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धनTo
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|रे ॥ १६ ॥ पुरजन प्रते पोखे रे, नृपने संतोखे रे ॥ कोई बुद्धि विशेषे रे, सुपरे जाग्यथी रे ॥ १७ ॥ यतः ॥ मालिनीवृत्तम् ॥ नरपति हितकर्त्ता द्वेषतांयाति लोके, जनपद हितकर्त्ता त्यज्यते पार्थिवेन ॥ इति महति विरोधे वर्त्तमाने समाने, नृपति जनपदानां दुर्जनः कार्य| कर्त्ता ॥ १ ॥ जावार्थ:- राजानुं सारुं करनार माणसना उपर लोको द्वेष राखे बे, देशनुं सा रुं करनार पुरुष, राजावने त्याग कराय बे; एवो महोटो ने सरखो विरोध वर्त्तते ते, राजानुं अने देशनुं जलुं करनार तो उर्लनज मली आवे बे. ॥ १ ॥ नृप दत्त आवासे रे, र| देतां सुखवासे रे ॥ जुए मनने उल्लासे रे, पुर शोना जली रे ॥ १८ ॥ कल्पद्रुम रासे रे, जिन कहे सुविलासे रे || एह बीजे नव्हासे रे, ढाल चोथी सदी रे ॥ १८ ॥
॥ दोहा ॥ दीवा दूरथी आवतां, १पांशु विलिप्त शरीर ॥ मलिन वसन शत खं तस, मात पिता तिम वीर ॥ १ ॥ कांति दिए कुत्सितपणे, जन जांग ग्रही हाथ ॥ दीन | खीण दीवी तिहां, जोजाई पिए साथ || २ || देखी चिंते धन्नकुमर, विस्मयश्री चित्तमांदि ॥ मात पितादिक मादरा, किम आवे ईरा गहिं ॥ ३ ॥ श६ि घणी के तस घरे, पुण्यथकी सुविलीन | ते किम संभविये इहां, एदतो दीसे दीन ॥ ४ ॥ दीसे वे तेह्र सारिखा, ते पि
१ धूल.
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