Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य जवाहर
ब्रह्मचारी बना है, उसे अखण्ड ब्रह्मचारी कहते हैं। अखण्ड ब्रह्मचारी का मिलना इस काल में अत्यन्त कठिन है। आजकल तो अखंड ब्रह्मचारी के दर्शन भी दुर्लभ हैं। अखंड ब्रह्मचारी में अद्भुत शक्ति होती है। उसके लिए क्या शक्य नहीं है? वह चाहे सो कर सकता है। अखंड ब्रह्मचारी अकेला सारे ब्रह्माण्ड को हिला सकता है। अखंड ब्रह्मचारी वह है जिसने अपनी समस्त इन्द्रियों को और मन को अपने अधीन बना लिया हो-जो इन्द्रियों और मन पर पूर्ण आधिपत्य रखता हो। इन्द्रियाँ जिसे फुसला नहीं सकतीं, मन जिसे विचलित नहीं कर सकता, ऐसा अखण्ड ब्रह्मचारी ब्रह्म का शीघ्र साक्षात्कार कर सकता है। अखंड ब्रह्मचारी की शक्ति अजबगजब की होती है।
२-ब्रह्मचर्य का व्यापक अर्थ परमात्मा के प्रति विश्वास स्थिर क्यों नहीं रहता? यह प्रश्न अनेकों के मस्तिष्क में उत्पन्न होता है। इसका उत्तर ज्ञानी यह देते हैं कि आन्तरिक निर्बलता ही परमात्मा के प्रति विश्वास को स्थायी नहीं रहने देती। परमात्मा के प्रति विश्वास न होने के जो कारण हैं, उनमें से एक कारण है ब्रह्मचर्य का अभाव। जीवन में यदि ब्रह्मचर्य की
प्रतिष्ठा हुई तो निसन्देह ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धाभाव स्थायी रह ब्रह्मचर्य
सकता है। ब्रह्मचर्य शब्द कैसे बना है और वह क्या वस्तु है? सर्वप्रथम इस
ज्ञानीजन कहते हैं-समस्त इन्द्रियों पर अंकुश रखना और बात पर विचार करना चाहिए। हमारे आर्यधर्म के साहित्य में ब्रह्मचर्य विषयभोग में इन्द्रियों को प्रवत्त न होने देना पूर्ण ब्रह्मचर्य है और वीर्य शब्द का उल्लेख मिलता है। जिन दिनों अवशेष संसार यह भी नहीं की रक्षा करना अपूर्ण ब्रह्मचर्य है। आज वीर्य रक्षा तक ही ब्रह्मचर्य जानता था कि वस्त्र क्या होते हैं और अन्न क्या चीज है तथा नङ्ग- की सीमा स्वीकार की जाती है। पर वास्तव में सब इन्द्रियाँ और मन धडंग रहकर, कच्चा माँस खाकर अपना पाशविक जीवन-यापन कर को विषयों की ओर प्रवृत्त न होने देना पूर्ण ब्रह्मचर्य है। केवल वीर्यरक्षा रहा था, उन दिनों भारत बहुत ऊँची सभ्यता का धनी था। उस समय अपूर्ण ब्रह्मचर्य है। अलबत्ता अपूर्ण ब्रह्मचर्य की साधना के द्वारा पूर्ण भी उसकी अवस्था बहुत उन्नत थी। यहाँ के ऋषियों ने, जो संयम, ब्रह्मचर्य तक पहँचा जा सकता है। योगाभ्यास, ध्यान, मौन आदि अनुष्ठानों में लगे रहते थे, संसार में
. ३-वीर्य का दुरुपयोग ब्रह्मचर्य नाम को प्रसिद्ध किया। ब्रह्मचर्य का महत्व तभी से चला आता देश में आज जो रोग, शोक, दरिद्रता आदि जहाँ-तहाँ दृष्टिगोचर है-जब से धर्म की पुनः प्रवृत्ति हुई। भगवान् ऋषभदेव ने धर्म में होते हैं उन सबका एकमात्र कारण वीर्यनाश है। आज बेकार वस्तु की ब्रह्मचर्य को भी अग्रस्थान प्रदान किया था। साहित्य की ओर दृष्टिपात तरह वीर्य का दुरुपयोग किया जा रहा है। लोग यह नहीं जानते कि कीजिए तो विदित होगा कि अत्यन्त प्राचीन साहित्य-आचारांग सूत्र
वीर्य में कितनी अधिक शक्ति विद्यमान है। इसी कारण विषय-भोग में तथा ऋग्वेद में भी ब्रह्मचर्य की व्याख्या मिलती है। इस प्रकार आर्य
वीर्य का नाश किया जा रहा है। उसी में आनन्द माना जा रहा है। ऐसा प्रजा को अत्यन्त प्राचीन काल से ब्रह्मचर्य का ज्ञान मिल रहा है।
करने से जब अधिक सन्तान उत्पन्न होती है तो घबराहट पैदा होती १- ब्रह्मचर्य की शक्ति
है। पर उनसे मैथुन त्यागते नहीं बनता। भारतीयों को इस प्रश्न पर आजकल ब्रह्मचर्य शब्द का सर्वसाधारण में कुछ संकुचित-सा
गहरा विचार करना चाहिये। विदेशी लोग ब्रह्मचर्य की महत्ता को भले अर्थ समझा जाता है। पर विचार करने से मालूम होता है कि वास्तव ही न समझते हों या स्वीकार न करते हों परन्तु भारत में तो ऐसे महान् में उसका अर्थ बहुत विस्तृत है। ब्रह्मचर्य का अर्थ बहुत उदार है ब्रह्मचारी हो गये हैं जिन्होंने ब्रह्मचर्य द्वारा महान शक्ति लाभ कर जगत अतएव उसकी महिमा भी बहुत अधिक है। हम ब्रह्मचर्य का के समक्ष यह आदर्श उपस्थित कर दिया है कि ब्रह्मचर्य के प्रशस्त महिमागान नहीं कर सकते। जो विस्तृत अर्थ को लक्ष्य में रखकर पथ पर चलने में ही मानव समाज का कल्याण है। ब्रह्मचर्य ही कल्याण
विद्वत खण्ड/६
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
का मार्ग है। यह समझते-बूझते हुए भी विषय-भोग में सुख मानना और प्रकार की होती है। यह बात प्राय: सभी जानते है कि जैसी भावना जब संतान उत्पन्न हो तो उसका निरोध करने के लिए कृत्रिम उपाय होती है, वैसा स्वप्न आता है। इसी प्रकार संतान के विषय में माताकाम में लाना घोर अन्याय है। वीर्य को वृथा बर्बाद करने के समान पिता की भावना जैसी होती है, वैसी ही सन्तान बन जाती है। जिस दूसरा कोई अन्याय नहीं है।
प्रकार भावना से स्वप्न का निर्माण होता है, इसी प्रकार भावना से हमारे अन्दर जो शांति और साहस है, वह वीर्य के ही प्रताप से संतान के विचारों और कार्यों का निर्माण होता है। नीच विचार करने है। अगर शरीर में वीर्य न हो तो मनुष्य हलन-चलन गमनागमन आदि से खराब स्वप्न आता है और यही बात संतान के विषय में भी समझनी क्रियाएँ करने में भी समर्थ नहीं हो सकता।
चाहिये। संतान के विषय में तुम जैसी भावना लाओगे, आगे चलकर ४-ब्रह्मचर्य का महत्व
संतान वैसी ही बन जायेगी। अतएव सन्तान के लिए और अपने लिए जो भाई-बहिन ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे वे संसार को अनमोल ब्रह्मचर्य की भावना निरन्तर करनी चाहिये। रत्न प्रदान करने में समर्थ हो सकेंगे। हनुमानजी का नाम कौन नहीं
७-दूसरा नियम जानता? आलंकारिक भाषा में कहा जाता है कि उन्होंने लक्ष्मणजी के ब्रह्मचर्य का दूसरा नियम भोजन-सम्बन्धी विवेक है। कुछ लोग लिए द्रोण पर्वत उठाया था। उसी पर्वत का एक टुकड़ा गिर पड़ा, जो ऐसा समझते हैं कि जिस खानपान में आनन्द आता है, वही भोजन गोवर्धन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अलंकार का आवरण दूर कर दीजिए अच्छा है, पर यह मान्यता भ्रमपूर्ण है। ब्रह्मचारी के भोजन में और
और विचार कीजिये तो इस कथन में हनुमानजी का प्रचण्ड शक्ति का अब्रह्मचारी के भोजन में बड़ा अन्तर होता है। गीता में रजोगुणी, दिग्दर्शन आप पाएँगे। हनुमानजी में इतनी शक्ति कहाँ से आई? यह तमोगुणी और सतोगुणी का भोजन अलग-अलग बताया है। पर आज महारानी अंजना और महाराज पवनजी का बारह वर्ष की अखण्ड के लोग जिह्वा के वशवर्ती बनकर भोजन के गुलाम हो रहे हैं। यदि ब्रह्मचर्य की साधना का प्रताप था। उनके ब्रह्मचर्य पालन ने संसार को तुम अपनी जीभ पर भी अंकुश नहीं रख सकते तो तुम आगे किस एक ऐसा उपहार, ऐसा वरदान दिया, जो न केवल अपने समय में ही प्रकार बढ़ सकोगे? विद्याभ्यास और शास्त्र श्रवण का फल यही है कि अद्वितीय था, वरन् आज तक भी वह अद्वितीय समझा जाता है और बुरे कामों की प्रवृत्ति न की जाय। आजकल खान-पान के सम्बन्ध में शक्ति की साधना के लिए उसकी पूजा भी की जाती है। बड़ी भयंकर भूलें हो रही हैं और हालत ऐसी जान पड़ती है मानो
बहिनों! अगर तुम्हारी हनुमान सरीखा शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न विद्याभ्यास का फल खानपान का भान भूल जाना ही हो। करने की साध है तो अपने पति को कामुक बनाने वाले साज-सिंगार
८-विनाश के कारण और हावभाव त्याग कर स्वयं ब्रह्मचर्य की साधना करो और पति को वीर्यनाश का एक कारण एक ही कमरे में, एक ही बिछौने पर भी ब्रह्मचर्य पालन करने दो।
स्त्री पुरुष का शयन करना भी है। एक ही कमरे में और एक शय्या ५-ब्रह्मचर्य ही जीवन है
पर सोने से वीर्य स्थिर नहीं रह सकता। शास्त्र में जहाँ स्त्री और पुरुष अपूर्ण ब्रह्मचर्य केवल वीर्यरक्षा को कहते हैं। वीर्य वह वस्तु है के सोने का वर्णन मिलता है वहाँ ऐसा ही वर्णन मिलता है कि स्त्री जिसके सहारे सारा शरीर टीका हुआ है। यह शरीर वीर्य से बना भी और पुरुष अलग-अलग शयनागार में सोते थे। पर आज इस विषय है। अतएव आँखें वीर्य हैं। कान वीर्य हैं। नासिका वीर्य है। हाथ पैर में नियम का पालन होता नजर नहीं आता। वीर्य हैं। सारे शरीर का निर्माण वीर्य से हुआ है, अतएव सारी शरीर निष्क्रिय बैठे रहना भी वीर्यनाश का एक कारण है। जो लोग वीर्य है। जिस वीर्य से सम्पूर्ण शरीर का निर्माण होता है उसकी शक्ति अपने शरीर और मन को किसी सत्कार्य में संलग्न नहीं रखते, उन क्या साधारण कही जा सकती है? किसी ने ठीक ही कहा है- लोगों का वीर्य भी स्थिर नहीं रह सकता। यदि शरीर और मन को मरण बिन्दुपातेन, जीवन बिन्दुधारणात् ।
निष्क्रिय न रखा जाय तो वीर्य को हानि नहीं पहँचती। ६-अपूर्ण ब्रह्मचर्य का प्रथम नियम
रात्रि में देर तक जागरण करना, सूर्योदय के बाद भी सोते रहना अपूर्ण ब्रह्मचर्य के दस नियमों में पहिला नियम भावना है। माता- और अश्लील साहित्य का पढ़ना, ये सब भी वीर्यनाश के कारण हैं। पिता को ऐसी भावना लानी चाहिए कि मेरा पुत्र वीर्यवान् और जगत् अश्लील चित्र देखने से और अश्लील पुस्तकें पढ़ने से भी वीर्य स्थिर का कल्याण करने वाला बने। इस प्रकार की भावना से बहुत लाभ नहीं रहता। आज जहाँ-तहाँ अश्लील पुस्तकें पढ़ने और अश्लील होता है। आप लोगों को अलग-अलग तरह के स्वप्न आते होंगे। चित्र देखने का प्रचार हो गया है। आजकल लोग महापुरुषों और इसका कारण क्या है? कारण यही है कि सब की भावना भिन्न-भिन्न महासतियों के जीवन चरित्र पढ़ने के बदले अश्लीलतापूर्ण पुस्तकें
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/७
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
पढ़ने के शौकीन हो गये हैं। उन्हें यह विचार ही नहीं आता कि ऐसा करने से जीवन में कितने विकार आ घुसे हैं। कहावत है- 'जैसा वाचन वैसा विचार' । इस कहावत के अनुसार अश्लील पुस्तकों के पठन से लोगों के विचार भी अश्लील बनते जा रहे हैं।
नाटक-सिनेमा देखना भी वीर्यनाश का कारण है आजकल नाटक-सिनेमा की धूम मची हुई है जहाँ देखो वहाँ गरीब से लेकर अमीर तक सबको नाटक-सिनेमा में फंसाने का प्रयत्न किया जा रहा है और इस प्रकार सिनेमा वीर्यनाश के साधन बन रहे हैं। ९ - सिनेमा और ग्रामोफोन
आजकल के सिनेमा तो नैतिकता से इतने पतित और निर्लज्जतापूर्ण होते सुने जाते हैं कि कोई भला मानुष अपने बालबच्चों के साथ उन्हें देख नहीं सकता। सिनेमा के कारण आज लाखों नवयुवक आचरणहीन बन रहे हैं। इन सिनेमाओं की बदौलत भारतीय नारी अपनी महत्ता का विस्मरण कर भारतीय सभ्यता के में मूल कुठाराघात कर रही है। यह अत्यन्त खेद की बात है। इसी प्रकार ग्रामोफोन को भी आनन्द का साधन समझा जाता है पर उसके द्वारा संस्कारों में कितनी बुराइयाँ घुस रही हैं, इस ओर कितने लोगों का ध्यान जाता है ?
१०- ब्रह्मचर्य साधन
I
ब्रह्मचर्य पालने वालों को अथवा जो ब्रह्मचर्य पालन चाहते हैं उन्हें विलासपूर्ण वस्त्रों से आभूषणों से आहार से सदैव बचते रहना चाहिये। मस्तिष्क में कुविचारों का अंकुर उत्पन्न करने वाले साहित्य को हाथ भी नहीं लगाना चाहिए जो पुस्तकें धर्म, देश भक्ति की भावना जागृत करने वाली और चरित्र को सुधारने वाली होती हैं उनमें अंग्रेज सरकार राजनीति की गंध सूंघती है और उन्हें जब्त कर लेती है पर जो पुस्तकें ऐसा गंदा और घासलेटी साहित्य बढ़ाती हैं, प्रजा का सर्वनाश कर रही हैं, उनकी ओर से वह सर्वथा उदासीन रहती है। यह कैसी भाग्यविडम्बना है ?
११ वीर्य की महिमा
स्वप्न में भी वीर्य का नाश होता है। कुछ लोग कहा करते हैं कि वीर्य रक्षा से स्वप्नदोष होता है पर यह कथन भ्रमपूर्ण है। इस भ्रामक विचार का परित्याग करके स्वप्नदोष के असली कारण का पता लगाना चाहिये। फिर उस कारण से बचकर दोषनिवारण का प्रयत्न करना चाहिये। जब तुम सो रहे हो, तब तुम्हारी जेब में से अगर कोई रन निकाल कर ले जाने लगे और उस समय तुम जाग उठो तो आँखों देखते क्या रत्न ले जाने दोगे ? नहीं, तो फिर स्वप्नदोष के कारण जानबूझ कर वीर्य को नष्ट होने देना कहाँ तक उचित कहा जा सकता है ?
विद्वत खण्ड / ८
१२- ब्रह्मचर्य और रसनानिग्रह
ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए, साथ ही स्वास्थ्य की रक्षा के लिए जिहा पर अंकुश रखने की आवश्यकता है जिह्वा पर अंकुश न रखने से अनेक प्रकार की खनियाँ होती हैं। इसके विपरीत जो मनुष्य अपनी जीभ पर काबू रखता है उसे प्रायः वैद्यों और डॉक्टरों के द्वार पर भटकने की आवश्यकता नहीं रहती ।
1
अनेक लोग ऐसे हैं जिनके लिए जीवन की अपेक्षा भोजन अधिक महत्व की वस्तु है वे जीने के लिए नहीं खाने के लिए जीते हैं। भले ही कोई सीधी तरह इस बात को स्वीकार न करे मगर उसके भोजन- व्यवहार को देखने से यह सत्य साफ तौर से प्रगट हुए बिना नहीं रहेगा। यही कारण है कि अधिकांश लोग जीवन के शुभ-अशुभ की कसौटी पर भोजन की परख नहीं करते। वे जिला को कसौटी बनाकर भोजन की अच्छाई-बुराई की जाँच करते हैं। जो जीवन की दृष्टि से भोजन करता है वह स्वास्थ्य नाशक और जीवन को भ्रष्ट करने वाला भोजन कैसे कर सकता है ? कुशल मनुष्य अज्ञात व्यक्ति को सहसा अपने घर में स्थान नहीं देता। तब जिस भोजन के गुण-दे -दोष का पता न हो उसे पेट में स्थान देना कहाँ तक उचित कहा जा सकता है? जो ऐसे भोजन को पेट में ठूंस लेता है, उसके पेट को भोजनपिटारे के सिवा और क्या कहा जा सकता है?
एक विद्वान का कथन है कि दुनिया में जितने आदमी खाने-पीने से मरते हैं, उतने खाने-पीने के अभाव से नहीं मरते लोग पहले ठूंसठूंस कर खाते हैं, फिर डॉक्टर की शरण लेते हैं। आज जो आदमी जितनी अधिक चीजें अपने भोजन में समाविष्ट करता है वह उतना ही बड़ा आदमी गिना जाता है, मगर शास्त्र का आदेश यह है कि जो जितना महान त्यागी है वह उतना ही महान् पुरुष है। शास्त्र में आनन्द श्रावक का वर्णन करते हुए कहा गया है कि बारह करोड़ स्वर्ण मोह का और चालीस हजार गायों का धनी होने पर भी उसने अपने खानेपीने के लिए कुछ गिनती की चीजों की ही मर्यादा कर ली थी। इस प्रकार खान-पान के विषय में जो जितना संयम रखता है वह उतना ही महान् है । जिह्वासंयम से स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है। नागरिकों को जितना और जैसा भोजन मिलता है, उतना और वैसा किसानों को नहीं फिर भी अगर दोनों की कुश्ती हो तो किसान ही विजयी होगा। यह कौन नहीं जानता कि सभ्य और बड़े कहलाने वाले लोगों की अपेक्षा किसान अधिक स्वस्थ और सबल होता है। इसका एक कारण सादा और सात्विक भोजन है।
इस तरह अधिक भोजन करने से स्वास्थ्य सुधरने की जगह बिगड़ता है। विकृत भोजन करने में स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है और चरित्र को भी इसी कारण विकृत (विगय) भोजन करने का शास्त्र में निषेध किया गया है।
+
शिक्षा - एक यशस्वी दशक
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
ब्रह्मचर्य का भोजन के साथ घनिष्ट सम्बन्ध है। भोगी का भोजन ब्रह्मचर्य पालन से किसी को किसी रोग का शिकार होना पड़ा है और और योगी का भोजन एक-सा नहीं हो सकता। ब्रह्मचर्य की साधना न ऐसा कोई उदाहरण ही देखा गया है। हाँ, ठीक इससे उल्टे जो लोग करने वालों को ऐसा और इतना ही भोजन करना चाहिये जिससे शरीर विषयी होते हैं, वे ही रोगों द्वारा सताये जाते हैं। यह बात तो प्रत्यक्ष की रक्षा हो सके और जो ब्रह्मचर्य में बाधक न होकर साधक हो। दिखाई देती है। अतएव अपने हृदय से इस भ्रान्ति को निकाल फेंको अधिक गरिष्ठ, तेज, मसालेदार और परिमाण से अधिक भोजन सर्वथा कि ब्रह्मचर्य से रोग पैदा होते हैं। ब्रह्मचर्य जीवन है। उससे शक्ति का हानिकारक है।
विकास होता है। जहाँ शक्ति है, वहाँ रोगों का आक्रमण नहीं होता। १३-ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में लोगों की भ्रान्त धारणा अशक्त और दुर्बल पुरुष ही रोगों द्वारा सताये जाते हैं।
विषय-भोग की कामना का नियन्त्रण नहीं हो सकता, यह कामना खेद है कि लोगों के मन में यह भ्रम उत्पन्न हो गया है कि विषय अजेय है, इस प्रकार की दुर्भावना पुरुष-समाज में एक बार पैठ पाई, भोग की इच्छा का दमन करना अशक्य है। परन्तु जैसे नेपोलियन ने तो भयंकर अनर्थ होंगे और उन अनर्थो की परम्परा का सामना करना। असम्भव शब्द कोश में से निकाल डालने को कहा था उसी प्रकार सहज नहीं होगा।
तुम अपने हृदय में से निकाल बाहर करो। ऐसा करने से तुम्हार यद्यपि आजकल भी अनेक लोग हैं, जिनकी यह भ्रान्त धारणा मनोबल सुदृढ़ बनेगा और तब विषय-भोग की कामना पर विजय प्राप्त हो गई है कि मनुष्य कामभोग की वासना पर विजय नहीं प्राप्त कर करना तनिक भी कठिन न होगा। सकता। संभवत: वे लोग मनुष्य को काम वासना का कीड़ा समझते
त्रिविध ब्रह्मचर्य हैं। पर प्राचीन आर्य-ऋषियों का अनुभव इस धारणा का विरोध करता है। कोई व्यक्ति विशेष ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ रहे, यह
१-ब्रह्मचर्य शब्द की प्रवृत्ति का निमित्त एक बात है और यह कहना कि ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से पालन करना
'ब्रह्मचर्य' एक ही शब्द नहीं है, किन्तु 'ब्रह्म' शब्द में 'चर्य' संभव नहीं है, दूसरी बात है। किसी व्यक्ति की असमर्थता के आधार
कृत प्रत्ययान् से बना हुआ संस्कृत शब्द है। ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य। पर किसी व्यापक सिद्धान्त का निर्माण कर बैठना, सच्चाई के साथ
'ब्रह्म' शब्द के वैसे तो कई अर्थ होते हैं, परन्तु यहाँ यह शब्द वीर्य, अन्याय करना है। इस प्रकार असमर्थता की ओट में विषयभोगों का
विद्या और आत्मा के अर्थ में है। 'चर्य' का अर्थ, रक्षण, अध्ययन तथा विचार करना सर्वथा अनुचित है।
चिन्तन है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ वीर्यरक्षा, विद्याध्ययन और आज भी संसार में ऐसे व्यक्तियों का मिलना असंभव नहीं है
आत्म-चिन्तन है। ‘ब्रह्म' का अर्थ उत्तम काम या कुशलानुष्ठान भी जो बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जन-सेवा कर रहे
होता है, इसलिये ब्रह्मचर्य का अर्थ उत्तम या कुशलानुष्ठान का हैं। फिर भीष्म और भगवान् नेमिनाथ जैसे पवित्र ब्रह्मचारियों का उच्च
आचरण भी है। ब्रह्मचर्य शब्द के इन अर्थों पर दृष्टिपात करने से हम आदर्श जिन्हें मार्ग-प्रदर्शन कर रहा हो, उन भारतवासियों के हृदय में
इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि जिस आचरण द्वारा आतम-चिन्तन हो, न जाने यह भूत कैसे घुस गया है कि विषय वासना पर काबू रखना
आत्मा अपने आपको पहचान सके और अपने लिए वास्तविक सुख शक्य नहीं है। साधु हुए बिना ब्रह्मचर्य का पालन हो ही नहीं सकता
प्राप्त कर सके, उस आचरण का नाम 'ब्रह्मचर्य' है। इस अर्थ में और गृहस्थ-जीवन में ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान एकदम अशक्यानुष्ठान
ब्रह्मचर्य शब्द के ऊपर कहे हुए सभी अर्थ आ जाते हैं। है! वास्तव में यह धारणा सर्वथा भ्रमपूर्ण है। मनोबल दृढ़ होने पर पूर्ण
२-ब्रह्मचर्य की परिभाषा या नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है। यही नहीं वरन्
आत्मचिन्तन के लिए, इन्द्रियों और मन पर विजय पाना विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए गृहस्थ जीवन में भी ब्रह्मचर्य का
आवश्यक है। प्राकृतिक नियमों के अनुसार इन्द्रियाँ मन के, मन बुद्धि पालन किया जा सकता है। ब्रह्मचर्य पालने से किसी भी प्रकार की
के और बुद्धि आत्मा के अधीन एवं आत्मा की सहायिका होनी हानि की सम्भावना नहीं है। यही नहीं किन्तु अनेक प्रकार के लाभ होते
चाहिये। ऐसा होने पर ही आत्मा अपने आपको जान सकता है, इन्द्रियाँ हैं। कहा भी है :
मन और बुद्धि का कर्तव्य, आत्मा को बलवान् तथा पुष्ट बनाना है। ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ।
बलवान् आत्मा ही अपना स्वरूप जान सकता है, विद्याध्ययन में समर्थ कुछ महानुभावों ने एक नये सिद्धान्त का आविष्कार किया है।
हो सकता है और उत्तम काम तथा कुशलानुष्ठान कर सकता है। उनकी अनोखी सी समझ यह है कि ब्रह्मचर्य का पालन करने से शरीर ।
इसलिये इन्द्रियों, मन और बुद्धि का काम आत्मा को बलवान् बनाना, में रोग उत्पन्न होते हैं। पर न तो आज तक यह सना गया है कि आत्मा के हित को दृष्टि में रखना, आत्मा का अहित करने वाले कामों
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/९
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
से दूर रहना है। इन्द्रियों और मन का अपने इस कर्तव्य पर स्थिर रहने इन्द्रियाँ और मन दुर्विषयों की ओर न दौड़ें। यदि एक भी इन्द्रिय का नाम ही 'ब्रह्मचर्य' है।
दुर्विषय की ओर दौड़ती है-उसे चाहती है और उसमें सुख भी आत्मा का हित अपना स्वरूप जानने में है। आत्मा अपना मानती है तो सम्पूर्णतया वीर्यरक्षा कदापि नहीं हो सकती। इसलिये स्वरूप तभी जान सकता है-जब उसके सहायक एवं सेवक इन्द्रियाँ पूर्ण रीति से वीर्यरक्षा का अर्थ भी वही है, जो ऊपर कहा गया है तथा मन, उसके आज्ञावर्ती और शुभचिन्तक हों। विपरीतावस्था में अर्थात् सर्वप्रकार के असंयम-परित्याग-रूप इन्द्रियों और मन का आत्मा का अहित स्वाभाविक ही है। आत्मा के सहायक तथा सेवक संयम। वे ही इन्द्रियाँ और मन हैं, जो सुख की अभिलाषा से दुर्विषयों की ओर ५-ब्रह्मचर्य के तीन भेद और उनका सम्बन्ध न दौड़ें। इन्द्रियों का सुख की अभिलाषा से दुर्विषयों की ओर दौड़ना ब्रह्मचर्य मन, वचन और शरीर से होता है, इसलिये ब्रह्मचर्य तथा मन का इन्द्रियानुगामी होना आत्मा के लिए अहितकारक है। के तीन भेद होते हैं अर्थात् मानसिक-ब्रह्मचर्य, वाचिक-ब्रह्मचर्य और आत्मा का हित तभी है, जब न तो इन्द्रियाँ दुर्विषयों की ओर दौड़े और शारीरिक-ब्रह्मचर्य। मन, वचन और काय इन तीनों द्वारा पालन किया न इन्द्रियों के साथ ही साथ मन भी आत्मा का अशुभ-चिन्तक बने। गया ब्रह्मचर्य ही पूर्ण ब्रह्मचर्य है अर्थात् न मन में ही अब्रह्मचर्य की इन्द्रियाँ और मन का दुर्विषयों की ओर न दौड़ना, दुर्विषयों की चाह न भावना हो, न वचन द्वारा ही अब्रह्मचर्य प्रगट हो और न शरीर द्वारा करना और सुख की लालसा से उन्हें न भोगना ही 'ब्रह्मचर्य' है। ही अब्रह्मचर्य की क्रिया की गई हो इसका नाम पूर्ण ब्रह्मचर्य है।
इन्द्रियाँ पाँच है-कान, आँख, नाक, जीभ और त्वचा। इन याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा हैपाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय हैं-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श
कायेन मनसा वाचा, सविस्थासु सर्वदा । अर्थात् सुनना, देखना, सूंघना, स्वाद लेना और छूना। यद्यपि ये
सर्वत्र मैथुनत्यागो, ब्रह्मचर्य प्रचक्षते ।। इन्द्रियाँ हैं सुनने, देखने, सूंघने, स्वाद लेने और स्पर्श करने के लिए शरीर, मन और वचन से, सभी अवस्थाओं में सर्वदा और ही-इसी कारण इनका नाम ज्ञानेन्द्रियाँ भी है- लेकिन ये ज्ञानेन्द्रियाँ सर्वत्र मैथुन-त्याग को ब्रह्मचर्य कहा है। तभी होती हैं और तभी आत्मा का हित भी कर सकती हैं, जब कायिक ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं, जिसके सद्भाव में, शरीर द्वारा दुर्विषयों में लिप्त न हों, उनके भोग में सुख न माने और अपने आप अब्रह्मचर्य की कोई क्रिया न की गई हो अर्थात् शरीर से अब्रह्मचर्य को दुर्विषय-भोग के लिए न समझें। इसी प्रकार मन भी आत्मा का में प्रवृत्ति न हुई हो। मानसिक ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं जिसके सद्भाव हित करने वाला तभी है, जब वह अपने पद से भ्रष्ट होकर, इन्द्रियों में दुर्विषयों का चिन्तन न किया जावे, अर्थात् मन में अब्रह्मचर्य की का अनुगामी न बन जावे और न इन्द्रियों को ही दुर्विषयों की ओर भावना भी न हो। वाचिक-ब्रह्मचर्य उसे कहते हैं जिसके सद्भाव में जाने दे। मन का काम इन्द्रियों को सुख देना नहीं, किन्तु आत्मा को अब्रह्मचर्य के सद्भाव को पूर्ण ब्रह्मचर्य कहते हैं। सुख देना है और इन्द्रियों को भी उन्हीं कामों में लगाना है, जिनसे कायिक, मानसिक और वाचिक ब्रह्मचर्य का परस्पर कर्ता आत्मा सुखी हो। इन्द्रियों और मन का, इस कर्तव्य को समझ कर क्रिया और कर्म का सा सम्बन्ध है। पूर्ण ब्रह्मचर्य वहीं हो सकता इस पर स्थिर रहना ही 'ब्रह्मचर्य' है।
है जहाँ उक्त प्रकार के तीनों ब्रह्मचर्य का सद्भाव हो। एक के ३-गाँधीजी कृत ब्रह्मचर्य की परिभाषा
अभाव में दूसरे और तीसरे का-एकदम से नहीं तो शनैः शनैः ___ गाँधीजी ने 'ब्रह्मचर्य' के अर्थ में लिखा है- "ब्रह्मचर्य का अभाव स्वाभाविक है। अर्थ है सभी इन्द्रियाँ और सम्पूर्ण विकारों पर पूर्ण अधिकार कर सारांश यह कि इन्द्रियों का दुर्विषयों से निवृत्त होने, मन का लेना। सभी इन्द्रियों को तन, मन और वचन से, सब समय और सब दुर्विषयों की भावना न करने, दुर्विषयों से उदासीन रहने, मैथुनाङ्गों क्षेत्रों में संयमित करने को 'ब्रह्मचर्य' कहते हैं।'
सहित सब प्रकार के मैथुन त्यागने और मानसिक शक्ति को ४-ब्रह्मचर्य की व्यावहारिक परिभाषा
आत्मचिन्तन, आत्महित-साधन तथा आत्मविद्याध्ययन में लगा देने यद्यपि सब इन्द्रियाँ और मन का दुर्विषयों की ओर न दौड़ने का ही नाम 'ब्रह्मचर्य' है। का नाम ब्रह्मचर्य है, लेकिन व्यवहार में, ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल 'वीर्यरक्षा' ही लिया जाता है। इस व्यावहारिक अर्थ-अर्थात् पूर्ण रुपेण वीर्यरक्षा- से भी इन्द्रियों और मन का दुर्विषयों की ओर दौड़ना ही मतलब निकलेगा। पूर्णतया वीर्यरक्षा तभी हो सकती है, जब सभी
विद्वत खण्ड/१०
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
.
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
लाभ और माहात्म्य 'ब्रह्मचर्य, धर्म रूप पद्मसरोवर का पाल के समान रक्षक है। यह तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं।
दया, क्षमा आदि गुणों का आधार-भूत एवं धर्म की शाखाओं का आधार- सूत्रकृतांग सूत्र
स्तम्भ है। ब्रह्मचर्य चर्म रूप महानगर का कोट है और धर्म रूप महानगर "ब्रह्मचर्य ही उत्तम तप है'।
का प्रधान रक्षक-द्वार है। ब्रह्मचर्य के खण्डित होने पर सभी प्रकार के ब्रह्मचर्य से क्या लाभ होता है और ब्रह्मचर्य का कैसा महात्म्य धर्म, पहाड़ से गिरे हुए कच्चे घड़े के समान चूर-चूर हो जाते हैं।' है, यह संक्षेप में नीचे बताया जाता है।
ब्रह्मचर्य, धर्म का कैसा आवश्यक अंग है, यह बताते हुए और १-शरीर और धर्म का सम्बन्ध
ब्रह्मचर्य की प्रशंसा करते हुए एक मुनि ने कहा हैआत्मा का ध्येय, संसार के जन्म-मरण से छूट कर, मोक्ष प्राप्त पंच महव्वए-सुव्वयमूलं, समणामणाइल साहुसुविणं । करना है। आत्मा इस ध्येय को तभी प्राप्त कर सकता है, जब उसे वेरविरामण पज्जवसाणं, सव्वसमुद्द महोदहितित्थ ।।१।। शरीर की सहायता हो-अर्थात् शरीर स्वस्थ हो। बिना शरीर के धर्म तित्थकरेहिं सुदेसिय मग्गं, नरगतिरिच्छविवज्जियमग्गं । नहीं हो सकता और बिना धर्म के आत्मा अपने उक्त ध्येय तक नहीं सब्बपवित्तसुनिम्मियसारं, सिद्धिविमाण-अवंगुयदारं ।।२।। पहुँच सकता। काव्य ग्रंथों में कहा है
देवनरिंदनमंसियपूइयं सव्वजगुत्तममंगलमग्गं । शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ।
दुद्धरिसं गुणनायकमेक्कं मोक्खपहरसवडिंसगभूयं ।।३।। - कुमारसम्भव
'ब्रह्मचर्य, पाँच महाव्रत का मूल है अत: उत्तम व्रत है अथवा पंच 'शरीर ही सब धर्मों का प्रथम और उत्तम साधन है'। महाव्रत वाले साधुओं के उत्तम व्रतों का ब्रह्मचर्य मूल है। ऐसे ही श्रावकों धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् ।
के सुव्रतों का भी ब्रह्मचर्य मूल है। ब्रह्मचर्य, दोष रहित है, साधुजनों द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का आरोग्य ही मूल साधन है। भलीभाँति पालन किया गया है, वैरानुबन्ध का अन्त करने वाला है और २-ब्रह्मचर्य से शारीरिक स्वस्थता
स्वयंभूरमण महोदधि के समान दुस्तर संसार से तरने का उपाय है।' आत्मा को अपने ध्येय तक पहुँचने के लिए शरीर की ब्रह्मचर्य तीर्थंकरों द्वारा सदुपदेशित है, उन्हीं के द्वारा इसके आवश्यकता है और वह भी आरोग्यता के साथ। अस्वस्थ शरीर, पालन का मार्ग बताया गया है और इसके उपदेश द्वारा नरक गति तथा धर्म-साधन में असमर्थ रहता है। ब्रह्मचर्य से इस अंग की पूर्ति होती तिर्यक-गति का मार्ग रोक कर सिद्ध-गति तथा विमानों के द्वार खोलने है, अर्थात् शरीर स्वस्थ रहता है, कोई रोग पास भी नहीं फटकने पाता। का पवित्र मार्ग बताया गया है।
वैद्यक ग्रन्थों में ब्रह्मचर्य से शारीरिक लाभ बताने के लिए यह ब्रह्मचर्य देवेन्द्र और नरेन्द्रों से पजित लोगों के लिए भी कहा है
पूजनीय हैं, समस्त लोकों में सर्वोत्तम मंगल का मार्ग है। सब गुणों का मृत्युव्याधिजरानाशि, पीयूषपरमौषधम् ।
अद्वितीय तथा सर्वश्रेष्ठ नायक है और मोक्ष-मार्ग का भूषण रूप है। ब्रह्मचर्य महायत्नः, सत्यमेव वदाम्यहम् ।।
४-ब्रह्मचर्य ही तप है 'मैं सत्य कहता हूँ कि मृत्यु, व्याधि और बुढ़ापे का नाश करने
मोक्ष के प्रधान साधन-तप में भी ब्रह्मचर्य को पहला स्थान है। वाली अमृत के समान औषध ब्रह्मचर्य ही है। ब्रह्मचर्य, मृत्यु रोग और जैन-शास्त्रों में ब्रह्मचर्य सब से उत्तम तप माना गया है। इसका एक बुढ़ापे का नाश करने वाला महान् यज्ञ है।'
प्रमाण इस प्रकरण के प्रारम्भ में दिया जा चुका है। प्रश्नव्याकरण सूत्र ३-ब्रह्मचर्य से धर्म-रक्षा
में भी कहा हैतात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य से शरीर स्वस्थ रहता है, जिससे धर्म
जम्बू! एत्तो य बंभचेरं तव-नियम-नाण दंसण-चरित्तसम्मत्तविणयमूलं. का पालन होता है। इतना ही नहीं कि ब्रह्मचर्य का पालन करना भी
यम-नियम-गुणमप्पहाणाजुत्तं, हिमवन्तमहंत तेयमंत धर्म ही है। यह धर्म का प्रधान अंग एवं धर्म का प्रधान रक्षक है। इसके
पसत्थगंभीरथिमियमज्झं। लिए प्रश्रव्याकरण सूत्र में कहा है
हे जम्बू! यह ब्रह्मचर्य, उत्तम तप नियम, ज्ञान, दर्शन, चरित्र, पउमसरतलागपालिभूयं, महासगढअरगतुंवभूयं, महानगरपागारक
सम्यक्त्व और विनय का मूल है। जिस प्रकार सब पर्वतों में हिमालय वाडफलिहभूयं, रज्जु-पिणद्धो व्चइंदकेऊ, विसद्धगेणगुण संपिणधं,
महान् और तेजस्वी है, उसी प्रकार सब तपस्याओं में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। जम्मि य भग्गम्मि होइ सहसा सव्वं
अन्य ग्रन्थों में भी ब्रह्मचर्य को उत्तम तप माना गया है। वेद संभागमहियचणियकसल्लियपलट्टपडि-यखंडियपरिसडियविणासियं .
भी ब्रह्मचर्य को ही तप मानते हैं। जैसेविणयसीलतवनियमगुण-समूहं । शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/११
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
तपो वै ब्रह्मचर्यम् ।
ग्रन्थकारों ने यज्ञ भी ब्रह्मचर्य को ही माना है। जैसेब्रह्मचर्य ही तप है।
अथ यद्यज्ञ इत्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव । गीता में भी ब्रह्मचर्य को तप माना है। उसमें कहा है
(छान्दोग्योपदनिशद्) ब्रह्मचर्यमहिंसा च, शारीरं तप उच्यते।
'जिसे यज्ञ कहते हैं वह ब्रह्मचर्य ही है।' अर्थात् ब्रह्मचर्य और अहिंसा शरीर का उत्तम तप है।
संसार-बन्धन से छूटकर, मोक्ष-प्राप्ति के लिए चारित्र धर्म इसी प्रकार अन्य ग्रन्थकारों ने भी ब्रह्मचर्य को उत्तम तप माना है। बताते हुए भगवान् ने जिन पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया है उनमें ५-ब्रह्मचर्य से पारलौकिक लाभ
ब्रह्मचर्य चौथा महाव्रत है। ब्रह्मचर्य के बिना, चारित्र-धर्म का पारलौकिक लाभ का ब्रह्मचर्य एक प्रधान साधन है। ब्रह्मचर्य पूर्णरूपेण पालन नहीं हो सकता। आत्मा को संसार-बन्धन से छुड़ा से आत्मा परलोक सम्बन्धी सभी सुखों को प्राप्त कर सकता है। कर, मोक्ष दिलाने वाले चारित्र-धर्म का ब्रह्मचर्य एक प्रधान और प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है
आवश्यक अंग है। ब्रह्मचर्य के बिना न तो अब तक कोई मुक्त अज्जव साहजणाचरियं मोक्खमग्गं विसद्ध सिद्धि गइनिलयं हुआ ही है, न हो ही सकता है। सिद्धात्माओं को सिद्ध गति प्राप्त सासयवव्वावाह मपणाब्भवं पसत्थं सोमं सुभं सिवममक्खयकरं। कराने वाला यह ब्रह्मचर्य ही है। इस प्रकार पारलौकिक लाभ का जइवरसारक्खियं सचरियं सुभासियं नवरिमणिवरे हिं ब्रह्मचर्य एक प्रधान साधन है। महापुरिसधीरसूरधम्मियधिइमंताणा य सया विसुद्धं भव्वं
६-ब्रह्मचर्य से इहलौकिक लाभ भब्वजणाणुचिण्णां निस्संकियं निभयं नित्तसं निरायासं।
ब्रह्मचर्य से पारलौकिक ही नहीं, इहलौकिक लाभ भी है। ऊपर ___'ब्रह्मचर्य' अन्त:करण को पवित्र एवं स्थिर रखने वाला है, बताया जा चुका है कि ब्रह्मचर्य से स्वास्थ्य अच्छा रहता है। स्वास्थ्य साधुजनों से सेवित है, मोक्ष का मार्ग है और सिद्धगति का गृह है,
अच्छा रहने से ही इह-लौकिक कार्य सुचारु-रूप से सम्पादन हो शाश्वत है, बाधा-रहित है, पुनर्जन्म को नष्ट करने के कारण
सकते हैं। अपुनर्भव है, प्रशस्त है, रागादि का अभाव करने से सौम्य है, सुख
सांसारिक-जीवन में, शरीर स्वस्थ, सुन्दर, बलवान् एवं चिरायु स्वरूप होने से शिव है, दु:ख सुखादि द्वन्द्रों से रहित होने से अचल रहने की, विद्या की, धन की, कर्तव्य-दृढ़ता की और यशादि की है, अक्षय तथा अक्षत है, मुनियों द्वारा सुरक्षित एवं प्रचारित है. भव्य अभिलाषाएँ पूर्ण होती हैं। प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि ने है, भव्यजनों द्वारा आचरित है, शङ्का-रहित है, निर्भयता का देने ब्रह्मचर्य की प्रशंसा करते हुए कहा हैवाला, विशुद्ध तथा झंझटों से दूर रखने वाला एवं खेद और
चिरायुषः सुसंस्थानां दृढसंहनना नराः । अभिमान को नष्ट करने वाला है।
तेजस्विनो महावीर्या भवेयर्ब्रह्मचर्यतः ।। प्रश्नव्याकरण सूत्र में आगे कहा है
ब्रह्मचर्य से शरीर चिरायु, सुन्दर, दृढ़-कर्त्तव्य तेजपूर्ण और जम्मि य आराहियम्मि आराहियं वयमिणं सब्बं । सील त्तवो य पराक्रमा विणओ य संजमोय य खंती गुत्ती मुत्ति तहेव इहलोइय पारलोइय
वैद्यक ग्रन्थों में भी कहा गया हैजसेय कित्ती य पच्चओ य।
ब्रह्मचर्य परं ज्ञानं ब्रह्मचर्य परं बलं । 'ब्रह्मचर्य की आराधना से सभी व्रत आराधित होते हैं। तप,
ब्रह्मचर्यमयो ह्यात्मा ब्रह्मचर्येव तिहति ।। शील, विनय, संयम, क्षमा, गुप्ति और मुक्ति सिद्ध होती है तथा इस
'ब्रह्मचर्य ही सब से उत्तम ज्ञान है, अपरिमित बल है, यह लोक और परलोक में यश-कीर्ति की विजय-पताका फहराती है।'
आत्मा निश्चय रूप से ब्रह्मचर्यमय है और ब्रह्मचर्य से ही शरीर में अन्य ग्रन्थकार भी ब्रह्मचर्य से परलोक सम्बन्धी लाभ बताते
ठहरा हुआ है।' हुए कहते हैं
__इन प्रमाणों से यह बात भलीभाँति सिद्ध हो जाती है कि समुद्रतरणे यद्वत् उपायो नौः प्रकीर्तित ।
ब्रह्मचर्य से शरीर सुन्दर भी रहता है, बलवान् भी रहता है, दीर्घजीवी संसारतरणे यद्वत् ब्रह्मचर्य प्रकीर्तितम् ।।
भी होता है और यश-कीर्ति भी प्राप्त होती है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य,
इहलौकिक सुखों का भी साधन है। लौकिक वैभव, विद्या, धन आदि
-स्मृति। समुद्र से पार जाने के लिए, जिस प्रकार नौका श्रेष्ठ-साधन है,
तभी प्राप्त होते हैं, जब शरीर स्वस्थ हो और उसमें बल तथा साहस
हो। ब्रह्मचर्य से शरीर स्वस्थ रहता है और शरीर में बल तथा साहस उसी प्रकार संसार से तरने के लिए ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट साधन है।
भी रहता है।
विद्वत खण्ड/१२
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________ - विद्वानों का मत है कि ब्रह्मचर्य के बिना विद्या प्राप्त नहीं होती। स्वर्गे गछन्ति ते सर्वे ये केचिद् ब्रह्मचारिणः / विद्या-प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य का होना आवश्यक है। अथर्ववेद में 'जितने भी ब्रह्मचारी हैं, वे सब स्वर्ग को जाते हैं और भी कहा है कहा है किब्रह्मचर्येण विद्या। अनेकानि सहस्त्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम् / 'ब्रह्मचर्य से विद्या प्राप्त होती है।' दिवं गतानि राजेन्द्र, अकृत्वा कुलसन्ततिम् / / विदुर नीति में कहा है हे राजन्! हजारों मनुष्य ऐसे हुए हैं जो आजीवन नैष्ठिक विद्यार्थ ब्रह्मचारी स्यात् / / ब्रह्मचारी रह कर कुल-सन्तति को न बढ़ाते हुए भी दिव्य गति को 'यदि विद्या के इच्छुक हो तो ब्रह्मचारी बनो।' प्राप्त हुए हैं। तात्पर्य यह कि ब्रह्मचर्य, लौकिक और लोकोत्तर, दोनों ही जैन-शास्त्रानुसार स्वर्ग-प्राप्ति कोई बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात सुखों का प्रधान साधन है। इसकी पूर्ण-रूपेण प्रशंसा करना तो समुद्र तो मोक्ष प्राप्त करना है। ब्रह्मचर्य से संसार की सभी ऋद्धि मिल को हाथों के सहारे तैरने का साहस करना है। जाय, स्वर्ग का राज्य भी प्राप्त हो जाय, तब भी यदि इसके द्वारा ७-ब्रह्मचर्य पर अपवाद मोक्ष प्राप्त न हो सकता होता तो जैन-शास्त्र इसे धर्म का अंग न कुछ लोगों का कथन है कि पूर्ण ब्रह्मचारी को मोक्ष या स्वर्ग मानते, क्योंकि जैनशास्त्र उसी वस्तु को उपयोगी और महत्व की प्राप्त नहीं होता क्योंकि पूर्ण ब्रह्मचारी नि:संतान रहते हैं और-- मानते हैं, जिसके द्वारा मोक्ष प्राप्त हो। लेकिन उक्त प्रमाण जिन अपुत्रस्य गतिनास्ति स्वर्गो नैव च नैव च। ग्रन्थों के हैं, वे ग्रन्थ स्वर्ग को ही अन्तिम ध्येय मानते हैं। फिर भी ___ 'पुत्रहीन की गति नहीं होती और स्वर्ग तो कभी भी नहीं ऊपर दिये हुए श्लोकों में से पहला श्लोक दूसरे श्लोक से मिलता है।' अप्रामाणिक ठहरता है। इस श्लोक से पूर्ण ब्रह्मचारी को स्वर्ग-मोक्ष प्राप्ति रो वंचित बताया जाता है, लेकिन इस श्लोक को खण्डन करने वाला दूसरा यह प्रमाण भी है 79 शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१३