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भाष्य और भाष्यकार
डॉ. मोहनलाल मेहता....
आगमों की प्राचीनतम पद्यात्मक टीकाएँ नियुक्तियों में ६४९० गाथाएँ हैं। पंचकल्प-महाभाष्य की गाथासंख्या २५७४ के रूप में प्रसिद्ध हैं। नियुक्तियों की व्याख्यान-शैली बहुत गूढ़ है। व्यवहारभाष्य में ४६२९ गाथाएँ हैं। निशीथभाष्य में लगभग एवं संकोचशील है। किसी भी विषय का जितने विस्तार से ६५०० गाथाएँ हैं। जीतकल्पभाष्य की गाथासंख्या २६०६ है। विचार होना चाहिए, उसका उसमें अभाव है। इसका कारण यही ओघनियुक्ति पर दो भाष्य हैं जिनमें से एक की गाथासंख्या ३२२ है कि उनका मुख्य उद्देश्य पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या तथा दूसरे की २५१७ है। पिण्डनियुक्ति-भाष्य में ४६ गाथाएँ हैं। करना है, न कि किसी विषय का विस्तृत विवेचन। यही कारण
थाष्यकार है कि नियुक्तियों की अनेक बातें बिना आगे की व्याख्याओं की सहायता के सरलता से समझ में नहीं आती। नियुक्तियों के
उपलब्ध भाष्यों की प्रतियों के आधार पर केवल दो गूढार्थ को प्रकट रूप में प्रस्तुत करने के लिए आगे के आचार्यों भाष्यकारों के नाम का पता लगता है। वे हैं आचार्य जिनभद्र ने उन पर विस्तृत व्याख्याएँ लिखना आवश्यक समझा। इस और संघदासगणि। आचार्य जिनभद्र ने दो भाष्य लिखे -
विशेषावश्यकभाष्य और जीतकल्पभाष्य। संघदासगणि के भी पद्यात्मक व्याख्याएँ लिखी गईं वे भाष्य के रूप में प्रसिद्ध हैं। दो भाष्य हैं - बृहत्कल्प-लघुभाष्य और पंचकल्प-महाभाष्य। नियुक्तियों की भाँति भाष्य भी प्राकृत में ही हैं।
आचार्य जिनभद्र भाष्य
आचार्य जिनभद्र' का अपने महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के कारण जिस प्रकार प्रत्येक आगम ग्रन्थ पर निर्यक्ति न लिखी जैन-परम्परा के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। इतना होते हुए जा सकी उसी प्रकार प्रत्येक निर्यक्ति पर भाष्य भी नहीं लिखा भी आश्चर्य इस बात का है कि उनके जीवन की घटनाओं के गया। निम्नलिखित आगम ग्रन्थों पर भाष्य लिखे गए हैं - १.
विषय में जैन-ग्रन्थों में कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है। उनके आवश्यक २. दशवैकालिक ३. उत्तराध्ययन ४. बृहत्कल्प ५.
जन्म और शिष्यत्व के विषय में परस्पर विरोधी उल्लेख मिलते पंचकल्प ६. व्यवहार ७. निशीथ ८.जीतकल्प ९. ओघनिर्यक्ति हैं। ये उल्लेख बहुत प्राचीन नहीं है अपितु १५वीं या १६वीं १०. पिण्डनियुक्ति।
शताब्दी की पट्टावलियों में हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि
आचार्य जिनभद्र को पट्टपरंपरा में सम्यक् स्थान नहीं मिला। ___ आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्य लिखे गए हैं - १. मूलभाष्य
उनके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों तथा उनके आधार पर लिखे गए विवरणों २. भाष्य और ३. विशेषावश्यकभाष्य। प्रथम दो भाष्य बहुत
को देखकर ही बाद के आचार्यों ने उन्हें उचित महत्त्व दिया तथा ही संक्षिप्त रूप में लिखे गए और उनकी अनेक गाथाएँ
आचार्य-परम्परा में सम्मिलित करने का प्रयास किया। चूंकि विशेषावश्यकभाष्य में सम्मिलित कर ली गईं। इस प्रकार विशेषावश्यकभाष्य को तीनों भाष्यों का प्रतिनिधि माना जा
इस प्रयास में वास्तविकता की मात्रा अधिक न थी अत: यह सकता है, जो आज भी विद्यमान है। यह भाष्य पूरे आवश्यकसूत्र
स्वाभाविक है कि विभिन्न आचार्यों के उल्लेखों में मतभेद हो। पर न होकर केवल उसके प्रथम अध्ययन सामयिक पर है।
यही कारण है कि उनके संबंध में यह भी उल्लेख मिलता है कि एक अध्ययन पर होते हुए भी इसमें ३६०३ गाथाएँ हैं। व
वे आचार्य हरिभद्र के पट्ट पर बैठे। दशवैकालिकभाष्य में ६३ गाथाएँ हैं। उत्तराध्ययनभाष्य भी बहुत आचार्य जिनभद्रकृत विशेषावश्यकभाष्य की प्रति शक छोटा है। इसमें केवल ४५ गाथाएँ हैं। बृहकल्प पर दो भाष्य हैं संवत् ५३१ में लिखी गई तथा वलभी के एक जैन-मंदिर में - बृहत् और लघु। बृहद्भाष्य पूरा उपलब्ध नहीं है। लघुभाष्य समर्पित की गई। इस घटना से यह प्रतीत होता है कि आचार्य ఆరురురురురురువారం-ord Ramanananda
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-- यतीन्द्र सुरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - जिनभद्र का वलभी से कोई संबंध अवश्य होना चाहिए। आचार्य नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर। आगे जाकर इनके नाम से जिनप्रभ लिखते हैं कि आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने मथुरा में भिन्न-भिन्न चार प्रकार की परम्पराएँ प्रचलिति हुई और उनकी नागेन्द्र, देवनिर्मित स्तूप के देव की आराधना एक पक्ष की तपस्या द्वारा चन्द्र, निवृत्ति तथा विद्याधर कुलों के रूप में प्रसिद्ध हुई।६।। की और दीमक द्वारा खाए हुए महानिशीथ सूत्र का उद्धार किया।
इन तथ्यों के अतिरिक्त उनके जीवन से संबंधित और इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य जिनभद्र का संबंध वलभी
कोई विशेष बात नहीं मिलती। हाँ, उनके गुणों का वर्णन अवश्य के अतिरिक्त मथुरा से भी है।
उपलब्ध होता है। जीतकल्पचूर्णि के कर्ता सिद्धसेनगणि अपनी डॉ. उमाकांत प्रेमानंद शाह ने अंकोटक-अकोटा गाँव से चूर्णि के प्रारंभ में आचार्य जिनभद्र की स्तुति करते हुए उनके प्राप्त हुई दो प्रतिमाओं के अध्ययन के आधार पर यह सिद्ध गुणों का इस प्रकार वर्णन करते हैं - किया है कि ये प्रतिमाएँ ई. सन् ५५० से ६०० तक के काल की
___'जो अनुयोगधर, युगप्रधान, प्रधान ज्ञानियों से बहुमत, हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि इन प्रतिमाओं के लेखों में जिन
जन सर्व श्रुति और शास्त्र में कुशल तथा दर्शन-ज्ञानोपयोग के
पर आचार्य जिनभद्र का नाम हैं, वे विशेषावश्यकभाष्य के कती मार्गरक्षक हैं। जिस प्रकार कमल की सगंध के वश में होकर क्षमाश्रमण आचार्य जिनभद्र ही हैं। उनकी वाचना के अनुसार
भ्रमर कमल की उपासना करते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूप मकरंद एक मूर्ति के पद्मासन के पिछले भाग में 'ॐ देवधर्मोयं
के पिपासु मुनि जिनके मुखरूप निर्झर से प्रवाहित ज्ञानरूप निवृत्तिकुले जिनभद्रवाचनाचार्यस्य' ऐसा लेख है और दूसरी मूर्ति ।
अमृत का सर्वदा सेवन करते हैं। के आभामंडल में 'ॐ निवृत्तिकुले जिनभद्र वाचनाचार्यस्य' ऐसा लेख है। इन लेखों से तीन बातें फलित होती हैं।१.
स्व-समय तथा पर-समय के आगम, लिपि, गणित, छन्द आचार्य जिनभद्र ने इन प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया होगा २.
और शब्दशास्त्रों पर किए गए व्याख्यानों से निर्मित जिनका उनके कुल का नाम निवृत्तिकुल था ३. उन्हें वाचनाचार्य कहा
अनुपम यशपटह दसों दिशाओं में बज रहा है। जिन्होंने अपनी
अनुपम बुद्धि के प्रभाव से ज्ञान, ज्ञानी, हेतु, प्रमाण तथा गणधरवाद जाता था। चूँकि ये मूर्तियाँ अंकोट्टक में मिली है, अतः यह भी
का सविशेष विवेचन विशेषावश्यक में ग्रन्थनिबद्ध किया है। अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय भड़ौंच के आसपास भी जैनों का प्रभाव रहा होगा और आचार्य जिनभद्र ने इस क्षेत्र
जिन्होंने छेदसूत्रों के अर्थ के आधार पर पुरुषविशेष के पृथक्करण
के अनुसार प्रायश्चित्त की विधि का विधान करने वाले में भी विहार किया होगा। उपर्युक्त उल्लेखों में आचार्य जिनभद्र को क्षमाश्रमण न कहकर वाचनाचार्य इसलिए कहा गया है कि
जीतकल्पसूत्र की रचना की है। ऐसे पर-समय के सिद्धान्तों में
निपुण, संयमशील श्रमणों के मार्ग के अनुगामी और क्षमाश्रमणों परम्परा के अनुसार वादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर तथा वाचक एकार्थक शब्द माने गए हैं। वाचक और वाचनाचार्य भी एकार्थक
में निधानभूत जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण को नमस्कार हो।" हैं, अत: वाचनाचार्य और क्षमाश्रमण शब्द वास्तव में एक ही इस वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि जिनभद्रगणि आगमों अर्थ के सूचक हैं। इनमें से एक का प्रयोग करने से दूसरे का के अद्वितीय व्याख्याता थे, 'युगप्रधान' पद के धारक थे, तत्कालीन प्रयोजन भी सिद्ध हो ही जाता है।
प्रधान श्रुतधर भी इनका बहुमान करते थे, श्रुत और अन्य शास्त्रों आचार्य जिनभद्र निवृत्तिकल के थे। इसका प्रमाण उपर्युक्त
के कुशल विद्वान् थे। जैन-परम्परा में जो ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग लेखों के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं मिलता। यह निवृत्तिकुल कैसे
का विचार किया गया है, उसके ये समर्थक थे। इनकी सेवा में प्रसिद्ध हुआ, इसके लिए निम्नांकित कथानक का आधार लिया
अनेक मुनि ज्ञानाभ्यास करने के लिए सदा उपस्थित रहते थे।
भिन्न-भिन्न दर्शनों के शास्त्र, लिपिविद्या, गणितशास्त्र, छंदःशास्त्र, जा सकता है।
शब्दशाला आदि के ये अनुपम पंडित थे। इन्होंने भगवान महावीर के १७वें पट्ट पर आचार्य वज्रसेन हुए थे।
विशेषावश्यकभाष्य और जीतकल्पसूत्र की रचना की थी। ये उन्होंने सोपारक नगर के सेठ जिनदत्त और सेठानी ईश्वरी पर-सिद्धान्त में निपुण, स्वाचारपालन में प्रवण और सर्व जैन के चार पुत्रों को दीक्षा दी थी। उनके नाम इस प्रकार थे - श्रमणों में प्रमुख थे। उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी आचार्य जिनभद्र
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - का बहुमानपूर्वक नामोल्लेख किया है इनके लिये इनकी रचना आचार्य जिनभद्र ने की है, यह भी मानना ही पड़ेगा। भाष्यसुधाम्भोधि, भाष्यपीयूषपंथोधि, भगवान् भाष्यकार ऐसी स्थिति में इनकी टीका भी मिलनी चाहिए, परन्तु बात ऐसी दुःषमान्धकारनिमग्नजिनवचनप्रदीपप्रतिम दलितकुवादिप्रवाद, नहीं है। आचार्य जिनभद्र द्वारा प्रारंभ में की गई विशेषावश्यकभाष्य प्रशस्यभाष्यशस्य काश्यपीकल्प, त्रिभुवनजनप्रथितवचनोप की सर्वप्रथम टीका में अथवा कोट्याचार्य और मलधारी हेमचन्द्र निषद्वेदी, सन्देहसन्दोहशैलशृंगभंगदम्भोलि आदि विशेषणों का की टीकाओं में इन गाथाओं की टीका नहीं मिलती। इतना ही नहीं प्रयोग किया गया है।
इन गाथाओं के अस्तित्व की सूचना तक नहीं है। आचार्य जिनभद्र के समय के विषय में मुनि श्री इन प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि ये गाथाएँ आचार्य जिनविजयजी का मत है कि उनकी मुख्य कृति विशेषावश्यकभाष्य जिनभद्र ने न लिखी हों अपितु उस प्रति की नकल करने-कराने की जैसलमेर स्थित प्रति के अंत में मिलने वाली दो गाथाओं के वालों ने लिखी हों। ऐसी स्थिति में यह भी स्वतः सिद्ध है कि इन आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस भाष्य की रचना गाथाओं में निर्दिष्ट समय रचनासमय नहीं अपितु प्रतिलेखनसमय विक्रम संवत् ६६६ में हुई। वे गाथाएँ इस प्रकार हैं - है। कोट्याचार्य के उल्लेख से यह भी निश्चित है कि आचार्य
पच सता इगतीसा सगणिवकालस्स वट्टमाणस्स। जिनभद्र की अंतिम कृति विशेषाश्यकभाष्य है। इस भाष्य की
तो चेत्तपुषिणमाए बुधदिण सातिमि णक्खत्ते।। स्वोपज्ञ टीका उनकी मृत्यु हो जाने के कारण पूर्ण न हो सकी। रज्जे णु पालणपरे सी (लाइ) च्चम्मि णरवरिन्दम्मि।
यदि विशेषावश्यकभाष्य की जैसलमेर स्थित उक्त प्रति वलभीणगरीए इमं महवि... मि जिणभणे॥ का लेखन समय तक संवत् ५३१ अर्थात् विक्रम संवत् ६६६
माना जाए, तो विशेषावश्यकभाष्य का रचना समय इससे पूर्व मुनि श्री जिनविजयजी ने इन गाथाओं का अर्थ इस प्रकार है
ही मानना पड़ेगा। यह भी हम जानते हैं कि विशेषावश्यकभाष्य - शक संवत् ५३१ (विक्रम संवत् ६६६) में वलभी में जिस समय
आचार्य जिनभद्र की अंतिम कृति थी और उसकी स्वोपज्ञ टीका शीलादित्य राज्य करता था उस समय चैत्र शुक्ला पूर्णिमा, बुधवार
भी उनकी मृत्यु के कारण अपूर्ण रही, ऐसी दशा में यदि यह और स्वाति नक्षत्र में विशेषावश्यकभाष्य की रचना पूर्ण हुई।
माना जाए कि जिनभद्र का उत्तरकाल विक्रम संवत् ६५०-६६० पं. श्री दलसख मालवणिया इस मत का विरोध करते हैं। के आसपास रहा होगा. तो अनचित नहीं है। उनकी मान्यता है कि उपर्युक्त मत मूल गाथाओं से फलित नहीं
आचार्य जिनभद्र ने निम्नलिखित ग्रंथों की रचना की है। होता। उनके मतानुसार इन गाथाओं में रचनाविषयक कोई
१. विशेषावश्यकभाष्य (प्राकृत . पद्या) २. उल्लेख नहीं है। वे कहते हैं कि खंडित अक्षरों को हम यदि किसी
विशेषावश्यकभाष्यस्वोपज्ञवृत्ति (अपूर्ण-संस्कृत-गद्य) ३. मंदिर का नाम मान लें, तो इन दोनों गाथाओं में कोई क्रियापद नहीं
बृहत्संग्रहणी (प्राकृत - पद्य) ४. बृहत्क्षेत्रसमास (प्राकृत-पद्य ५. रह जाता। ऐसी अवस्था में उसकी शक संवत् ५३१ में रचना हुई,
विशेषणवती (प्राकृत-पद्य) ६. जीतकल्प (प्राकृत-पद्य) ७. ऐसी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। अधिक संभव यह है कि
जीत कल्पभाष्य (प्राकृत पद्य) ८. अनुयोगद्वारचूर्णि (प्राकृतवह प्रति उस समय लिखी जाकर उस मंदिर में रखी गई हो। इस मत
गद्य) ९. ध्यानशतक (प्राकृत-पद्य)। अन्तिम ग्रन्थ अर्थात् की पुष्टि के लिए कुछ प्रमाण भी दिए जा सकते हैं -
ध्यानशतक के कर्तृत्व के विषय में अभी विद्वानों को संदेह है। १. ये गाथाएँ केवल जैसलमेर की प्रति में ही मिलती हैं, अन्य किसी प्रति में नहीं। इसका अर्थ यह हआ कि ये गाथाएँ सधदासगाण मूलभाष्य की न होकर प्रति लिखी जाने तथा उक्त मंदिर में रखी संघदासगणि भी भाष्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके दो। जाने के समय की सूचक है। जैसलमेर की प्रति मंदिर में रखी गई भाष्य उपलब्ध है- बृहत्कल्प-लघुभाष्य और पंचकल्प महाभाष्य। प्रति के आधार पर लिखी गई होगी।
मुनि श्री पुण्यविजयजी के मतानुसार संघदासगणि नाम के दो २. यदि इन गाथाओं को रचनाकालसूचक माना जाए, तो आचार्य हुए हैं - एक वसुदेवहिंडि प्रथम खण्ड के प्रणेता और
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- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य दुसरे बृहत्कल्प-लघुभाष्य तथा पंचकल्प-महाभाष्य के प्रणेता। के प्रणेता, जिनका नाम अभी तक अज्ञात है, बृहत्कल्पचूर्णिकार ये दोनों आचार्य एक न होकर भिन्न-भिन्न हैं, क्योंकि वसुदेवहिंडि- तथा बृहत्कल्पविशेषचूर्णिकार से भी पीछे हुए हैं। इसका कारण मध्यम खण्ड के कर्ता आचार्य धर्मसेनगणि महत्तर के कथनानुसार यह है कि बृहत्कल्पलघुभाष्य की १६६१वीं गाथा में प्रतिलेखना वसुदेवहिंडि-प्रथम खंड के प्रणेता संघदासगणि 'वाचक' पद से के समय का निरूपण किया गया है। उसका व्याख्यान करते विभूषित थे, जबकि भाष्यप्रणेता संघदासगणि 'क्षमाश्रमण' हुए चूर्णिकार और विशेषचूर्णिकार ने जिन आदेशांतरों का अर्थात् पदालंकृत हैं।१० आचार्य जिनभद्र का परिचय देते समय हमने प्रतिलेखना के समय से संबंध रखने वाली विविध मान्यताओं देखा है कि केवल पदवी-भेद से व्यक्ति-भेद की कल्पना नहीं का उल्लेख किया है, उनसे भी और अधिक नई-नई मान्यताओं की जा सकती। एक ही व्यक्ति विविध समय में विविध पदवियाँ का संग्रह बृहत्कल्प-बृहद्भाष्यकार ने उपर्युक्त गाथा से संबंधित धारण कर सकता है। इतना ही नहीं, एक ही समय में एक ही महाभाष्य में किया है, जो याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य श्री व्यक्ति के लिए विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न पदवियों का प्रयोग हरिभद्रसूरिविरचित पंचवस्तुक प्रकरण की स्वोपज्ञवृत्ति में उपलब्ध किया जा सकता है।
है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि बृहत्कल्प-बृहद्भाष्य के कभी-कभी तो कुछ पदवियाँ परस्पर पर्यायवाची भी बन
प्रणेता बृहत्कल्पचूर्णि तथा विशेषचूर्णि के प्रणेताओं से पीछे हुए जाती हैं। ऐसी दशा में केवल 'वाचक' और 'क्षमाश्रमण' पदवियों
हैं। ये आचार्य हरिभद्रसूरि के कुछ पूर्ववर्ती अथवा समकालीन के आधार पर यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि इन
हैं। अब रही बात व्यवहारभाष्य के प्रणेता की। इस बात का
र पदवियों को धारण करने वाले संघदासगणि भिन्न-भिन्न व्यक्ति
कहीं उल्लेख नहीं मिलता कि व्यवहारभाष्य के प्रणेता कौन हैं थे। मुनि श्री पुण्य विजयजी ने भाष्यकार तथा वसुदेवहिंडिकार ।
और वे कब हुए हैं? इतना होते हुए भी यह निश्चयपूर्वक कहा आचार्यों को भिन्न-भिन्न सिद्ध करने के लिए एक और हेतु दिया ।
जा सकता है कि व्यवहार-भाष्यकार जिनभद्र के भी पूर्ववर्ती है१२ है. जो विशेष बलवान है। आचार्य जिनभद्र ने अपने विशेषणवती
इसका प्रमाण यह है कि आचार्य जिनभद्र ने अपने विशेषणवती ग्रन्थ में वसुदेवहिंडि नामक ग्रन्थ का अनेक बार उल्लेख किया ।
ग्रन्थ, में व्यवहार के नाम के साथ जिस विषय का उल्लेख है। इतना ही नहीं अपितु वसुदेवहिंडि प्रथम खण्ड में चित्रित
किया है, वह व्यवहारसूत्र के छठे उद्देशक के भाष्य में उपलब्ध ऋषभदेव-चरित की संग्रहणी गाथाएँ बनाकर उनका अपने ग्रन्थ में
होता है।१३ इसे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि समावेश भी किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि वसुदेवहिंडि
व्यवहारभाष्यकार आचार्य जिनभद्र से भी पहले हुए हैं। प्रथम खण्ड के प्रणेता संघदागणि आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती
जैन साहित्य का वृहद इतिहास, हैं।१९ भाष्यकार संघदासगणि भी आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती ही हैं।
भाग ३ से साभार
अन्य भाष्यकार
सन्दर्भ आचार्य जिनभद्र और संघदासगणि को छोड़कर अन्य १. गणधरवाद : प्रस्तावना, पृ. २७-४५ भाष्यकारों के नाम का पता अभी तक नहीं लग पाया है। यह तो
२. विविधतीर्थकल्प, पृ. १९ निश्चित है कि इन दो भाष्यकारों के अतिरिक्त अन्य भाष्यकार भी हुए हैं, जिन्होंने व्यवहारभाष्य आदि की रचना की है। मनिश्री ३. जैन-सत्य-प्रकाश, अंक १९६ पुण्यविजयजी के मतानुसार कम से कम चार भाष्यकार तो हुए ४. वही ही हैं। उनका कथन है कि एक श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण,
५. पं. श्री दलसुख मालवणिया ने इन शब्दों की मीमांसा इस प्रकार दूसेर श्री संघदासगणि क्षमाश्रमण, तीसरे व्यवहारभाष्य आदि के ।
की है"प्रारम्भ में 'वाचक' शब्द शास्त्र-विशारद के लिए विशेष प्रणेता और चौथे बृहत्कल्प बृहद्भाष्य आदि के रचयिता - इस
प्रचलित था।....आचार्य जिनभद्र का युग क्षमाश्रमणों का युग रहा प्रकार सामान्यतया चार आगमिक भाष्यकार हुए हैं। प्रथम दो
होगा , अतः सम्भव है कि उनके बाद के लेखकों ने उनके लिये भाष्यकारों के नाम तो हमें मालूम ही हैं। बृहत्कल्प-बृहद्भाष्य
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________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - 'वावनाचार्य के स्थान पर 'क्षमाश्रमण' पद का उल्लेख किया हो।" 11. वही, पृ. 20-21 - गणधरवाद : प्रस्तावना, पृ. 31 12. वही, पृ. 21-22 6. जैन गुर्जर कविओ, भा. 2, पृ. 669 13. सीहो सुदाढ नागो आसग्गीवो य होइ अण्णेसिं / 7. जीतककल्पचूर्णि, गा. 5-10 (जीतकल्पसूत्र : प्रस्तावना, सिंहो मिगद्धओ त्ति य होइ वसुदेवचरियम्मि।। सीहो चेव सुदाढो, जं रायगिहम्मि कविलबडुओ त्ति। पृ.६-७) सीसड् बवहारे गोयमोवसमिओ स णिक्खंतो।। 8. गणधरवाद : प्रस्तावना, पृ. 32-33 - विशेषणवती, 33-34 9. यह चूर्णि अनुयोगद्वार के अंगल पद पर है जो जिनदास की। सीहो तिविट्ठ निहतो, भमिउं रायगिह कबलि बडुगत्ति। चूर्णि तथा हरिभद्र की वृत्ति में अक्षरशः उद्धृत है। जिणवर कहममणुबसम गोयमोबसम दिक्खा य।। 10. नियुक्तिलघुभाष्य - वृत्युपेत - बृहत्कल्पसूत्र (षष्ठ भाग) : - व्यवहारभाष्य 192 प्रस्तावना, पृ. 20