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________________ जि० सु० ॥ २१ ॥ * ॥ दुहा ॥ तिण नगरी माहे वसे । महा लोभी श्रीपाल ॥ अकृत्य कर धन खण्ड २ सचीयो। वार, कोटी माल ॥ १॥ लुख तुच्छ भोजन करी । काठा जीर्ण वस्त्र पहेर ॥ । महा कष्टे काल निर्गमे । एकदा चिन्ते ए पेर ॥ २ ॥ कष्टे धन में भेलो कियो । मुज माँ खासी और ॥ दूजा लेवा पावे नहीं । इम रखू कोइ टोर ॥ ३ ॥ वनमें वट वृक्षके तले । गाड्यो ऊंडो धन जाय ॥ आयु खुटे अशुर भयो । अकाम निर्जरा पसाय ॥४॥ भागी आयो धन जिहां । देखी पायो सुख ॥ हिरे फिरे तिहां रहे । सुख तज सुखे सहे || दुःख ॥ ५॥ ॥ ढाल ७ सातमी ॥ न्यालदे की देशीमें ॥ एक दिन असुर ने लक्ष्मी जी कांइ । चाल्या जाय आकाश ॥ देखी घर धन दत्त को जी २ काइ । अशर करे प्रकाशा ॥ १॥ लक्ष्मी को चावे सहू जी ॥ ७ ॥ लक्ष्मी को चहावे सह जी कांद। |चाहावे तिहां नहीं जाय ॥ अण चहाइ जगा विषेजी २ काइ । पडे छे तूं किम आय / २३ ॥ लक्ष्मी ॥ २॥ इण घर थारी परभा नहीं जी कांइ । ठेले ठोकर मांय ॥ पानी की परे .. | वावरेजी । किम तुज इहां रहाय ॥ लक्ष्मी ॥३॥ कमलो कहे इण घरे विषेजी काइ । १ लक्ष्मी संप कुटुम्ब में सवाय । तेह देखी इहां रहीजी२ काइ। ते तुज देवू बताय॥ लक्ष्मी॥४॥अर्ध । | निशा ढालतांथ काजी काइ। सुरीआइ सेठ पास।पूछे सूता के जागो अछो जीरकांइ। सेठ दे उ
SR No.600300
Book TitleJindas Suguni Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherNavalmalji Surajmalji Dhoka
Publication Year1911
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size12 MB
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