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भारतीय दार्शनिक चिन्तन में उपस्थित सामाजिक सन्दर्भों को समझने के लिए सर्वप्रथम हमें यह जान लेना चाहिए कि केवल कुछ दार्शनिक प्रस्थान ही सम्पूर्ण भारतीय प्रज्ञा एवं भारतीय चिन्तन का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, इन दार्शनिक प्रस्थानों से हटकर भी भारत में दार्शनिक चिन्तन हुआ है और उसमें अनेकानेक सन्दर्भ उपस्थित हैं। दूसरे यह कि भारतीय दर्शन मात्र बौद्धिक एवं सैद्धान्तिक ही नहीं है, वह अनुमूल्यात्मक एवं व्यावहारिक भी है; कोई भी भारतीय दर्शन ऐसा नहीं है जो मात्र तत्त्वमीमांसीय ( Metaphysical) एवं ज्ञान मीमांसीय (Epistomological) चिन्तन से ही सन्तोष धारण कर लेता हो। उसमें ज्ञान ज्ञान के लिए नहीं, अपितु जीवन के सफल संचालन के लिए है । उसका मूल दुःख की समस्या में है । दुःख और दुःख - मुक्ति यही भारतीय दर्शन का 'अथ' और 'इति' है। यद्यपि तत्त्व मीमांसा प्रत्येक भारतीय दार्शनिक प्रस्थान के महत्वपूर्ण अंग रहे हैं किन्तु वे सम्यक् जीवनदृष्टि के निर्माण और सामाजिक व्यवहार की शुद्धि के लिए हैं। भारतीय चिन्तन में दर्शन की धर्म और नीति से अवियोज्यता उसके सामाजिक सन्दर्भ को और स्पष्ट कर देती है। यहाँ दर्शन जानने की नहीं, अपितु जीने की वस्तु रहा है; वह ज्ञान (बौद्धिक ज्ञान) नहीं, अनुभूति है और इसीलिए वह फिलासफी नहीं, दर्शन है, जीवन जीने का एक सम्यक् दृष्टिकोण है।
भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना
यद्यपि हमारा दुर्भाग्य तो यह रहा कि मध्य युग में दर्शन साधकों और ऋषि-मुनियों के हाथों से निकलकर तथाकथित बुद्धिजीवियों के हाथों में चला गया । फलतः उसमें तार्किक पक्ष प्रधान तथा अनुभूतिपूरक साधना पक्ष एवं आचार-पक्ष गौण हो गया और हमारी जीवन-शैली से उसका रिश्ता धीरे-धीरे टूटता गया ।
सामाजिक चेतना के विकास की दृष्टि से भारतीय चिन्तन को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं
१- वैदिक युग,
२ औपनिषदिक युग एवं जैन-बौद्ध
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युग
वैदिक युग में जनमानस में सामाजिक चेतना को जाग्रत करने का प्रयत्न किया गया, जबकि औपनिषदिक युग में सामाजिक चेतना के लिए दार्शनिक आधार का प्रस्तुतिकरण किया गया और जैन-बौद्ध युग में सामाजिक सम्बन्धों के शुद्धिकरण पर बल दिया गया।
भारतीय चिन्तन की प्रवर्तक वैदिक धारा में सामाजिकता का तत्व उसके प्रारम्भिक काल से ही उपस्थित है। वेदों में सामाजिक जीवन की संकल्पना के व्यापक सन्दर्भ हैं। वैदिक ऋषि सफल एवं सहयोगपूर्ण सामाजिक जीवन के लिए अम्बर्धना करते हुए कहता है कि 'संगच्छध्वं संवदध्वंसं वो मनांसि जानताम् (ऋग्वेद १० / १९१ / २) तुम मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम्हारे मन साथ-साथ विचार करें अर्थात् तुम्हारे
समानमस्तु
वः
जीवन व्यवहार में सहयोग, तुम्हारी वाणी में समस्वरता और तुम्हारे विचारों में समानता हो। आगे पुनः वह कहता है समानो मन्त्रः समितिः समानी, समानं मनः सहचित्तमेषाम् । समानी व आकूतिः समाना हृदयानी वः ।। वो मनो यथा सुहासति ।। (ऋग्वेद १०/१९९ / ३-४) आप सबके निर्णय समान हों, आप सबकी सभा भी सबके लिए समान हो, अर्थात् सबके प्रति समान व्यवहार करें। आपका मन भी समान हो और आपकी चित्त वृति भी समान हो, आपके संकल्प एक हों, आपके हृदय एक हों, आपका मन भी एक रूप हो ताकि आप मिलजुल कर अच्छी तरह से कार्य कर सकें । सम्भवतः सामाजिकजीवन एवं समाज निष्ठा के परिप्रेक्ष्य में वैदिक युग के भारतीय चिन्तक के ये महत्त्वपूर्ण उद्गार हैं। वैदिक ऋषियों का 'कृण्वतो विश्वमार्यम्' के रूप में एक सुसभ्य एवं सुसंस्कृत मानव समाज की रचना का मिशन तभी सफल हो सकता था जबकि वे जन-जन में समाज-निष्ठा के बीज का वपन करते । सहयोगपूर्ण जीवन शैली उनका मूल मंतव्य था । प्रत्येक अवसर पर शांति पाठ के माध्यम से वे जन-जन में सामाजिक चेतना के विकास का प्रयास करते थे । वे अपने शांति पाठ में कहते थे - ॐ सहनाववतु सहनोभुनक्तु सहवीयं करवावहे, तेजस्विनावधीतमस्तु मा - विद्विषावहे ।
(तैत्तिरीय आरण्यक, ८/२)
हम सब साथ-साथ रक्षित हों, साथ-साथ पोषित हों, साथसाथ सामर्थ्य को प्राप्त हों, हमारा अध्ययन तेजस्वी हों, हम आपस में विद्वेष न करें। वैदिक समाज दर्शन का आदर्श था 'शत हस्तः समाहर, सहस्त्रहस्त सीकर सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हजार हाथों से बाँटो । किन्तु यह बाँटने की बात दया या कृपा नहीं है अपितु सामाजिक दायित्व का बोध है। क्योंकि भारतीय चिन्तन में दान के लिए संविभाग शब्द का प्रयोग होता रहा है, इसमें सम वितरण या सामाजिक दायित्व का बोध ही प्रमुख है, कृपा, दया, करुणा ये सब गौण हैं। आचार्य शंकर ने दान की व्याख्या की है 'दानं संविभागम्' । जैन दर्शन में तो अतिथि संविभाग के रूप में एक स्वतन्त्र व्रत की व्यवस्था की गई है। वैदिक ऋषियों का निष्कर्ष था कि जो अकेला खाता है वह पापी है (केवलाघो भवति केवलादी) । जैन दर्शनिक भी कहते थे 'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो' जो सम-विभागी नहीं है उसकी मुक्ति नहीं होगी । इस प्रकार हम वैदिक युग में सहयोग एवं सहजीवन का संकल्प उपस्थित पाते हैं। किन्तु उसके लिए दार्शनिक आधार का प्रस्तुतिकरण औपनिषदिक चिन्तन में ही हुआ है। औपनिषदिक ऋषि 'एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा' 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' तथा 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' के रूप में एकत्व की अनुभूति करने लगा। औपनिषदिक चिन्तन में
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भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना
वैयक्तिकता से ऊपर उठकर सामाजिक एकता के लिए अभेद-निष्ठा का सर्वोत्कृष्ट तात्विक आधार प्रस्तुत किया गया। इस प्रकार जहाँ वेदों की समाज-निष्ठा बर्हिमुखी थी, वहीं उपनिषदों में आकर अर्न्तमुखी हो गयी। भारतीय दर्शन में यह अभेद-निष्ठा ही सामाजिक एकत्व की चेतना एवं सामाजिक समता का आधार बनी है। ईशावास्योपनिषद् का ऋषि कहता था
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ।।
जो सभी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है वह अपनी इस एकात्मा की अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता है । सामाजिक जीवन के विकास का आधार एकात्मा की अनुभूति है और जब एकात्मा की दृष्टि का विकास हो जाता है तो घृणा और विद्वेष के तत्त्व स्वतः समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार जहाँ एक ओर औपनिषदिक ऋषियों ने एकात्मा की चेतना को जाग्रत कर सामाजिक जीवन के विनाशक घृणा एवं विद्वेष के तत्त्वों को समाप्त करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने सम्पत्ति के वैयक्तिक अधिकार का निरसन कर ईश्वरीय सम्पदा अर्थात् सामूहिक सम्पदा का विचार भी प्रस्तुत किया। ईशावास्योपनिषद् के प्रारम्भ में ही ऋषि कहता है : ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्चि जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृद्ध कस्यस्विद्धनम् ।। - ईशा०, १/१ अर्थात् इस जग में जो कुछ भी है वह सभी ईश्वरीय है ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे वैयक्तिक कहा जा सके । इस प्रकार श्लोक के पूर्वार्द्ध में वैयक्तिक अधिकार का निरसन करके समष्टि को प्रधानता दी गई है। श्लोक के उत्तरार्द्ध में व्यक्ति के उपभोग एवं संग्रह के अधिकार को मर्यादित करते हुए कहा गया कि प्रकृति की जो भी उपलब्धियाँ हैं उनमें दूसरों (अर्थात् समाज के दूसरे सदस्यों) का भी भाग है। अतः उनके भाग को छोड़कर ही उनका उपयोग करो, संग्रह या लालच मत करो क्योंकि सम्पत्ति किसी एक की नहीं है। सम्भवतः सामाजिकता की चेतना के विकास के लिए इससे अधिक महत्त्वपूर्ण दूसरा कथन नहीं हो सकता था । यही कारण था कि गांधी जी ने इस श्लोक के सन्दर्भ में कहा था कि यदि भारतीय संस्कृति का सभी कुछ नष्ट हो जाये किन्तु यह श्लोक बना रहे तो यह अकेला ही उसकी अभिव्यक्ति में समर्थ है । तेन त्यक्तेन भुंजीथा: में समग्र सामाजिक चेतना केन्द्रित दिखाई देती है।
यदि हम उपनिषदों के पश्चात् महाभारत और उसके ही एक अंश गीता की ओर आते हैं तो यहाँ भी हमें सामाजिक चेतना का स्पष्ट दर्शन होता है। महाभारत तो इतना व्यापक ग्रन्थ है कि उसमें उपस्थित समाज - दर्शन पर एक स्वतन्त्र महानिबन्ध लिखा जा सकता है । सर्वप्रथम महाभारत में और उसके पश्चात् आचार्य शान्तिदेव के बोधिचर्यावतार में हमें समाज की आंगिक संकल्पना का वह सिद्धान्त परिलक्षित होता
है, जिस पर पाश्चात्य चिन्तन में सर्वाधिक बल दिया गया है। आचार्य शान्तिदेव लिखते हैं
'कायस्यावयवत्वेन यथाभीष्टा करादयः । जगतो ऽवयवत्वेन तथा कस्मान्न देहिनः ।।' (बोधिचर्यावतार, ८ / ११४)
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जिस प्रकार हाथ आदि शरीर के अवयव होने के कारण प्रिय होते हैं वैसे ही सब प्राणी जगत् के अवयव होने के कारण क्यों प्रिय नहीं होंगे। गीता भी इस एकात्मता की अनुभूति पर बल देती है। गीताकार कहता है कि
'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमोमतः ।।' (गीता, ६ / ३२) अर्थात् जो सुख-दुःख की अनुभूति में सभी को अपने समान समझता है वही सच्चा योगी है। मात्र इतना ही नहीं, वह तो इससे आगे यह भी कहता है कि सच्चा दर्शन या ज्ञान वही है जो हमें एकात्मा की अनुभूति कराता है 'अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम्' । वैयक्तिक विभिन्नताओं में भी एकात्मा की अनुभूति ही ज्ञान की सात्विकता और हमारी समाज-निष्ठा का एक मात्र आधार है। सामाजिक दृष्टि से गीता 'सर्वभूतहिते रताः' का सामाजिक आदर्श भी प्रस्तुत करती है। अनासक्त भाव से युक्त होकर लोक कल्याण के लिए कार्य करते रहना ही गीता के समाज दर्शन का मूल मन्तव्य है । श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं -
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'ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ' ( गीता, १२ / ४) मात्र इतना ही नहीं, गीता में सामाजिक दायित्वों के निर्वहन पर भी पूरा-पूरा बल दिया गया है जो अपने सामाजिक दायित्वों को पूर्ण किये बिना भोग करता है वह गीताकार की दृष्टि में चोर है (स्तेन एव सः, ३/१२)। साथ ही जो मात्र अपने लिए पकाता है वह पाप काही अर्जन करता है । (भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् इसलिए उसने संन्यास की नवीन परिभाषा भी प्रस्तुत की है। वह कहती ३/१३)। गीता हमें समाज में रहकर ही जीवन जीने की शिक्षा देती हैं
है कि
'काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः (गीता, १८/२) काम्य अर्थात स्वार्थ युक्त कर्मों का त्याग ही संन्यास है, केवल निरग्नि और निष्क्रिय हो जाना संन्यास नहीं है । सच्चे संन्यासी का लक्षण है समाज में रहकर लोक-कल्याण के लिए अनासक्त भाव से कर्म करता रहे।
अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः ।
स संन्यासी च योगी च न निरग्नि न चाक्रियः ।। (गीता ६/१) गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोक शिक्षा को चाहते हुए कर्म करता रहे (कुर्यात् विद्वान् तयासक्तः चिकीर्षुः लोकसंग्रहम् ३ / २५) । गीता में गुणाश्रित कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था का जो आदर्श प्रस्तुत किया था वह भी सामाजिक दृष्टि से कर्तव्यों एवं दायित्वों के विभाजन का एक महत्त्वपूर्ण कार्य था, यद्यपि भारतीय समाज का यह दुर्भाग्य था कि गुण अर्थात् वैयक्तिक योग्यता के आधार पर कर्म एवं वर्ण का यह विभाजन किन्हीं स्वार्थों के कारण जन्मना बना दिया गया।
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________________ 528 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ गीता वर्ण-व्यवस्था को तो स्वीकार करती है किन्तु जन्म के आधार पर सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों से बद्ध होने की बात नहीं कहता है / नहीं, गुण एवं कर्म के आधार पर (चातुर्वयं मयासष्टं गुण-कर्मविभागशः उसके अनुसार व्यक्ति के लिये मुख्य कर्तव्य एक ही है, वह यह कि - गीता, 4/13) / गीता में श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि - जिस तरह भी हो आत्म-साक्षात्कार का और उसमें रुकावट डालने वाली ब्राह्मण क्षत्रिय विशां शूद्राणां च परंतप / इच्छा के नाश का प्रयत्न करे (दर्शन और चिन्तन)।" किन्तु इस आधार कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्रभवैर्गुणैः / / पर यह मान लेना कि भारतीय चिन्तन की निवर्तक धारा के समर्थक (गीता, 18/41) अर्थात् जैन, बौद्ध, सांख्य, योग, शांकर वेदान्त आदि दर्शन असामाजिक हे अर्जुन ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्मों का हैं या इन दर्शनों में सामाजिक सन्दर्भ का अभाव है, नितान्त भ्रम विभाजन उनके स्वभाव से उत्पन्न गुणों के आधार पर किया गया है। होगा / इनमें भी सामाजिक भावना से पराङ्गमुखता नहीं दिखाई देती सामाजिक जीवन में विषमता एवं संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण कारण है। ये दर्शन इतना तो अवश्य मानते हैं कि चाहे वैयक्तिक साधना की सम्पत्ति का अधिकार है / श्रीमद्भागवत भी ईशावास्योपनिषद् के समान दृष्टि से एकांकी जीवन लाभप्रद हो सकता है किन्तु उस साधना से प्राप्त ही सम्पत्ति पर व्यक्ति के अधिकार को अस्वीकार करती है। उसमें कहा सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में ही होना चाहिए। गया है - महावीर, बुद्ध और शंकराचार्य का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है यावत् भ्रियेत जठरं, तावत् स्वत्वं देहिनाम् / कि वे ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् जीवन-पर्यन्त लोक-मंगल के लिए कार्य अधिको योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति / / करते रहे / यद्यपि इन निवृत्तिप्रधान दर्शनों में जो सामाजिक सन्दर्भ -श्रीमद्भागवत, 7/14/8 उपस्थित हैं, वे थोड़े भिन्न प्रकार के अवश्य हैं। इनमें मूलत: सामाजिक अर्थात् अपनी दैहिक आवश्यकता से अधिक सम्पदा पर सम्बन्धों की शुद्धि का प्रयास परिलक्षित होता है / सामाजिक सन्दर्भ की अपना स्वत्व मानना सामाजिक दृष्टि से चोरी है, अनधिकृत चेष्टा है। दृष्टि से इनमें समाज-रचना एवं सामाजिक दायित्वों का निवर्हण की आजका समाजवाद एवं साम्यवाद भी इसी आदर्श पर खड़ा है, 'योग्यता अपेक्षा समाज-जीवन को दूषित बनाने वाले तत्त्वों के निरसन पर बल के अनुसार कार्य और आवश्यकता के अनुसार वेतन' की उसकी धारणा दिया गया है / जैन दर्शन के पंच महाव्रत, बौद्ध दर्शन के पंचशील और यहाँ पूरी तरह उपस्थित है / भारतीय चिन्तन में पुण्य और पाप का जो योग दर्शन के पंचयमों का सम्बन्ध अनिवार्यतया हमारे सामाजिक जीवन वर्गीकरण है, उसमें भी सामाजिक दृष्टि ही प्रमुख है / पाप के रूप में से ही है / प्रश्नव्याकरण सूत्र नामक जैन आगम में कहा गया है कि जिन दुर्गणों का और पुण्य के रूप में जिन सद्गुणों का उल्लेख है उनका 'तीर्थंकर का यह सुकथित प्रवचन सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा सम्बन्ध वैयक्तिक जीवन की अपेक्षा सामाजिक जीवन से अधिक है। के लिए हैं / पाँचों महाव्रत सर्वप्रकार से लोकहित के लिए ही हैं - (प्रश्न पुण्य और पाप की एक मात्र कसौटी है, किसी कर्म का लोक-मंगल व्याकरण, 1/1/21-22) / हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, संग्रह में उपयोगी या अनुपयोगी होना / कहा भी गया है - (परिग्रह) ये सब वैयक्तिक नहीं, सामाजिक जीवन की दुष्प्रवृत्तियाँ हैं / परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्' ये सब दूसरों के प्रति हमारे व्यवहार से सम्बन्धित हैं / हिंसा का अर्थ ___ जो लोक के लिए हितकर तथा कल्याण कर है, पुण्य है और है किसी अन्य की हिंसा, असत्य का मतलब है किसी अन्य को गलत इसके विपरीत जो भी दूसरों के लिए पीड़ा-जनक है, अमंगलकर है वह जानकारी देना, चोरी का अर्थ है किसी दूसरे की सम्पत्ति का अपहरण पाप है / इस प्रकार भारतीय चिन्तन में पुण्य-पाप की व्याख्यायें भी करना, इसी प्रकार संग्रह या परिग्रह का अर्थ है समाज में आर्थिक सामाजिक दृष्टि पर ही आधारित हैं। विषमता पैदा करना / क्या समाज जीवन के अभाव में इनका कोई अर्थ (3) या सन्दर्भ रह जाता है / अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह यदि हम निवर्तक धारा के समर्थक जैन, बौद्ध, सांख्य, योग की जो मर्यादायें इन दर्शनों ने दीं, वे हमारे सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि एवं शांकर वेदान्त की ओर दृष्टिपात करते हैं तो प्रथम दृष्टि में ऐसा के लिए ही हैं। लगता है कि इनमें समाज की दृष्टि की उपेक्षा की गई है / सामान्यतया इसी प्रकार इन दर्शनों की साधना पद्धति में समान रूप से यह माना जाता है कि निवृत्ति-प्रधान दर्शन व्यक्ति-परक और प्रवृत्ति- प्रस्तुत मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थ की भावनाओं के आधार पर प्रधान दर्शन समाज-परक होते हैं / पं० सुखलालजी के शब्दों में भी सामाजिक सन्दर्भ को स्पष्ट किया जा सकता है / आचार्य अमितगति "प्रवर्तक धर्म का संक्षेप सार यह है कि जो और जैसी समाज व्यवस्था इन भावनाओं की अभिव्यक्ति निम्न शब्दों में करते हैं - है, उसे इस तरह नियम-बद्ध करना कि जिससे समाज का प्रत्येक सभ्य सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वम् / अपनी-अपनी स्थिति और कक्षा के अनुरूप सुख लाभ करे / प्रवर्तक धर्म माध्यस्थ-भावं विपरीतवृत्तौ सदामआत्मा विदधातु देव / / समाज-गामी था, इसका मतलब यह था कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में -सामायिक पाठ रहकर (उन) सामाजिक कर्तव्यों का पालन करे जो ऐहिक जीवन से हे प्रभु ! हमारे मनों में प्राणियों के प्रति मित्रता, गुणीजनों के सम्बन्ध रखते हैं / (जबकि) निवर्तक धर्म व्यक्तिगामी है, (वह) समस्त प्रति प्रमोद, दुःखियों के प्रति करुणा तथा दुष्ट जनों के प्रति मध्यस्थ भाव
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________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना 529 विद्यमान रहें / इस प्रकार इन भावनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न सामाजिक सम्बन्धों के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती क्तियों से हमारे सम्बन्ध किस प्रकार के हों, यही स्पष्ट किया है। सामान्यतया राग द्वेष का सहगामी होता है और जब सम्बन्ध रागगया है / समाज मे दूसरे लोगों के साथ हम किस प्रकार जीवन जियें द्वेष के आधार पर खड़े होते हैं तो इन सम्बन्धों से टकराहट एवं विषमता यह हमारी सामाजिकता के लिए अति आवश्यक है और इन दर्शनों में स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है / बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिदेव इस प्रकार से व्यक्ति को समाज-जीवन से जोड़ने का ही प्रयास किया लिखते हैं - गया है / इन दर्शनों का हृदय रिक्त नहीं है। इनमें प्रेम और करुणा की उपद्रवा ये च भवन्ति लोके यावन्ति दुःखानि भयानि चैव / अटूट धारा बह रही है / तीर्थंकर की वाणी का प्रस्फुटन ही लोक की सर्वाणि तान्यात्म परिग्रहेण तत् किं ममानेन परिग्रह / / करुणा के लिए होता है (समेच्च लोये खेयन्ने पण्बेइये) / इसीलिए तो आत्मान् परित्यज्य दुःख त्यैक्तुं न शक्यते / आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं 'सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदय तीर्थमिदं यथाग्नि परित्यज्य दाहं त्यैक्तुं न शक्यते / / तवैव' 'हे प्रभु ! आपका अनुशासन सभी दु:खों का अन्त करने वाला -बोधिचर्यावतार, 8/134-135 और सभी का कल्याण, सर्वोदय करने वाला है / ' जैन आगमों में संसार के सभी दुःख और भय एवं तद्जन्य उपद्रव ममत्व के प्रस्तुत कुल धर्म, ग्राम-धर्म, नगर-धर्म, राष्ट्र-धर्म एवं गण-धर्म भी कारण होते हैं / जब तक ममत्व बुद्धि का परित्याग नहीं किया जाता उसकी समाज-सापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं / त्रिपिटिक में भी अनेक तब तक इन दुःखों की समाप्ति सम्भव नहीं है / जैसे अग्नि का परित्याग सन्दर्भो में व्यक्ति के विविध सामाजिक सम्बन्धों के आदर्शों का चित्रण किये बिना तज्जन्य दाह से बचना असम्भव है / राग हमें सामाजिक किया गया है / इन सब पर इस लघु निबन्ध में प्रकाश डाल पाना जीवन से जोड़ता नहीं है, अपितु तोड़ता ही है / राग के कारण मेरा या सम्भव नहीं है / पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक ममत्व भाव उत्पन्न होता है / मेरे सम्बन्धी, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा . सम्बन्धों को सुमधुर एवं समायोजनपूर्ण बनाने तथा सामाजिक टकराव राष्ट्र ये विचार विकसित होते हैं और उसके परिणामस्वरूप भाईके कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए इन दर्शनों का भतीजावाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और संकुचित राष्ट्रवाद का जन्म महत्त्वपूर्ण योगदान है। होता है / आज मानव जाति के सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों में ये ही होता है। वस्तुत: इन दर्शनों ने आचार शुद्धि पर बल देकर व्यक्ति सुधार सबसे अधिक बाधक तत्त्व हैं / ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, के माध्यम से समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया / इन्होंने व्यक्ति को साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर नहीं उठने देते हैं / वे ही समाज का केन्द्र माना और इसलिए उसके चरित्र के निर्माण पर बल आज की विषमता के मूल कारण हैं / भारतीय दर्शन ने राग या आसक्ति दिया / वस्तुतः इन दर्शनों के युग तक समाज-रचना का कार्य पूरा हो के प्रहाण पर बल देकर सामाजिकता की एक यथार्थ दृष्टि ही प्रदान की चुका था अतः इन्होंने मुख्य रूप से सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने है। प्रथम तो यह कि राग किसी पर होता है और जो किसी पर होता का प्रयास किया और सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि पर बल दिया। है वह सब नहीं हो सकता है / अत: राग से ऊपर उठे बिना या आसक्ति (4) छोड़ बिना सामाजिकता की सच्ची भूमिका प्राप्त नहीं की जा सकती। सम्भवतः भारतीय दर्शन को जिन आधारों पर सामाजिक सामाजिक जीवन की विषमताओं का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा ही जीवन से कटा हुआ माना जाता है उनमें प्रमुख हैं राग या आसक्ति का है। व्यक्ति जिसे अपना मानता है उसके हित की कामना करता है और प्रहाण, संन्यास या निवृत्ति मार्ग की प्रधानता तथा मोक्ष का प्रत्यय / ये जिसे पराया मानता है उसके हित की उपेक्षा करता है / सामाजिक जीवन ही ऐसे तत्त्व हैं जो व्यक्ति को सामाजिक जीवन से अलग करते हैं। में शोषण, क्रूर व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किये जाते हैं, अत: भारतीय सन्दर्भ में इन प्रत्ययों की सामाजिक दृष्टि से समीक्षा जिन्हें हम अपना नहीं मानते हैं / यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है कि हम आवश्यक है। अपनी रागात्मकता या ममत्ववृत्ति का पूर्णतया विसर्जन कर सकें किन्तु सर्वप्रथम भारतीय दर्शन आसक्ति, राग या तृष्णा की समाप्ति यह भी उतना ही सत्य है कि उसका एक सीमा तक विसर्जन किये बिना पर बल देता है, किन्तु प्रश्न यह है कि क्या आसक्ति या राग से ऊपर अपेक्षित सामाजिक जीवन का विकास नहीं हो सकता / व्यक्ति का उठने की बात सामाजिक जीवन से अलग करती है। सामाजिक जीवन ममत्व चाहे वह व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन या राष्ट्र की सीमा का आधार पारस्परिक सम्बन्ध है और सामान्यतया यह माना जाता है तक विस्तृत हो, हमें स्वार्थ-भावना से ऊपर नहीं उठने देता / स्वहित कि राग से मुक्ति या आसक्ति की समाप्ति तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति की वृत्ति चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति, समान रूप से अपने को सामाजिक जीवन से या पारिवारिक जीवन से अलग कर सामाजिकता की विरोधी ही सिद्ध होती है / उसके होते हुए सच्चा ले / किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है / न तो सम्बन्ध तोड़ देने मात्र सामाजिक जीवन फलित नहीं हो सकता / जिस प्रकार परिवार के प्रति से राग समाप्त हो जाता है, न राग के अभाव मात्र से सम्बन्ध टूट जाते ममत्व का सघन रूप हममें राष्ट्रीय चेतना का विकास नहीं कर सकता हैं, वास्तविकता तो यह है कि राग या आसक्ति की उपस्थिति में हमारे उसी प्रकार राष्ट्रीयता के प्रति भी ममत्व सच्ची मानवीय एकता में यथार्थ सामाजिक सम्बन्ध ही नहीं बन पाते / सामाजिक जीवन और सहायक सिद्ध नहीं हो सकता / जिन राष्ट्रों में व्यावहारिक सच्चाई एवं
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________________ 530 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्रामाणिकता है, वे भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सत्यनिष्ठ और प्रामाणिक नहीं क्या वह असामाजिक हो जाता है ? संन्यास के संकल्प में वह कहता हैं / इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति का जीवन जब तक राग या है कि 'वित्तेषणा पुढेषणा लोकेषणा मया परित्यक्ता अर्थात् मैं आसक्ति से ऊपर नहीं उठता तब तक सामाजिकता का सद्भाव सम्भव धर्म-कामना, सन्तान-कामना और यश-कामना का परित्याग करता हूँ नहीं हो सकता। समाज त्याग एवं समर्पण के आधार पर खड़ा होता है किन्तु क्या धन-सम्पदा, सन्तान तथा यशकीर्ति की कामना का परित्याग अत: वीतराग या अनासक्त दृष्टि ही सामाजिक जीवन के लिए वास्तविक समाज का परित्याग है ? वस्तुत: समस्त एषणाओं का त्याग स्वार्थ का आधार प्रस्तुत कर सकती है और सम्पूर्ण मानव-जाति में सुमधुर त्याग है, वासनामय जीवन का त्याग है, संन्यास का यह संकल्प उसे सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण कर सकती है / भारतीय दर्शन में राग समाज-विमुख नहीं बनाता है, अपितु समाज-कल्याण की उच्चतर के साथ-साथ अहं के प्रत्यय के विगलन पर भी समान रूप से बल दिया भूमिका पर अधिष्ठित करता है क्योंकि सच्चा लोकहित नि:स्वार्थता एवं गया है / अहं भाव भी हमारे सामाजिक सम्बन्धों में बाधा ही उत्पन्न करता विराग की भूमि पर स्थित होकर ही किया जा सकता है। है। शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व है और भारतीय चिन्तन संन्यास को समाज-निरपेक्ष नहीं मानता / इनके कारण सामाजिक जीवन में विषमता एवं टकराहट उत्पन्न होती भगवान बुद्ध का यह आदेश 'चरत्थ भिक्खवे चारिकं बहुजन-हिताय है। भारतीय दर्शन अहं के प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक जीवन बहुजन-सुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय देव मनुस्सानं' (विनय में परतन्त्रता को समाप्त करता है / यदि हम सामाजिक सम्बन्धों में पिटक-महावग्ग)। इस बात का प्रमाण है कि संन्यास लोक-मंगल के उत्पन्न होने वाली विषमता एवं टकराहट के कारणों का विश्लेषण करें लिए होता है / सच्चा संन्यासी वह व्यक्ति है जो समाज से अल्पतम तो उसके मूल में हमारी आसक्ति, रागात्मकता या अहं ही प्रमुख है। लेकर उसे अधिकतम देता है / वस्तुत: कुटुम्ब, परिवार आदि का त्याग आसक्ति, ममत्व भाव या राग के कारण ही मनुष्य में संग्रह, आवेश और इसलिए करता है कि वह समष्टि का होकर रहे क्योंकि जो किसी का कपटाधार के तत्त्व जन्म लेते हैं। संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, है वह सबका नहीं हो सकता, जो सबका है वह किसी एक का नहीं अप्रामाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार एवं विश्वासघात के तत्त्व विकसित है। संन्यासी नि:स्वार्थ और निष्काम रूप से लोक-मंगल-साधक होता होते हैं / इसी प्रकार आवेश की मनोवृत्ति के कारण क्रूर व्यवहार, संघर्ष, है। संन्यास शब्द सम्पूर्वक न्यास है, न्यास शब्द का एक अर्थ देखरेख युद्ध एवं हत्याएँ होती हैं / और कपट की मनोवृत्ति अविश्वास एवं करना भी है / संन्यासी वह व्यक्ति है जो सम्यक् रूप से एक न्यासी अमैत्रीपूर्ण व्यवहार को जन्म देती है। अत: यह कहना उचित ही होगा (ट्रस्टी) की भूमिका अदा करता है और न्यासी वह है जो ममत्व भाव कि भारतीय दर्शन ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिक और स्वामित्व का त्याग करके किसी ट्रस्ट (सम्पदा) का रक्षण एवं विषमताओं को समाप्त करने एवं सामाजिक समत्व की स्थापना करने विकास करता है / संन्यासी सच्चे अर्थ में एक ट्रस्टी है। ट्रस्टी यदि में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया है / समाज त्याग एवं समर्पण पर खड़ा होता ट्रस्ट का उपयोग अपने हित में करता है, अपने को उसका स्वामी है, जीता है और विकसित होता है, यह भारतीय चिन्तन का महत्त्वपूर्ण समझता है तो वह सम्यक् ट्रस्टी नहीं हो सकता है। इसी प्रकार यदि निष्कर्ष है / वस्तुत: आसक्ति या राग तत्त्व की उपस्थिति में सच्चा वह ट्रस्ट के रक्षण एवं विकास का प्रयत्न न करे तो भी सच्चे अर्थ में लोकहित भी फलित नहीं होता है / आसक्ति या कर्म-फल की आकांक्षा ट्रस्टी नहीं है / इसी प्रकार यदि संन्यासी लोकेषणा से युक्त है, ममत्वके साथ किया गया कोई भी लोक-हित का कार्य स्वार्थपरता से शून्य बुद्धि या स्वार्थ बुद्धि से काम करता है तो संन्यासी नहीं है और यदि लोक नहीं होता है / जिस प्रकार शासन की ओर से नियुक्त समाज कल्याण की उपेक्षा करता है, लोक मंगल के लिए प्रयास नहीं करता है तो वह अधिकारी लोकहित को करते हुए भी सच्चे अर्थों में लोकहित का कर्ता भी संन्यासी नहीं है / उसके जीवन का मिशन तो 'सर्वभूत-हिते रतः' नहीं है, क्योंकि वह जो कुछ भी करता है वह केवल अपने वेतन के का है। लिए करता है, इसी प्रकार आसक्ति या राग-भावना से युक्त व्यक्ति चाहे संन्यास का राग से ऊपर उठना आवश्यक है। किन्तु इसका बाहर से लोकहित का कर्ता दिखाई दे किन्तु वह सच्चे अर्थ में लोकहित तात्पर्य समाज की उपेक्षा नहीं है / संन्यास की भूमिका में स्वत्व एवं का कर्ता नहीं है। अत: भारतीय दर्शन ने आसक्ति से या राग से ऊपर ममत्व के लिए निश्चय ही कोई स्थान नहीं है। फिर भी वह पलायन नहीं, उठकर लोकहित करने के लिए एक यथार्थ भूमिका प्रदान की। सराग अपितु समर्पण है / ममत्व का परित्याग कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं है, लोकहित या फलासक्ति से युक्त लोकहित छद्म स्वार्थ ही है / अतः अपितु कर्त्तव्य का सही बोध है / संन्यासी उस भूमिका पर खड़ा होता भारतीय दर्शनों में अनासक्ति एवं वीतरागता के प्रत्यय पर जो कुछ बल है जहाँ व्यक्ति अपने में समष्टि को और समष्टि में अपने को देखता है। दिया है वह सामाजिकता का विरोधी नहीं है। उसकी चेतना अपने और पराये के भेद से ऊपर उठ जाती है / अपने और पराये के विचार से ऊपर हो जाना विमुखता नहीं है, अपितु यह सामान्यतया भारतीय दर्शन के संन्यास के प्रत्यय को समाज तो उसके हृदय की व्यापकता है, महानता है / इसलिए भारतीय निरपेक्ष माना जाता है किन्तु क्या संन्यास की धारणा समाज-निरपेक्ष हैं ? चिन्तकों ने कहा है - निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन का त्याग करता है किन्तु इससे .
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________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना 531 अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् / शंकर कहते हैं - उदारचरितानां तु बसुधैव कुटुम्बकम् / / 'वासनाप्रक्षयो मोक्षः' संन्यास की भूमिका न तो आसक्ति की भूमिका है और न (विवेक चूड़ामणि, 318) उपेक्षा की / उसकी वास्तविक स्थिति ‘धाय' (नर्स) के समान ममत्व वस्तुतः मोह और क्षोभ हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं और रहित कर्तव्य भाव की होती है / कहा भी गया है - इसलिए मुक्ति का सम्बन्ध भी हमारे जीवन से ही है / मेरी दृष्टि में मोक्ष सम दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल / मानसिक तनावों से मुक्ति है / यदि हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक अन्तर सूं न्यारा रहे जूं धाय खिलावे बाल / / सार्थकता के सम्बन्ध में विचार करना चाहते हैं तो हमें इन्हीं मनोवृत्तियों वस्तुत: निर्ममत्व एवं नि:स्वार्थ भाव से तथा वैयक्तिकता और एवं मानसिक विक्षोभों के सन्दर्भ में उस पर विचार करना होगा / स्वार्थ से ऊपर उठकर कर्तव्य का पालन ही संन्यास की सच्ची भूमिका सम्भवत: इस सम्बन्ध में कोई भी दो मत नहीं रखेगा कि राग, द्वेष, है / संन्यासी वह व्यक्ति है जो लोक मंगल के लिए अपने व्यक्तित्व एवं तृष्णा, आसक्ति, ममत्व, ईर्ष्या, वैमनस्य आदि की मनोवृत्तियाँ हमारे अपने शरीर को समर्पित कर देता है / वह जो कुछ भी त्याग करता है सामाजिक जीवन के लिए अधिक बाधक हैं / यदि इन मनोवृत्तियों से वह समाज के लिए एक आदर्श बनता है। समाज में नैतिक चेतना को मुक्त होना ही मुक्ति का हार्द है तो मुक्ति का सम्बन्ध हमारे सामाजिक जाग्रत करना तथा सामाजिक जीवन में आने वाली दुःप्रवृत्तियों से व्यक्ति जीवन के साथ जुड़ा हुआ है / मोक्ष मात्र एक मरणोत्तर अवस्था नहीं है को बचाकर लोक मंगल के लिए उसे दिशा-निर्देश देना संन्यासी का अपितु वह हमारे जीवन से सम्बन्धित है / मोक्ष को पुरुषार्थ माना गया सर्वोपरि कर्त्तव्य माना गया है / अत: हम कह सकते हैं कि भारतीय है। इसका तात्पर्य यह है कि वह इसी जीवन में प्राप्तव्य है, जो लोग दर्शन में संन्यास की जो भूमिका प्रस्तुत की गई है वह सामाजिकता की मोक्ष को एक मरणोत्तर अवस्था मानते हैं, वे मोक्ष के वास्तविक स्वरूप विरोधी नहीं है / संन्यासी क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर खड़ा हुआ व्यक्ति से अनभिज्ञ हैं / आचार्य शंकर लिखते हैं - होता है / जो आदर्श समाज रचना के लिए प्रयत्नशील रहता है / अब देहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलौः / हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता पर चर्चा करना चाहेंगे। अविद्या हृदय ग्रन्थि मोक्षो मोक्षो यतस्ततः / / -विवेक चूड़ामणि, 559 भारतीय दर्शन मानव जीवन के लिए अर्थ, काम, धर्म और मरणोत्तर मोक्ष या विदेह-मुक्ति साध्य नहीं है / उसके लिए मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को स्वीकार करता है। यदि हम सामाजिक जीवन कोई साधना अपेक्षित नहीं है। जिस प्रकार मृत्यु जन्म लेने का अनिवार्य के सन्दर्भ में इन पर विचार करते हैं तो इनमें से अर्थ, काम और धर्म परिणाम है उसी प्रकार विदेह-मुक्ति तो जीवन-मुक्ति का अनिवार्य का सामाजिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है / सामाजिक जीवन में ही परिणाम है / अत: जो प्राप्तव्य है, जो पुरुषार्थ है और जो साध्य है वह इन तीनों पुरुषार्थों की उपलब्धि सम्भव है / अर्थोपार्जन और काम का तो जीवन-मुक्ति ही है / जीवन-मुक्ति के प्रत्यय की सामाजिक सार्थकता सेवन तो सामाजिक जीवन से जुड़ा हुआ ही होता है / किन्तु भारतीय से हम इन्कार भी नहीं कर सकते क्योंकि जीवन-मुक्ति एक ऐसा चिन्तन में धर्म भी सामाजिक व्यवस्था और शान्ति के लिए ही है क्योंकि व्यक्तित्व है जो सदैव लोक-कल्याण के लिए प्रस्तुत रहता है / जैन धर्म को 'धर्मोधारयते प्रजाः' के रूप में परिभाषित कर उसका सम्बन्ध दर्शन में तीर्थंकर बौद्ध दर्शन में अर्हत् एवं बोधिसत्व और वैदिक दर्शन भी हमारे सामाजिक जीवन से जोड़ा गया है / वह लोक-मर्यादा और में स्थितप्रज्ञ की जो धारणाएँ प्रस्तुत की गई हैं और उनके व्यक्तित्व को लोक-व्यवस्था का ही सूचक है। अत: पुरुषार्थ-चतुष्टय में केवल मोक्ष जिस रूप में चित्रित किया गया है उससे हम निश्चय ही इस निष्कर्ष पर ही एक ऐसा पुरुषार्थ है जिसकी सामाजिक सार्थकता विचारणीय है। पहुँच सकते हैं कि मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता भी है / वह प्रश्न यह है कि क्या मोक्ष की धारणा सामाजिक दृष्टि से उपादेय हो. लोक-मंगल और मानव कल्याण का एक महान् आदर्श माना जा सकती है ? जहाँ तक मोक्ष की मरणोत्तर अवस्था या तत्त्वमीमांसीय सकता है क्योंकि जन-जन का दुःखों से मुक्त होना ही मुक्ति है, मात्र धारणा का प्रश्न है उस सम्बन्ध में न तो भारतीय दर्शनों में ही एक- इतना ही नहीं, भारतीय चिन्तन में वैयक्तिक मुक्ति की अपेक्षा भी लोक रूपता है और न ही उसकी कोई सामाजिक सार्थकता ही खोजी जा कल्याण के लिए प्रयत्नशील बने रहने को अधिक महत्त्व दिया गया सकती है / किन्तु इसी आधार पर मोक्ष को अनुपादेय मान लेना उचित है। बौद्ध दर्शन में बोधिसत्व का और गीता में स्थितप्रज्ञ का जो आदर्श नहीं है। लगभग सभी भारतीय दार्शनिक इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि प्रस्तुत किया गया है, वह हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि केवल मोक्ष का सम्बन्ध मुख्यतः मनुष्य की मनोवृत्ति से है / बन्धन और मुक्ति वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है / बोधिसत्व दोनों ही मनुष्य के मनोवेगों से सम्बन्धित हैं / राग, द्वेष, आसक्ति, तो लोक मंगल के लिये अपने बन्धन और दुःख की कोई परवाह नहीं तृष्णा, ममत्व, अहं आदि की मनोवृत्तियाँ ही बन्धन हैं और इनसे मुक्त करता है / वह कहता है - होना ही मुक्ति / मुक्ति की व्याख्या करते हुए जैन दार्शनिकों ने कहा था बहूनामेक - दुःखेन यदि दुखं विगच्छति / कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की अवस्था ही मुक्ति है / आचार्य उत्पाद्यमेव तद् दुःखं सदयेन परात्मनोः / /
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________________ 532 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ मुच्यमानेषु सत्वेषु ये ते प्रामोद्यसागराः / है जो अपने व्यक्तित्व को समष्टि में, समाज में विलीन कर दे / आचार्य तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षेणारसिकेन किम् / / शान्तिदेव लिखते हैं - -बोधिचर्यावतार, 8/105,108 सर्वत्यागश्च निर्वाणं निर्वाणार्थि च मे मनः / यदि एक के कष्ट उठाने से बहुतों का दुःख दूर होता हो, तो त्यक्तव्यं चेन्मया सर्वं वरं सत्वेषु दीयतां / / करुणापूर्वक उनके दुःख दूर करना ही अच्छा है / प्राणियों को दुःखों से -बोधिचर्यावतार, 3/11 मुक्त होता हुआ देखकर जो आनन्द प्राप्त होता है वही क्या कम है, फिर इस प्रकार यह धारणा कि मोक्ष का प्रत्यय सामाजिकता का अपने मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है ? वैयक्तिक विरोधी है, गलत है / मोक्ष वस्तुत: दुःखों से मुक्ति है और मनुष्य जीवन मुक्ति की धारणा की आलोचना करते हुए और जन-जन की मुक्ति के के अधिकांश दुःख, मानवीय संवर्गों के कारण ही हैं / अतः मुक्ति, लिए अपने संकल्प को स्पष्ट करते हुए भागवत के सप्तम स्कन्ध में ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, घृणा आदि के संवर्गों से मुक्ति पाने में है और इस प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से कहा था कि - रूप में वह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टि से उपादेय भी है। प्रायेण देवमुनयः स्वविमुक्तिकामाः / दुःख, अहंकार एवं मानसिक क्लेशों से मुक्ति रूप में मोक्ष की उपादेयता मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः / / और सार्थकता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। नेतान् विहाय कृपणाम् विमुमुक्षुरेकः / / / अन्त में हम कह सकते हैं कि भारतीय जीवन-दर्शन की दृष्टि हे प्रभु ! अपनी मुक्ति की कामना करने वाले देव और मुनि पूर्णतया सामाजिक और लोक मंगल के लिए प्रयत्नशील बने रहने की तो अब तक काफी हो चुके हैं जो जंगल में जाकर मौन साधना किया है। उसकी एकमात्र मंगल कामना है - करते थे किन्तु उनमें परार्थ-निष्ठा नहीं थी / मैं तो अकेला इन सब सर्वेऽत्रसुखिनः संतु / सर्वे संतु निरामयाः / / दुःखीजनों को छोड़कर मुक्त होना भी नहीं चाहता / यह भारतीय दर्शन सर्वे भद्राणि पश्यतु / मा कश्चित् दुःखमाप्तुयात् / / और साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उद्गार है / इसी प्रकार बोधिसत्व भी सदैव लोक मंगल की उसकी सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें बने रहने की अभिलाषा करता है और सबको मुक्त कराने के पश्चात् ही मैं उसकी हिन्दी में अनूदित निम्न पंक्तियों से अपने इस लेख का समापन मुक्त होना चाहता है। करना चाहूँगा - मवेयमुपजीव्योऽहं यावत्सर्वे न निर्वृताः / (बोधिचर्यावतार, 3/21) जितने दलित, बन्धग्रसित पीड़ित विपत्ति विलीन हैं; वस्तुत: मोक्ष अकेला पाने की वस्तु ही नहीं है / इस सम्बन्ध जितने बहुधन्धी विवेक विहीन हैं / में विनोबा भाबे के उद्गार विचारणीय हैं जो कठिन भय से और दारूण शोक से अतिदीन हैं, जो समझता है कि मोक्ष अकेले हथियाने की वस्तु है, वे मुक्त हों निजबन्ध से, स्वच्छन्द हो सब द्वन्द्व से, वह उसके हाथ से निकल जाता है / मैं के आते छूटे दलन के फन्द से , ही मोक्ष भाग जाता है, मेरा मोक्ष यह वाक्य हो ऐसा जग में, दुःख से विचले न कोई, ही गलत है / 'मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है / वेदनार्थ हिले न कोई, पाप कर्म करे न कोई, (आत्म ज्ञान और विज्ञान, पृ० 71) असन्मार्ग धरे न कोई, इसी प्रकार वास्तविक मुक्ति अहंकार से मुक्ति ही है / 'मैं' हो सभी सुखशील, पुण्याचार धर्मव्रती, अथवा 'अहं' भाव से मुक्त होने के लिए हमें अपने आपको समष्टि, में सबका ही परम कल्याण, समाज में लीन कर देना होता है / मुक्ति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता सबका ही परम कल्याण /