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श्री अष्टोत्तरी व शान्तिस्नात्रादि विधि
॥६२॥
स्वाहा । आ मंत्र त्रण वार भणीने स्थापना करे । पछी ते बे दीप एक सधवा स्त्री पासे एक जिनबिंबना जमणे पडखे अने एक डाबे पडखे दीवी पर मूकावीए । पछी केसर छंटावी दीपपूजन करीए । दीपपात्र खसे नहिं ते माटे दीवीना चाडा साथे गेवासूत्रे बांधी स्थिर करीए । पछी वृद्ध श्रावक अन्य स्नात्रीया बेने कंकणादिक बांधे । देवद्रव्यनी वृद्धि करावे । घी भरेली वाडी हाथमां आपे । ते बे श्रावक डाबा तथा जमणा दीवा पासे ऊभा रहे । स्नात्रनी क्षणे क्षणे घी पूरता जाय । एम जे जे उपकरण श्रावकना हाथमां आपवा ते ते श्रावक पासे देवद्रव्यनी वृद्धि करावीने आपवां । इति घृतस्थापन । (११) पछी वृद्ध श्रावक भगवंतना जमणे पासे पाटला उपर बेसी, कोठी धोई, धूपी कोठी बीजा श्रावक पासे रखावे । पछी तेमां वृद्ध श्रावक सुखड-केसरनो साथियो करे । ते उपर ॐ ह्रीं श्रीं सर्वोपद्रवान् नाशय नाशय स्वाहा । ए मंत्र लखे। (१२) पछी सुगंध जळ, पुष्प, चंदनथी अधिवासित रूपानाणुं अथवा पंचरत्ननी पोटली नीचेना मंत्रथी मंत्रेला वास वडे पूजीने माटलीमां मूकवी।
मन्त्र :- ॐ ह्रौं नानारत्नौघसंयुतं सुगंधिपुष्पाधिवासितं नीरम् । पतताद्विचित्रवर्णं, मन्त्राढ्यं स्थापनाबिम्बे ॥१॥ स्वाहा । (१३) पछी कोठी अथवा पछेडीनी ईंढोणी
श्री अष्टोत्तरी व शान्तिस्नानादि विधि
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