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अनेकता में एकता
भारतवर्ष में दार्शनिक विचार-धारा का जितना विकास हुआ है, उतना अन्यत्र नहीं हुआ। भारतवर्ष दर्शन की जन्मभूमि है। यहाँ भिन्न-भिन्न दर्शनों के भिन्न-भिन्न विचार, बिना किसी प्रतिबन्ध और नियन्त्रण के, फलते-फलते रहे हैं। यदि भारत के सभी पुराने दर्शनों का परिचय दिया जाए, तो एक बहुत विस्तृत ग्रन्थ हो जाएगा। अतः अधिक विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही भारत के बहुत पुराने पाँच दार्शनिक विचारों का परिचय यहाँ दिया जाता है। भगवान महावीर के समय में भी इन दर्शनों का अस्तित्व था और आज भी बहुत से लोग इन दर्शनों के विचार रखते हैं। पाँचों के नाम इस प्रकार है--
१. कालवाद, २. स्वभाववाद. ३. कर्मवाद. ४. परुषार्थवाद और ५. नियतिवाद। इन पाँचों दर्शनों का आपस में भयंकर वैचारिक संघर्ष है और प्रत्येक दर्शन परस्पर में एक-दूसरे का खण्डन कर मात्र अपने ही द्वारा कार्य-सिद्ध होने का दावा करता है। १. कालवाद:
कालवाद का दर्शन बहुत पुराना है। वह काल को ही सबसे बड़ा महत्त्व देता है। कालवाद का कहना है कि संसार में जो कुछ भी कार्य हो रहे हैं, सब काल के प्रभाव से ही हो रहे है। काल के बिना स्वभाव, कर्म, पुरुषार्थ और नियति कुछ भी नहीं कर सकते। एक व्यक्ति पाप या पुण्य का कार्य करता है, परन्तु उसी समय उसे उसका फल नहीं मिलता। समय आने पर ही कार्य का अच्छा या बुरा फल प्राप्त होता है। एक बालक यदि वह आज ही जन्मा हो, तो आप उसे कितना ही चलाएंगे, लेकिन वह चल नहीं सकता। कितना ही बुलवाइए, बोल नहीं सकता। समय आने पर ही चलेगा और बोलेगा। जो बालक आज सेर-भर का पत्थर नहीं उठा सकता, वह काल-परिपाक के बाद युवा हान पर मनभर के पत्थर को उठा लेता है। आम का वृक्ष आज बोया है, तो क्या आप अाज ही उसके मधुर फलों का रसास्वादन कर सकते है ? वर्षों के बाद कहीं आम्रफल के दर्शन होंगे। ग्रीष्मकाल में ही सूर्य तपता है। शीतकाल में ही शीत पड़ता है। युवावस्था में ही पुरुष के दाढ़ी-मुछे आती हैं। मनुष्य स्वयं कुछ नहीं कर सकता। समय आने पर ही सब कार्य होते हैं। यह काल की महिमा है । २ स्वभाववाद:
स्वभाव-वाद का दर्शन भी कुछ कम नहीं है। वह भी अपने समर्थन में बड़े ही ने तर्क उपस्थित करता है। स्वभाववाद का कहना है कि संसार में जो कुछ भी कार्य हो रहे हैं, वे सब वस्तुओं के अपने स्वभाव के प्रभाव से ही हो रहे हैं। स्वभाव के बिना काल, कर्म, नियति आदि कुछ भी नहीं कर सकते । आम की गुठली में ग्राम का वृक्ष होने का स्वभाव है, इसी कारण माली का पुरुषार्थ सफल होता है, और समय पर वृक्ष तैयार हो जाता है। यदि काल ही सब-कुछ कर सकता है, तो क्या काल निबौली से आम का वृक्ष उत्पन्न कर सकता है? कभी नहीं। स्वभाव का बदलना बड़ा कठिन कार्य है। कठिन क्या, असम्भव कार्य है। नीम के वक्ष को वर्षों-वर्ष गुड़ और घी से सींचते रहिए, क्या वह मधुर हो सकता है ? दही मथने से ही मक्खन निकलता है, पानी से नहीं, क्योंकि दही में ही मक्खन देने
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का स्वभाव है । अग्नि का स्वभाव उष्णता है, जल का स्वभाव शीतलता है, सूर्य का स्वभाव प्रकाश करना है और तारों का स्वभाव रात में चमकना है। प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव के अनुसार कार्य कर रही है । स्वभाव के समक्ष विचारे काल आदि क्या कर सकते हैं ? ३ कर्मवाद :
कर्मवाद का दर्शन तो भारतवर्ष में बहुत चिर-प्रसिद्ध दर्शन है। यह एक प्रबल दार्शनिक विचारधारा है । कर्मवाद का कहना है कि काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि सब नगण्य हैं। संसार में सर्वत्र कर्म का हो एकछत्र साम्राज्य है । देखिए -- एक माता के उदर से एक साथ दो बालक जन्म लेते हैं, उनमें एक बुद्धिमान होता है, और दूसरा वज्रमूर्ख ! ऊपर का वातावरण एक होने पर भी परस्पर भेद क्यों है ? मनुष्य के नाते सब मनुष्य एक समान होने पर भी उनमें कर्म के कारण ही भेद हैं। बड़े-बड़े बुद्धिमान चतुर पुरुष भूखों मरते हैं और वज्रमूखं गद्दी तकियों के सहारे सेठ बनकर आराम करते हैं । एक को माँगने पर भीख भी नहीं मिलती, दूसरा रोज हजारों रुपये खर्च कर डालता केतन पर कपड़े के नाम पर चिथड़े भी नही हैं, और दूसरे के यहाँ कुत्ते भी मखमल के गद्दों पर लेटा करते हैं। यह सब क्या है? अपने-अपने कर्म है । राजा को रंक और रंक को राजा बनाना, कर्म के बाएँ हाथ का खेल है। तभी तो एक विद्वान् ने कहा है--' गहना कर्मणो गतिः' अर्थात् कर्म की गति बड़ी गहन है ।
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४ पुरुषार्थवाद :
पुरुषार्थवाद का भी संसार में कम महत्त्व नहीं है। यह ठीक है कि लोगों ने पुरुषार्थवाद के दर्शन को अभी तक अच्छी तरह नहीं समझा है और उन्होंने कर्म, स्वभाव, काल आदि को ही अधिक महत्त्व दिया है । परन्तु पुरुषार्थवाद का कहना है कि बिना पुरुषार्थ के संसार का एक भी कार्य सफल नहीं हो सकता। संसार में जहाँ कहीं भी, जो भी कार्य होता देखा जाता है, उसके मूल में कर्ता का अपना पुरुषार्थ ही छिपा होता है । कालवाद कहता है कि समय आने पर ही सब कार्य होता है । परन्तु उस समय में भी यदि पुरुषार्थ
हो, तो क्या हो जाएगा ? श्रम की गुठली में ग्राम पैदा करने का स्वभाव है, परन्तु क्या fart पुरुषार्थ के यों ही कोठे में रखी हुई गुठली में ग्राम का पेड़ लग जाएगा ? कर्म का फल भी बिना पुरुषार्थ के यों ही हाथ धरकर बैठे रहने से मिल जाएगा ? संसार में मनुष्य
जो भी उन्नति की है, वह अपने प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा ही की है। आज का मनुष्य हवा में उड़ रहा है, सागर में तैर रहा है, पहाड़ों को मिट्टी के ढेले की तरह तोड़ रहा है, चाँद पर एवं अन्य ग्रहों पर पहुँच रहा है, परमाणु और उद्जन बम जैसे महान् श्राविष्कारों को तैयार करने में सफल हो रहा है । यह सब मनुष्य का अपना पुरुषार्थ नहीं, तो और क्या है ? एक मनुष्य भूखा है, कई दिन का भूखा है। कोई दयालु सज्जन मिठाई का थाल भरकर सामने रख देता है। वह नहीं खाता है। मिठाई लेकर मुंह में डाल देता है, फिर भी नहीं चबाता है, और गले से नीचे नहीं उतारता है । अब कहिए, बिना पुरुषार्थ के क्या होगा ? क्या यों ही भूख बुझ जाएगी ? आखिर मुंह में डाली हुई मिठाई को चबाने का और चबाकर गले के नीचे उतारने का पुरुषार्थं तो करना ही होगा ! तभी तो कहा गया है — "पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो ।”
५ नियतिवाद :
नियतिवाद का दर्शन जरा गम्भीर है। प्रकृति के अटल नियमों को नियति कहते हैं । नियतिवाद का कहना है - संसार में जितने भी कार्य होते हैं, सब नियति के अधीन होते हैं । सूर्य पूर्व में ही उदय होता है, पश्चिम में क्यों नहीं ? कमल जल में ही उत्पन्न हो सकता है, शिला पर क्यों नहीं ? पक्षी प्रकाश में उड़ सकते हैं, गधे घोड़े क्यों नहीं उड़ते ? हंस श्वेत क्यों हैं, और कौवा काला क्यों है ? पशु के चार पैर होते हैं, मनुष्य के
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________________ दो ही क्यों ? अग्नी की ज्वाला जलते ही ऊपर को क्यों जाती है, वह नीचे को क्यों नहीं जाती? इन सब प्रश्नों का उत्तर केवल यही है कि प्रकृति का जो नियम है, वह अन्यथा नहीं हो सकता। यदि वह अन्यथा होने लगे, तो फिर संसार में प्रलय ही हो जाए। सूर्य पश्चिम में उगने लगे, अग्नि शीतल हो जाए, गधे-घोडे आकाश में उडने लगे तो फिर संसार में कोई व्यवस्था ही न रहे। नियति के अटल सिद्धान्त के समक्ष अन्य सब सिद्धान्त तुच्छ / हैं। कोई भी व्यक्ति प्रकृति के अटल नियमों के प्रतिकूल नहीं जा सकता। अतः नियति ही सब से महान् है। कुछ प्राचार्य नियति का अर्थ होनहार भी कहते हैं। जो होनहार है, वह होकर रहता है, उसे कोई टाल नहीं सकता। इस प्रकार उपर्युक्त पाँचों वाद अपने-अपने विचारों की खींचातान करते हुए, दूसरे विचारों का खण्डन करते हैं। इस खण्डन-मण्डन के कारण साधारण जनता में भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो गई है। वह सत्य के मूल मर्म को समझने में असमर्थ है। भगवान् महावीर ने विचारों के इस संघर्ष का बड़ी अच्छी तरह समाधान किया है। संसार के सामने उन्होंने वह सत्य प्रकट किया, जो किसी का खण्डन नहीं करता, अपितु सबका समन्वय करके जीवननिर्माण के लिए उपयोगी प्रादर्श प्रस्तुत करता है। समन्यवाद: भगवान् महावीर का उपदेश है कि पांचों ही वाद अपने-अपने स्थान पर ठीक है, संसार में जो भी कार्य होता है, वह इन पाँचों के समन्वय से अर्थात् मेल से होता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि एक ही शक्ति अपने बल पर कार्य सिद्ध कर दे। बुद्धिमान मनुष्य को आग्रह छोड़कर सबका समन्वय करना चाहिए। बिना समन्वय किए, कार्य में सफलता 'प्राशा रखना दराशामात्र है। एकान्त रूप से किसी एक ही पक्ष का अाग्रह रखना उचित नहीं है। आग्रह से कदाग्रह और कदाग्रह से विग्रह अन्ततोगत्वा पैदा ही होता है। यह हो सकता है कि किसी कार्य में कोई एक प्रधान हो और दूसरे सब गौण हों, परन्तु यह नहीं हो सकता कि कोई अकेला ही स्वतन्त्र रूप से कार्य सिद्ध कर दे। भगवान् महावीर का उपदेश पूर्णतया सत्य है। हम इसे समझने के लिए ग्राम बोनेवाले माली का उदाहरण ले सकते हैं। माली बाग में ग्राम की गुठली बोता है, यहाँ पाँचों कारणों के समन्वय से ही वृक्ष होगा। आम की गुठली में आम पैदा होने का स्वभाव है परन्तू बोने का और बोकर रक्षा करने का पुरुषार्थ न हो तो क्या होगा? बोने का पुरुषार्थ भी कर लिया, परन्तु बिना निश्चित काल का परिपाक हुए, प्राम यों ही जल्दी थोड़े ही तैयार हो जाएँगे? काल की मर्यादा पूरी होने पर भी यदि शुभ कर्म अनुकूल नहीं है, तो फिर भी आम नहीं लगने का। कभी-कभी किनारे अाया हुआ जहाज भी डूब जाता है। अब रही नियति / वह सब कुछ है ही। आम से आम होना प्रकृति का नियम है, इससे कौन इन्कार कर सकता है ? और आम होना होता है, तो होता है, नहीं होना होता है, तो नहीं होता है। हाँ या ना, जो होना है, उसे कोई टाल नहीं सकता। पढ़ने वाले विद्यार्थी के लिए भी पाँचों आवश्यक हैं। पढ़ने के लिए चित्त की एकाग्रता रूप स्वभाव हो, समय का योग भी दिया जाए, पुरुषार्थ यानी प्रयत्न भी किया जाए, अशुभ कर्म का क्षय तथा शभ कर्म का उदय भी हो और प्रकृति के नियम नियति एवं भवितव्यता का भी ध्यान रखा जाए; तभी वह पढ़-लिख कर विद्वान् हो सकता है। अनेकान्तवाद के द्वारा किया जानेवाला यह समन्वय ही वस्तुतः जनता को सत्य का प्रकाश दिखला सकता है। विचारों के भँवर-जाल में आज मनुष्य की बुद्धि फंस रही है। एकान्तवाद का आग्रह रखने के कारण, वह किसी भी समस्या का उचित समाधान नहीं पा रहा है। समस्या का समाधान पाने के लिए उसे जैन-दर्शन के इस अनेकान्तवाद अर्थात् समन्वयवाद को समझना अत्यन्त आवश्यक है। अनेकता में एकता 87