Book Title: Gire to Gire Par Uthe bhi Bahut Unche
Author(s): 
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. श्रेष्ठपुत्र अरणक ने पानी पीकर कटोरा खाली किया ही था कि एक दासी ने उसे ऊपर ही ऊपर हाथ में ले लिया । श्रेष्ठी दत्त भी पुत्र के पास बैठे थे । सेठानो भद्रा उसी समय आई थीं । उन्होंने अपने पति को मीठी झिड़की दी गिरे तो गिरे, पर उठे भी बहुत ऊँचे "ऐसा कब तक चलेगा ? कहते तो यह हैं कि माताएँ लाड़-प्यार में पुत्र को बिगाड़ देती हैं । पर मेरे अरणक को तो तुम — उसका पिता बिगाड़ रहा है । इसे इतना तो करने दो कि पानी पीकर कटोरा नीचे रख दे । " " मेरा बस चले तो अरणक को पानी पीने का कष्ट भी न करना पड़े । पानी भी दासी पिये और इसकी प्यास बुझे । "अरणक की माँ, तुम वे दिन भूल गईं, जब हम सन्तान के लिए तरसते थे । एक सन्तान के बिना ही हमें अपना ऐश्वर्य बड़ा भयानक लगता था । जाने कौन-सा पुण्य बचा था कि मैं पिता बना और तुम माता बन गईं । हमें अरणक जैसा सुन्दर, योग्य और चरित्रवान पुत्र मिला ।" "यह सब तो ठीक है स्वामी !" सेठानी भद्रा ने कहा - " पर अब अरणक बड़ा हो गया है । कलपरसों उसके विवाह की तैयारी भी होगी । अब उसे अपने काम स्वयं करने दीजिए। अब भी वह धायों और दासियों के हाथ का खिलौना बना रहेगा तो वह अकर्मण्य, आलसी और कुण्ठित हो जायगा ।" ५०८ " तुम चिन्ता मत करो।" श्रेष्ठी दत्त ने कहा - " जब ऐसा अवसर आएगा, तब वह सब कुछ कर लेगा । जब तक माता-पिता की छाया बनी है, तब तक मैं उसे फूल की तरह ही रखना चाहता हूँ ।" तगरा नगरी के श्रेष्ठी दत्त और सेठानी भद्रा को बड़ी आशाओं के बाद पुत्र मिला था । अतः दोनों का ही पुत्र अरणक पर अतिशय प्यार था । फिर भी पिता उसकी देखभाल पर अधिक ध्यान देते थे । वे चाहते थे कि अरणक को कुछ न करना पड़े । अरणक बड़े सुखों में पल रहा था । उसे कोई पूछे कि गरमी क्या होती है तो वह नहीं बता पाता, क्योंकि ग्रीष्म-शीत के कष्टों के अनुभव का अवसर ही उसे नहीं मिला था । वह ऐसा फूल था जो चाँदनी में भी कुम्हला जाए । द्राक्षा खाने से उसके होंठ छिलते थे । पिता के लाड़-प्यार ने उसे अत्यधिक नाजुक, सुकुमार और संवेदनशील बना दिया था । एक बार अर्हन्मित्र मुनि शिष्य मुनियों के साथ तगरा नगरी में पधारे। उन्होंने अपनी देशना में कहा "हम साधुओं को भी चिन्ता होती है, हमें भी दुःख का अनुभव होता है, जब दूसरों को दुःखी देखते हैं, तब ऐसा होता है । पर साधु और संसारी की चिन्ता में अन्तर है । आपकी अपने लिए और हमारी आपके लिए -दूसरों के लिए। हमारासाधुओं का संसार विद्या का संसार है तो संसारियों का संसार अविद्या का है । "भव्य जीवो, संसार में रहो, कोई हानि नहीं है, बस इतना ही ध्यान रखना है कि संसार की माया तुम पर सवार न होने पाये। बाहर से संसार सप्तम खण्ड : विचार मन्थन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में रहो, पर भीतर त्याग और निवृत्ति का भाव ही-मन उन्होंने सोच लिया था कि अरणक मुनि के बना रहे । संसार को दीर्घ स्वप्न समझो। इस लिए मैं ही गोचरी करने जाया करूंगा। यह तो का स्वप्न को स्वप्न ही मान लो, यह निश्चय कर सुकुमार है । धूप में कुम्हला जाएगा। लो कि एक मात्र सत्य धर्म ही है। जब तक आपके साधु संघ ने तगरा नगरी से अन्यत्र विहार भीतर संसार रहेगा, तब तक बाहरी त्याग-तपस्या किया। साध्वी भद्रा तो साध्वो संघ में मिल गई। मात्र काया कष्ट ही है-साधना नहीं।" मुनि दत्त और मुनि अरणक पितामुनि और पुत्र- || ___अर्हन्मित्र मुनि की देशना लम्बी और तथ्यों मुनि के नाम से भी संघ में जाने गए। से भरी थी। अरणक के मन में दीक्षा लेने को मुनि पर अब भी लाड़ करते इच्छा बलवती हुई । श्रेष्ठी दत्त भी संसार छोड़ थे। वे स्वयं गोचरी को जाते और पुत्र मुनि के ||MS कर मुनि बनना चाहते थे। सेठानी भो उनसे पीछे पाछ लिए आहार-पानी की व्यवस्था करते । उनके इस रहना नहीं चाहती थी। लेकिन ये विचार तोनों के आचरण को देखकर कुछ मुनियों ने दत्त मुनि से ) मन में ही थे। सबसे पहले मन को बात अरणक ने कहाकही 'पिताजी, मैं चारित्र का पालन करके अपना 'मुने, आप अरणक मुनि के हित में अच्छा नहीं का मानव भव सफल करूंगा।" कर रहे । उन्हें स्वयं ही गोचरी के लिए जाने "चारित्र का पालन बच्चों का खेल नहीं है, और दीजिए । साधना तो स्वयं ही की जाती है।' वत्स !" श्रेष्ठी दत्त ने कहा-“तूने आज तक ग्रीष्म __'मेरा अन्त तो अरणक से पहले होगा। मेरे 10 को धप नहीं देखी । अपने हाथ से पानी लेकर भी बाद वह अपने सभी काम स्वयं हो करेगा।' मुनि- AE नहीं पिया । तपती दोपहरी में तू विहार कैसे करेगा? दत्त ने कहा-'अरणक विहार कर लेता है, यही | If कभी अचित्त जल न मिला तो प्यासा कैसे रह बहुत है।' पाएगा?" अन्य मुनि मौन हो गए । पिता मुनिदत्त और "भोगी जब योगी बनता है तो उसकी दृष्टि पुत्र मुनिअरणक का यह सिलसिला चलता रहाबदल जाती है। उसके विचार पहले जैसे नहीं चलता रहा। रहते ।" अरणक ने पिता से कहा-"पूज्य तात, इसी क्रम में दत्तमुनि का आयुष्य पूर्ण हो गया | शक्ति विचारों से ही मिलती है । जब मेरे विचार तो वे परलोकवासी हो गये। उनके जाते हो अर-4 बदले हैं तो चारित्र पालन की शक्ति भी आ ही गई णक मूनि मानों अनाथ हो गये । वे भिक्षा लेने नहों जा पाये तो निराहार ही रह गये। तब संघ के ( "तो त अकेला मुनि नहीं बनेगा।' श्रेष्ठी दत्त मुनियों ने कई दिन अरणकमुनि को आहार लाकर बोले-“तेरे साथ मैं भी दीक्षा लूंगा।". दिया। लेकिन एक दिन सभी मुनियों ने अरणक "तो मैं आपसे पीछे रहँगी ?" सेठानो भदा ने मुनि से स्पष्ट कह दियापति से कहा- "मेरा भी तो परलोक है। मैं भी 'मुने, अब तुम किशोरवय के नहीं हो-युवा हो । साध्वी बनूंगी।" गये हो । चारित्र का पालन अपने बल पर हो होता | सेठानी भद्रा, श्रेष्ठी दत्त और श्रेष्ठिपत्र अर- है । तुम स्वयं गोचरी के लिए जाया करो।' णक-तीनों ने अहमित्र से दीक्षा ले ली। मुनि अरणक मुनि ने स्वीकार कर लिया। संयोग ) बनकर भी दत्त का पुत्रमोह कम नहीं हुआ। मन- ऐसा बना कि ये दिन ग्रीष्म के दिन थे। पहले दिन सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन - Hd साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Witication Internation S AS Private & Personal use only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरणक मुनि तपती धूप में गोचरी के लिए गये। चम्पा बोली यद्यपि धूप का ढलान था, फिर भी यह धूप अरणक 'लेकिन वह आपके काम का नहीं है। कोई दमुनि के लिए असह्य थी । नंगे पाँव और नंगे सिर सिर मुनि है ।' - । थोड़ी ही दूर चले कि उन्हें पसीना आने लगा। हवा . भी बन्द थी । कनपटियों पर अंगारों के थप्पड़ से ___ 'मुनि है तो भिक्षा दूंगी।' सुन्दरी बोलीलगते थे । पाँव जल रहे थे । कोई वृक्ष आता तो 'ऊपर तो आ ही जाएगा।' थोड़ी देर छाँव में खडे हो जाते, पर दर-दर तक यह कह सुन्दरी स्वयं वातायन तक गई और कोई वृक्ष ही दिखाई नहीं दे रहा था।'ऐसा कष्ट उसने नीचे झाँककर अरणकमुनि को खड़े देखा तो ( मुझे नित्य ही झेलना पडेगा।' अरणक मनि सोच चम्पा स बालाहो रहे थे- 'ऐसी गरमी में लोग जीवित कैसे रह पाते 'चम्पा ! बड़ा सुकुमार है । गोरी देह तप कर हैं ? मैंने सोचा भी नहीं था कि ग्रीष्म का यह कष्ट लाल हो गई है । 'महाराज आहार लीजिए' यह भी झेलना पड़ेगा।' कहकर तू मुनि को ऊपर ले आ ।' विवश-से चलते हुए अरणकमुनि बस्ती में . दासी खट-खट-खट् सीढ़ियाँ उतरते हुए नीचे पहँच गये। एक भव्य भवन के नीचे छाँव थी और 2. कुछ ठण्डक भी। अरणकमनि उसी के नीचे खडे सुन्दरी ने उन्हें प्रणाम किया और बोलीE होकर चैन की साँस लेने लगे । बस्ती में कोई कहीं 'मुने ! क्षमा करें, आपकी शत्रुता किससे है ? आ-जा नहीं रहा है। सब अपने घरों में मानो क्या अपनी देह से शत्रुता है जो उसे ग्रीष्म में जला गरमी से डरकर बन्द हो गये थे। रहे हो या फिर उठते यौवन से ही शत्रुता है जो + + + उसका भोजन उसे नहीं दे रहे ? एक सुन्दर युवती अपने शयन कक्ष में अकेली ‘मुने, विचार करो, देह के लिए तो आहार है थी। एक दासी पंखा झल रही थी। वातायनों पर पर आपके यौवन का आहार तो मैं ही हूँ। यौवन । परदे पड़े थे। काफी राहत थी। इस सुन्दरी का को भूखा रखना भी पाप है। मेरा यौवन भी भूखा ( पति बहुत दिनों से परदेश गया हुआ था। वह है । व्यर्थ में काया को कष्ट देना तो मूर्खता है। | अपने मन की बातें अपनी दासी से कहकर ही समय यदि मुनि बनना इतना अच्छा होता, जितना आपने काट लेती थी। ' समझा है तो सारा जगत मुनियों से ही भर जाता।' _ 'चम्पा वातायन खोल दे।' सन्दरी ने दासी सुन्दरी की बातें सुन अरणक मुनि सोचने । B कहा-'वातायनों से धूप हट गई है। कुछ बाहर लगे-'बड़ी कठिनाई से मैं यहाँ तक आ सका हूँ? की हवा आने दे।' नित्य ही ऐसी भीषण गरमी में गोचरी के लिए 2 आना पड़ेगा । सुन्दरी ठीक कहती है।' दासी ने कक्ष की खिड़कियों पर पड़े परदे हटा C दिये । उसने नीचे झांककर देखा तो अपनी माल अरणक मुनि सोच ही रहे थे कि सुन्दरी ने ला किन से बोली उनका हाथ पकड़ लिया। वे हाथ छुड़ा नहीं पाये। ___'स्वामिनी, तनिक देखो तो नीचे कौन खड़ा वह बोलीERAL है ? बड़ा सुन्दर सजीला-गठीला युवक है।' 'पलंग पर बैठिए । मैं पंखा झलंगी। मैंने मोदक ___फिर पूछती क्या है ?' सुन्दरी ने कहा-'उसे बनाए हैं । खाकर ठंडा पानी पीजिए।' ऊपर ले आ ।' अरणक मुनि सुन्दरी के जाल में फंस ही गए । Call ५१० सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन A 6. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal use only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ are a भोगी थे । भोग से योग ग्रहण तो करते ही हैं, पर कच्चे मन वाले योगी से भोगी बन जाते हैं । एक झटके से ही अरणक मुनि बहुत नीचे गिर चुके थे । अब वे रात-दिन भोगों में डूबे रहते । सुन्दरी उनका उबटन करती, स्नान कराती, पंखा झलती और वे उसी को अंक में समेटे पड़े रहते । रात तो रात थी ही, उनके लिए अब दिन भी रात ही था । ऐसे ही उनके दिन गुजरने लगे । + + + अरणक मुनि गोचरी से नहीं लौटे। संध्या हो गई, फिर रात भी हुई। संघ के मुनियों को चिन्ता हुई, वे सब उन्हें ढूंढने निकले । उनके साथ में श्रावक भी थे। रात इसी चर्चा में बीती कि आखिर मुनि अरणक कहाँ लापता हो गए ? अपना कर्तव्य पूरा कर साधुओं ने साध्दियों के उपाश्रय में संवाद भिजवा दिया कि साध्वी भद्रा के संसारी नाते से पुत्र मुनि अरणक गोचरी के लिए गये थे, वे अभी तक नहीं लौटे हैं । माँ की ममता का सागर सीमा तोड़ गया । साध्वी भद्रा व्याकुल होकर साधारण माँ की तरह रोने लगी । वे उपाश्रय छोड़कर अरणक को ढूंढने निकल पड़ीं। वे पागलों की तरह जोर-जोर से आवाज लगाती - बेटा अरणक, तू कहाँ है ? अरणक तू मेरे पास आ जा, बेटे ! वे जब चलते-चलते, बोलते-बोलते थक जातीं तो किसी वृक्ष के मूल बैठकर बैठ जातीं । थकावट की अति के कारण बैठे-बैठे ही सो जातीं। फिर उठकर चल देतीं । बस्ती वाले कहते -- शायद बेचारी का बेटा मर गया है, सो उसके मोह में पागल होकर उसे पुकारती फिरती है । साध्वी भद्रा को पागल समझकर बस्ती के बच्चे उनके पीछे-पीछे तालियाँ बजाकर चलते। कभी उनकी आवाज के साथ शरारती बच्चे भी आवाज देते - ओ अरणक ! तू कहाँ है ? सप्तम खण्ड : विचार मन्थन Book यों ही समय बीतता रहा । साध्वी अरणक को ढढ़ती रही और अरणक भोगों में डूबता रहा । एक दिन संयोग बना । साध्वी भद्रा उक्त सुन्दरी के भवन के नीचे ही चिल्ला रही थी । सुन्दरी के अंक पाश में लेटे अरणक के कानों में अपने नाम की आवाज पड़ी तो वे विद्यत के झटके की तरह उठे । सुन्दरी चिल्लाती रही- सुनो तो सुनो स्वामी, कहाँ जाते हो ? पर अरणक कुमार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा । वे धड़ाधड़ सीढ़ियाँ उतरते हुए साध्वी माँ के पास पहुँचे - माँ ! मैं तेरा अरणक हूँ । साध्वी भद्रा सुध-बुध खोकर स्तब्ध-सी अपने सामने खड़े युवक को देखने लगी। उसका भेष बड़ा आकर्षक था । रेशमी अधोवस्त्र, रेशमी ही उत्तरीय और पैरों में जड़ाऊ जूते । सचिक्कण काले केशों में सुगन्ध आ रही थी । बड़ी देर बाद साध्वी ने कहा " तू कोई ठग है । तू मेरा अरणक नहीं हो सकता । मेरा अरणक तो वह था, जिसने विवाह करने से इन्कार कर दिया था। मेरे अरणक ने तो माता-पिता से पूर्व दीक्षा लेने का निश्चय प्रकट किया था । मेरे अरणक के विचारों में ऐसा बदलाव आया था कि दीक्षा से पूर्व उसके पिता ने कहा था - पुत्र, तूने आज तक ग्रीष्म की धूप नहीं देखी, अपने हाथ से पानी लेकर भी नहीं पिया | दोपहरी में तू विहार कैसे करेगा और कभी अचित्त जल न मिला तो प्यासा कैसे रह पायेगा ? "युवक ! इसके उत्तर में मेरे पुत्र अरणक ने कहा था - भोगी जब योगी बन जाता है तो उसकी दृष्टि बदल जाती है । उसके विचार पहले जैसे नहीं रहते । शक्ति विचारों से मिलती है । जब मेरे विचार बदले हैं तो चारित्र - पालन की शक्ति आ ही गई है । " तो तू मेरा पुत्र कैसे हो सकता है ? मेरे पुत्र में तो चारित्रपालन की शक्ति थी । वह योगी था, पर तू तो भोगी है । मेरा अरणक तो मुनि था, तू मेरा अरणक कैसे हो सकता है ? तू मुझे छलने ५११ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EAR आया है। पर मैं तेरे भुलावे में नहीं आ सकती। "तू ही है मेरा अरणक। चल उपाश्रय चल / गुरु मैं तो अरणकमुनि को ढूंढ रही हूँ। तू मेरा नहीं, महाराज तुझे दिशा देंगे।" जिसका है, उसी के पास जा।" उपाश्रय में पहुँचकर अरणक मुनि ने गुरुदेव ___ कहते-कहते साध्वी रो पड़ी और मुड़कर आगे अर्हन्मित्र मुनि से उष्ण आतापना द्वारा साधना / चल दी। उन्होंने पुनः आवाज लगाई- “योगी करने की अनुमति मांग ली। अरणक, मूनि अरणक चारित्रपालन की शक्ति अरणक मुनि तवे की तरह तपती तप्त प्रस्तर-4 रखने वाले अरणक, तू कहाँ है ?" शिला पर लेट गये / भयंकर गरमी थी। उनकी देह ____ अरणक का हृदय चीत्कार कर उठा / वह दौड़ जल रही थी, पर वे देह को आत्मा से भिन्न समझ कर साध्वी माँ का मार्ग रोककर खड़ा हो गया कर ध्यानस्थ थे। उनका शरीर झुलसने लगा। है "मा, में तेरा अरणक हूँ। में मुनि हूँ। में भटक समता भाव में डूबे अरणक मुनि ने देह छोड़ दी / / गया था, पर तूने तो बाँह पकड़कर मुझे किनारे और देवलोक में देव बने / वे जितने नीचे गिरे थे | खड़ा कर दिया है। मैं प्रायश्चित्त करूगा / माँ तू उससे भी अधिक ऊँचे उठ भी गये। ही बता जो व्यक्ति गिर सकता है, क्या वह उठ नहीं सकता ? माँ मुझमें उठने की शक्ति है, मैं भोगावली कर्म यदि शेष होते हैं तो बड़े-से-बड़ा "माँ, ग्रीष्म से व्याकुल होकर मैं नारी के जाल साधक भी भटक जाता है। लेकिन भोगकाल पूरा में फैसा था तो मैं ग्रीष्म की आतापना सहकर ही होते ही वह पुनः आत्मोद्धार में लग जाता है / GR संथारा करूंगा।" श्रेणिकपुत्र नन्दिषेण के साथ भी ऐसा ही हुआ था। ___माँ की आँखों में खुशी की चमक आ गईॐ (शेष पृष्ठ 507 का) तरों तक तू इसे, यह तुझे, तू इसे, यह तुझे के मारने क्रोध हमारा जन्मजात शत्रु है। हमारे जन्म के की परम्परा चलती रहेगी। यह परम्परा है अग्नि के समय यह हमारे साथ ही जन्म लेता है और SUB से अग्नि को बुझाने अथवा रक्त को रक्त से धोने की अवसर की तलाश में सोता रहता है। अवसर भा परम्परा / क्रोध उपशम से और शत्रुता क्षमा से मिलते ही यह एकदम उठता है और हमारा हितैषी 24 से ही मिट सकते हैं। शरणगत को छोड़ दे पुत्र!' बनकर आता है। बड़ी चतुराई से यह बुद्धि को कुलपुत्र ने बन्धन खोल दिये और शत्रु से ऐसे भनाकर उसकी जगह बैठ जाता है। हम भी इसे है मिला जैसे अपने भाई से मिल रहा हो / दोनों की अपना हितैषी समझकर इसकी बातों में आ जाते आँखों में हर्ष के आँसू थे। ठकुरानी की आँखें भी हैं और जो यह कहता है वही करते हैं। यह स्थाई गीली हो गईं। न जाने कब तक चलती, वैर की अड्डा बनाकर वैर का रूप धारण करके हमारा और यह परम्परा / उसका अन्त हुआ ज्ञान, विवेक और भी अहित करता है / यह एक ही नहीं, हमारे कई धर्म की धारणा से। जल से रक्त का दाग धुला, जन्म बिगाड़ता है। इससे सावधान रहें। इसकी जल ने ही अग्नि को बुझा दिया, मैत्री ने वैर की जड़ें बातों में न आयें। इसकी बातों में आकर ही तो है काट डाली और वैरी,भाई एवं मित्र-दोनों बन गया कुलपुत्र बारह वर्ष तक जंगलों की खाक छानता / दूना लाभ पाया कुलपुत्र ने / भाई को खोया तो फिरा था / अन्ततः उसने क्रोध को हटाकर सच्चे भाई और मित्र-दोनों एक ही व्यक्ति में पा लिए। शत्रु को भगाने में सफलता पाई। सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन - साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal use Only