हुए जीवों के नेत्र को जो अपनी ज्ञानरूपी अञ्जनशलाका से खोल देते हैं, ऐसे गुरुदेव को नमन है । शिवे क्रुद्धे गुरुस्त्राता गुरौ क्रुद्धे शिवो न हि । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन श्रीगुरुं शरणं व्रजेत् ॥44 | अर्थः- शिव के क्रुद्ध होने पर गुरु रक्षा करता है, किन्तु गुरु के रुष्ट होने पर शिव रक्षा करने में समर्थ नहीं होते । अतः सारे प्रयत्नों से गुरु की शरण में जाएं । श्री गुरोः परमं रूपं विवेकचक्षुषोऽमृतम् । मन्दभाग्या न पश्यन्ति अन्धाः सूर्योदयं यथा ॥ 49 || अर्थ :- विवेक - चक्षु को नहीं देखते हैं वैसे ही मन्दभाग्य वाले शिष्य श्री गुरु के उस अमृतरूप को नहीं देखते हैं । की प्राप्ति के लिए श्रीगुरु का परम रूप अमृततुल्य है । जैसे अन्धे व्यक्ति सूर्योदय यस्य स्मरणमात्रेण ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम् । य एव सर्वसंप्राप्तिस्तस्मै श्री गुरवे नमः ||69 || अर्थः- जिसके स्मरण मात्र से ही ज्ञान स्वयं उत्पन्न हो जाता है, जो सर्वसम्प्रात है, उस गुरु को नमस्कार है । Jain Educationa International न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः । तत्त्वम् ज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥74 || For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 | अर्थः- कोई तत्त्व गुरु से अधिक नहीं है, गुरुसेवा से बढ़कर कोई तप नहीं है, ज्ञान से बढ़कर तत्त्व नहीं है, ऐसे गुरु को नमन। गुरुदर्शितमार्गेण मनःशुद्धिं तु कारयेत् / अनित्यं खण्डयेत् सर्व यत्किञ्चिदात्मगोचरम् / / 99 / / अर्थ:- गुरु द्वारा दिखाए गए मार्ग से मन का शोधन करना चाहिए। अपने द्वारा ज्ञात अनित्य पदार्थों के प्रति रही हुई आसिक्त को खण्डित कर देना चाहिए। श्रुतिस्मृती अविज्ञाय केवलं गुरुसेवकाः। ते वै संन्यासिनः प्रोक्ता इतरे वेषधारिणः / / 108 / / अर्थः- श्रुति, स्मृति को नहीं जानते हुए भी जो गुरु की सेवा में संलग्न हैं, वे संन्यासी कहे गए हैं। दूसरे केवल वेशधारी संन्यासी होते हैं। गुरोः कृपाप्रसादेन आत्मारामं निरीक्षयेत् / अनेन गुरुमार्गेण स्वात्मज्ञानं प्रवर्तते / / 110 // अर्थः- गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर शिष्य आत्मविषयक चिन्तन करे, इसी गुरूपदिष्ट मार्ग से आत्मस्वरूप का ज्ञान प्रकट होता है। वन्देऽहं सच्चिदानन्दं भेदातीतं सदा गुरुम् / नित्यं पूर्ण निराकारं निर्गुणं स्वात्मसंस्थितम् / / 112 / / अर्थः- सत्, चित्, आनन्द स्वरूप, भेदातीत, नित्य, पूर्ण, निराकार, निर्गुण एवं स्वात्म में स्थित गुरुदेव को मैं नमस्कार करता हूँ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only