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________________ जी०सु० खण्ड मारगे। आवे तिहां उभारेह ॥ धर्मचंद मुनी दरशने । नित्या जावे सस्नेह ॥ ४ ॥ उत ५ रासण मुखढांक के। पन्ही छोड तिण ठाय ॥ जिनदास इम देखके। अश्चर्य अधिको लाये || ॥ ५॥ ॥ ढाल४ चैाथी ॥ कपूर होवे अति उजलारे ॥ यह० ॥ एकदा पूछे धर्मचंदने जी। जिनदास धर प्रेम ॥ मित्र रोज मुख ढांकनेजी । इण घरे जावो केम ॥ भविक जन । सत्संगत सुखदाय ॥ सत्संग मोटो धनकडोजी। दोनों भवे सोभाय ॥ भविक०॥ आंकडी ॥१॥ श्रीपतसुत कहे हमतणाजी धर्म गुरु इण स्थान॥ दर्शणे भव२ दुःख हरेजी। महा पुण्यथी मिले यह ज्ञान ॥०॥ २॥ जिनदास कहे मंत्री थइ जी । करो एतो उप५ कार॥ मुज देखाडो गुरु भणीजी। कहो तो चालू लार ॥भ०॥३॥ धर्मचंद कहे मुनी । स्थानकेजी । इच्छा होवे ते आय ॥अटकाव नहीं इहां किण तणोजी। तुम पुण्य प्रगटया भाय॥भ०॥ ४ ॥ दोनो आया मुनी वर कनेजी । धर्मचन्द विधीसे वयाय । जिनदास देखी Ni जिम करीजी । वंदण अधिक उमाय ॥भ० ॥ ५॥ विचक्षण बुद्वीवंत गुणनिधिजी। लक्षण | व्यंजन श्रेष्ट। पुण्यवंत जाणी धर्मचंदथीजी। प्रछे मनीवर जेष्ट भ०॥६॥एकूण छ भाइ तुम NI संगजी तेक साहन शाहा कुनार|जिनदास नामछ एहना जि ।घरमेहे मिथ्याचार ॥भ०॥७॥ 1Yपुण्य प्रगटया आज इणतणाजी । आप दरसण पायाआज ॥नाम गुण कर्म देखी करीजी। ५
SR No.600300
Book TitleJindas Suguni Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherNavalmalji Surajmalji Dhoka
Publication Year1911
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size12 MB
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