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________________ चांद्रायण तफ तपोरत्नमहोदधि ॥२०॥ PROCERedeeca HEREIDOES ततः कृष्णप्रतिपदमारभ्यकैकहानितः। अमावास्यां तदकत्वे यवमध्यं च पूर्यते ॥३॥ वज्रमध्ये कृष्णपक्षमारभ्य प्रतिपत्तिधि । कार्या पंचदशग्रासदत्तिभ्यांहानिरेकतः ॥४॥ अमावास्याश्च परतो ग्रासदत्ति विवर्धयेत् । गायत्तश्चदशैव स्युः पूर्णमास्यां मासतः ॥ ५ ॥ एवं मासद्वयेन स्यात्पूर्ण च यववज्रकम् ! चान्द्रायणं यतेर्दत्तेः संख्या ग्रामस्य गहिनाम् ॥६॥ चंद्रनु अयन एटले जर्बु ते. अर्थात हानि अने वृद्धि, तेणे करीने जे थयेलु ते चांद्रायण तप कहेवाय छे. ते वे प्रकारे छे. पहेलुं ययमध्य अने चीजें वज्रमध्य. तेमनुं स्वरूप आ प्रमाणे छे-जवनी जेम जेनो मध्यभाग स्थूळ होय अने आदि-अंत भाग हीण (पातळो) होय ते यवमध्य कहेवाय छे. तथा बननी जेम जे बच्चे सूक्ष्म (पातळो) होय अने आदि अंतमां स्थूल होय ते वज्रमध्य कहेवाय छे. अहीं स्थलता अने हीनता (सूक्ष्मता) ए करीने दत्ति तथा ग्रासनी बहुलता अने अल्पता जाणवी. पहेलै यवमध्य चांद्रायण आ प्रमाणे करवु-शुक्लपक्षनी प्रतिपदाने दिवसे एक, बीजने दिवसे चे, एम एक एक दति तथा कवळनी वृद्धि करी पूर्णिमाने दिवसे पंदर दत्ति तथा कवळ लेवा. पछी कृष्णपक्षना पडवाए पंदर, बीउने दिवसे चौद, एम एक एक दत्ति तथा कवळ ओडो करी अमावास्याए एक दति तथा कवळ लेवो. ए प्रमाणे यवमध्य चांद्रायण यति तथा श्रावकने बन्नने माटे जाणवू. वनमध्य चांद्रायण पण साधु अने श्रावक बन्नेने आ प्रमाणे जाणवू. कृष्णपक्षनी प्रतिपदथी आरंभीने पंदर ग्रास तथा दत्तिमाथी एकएक ओछो करवाथी अमावास्याने दिवसे एक एक ग्रास अने दत्ति रहे छे. पछी शुक्लपक्षना पडवाथी आरंभीने एक एक ग्रास अने दत्तिनी वृद्धि करी पूर्णिपाए पंदर ग्रास तथा दत्ति थाय छे. आ प्रमाणे वजमध्य reCRecene ॥२०॥ For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.600158
Book TitleTaporatna Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktivijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size10 MB
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