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-२८.(नमोऽहत्....)ॐ दिव्यस्रजो जिन! नमत्रिदशाधिपाना-मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान्। ॥२७॥ * पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र, त्वत्संगमे सुमनसो न रमन्त एव ॥२८॥ स्वाहा મન્દિર ૪ ભાવાર્થ - પ્રભુ દેવેન્દ્રો દ્વારા “ધ છે – તે જિનેશ્વર ! તમને નમસ્કાર કરતાં કેન્દ્રોની દિવ્ય પુષ્પની માળાઓ
વિહરત્નાદિકથી રચેલા મુગુટને પણ ત્યાગ કરી તમારા ચરણોજ આશ્રય કરે છે. તે એગ્ય જ છે કેમકે તમારે
સંગમ થવાથી સુમનસ-પંડિતે છે અને પુણે અન્યત્ર રમતાજ નથી. શ્રી માણિકય મુનિ વૃત્તિમાં લખે છે કે* हे जिन ! त्वत्सङ्गमे सति सुमनसो-देवाः सुहृदयाशजनाः अपरत्र न एव । सुमनसः पुष्पाण्यपि उच्यन्ते ॥
भावार्थ - प्रभु देवेन्द्रों द्वारा बंद्य हैं-यह विशय बताते है- हे जिनेश्वर । मापको नमस्कार करते हुए देवेन्द्रों की दिव्य पुष्प की * मालाए बैडूर्य रत्नादि से रचित मुकुटों का भी त्याग करके आपके चरणां का ही आश्रय ग्रहण करती है - जो उपयुक्त ही हैं; क्यो कि मापका संगम होने से सुमनस अर्थात् पंडित और देव अन्यत्र रमण करते ही नहीं । पुष्प भी सुमनस कहलाते है अतः
उन्हें भी आपके चरण का माश्रय उपयुक्त ही है ॥ (२८) - ॐ ही अरिहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय - साहू चुलु चुलु हुलु हुलु कुलु कुलु मुलु मुलु इच्छियं मे कुरु कुरु स्वाहा । ४४ ४ ॥ ॐ ही * पुष्पमालानिषेवित - चरणाम्बुजाय अर्हते नमः । २१४६॥ ॥ *दि - ॐ ही अर्ह णमो. * उववजणाए । १२ ॥ - ॐ ही" श्री ही कौ वषट् स्वाहा । • Raat - ॐ....परम....अवन्ति.... पाना २२3 1 4- ansa ( 410 ) MEAN on m५.
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