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________________ अष्टोत्तरी व शान्तिस्नात्रादि विधि ॥७८ ॥ जिनतनु चर्चतां सकल नाकी, कहे कुग्रह उष्णता आज थाकी । सफळ अनिमेषता आज माकी, भव्यता अमतणी आज पाकी ॥३॥ - इति चन्दनपूजा ॥२॥ जगधणी पूजतां विविध फूले, सुरवरा ते गणे खीण अमूले । खंत धरी मानवा जिनप पूजे, तसतणा पापसंताप धुजे ॥४॥ - इति पुष्पपूजा ॥३॥ जिनगृहे वासतां धूप पूरे, मिच्छत्त दुर्गन्धता जाय दूरे । धूप जिम सहज ऊरध (गति) सभावे, कारका उञ्चगतिभाव पावे ॥५॥- इति धूपपूजा ॥४॥ जे जना दीपमाला प्रकाशे, तेहथी तिमिर अज्ञान नासे । निज घटे ज्ञान जोति विकासे, जेहथी जगतना भाव भासे ॥६॥ - इति दीपपूजा ॥५॥ स्वस्तिक पूरतां जिनप जागे, स्वचेतसि (स्वस्तिश्री) भद्रकल्याण जागे । जन्मजरामरणादि अशुभ भागे, नियत-शिवशर्म रहे तास आगे ॥७॥-इति स्वस्तिक पूजा ॥६॥ ढोकतां भोज्य परभाव त्यागे, भविजना निजगुण भोग्य मागे।। हम भणी हम तणुं स्वरूप भोज्यं, आपजो तातजी जगतपूज्यं ॥ - इति नैवेद्यपूजा ॥७॥ फळ भरे पूजतां जगतस्वामी, मनुजगति वेल होय सफळ पामी । सकळ मुनि ध्येयगति भेद रंगे, ध्यावतां फळ समाप्ति प्रसंगे ॥ - इति फलपूजा ॥८॥ श्री अष्टोत्तरी व शान्तिस्नानादि विधि ॥७८॥ Jain Education international For Personal & Private Use Only
SR No.600250
Book TitleVividh Pujan Sangraha
Original Sutra AuthorChampaklal C Shah, Viral C Shah
Author
PublisherAnshiben Fatehchandji Surana Parivar
Publication Year2009
Total Pages266
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size21 MB
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