Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
बन्धन से मुक्ति की ओर
यद्यपि यह सत्य है आत्मा के पूर्व कर्म संस्कारों के कारण बन्धन से भी दूर नहीं होयेंगे। लेकिन संवर का यह निषेधक अर्थ ही सब की प्रक्रिया अविराम गति से चलती रहती है। पूर्व कर्म संस्कार अपने कुछ नहीं है, वरन् उसका एक विधायक पक्ष भी है। शुभ अध्यवसाय विपाक के अवसर पर आत्मा को प्रभावित करते हैं और उसके परिणाम भी संवर के अर्थ में स्वीकार किये गये हैं, क्योंकि अशुभ की निवृत्ति स्वरूप मानसिक एवं शारीरिक क्रिया-व्यापार होते हैं, उस क्रिया-व्यापार के लिए शुभ का अंगीकार प्राथमिक स्थिति में आवश्यक है। वृत्तिके कारण नवीन कर्मास्रव एवं बन्ध होता है। अत: यह प्रश्न उपस्थित शून्यता के अभ्यासी के लिए प्रथम शुभ वृत्तियों को अंगीकार करना होता है कि इस बन्धन से मुक्त किस प्रकार हुआ जाये। जैन दर्शन होता है, क्योंकि चित्त के शुभवृत्ति से परिपूर्ण होने पर अशुभ के बन्धन से बचने के लिए जो उपाय बताता है, उन्हें संवर और निर्जरा लिए कोई स्थान नहीं रहता है। अशुभ को हटाने के लिए शुभ आवश्यक कहते हैं।
है। दूसरे शुभ को हटाना तो इतना सुसाध्य होता है कि उसका सहज
निराकरण हो जाता है। अत: संवर का अर्थ शुभ वृत्तियों का अभ्यास संवर का अर्थ
भी है। यद्यपि वहाँ शुभ का वह अर्थ नहीं है, जिसे हम पुण्यास्रव तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार आस्रव-निरोध संवर है। दूसरे शब्दों या पुण्यबन्ध के रूप में जानते हैं। मे कर्मवर्गणा के पुद्गलों का आत्मा में आने की क्रिया का रुक जाना संवर है। वही संवर मोक्ष का कारण तथा नैतिक साधना का प्रथम जैन परम्परा में संवर का वर्गीकरण सोपान है। संवर शब्द 'सम' उपसर्ग पूर्वक 'वृ' धातु से बना है। वृ (अ) जैन दर्शन में संवर के दो भेद है-१. द्रव्य संवर और धातु का अर्थ है रोकना या निरोध करना। इस प्रकार संवर शब्द का २. भाव संवर। द्रव्यसंग्रह में कहा गया है कि कर्मास्रव को रोकने अर्थ किया गया है- आत्मा को प्रभावित करने वाले कर्मवर्गणा के में सक्षम आत्मा की चैत्तसिक स्थिति भावसंवर है, और द्रव्यास्रव को पुद्गलों के आस्रव को रोक देना। सामान्य रूप से शारीरिक, वाचिक रोकने वाला उस चैतसिक स्थिति का जो परिणाम है वह द्रव्यसंवर एवं मानसिक क्रियाओं का यथाशक्य निरोध करना (रोकना) संवर कहा कहा जाता है। जाता है, क्योंकि क्रियाएँ ही आस्रव का आधार हैं। जैन परम्परा में (ब) सामान्य रूप से संवर के पाँच अंग या द्वार बताये गये संवर को कर्म परमाणुओं के आस्रव को रोकने के अर्थ में और बौद्ध हैं-१. सम्यक्त्व-यथार्थ दृष्टिकोण, २. विरति-मर्यादित या संयमित परम्परा में क्रिया के निरोध के अर्थ में स्वीकार किया गया है, क्योंकि जीवन, ३. अप्रमत्तता-आत्म चेतनता, ४. अकषायवृत्ति-क्रोधादि बौद्ध परम्परा में कर्मवर्गणा (परमाणुओं) का भौतिक स्वरूप मान्य नहीं मनोवेगों का अभाव और ५. अयोग-अक्रिया। है, अतः वे संवर को जैन परम्परा के अर्थ में नहीं लेते हैं। उसमें (स) स्थानांगसूत्र में संवर के आठ भेद निम्नानुसार बताए गये संवर का अर्थ मन, वाणी एवं शरीर के क्रिया-व्यापार या ऐन्द्रिक हैं-१. श्रोत इन्द्रिय का संयम, २. चक्षु इन्द्रिय का संयम, ३. घ्राण प्रवृत्तियों का संयम ही अभिप्रेत है। वैसे जैन परम्परा में भी संवर को इन्द्रिय का संयम, ४. रस इन्द्रिय का संयम, ५. स्पर्श इन्द्रिय का संयम, कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं के निरोध के रूप में माना ६. मन का संयम, ७. वचन का संयम और ८. शरीर का संयम। गया है, क्योंकि संवर के पाँच अंगों में अयोग (अक्रिया) भी एक (द) प्रकारान्तर से जैन आगम ग्रन्थों में संवर के सत्तावन भेद माना गया है। यदि हम इस परम्परागत अर्थ को मान्य करते हुए भी भी माने गये हैं। जिसमें पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ, दस प्रकार इससे थोड़ा ऊपर उठकर देखें तो संवर का वास्तविक अर्थ संयम का यति धर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ (भावनाएँ), बाईस परिषह और सामायिक ही माना जा सकता है। जैन परम्परा में भी संवर के रूप में जिस आदि पाँच चरित्र सम्मिलित है। ये सभी कर्मास्रव का निरोध कर आत्मा जीवन प्रणाली का विवेचन किया गया है वह संयमात्मक जीवन की को बन्धन से बचाते हैं, अत: संवर कहे जाते हैं। प्रतीक है। स्थानांगसूत्र में संवर के पाँच भेदों का विवेचन पाँचों इन्द्रियों यदि उपरोक्त आधारों पर हम देखें तो हमें यह स्पष्ट हो जाता के संयम के रूप में किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में तो संवर के है कि संवर का तात्पर्य ऐसी मर्यादित जीवन प्रणाली है जिसमें विवेक स्थान पर संयम को ही आस्रव-निरोध का कारण माना गया है। वस्तुतः पूर्ण आचरण (क्रियाओं का सम्पादन), मन, वाणी और शरीर की संवर का अर्थ है अनैतिक या पापकारी प्रवृत्तियों से अपने को बचाना। अयोग्य प्रवृत्तियों का संयमन, सद्गुण का ग्रहण, कष्टों, सहिष्णुता संवर शब्द इस अर्थ में संयम का पर्याय ही सिद्ध होता है। बौद्ध और समत्व की साधना समाविष्ट हो। जैन दर्शन में संवर के साधक परम्परा में संवर शब्द का प्रयोग संयम के अर्थ में ही हुआ है। धम्मपद से अपेक्षा यही की गई है कि उसका प्रत्येक आचरण संयत एवं विवेकपूर्ण आदि में प्रयुक्त संवर शब्द का अर्थ संयम ही किया गया है। संवर हो, चेतना सदैव जाग्रत हो, ताकि इन्द्रियों के विषय उसमें राग-द्वेष शब्द का यह अर्थ करने में जहाँ एक ओर हम तुलनात्मक विवेचन की प्रवृत्तियों को पैदा नहीं कर सकें। जब इन्द्रियाँ और मन अपने को सुलभ बना सकेंगे वही दूसरी ओर जैन परम्परा के मूल आशय विषयों के सम्पर्क में आते हैं तो उनके इस सम्पर्क से आत्मा में विकार
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०८
जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
या वासना उत्पन्न होने की सम्भावना उठ खड़ी होती है अतः साधना-मार्ग के पथिक को सदैव ही जाग्रत रहते हुए, विषय सेवनरूप छिद्रों से आने वाले कर्मास्रव या विकार से अपनी रक्षा करनी है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक भी अध्यात्म योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों से सुरक्षित रखे। मन, वाणी, शरीर और इन्द्रिय व्यापारों का संयमन ही साधना का लक्ष्य माना गया है। सच्चे साधक की व्याख्या करते हुए दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि जो सूत्र तथा उसके रहस्य को जानकर हाथ, पैर, वाणी तथा इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता है (अर्थात् सन्मार्ग में विवेकपूर्वक लगता है), अध्यात्म रस में ही जो मस्त रहता है और अपनी आत्मा को समाधि में लगाता है वही सच्चा साधक है।
निर्जरा का अर्थ
10
आत्मा के साथ कर्म-पुद्गल का सम्बन्ध होना बन्ध है और आत्मा से कर्मवर्गणा का अलग होना निर्जरा है। संवर नवीन आने वाले कर्म-1 - पुद्गल का रोकना है, परन्तु मात्र संवर से निर्वाण की प्राप्ति सम्भव नहीं । उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि जैसे किसी बड़े तालाब के जल स्रोतों (पानी के आगमन के द्वारों) को बन्द कर दिया जाए और उसके अन्दर रहे हुए जल को उलीचा जाय तथा ताप से सुखाया जाए तो वह विस्तीर्ण तालाब भी सूख जायेगा। प्रस्तुत रूपक में आत्मा ही सरोवर है, कर्म पानी है, कर्म का आस्रव ही पानी का आगमन है उस पानी के आगमन के द्वारों को निरुद्ध कर देना संवर है और पानी का उलीचना और सुखाना निर्जरा है। यह रूपक यह बताता है कि संवर से नये कर्म रूपी जल का आगमन (आव) तो रुक जाता है लेकिन पूर्व में बन्धे हुए, सत्तारूप कर्मों का जल तो आत्मा रूपी तालाब में शेष रहा हुआ है जिसे सुखाना है। यह कर्म रूपी जल को सुखाना निर्जरा है।
द्रव्य और भाव निर्जरा
निर्जरा शब्द का अर्थ है पूर्णत: जर्जरित कर देना, झाड़ देना अर्थात् आत्मतत्त्व से कर्म-पुद्गल का अलग हो जाना अथवा अलग कर देना निर्जरा है। जैनाचार्यों ने यह निर्जरा दो प्रकार की मानी है। आत्मा की वह चैतसिक अवस्था जिसके द्वारा कर्म-पुट्रल अपना फल देकर अलग हो जाते हैं, भाव निर्जरा कही जाती है। भाव निर्जरा आत्मा की वह विशुद्ध अवस्था है, जिसके कारण कर्म-परमाणु आत्मा से अलग हो जाते हैं यही कर्म-परमाणुओं का आत्मा से पृथक्करण द्रव्य निर्जरा है। भाव निर्जरा कारण रूप है और द्रव्य निर्जरा कार्य रूप है।
सकाम और अकाम निर्जरा
पुनः निर्जरा के दो अन्य प्रकार भी माने गये हैं- १. कर्म जितनी काल मर्यादा ( अवधिकाल) के साथ बँधा है, उसके समाप्त
हो जाने पर अपना विपाक (फल) देकर आत्मा से अलग हो जाता है, यह यथाकाल निर्जरा कही जाती है। इसे सविपाक, अकाम और अनौपक्रमिक निर्जरा भी कहते हैं। यह सविपाक निर्जरा इसलिए कही जाती है कि इसमें कर्म अपना विपाक देकर अलग होता है अर्थात् इसमें फलोदय (विपाकोदय) होता है इसे अकाम निर्जरा इस आधार पर कहा गया है कि इसमें कर्म के अलग करने में व्यक्ति के संकल्प का तत्त्व नहीं होता है। उपक्रम शब्द प्रयास के अर्थ में आता है, इसमें वैयक्तिक प्रयास का अभाव होता है, अतः अनौपक्रमिक भी कहा जाता है।
२. दूसरे जब तपस्या के माध्यम से कर्मों को उनके फल देने के समय के पूर्व अर्थात् उनकी काल स्थिति परिपक्व होने के पहिले ही प्रदेशोदय के द्वारा भोगकर बलात् अलग-अलग कर दिया जाता है तो ऐसी निर्जरा को सकाम निर्जरा कहा जाता है, क्योंकि निर्जरित होने में समय का तत्त्व अपनी स्थिति को पूरी नहीं करता है। इसे अविपाक निर्जरा भी कहते हैं, क्योंकि इसमें विपाकोदय या फलोदय नहीं होता है, मात्र प्रदेशोदय होता है।
विपाकोदय और प्रदेशोदय में क्या अन्तर है, इसे निम्र उदाहरण से समझा जा सकता है। जब क्लोरोफार्म सुंघाकर किसी व्यक्ति की चीर-फाड़ की जाती है तो उसमें उसे असातावेदनीय ( दुःखानुभूति) नामक कर्म का प्रदेशोदय होता है लेकिन विपाकोदय नहीं होता है। उसमें दु:खद वेदना के तथ्य तो उपस्थित होते हैं लेकिन दुःखद वेदना की अनुभूति नहीं है । इसी प्रकार प्रदेशोदय कर्म के फल का तथ्य तो उपस्थित हो जाता है, लेकिन उसकी फलानुभूति नहीं होती है। अतः यह अविपाक निर्जरा कही जाती है। इसे सकाम निर्जरा भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें कर्म - परमाणुओं को आत्मा से अलग करने का संकल्प होता है। यह औपक्रमिक निर्जरा भी कही जाती है क्योंकि इसमें उपक्रम या प्रयास होता है। प्रयास पूर्वक, तैयारी सहित, कर्मवर्गणा के पुगलों को आत्मा से अलग किया जाता है। यह कर्मों को निर्जरित (क्षय) करने का कृत्रिम प्रकार है।
अनौपक्रमिक या सविपाक निर्जरा अनिच्छापूर्वक, अशान्त एवं व्याकुल चित्तवृत्ति से पूर्व संचित कर्म के प्रतिफलों का सहन करना है जबकि अविपाक निर्जरा इच्छापूर्वक समभावों से जीवन की आई हुई परिस्थितियों का मुकाबला करना है।
जैन साधना में औपक्रमिक निर्जरा का स्थान
जैन साधना की दृष्टि से निर्जरा का पहला प्रकार जिसे सविपाक या अनौपक्रमिक निर्जरा कहते हैं, अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है। यह पहला प्रकार साधना के क्षेत्र में ही नहीं आता है, क्योंकि कर्मों के बन्ध और निर्जरा का यह क्रम तो सतत् रूप से चला आ रहा है। हम प्रतिक्षण पुराने कर्मों की निर्जरा करते रहते हैं लेकिन जब तक नवीन कर्मों का सृजन समाप्त नहीं होता ऐसी निर्जरा से सापेक्षिक रूप में कोई लाभ नहीं होता । जैसे कोई व्यक्ति पुराने ऋण का भुगतान तो करता रहे, लेकिन नवीन ऋण भी लेता रहे तो वह ऋण मुक्त नहीं होता है।
.
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
बन्धन से मुक्ति की ओर
४०९
जैन विचारणा के अनुसार यह सविपाक निर्जरा तो आत्मा रहे तो भी वह शायद ही मुक्त हो सके, क्योंकि जैन मान्यता के अनुसार अनादिकाल से करता आ रहा है, लेकिन निर्वाण का लाभ प्राप्त नहीं प्राणी के साथ बन्ध इतना अधिक है कि वह अनेक जन्मों में ही शायद कर सका। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं- यह चेतन आत्मा कर्म के इस कर्म बन्ध से स्वाभाविक निर्जरा के माध्यम से मुक्त हो सके। लेकिन विपाक काल में सुखद और दुःखद फलों की अनुभूति करते हुए पुन: इतनी लम्बी समयावधि में संवर से स्खलित होकर नवीन कर्मों के दुःख के बीज रूप आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध कर लेता है, क्योंकि बन्ध की सम्भावना भी तो रही हुई है। अत: साधना-मार्ग के पथिक कर्म जब अपना विपाक देते हैं तो किसी निमित्त से देते हैं और अज्ञानी के लिए जो मार्ग बताया गया है, वह है औपक्रमिक या अविपाक आत्मा शुभ निमित्त पर राग और अशुभ निमित्त पर द्वेष करके नवीन निर्जरा का। महत्त्व इसी तप जन्य निर्जरा का है। ऋषिभाषितसूत्र१२ बन्ध कर लेता है।
में ऋषि कहता है कि संसारी आत्मा प्रतिक्षण नए कर्मों का बन्ध और अत: साधना-मार्ग के पथिक के लिए पहले यह निर्देश दिया पुराने कर्मों की निर्जरा कर रहा है, लेकिन तप से होने वाली निर्जरा गया कि वह प्रथम ज्ञान युक्त हो कर्मास्रव का निरोध कर अपने आपको ही विशेष (महत्त्वपूर्ण) है। बन्ध और निर्जरा का प्रवाह अविराम गति संवृत करे। संवर के अभाव में जैन साधना में निर्जरा का कोई मूल्य से बह रहा है किन्तु (जो) साधक संवर द्वारा नवीन आस्रव को निरुद्ध नहीं, वह तो अनादिकाल से होती आ रही है किन्तु भव परम्परा को कर तपस्या द्वारा पुरातन कर्मों को क्षीण करता चलता है, वह समाप्त करने में सहायक नहीं हुई। दूसरे यदि आत्मा संवर का समाचरण अन्त में पूर्ण रूप से निष्कर्म बन जाता है, मुक्ति को प्राप्त कर करता हुआ भी इस यथाकाल होने वाली निर्जरा की प्रतीक्षा में बैठा लेता है। १३
सन्दर्भ संकेत १. तत्त्वार्थसूत्र, विवे० पं०सुखलालसंघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध
संस्थान, वाराणसी, १९७६, ९/१।। स्थानांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८१, ५/२/४२७। उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन, आगरा, १९७२, २९/२६। धम्मपद, अनु० पं० राहुल सांकृत्यायन, प्रका० बुद्धविहार, लखनऊ, ३९०-३९३।
द्रव्य संग्रह। ६. समवायांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८२, ५/५। स्थानांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति,
ब्यावर, १९८१, ८/३/५९८। ८. सूत्रकृताङ्गसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८२, १/८/१६। ९. दशवैकालिकसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन
समिति, ब्यावर, १९८५, १०/१५ । १०. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा० साध्वी चन्दना, प्रका० वीरायतन प्रकाशन,
आगरा, १९७२, ३०/५-६। ११. समयसार, कुन्दकुन्द, प्रका० अहिंसा प्रकाशन मन्दिर, दरियागंज,
देहली, १९५९, ३८९। १२. ऋषिभाषित, सं० महोपाध्याय विनयसागर जी, प्रका० प्राकृत
अकादमी, जयपुर। १३. जैनधर्म, मुनि सुशील कुमार, प्रका० श्री अ०भा०श्वे स्थानकवासी,
जैन कान्फरेन्स, देहली, पृ० ८७।