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नीलांजना सु. शाह
'अश्वधाटीकाव्य ' नामनुं २६ श्लोकोनुं आ लघुकाव्य तांजोरना जगन्नाथ पंडिते रचेलुं छे. कृष्णशास्त्री भाटवडेकर वडे संपादन पामेल 'सुभाषित रत्नाकर' नामनो सुभाषितसंग्रह जे ई.स. १८७२मां मुंबईमां प्रकाशित थयो छे, ' , तेमां आ काव्य सचवायुं छे. आ काव्य पर कृष्ण नामना पंडिते रचेली 'दर्पण' नामनी व्याख्या पण तेनी साथे ज प्रकाशित थयेली छे.
प्रस्तावना
आ काव्यनो मुख्य हेतु मनुष्यने सांसारिक विषयोमांथी पाछो वाळी ईश्वर तरफ अभिमुख करी लेने आत्मकल्याणना पंथे पळवा माटे प्रेरवानो छे. आ काव्यना कर्ता जगन्नाथ पंडित से तांजोरना मराठा राजा सरफोजी (ई.स. १७१२-१७२७)ना राजकवि हता. तेमणे आ काव्यमां देवी - पार्वतीने 'तञ्जापुरेशि' ओम जे संबोधन कर्तुं छे ते आ बाबतनुं समर्थन करे छे'ज्ञानविलास' अने 'शरभराजविलास' नामनी बे संस्कृत कृतिओना कर्ता जगन्नाथ अने आ कृतिना कर्ता जगन्नाथ एक होवानो संभव छे कारण के ते जगन्नाथ पण तांजोरना आ सरफोजी राजाना समयमां थई गया जणाय छे.
अश्वधाटीकाव्य
कविए पोते आ काव्यना अंतमां कह्युं छे तेम तेमणे सहुने गमे तेवुं आ काव्य पोताना पुत्र रामनी इच्छापूर्तिने माटे रच्युं हतुं. आ काव्यना कर्ता विशे बीजी खास माहिती प्राप्त थती नथी, पण काव्यनो प्रत्येक श्लोक संस्कृत भाषा परना तेमना प्रभुत्वनी प्रतीति करावे छे. राम, कृष्ण, शिव अने पार्वतीने वर्णवता श्लोकोमां जे अनेक पौराणिक संदर्भों आ जगन्नाथ पंडिते
१. कृष्णशास्त्री भाटवडेकर (सं), सुभाषितरत्नाकर (चतुर्थ संस्करण, मुंबई - १ ई. स. १९१२), पृ. ३१६-३३०.
२.
3.
Ludwick Sternbach, Mahasubhāsita Samgrahal, Vol.I. (First Edition, Delhi, 1974 Intro pp. LXXXII-IV. M.Krishnamachariar. History of Classical Sanskrit Literature (Third Edition Delhi, 1974). p. 241, 245.
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वणी लीधा छे, ते परथी एमणे धार्मिक ग्रंथोनो खास करीने पुराणोनो ऊंडो अभ्यास कर्यो हतो एम स्पष्ट जणाय छे. सांप्रदायिक रीते तेमनो दृष्टिकोण अति उदार जणाय छे कारण के तेमणे एकसरखा उत्कट भक्तिभावथी राम, कृष्ण, शिव अने पार्वतीनुं स्तुतिपूर्वकनुं वर्णन कर्तुं छे, तेम छतां आ कृतिमां शिव अने पार्वतीने लगता श्लोको प्रमाणमां वधारे छे. ते परथी तेओ शिवभक्त होवानुं अनुमान करी शकाय छे.
आ भक्तिसभर काव्यने कविए 'अश्वधाटीकाव्य' ए शीर्षक केम आप्युं ए विशे कविए के काव्यना टीकाकारे सहेज पण अणसार आप्यो नथी. आ काव्यनी लगभग प्रत्येक पंक्तिए विविध अनुप्रास आवे छे तेथी आ काव्यना लयने घोडानी थनगनती चाल साधे सरखावीने अश्वघाटी (घोडानी चाल जेवुं) एवं नाम आप्युं होय अ शक्य छे.
आ काव्यनो अंतिम श्लोक ( नं. २६) अनुष्टुप् वृत्तमां रचायो छे अने बाकीना २५ श्लोक २२ अक्षरना मत्तेभ नामना अप्रसिद्ध छंदमां रचाया छे । तेनुं गणमाप त, भ, य, ज, स, र, न, गा छे. ए नोंधपात्र छे के आ छंदनुं नाम छंद:शास्त्रना प्रसिद्ध ग्रंथोमां मळतुं नथी पण श्रीकृष्ण कविनी 'मन्दारमरन्दचम्पू' नामनी कृतिमां तेनुं लक्षण मळे छे : मत्तेभाख्यं तभयजसरनगयुक्तं स्वरार्वफणिभिन्नम्। संस्कृत काव्योमां भाग्ये ज प्रयोजाता आ दीर्घ छंदने आ काव्यमां कविओ सफळपणे प्रयोज्यो छे ते बाबत तेमनी छंद परनी पकड़ दर्शावे छे.
आ काव्यना प्रथम श्लोकमा रामचंद्रने भजवानुं कह्युं छे. बाकीना २४ श्लोकोमां शिवने लगता दस श्लोको छे. पार्वतीने लगता आठ श्लोको छे. ज्यारे कृष्ण, विष्णु तेमज नरसिंह अवतारने लगता छ श्लोको छे. श्लोको सळंग आवता नथी. कवि मनुष्यनी सांसारिक बाबतो प्रत्येनी आसक्तिने
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५.
६.
७.
मन्दारमरन्दचम्पू (काव्यमाला ५२, प्र. निर्णयसागर प्रेस, मुंबई, १९२४) पृ. १९
श्लोक नं. २, ३, ७, ८, ११, १७, १८, २२, २३ अने २५
श्लोक नं. ४, ५, ६, १३, १५, २०, २१ अने २४
श्लोक नं. ९, १०, १२, १४, १६, १९
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व्यर्थ अने तुच्छ दर्शावी पछी राम, शिव, पार्वती, कृष्ण वगेरेना विशेष गुणोनो विशेषणो मारफत निर्देश करी, आत्यंतिक कल्याण माटे तेमने शरणे जवान कहे छे.
आ काव्यनो ढूंक सार नीचे प्रमाणे छे : काव्यना कर्ता क्यारेक पौत्रने, क्यारेक पोताना मनने संबोधीने उपदेश आपे छे पण खरेखर तो तेओ ए निमित्ते संसारमा गळाडूब खूपेला मनुष्यमात्रने उपदेश आपे छे. घर, पत्नी, पुत्रादिक वगेरे परनो माणसनो मोह अनर्थकारी छे. ए बधा दुन्यवी संबंधो प्रत्ये तेमज विषयोपभोगो तरफनी आसक्तिथी मनुष्य संसारमा फसाईने तेमना दोषोनुं चिंतन करतो नथी के आ बधुं नाशवंत छे. स्त्रीस्वभावनी चंचळता दर्शावीने, कवि तेमना प्रत्येक आकर्षणथी दूर रहेवानी सलाह पौत्रने आपे छे अने स्पष्ट कहे छे के स्त्रीओ साथेनी प्रेमक्रीडामा रममाण रहेनार मनुष्य पशु जेवो छे.
द्रव्य मेळववानी लालसाथी चारित्र्यहीन लोको, ऐश्वर्यशाळी राजाओ अने धनथी छकी गयेला उदंड धनिको - आ बधानी गुलामी करीने, तेमना द्वारा थयेलुं अपमान खमीने, तेमनो निर्दय मार खाईने पण मनुष्य खरा अर्थमां अकिंचन रहे छे. ते ज प्रमाणे संपत्ति कमावा मनुष्य विविध नगरो अने द्वीपोमां रझळपाट करी, प्रखर ताप अने तेने परिणामे थती अतिवृष्टि वेठीने छेवटे तो वृद्धावस्था वहोरे छे. जो तेनी पासे संपत्ति होय तो ते संपत्तिनी रक्षा करवा तेने खूब चिंता अने संताप वेठवो पडे छे.
__ आ बधी आफतोमांथी उगरवा, मोहना प्रपंचनी पेले पार जवा, यमराजना भयमांथी बचवा अने आ लोक तेमज परलोक- हित साधवा माटे पौत्रने समजण आपी सतेज थवानुं तथा दुर्जनोनो संग छोडी दईने राम, कृष्ण, शिव अने पार्वतीने शरणे जवानुं कहे छे. पुनरुक्तिनो दोष वहोरीने पण आ कवि वारंवार कहे छे के आत्मकल्याण साधवा माटे मोक्षसुख पामवा माटे नम्रभावे परमात्माने शरणे जq ए ज एकमात्र उपाय छे.
आ काव्यना प्रकार विशे विचारीए तो प्रथम दृष्टिए तेनुं स्वरूप उपदेशात्मक काव्यनुं देखाय छे, छतां तेनो वधारे अभ्यास करतां लागे छे के ते स्तोत्रकाव्यनी वधु नजीकनुं लागे छे. पोताना पौत्रने ईश्वराभिमुख करवा
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माटे रामकृष्ण शिवपार्वती वगेरे देवोनां वर्णन कविए ऊंडी अने उत्कट भक्तिथी भावविभोर थईने कर्या छे.
आ काव्यनी शैली गौड़ी छे कारण के प्रत्येक पंक्तिमां वर्णानुप्रास आवे छे. आ अनुप्रास योजवामां कर्ताए पोताना कविकसबनी खूबी दर्शाववा प्रत्येक श्लोकमां जुदा जुदा वर्णोनो अनुप्रास योज्यो छे, जे आ काव्यनुं विशिष्ट लक्षण छे. ते उपरांत दीर्घ समासोनुं प्राचुर्य, ओज कान्ति वगेरे गुणोनुं प्राधान्य आ बधां गौड मार्गनां लक्षणो पण अहीं जोवा मळे छे. ए हकीकत छे के काव्यमा सळंग अनुप्रास योजवा माटे घणीवार कविने अप्रचलित के ओछा प्रचलित शब्दो योजवा पडे छे, जेमके राक्षस माटे आशरः, केतकीना छोड माटे जम्बालः, द्रोह (दूर) करनार द्रोढा, अने कामदेव माटे सूनास्त्र:. आने परिणामे आ काव्य व्याख्यागम्य बन्युं छे अने कर्ताने सद्नसीबे आ काव्यने सहृदयो माटे सहेलाईथी समजाय तेवुं करनार कृष्णपंडित नामना विद्वान टीकाकार, कवि जगन्नाथ पछी थोडा समयमां थई गया छे. तेमणे तेमनी 'दर्पण' नामनी अन्वर्थक व्याख्यामां आ काव्यना अधरा लागता प्रयोगोने विगतवार अने सारी रीते समजावीने भावको माटे उपकारक काम कर्तुं छे. कामां, आ काव्यनो आस्वाद पूरेपूरो माणवा माटे टीकानी सहाय आवश्यक बनी रहे छे.
काव्यना टीकाकारे 'दर्पण' टीकाना अंतमां पोतानो समय सांकेतिक भाषामा आ रीते जणाव्यो छे :
गुणरत्नर्षियुक्ते प्रजापतिसमाह्वये ।
शाकेऽधिमासे भाद्राख्ये गीष्पतौ प्रतिपत्तिथौ । अश्वधाट्या दर्पणाख्या व्याख्या कृष्णेन निर्मिता ॥
शक संवत् १७९३ना अधिक भादरवा मासना पडवाने गुरुवारना रोज आ टीका रचाई छे. “Indian chronology "मां रजू थयेला टेबल नं. १० प्रमाणे ते दिवसे ई.स. १८७१ना ओगस्ट मासनी एकत्रीसमी तारीख आवे छे. 'अश्वघाटी काव्य' अने ते परनी दर्पण टीकाने समावता 'सुभाषितरत्नाकर'नी प्रथम आवृत्ति ई.स. १८७२मा प्रकाशित थई छे, ते परथी कही शकाय के
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आ टीका रचाई तेना बीजा ज वर्षे ते प्राय: प्रकाशित थई होय.
आशरे नेवं वर्ष पहेलां छपायेला 'सुभाषितरत्नाकर'ना जे पानामां 'अश्वधाटी काव्य' अने एना परनी दर्पण टीका- आ बने छपाया छे ते पानां साव जीर्ण थई फाटी गयेलां छे अने आ पुस्तक हाल उपलब्ध नथी. तेथी टीका आ साथे छापी शकाई नथी. आ काव्यने साचवी राखवा माटे "सुभाषितरत्नाकर"ना संपादकनो जेटलो आभार मानीए तेटलो ओछो छे. अत्रे आ कृतिना प्रस्तुत संपादक द्वारा करेलो काव्यनो गुजराती अनुवाद रज़ करवामां आव्यो छ :
___ अश्वधाटीकाव्यम् अङ्कादृतक्षितिजमङ्काऽनभिज्ञशशिशङ्काकरास्यसुषमं टङ्कारिचापमनुलङ्काऽऽशरक्षतजमङ्काऽवरूषितशरम् । त्वं कामदं विहितरङ्काऽवनं दनुजकङ्कालनोदिनमनातङ्काय वत्स भज तं कालमेघगवहंकारहारिवपुषम् ॥ १ ॥ मा गा मनस्त्वमनुरागाऽतिभूमिमुपभोगावनाप्तुमनसा मागारदारसुतयोगा न कि बत वियोगात्मकाः परिणतौ । यागादिजन्यपरभागा अविग्रहविभागार्हशैलतनयं वेगादुपा[स्]स्व भवरोगाऽपहं विधृतनागाऽजिनं पुररिपुम् ॥ २ ॥ वाचा मरन्दमधुमोचा सुधामधुरिमाऽऽचामदक्षरसया हा चापलान्नरपिशाचानुपासितुमनाचार किं नु यतसे । काचाय मा विनट सा चाऽऽपदत्र न सुमोचाग्रिमा कमपि तं प्राचामुपास्यमभियाचाऽपवर्गसुखमाचार्यमाश्रितवटम् ॥ ३ ॥ खजायितोऽधिमतिगञ्जापरोऽपि बत संजायतेऽत्र धनदं संजाघटीति गुणपुञ्जायितस्य न तु गुञ्जामितं च कनकम् । कि जाग्रती जयसि किं जानती स्वपिषि सिञ्जाननपुरपदे
तञ्जापुरेशि नवकजाक्षि साधु तदिदं जातु वा किमु शिवे ॥ ४ ॥ ८. Dr. L.D. Swamikannu Indian Chronology' (Madras 1911)
Table X, p. 124.
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आटीकसेऽङ्ग ! करिघोटीपदातिजुषि वाटीभुवि क्षितिभुजां चेटीभवंस्तदपि शाटी न ते वपुषि वीटी न वाऽधिवदनम् । कोटीररत्र परिपाटी भृशाऽरुणितजूटीविधुं तनुलसत्पाटीरलिसिमिभघाटीजुषं सुरवधूटीनुतां भज शिवाम् ॥ ५ ॥ पण्डावदग्रिम ! पिचण्डाऽवपूर्तिमनुरण्डाविधेयकुटिलोद्दण्डाविवेकधनिचण्डालगेहभुवि दण्डाऽऽहतिं किमयसे । खण्डमृतद्युतिशिखण्डामुपास्व सुरखण्डार्चिताङिनकमलां भण्डासुरद्रुहमचण्डात्मिकां चितिमखण्डां जडात्मसुखदाम् ॥ ६ ॥
गाढा त्वया सपदि राढापुरी वसुनि बाढाऽवबद्धरतिना सोढा तथा तपनगाढाऽऽतपप्रसररूढाऽतिवृष्टिविततिः । मूढाऽपि किं फलमगूढा जरेव शिरसोढा कुतो न विनुतो द्रोढा जनोर्जनितषोढामुखः समिति वोढा स हाटकगिरेः ॥ ७ ॥ दन्तावलाश्वभृति चिन्तापरोऽसि बत किं तावता वद फलं हन्ताऽखिलं क्व च न गन्ता तदेतदथ संतापमञ्चसि परम् । त्वं तात ! भावय * दुरन्तारमानवरतं तामसः स्वपिहि मा संतारकं विनतसंतानकं सपदि तं तावदाश्रय शिवम् ॥ ८ ॥
वन्दारुलोकततिमन्दारपादयममन्दायमानकरुणं
वृन्दावनोढपशुवृन्दाऽवनं प्रणतवृन्दारकं चरणयोः । नन्दाऽऽदृतं कुशलसन्दायि तत्किमपि कन्दायितं श्रुतिगिरां कुन्दाभकीर्ति मुचुकुन्दार्चितं हृदि मुकुन्दाह्वयं स्मर महः ॥ ९ ॥
कोधाऽऽकुलो विगतबोधाऽन्वयोऽसदनुरोधाऽनुगो न भव भोः साधारणी न खलु बाधा भवस्य भुवि गाधा न मोहवसतिः । वेधा गुरुश्च पटुमेधा विभुर्नहि निषेधाय कर्म विततेराधाय तात हृदि राधाविटाऽङ्घ्रियुगमाधारतां व्रज मुदाम् ॥ १० ॥
★ दुरन्ता रमाऽनवरतं ० इति स्यात् ।
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नानाविधे जनुषि का नाम सौख्ययुजिरानाकपृष्ठमपि वा जानासि यद्विषयसूनारुचिर्भवसि दूनाऽऽशयो भृशतरः । मानाऽतिगो विहितदानाध्वरादिरिह कीनाशभीतिरहितो मीनायताक्षमधिगानादरं कलय सूनास्त्रजीवनहरम् ॥ ११ ॥ सापायमेत्य वपुरापातरम्यमनुतापादृते सकुतुकं द्वीपानगाहिषि समीपाऽतिगानकृतभीपातखेदगणनः । भूपानसेविषि सुरूपाकृतेऽहह न तूपागमं सुखलवं गोपाय मां सपदि गोपालधुर्य तव कोपाय नाऽस्मि विषयः ॥ १२ ।। किं बाल ! न स्फुरति सम्बाधकं भृशविडम्बाऽऽस्पदं परिणतौ निम्बादितिक्तरससम्बाधमत्र ननु बिम्बाऽधराविलसितम् । लम्बालकां धुतविलम्बादरां घुसृणजम्बालजालविलसद्विम्बामनूनशशिबिम्बाननां सततमम्बामुपास्व सदयाम् ॥ १३ ॥ रम्भादिगाढपरिरम्भादरेण सुचिरं भावतोऽत्र यजसे त्वं भावयस्व किमु शं भाव्यनेन जड़ ! सम्भावितक्षयमिदम् । स्तम्भादुदित्वरमहंभावतः कलय जम्भारिसंस्तुतपदं तं भावुकप्रदमदम्भाकुलो नखरसंभारदारितरिपुम् ॥ १४ ॥ रामार्चिताऽझिरभिरामाऽऽकृतिः कृतविरामा सुपर्वविपदां कामाऽतिहत् सफलकामा निदेशरतकामादिनिर्जरवधूः । भामा हरस्य नुतभामा जपासदृशभा माननीयचरिता सा मामवत्वखिलसामादृतस्तुतिरसामान्यमुक्तिसुखदा ॥ १५ ॥ माया तवेयमुरुगायाऽविवेकनिधिमायामिनी किमपि मामायासयत्यकृतजायातनूजधनकायादिदोषकलनम् । सा यातना तु निरपाया मता जगति हा यामि कं नु शरणं मांयानिवास परिपाया नवाम्बुधरदायाददेह भगवन् ! ॥ १६ ॥ हारं ददासि कुचभारं जिघृक्षसि च सारङ्गचञ्चलदृशः सा रन्तुमिच्छति हि जारं निषेव्य तव का रञ्जनेह घटताम् ।
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स्मारं विहाय मदमारम्भरम्यमनुवारं भज श्रुतिगिरां सारं महेशमविकारं जनुर्विलयपारं प्रयास्यसि सखे ॥ १७ ॥ नीलाऽलकानयनलीलाविमोहमयकीलालराशिजठरे वेलातिलङ्घमनुवेलावमज्जिरिह ते लाघवाय नहि किम् । को लाभ एष इति कोलायितो जयसि हालासमस्थितवयः कालाऽहितं शमितहालाहलं सततमालानयाऽऽत्ममनसा ।। १८ ।। दावाऽनलाचिरिव तावानयं तपति हा वाम्यकृत् कलिरहो को वाऽ परस्त्वदिह भो वासुदेव ! मम यो वारयेत तमिमम् । सेवाविधानभृशहेवाकसिद्धमुनिदेवाऽधुना चरणयोर्भावाऽऽनताय शिशुभावाऽऽश्रिताय वितराऽऽवासतां निजमुदाम् ॥ १९ ॥ आशाभरेण निखिलाऽऽशासु धावनमथाऽऽशातकुम्भगिरि वा क्लेशाऽऽवहं विविधदेशाऽटनं द्रविणलेशाय नाऽपि ववृते । आशाऽतिदामवितुमाशास्व पाणिधृतपाशामनेकजगतामीशामुपासितगिरीशामिहाऽङ्ग ! दिगधीशाऽर्चिताग्रिनलिनाम् ॥ २० ॥ एषा जरा शिरसि वेषाऽन्यभावकृदशेषाऽऽमयैकवसतिस्तोषाय सौम्य ! नहि दोषाऽऽलया भृशमपोषाऽऽस्पदीकृतगुणा । शेषाऽऽयुषः कुरु विशेषाऽर्हमेतदिह शेषाऽहिकलुप्तधनुषो रोषाद्यपास्य तनुशोषावहं कलय योषामनङ्गजयिनः ॥ २१ ।। संसारधन्वभुवि किं सारमामृशसि शंसाऽधुना शुभमते ! त्वं साधु संतनु हितं साहसेन तु नृशंसाऽऽदृतेन. किमहो । हंसाऽऽशयस्थमतिहंसात्मभासमथ तं सामभिः परिगणन् कंसारिवन्धमवतंसायितेन्दुमिह संसाधयाऽर्थमखिलम् ॥ २२ ॥ गेहाऽऽत्मजद्रविणदेहादिकं जनितमोहाऽनुबन्धमवितुं भो हानिरापि कियतीहाऽपि सुस्थितिमतीहा न ते निजहिते । वाहायितोक्षभवदाहाऽपहं सलिलवाहाऽभकण्ठसुषमं बाहालसन्मृगमनाहार्यसौख्यकरमाहात्म्यमाभज महः ॥ २३ ॥
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वालीयुतश्रवणपालीयुगा ललितचूलीविराजिबकुला केलीगतानुगमरालीकुला मधुरमालीभिरादृतकथा । नालीकदृक्कुसुमनालीकपाणिरिह कालीयशासिसहजा तालीदलाभतनुमाली सदा भवतु काली शुभाय मम सा ॥ २४ ॥ दक्षाऽध्वरप्रशमदक्षाऽऽग्रहं विबुधपक्षाऽभिपालनपरं लक्षाऽमृतद्युतिवलक्षात्मकं हृतविपक्षाऽऽत्तविस्मयकथम् । उक्षाऽधिरोहिहतलक्षाऽसुरप्रकरमक्षामताश्रयदयं व्यक्षाऽऽव्हयं प्रणतरक्षामणिं प्रणयियक्षाऽधिपं स्मर महः ॥ २५ ॥ रामनाम्नः स्वपौत्रस्य कामनापूरणोत्सुकः । अश्वधाटी जगन्नाथो विश्वहयामरीरचत् ॥ २६ ॥
इति पण्डितेन्द्रजगन्नाथविरचितमश्वधाटीकाव्यं संपूर्णम् ।
१. हे वत्स ! आतंकनी निवृत्ति अर्थे अंकमां बीराजेलां सीताजीवाळा, लांछनविहोणा चंद्र जेवी मुखकांति धरावनारा, टंकार करनारा धनुष्यवाळा, लंकाना राक्षसोना धामोथी नीकळेला लोहीना डाघथी खरडायेला बाणवाळा, मनोरथोना पूरणहार, दीनोना रक्षणकर्ता, दनुजना कंकालोने फेंकनारा, कालमेघना अहंकारने हरनारा एवा रामचंद्रना शरणे तुं जजे.
२. हे मन ! उपभोगोनो संतोष मेळववा माटे, तुं अनुरागने छल्ले पाटले न पहोंची जईश. अरे ! लक्ष्मी, गृह, पत्नी, पुत्र वगेरेना संयोगो पण छेवटे तो शुं वियोगस्वरूपना नथी होता ? तेमज यज्ञ वगेरेथी जन्मता उत्कृष्ट भाग पण एवा ज छे. जे शरीरे पण शैलतनयाथी जुदा नथी तेवा भवरोगहारक नागचर्मधारी, त्रिपुरारि (शिवनी) शीघ्रताथी उपासना कर.
३. हाय ! हे अनाचारी मन ! मकरन्द, मधु, केळ अने अमृतनी मीठाशनो आस्वाद करवामां कुशळ एवी रसवाळी वाणीथी, मूर्खताने लीधे, नरपिशाचोनी उपासना करवा केम मथ्या करे छे ? काच (धनादि तुच्छ वस्तुओ) माटे नाच न करीश. निरतिशय दःख आवनारी महान आपत्ति (मरणादि) काई सहेलाईथी टाळी शकाय तेवी नथी. माटे तुं ते अनिर्वचनीय,
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67 प्राचीनो द्वारा उपासना करवा योग्य रहेला, वडने आशरे रहेता आचार्य ( दक्षिणमूर्ति शिव) पासे मोक्षना सुखनी याचना कर.
४. कुंठित बुद्धिवाळो, दारुना पीठामां आसक्त, एवो मनुष्य पण अहीं तालेवंत थाय छे, ज्यारे गुणोना भंडार जेवा मनुष्यने एक चणोठी जेटलुं पण सोनुं मळतुं नथी. झांझरथी रणकतां चरणोवाळी, तांजोरनी अधिष्ठात्री, ताजा कमळी समां नेत्रो धरावती हे, देवी तुं जागती रहीने जीती रही छे ? जाणी जोईने उंधे छे ? हे शिवे ! आ बधुं शुं खरेखर सारुं छे ?
५. हे अंग ! तुं हाथी, घोडा, पायदळथी सेवाती राजाओनी उद्यान भूमिमां नोकर बनीने भमे छे, छतां नथी तारा शरीर पर ढांकवानुं वस्त्र के नधी तारा मोंमा पान ! मुकुटना रत्नोनी श्रेणीथी जेमनी जटामांनो चंद्र खूब लाल रंगनो थयो छे तेवी चंदनना लेपथी शोभता शरीरवाळी, हाथीना जेवी चालवाळी, देववधूओथी स्तुति कराती, शिवा (पार्वती) नी भक्ति कर.
६. हे पंडित श्रेष्ठ ! उदरभरणने अनुलक्षीने तुं वेश्याओना कह्यागरा, कपटी, माथाफरेला अविवेकी, धनवान रूपी चांडाळोना घरनी भूमि उपर लाठीना प्रहार शा माटे खाय छे ? हे जड ! अर्धचन्द्रथी शोभता मस्तकवाळी, देवाना समूहो जेना चरणकमळने पूजे छे एवी भंडासुरनी शत्रु, कोमळ स्वभाववाळी, अखंड, चिद्रूपिणी अने आत्माने सुख आपनारी देवीनी तुं
उपासना कर.
७. धन उपर अतिशय आसक्तिवाळा, तें राढापुरी (बंगाळनी एक नगरी) मां प्रवेश कर्यो, तेवी रीते सूर्यना प्रखर तापना परिणामरूप अतिवृष्टिना झापटां पण ते सहन कर्या. रे मूढ ! तेम करीने पण तने शुं फळ मळ्युं ? उलटुं, खुल्लु देखाई आवतुं घडपण ज माथे वहोर्यु. तो पछी जन्मना दुःखना हरनारा, कार्तिकेयना पिता अने संग्राममां मेरुपर्वतना धारक परमेश्वरनी स्तुति तें केम न करी ?
८. हाथी, घोडा वगेरेनी चितामां तुं परोवायेलो रहे छे. अरे! तेनाथी तो तने शुं फळ मळ्युं ते कहे, अरेरे! आ बधुं क्यांय जतुं तो नहीं रहे ने, एवो भारे संताप तने पीडे छे, हे तात ! आ बधुं कायम खराब परिणाम
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लावनारुं छे, एवी भावना कर, तमोगुणवाळो थईने उंघीश मा. जलदीथी ते सारी रीते तारनारा, भक्तो माटे कल्पवृक्ष समा, शिवने शरणे तुं जा.
९. वंदनशील लोकोना समूह माटे मंदारवृक्ष समा, सतत वहेती करुणावाळा, वृंदावनमां वसतां पशुओना रक्षणहार, जेमनां चरणोमां देवो प्रणाम करे छे तेवा, नन्द वडे सन्मानित, कल्याण करनारा, श्रुतिवचनोना अनिर्वचनीय मूळरूप, कुन्द जेवी शुभ्र कीर्तिवाळा, मुचुकुन्द वडे पूजायेला, मुकुंद नामना तेजनुं (तुं) हृदयमां स्मरण कर.
१०. हे दीकरा ! क्रोधथी आकरा थईने, ज्ञानने पंथे पळवानी समजण छोडीने, दुर्जनोना आग्रहने अनुसरीश मा, कारणके संसारनी पीडा सामान्य नथी, ते ज प्रमाणे आ मोहनी प्रपंचलीला पण सहेलाईथी पार करी शकाय तेवी नथी. गुरु ब्रह्मा अने तीक्ष्ण बुद्धिवाळा परमेश्वर पण कर्मना (सुखदुःखरूप) विस्तारने रोकवा समर्थ नथी. माटे तुं राधाना प्रियतम श्रीकृष्णना चरणयुगलने हृदयमा धारण करी मोक्षसुखोना आनंदने पाम.
११. स्वर्गनी सपाटीथी मांडीने अनेक प्रकारना जन्मोमां सुखनो योग केवो (नामनो) होय छे ? तुं जाणे छे के विषयोमाथी उद्भवता भोगोमां रुचि राखीश तो अंतःकरणथी अतिशय दुःखी थईश. माटे तुं अभिमानथी उपर उठीने, दान यज्ञो वगेरे करीने, यमराजना भयथी रहित थईने, मीन जेवा नेत्रवाळा, गानप्रिय, कुसुमायुधना प्राणने हरनार सदाशिवने भज ।
१२. आ नश्वर क्वचित ज सुखदायक एवा शरीरने पामीने, पस्ताया विना, भय, पतन. के थाकनी परवा कर्या वगर में कुतूहलथी नजीक अने दूरना द्वीपोने खेड्या छे. हे स्वरूपवान आकृतिवाळा ! में राजाओने आराध्या छे, अरे रे ! पण सहेजे सुख लाध्युं नहीं. हे गोपाल धुरंधर ! मारूं तत्काल रक्षण करो. मारा पर क्रोध न करशो.
१३. ओ बाळक ! बिंब जेवा अघरवाळी स्त्रीओनो विलास अंते लीमडा वगेरेना जेवो कड़वा रसथी भरेलो, अत्यंत बाधक अने छेतरामणो नथी लागतो ? तेथी लांबी लटोवाळी, भक्तोनुं रक्षण करवामां विलंब न करनारी, केसरी केतकीना फूलो जेवा होठवाळी, पूर्णचंद्र जेवा वदनवाळी,
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69 दयाळु अंबादेवीनी तुं सतत उपासना कर.
१४. तुं स्वर्गनी रम्भा वगेरे (अप्सराओ)ना गाढ आलिंगननी आशाथी लांबा वखत सुधी भावपूर्वक यज्ञ करे छे, पण हे जडमनुष्य ! तुं विचार कर के आनाथी शुं सुख मळवानुं छे ? आ बधुं नाशवंत छे माटे दंभरहित थईने स्तंभमांथी प्रगटेला, इन्द्र वड़े स्तुति करायेल भक्तोनुं कल्याण करनार, नखना समूह वडे शत्रुनो वध करनार ते नृसिंह भगवाननुं चिंतन कर.
१५. श्रीराम वडे पूजायेलां चरणवाळी, मनोरम आकृति धरावती, देवोनी विपत्तिओने दूर करनारी, कामपीडाओने शमावनारी, कामनाओने सफळ करनारी, कामदेव वगेरे देवोनी वधूओ जेनी आज्ञामां सतत रोकायेली रहे छे, तेवी महादेवनी पत्नी, स्तुत्य क्रोधवाळी, जपाकुसुम जेवी कान्तिवाळी, आदरणीय चरित्रवाळी, समस्त साममंत्रो वडे आदरपूर्वक स्तुति कराती, मुक्तिना असामान्य एवा सुखने आपनारी ते पार्वती मारुं रक्षण करो.
१६. हे उरुगाय ! तारी आ अविवेकना भंडार समी, विस्तृत अकळ माया के, जेने लीधे पत्नी, पुत्र, धन शरीरादिना दोषनुं चिंतन थतुं नथी, ते मने खिन्न करे छे. (मृत्यु समयनी) ते यातनानो कोई उपाय नथी, अरेरे ! आ जगतमां हुं कोने शरणे जाउं ? माटे हे मायाना निवासरूप भगवन् ! नूतन मेघना भाई जेवा देहवाळा ! तमे मारुं रक्षण करो.
१७. हे मित्र ! तुं हार आपे छे अने हरिणाक्षीना स्तनविस्तारने पकडवा इच्छे छे, पण ते तो तेना प्रेमीने खुश करीने तेनी साथे रमण करवा इच्छे छे, आमां तने आनंद क्यांथी उद्भवे ? माटे कामदेव संबंधी मदने त्यजीने वेदवाक्योना साररूप अविकारी एवा महेश्वरने भज तो तुं जन्ममरणने पार जईश.
१८. श्यामकेशवाळी सुंदरीना नयनकटाक्षोरूपी मोहना संभोग शृंगार रसनी अंदर वारंवार लांबा समय सुधी तें डूबकी मारी छे, ते शुं तारा माटे हीणपत भयुं नथी ? एमां शुं लाभ छे ? मदिराना जेवी (मादक) तरुणावस्थामां रहेलो तुं मुंडनी जेम आचरण करीने शुं पामे छे ? तो मृत्युंजय, हळाहळ विषने शमावनार महादेवने आत्मा अने मनथी बांधी ले (वश कर).
For Pri
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70 १९. अरेरे ! दावाग्निनी ज्वाळाओनी जेम दझाडनार कुटिल एवो आ कलि अतिशय संताप पमाडे छे. हे वासुदेव ! आ जगतमां तारा सिवाय बीजुं कोण आ कलिने अटकावी शके ? जेनां चरणोनी सेवा करवामां सिद्धो, मुनिओ अने देवो अतिशय स्पर्धा करे तेवा आप आपना चरणमां भावपूर्वक नमेला अने शिशुभावने पामेला एवा मने (स्वस्वरूपना) आनंदनी प्रसादी
आपो.
२०. द्रव्यनी स्पृहाथी सघळी दिशाओमां अथवा तो मेरुपर्वत पर्यंत दोडादोड करी, तथा विविध देशोनो क्लेशदायी प्रवास खेड्यो, छतां तेनाथो लेशमात्र धन न मळ्युं, माटे हे मन ! आशानी उपरवट जईने आपनारी, हस्तमां पाशने धारनारी, अनेक जगतोनी अधिष्ठात्री, गिरीशनी उपासना करनारी, दिशाओना अधिपतिओ वडे पूजाता चरणकमळवाळी, पार्वतीदेवीनी उपासना करी तारी जातने बचावी लेवानी आशा राख.
२१. हे सौम्य ! वेषने पलटी नाखनारुं (कृष्ण केश वगेरेथी शोभता रूपने वलीपलितत्ववाळु करनार), सर्व रोगोनुं एकमात्र निवासस्थान, दोषोनुं घर, (विद्याभ्यास वगैरे) गुणोनो एकदम ह्रास करनार एवं आ घडपण माथे आव्युं छे ते संतोष आपतुं नथी, तो शरीरनुं शोषण करता क्रोध वगैरेने त्यजीने शेष आयुष्यने खास लायकातवाळु बनाव. तेथी आ संसारमा ते माटे शेषनागरूपी धनुष्यवाळा, अनंगने जीतनारा शिवनी पत्नी भवानीने शरणे जा.
२२. संसाररूपी मरुभूमिमां तने शो सार जणाय छे ? हे शुभमति ! अत्यारे सारी रोते तारा हितने साधी ले, अरे ! दुष्ट बुद्धिथी विचारेला साहसथी शुं फायदो थाय ? माटे योगीओना हृदयमा रहेला, सूर्यनी कान्तिथी पण घj वधारे एवं पोतानुं तेज धरावता, कंसना शत्रु विष्णुने पण पूज्य एवा चंद्रशेखर भगवाननी मंत्रोथी स्तुति करीने सघळा पुरुषार्थोने सफळ कर.
२३. जेमणे मोहनो अज्ञान संबंध ऊभो को छे तेवां घर, पुत्र, धन, शरीर वगेरेनुं रक्षण करवा माटे आ लोकमां तें केटलुं दुःख सहन कर्यु ? छतां तारा पोताना हित माटे तारी बुद्धी ठरीठाम न थई. तेथी वृषभवाहनवाळा, संसारना तापने हरी लेनारा, मेघना जेवी कंठनी शोभा धरावता, हाथमा मृगनी
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________________ 71 चमकवाळा, त्रिकालाबाध्य (मोक्ष नामना) सुखने आपवानुं माहात्म्य धरावता एवा तेजस्वरूपीने तुं भज. 24. बंने कानमां वाळी पहेरेली काननी सुंदर बूट उपरना बकुल पुष्पथी शोभती, हंसीओना झुंड वडे करेली गतिनी रमतवातमां नकल करती, सखीओ साथे मधुर अने प्रशस्त वातचीत करती, पोताना दर्शन द्वारा आंखोने सफळ करनारी, कमळ सहित अन्य पुष्पोने हस्तमां धारण करनारी, कालीनागनं दमन करनार (कृष्ण)नी बहेन, तालना दळ जेवी कान्ति धरावती (श्यामवर्णा) ते कालीमाता मारुं कल्याण करनारी थजो. 25. दक्षयज्ञना ध्वंस माटे चतुराईपूर्वकनो आग्रह राखनार, देवो/ विद्वानोना संपूर्ण पालनमां तत्पर, लाखोनी संख्यामा रहेल चन्द्रो जेवा धवल देहवाळा, पराजित शत्रुओ पासेथी (सांभळवा) मळती (तेमना विशेनी) आश्चर्यकारक कथाओवाळा, नन्दी पर सवारी करता, लाख जेवा राक्षसोना समूहनो संहार करनारा अनर्गळ दयावाळा, नमन करता भक्तोना पालनहार, यक्षाधिप कुबेरना प्रिय मित्र एवा त्रिलोचन तरीके ओळखाता शिवना तेजनुं तुं स्मरण कर. 26. राम नामना पोताना पुत्रनी कामनाने पूरी करवा माटे उत्सुक एवा जगन्नाथे अश्वधाटी नामर्नु आ विश्वहृद्य काव्य रच्यु. पंडित जगन्नाथे रचेलं अश्वधाटी काव्य पूरुं थथु छे.