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are a भोगी थे । भोग से योग ग्रहण तो करते ही हैं, पर कच्चे मन वाले योगी से भोगी बन जाते हैं । एक झटके से ही अरणक मुनि बहुत नीचे गिर चुके
थे ।
अब वे रात-दिन भोगों में डूबे रहते । सुन्दरी उनका उबटन करती, स्नान कराती, पंखा झलती और वे उसी को अंक में समेटे पड़े रहते । रात तो रात थी ही, उनके लिए अब दिन भी रात ही था । ऐसे ही उनके दिन गुजरने लगे ।
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अरणक मुनि गोचरी से नहीं लौटे। संध्या हो गई, फिर रात भी हुई। संघ के मुनियों को चिन्ता हुई, वे सब उन्हें ढूंढने निकले । उनके साथ में श्रावक भी थे। रात इसी चर्चा में बीती कि आखिर मुनि अरणक कहाँ लापता हो गए ? अपना कर्तव्य पूरा कर साधुओं ने साध्दियों के उपाश्रय में संवाद भिजवा दिया कि साध्वी भद्रा के संसारी नाते से पुत्र मुनि अरणक गोचरी के लिए गये थे, वे अभी तक नहीं लौटे हैं ।
माँ की ममता का सागर सीमा तोड़ गया । साध्वी भद्रा व्याकुल होकर साधारण माँ की तरह रोने लगी । वे उपाश्रय छोड़कर अरणक को ढूंढने निकल पड़ीं। वे पागलों की तरह जोर-जोर से आवाज लगाती - बेटा अरणक, तू कहाँ है ? अरणक तू मेरे पास आ जा, बेटे ! वे जब चलते-चलते, बोलते-बोलते थक जातीं तो किसी वृक्ष के मूल बैठकर बैठ जातीं । थकावट की अति के कारण बैठे-बैठे ही सो जातीं। फिर उठकर चल देतीं । बस्ती वाले कहते -- शायद बेचारी का बेटा मर गया है, सो उसके मोह में पागल होकर उसे पुकारती फिरती है ।
साध्वी भद्रा को पागल समझकर बस्ती के बच्चे उनके पीछे-पीछे तालियाँ बजाकर चलते। कभी उनकी आवाज के साथ शरारती बच्चे भी आवाज देते - ओ अरणक ! तू कहाँ है ?
सप्तम खण्ड : विचार मन्थन
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यों ही समय बीतता रहा । साध्वी अरणक को ढढ़ती रही और अरणक भोगों में डूबता रहा । एक दिन संयोग बना । साध्वी भद्रा उक्त सुन्दरी के भवन के नीचे ही चिल्ला रही थी । सुन्दरी के अंक पाश में लेटे अरणक के कानों में अपने नाम की आवाज पड़ी तो वे विद्यत के झटके की तरह उठे । सुन्दरी चिल्लाती रही- सुनो तो सुनो स्वामी, कहाँ जाते हो ? पर अरणक कुमार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा । वे धड़ाधड़ सीढ़ियाँ उतरते हुए साध्वी माँ के पास पहुँचे - माँ ! मैं तेरा अरणक हूँ ।
साध्वी भद्रा सुध-बुध खोकर स्तब्ध-सी अपने सामने खड़े युवक को देखने लगी। उसका भेष बड़ा आकर्षक था । रेशमी अधोवस्त्र, रेशमी ही उत्तरीय और पैरों में जड़ाऊ जूते । सचिक्कण काले केशों में सुगन्ध आ रही थी । बड़ी देर बाद साध्वी ने
कहा
" तू कोई ठग है । तू मेरा अरणक नहीं हो सकता । मेरा अरणक तो वह था, जिसने विवाह करने से इन्कार कर दिया था। मेरे अरणक ने तो माता-पिता से पूर्व दीक्षा लेने का निश्चय प्रकट किया था । मेरे अरणक के विचारों में ऐसा बदलाव आया था कि दीक्षा से पूर्व उसके पिता ने कहा था - पुत्र, तूने आज तक ग्रीष्म की धूप नहीं देखी, अपने हाथ से पानी लेकर भी नहीं पिया | दोपहरी में तू विहार कैसे करेगा और कभी अचित्त जल न मिला तो प्यासा कैसे रह पायेगा ?
"युवक ! इसके उत्तर में मेरे पुत्र अरणक ने कहा था - भोगी जब योगी बन जाता है तो उसकी दृष्टि बदल जाती है । उसके विचार पहले जैसे नहीं रहते । शक्ति विचारों से मिलती है । जब मेरे विचार बदले हैं तो चारित्र - पालन की शक्ति आ ही गई है ।
" तो तू मेरा पुत्र कैसे हो सकता है ? मेरे पुत्र में तो चारित्रपालन की शक्ति थी । वह योगी था, पर तू तो भोगी है । मेरा अरणक तो मुनि था, तू मेरा अरणक कैसे हो सकता है ? तू मुझे छलने
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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