________________ // 279 // युद्धे जाते | जरासन्ध प्रेरणया समुद्रविज यस्योस्थानम् | // 58 // वृणीते तौयिक कन्या निर्विवेकतया यदि / वार्या पित्रा तथाप्येषा पाल्ये तस्य वशे यतः॥५९॥ क्रोधबोधारुणैर्नेत्रै रुधि| रोरुधिरोदयम् / द्विपामभिमुखं तन्वन्निव प्रोचे प्रियंवदः॥६०॥ राजन्नलं विचार्यैतत् कन्यानां हि खयंवरः / स्वेच्छार्थ विहितस्तेन न | चय॑स्तवृतो वरः // 61 // ऊचेऽथ विदुरो नीतिविदुरो युक्तमात्थ भोः / कुलादिकं तथाप्येष प्रष्टुं ते युज्यते वरः॥६२॥ अकुलीनं कुलीना हि कन्यका वृण्वती वरम् / स्वयंवरेऽपि वायैव त्रातुं वर्णस्थितिं नृपैः // 63 // पटुः पाटहिकोऽवादीनीचो वा यदिवोत्तमः। घृतोऽहं कन्यया तद्वः कुलप्रश्नोऽधुना वृथा // 64 // हठेन हर्ता मे योऽमूं शेषस्येव फणामणिम् / तेजःस्फूत्यैव तस्याहमाख्यास्याम्यात्मनः कुलम् // 65 // श्रुत्वेति विपरीताधवर्णयुग्मा निजाभिधाम् / कतु क्रोधाजरासन्धस्त्रिखण्डभरताधिपः॥६६॥ इत्यादिक्ष पान् सर्वान् समुद्रविजयादिकान् / हत विप्लावको राज्ञां द्रुतं रुधिरतौयिकौ // 67 / / नीचेनापि मयाऽत्यूच्चभूभृतपुत्रीयमाप्यत / | एतावतापि दन्धिोऽस्मानप्याक्षिपतीह यत् // 68 // तद् घात्यस्तौयिकोऽवश्यं तथाऽयं पक्षपातकृत / रुधिरः श्वशुरोऽप्यस्यापराधीति विचार्यताम् // 69 // यु०॥ इति स्वखामिनादिष्टाः समुद्रविजयादयः। युद्धाय समनह्यन्त न ह्यन्तर्द्धिर्महात्मनाम् // 7 // सन्नद्धोऽथ |स्वसैन्येन रुधिरो युधि रोपभृत् / शौरेः पुरोभवद् यो मुद्यतस्यारिपार्थिवैः // 71 // सारथीभूय सौंडीयॊ दविदेधिमुखस्तदा। खेच* रेन्द्रो रणे शुरं रथे शौरि न्यवीविशत् / / 72 // वेगाद्वेगवतीमात्राऽङ्गारवत्योपनिन्यिरे / दिव्यकोदण्डतूणानि तस्य शत्रून् जिघांसतः || // 73 // जरासन्धस्य भूपालै रुधिरं युधि रंहसा / भग्नं वीक्ष्य रथं शौरिः खेचरेण स्वमैरयत् // 84 // अजैषीदुत्थितं पूर्व शौरिः शत्रु अयं नृपम् / दतिवर्क दन्तवक्र शल्यं चाशु बभज सः॥७५॥ दुन्दुं स्वसैन्यपाथोधिकुम्भसंभवसन्निभम् / वीक्ष्य बिभ्रजरासन्धं कम्पं नाम्न इवोद्गतम् // 76 // समुद्रविजयं प्रोचे नायं तौर्थिकमात्रया। किन्तु शौर्यादसाध्योऽन्यै राजन्यैर्वीरशेखरः // 77 // यु०॥ तदुत्थाय // 279 //