SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ યાણુ મદિર भा - ભાવાર્થ – ફરી ધ્યાનનું માહાત્મ - હે જિનેશ્વર દેવ ! સંસાર સમુદ્રથી પાર ઉતરતા એવા ભવ્ય પ્રાપ આપને *॥२३॥ પિતાના હૃદયમાં વહન - ધારણ કરે છે તે પછી તમે ભવ્ય પ્રાણીગાને તારનાર કહેવામાં છે તે કેવી રીતે? તે કહે છે છે કે જેવી રીતે ચામડાની અંદર રહેલા વાયુના પ્રભાવથી જ મશક તરે છે. તેવી જ રીતે ભવ્ય પ્રાણીઓ જે સંસાર સમુદ્રથી પાર ઉતરે છે. તેમાં તમારે જ પ્રભાવ છે. ૧ કનકકુશલ ગણુ વૃત્તિમાં લખે છે કે - यथा- दृतेस्तारको वायुः प्रोच्यते, तथा त्वमपि भव्य-हृदयगतोऽपि तचारणात् तारकः प्रोच्यते । * भावार्थ - प्रभु के ध्यान का महात्म्य पुनः बताते हैं - हे जिनेश्वर ! आप भव्य प्राणियों को तिराने वाले कहलाते है वह केसे ! क्यों कि उस्टे संसार समुद्र को पार करते हुए व ही आपको हृदय में बहन धारण करते है अथवा तो वह युक्त ही है क्यो कि जैसे चमडे की मशक जल में तिरती है । वह उसके अंदर रही हुई वायु का ही प्रभाव हैं। (१०) संसार समुद्र से पार उतरने के उच्छुक प्राणी भापको अपने हृदयमें धारण करते हैं वहन करते हैं इससे आप उनके तारक वैसे बन सकते हैं । क्यं कि नो बहन करने गग होता है वह वाहक कहलाता है और जो वस्तु बहन की माती हो ग बास पहनती है अर्थात् को वाहन है यह वाहक है और उसमें रहे हुए मनुष्यादि वास कहलाते हैं। इसमें वाहक जो बाहन होता है वह उसमें रहे हुए मनुष्यादि वाह्य को विराने वाला कहलाता है, उसी प्रकार यहां मी भव्य प्राणी वाहक और आप बाह्य है अतः आपको तिराने वाले भव्य प्राणी कहे ना सकते है परन्तु आप उनके तिराने वाले से लाते है ! इस प्रकार करके स्तोत्रकार स्वयं ही उसका समाधान करते हैं - जैसे चमडे की मशक में रही हुई वायु ही उस मशकविराने वाली हैं, 'उसी प्रकार प्राणियों के हृदय में बसे हुए बाप उनके तारक हैं अर्थात् मापका ध्यान करने से ही प्राणी संसार सागर से पार उस सकते है। भन्न- ॐ ही* चक्रेश्वरी चक्रधारिणी जल जलनिहि पार उतारणि जलं थंभय थंभय दृष्टान AMKARMAKAMAREKX ना
SR No.600292
Book TitleBhaktamar Kalyanmandir Mahayantra Poojan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeershekharsuri
PublisherAdinath Marudeva Veeramata Amrut Jain Pedhi
Publication Year
Total Pages322
LanguageGujarati
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy