________________ // 16 // | अम्बडस्तद्गृहे यातस्तावत्ते तस्य योगिनः / कागी नागी कलत्रे द्वे तमायातं जजल्पतुः // 16 // अम्बड| हे अम्बड ! समेहि त्वमस्मदीया स्वसा च या। तस्या गोरखयोगिन्याः कुशल वर्त्तते सदा // 1 // / / द्वितीय चरित्रम् आदेशः | तेनोक्तं सुखिनी सा स्यात् भव्यभावात्ततस्तया। भोजनं कारितः सोऽपि रसवत्या विशेषतः॥१८॥ | | मुग्धत्वादम्बडो यावद्भुक्त्वा तत्र समुत्थितः / तावता कुर्कुटो जातो भ्राम्यतीतस्ततोऽङ्गणे // 11 // / | भूत्वा मार्जाररूपेण ते दे भापयतो मुहुः। इत्थं खेदयतो नित्यं ताभ्यां विडम्बितोऽम्बडः // 20 // एवं कदर्यमानं तं दृष्ट्वा योगी जगौ हसन् / पचारयन् त्वयान्धारी ग्रहीता कुर्कुटाम्बड ! // 21 // / वचःशस्त्रेण तेषां स पीड्यते सर्वदाऽन्यदा। योगिना कथितं कान्ते ! वराकः क्वापि मुच्यताम् // 22 // | ताभ्यां मार्जाररूपेण दन्तैर्नीत्वा ततो वने। कम्पमानः क्वचिन्मुक्तः स्वार्थं कृत्वा च ते गते // 23 // हसन्ति योगियोगिन्यौ नायाति पुनरम्बडः। अन्धारिके ! सुखं तिष्ठ सोऽपि भव्यो विगोपितः॥२४॥ | कुर्कुटः कालवदनः कालं नयति कानने / अशक्तः सोऽपि किं कुर्या-जीवन भद्राणि पश्यति // 25 // यतः-अशक्तः कुरुते कोपं निर्धनो मानमिच्छति / अगुणी च गुणद्वेषो पृथिव्यां लकुटत्रयम् // 26 // | // 16 //