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करीने नीकलीया । शूर वीर धीर गुण कादरीया । में रोकी कही मनकी चरीया ॥ सुणा ॥ ९ ॥ क्षिती प्रतिष्ट पुर पति बाइ । रुप गुणे घणी शोभाइ । माता ए धर्म विद्या पढाइ निरूपम योवने दीपाइ ॥ सुण ॥ १० ॥ धर्म चरचा राजा से करी । निरुतर राय क्रोधे।
भरी । कुष्टी दुमक ने करे धरी । पण तिण अंगिकार तस नहीं करी ॥ सुण ॥ ११ ॥ । दोनों ग्राम वाहीर इण वारी । यक्षना देवल मझारी । कुँवरी रही छे अति दुःख पारी
तुम नर मोटा उपकारी ॥ सुण ॥ १२ ॥ धर्मात्म ने सुखी कीजे । डूबती कन्या में उवा
रीजे । जोडी जुगती जग याइ जे । दोनो धर्मात्म सुख भोगी जे ॥ सुण ॥ १३ ॥ ही । मोटो राज देस्यूं तुम ताइ । वली ऋद्धि सिद्धी जे चह इ । सदा रहस्यूं हुकम माइ इम वह पर कुँवरने मनाइ ॥ सुण ॥ १४ ॥ तुझ कारण उठा इहां लाइ । तू निरखी ले नख शिख बाइ । वली पूछीले जे मन मांइ । पती ऐसा जग में नहीं पाई ॥ सुण ॥ ॥ १५ ॥ छोडी दे इण कोडिया भिख्यारी ने । मत जन्म डूबावे वोरी में । स्वर्ग सम सुखाचा, पाणी भोग ए धारी ने । तूं ले निज हित विचारी ने ॥ सुण ॥ १६ ॥ इम बहु विध मंदिरात न समजाइ । पण सती ने मन ए नही भाइ ॥ ढाल आठमी ऋषि अमोलख गाइ ॥ देखो। पतिवृता नी द्रढ ताइ ॥ सुण ॥ १७॥ ७॥ दुहा ॥ सुरी बचन सती सांभली। खिन्न हुआ