Book Title: Aagam 20 KALPAVATANSIKAA Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] श्री कल्पवतंसिका (उपाग)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । “कल्पवतंसिका" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्तिः] [आट्य संपादक: - पूज्य अनुयोगाचार्य श्री दानविजयजी गणि म. सा. । (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[२०], उपांग सूत्र-[५] “कल्पवतंसिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्तिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम - “कल्पवतंसिका”- उपांगसूत्र- ९ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं (-1 मूलं [-1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... ...आगमसूत्र - [२०], उपांग सूत्र [०९] "कल्पवतंसिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि - विरचिता वृत्तिः Education International ......... श्रीचन्द्रसूरिविरचितवृत्तियुतं श्री तंसिकासूत्रम् न्यायाम्भोनिधिश्रीमद्विजयानन्दसुरिपुरन्दर शिष्य महोपाध्यायश्रीमदुवीर विजय शिष्य रत्न-अनुयोगाचार्य्यश्रीमद्दानविजयगणिभिः संशोधितम् रु. ५०१) श्रेष्ट हरखचंद सोमचंद ह. नेमचंदभाइ मु० सुरत एतस्य श्राद्धस्य द्रव्यसाहाय्येन, प्रकाशवित्री श्री भागमोदयसमिति इदं पुस्तकं अमदाबाद ( राजनगर ) मध्ये शाह वेणीचंद सूरचंद श्री आगमोदय समिति सेक्रटरी इत्यनेन युनियनप्रीन्टिगप्रेसमध्ये टंकशालायां शाह मोहनलालचीमनढालद्वाराप्रकाशितम् । प्रतय: ७५० विक्रम संवत् १९७८. वीरसंवत् २४४८, पण्यं रु०-१२० सन १९२२. कल्पवतंसिका-उपाङ्गसूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" For Paranalyst Use Only ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: २+१ कल्पवतंसिका-उपाङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ५ मुलांक: अध्ययन पृष्ठांक: मूलांक: अध्ययनं पृष्ठांक: | मूलांक: अध्ययन | पृष्ठांक: ००१ [१] पद्म ००४ ००२/१ | [२] महापद्म ००५ ___००२ । [३-१०] भद्र, सुभद्र आदि ___००५ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२०], उपांग सूत्र - [०९] "कल्पवतंसिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: ~2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['कल्पवतंसिका' - मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास यह प्रत सबसे पहले “निरयावलिका” के नामसे सन १९२२ (विक्रम संवत १९७८) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद अनुयोगाचार्य श्री दानविजयजी गणि महाराज साहेब | इसमे 'निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिता, पुष्पचुलिका, वृष्णिदशा' पांच उपांग थे. इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और संपादकपूज्यश्री तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | * हमारा ये प्रयास क्यों? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५- आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की [पूर्वाचार्य] पूज्य श्री के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन एवं सूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके । हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || || ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है । हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है । अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे खास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधु रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। .......मुनि दीपरत्नसागर ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. ....आगमसूत्र - [१९], उपांग सूत्र [०८] "कल्पवतंसिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि - विरचिता वृत्तिः ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२०) “कल्पवतंसिका” - उपांगसूत्र-९ (मूलं+वृत्तिः) अध्ययनं [-]----------- ------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२०], उपांग सूत्र - [०९] "कल्पवतंसिका मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: वलिका. ॥१९॥ प्रत कप्पवडिसिया २ जति णं मंते ! समगेण भगवया जाव संपत्तेणं उर्वगाणं पढमस्स वग्गस निरयावलियाणं अयमढे पन्नत्ते, दोच्चस्स गं भंते ! वग्गस्स कप्पवडिसियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं कइ अझयणा पन्नत्ता? एवं खलु जैबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कप्पवडिसियाणं दस अज्झयणा पन्नता, ते जहा-पउमे १ महापउमे २ भद्दे ३ सुभद्दे ४ पउपभद्दे५ पउमसेणे ६ पउमगुम्मे ७ नलिणिगुम्मे ८ आणंदे ९ नंदणे १०। जइ णं भंते ! समगेण जाव संपत्तेगं कप्पवडिसियाग दस अज्झयणा पत्नत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स कप्पवडिसियाण समणेणं भगवया जाव के अटे पन्नते ? एवं खलु जंबू ! रोणं कालेणं तेणं समरणं चंपा नाम नयरी होत्या । पुन्नभहे चेइए । कूणिए राया । पउमावई देवी । तत्थ णं चंगाए नयरीए सेणियस्स रनो भज्जा कूणियस्स रनो चुल्लमाउया काली नाम देवी होत्या, सुकुमाला । तोसे णं कालीए देवीए पुत्ते काले नाम कुमारे होत्या, सुकुमाले । तस्स गं कालस्स कुमारस्स पउमावई नामं देवी होत्या, सोमाला जाव विहरति । तते णं सा पउमावई देवी अन्नया कयाई तंसि तारिसमंसि वासघरंसि अभितरतो सचित्तकम्मे जाव सोहं मुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, एवं जम्मणं जहा महाबलस्स, जाव नामधिज्ज, जम्हा णं अम्हं इमे दारए कालस्स कुमारस्स पुत्ते पङमावईए देवीए अत्तए तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधिज्ज पउमे पउमे, सेसं जहा पहब्बलस्स अट्ठओ दातो जाव उपि पासायवरगते विहरति । सामी समोसरिए । परिसा निग्गया। कूणिते निग्गते । पउमे वि जहा महब्बले निग्गते तहेब अम्मापिति आपुच्छणा जाव अनुक्रम Fila On मूलसूत्र-१ ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२०) “कल्पवतंसिका” - उपांगसूत्र-९ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययनं [-]------------ ------- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२०], उपांग सूत्र - [०९] "कल्पवतंसिका मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: पवइए अगगारे जाए जाच गुत्तर्षभयारी । तते णं से पउमे अगगारे समगस्स भगवओ महावीरस्स तहारूबाण थेराणं अंतिए सामाइयमादियाई एकारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहि चउत्थछडम जाव विहरति । तते णं से पउमे अगगारे तेणं ओरालेणं जहा मेहो तहेव धम्मजागरिया चिता एवं जहेव मेहो तहेव समर्ण भगवं आपूच्छित्ता विउले जाव पाओवगते समागे तहारूवं थेराणं अंतिए सामाइयमाझ्याई एकारस अंगाई, बहुपडिपुग्णाई पंच वासाई सामन्नपरियाए, मासियाए संलेहणाए सहि भत्ताई आणुपुबीए कालगते, थेरा ओत्तिन्ना भगवं गोयमं पुच्छइ, सामी कहेइ जाव सहि भत्ताई अगसणाए छेदित्ता आलोइय० उड्डे चंदिमसोहम्ो कप्पे देवत्ताए उवचने दो सागराई । से णं भंते ! पउमे देवे तातो देवलोगातो आउक्खएणं पुच्छा, गोयमा ! महाविदेहे वासे जहा दढपइन्नो जाव अंत काहिति । तं एवं खलु जंबू ! समणे णं नाव संपत्तेणं कप्पवडिसियाणं पढमस्स अज्झयगस्स अयमढे पन्नत्ते ति बेमि ॥१॥ ___ जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कप्पडिसियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयपढे पन्नत्ते, दोच्चरस णं भंते ! अज्झयणस्स के अटे पष्णते ? एवं खलु जंबू तेणं कालेणं २ चंपा नाम नगरी होत्था, पुनभद्दे चेइए, कूणिए राया, पउमावई देवी । तत्य णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो भज्जा कोणियस्स रन्नो चुल्लमाउया सुकाली नामं देवी होत्था । तीसे णं सुकालोए पुत्ते सुकाले नामं कुमारे । तस्स णं सुकालस्स कुमारस्स महापउमा नाम देवी होत्था, सुकुमाला। तते णं सा महापउमा देवी अन्नदा कयाई तैसि तारिसमंसि एवं तहेव महापउने नामं दारत, जाव सिडिझहि ति, नवरं ईसाणे कप्पे उववाओ उकोसहिईओ, तं एवं खलु जंचू ! समगेणं भगवया जाव संपत्तेण । एवं सेसा वि अट्ट नेयवा । मातातो अनुक्रम JanEa t ini मूलसूत्र-२,३ ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२०) “कल्पवतंसिका” - उपांगसूत्र-९ (मूलं+वृत्तिः ) अध्ययनं [-]----------- ------- मूलं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [२०], उपांग सूत्र - [०९] "कल्पवतंसिका मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्ति: निरया o10 प्रत सुत्राक दीप रिसनामाओ । कालादीणं दसई पुत्ता आणुपुबीए दोण्डं च पंच चत्तारि, तिण्हं तिण्डं च होति तिन्नेव । दोण्इं च दोष्णि वासा, सेणियनत्तूण परियातो॥१॥ उपवातो आणुपुवीते, पढमो सोहम्मे, वितिता ईसाणे, ततितो सणंकुमारे, चउत्थो माहिंदे, श्रेणिकनप्तृणां-पौधाणां कालमहाकालाद्यङ्गजानां क्रमेण ब्रतपर्यायाभिधायिका 'दोण्डं च पंच' इत्यादिगाथा, अस्या अर्थःदससु मध्ये प्रयोराययोः कालसुकालसत्कयोः पुत्रयोतपर्यायः पञ्च वर्षाणि, प्रयाणां चत्वारि, प्रयाणां त्रीणि, योद्धे-ने वर्षे व्रतपर्यायः । तत्रायस्य यः पुत्र पद्मनामा स कामान् परित्यज्य भगवतो महावीरस्य समीपे गृहीतव्रत पकादशाङ्गधारी मूत्वाऽत्युमं बहु चतुर्थषष्ठष्टिमादिकं तपःकर्म कृत्वाऽतीव शरीरेण कृशीमूतश्चिन्तां कृतवान-यावदस्ति मे बलवीर्यादिशक्तिस्तावद्भगवन्तमनुशाप्य भगवदनुभया मम पादपोपगमनं कर्तुं श्रेय इति तथैवासी समनुतिष्ठति, ततोऽसौ पञ्चवर्षव्रतपालनपरो मासिक्या संलेखनया कालगतः सौधर्मे देवत्वेनोत्पन्नो द्विसागरोपमस्थितिकस्ततश्युत्वा महाविदेह उत्पश्च सेत्स्यते (ति) इति कल्पावतंसकोत्पन्नस्य प्रथममध्ययनम् १। एवं सुकालसत्कमहापद्मदेव्याः पुत्रस्य महापास्यापीयमेव वक्तव्यता, स भगवत्समीपे गृहीतवतः पश्चवर्षव्रतपर्यायपालनपर एकादशाङ्गधारी चतुर्यषष्ठाष्टमादि बहु, तपःकर्म कृत्वा ईशानकल्पे देवः समुत्पन्नो द्विसागरोपमस्थितिकः सोऽपि ततश्युतो महाविदेहे सेत्स्यतीति द्वितीयमध्ययनम् २ । तृतीये महाकालसत्कपुत्रवक्तव्यता, चतुर्थे कृष्णकुमारसत्कपुत्रस्य, पञ्चमे सुकृष्णसत्कपुत्रस्य वक्तव्यता इत्येवं प्रयोऽप्येते वर्षचतुयत्रतपर्यायपरिपालनपरा अभूवन् । एवं तृतीयो महाकालाङ्गजभतुर्वर्षव्रतपर्यायः सनत्कुमारे उत्कृष्टस्थितिको देवो भूत्वा सप्त सागरोपमाण्यायुरनुपाल्य ततम् युती महाविदेहे सेत्स्यतीति (तृतीयमध्ययनम् । चतुर्थे कृष्णकुमारात्मजश्चतुषर्षव्रतपयायः माहेन्द्रकल्पे देवो भूत्वा सप्त सागरोपमाग्यायुरनुपाल्य ततभ्युतो महाविदेहे सेत्स्यतीति) चतुर्थमध्ययनम् ४ । अनुक्रम . मूलसूत्र-४,५ ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [4] “कल्पवतंसिका” - उपांगसूत्र- ९ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [-] मूलं [५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [२०], उपांग सूत्र [०९] "कल्पवतंसिका" मूलं एवं चन्द्रसूरि - विरचिता वृत्तिः Educato पंचमओ बंभलोए, छट्ठो तर, सत्तमओ महामुके, अमओ सहस्सारे, नवमओ पाणते, दसमओ अच्चुए। सवत्थ उकोसठिई भाणिया, महाविदेहे सिद्धे ॥ १० ॥ कपर डिसियाओ संमताओ । वितितो वग्गो दस अज्झयणा ॥ २ ॥ ॥ बीओ वग्गो सम्मत्तो ॥ पञ्चमः कृष्णसत्पुत्रो वर्षचतुष्टयं व्रतपर्यायं परिपाल्य ब्रह्मलोके पञ्चमकल्पे दश सागरानुत्कृष्टमायुरनुपाल्य ततश्युती महाविदेहे सेत्स्यतीति पञ्चममध्ययनम् ५ पट्टाध्ययने महाकृष्णसत्कपुत्रस्य वक्तव्यता, सप्तमे वीरकृष्णसत्कपुत्रस्य, अष्टमे रामकृष्णसत्पुत्रस्य वकव्यता । तत्र प्रयोऽप्येते वर्षत्रयव्रतपर्यायपरिपालनपरा अभूवन् । एवं च महाकृष्णाङ्गजो पर्यायालान्तककल्पे षष्ठे उत्पद्य चतुर्दशसागरोपमाण्युत्कृष्ट स्थि तिकमायुरनुपात्य ततश्युत महाविदेहे सेत्स्यतीति षष्ठमध्ययनम् ६ । चीरकृष्णाङ्गजः सप्तमः वर्षत्रयं व्रतपर्यायं परिपाल्य महाशुके सप्तमे कल्पे समुत्पद्य सप्तदश सागराव्यायुरनुपात्य ततयुतो विदेहे सेत्स्यतीति सप्तममध्ययनम् ७ रामकृष्णाङ्गजोऽथमो वर्षत्रयं व्रतपर्यायं परिपाल्य सहस्रारेऽष्टमे कल्पेऽष्टादश सागराण्यायुरनुपाल्य ततश्युतो विदेहे सेत्स्यतीति अष्टममध्ययनम् ८। पितृसेनकृष्णाङ्गजो नथमो वर्षेद्वयत्रतपर्यायपरिपालनं कृत्वा प्राणतदेवलोके दशमे उत्पद्य एकोनविंशति सागरोपमाण्यायुरनुपालय ततयुक्ता विदेहे सेत्स्यतीति नवममध्ययनम् ९ । महासेनकृष्णाङ्गजश्च दशमो वर्षद्रयव्रतपर्यायपालनपरोऽनशनादिविधिनाऽच्युते द्वादशे देवलोके समुत्पथ द्वाविंशतिसागरोपमाण्यायुरनुपात्य ततश्युतो महाविदेहे सेत्स्यतीति दशममध्ययनम् १० । इत्येवं कल्पावतंसकदेवप्रतिबद्धग्रन्थपद्धतिः कल्पावतंसिकेत्युच्यते । ता पताः परिसमाप्ताः द्वितीयवर्गश्च २ ॥ For Parts Use Only मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुनः संपादित: (आगमसूत्र २०) "कल्पवतंसिका" परिसमाप्तः ~7~ 003-46748043-1699900*149450 45 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः / 20 पूज्य अन्योगाचार्य श्रीदानविजयजी गणि संशोधित: संपादितश्च “कल्पवतंसिका-उपाङ्गसूत्र” [मूलं एवं चन्द्रसूरि-विरचिता वृत्तिः]। (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "कल्पवतंसिका” मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~8~