Book Title: Bhashyakar Ek Parishilan
Author(s): Kusumpragyashreeji
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यकार : एक परिशीलन समणी कुसुमप्रज्ञा.... आगमों के व्याख्या-ग्रंथों में भाष्य का दूसरा स्थान है। बिंदुरूप या नवनीत रूप सार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । इस व्यवहारभाष्य,गाथा ४६९३ में भाष्यकार ने अपनी व्याख्या को उद्धरण से स्पष्ट है कि जिनभद्रगणि के समक्ष तीनों छेदसूत्रों के भाष्य नाम से संबोधित किया है। नियुक्ति की रचना अत्यन्त भाष्य थे। उदधिसदृश विशेषण मूल सूत्रों के लिए प्रयुक्त नहीं हो संक्षिप्त शैली में है। उसमें केवल परिभाषिक शब्दों पर ही विवेचन सकता, क्योंकि वे आकार में इतने बड़े नहीं हैं। या चर्चा मिलती है। किन्तु भाष्य में मल आगम तथा नियुक्ति जिन ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ नहीं हैं वे भाष्य मूल सूत्र की व्याख्या दोनों की विस्तृत व्याख्या की गई है। ही करते हैं। जैसे जीतकल्प भाष्य आदि। कुछ भाष्य नियुक्ति पर वैदिक परंपरा में भाष्य लगभग गद्य में लिखा गया लेकिन भी लिखे गए हैं जैसे - पिंडनियुक्ति एवं ओघनियुक्ति आदि। जैन परंपरा में भाष्य प्रायः पद्यबद्ध मिलते हैं, जिस प्रकार छेदसत्रों के भाष्यों में व्यवहारभाष्य का महत्त्वपूर्ण स्थान नियुक्ति के रूप में मुख्यतः १० नियुक्तियों के नाम मिलते हैं है। प्रायश्चित्त निर्धारक ग्रन्थ होने पर भी इसमें प्रसंगवश समाज, वैसे ही भाष्य भी १० ग्रन्थों पर लिखे गए, ऐसा उल्लेख मिलता अर्थशास्त्र, राजनीति, मनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का विवेचन है। वे ग्रन्थ ये हैं-- मिलता है। भाष्यकार ने व्यवहार के प्रत्येक सूत्र की विस्तृत १. आवश्यक', २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. व्याख्या प्रस्तुत की है। बिना भाष्य के केवल व्यवहारसूत्र को बृहत्कल्प', ५. पंचकल्प, ६. व्यवहार, ७. निशीथ, ८. जीतकल्प, पढ़कर उसके अर्थ को हृदयंगम नहीं किया जा सकता है। ९. ओघनियुक्ति, १०. पिंडनियुक्ति। थाष्यकार ___ मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार व्यवहार और निशीथ पर भाष्यकार के रूप में मख्यतः दो नाम प्रसिद्ध हैंभी वृहद्भाष्य लिखा गया पर आज वह अनुपलब्ध है। इनमें १.जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, २. संघदासगणि। मुनिश्री पुण्यविजयजी बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ इन तीन ग्रन्थों के भाष्य गाथा ने चार भाष्यकारों की कल्पना की है- १. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, परिमाण में वृहद् हैं। जीतकल्प, विशेषावश्यक एवं पंचकल्प २.संघदासगणि, ३. व्यवहारभाष्य के कर्ता तथा ४.बृहदकल्पभाष्य परिमाण में मध्यम, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति पर लिखे गए आदि के कर्ता। भाष्य अल्प तथा दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन इन दो ग्रन्थों के भाष्य ग्रन्थान में अल्पतम है। विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता के रूप में जिनभद्रगणि का नाम सर्वसम्मत है, लेकिन बृहत्कल्प, व्यवहार आदि भाष्यों के यह भी अनुसंधान का विषय है कि तीन छेदसत्रों पर । कर्ता के बारे में सभी का मतैक्य नहीं है। प्राचीनकाल में लेखक वृहद्भाष्य लिखे गए फिर दशाश्रुतस्कंध पर क्यों नहीं लिखा बिना नामोल्लेख के कृतियाँ लिख देते थे। कालान्तर में यह गया, जबकि नियुक्ति चारों छेदसत्रों पर मिलती है। संभव है इस ग्रन्थ पर भी भाष्य लिखा गया हो पर वह आज प्राप्त नहीं है। निर्णय करना कठिन हो जाता था कि वास्तव में मूल लेखक कौन थे? कहीं-कहीं नामसाम्य के कारण भी मूल लेखक का उपर्यक्त दस भाष्यों में निशीथ, जीतकल्प एवं पंचकल्प को निर्णय करना कठिन होता है। संकलनप्रधान भाष्य कहा जा सकता है। क्योंकि इनमें अन्य भाष्यों एवं नियुक्तियों की गाथाएँ ही अधिक संक्रांत हुई हैं। जीतकल्प बृहत्कल्प की पीठिका में मलयगिरि ने भाष्यकार का नामोल्लेख न कर केवल "सुखग्रहणधारणाय भाष्यकारो भाष्यं भाष्य में तो जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण स्पष्ट लिखते हैं--कल्प, व्यवहार और निशीथ उदधि के समान विशाल हैं, अत: उन श्रतरत्नों का कृतवान्", इतना सा उल्लेख मात्र किया है। निशीथचूर्णि एवं Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ.- जैन आगम एवं साहित्य व्यवहार की टीका में भी भाष्यकार के नाम के बारे में कोई टीकाकार ने इस गाथा के लिए 'सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिभणितमिदम् । संकेत नहीं मिलता। का उल्लेख किया है। चूर्णिकार ने इस गाथा के लिए 'आयरिओ पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने निशीथपीठिका की भास क भासं काउकामो आदावेव गाथासूत्रमाह' का उल्लेख किया है। भमिका में अनेक हेतओं से यह सिद्ध किया है कि निशीथ पोश यहाँ प्राचीनता की दृष्टि से चूर्णिकार का मत सम्यक् लगता है। भाष्य के कर्ता सिद्धसेन होने चाहिए। उन्होंने यह भी संभावना न घाणकार 4 चूर्णिकार के मत की प्रासंगिकता का एक हेतु यह भी है कि व्यक्त की है कि बृहत्कल्पभाष्य के कर्ता भी सिद्धसेन है। अपने व्यवहारभाष्य के अंत में भी 'कप्पव्ववहाराणं भासं का उल्लेख मत की पुष्टि के लिए वे कहते हैं कि अनेक स्थलों पर निशीथचूर्णि मिलता है। अत: यह गाथा भाष्यकार की होनी चाहिए, जिसमें में जिस गाथा के लिए 'सिद्धसेणायरियो वक्खाणं करेति' का उन्होंने प्रतिज्ञा की है कि मैं कल्प और व्यवहार की व्याख्यानउल्लेख है, वही गाथा बृहत्कल्प-भाष्य में भाष्यकारो व्याख्यानयति' विधि प्रस्तुत करूंगा। वक्खाणविधि शब्द भी भाष्य की ओर ही के संकेतपूर्वक है। अतः निशीथ, बृहत्कल्प एवं व्यवहार तीनों ___ संकेत करता है, क्योंकि नियुक्ति अत्यंत संक्षिप्त शैली में लिखी के भाष्यकर्त्ता सिद्धसेन हैं, यह स्पष्ट है। इसके साथ-साथ गई रचना है। उसके लिए वक्खाणविहिं शब्द का प्रयोग नहीं उन्होंने और भी हेतु प्रस्तुत किए हैं। होना चाहिए अत: यह नियुक्ति की गाथा नहीं, भाष्य की गाथा होनी चाहिए। कप्पव्ववहाराणं भाष्यकार के इस उल्लेख से यह मुनि पुण्यविजयजी बृहत्कल्प के भाष्यकार के रूप में स्पष्ट ध्वनित हो रहा है कि उन्होंने केवल बृहत्कल्प एवं व्यवहार संघदासगणि को स्वीकार करते हैं। उनके अभिमत से संघदास पर ही भाष्य लिखा, निशीथ पर नहीं। गणि नाम के दो आचार्य हुए हैं। प्रथम संघदासगणि जो वाचकपद से विभूषित थे, उन्होंने वसुदेवहिंडी के प्रथम खण्ड की रचना पंडित दलसुख भाई मालवणिया निशीथ- भाष्य के कर्ता की। द्वितीय संघदासगणि उनके बाद हुए, जिन्होंने बृहत्कल्प सिद्धसेनगणि को स्वीकारते हैं, क्योंकि निशीथ-चूर्णिकार ने अनेक लघुभाष्य की रचना की। वे क्षमाश्रमण पद से अलंकृत थे।६ स्थलों पर 'अस्य सिद्धसेनाचार्यों व्याख्यां करोति' का उल्लेख किया है। पर इस तर्क के आधार पर सिद्धसेन को भाष्यकर्ता आचार्य संघदासगणि भाष्य के कर्ता हैं इसकी पुष्टि में मानना संगत नहीं लगता। क्योंकि चूर्णिकार ने ग्रन्थ के प्रारंभ सबसे बड़ा प्रमाण आचार्य क्षेमकीर्ति का निम्न उद्धरण है। और अंतिम प्रशस्ति में कह । सिद्धसेन का उल्लेख नहीं किया उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है-- है। यदि सिद्धसेन भाष्यकर्ता होते तो अवश्य ही चूर्णिकार प्रारंभ कल्पेऽनल्पमनघु प्रतिपदमर्पयति योऽर्थनिकुरम्बम्। में या ग्रन्थ के अंत में उनका नामोल्लेख अवश्य करते। इस श्रीसंघदासगणये, चिन्तामणये नमस्तस्मै।। संबंध में हमारे विचार से निशीथ संकलित रचना होनी चाहिए, "अस्य च स्वल्पग्रन्थमहार्थतया दुःखबोधतया च सकल- जिसकी संकलना आचार्य सिद्धसेन ने की।अनेक स्थलों पर त्रिलोकीसुभगङ्करणक्षमाश्रमणनामधेयाभिधेयैः श्रीसंघदासगणिपूज्यैः निशीथ-नियुक्ति की गाथाओं को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने प्रतिपदप्रकटतिसर्वज्ञाज्ञाविराधनासमुद्भूतप्रभूतप्रत्यपायजालं व्याख्यान-गाथाएँ भी लिखीं। अतः निशीथ मौलिक रचना न निपुणचरणकरणपरिपालनोपायगोचरविचारवाचालं सर्वथा । होकर संकलित रचना ही प्रतीत होती है। यदि इसमें से अन्य दूषणकरणेनाप्यदूष्यं भाष्यं विरचयांचवे।" ग्रन्थों की गाथाओं को निकाल दिया जाए तो मूल गाथाओं की इस उल्लेख के सन्दर्भ में मुनि पुण्यविजयजी का मत संख्या बहुत कम रहेगी। दस प्रतिशत भाग भी मौलिक ग्रन्थ के रूप में अवशिष्ट नहीं रहेगा। पंडित दलसुखभाई मालवणिया भी संगत लगता है कि बृहत्कल्प के भाष्यकार आचार्य संघदासगणि इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहते हैं निशीथभाष्य के विषय होने चाहिए। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बृहत्कल्पभाष्य एवं व्यवहारभाष्य के कर्ता एक ही हैं, क्योंकि बृहत्कल्प में कहा जा सकता है कि इन समग्र गाथाओं की रचना किसी -भाष्य की प्रथम गाथा में स्पष्ट निर्देश है कि 'कप्पव्ववहाराणं एक आचार्य ने नहीं की। परंपरा से प्राप्त गाथाओं का भी यथास्थान वक्खाणविहिं पवक्खामि'। भाष्यकार ने उपयोग किया है और अपनी ओर से नवीन गाथाएँ बनाकर जोड़ी हैं। (निपीभू पृ. ३०, ३१) సాయం క రరరరరరసారం .. antaranoramanananda Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ १९ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रत्य - जैन आगम एवं साहित्य भाष्यकार ने इस ग्रन्थ की रचना कौशल देश में अथवा ने उद्धृत की है, ऐसा प्रसंग से स्पष्ट प्रतीत होता है। अतः उसके पास के किसी क्षेत्र में की है, ऐसा अधिक संभव लगता व्यवहारभाष्य विशेषावश्यकभाष्य से पूर्व की रचना है, ऐसा है। भारत के १६ जनपदों में कौशल देश का महत्त्वपूर्ण स्थान मानने में कोई आपत्ति प्रतीत नहीं होती। था। प्रस्तुत भाष्य में कौशल देश से संबंधित दो-तीन घटनाओं व्यवहारभाष्य के कर्ता जिनभद्र से पूर्व हुए इसका एक का वर्णन है, इसके अतिरिक्त सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि प्रबल हेत यह है कि जीतकल्प-चर्णि में स्पष्ट उल्लेख है कि ग्रन्थकार जहाँ क्षेत्र के आधार पर मनोरचना का वर्णन कर रहे कल्प. व्यवहार निशीथ आदि में प्रायश्चित्त का इतने विस्तार से हैं, वहाँ कहते हैं 'कोसलएसु अपावं सतेसु एक्क न पेच्छामी' निरूपण है कि पढ़ने वाले का मति-विपर्यास हो जाता है। शिष्यों अर्थात् कौशल देश में सैकड़ों में एक व्यक्ति भी पापरहित नहीं की प्रार्थना पर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने संक्षेप में प्रायश्चित्तों देखते हैं। यहाँ पेच्छामो क्रिया ग्रन्थकार द्वारा स्वयं देखे जाने की का वर्णन करने हेतु जीतकल्प की रचना की। यहाँ कल्प, ओर इंगित करती है। व्यवहार शब्द का मूलसूत्र से तात्पर्य न होकर उसके भाष्य की थाष्य का रचनाकाल ओर संकेत होना चाहिए क्योंकि मूल ग्रन्थ परिमाण में इतने बृहद् नहीं हैं। दूसरी बात व्यवहारभाष्य की प्रायश्चित्त संबंधी भाष्यकार संघदासगणि का समय भी विवादास्पद है। अभी अनेक गाथाएँ जीतकल्प में अक्षरशः उदधत हैं। जैसे-- तक इस दिशा में विद्वानों ने विशेष ऊहापोह नहीं किया है। जीतकल्प व्यभा. जीतकल्प व्यभा. संघदासगणि आचार्य जिनभद्र से पूर्ववर्ती हैं। इस मत की पुष्टि । में अनेक हेतु प्रस्तुत किए जा सकते हैं-- ११० २२ ११४ जिनभद्रगणि के विशेषणवती ग्रन्थ में निम्न गाथा मिलती है १११ ३१,३२ तु. १०,११ सीहो चेव सुदाढो, जं रायगिहम्मि कविलबडुओ त्ति। निशीथभाष्य जिनभद्रगणि से पूर्व संकलित हो चुका था सीसइ ववहारे गोयमोवसमिओ स णिक्खंतो॥ इसका एक प्रमाण यह है कि निभा. में प्रमाद-प्रतिसेवना के व्यवहार भाष्य में इसकी संवादी गाथा इस प्रकार मिलती है सन्दर्भ में निद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है। स्त्यानर्द्धि निद्रा के सीहो तिविट्ठ निहतो, भमिउं रायगिह कविलबडुग त्ति। उदाहरण के रूप में निभा. (१३५) में 'पोग्गल मोयग दंते' गाथा जिणवीरकहणमणुवसम गोतमोवसम दिक्खाय।' मिलती है। यह गाथा विशेषावश्यक भाष्य (२३५) में भी है। लेकिन वहाँ स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि व्यञ्जनावग्रह के प्रसंग विशेषणवती में 'ववहारे' शब्द निश्चित रूप से में विशेषावश्यक-भाष्यकार ने यह गाथा निभा. से उद्धृत की है। व्यवहारभाष्य के लिए प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि मूलसूत्र में इस विभा में यह गाथा प्रक्षिप्त सी लगती है। कुछ अंतर के साथ यह कथा का कोई उल्लेख नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य गाथा वृभा. (५०१७) में भी मिलती है। जिनभद्रगणि के समक्ष व्यवहारभाष्य था। पंडित दलसुख भाई मालवणिया ने जिनभद्र का समय विशेषावश्यकभाष्य की रचना व्यवहारभाष्य के पश्चात् छठी-सातवीं शताब्दी सिद्ध किया है। अत: भाष्यकार संघदासगणि हुई इसका एक प्रबल हेतु यह है कि बृहत्कल्प एवं व्यवहारभाष्य का समय पाँचवीं, छठी शताब्दी होना चाहिए। कर्त्ता के समक्ष यदि विशेषावश्यक भाष्य होता तो वे अवश्य विशेषावश्यकभाष्य की गाथाओं को अपने ग्रन्थ में सम्मिलित भाष्यग्रन्थों का रचनाकाल चौथी से छठी शताब्दी तक ही करते, क्योंकि वह एक आकरग्रंथ है, जिसमें अनेक विषयों का होना चाहिए। यदि भाष्य का रचनाकाल सातवीं शताब्दी माना सांगोपांग वर्णन प्राप्त है। जबकि व्यभा. एवं वभा. में अन्य जाए तो आगे के व्याख्याग्रन्थों के काल-निर्धारण में अनेक भाष्य पंचकल्प, निशीथ आदि की सैकडों गाथाएँ संवादी हैं। विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं। प्राचीनकाल में आज की भाँति मद्रण व्यवहारभाष्य की मणपरमोधिपुलाए गाथा विभा. में मिलती है। की व्यवस्था नहीं थी, अतः हस्तलिखति किसी भी ग्रन्थ को। वह व्यवहारभाष्य की गाथा है और विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता प्रसिद्ध होने में कम से कम एक शताब्दी का समय तो लग ही Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A . - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - जाता था। सातवीं शताब्दी में भाष्य लिखे गए और आठवीं में भाष्यकार के समक्ष आवश्यक चूर्णि थी। हरिभद्र ने टीकाएँ लिखीं फिर चूर्णि के समय में अंतराल बहुत इसी प्रकार जीतकल्प की चर्णि के बाद उसका भाष्य रचा कम रहता है। गया क्योंकि चूर्णि केवल जीतकल्प की गाथाओं की ही व्याख्या नियुक्तिकार के रूप में हमने चतुर्दशपूर्वी प्रथम भद्रबाहु करती है। उसमें भाष्य का उल्लेख नहीं है। यदि चूर्णिकार के को स्वीकार किया है, जिनका समय वीरनिर्वाण की दूसरी शताब्दी समक्ष भाष्य-गाथाएँ होती तो वे अवश्य उनकी व्याख्या करते। है।३। भाष्य का समय विक्रम की चौथी-पाँचवीं, चूर्णि का चूर्णिकार ने व्यवहारभाष्य की अनेक गाथाओं को उद्धृत किया है। सातवीं तथा टीका का आठवीं से तेरहवीं शताब्दी तर्कसम्मत इस प्रसंग में निभा. ५४५ की उत्थानिका का उल्लेख भी एवं संगत लगता है। विद्वानों को इस दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करता है। वहाँ निशीथ, बृहत्कल्प एवं व्यवहार इन तीन छेदसूत्रों के भाष्य स्पष्ट उल्लेख है कि 'सिद्धसेणायरिएण जा जयणा भणिया तं चेव के रचनाक्रम के बारे में पंडित दलसुख भाई मालवणिया का संखेवओ भद्दबाहू भण्णति' इस उद्धरण से स्पष्ट है कि यहाँ द्वितीय अभिमत है कि सबसे पहले बृहत्कल्पभाष्य रचा गया। उसके भद्रबाहु की ओर संकेत हैं। प्रथम भद्रबाहु तो सिद्धसेन की बाद निशीथभाष्य तथा अंत में व्यवहारभाष्य की रचना हुई। रचना की व्याख्या नहीं कर सकते, क्योंकि वे उनसे बहुत लेकिन हमारे अभिमत से निशीथभाष्य की रचना या संकलना प्राचीन हैं। बृहत्कल्पभाष्य (२६११) में भी इस गाथा के पूर्व सबसे बाद में हुई है। उसके कारणों की चर्चा हम पहले कर चुके टीकाकार उल्लेख करते हैं कि 'या भाष्यकृता सविस्तरं यतना पूर्व बृहत्कल्प की रचना की, यह प्रोक्ता तामेव नियुक्तिकृदेकगाथया संगृह्याह।' यह उद्धरण विद्वानों बात उनकी प्रतिज्ञा से स्पष्ट है--कप्पव्ववहाराणं वक्खाणविहिं के चिंतन या ऊहापोह के लिए है। इसके आधार पर यह संभावना पवक्खामि। इसके अतिरिक्त व्यवहारभाष्य में अनेक स्थलों पर की जा सकती है कि सिद्धसेन द्वितीय भद्रबाहु से पूर्व पाँचवीं पुव्वुत्तो, वुत्तो, जह कप्पे, वण्णिया कप्पे आदि का उल्लेख मिलता शती के उत्तरार्द्ध में हो गए थे। द्वितीय भद्रबाहु के समक्ष नियुक्तियाँ है। व्यवहार-भाष्य की निम्न गाथाओं में बृहत्कल्प की ओर तथा उन पर लिखे गए कुछ भाष्य भी थे। संकेत हैं। इनमें कुछ उद्धरण बृहत्कल्प एवं कुछ बृहत्कल्पभाष्य मनि पण्यविजयजी ने दशवैकालिक की अगस्त्यसिंह चर्णि की ओर संकेत करते हैं-- को दशवैकालिकभाष्य से पूर्व की रचना माना है तथा उसके ११७२, १२२६, १३३९, १७४८, १८३३, १९३३,२१७१, कुछ हेतु भी प्रस्तुत किए हैं। २१७३, २२७९, २२९६, २५०९, २५२३, २६६२, २८०५, २८०६, भाषा की दृष्टि से भी भाष्यरचना की प्राचीनता सिद्ध होती २८१७, २९२७,२९८३,३०६२,३२४७, ३३१३, ३३५०, ३८९६, है। अपभ्रंश की प्रवत्ति लगभग छठी शताब्दी से प्रारंभ होती है ४२३१ , ४३१४ आदि। लेकिन भाष्यों में अपभ्रंश के प्रयोग ढूँढने पर भी नहीं मिलते। यह निश्चित है कि आगमों पर लिखे गए व्याख्याग्रन्थों का इसके अतिरिक्त महाराष्ट्री का प्रभाव भी कम परिलक्षित होता है। क्रम इस प्रकार रहा है--नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका। भाष्यसाहित्य में वर्णित विषयवस्तु मद्राएँ, घटनाप्रसंग एवं लेकिन अलग-अलग ग्रन्थोंके व्याख्या-ग्रन्थों को लिखने में सांस्कृतिक तथ्य भी इसके रचनाकाल को चौथी, पाँचवीं शताब्दी इस क्रम में व्यत्यय भी हुआ है। उदाहरण के लिए पंचकल्प- से पूर्व या आगे का सिद्ध नहीं करते। अतः भाष्यकार का समय भाष्य की निम्न गाथा को प्रस्तुत किया जा सकता है-- विक्रम की चौथी, पाँचवीं शताब्दी होना चाहिए। परिजण्णेसा भणिता, सुविणा देवीए पुण्फचूलाए। . भाष्य में वर्णित विषय अन्य ग्रन्थों में भी संक्रांत हुए हैं। नरगाण दंसणेणं, पव्वज्जाऽऽवस्सए वुत्ता॥१४ . जैसे व्यवहार के भेद (आज्ञा, श्रुत आदि) पुरुषों के प्रकार एवं पुष्पचूला की कथा विशेषावश्यक-भाष्य में नहीं है, किन्त आलोचना से संबंधित अनेक प्रकरण ठाणं एवं भगवती में प्राप्त आवश्यकचूर्णि में है। इससे सिद्ध होता है है कि पंचकल्प - * होते हैं। ये सभी प्रकरण आगम-संकलनकाल में व्यवहार से prioritonirodwidnidironditoriuonitoriadminird-M८६ Haramiriibdiritoribivoritoririramidabaddinidiadra Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - संग्रहीत किए गए हैं, ऐसा पूर्वापर के प्रकरण से प्रतीत होता है। - जीतकल्पभाष्य, 2605 भाष्यसाहित्य की अनेक गाथाएँ दिगंबर-ग्रन्थों में भी संक्रांत हुई 4. बृहत्कल्पपीठिका, टी.पृ. 2 हैं। भगवती-आराधना एवं मूलाचार में भाष्य-साहित्य की अनेक गाथाएँ शब्दशः मिलती हैं। व्याख्याग्रन्थों में भाष्य-साहित्य का 5. निशीथपीठिका, भूमिका, पृ. 2 महत्त्वपूर्ण स्थान है। ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं 6. बृभा. भाग - 6, भूमिका पृ. 20 सांस्कतिक दृष्टि सेअनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य भाष्यसाहित्य में मिलते 7. अंगत्तरनिकाय, 1.213 हैं। भाष्यसाहित्य का अनुशीलन एवं पर्यवेक्षण अनुसंधान के क्षेत्र में अनेक नई दिशाएँ खोलने वाला होगा, ऐसा प्रतीत होता है। 8. व्यभा. 2959 9. विशेषणवती, गा. 33 सन्दर्भ 10. व्यभा. 2638 1. आवश्यक पर तीन भाष्यों का उल्लेख मिलता है- मूलभाष्य, भाष्य एवं विशेषावश्यकभाष्य। 11. जीतकल्प चूर्णि, पृ. 1,2 12. द्वितीय भद्रबाहु ने नियुक्तियों में परिवर्तन एवं परिवर्धन भी 2. बृहत्कल्प पर भी बृहद् एवं लघु भाष्य लिखा गया। बृहद्भाष्य किया है, जिनका समय विक्रम की छठी शताब्दी है। तीसरे उद्देशक तक मिलता है, वह भी अपूर्ण है। 14. पंचकल्पभाष्य, 609 3. कप्पव्वनहाराणं उदधिसरिच्छाण तह णिसीहस्स। सुतरयणबिन्दुणवणीतभूतसारेस 'णातव्यो / / 15. दशवैकालिक अगस्त्यसिंहचूर्णि, भूमिका, पृ. 15-17