Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशलक्षण पर्व । दशलक्षण धर्म
जिस पर्व को श्वेताम्बर परम्परा में पर्युषण कहते हैं, उसे दिगम्बर है। दूसरे तत्त्वार्थसूत्र में मुक्ति के स्थान पर शौच का उल्लेख हुआ परम्परा में दशलक्षण पर्व के नाम से जाना जाता है। दिगम्बर परम्परा है। इन दोनों में अर्थ-भेद भी है। चाहे इन धर्मों (सद्गुणों) का उल्लेख में इस दशलक्षण पर्व का प्रारम्भ कब से हुआ, यह अभी शोध का श्रमणाचार के प्रसंग में ही अधिक हुआ है, किन्तु आचारांगसूत्र (१/ विषय है, क्योकि दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में इस पर्व का ६/५) और पद्मनन्दीकृत पंचविंशतिका (६/५९) के अनुसार इनका कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है। जैसा कि हमने पर्युषण सम्बन्धी पालन गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए अपेक्षित है। इनके क्रम और लेख (श्रमण, अगस्त १९८२) में सङ्केत किया था कि दिगम्बर परम्परा नामों को लेकर जैन आचार ग्रन्थों में थोड़ा-बहुत मतभेद पाया जाता के ग्रन्थों में इस पर्व का उल्लेख लगभग सतरहवीं शताब्दी के बाद है। फिर भी इनकी मूलभावना में कोई विशेष अन्तर नहीं है। प्रस्तुत से प्रारम्भ होता है। सतरहवीं शताब्दी के एक ग्रन्थ 'व्रत-तिथि-निर्णय विवेचन तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर कर रहे हैं। तत्त्वार्थसूत्र में निम्न दस में इस पर्व का उल्लेख मिलता है। दिगम्बर परम्परा में यह पर्व दस धर्मों का उल्लेख है (१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) शौच, दिनों में क्षमा आदि दस धर्मों की साधना के द्वारा मनाया जाता है। (५) सत्य, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग, (९) अकिंचनता और क्षमा आदि जिन दस धर्मों या सद्गुणों का पालन इस पर्व में किया (१०) ब्रह्मचर्य। जाता है, उनके उल्लेख काफी प्राचीन हैं। जैन परम्परा और वैदिक परम्परा दोनों में ही इन दस धर्मों का उल्लेख मिलता है। दशलक्षण १. क्षमा पर्व के दस दिन में प्रत्येक दिन क्रमश: एक-एक धर्म की विशेष रूप क्षमा प्रथम धर्म है। दशवैकालिकसूत्र के अनुसार क्रोध प्रीति का से साधना की जाती है। इस प्रकार दशलक्षण पर्व सद्गुणों/धर्म की विनाशक है। क्रोध कषाय के उपशमन के लिए क्षमा-धर्म का विधान साधना का पर्व है।
है। क्षमा के द्वारा ही क्रोध पर विजय प्राप्त की जा सकती है। जैन
परम्परा में अपराधी को क्षमा करना और स्वयं के अपराधों के लिए, दशविध धर्म (सद्गुण)
जिसके प्रति अपराध किया गया है, उससे क्षमा-याचना करना साधक जैन आचार्यों ने दस प्रकार के धर्मो (सद्गुणों) का वर्णन किया का परम कर्तव्य है। जैन साधक का प्रतिदिन यह उद्घोष होता है है, जो कि गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए समान रूप से आचरणीय कि मैं सभी प्राणियों को क्षमा करता हूँ और सभी प्राणी मेरे अपराधों हैं। आचारांगसूत्र, मूलाचार, बारस्सअणुवेक्खा, स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र के लिए मुझे क्षमा करें। सभी प्राणियों से मेरी मित्रता है, किसी से
और तत्त्वार्थसूत्र के साथ-साथ परवर्ती अनेक ग्रन्थों में भी इन धर्मों मेरा वैर नहीं है। महावीर का, श्रमण साधकों के लिए यह आदेश का वर्णन विस्तार से उपलब्ध होता है।
था कि साधुओं ! यदि तुम्हारे द्वारा किसी का अपराध हो गया है, यहाँ 'धर्म' शब्द का अर्थ सद्गुण या नैतिक गुण ही अभिप्रेत तो सबसे पहले क्षमा माँगो। जब तक क्षमा-याचना न कर लो भोजन है। सर्वप्रथम हमें आचरांगसूत्र में आठ सामान्य धर्मों का उल्लेख उपलब्ध मत करो, स्वाध्याय मत करो, शौचादि कर्म भी मत करो, यहाँ तक होता है। उसमें कहा गया हैं कि जो धर्म में उत्थित अर्थात् तत्पर कि अपने मुँह का थूक भी गले से नीचे मत उतारो। अपने प्रधान हैं उनको और जो धर्म में उत्थित नहीं हैं उनको भी निम्न बातों का शिष्य गौतम की लाये हुए आहार को रखवा कर पहले आनन्द श्रावक उपदेश देना चाहिए-क्षांति, विरति (विरक्ति), उपशम, निवृत्ति, शौच से क्षमा-याचना के लिए भेजना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि महावीर (पवित्रता), आर्जव, मार्दव और लाघव। इस प्रकार उसमें इनकी साधना की दृष्टि में क्षमा-धर्म का कितना अधिक महत्त्व था। जैन परम्परा गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए अपेक्षित हैं। स्थानांगसूत्र और के अनुसार प्रत्येक साधक को प्रात:काल एवं सायंकाल, पक्षान्त में, समवायांगसूत्र में दस श्रमण-धर्मों के रूप में इन्हीं सद्गुणों का उल्लेख चातुर्मास के अन्त में और संवत्सरी पर्व पर सभी प्राणियों से क्षमाहुआ है। यद्यपि स्थानांगसूत्र और समवायांगसूत्र की सूची आचारांगसूत्र याचना करनी होती है। जैन समाज का वार्षिक पर्व 'क्षमावाणी' के से थोड़ी भिन्न है। उसमें दस धर्म हैं-क्षांति (क्षमा), मुक्ति, आर्जव, नाम से भी प्रसिद्ध है। जैन आचार-दर्शन की मान्यता है कि यदि मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्यवास। इस सूची श्रमण साधक पक्षान्त तक अपने क्रोध को शान्त कर क्षमा-याचना में शौच का अभाव है। शान्ति, विरति, उपशम और निवृत्ति के स्थान नहीं कर लेता है तो उसका श्रमणत्व समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार पर नामान्तर से शांति, मुक्ति, संयम और त्याग का उललेख हुआ। गृहस्थ उपासक यदि चार महीने से अधिक अपने हृदय में क्रोध के है। जबकि सत्य, त्याग और ब्रह्मचर्यवास इस सूची में नये हैं। भाव बनाये रखता है और जिसके प्रति अपराध किया है, उससे क्षमाबारसअणुवेक्खा एवं तत्त्वार्थसूत्र में भी श्रमणाचार के प्रसंग में ही दस याचना नहीं करता तो वह गृहस्थ-धर्म का अधिकारी नहीं रह पाता धर्मों का उल्लेख हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र की सूची में लाघव के स्थान है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति एक वर्ष से अधिक तक अपने क्रोध पर आकिंचन्य का उल्लेख हुआ है; यद्यपि दोनों का अर्थ समान ही की तीव्रता को बनाये रखता है और क्षमा-याचना नहीं करता वह सम्यक्
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशलक्षण पर्व / दशलक्षण धर्म
५१७ श्रद्धा का अधिकारी भी नहीं होता है और इस प्रकार जैनत्व से भी में जब यह शक्तिमद तीव्र होता है तो वे दूसरे राष्ट्रों पर आक्रमण च्युत हो जाता है।
के लिए बड़े ही आतुर हो जाते हैं और छोटी सी बात के लिए भी बौद्ध परम्परा में क्षमा-बौद्ध परम्परा में भी क्षमा का महत्त्व आक्रमण कर देते हैं। (४) तपमद-तपस्या का अहंकार करना। व्यक्ति निर्विवाद रूप से मान्य है। कहा गया है कि आर्य विनय के अनुसार में जब तप का अहंकार जागृत होता है तो वह साधना से गिर जाता इससे उन्नति होती है जो अपने अपराध को स्वीकार करता है और है। जैन कथा-साहित्य में कुरुगुडुक केवली की कथा इस बात को भविष्य में संयत रहता है। संयुत्तनिकाय में कहा गया है कि क्षमा बड़े ही सुन्दर रूप में चित्रित करती है कि तप का अहंकार करने से बढ़कर अन्य कुछ नहीं है। क्षमा ही परम तप है।११ आचार्य वाले साधना के क्षेत्र में कितने पीछे रह जाते हैं। (५) रूपमदशान्तिरक्षित ने क्षान्ति- पारमिता (क्षमा-धर्म) का सविस्तार सजीव शारीरिक सौन्दर्य का अहंकार करना। रूपमद व्यक्ति में अहंकार की विवेचन किया है, वे लिखते हैं-द्वेष के समान पाप नहीं है और वृत्ति जागृत कर दूसरे को अपने से निम्न समझने की भावना उत्पन्न क्षमा के समान तप नहीं है, इसलिए विविध प्रकार के यत्नों से क्षमा- करता है और इस प्रकार एक प्रकार की असमानता का बीज बोता भावना करनी चाहिए।१२
है। पाश्चात्य राष्ट्रों में श्वेत और काली जातियों के बीच चलने वाले वैदिक परम्परा में क्षमा-वैदिक परम्परा में भी क्षमा का महत्त्व संघर्ष के मूल में रूप और जाति की अभिमान ही प्रमुख है। (६) माना गया है। मनु ने दस धर्मों में क्षमा को धर्म माना है। गीता में ज्ञानमद-बुद्धि अथवा विद्या का अहंकार करना। ज्ञान का क्षमा को दैवी-सम्पदा एवं भगवान् की ही एक वृत्ति कहा गया है। अहंकार जब व्यक्ति में आता है तो वह दूसरे लोगों को अपने से छोटा महाभारत के उद्योग पर्व में क्षमा के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। मानने लगता है। इस प्रकार एक ओर वह दूसरों के अनुभवों से लाभ उसमें कहा गया है कि क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण है, तथा समर्थ उठाने से वंचित रहता है तो दूसरी ओर बुद्धि का अभिमान स्वयं उसके मनुष्यों का भूषण है। हे राजन् ! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ज्ञान उपलब्धि के प्रयत्नों में बाधक बनता है। इस प्रकार उसके ज्ञान ऊपर स्थान पाते हैं-(१) शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला का विकास कुण्ठित हो जाता है। (७) ऐश्वर्यमद-धन-सम्पदा और
और (२) निर्धन होने पर भी दान देने वाला। क्षमा, द्वेष को दूर करती प्रतिष्ठा का अहंकार करना। यह भी समाज में वर्ग-विद्वेष का कारण है, इसलिए वह एक महत्त्वपूर्ण सद्गुण है।
और व्यक्ति के अन्दर एक प्रकार की असमानता की वृत्ति को जन्म
देता है। (८) सत्तामद-पद, अधिकार आदि का घमण्ड करना, जैसे२. मार्दव
गृहस्थ वर्ग में राजा, सेनापति, मंत्री आदि के पद, श्रमण-संस्था मार्दव का अर्थ विनीतता या कोमलता है। मान कषाय या अहंकार में आचार्य, उपाध्याय, गणि आदि के पद। जैन परम्परा के अनुसार को उपशान्त करने के लिए मार्दव (विनय) धर्म के पालन का निर्देश जब तक अहंभाव का विगलन होकर विनम्रता नहीं आती तब तक है। विनय अहंकार का प्रतियोगी है व उससे अहंकार पर विजय प्राप्त व्यक्ति नैतिक विकास की दशा में आगे नहीं बढ़ सकता। उत्तराध्ययनसूत्र की जाती है।५ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि धर्म का मूल विनय में कहा है कि विनय के स्वरूप को जानकर नम्र बनाने वाले बुद्धिमान है। १६ उत्तराध्ययनसूत्र एवं दशवकालिकसूत्र में विनय का विस्तृत विवेचन की लोक में प्रशंसा होती है, जिस प्रकार प्राणियों के लिए पृथ्वी आधारभूत है। जैन परम्परा में अविनय का कारण अभिमान कहा गया है। अभिमान है, उसी प्रकार वह भी सद्गुणों का आधार होता है।१७ आठ प्रकार के हैं- (१) जातिमद-जाति का अहंकार करना, जैसे बौद्ध परम्परा में अहंकार की निन्दा-बौद्ध परम्परा में अहंकार मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ जाति के अहंकार के कारण उच्च जाति को साधना की दृष्टि से अनुचित माना गया है। अंगुत्तरनिकाय में तीन में निम्न जाति के लोगों के प्रति घृणा की वृत्ति उत्पन्न होती है और मदों का विवेचन उपलब्ध है। भिक्षुओं! यौवनमद में, आरोग्यमद में, परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में एक प्रकार की दुर्भावना और विषमता जीवनमद में मत्त अज्ञानी सामान्यजन शरीर से दुष्कर्म करता है, वाणी उत्पन्न होती है। (२) कुलमद-परिवार की कुलीनता का अहंकार करना। से दुष्कर्म करता है तथा मन से दुष्कर्म करता है। वह शरीर, वाणी कुलमद व्यक्ति को दो तरह से नीचे गिराता है। एक तो यह कि जब तथा मन से दुष्कर्म करके शरीर के छूटने पर, मरने के अनन्तर अपाय, व्यक्ति में कुल का अभिमान जागृत होता है तो वह दूसरों को अपने दुर्गति, पतन, एवं नरक को प्राप्त होता है। भिक्षुओं! आरोग्य-मद से निम्न समझने लगता है और इस प्रकार सामाजिक जीवन में असमानता से मत्त भिक्षु शिक्षा का त्याग कर पतनोन्मुख होता है। भिक्षुओं! जीवनमद की वृत्ति को जन्म देता है। दूसरे कुल के अहंकार के कारण वह से मत्त भिक्षु शिक्षा का त्यागकर पतनोन्मुख होता है। सुत्तनिपात में कठिन परिस्थितियों में भी श्रम करने से जी चुराता है, जैसे कि मैं कहा है कि जो मनुष्य जाति,धन और गोत्र का गर्व करता है, वह राजकुल का हूँ; अतः अमुक निम्न श्रेणी का व्यवसाय या कार्य कैसे उसकी अवनति का कारण है। १९ इस प्रकार बौद्ध धर्म में १. यौवन, करूं? इस प्रकार झूठी प्रतिष्ठा के व्यामोह में अपने कर्तव्य से विमुख २. आरोग्य. ३. जीवन, ४. जाति, ५. धन और ६.गोत्र इन छह होता है व समाज पर भार बनकर रहता है। (३) बलमद-शारीरिक मदों से बचने का निर्देश है। शक्ति का अहंकार करना। शक्ति का अहं व्यक्ति में भावावेश उत्पन्न गीता में अहंकारवृत्ति की निन्दा- गीता के अनुसार अहंकार करता है, और परिणामस्वरूप व्यक्ति का अभाव हो जाता है। राष्ट्रों को पतन का कारण माना गया है। जो यह अहंकार करता है कि मैं
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________ 518 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ अधिपति हूँ, मैं ऐश्वर्य का भोग करने वाला हूँ, मैं सिद्ध, बलवान् भावों को अज्ञान कहा है। और सुखी हूँ, मैं बड़ा धनवान् और कुशलवान् हूँ, मेरे समान दूसरा कौन है-वह अज्ञान से विमोहित है।२० जो धन और सम्मान के मद 4. शौच (पवित्रता) से युक्त है वह भगवान् की पूजा का ढोंग करता है।२१ महाभारत में शौच पवित्रता का सूचक है। सामान्यता शौच का अर्थ दैहिक कहा है कि जब व्यक्ति पर रूप और धन का मद सवार हो जाता पवित्रता से लगाया जाता है। किन्तु जैन परम्परा में शौच शब्द का है तो वह ऐसा मानने लगता है कि मैं बड़ा कुलीन हूँ, सिद्ध हूँ, प्रयोग मानसिक पवित्रता के अर्थ में ही हुआ है। समवायांगसूत्र और साधारण मनुष्य नहीं हूँ। रूप, धन और कुल इन तीनों के अभिमान स्थानांगसूत्र की सूची में शौच स्थान पर 'लाघव' उल्लेख मिलता है। के कारण चित्त में प्रमाद भर जाता है, वह भोगों में आसक्त होकर वस्तुत: साधन के लिए मानसिक कालुष्य या वासनारूपी मल की शुद्धि बाप-दादों द्वारा संचित सम्पत्ति खो बैठता है। 22 आवश्यक है। विषय-वासनाओं या कषायों की गन्दगी हमारे चित्त को इस प्रकार जैन, बौद्ध और हिन्दू आचार दर्शन अभिमान का कलुषित करती है। अत: उसकी शुद्धि ही शौच धर्म है। पं० सुखलालजी त्याग करना और विनम्रता को अंगीकार करना आवश्यक मानते हैं। ने शौच का अर्थ निर्लोभता किया है३२, किन्तु यह उचित नहीं लगता जिस प्रकार नदी के मध्य रही हुई घास भयंकर प्रवाह में अपना अस्तित्व है, क्योंकि फिर इसका आकिञ्चन्य से भेद करना कठिन होगा। जैन बनाये रखती है, जबकि बड़े-बड़े वृक्ष संघर्ष में धराशायी हो जाते हैं, परम्परा के अनुसार शौच का अर्थ मानसिक शुद्धि करना ही अधिक उसी प्रकार जीवन-संघर्ष में विनीत व्यक्ति ही निरापद रूप से पार होते हैं। युक्तिसंगत है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि अकलुष मनोभावों से युक्त धर्मरूपी सरोवर में स्नान कर मन विमल एवं विशुद्ध बन 3. आर्जव जाता है। निष्कपटता या सरलता आर्जव गुण है। इसके द्वारा माया (कपट- गीता का दृष्टिकोण-गीता में शौच की गणना दैवी-सम्पदा, वृत्ति) कषाय पर विजय प्राप्त की जाती है। कुटिलवृत्ति (कपट) सद्भाव ब्रह्मचर्य एवं तप में की गई है। आचार्य शंकर ने अपने गीताभाष्य की विनाशक है, वह सामाजिक और वैयक्तिक दोनों जीवनों के लिए में शौच का अर्थ प्रतिपक्ष भावना के द्वारा अन्त:करण के रागादि मलों हानिकर है / व्यक्ति की दृष्टि से कपटवृत्ति एक प्रकार की आत्म- को दूर करना, भी किया है, जो कि जैन परम्परा के शौच के अर्थ प्रवंचना है, स्वयं अपने आप को धोखा देने की प्रवृत्ति है। जबकि के निकट है।३५ सामाजिक दृष्टि से कपटवृत्ति व्यवहार में शंका को जन्म देती है और पारस्परिक सद्भाव का नाश करती है। 23 यही शंका और कुशंका, 5. सत्य भय और असद्भाव, सामाजिक जीवन में विवाद और संघर्ष के प्रमुख सत्य धर्म से तात्पर्य है- सत्यता को अपनाना। असत्य भाषण कारण बनते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार आर्जव गुण के द्वारा ही से किस प्रकार विरत होना, सत्य किस प्रकार बोलना, यह विवेचन व्यक्ति विश्वासपात्र बनता है। जिसमें आर्जव गुण का अभाव है वह व्रत-प्रकरण में किया गया है। धर्म के प्रसंग में 'सत्य' का कथन यह सामाजिक जीवन में विश्वासपात्र नहीं बन पाता। किसी भी प्रकार का व्यक्त करता है कि साधक को अपने व्रतों एवं मर्यादाओं की प्रतिज्ञा दंभ (ढोंग) चाहे वह साधन से सम्बन्धित हो या जीव के अन्य व्यवहार के प्रति निष्ठावान् रहकर उनका उसी रूप में पालन करना सत्य धर्म से, अनुचित है। दशवकालिकसूत्र के अनुसार जो तपस्वी न होकर है। इस प्रकार यहाँ यह कर्तव्यनिष्ठा को व्यक्त करता है, जैसे हरिश्चन्द्र तपस्वी होने का ढोंग करता है वह तप-चोर है, जो पंडित न होने के प्रसंग में कर्तव्यनिष्ठा को ही सत्य धर्म के रूप में माना गया है। पर भी वाक्पटुता के द्वारा पाण्डित्य का प्रदर्शन करता है वह वचन- साधक का अपने प्रति सत्य (ईमानदार) होना ही सत्य धर्म का पालन चोर है, जो व्यक्ति इस प्रकार के ढोंग करता है, वह निम्न योनियों है। आचरण के सभी क्षेत्रों में पवित्रता ही सत्य धर्म है। कहा भी गया को प्राप्त करता है और संसार में भटकता रहता है, उसे यथार्थ ज्ञान है कि मन, वचन और काय की एकरूपता सत्य है अर्थात् जैसा विचार की उपलब्धि नहीं होती।२५ इसलिए कहा गया है कि बुद्धिमान् व्यक्ति वैसी ही वाणी और आचरण रखें, यही सत्यता है। वास्तव में यही कपट के इन दोषों को जानकर निष्कपट आचरण करे।२६ नैतिक जीवन की पहचान भी है। बौद्ध दृष्टिकोण-बुद्ध ने ऋजुता को कुशल धर्म कहा है। उनकी महावीर कहते हैं कि जो निष्ठापूर्वक सत्य की आज्ञा का पालन दृष्टि में माया या शठता (ठगी), दुर्गति, नरक का कारण है, जबकि करता है, वह बन्धन से मुक्त हो जाता है। सत्य के सन्दर्भ में महावीर ऋजुता (सरलता) सुख, सुगति, स्वर्ग और शैक्ष भिक्षु के लाभ का का दृष्टिकोण यही है कि व्यक्ति के जीवन में (अन्तः और बाह्य) एकरूपता कारण है।२७ होनी चाहिए।३६ अन्तरात्मा के प्रति निष्ठावान होना ही महाभारत और गीता का दृष्टिकोण-महाभारत के अनुसार सत्य धर्म है। सरलता एक आवश्यक सद्गुण है। 28 गीता में आर्जव को दैवी-सम्पदा,२९ तप और ब्राह्मण का स्वाभाविक गुण कहा गया है। आर्जव और अदम्भ 6. संयम सद्गुणों की गीताकार ने ज्ञान में गणना की है और इनके विरोधी जैन दर्शन के अनुसार पूर्व संचित-कर्मों के क्षय के लिए तप
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________ दशलक्षण पर्व | दशलक्षण धर्म आवश्यक है और संयम से भावी कर्मों के आस्रव का निरोध होता साधना तो सप्रयासता में है। जब प्रयासपूर्वक कर्म-पुद्गलों को आत्मा है। संयम मनोवृत्तियों, कामनाओं और इन्द्रिय-व्यवहार का नियमन से अलग किया जाता है तो उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं और जिस करता है। संयम का अर्थ दमन नहीं, वरन् उनको सम्यक् दिशा में प्रक्रिया द्वारा यह अविपाक निर्जरा की जाती है, वही तप है। योजित करना है। संयम एक ओर अकुशल, अशुभ एवं पाप जनक तप का वर्गीकरण-जैन साधना में तप के बाह्य और आभ्यन्तर व्यवहारों से निवृत्ति है तो दूसरी ओर शुभ में प्रवृत्ति है। दशवैकालिकसूत्र ऐसे दो भेद किये गये हैं। पुन: प्रत्येक के छ:-छ: भेद किये गये हैं। में कहा है कि अहिंसा, संयम और तपयुक्त धर्म ही सर्वोच्च शुभ (मंगल) हम संक्षेप में नीचे इस वर्गीकरण को प्रस्तुत कर रहे हैं। है।३७ जैन आचार्यों ने संयम के अनेक भेद बताये हैं। विस्तार भय से उनका विवेचन सम्भव नहीं है। पाँच आस्रव-स्थान, चार कषाय, (अ) शारीरिक या बाह्य तप के भेद पाँच इन्द्रियाँ एवं मन-वाणी और शरीर का संयम प्रमुख है।२८ 1. अनशन-आहार-त्याग को अनशन कहा जाता है। यह भी संयम और बौद्ध दृष्टिकोण-बुद्ध का कथन है कि प्राज्ञ एवं दो प्रकार का होता है—एक निश्चित समयावधि के लिए किया हुआ बुद्धिमान् भिक्षु के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है-इन्द्रियों पर विजय, आहार-त्याग, जो एक दिन से लगातार छ: मास तक या उससे भी सन्तुष्टता तथा भिक्षु-अनुशासन में संयम से रहना।३९ शरीर, वाणी अधिक का हो सकता है। दूसरा जीवन-पर्यन्त के लिए किया हुआ और मन का संयम करना उत्तम है। जो सर्वत्र संयम करता है, वह आहार-त्याग। जीवन-पर्यन्त के लिए किये गये आहार-त्याग की सब दुःखों से छूट जाता है।४० अनिवार्य शर्त है कि उस अवधि में मृत्यु की आकांक्षा न करे। गीता में संयम-गीता में कहा कि श्रद्धावान्, तत्पर और संयतेन्द्रिय 2. अवमौदर्य-अवमौदर्य तप वह है, जिसमें आहार के लिए ही ज्ञान प्राप्त करता है। जो संयमी है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है।४२ . कुछ शर्ते निश्चित की जाती हैं। इसके पाँच प्रकार हैं-(१) जो आहार योगीजन संयम-रूपी अग्नि में इन्द्रियों का हवन करते हैं। 43 की मात्रा है उससे कुछ कम खाना, द्रव्य अवमौदर्य तप कहा जाता है। (2) भिक्षा के लिए कोई क्षेत्र निश्चित कर वहीं से मिली हुई भिक्षा 7. तप लेना, क्षेत्र अवमौदर्य तप कहा जाता है। (3) किसी निश्चित समय तप जैन साधना का प्राण है। जैन साधना में जो कुछ भी शाश्वत, पर आहार लेना, काल अवमौदर्य तप कहा जाता है। (4) भिक्षा प्राप्ति उदात्त और महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वे सब तपोमय हैं। तीर्थंकर महावीर के लिए या आहार के लिए किसी स्थिति का अभिग्रह निश्चय कर का तपोमय जीवन जैन परम्परा में तप का क्या महत्त्व है, इसको स्पष्ट लेना, भाव अवमौदर्य है। संक्षेप में अवमौदर्य तप वह है-जिसमें करता है। महावीर के साधक जीवन के साढ़े बारह वर्षों में लगभग किसी विशेष स्थान पर, विशेष प्रकार से उपलब्ध आहार को अपनी ग्यारह वर्ष निराहार व उपवासों में बीते हैं। महावीर का पूरा साधना- आहार की मात्रा से कम मात्रा में ग्रहण किया जाता है। काल स्वाध्याय, आत्म-चिन्तन, ध्यान और कायोत्सर्ग की साधना से 3. रसपरित्याग- भोजन में दूध, दही, घृत,मिष्ठान्न आदि का युक्त है। जैन परम्परा में आज भी ऐसे अनेक साधक हैं जिनके भोजन- या उनमें से किसी एक का ग्रहण नहीं करना, रस-परित्याग तप कहलाता दिनों का योग वर्ष में दो-तीन माह से अधिक नहीं होगा; शेष सारा है। रस-परित्याग एक प्रकार से स्वादजय है। समय वे उपवास व तपस्या में ही व्यतीत करते हैं। दशवैकालिकसूत्र 4. कायक्लेश-वीरासन,गोदुहासन आदि विभिन्न आसनों को में अहिंसा, संयम और तप धर्म को सर्वोत्कृष्ट मंगल कहा गया है। __करना, सर्दी या गर्मी को सहन करने का अभ्यास करना, कायक्लेश जैन साधना का लक्ष्य शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि है, आत्म- तप है। शुद्धिकरण है। लेकिन यह शुद्धिकरण क्या है? जैन दर्शन यह मानता ५.भिक्षाचर्या-भिक्षा के विभिन्न नियमों का पालन करते है कि प्राणी कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं के माध्यम से हुए भिक्षा में उपलब्ध खाद्यपदार्थ पर जीवन-यापन करना, भिक्षाचर्या कर्म-वर्गणाओं के पुद्गलों को अपनी ओर आकर्षित करता है और तप है। ये आकर्षित कर्म-वर्गणाओं के पुद्गल राग-द्वेष या कषायवृत्ति के कारण 6. विविक्तशय्यासन-अरण्य आदि एकान्त स्थानों में निवास आत्मा से एकीभूत हो, उसकी शुद्धसत्ता, शक्ति एवं ज्ञानज्योति को करना, विविक्त शयनासन तप है। आवृत्त कर देते हैं। यह जड़ एवं चेतन तत्त्व का संयोग ही विकृति उपरोक्त छः प्रकार शारीरिक तप-साधना के हैं। मानसिक या है, विभाव है, बन्धन है। आभ्यन्तरिक दृष्टि से भी तप-साधना के निम्न छ: भेद किये गये हैंअत: शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि के लिए आत्मा के शुद्धस्वरूप को आवृत्त करने वाले कर्म-वर्गणाओं के पुद्गलों का पृथकीकरण (ब) मानसिक एवं आभ्यान्तर तप आवश्यक है। पृथकीकरण की यह क्रिया निर्जरा कही जाती है, जो 1. प्रायश्चित-अशुभ आचरण के प्रति ग्लानि होना, उसका दो रूपों में सम्पन्न होती है। जब कर्म-वर्गणा के पुद्गल अपनी निश्चित पश्चात्ताप करना, आलोचना करना, अपने अपराध को योग्य वरिष्ठ समयावधि के पश्चात् अपना फल देकर स्वत: अलग हो जाते हैं, तो साधु या गुरु के समक्ष प्रकट करके उसके लिए योग्य दण्ड की याचना यह सविपाक निर्जरा कहलाती है। लेकिन यह साधना मार्ग नहीं है। कर उनके द्वारा दिये हुए दण्ड को स्वीकार करना, प्रायश्चित-तप है।
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________ 520 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 2. विनय-वरिष्ठ साधकों एवं गुरुजनों का सम्मान करना, उन्हें बाह्यस्वरूप प्रकट किया जाता है। संग्रहवृत्ति से बचना ही अकिंचनता प्रणाम, योग्य आसन प्रदान करना तथा उनकी आज्ञाओं का पालन का प्रमुख उद्देश्य है। दिगम्बर या जिनकल्पी मुनि की दृष्टि यही बताती करते हुए अनुशासित जीवन व्यतीत करना, विनय तप है। है कि समग्र बाह्य परिग्रह का त्याग ही अकिंचनता की पूर्णता है। 3. वैयावृत्य (सेवा)- गुरुजन, वरिष्ठ, वृद्ध, रोगी एवं संत कबीरदास ने भी कहा हैसंघ (समाज) आदि की सेवा करना, वैयावृत्य तप है। वैयावृत्य एक उदर समाता अन्न लहे, तनहि समाता चीर। प्रकार की सेवावृत्ति है। अधिकाहि संग्रह ना करे, ताको नाम फकीर।। 4. स्वाध्याय-१. सद्ग्रन्थों का अध्ययन करना, 2. उत्पन्न अकिंचनता और बुद्ध-बौद्ध ग्रन्थ चूलनिदेशपालि में कहा गया शङ्काओं के निरसन एवं नवीन ज्ञान की प्राप्ति के निमित्त विद्वत्जनों है कि अकिंचनता और आसक्तिरहित होने से बढ़कर कोई शरणदाता से प्रश्नोत्तर करना, तत्त्वचर्चा करना 3. ज्ञान की स्मृति को बनाये दीप नहीं है।४ बुद्ध ने स्वयं अपने जीवन में अकिंचनता को स्वीकार रखने के लिए उसका परावर्तन स्वाध्याय करना (दोहराना), 4. उस किया था। उदायी भगवान् की प्रशंसा करते हुए कहता है कि भगवान् पर चिन्तन और मनन करना एवं, 5. धर्मोपदेश देना। अल्पाहार करने वाले हैं और अल्पाहार के गण बताते हैं। वे कैसे 5. ध्यान-मन से अशुभ विचारों को हटाकर उसे शुभ विचारों भी चीवरों से सन्तुष्ट रहते हैं और वैसे सन्तोष के गुण बताते हैं। में केन्द्रित करना तथा एकाग्र करना, ध्यान-तप है। जो भिक्षा मिलती है, उससे सन्तुष्ट रहते हैं और वैसे सन्तोष के गुण 6. कायोत्सर्ग-शरीर से ममत्व हटाकर देहातीत आत्म-तत्त्व बताते हैं। निवास के लिए मिले हुए स्थान में सन्तुष्ट रहते हैं और की अनुभूति करना, कायोत्सर्ग-तप है। कायोत्सर्ग में शरीर के जिन वैसे सन्तोष के गुण बताते हैं। एकान्त में रहते हैं और एकान्त के व्यापारों का निरोध सम्भव है, उनका एक सीमित समय के लिए निरोध गुण बताते हैं। इन पाँच कारणों से भगवान् के श्रावक भगवान् का भी किया जाता है। मान रखते हैं और उनके आश्रय में रहते हैं।४५ इस प्रकार अनशन और अवमौदर्य से प्रारम्भ होकर कायोत्सर्ग महाभारत में अकिंचनता-महाभारत में कहा गया है कि यदि तक की यह सारी साधना-प्रक्रिया तप कहलाती है। तुम सब कुछ त्यागकर किसी वस्तु का संग्रह नहीं रखोगे तो सर्वत्र विचरते हुए सुख का ही अनुभव करोगे, क्योंकि जो अकिंचन होता 8. त्याग है-जिसके पास कुछ नहीं रहता है, वह सुख से सोता और जागता अप्राप्त भोगों की इच्छा नहीं करना और प्राप्त भोगों से विमुख __ है। संसार में अकिंचनता ही सुख है। वही हितकारक, कल्याणकारी होना, त्याग है। नैतिक जीवन में त्याग आवश्यक है। बिना त्याग और निरापद है। आकिंचन्य व्यक्ति को किसी भी प्रकार के शत्रु का के नैतिकता नहीं टिकती। अतएव साधु के लिए त्याग-धर्म का विधान खटका नहीं है। अकिंचनता को लाघव भी कहा जा सकता है। लाघव किया गया है। त्याग से इन्द्रिय और मन के निरोध का अभ्यास किया का अर्थ है- हलकापन। लोभ या आसक्ति आत्मा पर एक प्रकार जाता है। संयम के लिए त्याग आवश्यक है। सामान्य रूप से त्याग का भार है। कामना या आसक्ति मन में तनाव उत्पन्न करती है। यह का अर्थ छोड़ना होता है। अतएव साधुता तभी सम्भव है जब सुख- तनाव मन को बोझिल बनाता है। भूत और भविष्य की चिन्ताओं का साधना एवं गृह-परिवार का त्याग किया जाये। साधु जीवन में भी भार मनुष्य व्यर्थ ही ढोया करता है। व्यक्ति जितने-जितने अंश में जो कुछ उपलब्ध है या नियमानुसार ग्राह्य है, उनमें से कुछ को नित्य इनसे ऊपर उठकर अनासक्त बनता है, उतनी ही मात्रा में मानसिक छोड़ते रहना या त्याग करते रहना जरूरी है। गृहस्थ जीवन के लिए तनाव से बचकर प्रमोद का अनुभव करता है। निलोभ आत्मा को कर्मभी त्याग आवश्यक है। गृहस्थ को न केवल अपनी वासनाओं और आवरण से हल्का बनाता है। मन और चेतना के तनाव को समाप्त भोगों की इच्छा का त्याग करना होता है, वरन् अपनी सम्पत्ति एवं करता है। इसीलिए उसको लाघव कहा जाता है। परिग्रह से भी दान के रूप में त्याग करते रहना आवश्यक है। इसलिए भौतिक वस्तुओं की कामना ही नहीं, वरन् यश, कीर्ति, पूजा, त्याग गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए ही आवश्यक है। वस्तुतः सम्मान आदि की लालसा भी मनुष्य को अध:पतन की ओर ले जाती लोकमंगल के लिए त्याग-धर्म का पालन आवश्यक है। न केवल जैन है। दशवैकालिकसूत्र के अनुसार जो पूजा, प्रतिष्ठा, मान और सम्मान परम्परा में, वरन् बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में भी त्याग-भावना पर की कामना करते हैं, वे अनेक छद्म-पापों का सृजन करते हैं।६ कामना बल दिया गया है। बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिरक्षित ने इस सम्बन्ध चाहे भौतिक वस्तुओं की हो या मान-सम्मान आदि अभौतिक तत्त्वों में काफी विस्तार से विवेचन किया है। की, वह एक बोझ है जिससे मुक्त होना आवश्यक है। सूत्रों में लाघव के साथ ही साथ मुक्ति (मुत्ती) शब्द का प्रयोग भी हुआ है। सद्गुण 9. अकिंचनता के रूप में मुक्ति का अर्थ दुश्चिन्ताओं, कामनाओं और वासनाओं से मूलाचार के अनुसार अकिंचनता का अर्थ परिग्रह का त्याग है। मुक्त मनःस्थिति ही है। उपलक्षण से मुत्ती का अर्थ सन्तोष भी होता लोभ या आसक्तित्याग के भावनात्मक तथ्य को क्रियात्मक जीवन में है। सन्तोष की वृत्ति आवश्यक सद्गुण है। उसके अभाव में जीवन उतारना आवश्यक है। अकिंचनता के द्वारा इसी अनासक्त जीवन का की शान्ति चौपट हो जाती है। बौद्ध धर्म और गीता की दृष्टि में निर्लोभता
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________ दशलक्षण पर्व / दशलक्षण धर्म 521 मनुष्य का आवश्यक सद्गुण है। बुद्ध का कथन है कि 'सन्तोष ही अद्रोह, आर्जव एवं भृत्य-मरण इन नौ सद्गुणों का विवेचन है। परम धन है।' गीता में कृष्ण कहते हैं- 'सन्तुष्ट व्यक्ति मेरा प्रिय है।'४८ वामनपुराण में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, दान, क्षान्ति, दम, शम, अकार्पण्य, शौच और तप इन दस सद्गुणों का विवेचन है। विष्णु 10. ब्रह्मचर्य धर्मसूत्र में 24 गुणों का वर्णन है, जिनमें अधिकांश यही हैं। महाभारत ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन महाव्रतों एवं अणुव्रतों के आदिपर्व में धर्म की निम्न दस पत्नियों का उल्लेख है-कीर्ति, के सन्दर्भ में किया गया है। श्रमण के लिए समस्त प्रकार के मैथुन लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा और मति।५४ का त्याग आवश्यक माना गया है। गृहस्थ-उपासक के लिए स्वपत्नी- इसी प्रकार श्रीमद्भागवत में भी धर्म की श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, सन्तोष में ही ब्रह्मचर्य की मर्यादा स्थापित की गयी है। विषयासक्ति तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, हवि और मूर्ति इन चित्त को कलुषित करती है, मानसिक शान्ति भंग करती है, एक प्रकार तेरह पत्नियों का उल्लेख है।५५ वस्तुत: इन्हें गुण, धर्म की पत्नियाँ के मानसिक तनाव को उत्पन्न करती है और शारीरिक दृष्टि से रोग कहने का अर्थ इतना ही है कि इनके बिना धर्म अपूर्ण रहता है। इसी का कारण बनती है। इसलिए यह माना गया कि अपनी-अपनी मर्यादा प्रकार श्रीमद्भागवत में धर्म के पुत्रों का भी उल्लेख है। धर्म के पुत्र के अनुकूल गृहस्थ और श्रमण को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। हैं-शुभ, प्रसाद, अभय, सुख, मुह, स्मय, योग, दर्प, अर्थ, स्मरण, बौद्ध परम्परा में ब्रह्मचर्य-बौद्ध परम्परा में भी ब्रह्मचर्य धर्म क्षेम और प्रश्रय।५६ वस्तुत: सद्गुणों का एक परिवार है और जहाँ का महत्त्व स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है। उसमें भी श्रमण साधक एक सद्गुण भी पूर्णता के साथ प्रकट होता है वहाँ उससे सम्बन्धित के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य और गृहस्थ साधक के लिए स्वपत्नी-सन्तोष दूसरे सद्गुण भी प्रकट हो जाते हैं।. की मर्यादाएँ स्थापित की गयी हैं। 49 / / गीता में ब्रह्मचर्य-गीता में ब्रह्मचर्य को शारीरिक तप कहा गया बौद्ध धर्म और दस सद्गुण है।५० परमतत्त्व की उपलब्धि के लिए ब्रह्मचर्य को आवश्यक माना जैसा कि हमने देखा जैन धर्म सम्मत क्षमा आदि दस धर्मों (सद्गुण) गया और यह बताया गया है कि जो ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होकर की अलग-अलग चर्चा उपलब्ध हो जाती है, किन्तु उसमें जिन दस मेरी उपासना करता है वह शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त कर लेता है।५१ धर्मों का उल्लेख हुआ है, इनसे भिन्न हैं। अंगुत्तरनिकाय में सम्यक् दृष्टि, सम्यक्-संकल्प, सम्यक्-वाक्, सम्यक्-कर्मान्त, सम्यक्-आजीव, वैदिक परम्परा में दस धर्म (सद्गुण) सम्यक्-व्यायाम, सम्यक्-स्मृति, सम्यक्-समाधि, सम्यक्-ध्यान और वैदिक परम्परा में भी थोड़े-बहुत अन्तर से इन सद्गुणों का विवेचन सम्यक्-विमुक्त ये दश धर्म बताये गये हैं।५७ वस्तुत: इसमें अष्टांग पाया जाता है। हिन्दू धर्म में हमें दो प्रकार के धर्मो का विवेचन उपलब्ध आर्य मार्ग में सम्यक्-ध्यान और सम्यक्-विमुक्ति ये दो चरण जोड़कर होता है-(१) सामान्य धर्म और (2) विशेष धर्म। सामान्य धर्म वे दस की संख्या पूरी की गई है। यद्यपि अशोक के शिलालेखों में हैं जिनका पालन सभी वर्ण एवं आश्रमों के लोगों को करना चाहिए, जिन नौ धर्मों या सद्गुणों की चर्चा की गई है, वे जैन परम्परा और जबकि विशेष धर्म वे हैं जिनका पालन वर्ण विशेष या आश्रम विशेष हिन्दू परम्परा के काफी निकट आते हैं। वे गुण निम्न हैं—दया, उदारता, के लोगों को करना होता है। सामान्य धर्म की चर्चा अति प्राचीन काल सत्य, शुद्धि (शौच), भद्रता, शान्ति, प्रसन्नता, साधुता और से होती आयी है। मनु ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच और इन्द्रिय- आत्मसंयम।८ निग्रह इन पाँच को सभी वर्णाश्रम वालों का धर्म बताया है।५२ प्रसंगान्तर इस प्रकार स्पष्ट होता है कि जैन, बौद्ध और हिन्दू तीनों धर्मों से उन्होंने इन दस सामान्य धर्मों की भी चर्चा की है-धृति, क्षमा, में वर्णित इन दशविध धर्मों में क्रम और नामों के किञ्चित् पारस्परिक दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध।५३ मतभेद के अतिरिक्त मूलभूत सैद्धान्तिक-दृष्टि से कोई विशेष अन्तर इस सूची में क्षमा, शौच, और सत्य ही ऐसे हैं जो जैन परम्परा के नहीं स्पष्ट होता है। इन सद्गुणों के पालन में प्रमुखता किसे दी जाये, इस नामों से पूरी तरह मेल खाते हैं, शेष नाम भिन्न हैं। महाभारत के सम्बन्ध में तीनों धर्मों के विचारकों में मतभेद हो सकता है, जो वस्तुतः शान्तिपर्व में अक्रोध, सत्यवचन, संविभाग, क्षमा, प्रजनन, शौच, देश, काल और परिस्थिति के अधीन होने के कारण स्वाभाविक भी है। , संदर्भ : 1. आचाराङ्ग, संपा- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1980, 1/6/5 / 2. स्थानाङ्ग, संपा०- मधुकर मुनि प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1981, 10/14 / / समवायाङ्ग, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, 10/1 / 4. तत्त्वार्थसूत्र, संपा०- जुगल किशोर मुख्तार, वीर सेवा मन्दिर, सहारनपुर, 1944, 9/6 / 5. दशवैकालिकसूत्र, संपा० - मधुकर मुनि प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1985, 8/38 / 6. वही, 8/39 / / आवश्यकसूत्र-क्षमापणा पाठ, संपा० - मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1985 / उपासकदशाङ्गसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर 1980,1/84 / 8.
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________ 522 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 9. अङ्गत्तरनिकाय,अनु० - भदन्त आनन्द कौसल्यायन, प्रका० - महाबोधि 34. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर वि० सं० 2018, 16/3, 17/14, सभा, कलकत्ता, 1/12/2 / / 18/42 / / संयुक्तनिकाय, संपा०- जगदीश कश्यप एवं धर्मरक्षित, प्रका०- 35. गीता शाङ्करभाष्य, गीता प्रेस, गोरखपुर, 13/7 / महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी, 1954, 10/12 / 36. आचाराङ्गसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन 11. धम्मपद, अनु०- पं० राहुल सांकृत्यायन, प्रका०- बुद्धविहार, समिति, ब्यावर, 1980, 1/3/3/119 / लखनउ, 184 / 37. दशवैकालिकसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रकाशन समिति ब्यावर, 12. बोधिचर्यावतार, संपा०- श्री परशुराम शर्मा, प्रका० - मिथिला 1985, 1/1 / / विद्यापीठ, दरभंगा, 1960, 6/2 / 38. अभिधानराजेन्द्रकोष, खण्ड 7, श्री विजय राजेन्द्र सूरि, रतलाम, 13. गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं० 2018, 10/4, 16/3 / पृ० 87 / 14. महाभारत, उद्योगपर्व, गीता प्रेस, गोरखपुर, 33/49, 58 / 39. धम्मपद, अनु०- पं- राहुल सांकृत्यायन, प्रका०- बुद्धविहार, 15. दशवैकालिकसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन लखनउ, 375 / समिति, ब्यावर, 1985, 8/39 / / 40. वही, 361 / 16. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन 41. गीता, प्रका०- गीता प्रेस, गोरखपुर, वि०सं०, 2018, 2/61 / पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० 2478, 1/45 / 42. वही, 426 / 17. वही, 1/45 / 43. वही, 4/29 / 18. अङ्गुत्तरनिकाय, अनु०- भदन्त आनन्द कौसल्यायन, प्रका०- 44. चुल्लनिद्देशपालि, संपा०- भिक्षु जगदीश, पालि पब्लिकेशनबोर्ड, महाबोधि सभा, कलकत्ता, 3/39 / बिहार गवर्नमेन्ट, 1959, 2/10/63 / 9. सुत्तनिपात,अनु०- भिक्षु धर्मरत्न, महाबोधि सभा, बनारस, 1950, 45. मज्झिमनिकाय, संपा०- एन० के० भागवत, प्रका०- बम्बई 1/6/14 / विश्वविद्यालय, 1967, 77 देखिए - भगवान् बुद्ध, पृ० 278 / 20. गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं० 2018, 16/14-15 / 46. दशवैकालिकसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका० - श्री आगम प्रकाशन 21. वही, 16/171 समिति, ब्यावर, 1985, 5/2/37 / 22. महाभारत, शांतिपर्व, संपा०- श्री रामनारायण दत्त पाण्डेय, प्रका०- 47. धम्मपद, अनु०-पं० राहुल सांकृत्यायन, प्रका०- बुद्धविहार,लखनऊ, गीता प्रेस, गोरखपुर, 1960, 176/17/18 / 204 / 23. दशवैकालिकसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन 48. गीता, प्रका०- गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं०, 2018, 12/14, समिति, ब्यावर, 1985, 8/38 / 19 / 28. पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० 2478, 29/48 / 25. दशवैकालिकसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1985, 5/2/46 / / 26. वही, 5/2/49 / / 27. अङ्गत्तरनिकाय, अनु०- भदन्त आनन्द कौसल्यायन, प्रका० महाबोधि सभा, कलकत्ता, 2/15-16 / महाभारत, शांतिपर्व, संपा०- श्री राम नारायण दत्त पाण्डेय, प्रका०- गीता प्रेस, गोरखपुर, 1960, 175/37 / 29. गीता, गीता प्रेस गोरखपुर, वि० सं० 2018, 16/1 / 30. वही, 17/14 / / 31. वही, 13/7-11 / / 32. तत्त्वार्थसूत्र (सुखलालजी की विवेचनासहित), प्रका०- पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, पृ० 210 / 33. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा०- रतनलाल दोशी, श्रमणोपासक जैन पुस्तकालय, सैलाना, वीर सं० 2478, 12/46 / बनारस, 1950, 26/21 / 50. गीता, प्रका०- गीता प्रेस,गोरखपुर, वि० सं० 2018, 17/14 / 51. वही, 6/14 / 52. मनुस्मृति, प्रका० - पुस्तक मन्दिर, मथुरा, वि० सं० 2015, 10/ 63 / 53. वही, 6/92 / 54. महाभारत, आदिपर्व, प्रका०- गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं० 2045, 66/15 / 55. श्रीमद्भागवत, गीता प्रेस, गोरखपुर, वि० सं० 2045, 4/49 / 56. वही, 4/1/50-53 / 57. अङ्गत्तर निकाय, अनु०. भदन्त आनन्द कौसल्यायन, प्रका०. महाबोधि सभा, कलकत्ता, 10 / 58. अशोक के अभिलेख, डा० राजबली पाण्डेय, प्रका० - वाराणसी ज्ञान मंडल लिमिटेड, सं० 2022, स्तम्भ, 2 एवं 7 /