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________________ प्रमाणथी। धर्म फलतास बतावे जी । अंतरायका जोगसे । दाय तास नहीं आवे जी ॥ धर्मी ॥ ३ ॥ जिम वर्षाद बर्ष्या थकां । जवाशो सूख जावेजी । तिम उपदेशे षट सठते । आर्त मनमें लावेजी ॥ धर्म ॥ ४ ॥ पयपान भूजंगन । विष रुप प्रगमावेजी ॥ तिम छेउ धर्म उपदेशसे । उलटोइ श्रधावेजी ॥ धर्मी ॥ ५॥ धर्म से दुःख प्रत्यक्षहै । दानदि । या धन जावेजी । तपसे तन दुर्बल हुवे । सीले संतान नथावेजी ॥ धर्मी ॥ ६ ॥ जबथीअपणाघर विषे । नानी बहुअर आइजी। तबथी सुख गयो घर तणो। मूंढे छींकी बन्धइजी॥ धर्म ॥ ७॥ जिनदास कहे नरमाइने । पूर्वे दानज दीधाजी । तेहथी इहां संपत लही । | कोइ बांधी नहीं लाया सीधा ॥ धर्मी ॥ ८॥ विभचारे कुल वृद्धा होवे । तो वैस्या बां. | | दी लाजाइजी ॥ निरोगो तपथी तन रहे । इम धर्म तणाफल हाइजी ॥ धर्मी ॥ ९ ॥ उत्तम वस्तुके वासणें । मूढा सघला बान्धेजी ॥ अज्ञाने उलटो श्रद्धता। ज्ञानी आत्म अर्थ |N साधेजी ॥ धर्मी ॥ १० ॥ जवाबनहीं आया थकां । चीड्या तीनों भाइजी ॥ कहे तूं। माल्यो लुगाइ को । बुढ्ढा बुढ्ढीमें बुद्ध नाहीं जी॥ धर्मी ॥११॥ इम अयोग्य बचन सुणी। जिनदास सुगुणी विचारेजी ॥ भारी का जीवए। उपदेश किणविध धारेजी॥धर्मी॥१२॥ जिनागमें जिनवर कह्यो । कर्म स्थिती हीण थावेजी। क्रोडसागर पर्म कम रहै। तब ।
SR No.600300
Book TitleJindas Suguni Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherNavalmalji Surajmalji Dhoka
Publication Year1911
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size12 MB
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