Book Title: Acharya Hemchandra krut Yogshastra me Vrat Nirupan
Author(s): Hemlata Jain
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15,17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी, 1741 आचार्य हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र में व्रत-निरूपण श्रीमती हेमलता जैन आचार्य हेमचन्द्रसूरि (११-१२वीं शती) जैन धर्म के महान् प्रभावशाली आचार्य हुए हैं। उन्होंने आगम की टीकाओं का भी लेखन किया तथा न्याय, साहित्य, व्याकरण, इतिहास, योग आदि विविध विधाओं पर प्रामाणिक कृतियों की रचना की! प्रमाणमीमांसा, प्राकृत-व्याकरण, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, काव्यानुशासन आदि उनकी अनेक प्रसिद्ध रचनाएँ हैं । योगशास्त्र नामक उनकी प्रसिद्ध कृति में उन्होंने अहिंसादि पाँच व्रतों, दिग्विरति आदि तीन गुणव्रतों एवं सामायिक आदि चार शिक्षाव्रतों का भी निरूपण किया है । लेखिका ने यहाँ पर इनसे सम्बद्ध कतिपय श्लोकों का संकलन कर हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। -सम्पादक पंच महाव्रत/अणुव्रत १. अहिंसा न यत्प्रमादयोगेन, जीवितव्यपरोपणम् । सानां स्थावराणां च, तदहिंसाव्रतम् मतम् ।। योगशास्त्र १.२० प्रमाद के योग से त्रस और स्थावर जीवों के जीवत्व का व्यपरोपण न करना अहिंसा व्रत कहलाता है। आत्मवत् सर्वभूतेषु सुखदुःखे प्रियाप्रिये।। चिंतयन्नात्मनोऽनिष्टां हिंसामन्यस्य नाचरेत् ।। योगशास्त्र २.२० सभी जीवों को आत्मवत् व्यवहार और सुख प्रिय व दुःख अप्रिय लगता है, यह चिन्तन करते हुए अन्य जीव के साथ अनिष्ट हिंसात्मक आचरण नहीं करना चाहिए। २. सत्य प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं, सूनृतव्रतमुच्यते । तत्तथ्यमपि नो तथ्यम् अप्रियं चहितं च यत्।। -योगशास्त्र १.२१ प्रिय, हितकारी और सत्य वचन बोलना सत्य व्रत कहलाता है। अप्रिय और अहितकर वचन सत्य होते हुए भी सत्य नहीं होते हैं। सर्वलोकविरुद्धं यद्यद्विश्वसितघातकम् । यद्विपक्षश्च पुण्यस्य न वदेत्तदसूनृतं ।। योगशास्त्र, २.५५ लोकविरुद्ध मान्यता वाले, विश्वासघात करने वाले और पापकारी असत्य वचन नहीं बोलने चाहिए। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15,17 नवम्बर 2006/1 जिनवाणी 1751 ३. अचौर्य अनादानमदत्तस्यास्तेयव्रतमुदीरितम् । बाह्याः प्राणा नृणामथो हरता तं हता हि ते ।।-योगशास्त्र १.२२ बिना दिए हुए द्रव्य का ग्रहण करना स्तेय (अचौर्य) व्रत कहलाता है। धन पर ममत्व होने से ये मनुष्य के बाह्य प्राण होते हैं। अतः इसका हरण होने पर मनुष्य के द्रव्य प्राणों का हरण हो जाता है। पतितं विस्मृतं नष्टं स्थितं स्थापितमाहितम् । अदत्तं नाददीत स्वं परकीयं क्यचित् सुधीः ।। सुधी व्यक्ति को नीचे गिरी हुई, भूली हुई, खोई हुई, पड़ी हुई, स्थापित की हुई और नहीं दी हुई , सभी परकीय वस्तु या धन को ग्रहण नहीं करना चाहिए। अयं लोकः परलोको धर्मो धैर्य धृतिर्मतिः । मुष्णता परकीयं स्वं मुषितं सर्वमप्यदः ।।-योगशास्त्र २.६७ परकीय द्रव्यों का हरणमात्र द्रव्यहरण नहीं होता अपितु वह उस मनुष्य की सभी वस्तुओं को चुरा लेता है, क्योंकि चोरी हो जाने पर उस मनुष्य का वर्तमान भव एवं परभव बिगड़ता है, धर्म की हानि होती है, धीरता का क्षय होता है, शान्ति में बाधा उत्पन्न करती है और बुद्धि का नाश होता है। अतः मात्र एक चोरी इन सबका हरण कर लेती है। ४. ब्रह्मचर्य व्रत दिव्यौदारिककामानां कृतानुमतिकारितैः । मनोवाक्कायतस्त्यागो ब्रह्माष्टादशधा मतम् ।।-योगशास्त्र १.२३ दिव्य अर्थात् देव-देवी संबंधी और औदारिक अर्थात् मनुष्य तथा तिर्यंच संबंधी विषयों का मन, वचन और काया से करूँ नहीं, कराऊँ नहीं और अनुमोदूँ नहीं इस तरह अठारह प्रकार से त्याग करना ब्रह्मचर्य महाव्रत कहलाता है। (2 x 3 x 3 = 18) ५. अपरिग्रह व्रत सर्वभावेषु मूर्छायाः त्यागः स्यादपरिग्रहः। यदसत्स्वपि जायेत, मूर्छया चित्तविप्लवः ।।-योगशास्त्र १.२४ सभी पदार्थों पर से मूर्छा या आसक्ति का त्याग करना अपरिग्रह व्रत कहलाता है। मूर्छा (आसक्ति) के कारण अविद्यमान या अप्राप्त वस्तुओं के सम्बन्ध में भी चित्त में अशान्ति हो जाती है। असंतोषमविश्वासमारंभं दुःखकारणम् । __ मत्या मूर्छाफलं कुर्यात् परिगृहनियंत्रणम् ।।-योगशास्त्र २.१०६ मूर्छा का फल परिग्रह असंतोष, अविश्वास, आरम्भ और दुःख का कारण है, अतः उस परिग्रह पर नियन्त्रण करना चाहिए। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115.17 नवम्बर 2006 [176 जिनवाणी तीन गुणवत १. दिग्विरति गुणव्रत दशस्यपि कृता दिक्षु यत्र सीमा न लंध्यते । ख्यातं दिग्विरतिरिति प्रथमं तद्गुणवतं ।।-योगशास्त्र ३.१ पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य, आग्नेय, ऊर्ध्व और अधो इन दसों दिशाओं में व्यापारादि के कार्य प्रसंग से आवागमन करने में सीमा बाँधकर उल्लंघन न करना दिशाविरमण या दिग्विति व्रत कहलाता है। २. भोगोपभोग गुणवत भोगोपभोगयोः संख्या शक्त्या यत्र विधीयते। भोगोपभोगमानं तद् द्वैतीयकं गुणवतम् ।। सकृदेव भुज्यते यः स भोगोऽन्नसगादिकः । पुनः पुनः पुनर्नोग्य उपभोगोङ्गनादिकः 11-योगशास्त्र, ३.४-५ जो द्रव्य एक ही बार प्रयोग में आते हैं जैसे अनाज, पुष्पमाला, विलेपन आदि ‘भोग' द्रव्य एवं जो पुनः पुनः प्रयोग में आते हैं जैसे वस्त्र, अलंकार, घर, शय्या, आसनादि द्रव्य ‘उपभोग' द्रव्य कहलाते हैं। शरीर की सामर्थ्यानुसार भोग-उपभोग के द्रव्यों की संख्या का निर्धारण करना अर्थात् नियम लेना भोगोपभोग गुणव्रत कहलाता है। ३.अनर्थदण्ड गुणव्रत आर्त्तरौद्रमपध्यानं पापकर्मोपदेशिता। हिंसोपकारि दानं च प्रमादाचरणं तथा।। शरीराद्यर्थदंडस्य प्रतियक्षतया स्थितः । योऽनर्थदंडरतत्त्यागस्तृतीयं तु गुणवतम् ।। योगशास्त्र ३.७३-७४ आर्तध्यान-रौद्रध्यान रूपी अशुभ ध्यान करना, पापकारक उपदेश देना, हिंसक उपकरणों को दूसरों को देना और प्रमाद का आचरण करना ये चारों कार्य शरीरादि के प्रयोजन से किए जाने पर अर्थदण्ड हैं तथा उनसे भिन्न अर्थात् निष्प्रयोजन किए जाने से अनर्थदण्ड होता है। अनर्थदण्ड का त्याग तीसरा गुणव्रत कहलाता है। चार शिक्षाव्रत १. सामायिक व्रत त्यक्तात-रौद्रध्यानस्य त्यक्त-सायद्यकर्मणः । मुहूर्त समता या तां विदुः सामायिकव्रतम् ।।-योगशास्त्र ३.८२ आर्तध्यान-रौद्रध्यान एवं सावध (सपाप) कार्यो का एक मुहूर्त पर्यन्त त्याग करके समभाव में रहना सामायिक व्रत कहलाता है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 177 ||15,17 नवम्बर 2006|| | जिनवाणी 2. देशावकासिक व्रत दिगवते परिमाणं यत्तस्य संक्षेपणं पुनः / दिने रात्रौ च देशायकासिकव्रतमुच्यते / / - योगशास्त्र 3.84 छठे दिशिव्रत में जिन दिशाओं में आवागमन के परिमाण का नियम रखा जाता है उसका दिन और रात्रि के अन्तर्गत संक्षेपण करना देशावकासिक व्रत कहलाता है। अर्थात् एक दिन या रात्रि में दसों दिशाओं में आवागमन को सीमित करना देशावकासिक व्रत है। 3. पौषध व्रत चतुष्पव्या चतुर्थादि कुव्यापारनिषेधनम् / ब्रहाचर्यक्रिया स्नानादित्यागः पौषधव्रतम् -योगशास्त्र 3.85 अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या इन चार पर्वो पर उपवासादि तप करके, पापकारी सदोष ___ व्यापार का और स्नानादि शरीर की शोभा का त्याग करके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना पौषधव्रत है। 4. अतिथिसंविभाग व्रत दानं चतुर्विधाहार-पात्राऽऽच्छादन-सद्मनाम् / अतिथिभ्योऽतिथिसंविभागवतमुदीरितम् ।।-योगशास्त्र 3.87 देश-काल की अपेक्षा से साधुओं को चार प्रकार के दान कल्पनीय हैं। चार प्रकार के आहार-अशन, पान, खादिम और स्वादिम-पात्र, वस्त्र और रहने का स्थान इन चतुर्विध द्रव्यों का दान साधुओं को करना अतिथि संविभाग व्रत कहलाता है। -शोध छात्रा, आकांक्षा, 12/3, पावटा बी रोड़, जोधपुर